सबद - भेद : मीरा बाई : माधव हाड़ा





















डॉ. माधव हाड़ा की आलोचना पुस्तक ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ जो भक्तिकाल की कवयित्री मीरा बाई के जीवन और समाज पर आधारित है, इस वर्ष वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है.  


मीरा के जीवन को तरह तरह से पढ़ा और गढ़ा गया है. डॉ. माधव हाड़ा ने इस निर्मिति को ऐतिहासिक साक्ष्यों के आलोक में देखा-परखा है. यह ‘प्रेम दीवानी’ मीरा की छबि नहीं है. सामन्ती सत्ता संघर्ष में एक सचेत सामंत स्त्री किस तरह से असाधारण भूमिका का निर्वाह करती है. इसे यहाँ देखा जा सकता है.   

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मीरां का ज्ञात और प्रचारित जीवन गढ़ा हुआ है. गढ़ने का यह काम शताब्दियों तक निरंतर कई लोगों ने कई तरह से किया है और यह आज भी जारी है. मीरां के अपने जीवनकाल में ही यह काम शुरू हो गया था. उसके साहस और स्वेच्छाचार के इर्द-गिर्द लोक ने कई कहानियां गढ़ डाली थीं. बाद में धार्मिक आख्यानकारों ने अपने ढंग से इन कहानियों को नया रूप देकर लिपिबद्ध कर दिया. इन आरंभिक कहानियों में यथार्थ और सच्चाई के संकेत भी थे, लेकिन समय बीतने के साथ धीरे-धीरे इनकी चमक धुंधली पड़ती गई. मीरां के जीवन में प्रेम, रोमांस और रहस्य के तत्त्वों ने उपनिवेशकालीन यूरोपीय इतिहासकारों को भी आकृष्ट किया. उन्होंने उसके सम्बन्ध में प्रचारित प्रेम, रोमांस और रहस्य के तत्त्वों को कहानी का रूप देकर मनचाहा विस्तार दिया. ऐसा करने में उनके साम्राज्यवादी स्वार्थ भी थे.

आजादी के बाद मीरां के संबंध में कई नई जानकारियां सामने आईं, लेकिन कुछ उसके विवाह आदि से संबंधित कुछ नई तथ्यात्मक जानकारियां जोड़ने के अलावा उसकी पारंपरिक छवि में कोई रद्दोबदल नहीं हुआ. साहित्यिक इतिहासकारों और आलोचकों और बाद में नए प्रचार माध्यमों ने मीरां के स्त्री जीवन की कथा को पूरी तरह प्रेम, रोमांस, भक्ति और रहस्य के आख्यान में बदल दिया. उसके साहस और स्वेच्छाचार को वामपंथी और नए स्त्री विमर्शकार ले उड़े. उन्होंने इनकी मनचाही व्याख्याएं कर डालीं. मीरां पर देशी-विदेशी विद्वानों ने कई शोध कार्य किए, लेकिन सभी ने कसौटियां और मानक अपने रखे. उसके संबंध में ज्ञात बहुत कम था इसलिए लोगों के पास अपने तयशुदा मानकों के अनुरूप उसका नया रूप गढ़ने की गुंजाइश और आजादी बहुत थी. लोगों ने इसका जमकर लाभ उठाया और अपनी-अपनी अलग और कई नयी मीरांएं गढ़ डालीं. कहीं यह मीरां भक्त-संत थी, तो कहीं असाधारण विद्रोही स्त्री और कहीं रहस्य और रोमांस में डूबी प्रेम दीवानी. मीरां जीवन विरत संत-भक्त और जोगन नहीं थी, वह प्रेम दीवानी और पगली नहीं थी और वह वंचित-पीड़ित, उपेक्षित और असहाय स्त्री भी नहीं थी. वह एक आत्मसचेत, स्वावलंबी और स्वतंत्र व्यक्तितत्व वाली सामंत स्त्री थी. उसकी भक्ति, साहस और स्वेच्छाचार असामान्य नहीं थे. और वह जिस समाज में पली-बढ़ी उसमें इनके लिए पर्याप्त गुंजाइश और आजादी भी थी और कुछ हद तक इनकी स्वीकार्यता और सम्मान भी था.

