चन्दन पाण्डेय अपनी पीढ़ी के प्रतिनिधि कथाकार हैं. उनके तीन कहानी संग्रह ‘भूलना’, ‘इश्कफरेब’ और ‘जंक्शन’ प्रकाशित हैं. ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, कृष्ण बलदेव वैद फेलोशिप, और शैलेश मटियानी कथा पुरस्कार से सम्मानित हैं.
दूब की वर्णमाला’ कहानी कर्ज़, ब्याज, बीमा और रकम चुकाने के लिए पैर
कटाने की मजबूरी के आस–पास है, पर यह दरअसल ‘मरजाद’ रखने वाले औसत हिन्दुस्तानी
की भी कथा बन जाती है.
इस कहानी में छिपी हुई क्रूरता और विवश आत्मदया के कारुणिक दृश्य देर तक पीछा करते हैं.
इस कहानी में छिपी हुई क्रूरता और विवश आत्मदया के कारुणिक दृश्य देर तक पीछा करते हैं.
दूब की वर्णमाला
चन्दन पाण्डेय
देनदारों से झूठ मैं धड़ल्ले से बोलता हूँ. आज पहली दफा पत्नी के सामने उन लोगों से झूठ बोलना पड़ा है. झूठ की इस नई शक्ल से मेरे शरीर में सुरसुरी दौड़ गई और पत्नी की तरफ देखने का साहस भी मुझसे छूटता रहा. जिनसे मैने झूठ बोला था, वो दो लोग थे - गन्नू और राधे. वो, हर-हमेशा विनम्रता से पेश आते थे. कह रहे थे - ब्याज की रकम अगर मैं नहीं लौटाता हूँ तो कर्ज बहुत भारी हो जायेगा. आज वे सब वो बीमा पत्र भी लाए थे, जिसके जरिए कर्ज चुकाने का अंतिम तरीका था. यह हरकत देनदारों ने मजबूरी में अपनाई है.
(पेंटिग : कुंवर रवीन्द्र)
ये दिन इतने साफ, सुन्दर हो रहे हैं कि इनमें किसी को भी माफ किया जा सकता है. मैं चाहूँ तो खुद को भी माफ कर सकता हूँ.
(तुम चाहो तो खुद को भी माफी दे सकते हो.)
देनदारों से झूठ मैं धड़ल्ले से बोलता हूँ. आज पहली दफा पत्नी के सामने उन लोगों से झूठ बोलना पड़ा है. झूठ की इस नई शक्ल से मेरे शरीर में सुरसुरी दौड़ गई और पत्नी की तरफ देखने का साहस भी मुझसे छूटता रहा. जिनसे मैने झूठ बोला था, वो दो लोग थे - गन्नू और राधे. वो, हर-हमेशा विनम्रता से पेश आते थे. कह रहे थे - ब्याज की रकम अगर मैं नहीं लौटाता हूँ तो कर्ज बहुत भारी हो जायेगा. आज वे सब वो बीमा पत्र भी लाए थे, जिसके जरिए कर्ज चुकाने का अंतिम तरीका था. यह हरकत देनदारों ने मजबूरी में अपनाई है.
मेरी उम्र पर घिरी उस रात के आठ-सवा
आठ बज रहे थे. घर में था क्या जो मैं इन्हें वापस करता इसलिए इनकी खातिरदारी करना
एक अच्छा विचार लगा. इनको सुनाते हुए पत्नी से दो चाय का आग्रह किया. इन दोनों के
चेहरे से लग रहा था, चाय के नाम पर चिढ़
गए हैं. शायद इन्हें उम्मीद रही हो कि रकम थमा कर मैं इन्हें जल्द ही फारिग कर
दूँगा. या रकम न वापस करने की सूरत में इनकी सलीकेदार फटकार भी सुन लूँगा. लेकिन
चाय में जो समय जाया हो रहा था वो इनके चेहरे से जाहिर था.
पत्नी दोनों हाथों से दो ग्लास पकड़े
हुए आई. ये स्टील के छोटे ग्लास चायपत्ती के पैकेट के साथ मुफ्त में मिले थे.
पत्नी के मौके-मुआयने पर पहुँचने और इन दोनों की समझाईशों का ऐसा मुहाना बन रहा था
कि जो बात ये लोगो मुझसे अभी अभी कह चुके थे, उसे फिर दुहरा बैठे
- क्यों भाभी जी, गलत कह रहे हों तो
बताईये,
कर्ज वापसी तो लगी रहेगी लेकिन सूद का
पैसा न चुकाने पर कर्ज बहुत बढ़ जायेगा.
पत्नी कहती भी तो आखिर क्या कहती, सो चुप ही चुप सिर हिलाया, जिसे हाँ या ना, दोनों ही, मतलबों के लिए पढ़ा
जा सकता था. मैं कर्ज लेता हूँ, यह मेरी पत्नी
जानती है. न सिर्फ जानती है, बल्कि अपने गले में
मौजूद आधा भर वाली सोने की सिकड़ी और दो पायलों में से एक बेच कर, कर्ज उतारने में मदद भी किया है.
दूसरी पायल बेचकर हमने अपने दूसरे लेकिन अजन्में बच्चे का इलाज कराया था. फिर भी
उसे हम बचा नहीं पाए. मैं कर्ज लेता हूँ, यह मेरे देनदार
जानते हैं. पर अब तक यह अनकहा नियम चलता आया कि इस लेन-देनदारी का जिक्र हम तीसरे
के सामने कभी नहीं करते.
