सबद - भेद : सात कवियों के उपन्यास : अविनाश मिश्र



नामवर सिंह ने उदय प्रकाश के संदर्भ में एक बार यह कहा था कि कवि अच्छे कथाकार हो सकते हैं. भाषा की सृजनात्मकता उनके ध्यान में रही होगी जो कवियों के पास होती ही है, ऐसा समझा जाता है. अविनाश मिश्र ने जब सात कवियों के इधर के प्रकाशित उपन्यासों में इस तरह के किसी ‘औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव’ की खोज़ शुरू की तो उन्हें कैसा अनुभव हुआ यह आप इस आलेख में देखेंगे. 

अविनाश के विश्लेषण का यह तरीका आपको पसंद आएगा. खुद उनके गद्य में एक काव्यत्मकता रहती है, कवि तो वह हैं हीं. उनकी आलोचना में एक सचेत तीक्ष्णता भी आप पायेंगे.  
   


औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव और बुकमार्क                
अविनाश मिश्र 



ह एक लंबी कहानी है, लेकिन मैं यह नहीं कहूंगा कि मैं इसे फिर कभी सुनाऊंगा, क्योंकि मैं उस परंपरा से नहीं हूं जहां परंपरा को बहुत कम बरता जाता है और जहां कथाएं कभी-कभार ही जन्म लेती हैं या कल पर टाल दी जाती हैं. इस कल में असंख्य दुर्घटनाएं हैं और सहानुभूति लुप्त हो चुकी है. इस कभी-कभार में कई बीमारियां हैं और प्रेम लगभग नहीं है.

कथाएं जब कम होती जा रही थीं, मैं तब की पैदाइश हूं. मैं कथाओं के बगैर बड़ा हुआ. दादी, नानी, बुआएं, मौसियां, चाचियां सब गुजर चुकी थीं मृत्यु के नहीं अप्रासंगिकता के अर्थ में. मेरे पास और आस-पास एक सपाट जीवन था. यात्राएं बिलकुल चुपचाप थीं. मैं जब नहीं था तब कथाएं ही कथाएं थीं, मैं हूं और कथाएं नहीं हैं, एक रोज मैं नहीं रहूंगा यह सोचकर इस परिदृश्य में धीमे-धीमे मैंने कथाएं अर्जित कीं. मेरे भाग के विप्लव और प्रेम मेरी प्रतीक्षा में थे, लेकिन मैं बहुत वक्त तक बस ‘क्लासिक्स’ पढ़ता रहा. इस तथ्य से परिचित होते हुए भी कि मेरी भाषा का बहुत सारा सामयिक गद्य सारी औपन्यासिक संरचना के बावजूद बस एक लंबी कहानी भर है, उपन्यास नहीं. मैं बहुत वक्त तक बस ‘क्लासिक्स’ पढ़ता रहा.

लेविन, प्येर, अंद्रेई, नेख्लूदोव, बजारोव, लाव्रेत्स्की, रुदिन, मिश्किन, अल्योशा, इवान, रस्कोलनिकोव... ... ... मैं इस कतार का पात्र हो जाना चाहता था और ‘बुकमार्क’ मुझे बताते थे कि मैं कहां पहुंचा हूं. मेरे घर में वे फंसे रहते थे उस जीवन के बीच जहां धूल और बारिश और दीमकों और चूहों और भी कई मुसीबतों से लड़ते हुए आदर्श अब भी सुरक्षित और जीवंत थे. मैंने उन्हें उपन्यासों के बीच से हटाने और उपन्यासों के बीच में पहुंचाने के बीच में ही ‘उम्मीद’ का अर्थ समझा है. लेकिन लंबी कहानियों में कहीं कोई ‘बीच’ नहीं था. मैं उन्हें एक बार में पढ़ जाता था, उनकी सारी औपन्यासिक संरचना के बावजूद. लंबी कहानियों के इसी दौर में बुकमार्क निरर्थक हो गए. वे कभी नायक हुआ करते थे, औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव के ओज में डूबे कथाओं को अंत तक ले जाते हुए. अब वे बेघर थे. एकदम एकाकी और उदास, उपन्यासों की प्रतीक्षा में वे ‘दूसरों’ के घरों की सीढ़ियों पर बैठे रहते. लेकिन मेरी भाषा में अब ‘उपन्यास’ नहीं थे. औपन्यासिक काव्यात्मकता नहीं थी. बस लंबी-लंबी कहानियां थीं सारी औपन्यासिक संरचना के बावजूद.

मेरी भाषा के वर्तमान में औपन्यासिक काव्यात्मकता की खोज में बुकमार्क लगभग नाउम्मीद हो गए थे. इस दृश्य में ही मेरी भाषा में कवि के रूप में चर्चित और प्रतिष्ठित कुछ युवा रचनाकार एक समयांतराल के बाद उपन्यास-लेखन की ओर प्रवृत्त हुए. ...और बुकमार्क्स की नाउम्मीदी को दूर करने की कोशिश के क्रम में मैंने कवयित्री नीलेश रघुवंशी का उपन्यास ‘एक कस्बे के नोट्स’ पढ़ा.  



(१)
परिवर्तनों का प्रवाह

एक निम्नमध्यवर्गीय कस्बाई पारिवारिक जीवन के अद्वितीय प्रकटीकरण के लिए नीलेश रघुवंशी भाषा की एक ऐसी बनत को व्यवहार में लाती हैं, जहां औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की मांग उनके उपन्यास ‘एक कस्बे के नोट्स’ से गैरजरूरी जान पड़ती है. यहां कथ्य इतना सशक्त और स्पष्ट है कि भाषा में कोई अन्य ‘कार्यक्रम’ करने की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन यह उपन्यास हिंदी में लिखी गई या लिखी जा रही लंबी कहानियों से अलग नहीं है. वस्तुत: यह एक लंबी कहानी है.

यहां एक परिवार है. इस परिवार में पिता की भूमिका में जो सदस्य है, वह इस लंबी कहानी का नायक है. बाहर से देखने से पर नायक ‘कस्बा’ भी नजर आ सकता है. लेकिन ‘कस्बा’ केंद्र में दृश्य होते हुए भी केंद्र नहीं है. केंद्र है पिता और इस केंद्र का वृत्त हैं इस नायक की बेटियां— आशा, उषा, अन्नी, शालू, शिवा, सीमा, बबली और नीरा. इस केंद्र का विपरीत ध्रुव है— इकलौता और आठ बेटियों से छोटा बेटा भैया. इस वृत्त में केंद्र का निकटवर्ती एक अस्थिर बिंदु है मां. इस वृत्त में केंद्र के समानांतर केंद्र-सा प्रतीत होता एक और केंद्र है ढाबा.

यहां मां अपनी बेटियों की ‘उड़ान’ से भयभीत है, जबकि पिता अपने अंतवंचित अभावों और सामाजिक दुश्वारियों के बीच भी उनकी उड़ानों को हवा दे रहा है. वह सतत संघर्षरत, लेकिन अंत से कुछ पूर्व तक असफल है.