मीरां के जीवन के संबंध में आधुनिक इतिहास की कसौटी पर खरी उतरनेवाली प्रामाणिक जानकारियां बहुत कम मिलती हैं. मीरां किसी सत्तारूढ़ की बेटी और पत्नी नहीं थी इसलिए मेवाड़1 से संबंधित इतिहास के पारंपरिक ख्यात, बही आदि रूपों में उसका उल्लेख नहीं के बराबर है. राजस्थान के राजपूत शासकों की स्त्रियों को भी इतिहास में दर्ज करने की परम्परा थी. सांमत स्त्रियों के अपने पारंपरिक इतिहासकार थे जिनको राणीमंगा कहा जाता था. राणीमंगा रानियों और उनकी संततियों का वत्तांत लिखते थे और अपनी आजीविका के लिए रानियों पर निर्भर थे. मेवाड़ में यह परंपरा केवल सत्तारूढ़ सामंतों की स्त्रियों को ही अपने दायरे में लेती थी इसलिए शेष राजपूत स्त्रियों का उल्लेख इसमें नहीं के बराबर है.2 मीरां का पति भोजराज अपने पिता राणा सांगा के जीवत रहते ही मर गया. इस तरह मीरां को किसी सतारूढ़ शासक की पत्नी होने का गौरव प्राप्त नहीं हुआ और वह ख्यात-बहियों में में दर्ज होने से रह गई. केवल मारवाड़3 के राणीमंगा भाट केहरदान और दाऊदान के बही में उसका नामोल्लेख मिलता है.4 मीरां का आधुनिक ढंग के इतिहास में पहला उल्लेख लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने अपने राजस्थान के विख्यात और चर्चित इतिहास एंटीक्विटीज एंड एनल्स ऑफ राजपूताना में किया. टॉड अध्यव्यवसायी था, राजस्थान से उसे लगाव था, लेकिन एक तो उसके समय में जानकारियों के स्रोत सीमित थे और दूसरे, वह यूरोपीय था. उसने अपने समय में उपलब्ध सीमित जानकारियों को आधार बनाकर अपने यूरोपीय संस्कार और रुचि के अनुसार मीरां की पवित्रात्मा और रहस्यमयी कवयित्री संत-भक्त छवि गढ़ी.5 कालांतर में इतिहास और साहित्य में मीरां की यही छवि चल निकली. बाद में इतिहासकार श्यामलदास, मुंशी देवीप्रसाद, हरिनारायण पुरोहित, ठाकुर चतुरसिंह गौरीशंकर हीराचंद ओझा और जर्मन प्राच्यविद हरमन गोएट्जे ने मीरां के जीवन से संबंधित कई नई जानकारियां जुटाईं. ये जानकारियां महत्त्वपूर्ण थीं लेकिन टॉड के कैननाइजेशन की लोकप्रियता और साहित्य और प्रचार माध्यमों में उसकी व्यापक स्वीकार्यता के कारण लोगों का ध्यान इन पर इन पर कम गया.

इन नई जानकारियों की रोशनी में मीरां की निर्मित छवि में रद्दोबदल की कोई पहल नहीं हुई. अधिकांश स्त्री और वामपंथी विमर्शकारों ने श्यामलदास, मुंशी देवीप्रसाद, हरिनारायण पुरोहित. गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि को सामंतीया दरबारीमानकर बिना जाने-समझे ही खारिज कर दिया.6 मुंशी देवीप्रसाद ने बहुत परिश्रमपूर्वक मीरां के जीवन संबंधी जानकारियां जुटाकर मीरांबाई का जीवन चरित्र7 शीर्षक से एक विनिबंध लिखा, लेकिन कम लोगों ने इसका उपयोग किया. 1956 में विख्यात जर्मन भारतविद् हरमन गोएट्जे ने इंडियन पी.ई.एन. की दिल्ली शाखा में मीरां पर एक बहुत महत्त्वपूर्ण शोधपरक व्याख्यान दिया, जो बाद में भारतीय विद्याभवन, मुम्बई से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ.8 हरमन गोएट्जे ने ऐतिहासिक-पारिस्थितिक साक्ष्यों के आधार पर मीरां की पारंपरिक छवि से भिन्न नयी छवि गढ़ी, लेकिन यह व्याख्यान बहुत कम लोगों का ध्यान खींच पाया. हरमन गोएट्जे ने यूरोपीय इतिहासकारों पर निर्भरता और दरबारी इतिहासकारों के पक्षपातपूर्ण होने के अपने पूर्वाग्रह के कारण कुछ बहुत आधारहीन निष्कर्ष निकाल लिए. मीरां के जीवन और कविता के संबंध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शोध कार्य विख्यात प्राच्यविद हरिनाराण पुरोहित ने मीरां के पितृपक्ष के वंशज और इतिहासकार ठाकुर चतुरसिंह के सहयेाग से किया.9 उन्होंने मीरां के संबंध में जो जानकारियां जुटाईं वो कमोबेश प्रामाणिक थीं लेकिन ये नए स्त्रीविमर्शकारी और वामपंथी समालोचकों की तयशुदा धारणाओं के अनुकुल नहीं थीं इसलिए दरकिनार कर दी गईं.