अगर ये लोग मुझे सड़क पर भी पकड़ लेते
तो भले ढंग से पेश आते थे. राहगीर हमारी बातचीत का तरीका देखकर यही समझते कि हम
पुराने परिचित हैं. इनको देखते ही मैं साईकिल से उतर जाता हूँ, ये लोग पहले मेरा हालचाल पूछते हैं.
देर तक मुझसे दुनिया जहान की बातें करते हैं और चलते चलाते वक्त कर्ज एक हल्का जिक्र
कर देते हैं. मैं उन्हें वादा कर लौट आता हूँ. यह जानना खुद अपने आप में मुझे
सुकून देता है कि दुनिया को मेरे कर्ज न लौटाने का पता नहीं है. लेकिन आज पत्नी के
सामने इस अनायास जिक्र से मैं घबरा गया. अगले हफ्ते का वादा करते हुए कह बैठा, अगर कुछ भी सम्भव न हो पाया तो इन्हीं
के कुछ गहने बेचूँगा पर अगले हफ्ते तक का समय दीजिए.
देनदारों के जाने बाद देर तक मैने और
सुमित्रा ने कोई बात नहीं की. भोजन के वक्त भी मैंने बेटे को हथियार बनाया. उससे
पढ़ने पढ़ाने की बात करता रहा, जिससे यह खबर मिली
कि महाशय ढाई-तीन हफ्तों से विद्यालय ही नहीं गए हैं. अगली सुबह भी पत्नी से
बातचीत बचते बचाते ही हो पाई. जब सामान्य बातचीत शुरु हुई तब भी हमने इस
झूठे गहने के मुद्दे पर कोई बात नहीं की. यहाँ तक कि जब अपने मालिक से अपनी
ही तनख्वाह उधार माँग कर लाया तो उसे कर्ज वापसी के लिए रखते हुए भी पत्नी ने एक
बार भी उस झूठ के बारे में नहीं पूछा.
ऐसा नहीं कि हम आपस में झूठ नहीं
बोलते. पर एक के सामने दूसरे का झूठ बोलना इस एह्तियात को समूची जगह देता है कि हो
सकता है अगले की सारी बातें झूठी हों. जैसे, जब मैं अपनी
तनख्वाह उधार माँग कर लाया तो सोचा था, पत्नी को सच
बताऊँगा. बता भी चुका होता पर अचानक ख्याल आया, पूछेगी, सीधे ही माँग लिया या कोई झूठ बोलना
पड़ा? यह संशय भी वो मेरे सम्मान को को मेरे
ही मन में बचाए रखने के लिए करती वरना उसे तो पक्का ही पता था कि मैंने झूठ बोलकर
उधार माँगा होगा.
सुमित्रा की यह धीर-गम्भीरता ने मेरे
भीतर का घरेलूपन बचा रखा है वरना अक्सर मैं सोचता हूँ, कहीं भाग जाऊँ.
शायद सुमित्रा यह जानती है कि बाहर की दुनिया जैसे वह आटा चक्की जहाँ मैं गेहूँ
पीसने का काम करता हूँ, या वह चौरस्ता जहाँ
मेरी दुनिया सिमटती है वहाँ मेरी कितनी इज्जत है. विवाह के शुरुआती वर्षों में मैं
घरवालों के सामने अक्सर इन्हें गाली दे दिया करता था, उसे वो सुन लेती
थीं पर एकदिन इन्होने तरकीब से समझाया, अगर हम एक दूसरे की
ही इज्जत नहीं करेंगे तो दुनिया से कोई उम्मीद कैसे की जा सकती है. सुमित्रा
के जरिए ही मैं इस गुत्थी को समझ पाया कि मेहनत कर के अमीर बनने का ख्वाब झूठा है, अगर ऐसा होता तो सुमित्रा से अधिक
मेहनती कोई नहीं था. लोग मेरे दड़बे तक इसकी पैरवी करने आते हैं कि मुँहमाँगा
मेहनताना लेकर भी सुमित्रा उनके घर का कामकाज करने के लिए राजी हो जाए.
उनकी मेहनत और अपनी जलालत इतनी मुद्दत
बाद समझ आई कि अब सब धुआँया लगता है वरना एक योजना मेरी यह है कि अगर मैं कर्ज
वापस कर दूँ और फिर दस या पन्द्रह सालों में अठारह -बीस हजार जैसे कुछ पैसा बना
सकूँ तो अपनी आटा चक्की डाल लूँगा. सुमित्रा ने भी इस योजना को खारिज नहीं
किया पर पहले आठ ह्जार का यह कर्ज. फिर उस पर ब्याज, सौ रूपये पर दो
रूपए - हर रोज. यानी आठ हजार के मूल पर एक सौ साठ रूपए रोज. चार हजार आठ सौ का
माहवारी ब्याज. सत्तावन हजार छ: सौ रूपए, पूरे वर्ष का
ब्याज. आप अगर एक वर्ष में इतनी रकम चुकता कर देते हैं, तब अपने दिमाग पर जोर
डालिए, आप पायेंगे कि वह जो मूलधन था, वह तो वहीं का वहीं है. आपके पास. दिख
भले न रहा हो, आप उसका इस्तेमाल
भले ही न कर पा रहे हों पर ध्यान रखिए कि वह आपके ही पास है. मैने इतनी गिनती नहीं
सीखी कि इस कर्ज की कुल रकम निकाल सकूँ और दूसरे, गन्नू देनदार की
बात भी भरोसेमन्द है.