मां बेटियों को पढ़ाए जाने तक के पक्ष में नहीं है, जबकि बेटियों के हाथ आकाश के बहुत-बहुत करीब होते जा रहे हैं. मां पिता के सामने बेटियों पर हावी नहीं है, ऐसा वह पिता की अनुपस्थिति में करती है :

‘और तुमे जो भी कच्छू कहने होउ करे वो कक्का के सामने कैऊ करे. कक्का के सामने तो तुम चुप रहती हो और उनके जाते ही शुरू हो जाती हो. एकाध दिन तुम कक्का से जे सबरी बातें अच्छे से समझ लो.’

बेटियां सामाजिकता के दबाव में असमय ही बहुत समझदार और सहिष्णु हो रही हैं. वे विज्ञान से कला की ओर शिफ्ट हो रही हैं :

‘अरे, वो और बच्चे होते हैं जो साइंस पढ़ते हैं. हमारे-तुम्हारे नहीं.’
‘हां, वो और कोयले होते हैं, जिन्हें भट्ठी में पूरी तरह सुलगना मिल जाता है.’

प्रेम उनके जीवन में नहीं था, प्रेम पर केवल विचार थे. यहां जीवन-प्रवाह अपनी नैसर्गिक गति में है और दृश्य दर दृश्य सब कुछ कस्बे में बदलता जा रहा है. कामगार हाथ बदलते जा रहे हैं. यहां ‘बाजार यानी शहर में बसने की आस है’ और यहां ‘ऐसा लगता कि रात न हो तो कितना अच्छा हो!’ इस बसावट में बार-बार भागकर आना होता है. यह ‘आना’ इतनी बार और इस कदर होता कि लगता यहीं रह जाएं, आखिर गांव में अब रखा ही क्या है! लेकिन राहें एक वक्त के बाद यहां रहने की इजाजत नहीं देतीं और लौट जाना होता. ...और बिछुड़न ऐसी कि सब कुछ चिट्ठी में बदल जाता :

‘क्या सब कुछ एक समय के बाद चिट्ठी में बदल जाता है? हो सकता है कि एक दिन रेल भी चिट्ठी में बदल जाए! क्या सूखे पत्तों के पहाड़ और पगडंडी पर बनी लाइब्रेरी की किताबें भी इस पार से उस पार पहुंच, एक चिट्ठी में बदल जाएंगी?’

इस समय में संप्रायदिकता पसर रही थी और पिता एक उदास गीत की तरह हो गए थे. धीरे-धीरे यह लंबी कहानी हास्य-परिहास की सारी संभावनाएं तजकर दर्द, दु:ख, अवसाद, असहायताबोध और अपराधबोध की ओर बढ़ती है. दो खाली पृष्ठ आते हैं और यह लंबी कहानी अपने मध्यांतर को प्राप्त होती है :
‘चीजों को थोड़ा ठहरकर धैर्य के साथ सुनना-समझना चाहिए. सांस भर आती है, कलेजा मुंह को आ जाता है. किसी के टूटे हुए सपनों का बखान करते. वह भी एक ऐसे आदमी के सपने, जिसने खुद के लिए कोई सपना नहीं देखा.
कुछ और नहीं, बस यह खाली जगह. यह एक कोरा कागज, उन्हीं सपनों के लिए....

इस कथा के अंत तक आते-आते यह लगता कि यह कथा अपने भीतर समाहित सब कुछ के बहुत तेज और सतत बदलते रहने की कथा है. कस्बे में बड़े बदलाव आ चुके हैं. वृत्त खुलकर फैल चुका है. विपरीत ध्रुव बिखरे बिंबों में केंद्रीय होने की गलत प्रक्रिया में है. कभी निकटवर्ती अस्थिर बिंदु अब कुछ धुंधला हो चला है. समानांतर केंद्र अपना मूल स्वरूप खो चुका है. और केंद्र अब सब कुछ से छूटकर लगभग एक द्वीप है. जैसा कि पूर्व में कहा गया कि अंत से कुछ पूर्व तक वह पराजित-सा लगता है, लेकिन बकौल विष्णु खरे उसकी एक बेटी ही उसके पराजय के क्षण को एक मार्मिक विजय में बदल देती है.

‘एक मेहनतकश कस्बाई बेटी की इस आपबीती’ में विष्णु खरे नीलेश रघुवंशी की कहन के भाषाई कौशल पर फरमाते हैं, ‘आज के अधिकांश कहानी-उपन्यास इसलिए भी अपाठ्य हो चुके हैं कि उनमें लेखक-लेखिकाएं कथ्य के अपने कंगाल दिवालिएपन से ध्यान बंटाने के लिए कुछ नहीं तो भाषा की ही अनर्गल और हास्यास्पद बंदरकूद कर रहे हैं. कुछ लोक-भाषा की दूर की कौड़ी लाने के प्रयास में स्वयं घोंघे हुए जाते हैं. नीलेश रघुवंशी के यहां कस्बे की भाषा निहायत कारगर ढंग से अनलंकृत है और जितनी बुंदेलखंडी लाजिमी है, वह भी ठेठ नहीं है.’

‘एक कस्बे के नोट्स’ को पढ़ चुकने के बाद मैं इसे अपने सिरहाने रखता हूं और औपन्यासिक काव्यात्मकता की अपनी खोज के लिए कवि हरे प्रकाश उपाध्याय के उपन्यास ‘बखेड़ापुर’ में प्रवेश करता हूं.


(२)
कहां नहीं है ‘बखेड़ापुर’

वर्तमान की चापलूसी में 
तुम कभी भी अपने अतीत को व्यर्थ नहीं समझोगे
सारी दुर्घटनाएं सींचेगी
हरे-हरे पात लाएंगी
आने वाली पीढ़ियां सदा उर्वरा होंगी भारत की 
[ कमलेश ] 

‘बखेड़ापुर’ का प्रत्येक अध्याय काव्य-पंक्तियों के उद्धरणों के साथ आरंभ होता है. ‘यह उपन्यास एक कवि का है इसलिए इसकी भाषा और प्रस्तुति को कुछ काव्यात्मक भी होना चाहिए...’ कवि इस दायित्व से प्रत्येक अध्याय से पहले दिए गए उद्धरणों के साथ मुक्त हो जाता है. ये उद्धरण जाने-अनजाने कवियों की काव्य-पंक्तियों से निर्मित और उपन्यास की अंतर्वस्तु से असंपृक्त हैं. अपने कुल प्रभाव में ये उद्धरण केवल अध्याय का खत्म होना सूचित करते हैं, वैसे ही जैसे इस उपन्यास पर लिए प्रस्तुत नोट्स में आए उद्धरण केवल एक अनुच्छेद का आना सूचित करते हैं. गद्य रच रहे एक कवि के लिए इस तरह एक कवियोचित दायित्व से मुक्त होना खेदजनक है. इस उपन्यास की भाषा और प्रस्तुति काव्यात्मक नहीं है. उद्धरण दूसरों के होते हैं, इसलिए उनसे आपका काम अंत तक नहीं चल सकता. 
वे कुछ नहीं करते
अपने आप प्रकट होता है उनसे
सुंदर और नश्वर 

[ ध्रुव शुक्ल ] 

भाषा और प्रस्तुति में औपन्यासिक काव्यात्मकता न होने के बावजूद यह उपन्यास आस्वाद के स्तर पर सशक्त है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां कवि अपने लोक में गहरे उतरा हुआ है. यहां लोक से उठकर आए अपरिष्कृत शब्दों का अर्थपूर्ण वैभव है और लोक से ही उठकर चले आए अंधयकीनों का वैभववंचित दर्प भी. पात्रों (जिनका कम न होना वैसे ही है, जैसे उनका बहुत न होना) के छोटे-छोटे जीवन प्रसंगों के बीच चलती किस्सागोई गजब है. यह किस्सागोई और यह लोक-वैभव हिंदी उपन्यास में एक अर्से बाद लौटा है, यह कहने की जरूरत नहीं कि इस अर्थ में यह उपन्यास स्वागतयोग्य है.