पारंपरिक इतिहास रूपों में तो मीरां नहीं थी, लेकिन धार्मिक चरित्र-आख्यानों में वह कमोबेश सभी जगह थीं और खास बात यह है कि इनमें उसको जगह उसके जीवन के सौ-पचास साल बाद ही मिल गई. नाभादास के भक्तमाल में संक्षिप्त उल्लेख के बाद लगभग सभी भक्तभालों में उसका उल्लेख मिलता है. नाभादास के शिष्य प्रियादास ने भक्तमाल की अपनी भक्तिरस बोधिनी टीका में अपने समय में लोक मे प्रचलित मीरां संबंधी लगभग सभी जानकारियों और जनश्रुतियों का उपयोग विस्तार से किया है.10 संत-भक्तों की परचियां लिखने वाले सुखशारण की एक स्वतंत्र मीरांबाई की परची भी है.11 मीरां का उल्लेख भविष्यपुराण में भी आता है.12 भक्तमालों और परची में मीरां का वर्णन एक अतिमानवीय चमत्कारी स्त्री संत-भक्त के रूप में है. इनमें आधार मीरां संबंधी जनश्रुतियां हैं, जो मीरां के अतिमानवीय संत-भक्त रूप की पुष्टि के लिए लोक और भक्तों द्वारा गढ़ी गई हैं.

इतिहास में उल्लेख नहीं होने के कारण यही जनश्रुतियां मीरां को जानने-समझने का आधार हैं. विडंबना यह है कि इन जनश्रुतियों को अभी ठीक से पढ़ा नहीं गया है. मीरां को समझने-समझाने वाले लोगों ने या तो इनको पूरी तरह सच मान लिया गया है या फिर झूठ मानकर पूरी तरह दरकिनार कर दिया है. जनश्रुतियां मिथ्या नहीं होतीं-ये समाज की सांस्कृतिक भाषा है. इस भाषा का अपना अलग व्याकरण और व्यवस्था है. किसी समाज को समझने के लिए के लिए इस व्यवस्था और व्याकरण की सम्यक समझ जरूरी है. गत सदी के पूर्वाद्ध में हमारे यहां यूरोपीय ढंग का आधुनिक होने की इतनी जल्दी और हड़बड़ी थी कि हमने अपने समाज की अधिसंख्य जनश्रुतियों को युक्ति और तर्क की कसौटी पर कस कर खारिज कर दिया. मीरां को समझने के लिए भी उससे संबंधित जनश्रुतियों का पुनर्पाठ और विश्लेषण जरूरी है. इन जनश्रुतियों में मीरां के संघर्ष, दुख और खास किस्म की भक्ति के सभी संकेत विद्यमान हैं. खास तौर पर मीरां की जीवन यात्रा की कड़ियों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए उनकी सहायता बहुत जरूरी है. उसके जीवन के कुछ अंधकारपूर्ण हिस्सों की पुनर्रचना केवल तत्कालीन ज्ञात ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जनश्रुतियों के सटीक के समायोजन से ही हो सकती है. गुजरात और गुजरात के बाद के मीरां के उत्तर जीवन से संबंधित जानकारियों का स्रोत केवल जनश्रुतियां हैं.