गन्नू ने ही उस एजेंट से मिलवाया. हम
दोनों विस्मय से मिले. अजेंट साहब के घर से गेहूँ उसी चक्की पर पिसने आता है जहाँ
मैं काम करता हूँ. उन्होने पहले मेरा हस्ताक्षर लिया. मैं वर्षों बाद, शायद स्नातक की परीक्षाओं के बाद, कलम हाथ में लिए था. मुझे आश्चर्य यह
हुआ कि जो हस्ताक्षर अपने मन मस्तिष्क में मुझे याद था, वैसा कुछ मैं नहीं
कर पाया. कमलेश. हस्ताक्षर करते हुए इस शब्द को मैं ऐसे लिखता था कि क वाली लकीर
ही म की पहली लकीर हो और तालव्य श की लकीर जरा घूमती हुई हो. पर आज मैंने अपना
हस्ताक्षर यों किया - क म ले श. मुझे दबी हुई शर्मीन्दगी इस बात की हुई कि कहीं
गन्नू और एजेंट साहब मेरे 'ग्रेजुएट' होने की बात को गलत न मान लें. यह बात
मुझे तब गुस्से की शक्ल में याद आती थी जब कोई ग्राहक मुझसे इसलिए बदतमीजी से बात
कर बैठता था क्योंकि मैं आटे चक्की वाले के यहाँ नौकर लगा हूँ.
मैने अजेंट को अपनी हस्ताक्षर वाली
बात बतानी चाही पर वो कुछ गुणा भाग में लगे हुए थे. गन्नू और एजेंट ने मेरी बात
अनसुनी कर दी और अपनी चिंता जाहिर की - अस्पताल का खर्च गन्नू उठा लेंगे लेकिन
बैसाखी का खर्च और आगे के ईलाज वाले खर्चे मुझे उठाने होंगे. मेरा हस्ताक्षर तुरंत
का ही खराब हुआ था, इसकी खीझ मुझे थी
इसलिए मैने कहा, दाहिना हाथ चलेगा ? यों भी चक्की के हौदे में गेहूँ की
बोरी उड़ेलने का काम मैं बाएँ हाथ से करता हूँ, दाएँ से बस सहारा
देता हूँ.
दाहिना हाथ कटवाने की बात पर गन्नू ने
इतनी आत्मीय डाँट लगी कि मुझे रोना आ गया. यह मेरे अनुमान से बाहर था कि इस शहर
में मेरा भला सोचना वाला भी कोई है. उस एजेंट और गन्नू दोनों ने एक ही आवाज में
बताया, पैर कटा लो. बीमा कम्पनी वालों का
भरोसा भी मिल जायेगा और पैसा भी. सत्तर हजार का चेक, अगर मैं चाहूँ तो
मेरे नाम या फिर गन्नू के नाम से, बन जायेगा.
एजेंट को तो खैर इसकी आदत रही होगी पर
गन्नू के लिए शायद कर्ज वापसी का यह तरीका नया था, इसलिए दोनों इस बात
देर तक बहसते रहे, पैर काटने का काम
कैसे होगा ?
बीमा कम्पनी वालों की सख्त हिदायत थी, काम के दरमियान हुए हादसे ही मान्य
होंगे. इस शहर में मुझसे पहले तीन मामले ऐसे बन चुके थे जिनमें सावधानीपूर्वक
दुर्घटना करा कर रकम ली गई थी और फिर देनदारों को लौटाई गई थी. गन्नू और एजेंट इसी
बिना पर बिना किसी घबराहट के बातचीत कर रहे थे. अपने मन की मैं खुद भी नहीं जानता
था, इसलिए उनकी बातचीत से जो रेशे छन रहे
थे उससे मैं आगामी जीवन की कल्पना कर रहा था.
यह तो नहीं कह सकता कि पैर कटाना मेरी
स्वेच्छा थी पर अभी मैं बैसाखी के बारे में सोच रहा था. बैसाखियाँ मैने दूर ही दूर
से देखीं हैं. आज खुद को बैसाखी की कल्पना करते हुए मन में यह कौन्धा, नकली पैर भी तो लगवाया जा सकता है.
बैसाखी को बगलों में पकड़ते हुए कहीं घाव न हो जाए. यह भी कई बार होगा कि मेरा बेटा
उसे लेकर खेलने चला जायेगा और मैं किसी जरूरी काम के लिए एक पैर पर कूदते हुए
जाऊँगा. पर एक दृश्य की कल्पना मैं चाह कर भी नहीं कर पा रहा था, जब मैं कटे पैर लेकर घर पहली बार
जाऊँगा तब पत्नी का सामना कैसे करूँगा. क्या उसे गफलत में रखना सही है? वो समझ जायेगी जब इस हादसे के बाद कुछ
दिनों के लिए लोग मेरे पास आना बन्द कर देंगे, वो सब समझ जायेगी.
यह पूरा सोचना ही साँस लेना दूभर कर रहा था, इसलिए पूछ बैठा -
कैसे होगा ?
एजेंट ने बताया, चक्की जिस पट्टे के सहारे घूमती है, उसमें मुझे अपना पैर देना होगा. ध्यान
रहे कि पैर उपर पड़े, तभी मैं लुढ़कते हुए
चक्की की तरफ आ पाऊँगा, अगर कहीं बिजली
मोटर की तरफ गया तो जान जा सकती है. गन्नू ने मेरे हाथ पकड़ लिए. वह दिल से दुखी
था. कहने लगा - हमारी मजबूरी है भाई, वरना खून-खराबा
किसे पसन्द होगा. यह भी कह बैठा - ध्यान देना कमलू, अगर हाथ या पैर से
अलग कोई नुकसान होता है तो बीमा कम्पनी वाले शायद ही कोई रकम वापस करें. सत्तर
हजार का नुकसान खामखाँ हो जायेगा.