मैं यहीं कहीं की गलियों से बाहर निकलने की राह खोजता हूं
नक्षत्रों पर उसकी उंगलियों से छूटे निशानों से 
मेरी नियति का नक्शा तैयार होता है 
जिसमें उलझकर न जाने कितने निर्दोष गिरते चले जाते हैं 
[ उदयन वाजपेयी] 

‘बखेड़ापुर’ में अनपढ़ बनाए रखने की साजिशों के बीच भी बोलियां अपना उल्लास और चुटीलापन नहीं खोती हैं. काहिली और सतही मनोरंजन से घिरे पात्र हाशिए की वर्णनात्मकता रचते रहते हैं. जीवन में इतना विलाप, इतना व्यंग्य, इतना क्रोध, इतनी करुणा, इतनी विवशताएं होती हैं कि इसके प्रकटीकरण के लिए औपन्यासिक काव्यात्मकता को खोकर भदेस होना पड़ता है :

काका सुनाइए तनी, का हुआ सुहागरात के दिन?’
‘अरे दुर, तोहनियो सब न रोज एके बतिया करता है.’
‘काका बतिया तो एके नू है, रतिया के बतिया, कि दू ठो है, तो दूनो सुनाइए.’
‘पैर दबाएगा न रे तेलिया?’
‘आरे काका शुरू न करिए, तेली रामा रोज दबाते हैं, आज कोई नया है?’

यह उपन्यास अपने कथ्य में विषयों को अतिक्रमित करता हुआ चलता है.

हम आहत थे और रुग्ण थे और हर बात मन में 
रंग की तरह लगाकर बैठ जाते थे
अपने अंग-संग दिन-रात रहने वाले शख्स की 
याद आने लगती थी और रोना आता था
कोई बहुत दूर था, उसकी गंध रंध्रों में फूट पड़ती थी
और सफेद रात घिर आती थी
[ तेजी ग्रोवर ] 

यहां यथार्थ जैसे-जैसे खुलता है, वैसे-वैसे और फैलता जाता है. यह आश्चर्यजनक नहीं कि यह उपन्यास खत्म भी एक फैलाव पर होता है. यहां मुक्तिबोध याद आते हैं जिनके सामने एक कदम रखते ही हजार राहें फूटती हैं :  

भीतर से कोई आवाज नहीं आती. बाहर से आवाज लगाने वाला कसमसाकर रह जाता है.
जितने भी ‘गिद्ध’ हैं और बहुत सारे ‘गिद्ध’ हैं, सब नजर गड़ाए हुए हैं.’

सरकारी योजनाएं, शिक्षा, चिकित्सा, यौन-मनोविज्ञान, अंधविश्वास, जाति-व्यवस्था, आर्थिकी के बदहाल वर्तमान के बीच ‘बखेड़ापुर’ में वह सब कुछ जो बहुत जरूरी है, अनिश्चितकाल के लिए अवकाश पर है. अपने केंद्रीय कथ्य और प्रकाश में यह कथा एक ऐसी स्थानीयता जो कहीं भी हो सकती है, की बदहाली को राजनीति की बदहाली से और राजनीति की बदहाली को शिक्षा की बदहाली से जोड़ती है. घटनाक्रम, चरित्र और व्यवस्था बदलते रहते हैं, लेकिन यह बदलाव बदहाली को बदल नहीं पाता.
अंधे बिल में अजन्मे शिशु की पसली टूटती है 
तो ईश्वर की हिचकी में गर्दन गिरे पेड़ सी लटक जाती है  
[ अनिरुद्ध उमट ]

यहां सच टूट रहा है और इस टूटन में यह उपन्यास बार-बार स्कूल की तरफ लौटता रहता है, लेकिन यहां तक आते-आते वहां :

बखेड़ापुर में रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय, पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था. स्कूल अब अस्थायी तौर पर ही लगता. बच्चे बहुत कम स्कूल आ पाते, शिक्षक भी कम आते या नहीं आते— कौन पूछने वाला था.’  

तमाम (अ)मानवीय धत्तकर्मों, गालियों, हिंसा के समानांतर उभरती प्रतिहिंसा के साथ ‘बखेड़ापुर’ की भाषा और प्रस्तुति सिनेमाई प्रभाव लिए हुए है. यहां वह औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव न सही जिसकी मुझे खोज है, लेकिन कहीं-कहीं एक ऐसी सांगीतिक लय है जो अपने असल असर में कुछ कचोटती हुई सी है.
लकड़ीली दिल्लगी पर डेढ़ घड़ी दिन चढ़ा होता 
पर भाप छाया जैसे जमी रहती
दिन चिलका पड़ता फिर धूमिल धब्बे में बिखर जाता
[ पीयूष दईया ]  

‘बखेड़ापुर’ पढ़ चुकने के बाद भी हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की मेरी खोज जारी है. मैं इसे भी अपने सिरहाने रखता हूं और कवि राकेश रंजन के उपन्यास ‘मल्लू मठफोड़वा’ को उठाकर अपनी आंखों के सामने लाता हूं.
निर्जन है, निस्पंद नहीं है
अरण्य है तो आखेट तो होगा ही
पैरों के नीचे तुम्हारा ही बिंब है
अगले कदम पर कौन होगा तुम्हारे साथ
इसलिए अरण्य है तो आखेट तो होगा ही

[ शिरीष ढोबले ]



(३)
संभावनाओं के उर्वर प्रदेश में   

कठफोड़वा के बारे में बताने के बाद मल्लू के बाबा उससे कहते हैं कि पेड़ को कठफोड़वा चाहिए और देश को मठफोड़वा. ‘मल्लू’ यानी मौलिचंद्र यानी उपन्यास का केंद्रीय पात्र. जिस औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की तलाश मुझे है वह तीन भागों में विभक्त राकेश रंजन के उपन्यास ‘मल्लू मठफोड़वा’ के पहले और दूसरे भाग में दृश्य होता है, लेकिन जैसे ही मैं तीसरे और अंतिम भाग में इस इच्छा के साथ प्रवेश करता हूं कि मैं यहां उसे समग्रता में पा जाऊंगा, मैं निराश होता हूं.