मीरां के जीवन के संबंध में ज्ञात और प्रचारित अधिकांश जानकारियों का स्रोत उसकी कविता है. मीरां की कविता के संबंध में खास बात यह है कि उसका मूल रूप तय नहीं हैं. मीरां की कविता के कई संस्करण और कई पाठ हैं. यह कई भाषाओं में है. मीरां की कविता को लोक ने सदियों तक बरता और इसे अपनी जरूरतों के हिसाब से बदला और बढ़ाया. मीरां की मूल रचनाओं की खोज और निर्धारण के एकाधिक प्रयास हुए. हरिनारायण पुराहित ने मीरां की मूल रचनाओं की खोज और पहचान के लिए आजीवन श्रम किया. उन्होंने इसके लिए कुछ कसौटियां भी बनाईं. लेकिन इस कार्य को अंतिम रूप देने से पूर्व ही उनका निधन हो गया. उनकी चयनित और संपादित ये रचनाएं बाद में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान से प्रकाशित हुईं.13 मीरां के उपलब्ध पाठों के अलावा मीरां के नाम से लोक द्वारा गढे गए हरजस भी हैं, जिसमें उसके जीवन संबंधी कई संकेत मोजूद हैं.14 यह सही है कि मीरां की कविता और हरजसों के अंदर मौजूद उसके जीवन संबंधी जानकारियां आधुनिक इतिहास के अर्थ में प्रामाणिक नहीं हैं. इनको तथ्य या साक्ष्य की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, लेकिन ये पूरी तरह झूठ भी नहीं है. लोक तथ्यों को बदलता-बिगाड़ता जरूर है, लेकिन जब तक कोई सच्चाई नहीं हो, वह अपनी तरफ से तथ्य गढ़ता नहीं है. घटनाओं और व्यक्तियों की जानकारियां सदियों तक लोक में नदी के पत्थरों की तरह बहती-लुढकती रहती हैं. उनका रूप बदलता लेकिन उनमें उनके मूल का कोई-न-कोई अंश जरूर रहता है.  मीरां की कविता को सदियों तक लोक ने अपनी जरूरतों के हिसाब से इस्तेमाल किया. लोक ने उसको घटाया-बढ़ाया और नया बनाया, लेकिन उसके इस रूप में उसका मूल भी मौजूद है. इन कविताओं और हरजसों में मौजूद मीरां के जीवन संबंधी जानकारियां अक्षरशः सही नहीं है लेकिन ये पूरी तरह मिथ्या भी नहीं है. इन संकेतों को इतिहास के उपलब्ध तथ्यों की सहवर्तिता में समझा जाए तो ये अपने असल रूप में सामने आ जाते हैं.

मीरां के अब तक प्रचारित जीवन के संबंध में खास बात यह है कि यह अधिकांशतः किसी खास प्रकार के नजरिये को सही ठहराने के लिए गढ़ा और बुना गया है. इन नजरियों के अपने नाप-जोख और सांचे-खांचे हैं. इनकी जरूरतों के हिसाब से मीरां के जीवन से संबंधित जानकारियों में से या तो केवल कुछ चुनकर शेष दरकिनार कर दी गई हैं या कुछ नई गढ़ ली गई हैं. मीरां की प्रचारित भक्त और कवि छवि गढने वालों के पास शास्त्र में भक्ति और कविता के नाप-जोख और सांचे थे. मीरां की कविता इतनी विविध, सामवेशी और लचीली है कि उनको उसमें जैसा वे चाहते थे सब मिल गया. उन्होंने जब उसको सगुण कहना चाहा तो उनको उसमें सगुण के लक्षण मिल गए और जब वे जब शास्त्र के तयशुदा नाप-जोख लेकर माधुर्य खोजने निकले तो उनको उसमें माधुर्य के लक्षण मिल गए. यही नहीं, निगुर्ण खोजने वालों को भी मीरां ने निराश नहीं किया. बारीकी से खोजबीन करने वालों ने उसमें योग की गूढ़ और रूढ़ शब्दावली भी ढूंढ निकाली. कविता के शास्त्र विश्वासी लोगों के अपने सांचों-खांचों में भी मीरां की कविता की काटपीट खूब हुई.

मीरां की कविता ने किसी को निराश नहीं किया. जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन वैसी, सबको अपने विचारों और भावनाओं के अनुसार मीरां की कविता में कुछ न कुछ मिल गया. किसी ने इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया कि मीरां की भक्ति और कविता ली और दी गई नहीं, कमाई गई हैं. यह लोक के बीच, उसकी उठापटक और उजास में अर्जित की गई है इसीलिए यह किसी परंपरा, संप्रदाय और शास्त्र के सांचे-खांचे में नहीं है और एकदम अलग और नयी हैं.