एजेंट ने गन्नू की बात पर मीठा ऐतराज
जताया - सत्तर नहीं साठ. दस तो हमारा बनता है. कईयों में बाँटना पड़ता है. मेरे मन
में एक भावुक ख्याल आया, सोचा कह दूँ, अभी आप सत्तर मुझे दे दो, दस मैं आपको कमाकर दे दूँगा. पर मैं
इतना भरा बैठा था कि अगर मुँह भी खोलता तो फेंकरने लगता, इसलिए चुप रहकर भी
इस उम्मीद से एजेंट को देखता रहा, कितना अच्छा हो अगर
यह मेरे मन की बात समझ जाए.
जब अजेंट ने अपना मुँह खोला, मुझे लगा वो मेरी बात समझ चुका है. पर
उसने वाक्य का अद्धा चलाया - तो, कब उम्मीद करें ? गन्नू, मुझ मरे का, मुँह देखने लगा. मैने अपने मुँह पर
दाहिना हाथ बजाते हुए कहा - कल. फिर कहा - दो एक दिन का समय मिल सकता है क्या ? गन्नू जैसे किसी पाप से छुटकारा पा
रहा हो,
कह बैठा - हाँ यार, चौथेरोज तक का समय ले ले तू. चाय के
पैसे भी उसने ही दिए.
उनसे विदा लेने के क्रम में, मैं अपने पैरो को देखने लगा. शाम की
भीड़ थी और लोगों की निगाह का खतरा मोल लेते हुए भी एक पैर पर चार छ: कदम उछल कर
देखा. दाहिने पैर से उछलने में आसानी हो रही थी पर बायें पैर पर खड़े होते ही शरीर
काँप रहा था. इस पर गन्नू ने समझाया, बाएँ पैर खड़े होते
समय मुझे आगे नहीं झुकना चाहिए.
यह रकम अगर सत्तर हजार की होती तो सारे कर्जों और खर्चों से निजात सम्भव थी. लेकिन साठ भी कम नहीं
होते. इतनी रकम के बाद मुझ पर मात्र पाँच हजार छ: सौ रूपए का कर्ज बच रहा था, वह भी मूलधन था. गन्नू ने बताया, इस नई रकम पर चढ़ने वाले ब्याज का
गुणा-गणित वो शाम तक बता देगा.
शाम के नाम पर मुझे लगा, ये लोग कहीं फिर से घर न आ धमकें.
मैने ही खुलते हुए कहा, गन्नू गुरु पत्नी
के सामने कर्ज-उवाम का जिक्र न किया करो. गन्नू, भला आदमी, को वो घटना जैसे याद थी, कहने लगा, बात बेबात हो गई थी
और फिर मुँह से निकल गई. यह भी याद दिलाया, उस एक दिन के अलावा
तो कभी कुछ नहीं कहा. यह कहने के बाद गन्नू और एजेंट मेरा मुँह देखने लगे इसलिए
मुझे कहना पड़ा - नहीं. बिल्कुल नहीं. देखा, सूरज मेरे ही दु:ख
में डूबा जा रहा है.
स्थानीय कर्ज से लदा
फदा मैं अक्सर झूठ बोलता था. कभी कभी देनदार घर तक चले आते थे. वो आने से पहले खबर
भेजते थे. पहली-दूसरी दफा मैने जो भी सोचा-किया हो पर बाद के हरेक मौके मैने इसी
जुगत में निकाले कि बेइज्जती न हो.
जो देनदार थे उनकी मुश्किल यह थी कि
सूद की कमाई पर ही उनका भी जीवन यापन होता था. वो एक समूह, और धीरे धीरे एक जाति
में तब्दील न हो गए होते तो कोई उनसे उधार भी शायद ही लेता. वो बेहद आलसी, दुलरुआ और रंगबाज 'टाईप' के लोगों की जमात
थी. मेरे मालिक ने नौकरी के पहले ही साल में गन्नू से परिचय करा दिया था और सुख
दु:ख के मौके पर कर्ज दिलाने की बात करते थे. मैं बचता बचाता रहा. जब अजय पैदा
होने वाला था तब हमारे सारे अनुमान गलत पड़ गए फिर भी हमने जैसे तैसे परिचितों से
उधार लेकर काम डगराया पर पिछले साल जब मेरा अजन्मा बच्चा सुमित्रा के शरीर में था
और ऐसी अनसुनी बीमारियाँ मिली कि मैने बच्चे के लिए नहीं, सुमित्रा के लिए
मालिक के पास गया और उन्होने खुशी खुशी आठ हजार का कर्ज दिलवाया था.
कर्ज के साथ 'इंडिया इंस्योरेंस' नाम की कम्पनी का फॉर्म भी भरा गया
था. आठ में से एक हजार मुझे उस कम्पनी को देने पड़े, इस शर्त के साथ कि
हर महीने के दो सौ रूपए मुझे अगले पाँच सालों तक उस कम्पनी को देंगे होंगे. एवजी
यह थी कि इस दरमियान अगर मेरे हाथ या पैर सलामत नहीं रहे तो मुझे सत्तर हजार रूपए
मिलेंगे. मुझे याद है, मेरे हस्ताक्षर
वहाँ सही साँचे में उतर आए थे.
घर वापसी में प्रश्नवाची एक ख्याल आया, कर्ज की जो बची रकम है क्या उस खातिर
भी कोई बीमा करानी पड़ेगी ? इसके आगे पीछे कुछ
सोच पाता कि पाया, अजय मुझसे झूल रहा
है. मैं आटे की गर्द से सना हुआ था. मैने बरजा. पत्नी घर पर नहीं थी. कपड़े उतार कर
अँगोछा बाँध लिया और लेटा तो सुकून वाली नींद आई. पहली नींद में ही पत्नी ने भोजन
के लिए जगा दिया. जगने पर सबसे पहले मैने अपने पैर टटोले. वो अपनी जगह पर थे. राहत
वाली महसूसियत हो रही थी. हँसी भी आई कि कर्ज उतरने का तरीका ही अभी हाथ आया है, जब तक कर्ज जमा न हो जाए तब तक की खाम
ख्याली से बचना चाहिए.