हहरना, बिलपना, राकस, हहुआ, हत्तोरी, खरखउकी, जगत्तर, लोर, बकार, बिहरना, कुहकनी, साही, खिक्खिर, महोख... जैसे लोक-शब्दों और पक्षियों को अपने लंबी कहानीनुमा छोटे से उपन्यास के विन्यास में लाते हुए राकेश ने एक ऐसा प्रभाव संभव किया है जिसे राकेश के शब्द लेकर कहें तब कह सकते हैं कि ‘स्वर उनका मंद था, मंद ही रहा, पर हमारे दिल-ओ-दिमाग पर असर उसका भारी था— भारी और गहरा— कलेजे में हौले से धंसकर उसे मथने वाले तीर की तरह, अकथ व्यथा से भर देने वाला.’

प्रवेश’ शीर्षक पहले अध्याय में नायक की शुरूआती उम्र है जिसमें आकर्षण है, दर्द है, बिछुड़न है और तकलीफें हैं. इस सृष्टि की भौगोलिकता में विचरण और विस्थापन को बाध्य सजीवता को लेकर कैशोर्य कौतूहल से उमगते प्रश्नों के उत्तर हैं जो ‘परिवेश’ शीर्षक दूसरे और ‘प्रस्थान’ शीर्षक तीसरे अध्याय तक भी चले आए हैं :

अक्सर उनके जवाब से दूसरे सवाल पैदा होते, फिर उनके जवाबों से और-और सवाल उभरने लगते और इस तरह बात लंबी होती चली जाती.’
‘अक्सर वे रुक-रुककर बोलते. एक-एक शब्द उनकी आत्मा के गहन लोक से कढ़कर आता-सा प्रतीत होता.    

स्थानीय उत्सवधर्मिता, भाषिक व्यवहार और क्लेशों को प्रगट करते हुए यह उपन्यास एक जरूरी कृति बनने की ओर बढ़ता है, लेकिन बनता नहीं. यह बनने की संभावना के विस्तार के अधूरेपन में खत्म हो जाता है. इस तरह यह अपने अंत में संभावनाशील मगर दुर्घटनापरक उपन्यास है.

एक व्यापकता में नवनिर्मित होते हुए बाजार की आहटों के मध्य एक मनोरंजनधर्मी लोक के हास्य के दृष्टिवृत्त में घटती हिंसाएं और महत्वाकांक्षाएं भाषा को बहुत नीचे उतार देती हैं. इस भाषिक व्यवहार से लड़ते हुए यह उपन्यास बहुत सहज और स्वाभाविक ढंग से अपने ‘प्रस्थान’ की ओर जाता है, जहां खाड़ी युद्ध चल रहा है, लेकिन अगस्त के महीने में फूल अब भी उग रहे हैं. यह उपन्यास अपने कुल असर में शोक और दु:स्वप्नों के बरअक्स प्रेम और करुणा को प्रतिष्ठित करता है. युवा मल्लू का अपने बाबा से संवाद इस उपन्यास को एक मानवीय गरिमा प्रदान करता है :

झूठे ईश्वर को पा नहीं सकते, सच्चों को वह खुद पा लेता है !...
जो धारण करने लायक है वही धर्म है. तू खुद सोच मल्लू ! तू खुद से पूछ क्या धारण करने लायक है— सत्य या असत्य? हिंसा या अहिंसा? दया या निर्दयता? तू खुद से पूछ तुझे उत्तर मिलेगा !...’

कृति की सार्थकता यहां संभव होती है, ऐसी संभवता ही किसी कृति को संभवत: मूल्यवान बनाती है. इस बेहतरीन उपन्यास को हिंदी में लगभग ‘न आने’ जैसे भाव के साथ लिया गया है, इस पर कोई बात नहीं हुई है, जबकि तमाम गैरजरूरी बातें होती रही हैं और हो रही हैं. इस प्रसंग में अगर यहां कुछ अवांतर होकर आर्थर कोएस्टलर की एक बात का जिक्र करें तब कह सकते हैं, ‘वास्तविक अर्थों में मूल्यवान और महत्वपूर्ण मौलिक रचनाएं समीक्षा-कर्म से बाहर की चीज हैं. उसे आस्वादक और सृजक के बीच बाधा नहीं बनना चाहिए. उसे कोई विवेचना या मीमांसा नहीं देनी चाहिए. उसे एक सूत्र बनकर कृति के संदर्भ में एक सूचना बन जाना चाहिए. चूंकि समीक्षक (?) को ही यह तय करना है कि वह किस कृति को मूल्यवान, महत्वपूर्ण और मौलिक मान रहा है, तब यह उसके विवेक पर भी निर्भर है... समीक्षाएं प्राय: पक्षधरता से आच्छादित होती हैं.’ प्रस्तुत उद्धरण के बाद हिंदी में ‘मल्लू मठफोड़वा’ जैसे उपन्यास के उपेक्षित रह जाने के कारण समझ में आते हैं.

‘एक दिन जब सारे हथियार मिट्टी में मिल जाएंगे, सारे फसादों की जड़ें खाक हो जाएंगी, नफरत और दहशत-वहशत के बुलबुले वक्त के बेपनाह समंदर में गुम हो जाएंगे, दुर्दिन बीत जाएंगे, दु:स्वप्न बीत जाएंगे, दुर्लोक बीत जाएंगे, दुष्चक्र बीत जाएंगे... तब क्या बचेगा?
प्यार...
मुझे विश्वास है कि अंतत: प्यार ही बचेगा!!’  

यह उपन्यास संभावनाओं के उर्वर प्रदेश में जाकर खत्म होता है और हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की खोज यहां भी एक संभावना ही बनी रहती है. मैं इस उपन्यास के बाद कवि सुंदर चंद ठाकुर का उपन्यास ‘पत्थर पर दूब : एक कमांडो की प्रेम कथा’ उठा लेता हूं.


(४)
एक प्राचीन रुमानियत के मध्य  

भले ही वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल के सुझावों पर गौर करते हुए सुंदर चंद ठाकुर ने अपने उपन्यास ‘पत्थर पर दूब’ की मूल पांडुलिपि के लगभग सौ पृष्ठ कम कर दिए हों, लेकिन फिर भी इससे गुजरने के बाद ऐसा लगता है कि इसमें से कम से कम सौ पृष्ठ और कम होने चाहिए थे. चूंकि ऐसा नहीं हुआ है इसलिए इस अनावश्यक स्फीति ने इस उपन्यास को बोरियत से भर दिया है. इस बोरियत में एक पुरानी रुमानियत है जो अद्यतन मुख्यधारा के उपन्यासों में प्रासंगिकतम अर्थों में अब नजर नहीं आती है. यह रुमानियत इस कदर है कि यह एक दौर के हिंदी उपन्यासों और कहानियों की याद दिलाती है :

‘शिवानी, मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता!’ विक्रम बुदबुदाया.
‘जानती हूं!’ शिवानी के होंठ हिले. दोनों एक-दूसरे के और करीब आ गए. और तब विक्रम ने अपने पपड़ाए होंठ शिवानी के होंठों पर रख दिए. दिल की धड़कनें अपने चरम पर थीं. वे जमीन पर नहीं, जैसे अधर में थे, पेड़ नहीं थे सिर्फ हरा था, हवा नहीं थी, न जंगल था न शहर. ऊपर आसमान भी न था. अस्तित्व का एहसास भी नहीं. सिर्फ एक कशमकश थी, जिसमें दोनों के होंठ फड़क रहे थे.’