मीरां की हाशिए की असाधारण स्त्री छवि गढने वाले विमर्शकारों की अपेक्षाएं अलग थीं. उनकी कसौटी पर खरा उतरने के लिए जरूरी था कि मीरां वंचित-उत्पीडित, दीन-हीन और असहाय हो और साथ में उसका समाज ठहरा हुआ हो. उन्होंने मीरां की कविता से चुन-चुन कर ऐसे अंश निकाले जो उनकी इन जरूरतों को पूरा करते हैं. उन्होंने इनके आधार पर मीरां को प्रताड़ित, हीन-दीन और असहाय स्त्री ठहरा दिया. उन्होंने खींच-खांचकर मीरां की नाराजगी और असंतोष को पितृसत्ता से उसकी असहमति बना दिया.15 मीरां को स्वेच्छाचार का साहस और जगह की उसके समाज ने दी. इसी समाज ने मीरां की स्मृतियों को सदियों तक संजोए रखा. लेकिन कुछ अतिरिक्त उत्साही वामपंथियों और अधिकांश नए स्त्रीविमर्शकारों ने इस समाज को ठहरा हुआ और गत्यावरुद्ध मान लिया. मीरां एक सामंत की विधवा थी, उसकी हैसियत एक जागीरदार की थी और उसके पास आर्थिक स्वावलंबन के साधन थे. वह संपन्न थी और इतनी संपन्न थीं कि साधु-संतों को आतिथ्य सत्कार में मुहरे देती थीं.

वल्लभ संप्रदाय के प्रामाणिक माने जाने वाले वार्ता ग्रंथों में इसके साक्ष्य हैं.16 मीरां पर आजीवन शोध करने वाले हरिनारायण पुरोहित के अनुसार उसने कभी भगवा नहीं पहने.17 उसके पितृपक्ष के एक वंशज और इतिहासकार गोपालसिंह मेड़तिया के अनुसार यह कहना गलत है कि मीरांबाई हाथ में वीणा लेकर जगह-जगह घूमती थी. उन्होंने एक जगह लिखा है कि “महाराणा संग्रामसिंह जी ने अपनी युवराज पुत्रवधू को पुर और मांडल के परगने हाथ खर्च के लिए प्रदान किए थे. इसके अतिरिक्त परम प्रतापी संग्रामसिंह जी की पुत्रवधू होने के नाते धन, रत्न भूषणादि उसके पास भारी मात्रा में रहे होंगे. उसी संचित द्रव्य से और उक्त परगनों की आय से भगवती मीरांदेवी दान-पुण्य साधु सेवा, अतिथि सत्कार, राजसेवक, दासदासियों का वेतन और तीर्थ यात्रा किया करती थी. जब कभी वह तीर्थ यात्रा पर जाती थी, हाथी-घोड़े, रथ आदि वाहन तथा अनेक राजसेवक, दास-दासिया उनके साथ चलते थे. मेड़ता नरेश की राजकुमारी और चित्तौड़ भूपाल की ज्येष्ठ पुत्रवधू के अनुरूप वह समस्त राजोचित वैभव रखती थी. यह दूसरी बात है कि उन्हे पूर्ण ज्ञान के साथ वैराग्य प्राप्त हुआ था और वह ईश्वर और जीव मात्र की एकता को अभेद दृष्टि से देखती थी. इसीलिए परोपकारादि कार्यों पर अन्य महारानियों की अपेक्षा अधिक दान-पुण्य करती थीं; साधु-महात्माओं से सत्योपदेश सुनती-सुनाती थी; प्रसिद्ध संत-महात्माओं से शास्त्रार्थ भी किया करती थी.”18 मीरां को कुछ हद तक जीवन की भी स्वतंत्रता थी. आवागमन की स्वतंत्रता और सुविधा के कारण ही वह पुष्कर, द्वारिका, वृंदावन आदि स्थानों पर गई. विडंबना यह है कि अपनी तयशुदा धारणाओं के प्रतिकूल होने के कारण इन तथ्यों को इन विमर्शकारों ने अनदेखा कर दिया.

मीरां के साथ अन्याय और उसके उत्पीड़न की प्रचारित कहानियां में भी सच्चाई कम है. मीरां का बाल्यकालीन और वैवाहिक जीवन सुखी था. अपनी कविता में मीरां ने सास और ननद की निंदा की है लेकिन उसने अपने ससुर और पति की सराहना की है. यह सही है कि मीरां के साथ अन्याय हुआ और उसको यंत्रणाएं भी दी गईं लेकिन यह केवल उसके देवर रत्नसिंह (1528-1531 ई.) और विक्रमादित्य (1531-1536 ई.) के अल्पकालीन शासनकाल में हुआ. रत्नसिंह अपनी मां धनाबाई के साथ सत्ता हथियाने में षडयंत्रकारी था, जबकि विक्रमादित्य पारंपरिक इतिहास रूपों और लोक में एक मूर्ख, छिछोर और घमंडी शासक के रूप में कुख्यात है. विक्रमादित्य को तत्कालीन जागीरदारों और लोक ने कोई समर्थन नहीं दिया.19 विक्रमादित्य के बाद ही मेवाड़ के राजवंश में मीरां के सम्मान और स्वीकृति का भाव आ गया था. 1535 ई. में गुजरात के बहादुरशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया और यह इतना भीषण था कि चितौड़ किले में मौजूद सभी स्त्रियों को जल कर मरना पड़ा. यह माना गया कि मीरां को प्रताड़ित करने के कारण ही मेवाड़ पर यह विपदा आई इसलिए उदयसिंह ने द्वारिका ब्राह्मण भेजकर मीरां की मेवाड़ वापसी के प्रयत्न किए थे.20