यह सुकून था या उसकी तलाश कि
रात बहुत दिनों बाद मैं सुमित्रा का बगलगीर हुआ वरना सुमित्रा बेटे को लेकर
खाट पर रहती और मैं अपना बिस्तर जमीन पर लगाया करता था. सुमित्रा हालाँकि
उल्टे करवट थी फिर भी मेरी आहट पाकर डुली. जिस पल मैं उसे अपनी ओर खींच रहा था वो
पल विगत दस पन्द्रह वर्षों का सर्वाधिक चिंतामुक्त और आत्मविश्वास से भरा हुआ था.
अचानक मुझे अपने पैरों की याद आई. मैं
थमा, पीठ के बल पलटा और सुमित्रा से पूछा, मेरे पैर हैं क्या ? अन्धेरे में, सहमे हुए, उसने मेरे पैर टटोले और चिढ़ गई. मैने
फिर अपने हाथों से अपने पैर टटोले, पाया सही सलामत
हैं. हम दोनों करवट करवट घूम गए. अपनी आवाज की परिधि भाँपने की खातिर पहले मैं गला
साफ किया. फ्रीक्वेसी सही थी और उसी लय पर सुमित्रा को बताया, बीमा वाले आए थे. परसों की तारीख तय
है, बात पैर पर टूटी है.
कर्ज लेने के दिनों में ही सुमित्रा
को बताया था कि अजूबा शर्तों वाले कागजों पर हस्ताक्षर करने पड़े हैं, उस वक्त भी मैं मुतमईन था कि यह सब
दिखावे की बातें हैं. वरना ऐसे कोई करता है क्या ? कर्ज के लिए जानबूझ
कर दुर्घटनाग्रस्त हो जाना, वो भी जानबूझ
कर....तब यह सम्भव नहीं लगा था. सुमित्रा चिंतित और बेपरवाह के बीच कुछ दिखी थी.
जब बिजली मिस्त्री वाली खबर आई थी कि उसके हाथ काट कर बीमा की रकम वसूल की गई है, तब भी हमने यकीन नहीं किया था. आज भी
जब सुमित्रा को बता रहा था, तो उसकी तरफ से
मुझे कोई हलचल महसूस नहीं हुई. मैने दुबारा अपने घुटने छुए पर मुतमईन नहीं हो पा
रहा था. एक दृश्य मेरे सामने कौन्धते कौधते रह गया कि लाख कोशिशों के बावजूद मैं
सुमित्रा से प्रेम करने के नाकाबिल हो गया हूँ.
देर रात सुमित्रा ने मुझे जगाया. पूछा, और कोई रास्ता नहीं है ? उसके पूछने का स्वर डोलता हुआ जाता था, ऐसा कि जो ख्याल मुझ पर सारा दिन कोई
फर्क नहीं डाल पाया था उसकी स्मृति मात्र से मैं रोने लगा. मुझे ठीक ठीक कारण पता
होता तो शायद मैं चुप लगा जाता पर मैं खुद भी नहीं जानता था कि मैं किस बात पर रो
रहा हूँ. मेरी रुलाई सुनकर हमारा बच्चा भी जग गया और उसकी रुलाई तेज थी. मैं पैर
कटने के ख्याल से रो रहा था या अपनी असहायता पर या अपनी बेरोजगारी सी रोजगारी पर
या लाचारी पर या इस भरे पूरे शहर में मिले अकेलेपन पर या दुश्वारियों पर या कर्ज
पर या पत्नी पर ..मैं कुछ समझ नहीं पाया, इसलिए रोता रहा.
सुमित्रा पास ही बैठी रही और जिसे चुप करा सकती थी यानी बेटे को, उसे चुप कराया.
मेरा रोना अहकने में तब्दील हो गया था
और जब बेटा सो गया तब सुमित्रा ने कहा, यहाँ से निकल चलते
हैं. मैं अपनी बेचैनियों में इस तरह गुम था कि इसकी बात का ध्यान नहीं धर पाया.
कुछ देर बाद उसने फिर दुहराया, यह शहर छोड़ देते
हैं. मैं बार बार अपने पैर छुए, सहलाए जा रहा था.
इस एक वाक्य के बाद हम दोनों चुप हो गए. मैं खाट से उतर कर जमीन पर चला आया और
सारी रात जगा रहा.
शहर छोड़ना गलत होगा, जैसी धुन समूची रात मेरे भीतर बजती
रही. दूसरे कर्जदारों पर शामत आयेगी. अभी यह तौर नया है इसलिए बाकायदा पूछ ताछ कर
रस्में पूरी की जा रही हैं, अगर मैं भाग गया तो
सचमुच की दुर्घटनाएँ घटने लगेंगी. एक मन यह भी कहता था, मात्र आठ हजार रूपए
के लिए इतनी बड़ी सजा ? आठ हजार या सत्तावन
हजार ? कर्ज तो आठ ही लिए थे. तो क्या हुआ, ब्याज की शर्ते भी तो साथ ही
स्वीकारीं थी. वह मजबूरी थी. तो यह उनकी मजबूरी है.