कथा-नायक विक्रम के जीवन में बार-बार स्त्रियां आती हैं, लेकिन उसका रुख उनके प्रति आकर्षण से आगे नहीं बढ़ पाता. वह प्राचीन, परिचित और परिणामवंचित प्रेम पर ठहरा हुआ है.

इटैलिक्स फॉन्ट के सहारे यह उपन्यास बार-बार पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) में लौटता है, जहां एक कमांडो कार्रवाई जारी है. सामान्य फॉन्ट के सहारे भी एक समानांतर पूर्वदीप्ति संभव की गई है जहां कथा-नायक अपने प्रेम और घर से जुड़ी मार्मिक और दु:खद स्मृतियों को वर्तमान में डायरी में दर्ज कर रहा है. इस डायरी में कमांडो ट्रेनिंग, (जिसे पढ़कर नाना पाटेकर निर्देशित और अभिनीत फिल्म ‘प्रहार’ याद आती है) फौजियों का जीवन और उनकी असामाजिकता, उनके तनाव और अकेलेपन को उजागर किया गया है. इस अनुशासित व्यवहार के किंचित क्रूर संसार में ध्वस्त होते हुए कथा-नायक को वास्तविक दुनिया से दूर होने का भ्रम होता है :

‘दर्द है, लेकिन जिस्मानी है. दर्द तो कितना भी सहा जा सकता है. आखिर मैंने ही तो यह रास्ता चुना है. मगर यहां सोचने के लिए एक पल भी नहीं मिलता. एक फौजी को क्या सोचने की जरूरत नहीं पड़ती?’
‘लिखने को बहुत कुछ है, लेकिन लिखना एक लग्जरी है, जो यहां नहीं मिल सकती. यहां नींद से बढ़कर कुछ नहीं. चारों ओर नींद ही बिछी दिखती है. नींद में भी नींद के ही सपने आते हैं.’  

कमांडो कार्रवाई दरअसल इस उपन्यास का क्लाइमेक्स है. यह कार्रवाई मुंबई के ताज होटल में जारी है, जिस पर आतंकी हमला हुआ है. क्लाइमेक्स और उसके आस-पास के पृष्ठ विचलित कर देने वाले वर्णन से भरे हुए हैं. इस वर्णन में बदलते हुए समय के बीच बदलती सेना और सेना-समय है.

‘1990 के दशक की शुरुआत तक पहाड़ों में आर्मी अफसर बनना आई.ए.एस. बनने से बड़ा माना जाता था. यहां से गिने-चुने लड़के ही अफसर बन पाते थे. मगर नई शताब्दी के पहले दशक के आते-आते उदारीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बाढ़ ने स्थितियां बदल दीं. बड़े शहरों से अफसरों का आना लगभग बंद हो गया था और वह चाहे खड़गवासला की नेशनल डिफेंस अकेडमी हो, देहरादून की इंडियन मिलिट्री अकेडमी या मद्रास की ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकेडमी, हर जगह छोटे कस्बों के लड़कों की भरमार हो गई थी.’

इस नए सेना-समय में कारगिल युद्ध और उसके विषय में बतियाते जवानों का नेपथ्य है. कई शहादतों के बाद अंतत: विजय दिवस है. शहीद कैप्टन विजयंत थापर और सेना के पुरस्कारों में विद्यमान राजनीति है. एक ऐसा शहीद और मुल्क है, शहीदों के बारे में जिसकी याददाश्त बहुत कमजोर है. यह कमजोरी एक भारतीय कमजोरी है. कथा-नायक उपन्यास की अंतिम पंक्तियों में अपनी डायरी में दर्ज करता है :

‘आज जीवन का एक और अध्याय खत्म हुआ... एक भटकती हुई आत्मा मुक्त हुई... एक अधूरी कहानी पूरी हुई... आज मैं कह सकता हूं कि मेरे पास खुश होने के लिए सारी बुनियादी चीजें हैं... प्रेम का गहरा एहसास भी....’

लेकिन इन अच्छाइयों-बुराइयों के बावजूद यह उपन्यास एक कवि का उपन्यास नहीं लगता है, और इसलिए हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की मेरी खोज यहां भी पूरी नहीं होती. मैं अब कवि संजय कुंदन का उपन्यास ‘टूटने के बाद’ पढ़ना आरंभ करता हूं.



(५)
अनुपस्थितियों का वैभव

कवि संजय कुंदन के उपन्यास ‘टूटने के बाद’ के बारे में आरंभ में ही यह बता देना आवश्यक लगता है कि यह भी कहीं से एक कवि का उपन्यास नहीं लगता है. इसके साथ एक दिक्कत यह भी है कि यह कहीं से उपन्यास भी नहीं लगता है. अपने विन्यास और प्रभाव में यह एक लंबी कहानी जैसा ही है. औपन्यासिकता और औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की अनुपस्थिति के बावजूद यह ‘कथा-कृति’ पढ़े जाने लायक है. यह भी कहना गलत नहीं होगा कि यह कृति खुद को पढ़वा ले जाती है.

108 पृष्ठों के भीतर जीते एक केंद्रीय पात्र अप्पू और उसके माता-पिता और भाई के जीवन-वर्णन में यह कृति पढ़ने वाले की दिलचस्पी बनाए रखती है. केंद्रीय पात्र लक्ष्यवंचित और अपने आस-पास से नाराज-सा है. वह नए-नए इरादे बनाता और तर्क करता रहता है. वह सबकी तरह जीना नहीं चाहता है. इस सोच से उपजी हताशा उसे आत्महत्या की ओर प्रवृत्त करती है. लेकिन अगले ही दिन वह अपनी कामवाली को खुश देखकर इस इरादे को बदल देता है और एक ब्लॉग बनाकर उस पर अपनी आपबीती दर्ज करने लगता है. इस आपबीती पर देश-विदेश से आईं प्रतिक्रियाएं उसे जीवन के प्रति उत्साह और सकारात्मकता से भर देती हैं.
यह पात्र इस कथा का संभावनाशील लेकिन अशक्त और असामान्य पहलू है. यह अपरिष्कृत और अनडेवलप्ड है. इस कृति को प्रासंगिक और कुछ मूल्यवान सिद्ध करने के लिए इस पात्र से इसकी केंद्रीयता छीननी होगी और उसे उसकी मां विमला को सौंपना होगा. यहां मां लगातार अपने दिल की सुन रही है और तमाम टूटनों के बीच भी मजबूती से खड़ी हुई है. वह अपने फैसले खुद लेती हुई एक ऐसी आत्मनिर्भर और आधुनिक स्त्री है जिसे हमारी कल्पनाओं की सारी रचनाओं में ही नहीं, बल्कि इस संसार में भी केंद्रीयता दे देनी चाहिए.