यह सम्मान बाद में बढ़ता ही गया था. ऐसी जनश्रुति  है कि सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में सत्तारूढ़ महाराणा जगतसिंह को स्वप्न में भगवान जगन्नाथ ने आदेश दिया कि मुझे मीरां को दिए वचन के अनुसार मेवाड़ में आना है इसलिए मेरा मंदिर बनवाओ और इसी आदेश के तहत महाराणा ने उदयपुर में राजमहल के ठीक बाहर भगवान जगन्नाथ का भव्य और विशालकाय जगदीश मंदिर बनवाया.21

मीरां की कविता में जो सघन अवसाद और दुःख है उसका कारण पितृसत्तात्मक अन्याय और उत्पीड़न नहीं था. यह खास प्रकार की घटना संकुल ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण था जिनमें मीरां को एक के बाद एक अपने लगभग सभी परिजनों की मृत्य देखनी पड़ी और निराश्रित होकर निरंतर एक से दूसरी जगह भटकना पड़ा. 1516 ई. में उसका विवाह हुआ और कुछ समय बाद ही 1518 से 1523 ई. के बीच कभी उसके पति भोजराज का निधन हो गया. महाराणा सांगा के और बाबर के बीच 1527 ई. मे हुए विख्यात खानवा के युद्ध मे उसके पिता रत्नसिंह और बड़े पिता रायमल काम आए. ससुर महाराणा सांगा भी 1528 ई. में नहीं रहे. सांगा की मृत्य के बाद जोधपुर के राठौडों का भानजा मीरां का देवर रत्नसिंह सत्तारूढ़ हुआ लेकिन सांगा के विरुद्ध षडयंत्रकारी होने के कारण मीरां से उसके संबंध तनावपूर्ण रहे होंगे. वह बूंदी के हाड़ा सूरजमल के हाथों मारा गया. इसके बाद सत्तारूढ़ विक्रमादित्य मूर्ख और घमंडी था. उसको मीरां की गतिविधियां और आचरण अच्छा नहीं लगा. उसने मीरां को यातनाएं दीं और कई तरह से प्रताडित किया. दुःखी मीरां ने 1535 ई. के आसपास अपने बड़े पिता वीरमदेव के यहां पीहर मेड़ता में शरण ली. लेकिन यह आश्रय भी स्थायी नहीं रहा. जोधपुर के शासक मालदेव 1536 ई. में आक्रमण कर मेड़ता को उजाड़ दिया. वीरमदेव को कई वर्षों तक यहां-वहां भटकना पड़ा. मीरां टोडा तक वीरमदेव के साथ रही और बाद में वह पहले वृंदावन और फिर द्वारिका चली गई. 1546 ई. के आसपास यह प्रचारित हुआ कि वह द्वारिका में रणछोड़जी की प्रतिमा में समा गई है और इस आधार पर यही समय मीरां के निधन के समय के रूप में प्रसिद्ध वही हो गया.22