एक दूसरा ख्याल भी बार बार, लगातार, आ रहा था - काश
मेरा कोई रिश्तेदार होता जो इतने पैसे मुझे इकट्ठा ही दे पाता. ऐन इसी पल
दूसरे अज्ञात कर्जदारों की फिक्र हो आई. लगा, वो ही मेरे
रिश्तेदार हैं और फिर भी मैं उन्हें जानता नहीं हूँ. कर्ज का यह कारोबार इस दबे
ढँके ढंग से होता था कि किसी को जान पाना असम्भव था. यह भी सम्भव था कि कर्ज
वसूलने के लिए जब लोग आपके घर आते हैं और जिन पड़ोसियों के सामने किसी भी
शर्मिन्दगी से बचने के लिए आप सारी जोड़ जुगत कर रहे हों, उन्होने भी कर्ज ले
रक्खा हो और वो इन लोगों को देख कर ही सारा माजरा समझ जाएँ. फिर भी सारी कोशिश यही
होती थी कि एक भी आवाज ऊँची न होनी पाए, पड़ोस के छज्जे को न
कोई शोर लाँघने न पाए.
मैं गन्नू को धोखा नहीं देना चाहता
था. दूसरी तरफ अन्य लेनदारों का जीवन साफ साफ देख पा रहा था. पर मुझे अपना जीवन भी
उतना ही प्यारा था, मैं जीना चाहता था.
मेरे और अजय में शर्त लगी थी, मैं जल्द ही एक
टी.वी. खरीदूँगा और दोनो बाप बेटे बैठ कर टी.वी. देखेंगे. दरअसल अजय दूसरों के घर, टी वी देखने चला जाता था. मुझे जीवन
के किसी मोड़ पर खुद की आटा चक्की डालनी थी. मुझे अपना शरीर चाहिए था. एक.
सम्पूर्ण.
रात के तीन साढ़े तीन बजे पत्नी ने कहा
- आज सुबह.
यह उम्मीद मुझसे रूठ चुकी थी कि
मेरे पैर अब सही सलामत रह सकते हैं. शायद सुमित्रा के जेहन में कोई दूसरा शहर हो, जहाँ हम जा सकते थे. मैं शिद्दत से
चाह रहा था,
ऊठूँ और सामान बाँधने में पत्नी का
साथ दूँ. पर लेटा रहा. अनायास ही मेरे हाथ बाएँ तो कभी दाहिने पैर पर चले जा रहे
थे.
यह आत्महत्या के बराबर ही था पर विदा
से पहले मैं कम से कम एक दिन इस शहर को, अपने शहर को, देना चाहता था. माना कि मेरा मददगार
कोई न था और मदद की शर्त अख्तियार करें तो मैं ही किस(के) लायक था. लेकिन शहर में
मेरे जानकार थे. सुमित्रा का तो शहर ही यही था. कोई इतना निर्णायक और इतना क्रूर
भला कैसे हो सकता है? उसके पिता का घर, भाईयों की नौकरी. मुहल्ले के इतने
परिचित. मेरे मन में शहर का नक्शा तैर रहा था. मेरे गाँव के सुदर्शन भर मटियारी
चौक पर गोलगप्पे का ठेला लगाते हैं. वर्ष में एक बार उनके यहाँ जाना होता था.
सत्ताईस अट्ठाईस किलोमीटर दूर साईकिल से जाने के बाद थकन और निराशा में उनसे मिलने
के मन नहीं होता था. बातें उखड़ जाती थीं. वो कहते थे, आज रुक जाओ. मैं हर
वर्ष वापसी की राह में तय करता था, अब कभी इस डगर नहीं
आना. फिर भी,
न मालूम, कैसे साल बीतते न
बीतते राह की सारी मुश्किलें पसीज जातीं.
भोर का तारा हमें राह दिखाकर स्टेशन
तक लाया,
अजय की नींद नहीं खुल रही थी. ट्रैन
में
जब मैने याद करना चाहा, किन किन को मेरी स्मृति रहेगी ? नाम से नहीं, पर कई सारे ग्राहक
चेहरे से याद आए जो आटा चक्की पर आकर मुझसे बातें करते हैं. मुझे अबूझ भी लगा कि
उस उम्र तक मैं दोस्तों की जमघट नहीं लगा पाया. जो दोस्त थे छूटते गए. कुछ दोस्तो
की स्मृति से हँसी भी आई जैसे हरीश. बचपन में हम दोनों साथ साथ असफल हुए पर बड़े
होकर उसने इसी शहर में स्कूल का व्यवसाय डाल लिया. उसका नौकर गेहूँ की बोरी लेकर
आता है,
जो मुझसे उड़िया मे बात करता है. भाईना
कह कर बुलाता है. मित्रवत हो चला है.
जब रेलगाड़ी रफ्तार पकड़ने लगी तब
मुझमें साहस की एक दो साँस आई: क्या पता बीते शहर में हमारे साथ कुछ भी बुरा
नहीं होता ?
इस ख्याल से राहत मिली और उस राहत से
नींद.
नींद के भीतरी फाटक पर यह प्रश्न
दिखा: हम जा कहाँ रहे हैं ? पत्नी कुछ बोल रही
थी पर नींद भीतर उसकी आवाज खुल नहीं रही थी. मैने यह भी देखा कि हम दोनों तय कर
रहे हैं,
आगे का काम आटा चक्की पर नहीं.
कितनी बार मुझे उनके चेहरे दिखे जिनका
कर्ज मुझ पर था. मुझे उन्हें लेकर तकलीफ थी, जैसे किसी से झूठ
बोलने के बाद होती है. आप बड़े से बड़ा अपराध कबूल कर सकते हैं पर झूठ बोलना नहीं.
मुझे अपना ही नहीं दूसरे का स्वीकारना भी भयावह लगता है कि उसने मुझसे झूठ बोला.