यह कथा इस स्त्री के सेल फोन पर आए एक मैसेज से शुरू होती है. इस मैसेज में उसका बेटा (और यहां इस चर्चा में कृति का भूतपूर्व केंद्रीय पात्र) यह कहकर घर छोड़कर जा चुका है कि उसे खोजने की कोशिश न की जाए. फिर भी मां उसे खोजने की कोशिश करती है, लेकिन दुर्भाग्य (?) से वह कहीं जाता नहीं और लौट आता है. मैं कल्पना करता हूं कि यह पात्र (जिसे बहुत से पाठक केंद्रीय समझने की भूल कर सकते हैं) अगर सचमुच चला जाता और इस कथा में कभी लौटकर न आता... तब क्या होता? इस कल्पना के बाद मैं पाता हूं कि इससे इस कथा पर कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि यह कथा इस पात्र की ‘अनुपस्थित उपस्थिति’ से कुछ और बेहतर होती.          

यह कथा खत्म होती है जब विमला का पति एक स्त्री से धोखा खाकर टूटा हुआ उसके पास वापस लौट आया है, इस उम्मीद में कि उसकी पत्नी उससे प्रचलित, अपेक्षित और ‘स्त्रियोचित’ व्यवहार करेगी. लेकिन यह व्यवहार इस केंद्रीय स्त्री को स्वीकार्य नहीं है. उसके व्यवहार में अपने पति को लेकर उपेक्षा और नकार का भाव है. यह भाव ‘टूटने के बाद’ आया है. ‘टूटने के बाद?’ इस प्रश्न के साथ विमला अपने पति को उसके हाल पर छोड़ अपनी बहन कमला जो अपने पति से बुरी तरह प्रताड़ित है, के भविष्य को संवारने में व्यस्त हो जाती है.

इस तरह अनुपस्थितियों के वैभव में यह एक पठनीय और जरूरी कृति है, लेकिन जैसा कि जाहिर है मेरी खोज यहां भी अपूर्ण है. इसलिए मैं इसे भी सिरहाने रखता हूं और कवि एकांत श्रीवास्तव के उपन्यास ‘पानी भीतर फूल’ पर नजरें गड़ाता हूं.


(६)
काव्यात्मकता नहीं काव्याभास

कवि एकांत श्रीवास्तव का उपन्यास ‘पानी भीतर फूल’ एक कवि का उपन्यास तो लगता है, लेकिन इसमें काव्यात्मकता कम और काव्याभास ज्यादा है. यहां कृत्रिम काव्यात्मकता रचते हुए वाक्यों को उपशीर्षकनुमा ‘बोल्डनेस’ दे दी गई है. यह विनोद कुमार शुक्ल की शैली है जिसे उम्र और प्रतिभा दोनों में ही उनसे कमतर गद्यकार अपनी कृतियों में अपनाते और आजमाते रहे हैं.

एक अपाठ्य वैभव से संबद्ध यह उपन्यास लोकवाणी को औपन्यासिक भाषा में निभा ले जाने की जिद या कहें शर्त पूरी नहीं कर पाता. यह अपने आस्वादक के लिए ऊब और नैराश्य उपजाता है. इसके अन्य पाठ बहुत संभव है इसे प्रासंगिक, महत्वपूर्ण और स्वाभाविक बनाएं, लेकिन वास्तविक काव्यात्मकता की खोज में इस उपन्यास के नजदीक जाना इसे अधूरा छोड़ देने के लिए बाध्य करता है. कवि के रूप में प्रतिष्ठित रचनाकारों के उपन्यासों से काव्यात्मकता की मांग एक जायज मांग है. यह मांग तब और ज्यादा जायज हो जाती है जब हिंदी के पास एक ऐसी पृष्ठभूमि हो जिसमें कई कथाकारों ने अपने उपन्यासों में एक अप्रतिम काव्यात्मकता संभव की हो.

‘एकांत ने कविता के कलेवर में ‘पानी भीतर फूल’ लिखा है’— ऐसा वरिष्ठ कवयित्री अनामिका ने इस उपन्यास के ब्लर्ब पर कहा है. इसे एक गलतबयानी की तरह पढ़ा जाना चाहिए. यह सच है कि टी.एस. एलियट ने कविता को नाटकीय बनाकर काव्य-नाटक लिखे थे. लेकिन एकांत कविता को औपन्यासिक नहीं बना पाए हैं. ऐसे में कवि का गद्यात्मक व्यवहार काव्याभास तो दे सकता है, काव्यात्मकता कतई नहीं.... मैं अब निलय उपाध्याय के उपन्यास ‘वैतरनी’ को पढ़ने लगता हूं.



(७)
अपूर्ण लेकिन मार्मिक

‘अभियान’ के बाद ‘वैतरनी’ कवि निलय उपाध्याय का दूसरा उपन्यास है. दशरथ मांझी के जीवन पर ‘पहाड़’ शीर्षक से एक और उपन्यास उन्होंने लिखा है. विस्थापन, विवाह, प्रेम, जाति और स्त्री-अस्मिता की धाराओं की ‘वैतरनी’ 111 पृष्ठों की एक ऐसी कथा-कृति है जिसे एक कवि का उपन्यास और उपन्यास न कहकर एक लंबी कहानी कहना ज्यादा उपयुक्त होगा. यहां ऐसा पृष्ठ संख्या को देखते हुए नहीं कहा जा रहा है बल्कि उन औपन्यासिक नियमों को ध्यान में रखते हुए कहा जा रहा है जो बताते हैं कि उपन्यास व्यापक होता है और कहानी गहन. उपन्यास उपाख्यानों में संभव होता है. इस तरह से देखें तो ‘वैतरनी’ उपन्यास नहीं, एक लंबी कहानी है, जो एक कवि के द्वारा लिखी गई नहीं लगती है. जैसे रंग-प्रस्तुतियां कभी-कभी मंच पर अंडर रिहर्सल लगती हैं, वैसे ही यह कृति भी अंडर रिवाइज लगती है— जल्दबाजी और लापरवाही में लिखी हुई— सहज समझ और सजगता से वंचित.... इसके बावजूद यह कृति अपने अंतिम पृष्ठों में एक बड़ी त्रासदी को प्रकट करती है. इन पृष्ठों में कथा-नायिका के प्रेमी की वापसी उसके गांव में होती है. लेकिन प्रेमिका अब गांव में नहीं है और गांव अब गांव नहीं रहा है. वह पूरी तरह बदलने की कगार पर है :

‘लगता है साहब बहुत दिन बाद इस इलाके में आए हैं... कुछ साल पहले उधर क्रशर मशीन लग गया... और पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा ढह गया... तब से यहां आवाज लौटकर नहीं आती...’

इस तरह यह कृति एक अपूर्ण लेकिन मार्मिक अंत को प्राप्त होती है, जहां जीवन में लगातार बाजार के शरीक होते चले जाने का दृश्य है. इस तर्ज पर ही कहूं तब कह सकता हूं हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की खोज भी इस अंत तक आते-आते अपूर्ण लेकिन मार्मिक हो चली है. जैसे जीवन में बाजार के शरीक होते चले जाने के दृश्य बढ़ते चले गए, वैसे ही मेरी इस यात्रा में भी कवियों के उपन्यास बढ़ते चले गए....