बीसवीं सदी और उसके बाद नए माध्यमों-लोकप्रिय साहित्य, चित्रकथा, फिल्म और कैसेट्स-सीडीज का नजरिया अपने अधिकांश मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं की जरूरतों के अनुसार बना. आरांभिक पारंपरिक भारतीय मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं का आत्मगौरव पुनरुत्थान की भावना में संतुष्ट अनुभव करता था इसलिए इन माध्यमों ने मीरां की आदर्श भारतीय पत्नी छवि गढ़ने के तमाम उपक्रम किए. गीता प्रेस, गोरखपुर और अमर चित्रकथा की मीरां अपनी धार्मिक अस्मिता के प्रति सचेत पारंपरिक मध्यवर्गीय जनसाधारण की आकांक्षाओं के अनुसार आदर्श हिंदू पत्नी और संत-भक्त है|23 इधर के भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था में पले-बढ़े नयी पीढ़ी के मध्यवर्ग का नजरिया कुछ हद तक बदल गया है. उसकी काम्य स्त्री छवि पारंपरिक मध्यवर्गीय भारतीय की आदर्श पत्नी स्त्री छवि से अलग रूमानी, विद्रोही और कुछ हद स्वतंत्र स्त्री की है. इन माध्यमों ने इसीलिए इन मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं की जरूरतों के अनुसार धीरे-धीरे मीरां की प्रेम दीवानी और अंशतः परंपरा विरोधी छवि गढ डाली है. लोकप्रिय साहित्य के एक प्रकाशक डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित प्रेमदीवानी मीरां की मीरां भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था में पले-बढ़े नयी पीढ़ी के मध्यवर्ग की काम्य स्त्री छवि के अनुसार रूमानी, स्वतंत्र और अंशतः परंपरा विरोधी है.24 गुलजार की फिल्म में भी मीरां असाधारण पवित्रात्मा भक्त, प्रेम दीवानी और अंशतः पंरपरा विरोधी स्त्री है. अधिकांश लोकप्रिय ऑडियो कैसेट्स-सीडीज में भी मीरां की ऐसी रचनाएं संकलित की गई हैं, जो उसके भक्त और प्रेम दीवानी स्त्री रूप को ही पुष्ट करती है.