करीब चौबीस घंटे के सफर के बाद हम जहाँ
उतरे उस शहर के नाम में कोई रस नहीं था कि याद रह पाता. हवा में कस्बे का आलस्य
गन्ध दे रहा था. दो दिन हमने शहर के चक्कर लगाए. कोई भी काम अगर हमें मिल जाता, मुझे या मेरी पत्नी को, तो मैं बाहरी छोर वाले आटा चक्की पर न
जाता.
यहाँ भी मालिक एक ही था पर मशीन नई
थी. ऊँची. लकड़ी के फट्टों को ऊँचाई पर रख कर इस तरह बनाया गया था कि चक्की के मुँह
में गेहूँ का बोरा खाली किया जा सके. मुझे खुद भी नहीं याद कि मैने ऐसा क्या कहा
था जिससे उन लोगो ने मुझे काम पर रख लिया. मुझे याद है मैने एडवांस मांगा था. मुझे
लगा, मैं अब भी सपने ही में हूँ, जब वो एडवांस के लिए तैयार हो गए.
यहीं मुझे मालूम हुआ कि मैं चक्की का कामगार नहीं बतौर घर का नौकर काम पर लिया गया
हूँ. मालिक ने मेरा नाम पूछा. फिर मेरा नाम पुकारते हुए कहा: यह सामान घर ले जाओ, पैसा वहीं मिल जायेगा.
जब मैं सामान की वो बोरी उठा रहा था
तो पाया कि उसके नीचे की जगह सीली हो गई है. यह सब कुछ एक, पल में देखा
गया-समाप्त हुआ, दृश्य था. बोरी
उठाने के बाद मुझे दिखा था कि घास का एक दबा हुआ टुकड़ा उठ गया है. जैसे कोई नींद
से जगता हो. जब मैने बोरी सर पर रख लिया तो पाया कि घास के नुकीले तिनके सिर में
चुभ रहे हैं. मुझे दूरी का अन्दाजा होता तो बोरी उतार कर पहले घास झाड़ लेता. पर
मुझे अन्दाजा नहीं था. दूसरे, मुझे पत्नी को यह
बताने की जल्दी थी कि यहाँ काम मिल जाता है.
इस शहर में अप्रिय सिर्फ इतना हुआ कि
हम दोनों,
पति पत्नी, को एक ही घर में
नौकर काम काम मिला. इसलिए भी मुझे चक्की पर रहना अच्छा लगता था. सेठ की दिली इच्छा
थी कि अजय भी काम पर लग जाए. हमें भी खैर मनाने की मोहलत नहीं थी फिर भी इस
उम्मीद पर कि जब तक चलता है, चले, हमने अजय का दाखिला नजदीक ही
कहीं करा दिया.
(पर तुम पूछोगे कि मैं यह सब क्यों बता रहा हूँ? )
सेठ ने शहर के सबसे पुराने मुहल्ले
में, झगड़े में फँसे एक मकान के नीचे का एक
कमरा दिया है. यह मकान किसका है नहीं मालूम. यह मकान अपने बासिन्दों पर गली की तरह
खुलता है. उपर के सारे तल्ले बन्द हैं फिर भी लगता है कि पुकार आती रहती है. कोई
नाम लेकर बुलाता है. उस पुकार में इतनी लचक होती है कि मानो कोई बहुत पुराना
परिचित बुला रहा हो, जिसके जबान पर रगड़
खाकर नाम लचक गया है.
इस शहर में आए बहुत दिन बीत गए थे.
रात के दस या ग्यारह या बारह जैसा कुछ
पूरे शहर में बज रहा था. बाहर से शोर जैसी आवाज आई. पहले हमने मटिआया. लेकिन आवाज
आती रही. मैने पत्नी से कहा, देखूँ ? उसने कहा, नहीं. मैं बाहर
निकलने लगा. बेटा मेरे साथ हो लिया.
उस गलियारे की यात्रा तीस से चालीस
फीट भर की होगी. इतनी छोटी जिनमें आप कल्पना की शुरुआत भी नहीं कर सकते. कुछ
सोचना शुरु करता इसके पहले ही मैं, बेटे के साथ, सड़क पर था. वहाँ जो चबूतरा था उस पर
सात से आठ नौजवान थे. ज्यादातर तो नई उम्र के थे पर दो या तीन ऐसे थे जो देख कर ही
पेशेवर आवारा जान पड़ते थे. इनमें से एक तो वह था जो हाल फिलहाल ही एक पत्रकार की
जासूसी करते हुए पाया गया था और जब पकड़ा गया तो पत्रकार की ही पिटाई करने लगा था.
यह सब मैं उतने ही देर में सोच पाया
जितनी देर मैने उन्हें देखने में लगाई. यह जरूर था कि मैने उनकी ही तरफ देखा था.
करीब तीन से चार सेकेंड. ईमानदारी से बताऊँ तो मेरे देखने में नहीं था तो भी
इतना तंज तो था कि इतनी रात में शोर करने की क्या जरूरत ? फिर भी मैने वापसी
की राह ली.
उन लोगों ने आवाज लगाई. मैने वापसी की
अपनी चाल तेज कर दी. पाया कि अजय भी मेरे पीछे पीछे भागने के अन्दाज में चल रहा
है. हम कमरे के ठीक सामने थे कि दो लोगों ने पीछे से मेरे कन्धे पर हाथ रखा. पूछा, अरे रूको भाई.
मेरे पास एक से दो पल था. उनके हाल
देख कर निर्णय लिया कि घर का दरवाजा खुलते ही ये लोग तीनों को बाहर निकाल लेंगे.
इसलिए गनीमत इसी में समझी गई कि मैं, अजय को लेकर, इनके साथ बाहर निकल आऊँ.