उपसंहार
उपन्यास का जन्म इतिहास की एक खास अवस्था में, एक खास जरूरत के कारण हुआ था. वह साहित्य का आदि और मूल रूप नहीं है. साहित्य की आदि शक्ति ट्रेजेडी है. उपन्यास ट्रेजेडी और ट्रेजेडी के बीच के अंतराल की चीज है. उपन्यास समाज के नाम इतिहास का एक एजेंट है. अगर वह ट्रेजेडी के स्थान को भर सकता तब तो कोई बात नहीं थी. लेकिन ट्रेजेडी के स्थान को केवल ट्रेजेडी ही भर सकती है. उपन्यास के जन्म में ही उसकी मृत्यु की आशंकाएं थीं, और जहां तक मैं सोच पाता हूं धीरे-धीरे उपन्यास के इतिहास में गुम हो जाने के लक्षण नजर आ रहे हैं...
—आक्टेवियो पॉज 

कविता गद्य से जन्मी है और वह गद्य में लौट जाना चाहती है...
—जार्ज लुइस बोर्हेस

उपन्यास अखबारी विवरण नहीं है. उसमें अपने युग के प्रश्न और शंकाएं शक्ल बदलकर आते हैं... पहली नजर में उन्हें पहचानना मुश्किल होता है...
—नथाली सरात

कितना भी क्षणभंगुर क्यों न हो, उपन्यास कुछ तो है जबकि हताशा कुछ भी नहीं...
—मारियो वर्गास ल्योसा

बुकमार्क अब भी नाउम्मीद, निरर्थक और बेघर थे. सब तरफ उपन्यासों की शक्ल में लंबी कहानियां थीं, वे उपन्यास नहीं थीं. उनमें काव्यात्मकता नहीं थी, व्यापकता नहीं थी और उपख्यान भी नहीं थे. इनमें रहा नहीं जा सकता था, ये एक रफ्तार में गुजर जाने के लिए बाध्य करती थीं. मैं बुकमार्क्स की तरफ से एक आखिरी उम्मीद के तौर पर युवा कवि गीत चतुर्वेदी के उपन्यास ‘रानीखेत एक्सप्रेस’ की ओर देखता हूं, जिसका प्रकाशित होना इन पंक्तियों के लिखे जाने तक शेष है. इस उपन्यास के कुछ अंश पढ़ चुकने के बाद यह उम्मीद बंधती है कि इसमें संभवत: काव्यात्मकता और व्यापकता होगी और उपख्यान भी होंगे....

सौंदर्य अगर विचारोत्तेजित नहीं करता तब वह एकरस हो जाता है, बहुत संभव है कि इस उपन्यास में ऐसा कुछ हो. लेकिन इस एकरसता के बावस्फ इसे पढ़ना किसी नदी को पढ़ने की तरह होगा, जहां भाषा सतत नई और सौंदर्य सतत परिपक्व होता जाएगा. यहां दृश्य एक काव्यात्मक विस्तार में होंगे. अतिव्याप्ति की अतिशयता में नियम और उद्देश्य से अलग होकर बजते हुए संगीत का एक अतिरंजित स्वर होगा. जीवन और प्रेम पर यादगार सूक्तियां होंगी :

‘हमारी आत्मा का रंग नीला होता है.’
‘प्रेम हमेशा आपके पीछे चलता है.’   
‘बिना याद किए कोई प्रेम संभव नहीं होता.’
‘प्रेम के दिन टूट जाने के दिन होते हैं.’
‘जिस प्रेम में आपके पास सिर्फ सवाल होते हैं, वह प्रेम ताउम्र आपका पीछा करता है.’
‘ईश्वर शैतान से उतना नहीं डरता जितना मनुष्य से डरता है.’
‘नीचे गिरने के बाद हम पाते हैं कि हमारे सिवाए और कोई चीज नीचे नहीं गिरी.’
‘किसी चीज का होना जानने के लिए उसका घटित होना कतई जरूरी नहीं होता.’
‘रचयिता जब अपने संगीत को प्रायश्चित मानता है. तब लोग उसके प्रायश्चित को संगीत मानने लगते हैं.’
‘सिर्फ धोखेबाज ही यकीन दिलाने में मेहनत करते हैं.’
‘पा लेने की अनुभूति खोने के बाद ही होती है.’                        

‘रानीखेत एक्सप्रेस’ में विन्यस्त इन सूक्तियों को पढ़ते हुए यह तय करना असंभव-सा लगता है कि ये सूक्तियां अनुभवजन्य हैं या भाषाजन्य. यह एक शाश्वत पर टिप्पणियां दृश्य होती हैं. इनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध लगती है. यहां आकर हिंदी के सामयिक गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की मेरी खोज पूर्ण होती है. मैं ‘रानीखेत एक्सप्रेस’ का इंतजार करता हूं....   
__________________________
darasaldelhi@gmail.com 

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  1. राकेश बिहारी7 दिस॰ 2014, 10:28:00 am

    इसमें कोई दो राय नहीं कि अविनाश की भाषा शैली पाठकों को बांधे रखती है। हमेशा की तरह अविनाश के इस लिखे ने भी बांधे रखा। हाँ, इस आलेख में प्रयुक्त कुछ सूत्र जरूर बहसतलब हैं। मसलन आखिर कब कोई कृति लंबी कहानी हो कर रह जाती है और कब उपन्यास हो जाती है? किसी उपन्यास को पढ़ते हुए यह क्यों कर लगे कि उसका लेखक कवि है? कवियों के गद्य में औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव अनिवार्य क्यों हो? यदि किसी उपन्यास में इसका होना इतना जरूरी है तो कथाकारों के उपन्यास में इसे क्यों नहीं खोजा जाना चाहिए?

    और हाँ जिस 'औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव' की खोज में अविनाश हैं, वह है क्या? उन्हें इन उपन्यासों में जो नहीं मिला उस सूत्रात्मक अवधारणा की गांठें खुलने की प्रतीक्षा इस लेख की हर अगली पंक्ति से लगाये बैठा था पर अंततः वह जिज्ञासा निरुत्तर रही। उम्मीद है अपने किसी आगामी लेख में अविनाश इन प्रश्नों पर भी विस्तार से बात करेंगे।

    अविश्वसनीयता के संकट से जूझते आलोचना-परिदृश्य में अविनाश जैसे समीक्षक आलोचक का होना बहुत जरूरी है। इस आलेख को पढ़ना इसलिए भी सुखद रहा कि यहाँ अविनाश की आलोचनात्मक तीक्ष्णता अशोभन के अहाते में नहीं प्रवेश करती।

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  2. इस पूरे समीकक्षकीय लेख को पढ़ जाने के बाद एक बड़ी उम्मीद जागती है कि अभी हिंदी का आलोचकीय कर्म किसी कृति विशेष का 'ऐड पोस्टर' बनने से बचा हुआ है. सच को सच कहने की काबिलियत किसी आलोचक को स्थापित करती है, पर इसका मतलब यह नहीं कि आधे-अधूरे मन/ढंग से पढ़ी गई कृतियों पर मनगढ़ंत दो-चार कमियाँ गिनाकर अपने आलोचकीय दायित्व की इतिश्री कर ली जाये (जैसा कि एक लम्बे समय से हिंदी में चलन सा बन गया है और दुःख कि ऐसा करने में मूर्धन्य आलोचक/समीक्षक भी शामिल हैं) ...फ़िलहाल यह लेख इसी मामले में सबसे बड़ी उम्मीद जगाता है कि आलोचक, बिल्कुल निष्पक्ष ढंग से और पूरे मनोयोग से इन उपन्यासों को पढ़ता है और तब जाकर उन पर अपनी लिखित राय व्यक्त करता है...वैसे, चूँकि आलोचक अपने किसी ख़ास मकसद (उपन्यासों में काव्यात्मकता) को ढूढ़ने के लिये ही उपन्यासों को पढ़ना शुरू करता है और अंत तक इन पढ़ी हुई कृतियों में वह यह न पाकर कई बार निराश होता है पर इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह इन उपन्यासों में काव्यात्मकता न पाकर इन्हें पूरी तरह उपन्यास होने से ही ख़ारिज करता हो और यही इस उदीयमान आलोचक के प्रति एक बड़ी सम्भावना जगाता है...