वह मीरां, जिसे हम आज जानते हैं, अपनी असल मीरां से बहुत दूर आ गई है. यह दूरी बनाने और बढ़ाने का काम मीरां के अपने समय से ही हो रहा है. असल मीरां अभी भी लोक, इतिहास, आलोचना, धार्मिक आख्यान और आलोचना-विमर्श में है, लेकिन वह इन सब में कट-छंट और बंट गई है.
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संदर्भ और टिप्पणियां:
1.         मेवाड़ एक पूर्व रियासत राज्य था जिसका विलय आजादी के बाद राजस्थान में हुआ. इसका प्राचीन नाम मेदपाट था जो अपभ्रंश होकर मेवाड़ हो गया. यह मध्यकाल में उत्तर भारत का सबसे बड़ा राज्य था. राजपूतों की गहलोत और बाद में इसकी एक उपशाखा सिसोदिया का इस पर शासन रहा. चित्तौड़गढ़ इसकी राजधानी थी लेकिन मध्यकाल में उदयसिंह के समय उदयपुर बसाया गया और यह इसकी राजधानी हुई. इसकी भौगोलिक सीमाएं बदलती रही है. वर्तमान राजस्थान के उदयपुर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा और राजसंमद जिले इसमें हमेशा रहे.
2.          देखिए: मेवाड़ के के राजाओं की राणियों, कुंवरों और कुंवरियों का हाल (बड़वा देवीदान की ख्यात: सं. देवीलाल पालीवाल), साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर, 1985
3.         मारवाड़ एक पूर्व रियासत राज्य था जिसका विलय आजादी के बाद राजस्थान में हुआ. वर्तमान राजस्थान के जोधपुर, पाली, बालोतरा, बाड़मेर आदि जिले इसमें इसमें आते थे. राजपूतों की राठौड़ शाखा का इस पर शासन रहा. पहले मंडोर इसकी राजधानी थी. बाद में जोधा के समय जोधपुर बासाया गया और यह इसकी राजधानी हो गई.
4.          राणीमंगा भाटों की बही (मारवाड़ का रनिवास), सं महेन्द्रसिंह नगर, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केन्द्र, दुर्ग, जोधपुर, 2002
5.          एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान, खंड-2 (सं.विलियम क्रूक), मोतीलाल, बनारसीदास, दिल्ली, पुनर्मुद्रित संस्करण, 1971, (लंदन, प्र.सं., 1920) पृ.337
6.          कुमकुम संगारी: मीरांबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीति (अनुवाद: अनुपमा गुप्ता), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012; परिता मुक्ता: अपहोल्डिंग दि कॉमन लाइफ-दि कम्यूनिटी ऑफ मीराबाई, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, कोलकाता, 1997; मधु किश्वर और रूथ वनिता: ‘मोडर्न वर्जन ऑफ मीरां’, मानुषी, जनवरी-जून, 1989, अंक-50,51 और 52
7.          मुंशी देवीप्रसाद:मीरांबाई का जीवन चरित्र, बंगीय साहित्य परिषद, कोलकाता, 1954 (प्रथम संस्करण, 1898)
8.          मीरा बाई: हर लाइफ एंड टाइम्स, भारतीय विद्या भवन, मुम्बई, 1966
9.          ‘मीरां प्रकरण’ (विद्याभूषण हरिनारायण पुरोहित),परंपरा (सं. नारायणसिंह भाटी), भाग-63-64, राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी, जोधपुर, 1982
10.         श्रीभक्तमाल (श्रीप्रियादासजी प्रणीत टीका-कवित्त सहित, सं. सीतारामशरण भगवान्प्रसाद रूपकला), तेजकुमार बुक डिपो (प्रा.) लिमिटेड, लखनऊ, ग्यारहवां संस्करण, 2011
11.         ‘मीरांबाई री परची व परची काव्य’, परंपरा (सं. नारायणसिंह भाटी), राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी, जोधपुर, भाग 69-70
12.         भविष्य महापुराणम् (द्वितीय खंड), मध्यम एवं प्रतिसर्ग पर्व, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद, 1997, पृ.716
13.         मीरां बृहत् पदावली (सं. हरिनारायण पुरोहित), भाग-1, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, तृतीय संस्करण, 2006 
14.         मीरां विषयक अधिकांश हरजसों का संकलन जयपालसिंह राठौड़ ने किया है. ये सभी हरजस समवेत रूप में लूर (मीरां विशेषांक) वर्ष-1, अंक-2, जुलाई-सितंबर, 2003, राजस्थान फोकलोर स्टडी एंड रिसर्च सोसायटी, जोधपुर) में प्रकाशित हैं.
15.         कुमकुम संगारी: मीरांबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीति; परिता मुक्ता: अपहोल्डिंग दि कॉमन लाइफ-दि कम्यूनिटी ऑफ मीराबाई; मधु किश्वर और रूथ वनिता: ‘मोडर्न वर्जन ऑफ मीरां’, मानुषी, जनवरी-जून, 1989, अंक-50, 51 और 52 आदि
16.         चौराशी वैष्णवन की वार्ता, श्री विद्या विभाग, नाथद्वारा, 1970 (वि. सं. 2027), पृ.239
17.         मीरां प्रकरण (विद्याभूषण हरिनारायण पुरोहित),परंपरा, भाग-63-64, पृ.92
18.         गोपालसिंह मेड़तिया:जयमलवंश प्रकाश (बदनोर (मेवाड़) का मेवाड़ का इतिहास), द्वितीय भाग, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, दूसरा संशोधित संस्करण, 2012 (प्र.सं. संस्करण 2031), पृ.421
19.         गौरीशंकर हीराचंद ओझा: उदयपुर राज्य का इतिहास, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, (प्रथम संस्करण, 1928), 1996-97, पृ.394
20.         लागी चटपटी भूप भक्ति कौ सरूप जानि, अतिदुख मानि, बिप्र श्रेणी ले पठाइयै..
20.बैगी लैके आवौ मो को प्रान दे जिवावौ अहो गए द्वार धरनौ दे विनती सुनाइयै.-श्रीभक्तमाल (श्रीप्रियादासजी प्रणीत टीका-कवित्त  सहित), पृ.722
21.         यह किंवदंती  मंदिर के मुख्य द्वार पर लिखकर टांगी गई है.
22.         हुकुमसिंह भाटी: मीरांबाई: ऐतिहासिक और सामाजिक विवेचन, रतन प्रकाशन, प्रतापनगर, जोधपुर, 1986, पृ.16-20
23.         हनुमानप्रसाद पोद्दारः भक्त नारी (भक्त चरित माला-2), गीता प्रेस, गोरखपुर, 2001
24.         गिरिजाशरण अग्रवालः प्रेम दीवानी मीरा, डायमंड पॉकेट बुक्स प्रा.लि., नई दिल्ली, 2003    

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  1. विमल कुमार15 मार्च 2015, 9:42:00 am

    अच्छा लेख है

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  2. प्रेमचंद गाँधी16 मार्च 2015, 10:25:00 am

    मीरा पर अबतक आई हिंदी की सबसे तथ्यपरक और ऐतिहासिक महत्व की किताब है यह.

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  3. डॉ माधव हाड़ा जी को बधाई ।शानदार लेख है । पढ़ने के बाद इस किताब को पढ़ने की उत्सुकता जाग गई है ।शुक्रिया अरुण देव भाई आपको भी ।

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  4. कुत्सित सामंती परिवेश में फँसी पराधीनता से सामाजिक स्वाबलंवन की छटपटाहट भी मीरा की कविता में मौजूद है।

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  5. बेहतरीन लेख... डा.साहब आपको बधाई !

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