जो इनका मेठ था, उसने पूछा: क्या देखने आये थे ? मेरे अपने स्वाभिमान का कोई मामला न
था. होता भी तो मैं इनकी बातों का जवाब नहीं देता. पर मेरे साथ मेरा बेटा था. हर
पल मुझे यही लग रहा था कि यह बच्चा इस पूरे मामले को कैसे देख रहा है ? मैं उसकी तरफ नहीं देख रहा था पर उसकी
नजरें मेरे समूचे वजूद पर महसूस हो रही थी.
मेठ ने फिर दुहराया. इस बार के
दुहराने में एक एक रेघाना शामिल था: क्या देखने आए थे ? मैने, बेटे की नजर का ख्याल रखते हुए, कहा: बहुत शोर हो रहा था. जवाब देते
हुए ही मुझे लग गया था कि किसी भी पल ये लोग मार पीट पर उतर आयेंगे. अगर मैं इस
शहर का बाशिन्दा होता तो शायद ये लोग मेरे देखने का ख्याल नहीं करते. हो सकता था
कि मेरी इज्जत भी करते.
पर कुछ भी अनुमानित नहीं हुआ.
वो लोग तू तड़ाक पर उतर आए. फिर गाली गलौज पर. मेरी मुश्किल थी कि मैं न ही मैं
इनसे उलझना चाहता था और न ही यह चाहता था कि कल को अपने बेटे से भी निगाह न मिला
पाऊँ. इसलिए विनम्रता की सारी पोटली उड़ेल दी. फिर भी वो लोग नहीं माने.
एक ने पूछा: तू नेता है क्या बे ? मैने 'बे' को भी जाने दिया. मुझे लगा, क्या पता बेटा 'बे' के आशय से अनजान
हो. मैं जब भी परिचय निकालने जैसी बात करता जैसे, मैं भी इसी गली में
रहता हूँ,
आप सब मेरे पड़ोसी हैं, ... वो लोग मुझे जवाब में एक गाली थमा
देते. सामने ही सड़क पर आती जाती तेज रफ्तार गाडियों के शोर में अगर किसी की गाली
खो जाती तो वह लड़का, गाड़ी के गुजरने के
बाद, शोर की परछाईं तक के गुजर जाने के
इंतजार के बाद वही गाली दुबारा देता. हर गाली सुनने के बाद, मैं इतना ही कहता, ऐसा न कहें, भाई. एक ने हँस के
यह भी कहा कि यह तो हिन्दी बोल रहा है.
हर गाली पर मेरा बेटा मेरी तरफ देखता.
मैं नहीं समझना चाहता कि वो मुझसे क्या उम्मीद लगाए बैठा था. एक ने पूछा: तुम नौकर
कहीं के,
तुम चले हो शहर का थानेदार बनने. इस
एक बात से मुझे लग गया कि इन लोगों को हमारे बारे में सब पता है. मैने तय कर लिया
कि अब इनकी किसी भी बात का जवाब नहीं देना है. देर तक वो लोगो गालियों में लपेट कर
मुझसे तमाम बाते कहते रहे. मैं यह सोचता रहा कि बेटा इनमें से कुछ भी समझ नहीं रहा
होगा.
जब उन्हें लग गया कि वो मुझे उकसा
नहीं पायेंगे तो उनमें से एक मुझे जोर का धक्का दे दिया. मुझसे बेटे का हाथ छूट
गया और मैं सड़क पर जा गिरा. एक गाड़ी गुजरी जो मुझे कुचले बिना ही निकल गई. उन
लोगों को भी शायद दु:ख हुआ इसलिए वो लोग वहाँ से भाग गया.
मैने महसूस किया कि बेटा मेरे पास आकर
बैठ गया है. मुझे राहत हुई. बैठी हुई मानव आकृति को देखकर गाड़ियाँ एहतियात
बरतेंगी. मैं देर तक गिरा रहा. मुझे उम्मीद थी कि देर तक गिरे रहने से वो लोग
सचमुच में चले जायेंगे. यह सावाधानी बरतते हुए मैं सड़क पर लगभग पसर गया. मुझे
आश्चर्य तो तब हुआ जब पाया कि सड़क के रोम छिद्रों में से घास मुझे चुभ रही थी.
लगा कि घास को भी उगने की यही जगह मिली है.
____________________________________________
chandanpandey1@gmail.com
____________________________________________
chandanpandey1@gmail.com
चन्दन की कहानियां मैं पढ़ता रहा हूं और उनकी कहानियां मुझे पसंद हैं।
जवाब देंहटाएंचन्दन जी !कहानी बस यह अच्छी ही लगी। यह एक ऐसी कहानी और शायद एकलौती भी जिसमे उनकी सभी कहानियों की छाप अर्थात सुर राग ताल लगे हैं।
जवाब देंहटाएंसुंदर कहानी... यह उस यथार्थ की कहानी है जो फंतासी के पार चला गया है...
जवाब देंहटाएंचन्दन पाण्डेय की यह कहानी जीवन जीते लोगों की जीवन्त कहानी है
जवाब देंहटाएंयथार्थ और अति-यथार्थ के बीच आवाजाही करती कहानी ।यथार्थ जब ज्यादा घनीभूत हो गया है तब वह अति-यथार्थ में रूपांतरित हो गया है ...अति-यथार्थ फिर से अपने को केन्द्रित करके यथार्थ में रूपांतरित हो गया है । इस प्रकार कहानी हो रहे ...से ज्यादा हो सकने वाले सूक्ष्म तथ्यों तक हमें ले जाती है ।
जवाब देंहटाएंdard ukerti hui.. guthi hui rachana
जवाब देंहटाएंबढ़िया कहानी।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.