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  3. अच्छी आलोचना है । लागलपेट के बिना बात कही । खुशी हुई । कोई तो है जो दिल से लिख रहा है । अविनाश से उम्मीदें बढ़ गई हैं

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  4. औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की तलाश में बहुत ही सारगर्भित लेख । साधारण में असाधारण और असाधारणता में साधारणता की खोज बहुत बैचेनी पैदा करती है । अविनाश का यह लेख चीजों को नए सिरे से देखने समझने की कोशिश है । कुछ सवालों के जवाब आसानी से नहीं मिलते , । उन सवालों को उठाने और खोजने के लिए अविनाश को बधाई ।

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  5. राकेश बिहारी7 दिस॰ 2014, 3:56:00 pm

    ‘औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव’! यह पद सुबह से मेरे साथ चल रहा है। आखिर यह क्या है और एक उपन्यास के लिए कितना अनिवार्य है? यह उपन्यास की जरूरत है या सिर्फ कवियों के उपन्यास की? यदि उपन्यास की जरूरत है तो फिर सिर्फ कवियों के उपन्यास तक ही इसे क्यों सीमित किया जाय और यदि यह कवियों के उपन्यास की जरूरत है तो उपन्यास को इस तरह कथाकारों के उपन्यास या कवियों के उपन्यास के अलग-अलग खांचे में बाँट कर देखा जाना कितना तर्कसंगत है? यदि ऐसा हुआ और कल को कुछ आलोचकों और नाटककारों ने भी उपन्यास लिखे तो उनके उपन्यासों को ‘औपन्यासिक आलोचनात्मक वैभव’ या ‘औपन्यासिक नाटकीय वैभव’ की कसौटी पर परखा जाएगा?

    इन प्रश्नों के बीच जो एक प्रश्न मुझे ज्यादा जरूरी लगता है वह है- उपन्यासकारों की महाकाव्यात्मक चेतना का। निश्चित तौर पर महाकाव्यात्मक चेतना का कविताई से कोई रिश्ता नहीं है लेकिन यह किसी कथात्मक कृति के उपन्यास होने या न होने के संदर्भ से जरूर जुड़ा होता है। एक समग्रतावादी दृष्टि के तहत कई-कई कथाओं-उपकथाओं की परस्पर संबद्धताओं को महाकाव्यात्मक चेतना का हिस्सा माना जा सकता है। इसके आलोक में आज इस बात पर भी विचार किए जाने की जरूरत है कि समकालीन उपन्यास संरचना और गठन की दृष्टि से उपन्यास हैं भी या नहीं?

    कुल मिलाकर प्रश्नों की ये कड़ियाँ उपन्यास की संरचना और कहानी, लंबी कहानी तथा उपन्यास के बीच के संरचनात्मक विभेद पर एक बहस की जरूरतों को रेखांकित करती हैं। इस दिशा में एक रचनात्मक पहल की उम्मीद हमें समालोचन से है।

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  6. पानी भीतर फूल पढ़ते हुए मुझे भी खिलेगा तो देखेंगे याद आती है. मुझे रोलां बार्थ के एक लेख का स्मरण हो आया है, यद्यपि प्रसंग उस लेख में मिथकों पर है , पर साहित्य की परम्परा में किसी भी फॉर्म के तहत देखा जा सकता है . साहित्य में 'अर्थ' हम भाषा से चुराते हैं और एक ढांचा तैयार करते हैं -शब्दों की यह डकैती भाषा को हड़प लेती है और जीवन के समान्तर एक और जीवन भाषा का पुनर्सृजन करती है जिसका ठौर -ठिकाना केवल साहित्य के पास है.
    मिथक इस काम के पुरुषार्थी रहे. वे इस तरह से अर्थ चुराते थे कि इल्यूज़न पैदा होता और उनके बेतुकेपन में कई अर्थ छिपे रहते . कविता उसके साथ खड़ी होती है. कभी इमेजरी के साथ, कभी अर्थों की तुक-लय के साथ .गद्य में इसकी आवाजाही रहती है. ;'औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव' को हम एलिमेंट कैसे मान सकते हैं ? यदि वह सहज रूप से कृति में आता है, आरोपित नहीं लगता तो पाठक और पठनीयता के बीच रिश्ता जुड़ जाता है . विभक्तियाँ केवल अलग ही नहीं करती, जोडती भी तो हैं ..निर्मल कवि नहीं थे पर उनके यहाँ यह है . उनके सम्पूर्ण गद्य में है और बाधा की तरह नहीं है. वैसे ये खोज खत्म नहीं हुई अविनाश..

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  7. वैभव की तलाश में निकले आलोचक को मायूसी हुई है. कहीं उसने विपन्नता को ठीक इसी नाम से पुकारा है, कहीं बस संकेत भर देकर मामले को छोड़ दिया है. अंत में प्रतीक्षा और प्रत्याशा में ठौर लिया है. यादगार सूक्तियों से यह आसक्ति , काव्यात्मकता,व्यापकता और उपख्यान की समक्षणिक उपस्थिति के प्रति यह उत्कंठा फलीभूत हो, एतदर्थ शुभकामनाएं; लेकिन इस शिल्प में यह आलोचना लेख भी औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव की अनुपस्थिति के आलोक या अन्धकार में फिलहाल अनुपस्थित उपन्यास में ही अपनी खोज पूरी मान रहा है ,यह विचित्र है. इंतज़ार में पूरी होती हुई खोज में भी औपन्यासिक काव्यात्मक वैभव कम नहीं है.

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  8. उपन्यास और सात लेखकों के बहाने उपन्यास और भाषा में काव्य की पहचान. अविनाश का सधा हुआ लेख और विचार.
    बातें तो सही लिखी है पर कही कही मुझे थोड़े से पूर्वाग्रह भी लगें जो कि एक व्यक्ति के सामान्य तौर पर होते है और होना लाजिमी भी है क्योकि साहित्य की दुनिया अब अपनी नहीं - इसकी, उसकी और उनकी और हमारी - तुम्हारी हो गयी है.
    बहरहाल एक जरुरी लेख पढ़ने के लिए........शुक्रिया अविनाश

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  9. अविनाश जी ने कितने ठोस तर्क के साथ, हर पुस्तक के विषय में अपनी बातें रखी, !! बखेड़ापुर मैंने भी पढ़ी है !!
    शुक्रिया अविनाश जी !!

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