सहजि सहजि गुन रमैं : परमेश्वर फुंकवाल

पेंटिग कुंवर रवीन्द्र

परमेश्वर फुंकवाल गीतात्मक संवेदना के कवि हैं. लगाव के बिसरे भूले-क्षण और अलगाव की चुभती- टीसती यादें उनकी कविताओं में जब तब उभर आती हैं. एक कविता रेल से कट गए एक बूढ़े पर है जिसके मुआवज़े के लिए पूरा घर तैयार है पर उसे घर में रखने के लिए तैयार नहीं था.


 परमेश्वर फुंकवाल की कविताएँ                        


वैसे ही

हम जो पुल पार करने को खड़े हैं 
वे कांपते हैं
तेज़ हवाओं में

कदमों को तोड़कर चलने से ही बचे रहेगे ये पुल
अनुशासन हर जगह नहीं बचाता हमें

कभी कभी एक जोर का ठहाका ही
काफी होता है
कभी जंगल में खिले बेतरतीब फूल
कभी कभी
रात के दो बजे
तुम्हारा फोन

कुछ शब्द हमें वैसे ही कहने होंगे
जैसे वे आये थे हमारी सोच में
बिना किये किसी की फ़िक्र
बिना किये सुबह होने की प्रतीक्षा.. 




दूरी

मुरझा कर गिरे जाते हैं फूल

चिड़ियों के पंख
थकान से रिस चले हैं

पुल के पार
दिन डूबता हुआ
शहर को समेट रहा है

एक चिट्ठी आज भी मेरी जेब में
रखी रखी मुड़ती गयी

इस तरह बस उम्मीद में चलते रहना है
कोई कहे भी कि
लौट आओ
तो संभव न हो सके
उसे सुन पाना.




तैय्यारी

झींगुर हावी हो रहे हैं
घड़ी की टिक टिक पर

रसोईघर से बर्तनों की आवाज़
कब की बह गयी

दिन के सारे बुलेटिन
ऑटो मोड में चलाकर सो गए हैं
चौबीस घंटे खबर देने वाले

एक स्वप्न दूर किसी तारे से गले मिलकर
रोशनी की एक किरण की तरह
खिड़की की झिरी से आकर दिमाग को
टटोल रहा है

एक उचाट नींद को 
रात भर रखता हूँ सिरहाने

फिर उतरने लगता है
चेहरे से अन्धकार का सूखा लेप
झुर्रियों से दगा कर

तैयार होता हूँ कुछ इस तरह
तुम्हारे बिना
एक पूरा दिन बिताने को.




सरयू का जल

पूरे होश में कहा था
प्रेम है तुमसे

अब होश संभाल कर रखता हूँ शब्द
उनके सारे संभावित अर्थों की आशंकाओं को तौल तौल कर

परिचय की हदों से लौट आती है नज़र

क्या मैं जानता न था प्रेम
कि तुम्हे
या फिर अपने आप को

झुठलाता हूँ सब कुछ
तपती रेत के पनीले दृश्य मानकर  

दो फूल किनारे से मुझे देखते हैं अपलक

बरसती बूंदों की टप टप में
सुनता हूँ आहट
तुम्हारे लौट जाने की

चढ़ता हुआ पानी अब सांस में घुल रहा है.






मुआवजा

वह लड़कर आया था
आया क्या था लगभग निकाल दिया गया था
सत्तर के ऊपर घर में वह आता भी किस काम

सोच की घनी बेलों में उलझा 
सिद्धपुर स्टेशन के बाहर
पटरी पर लेट गया

डेमू के ड्राईवर ने हॉर्न मारा
फिर ब्रेक
फिर भी देर हो चुकी थी

१०८ उसे उठा कर ले गयी
जिन पैरों ने एक एक ईंट को
घर की नींव और दीवार में रखा था
वे गिट्टी पर पड़े थे
उसके प्राण अस्पताल नहीं पहुँच सके

रेल पर चार लाख के मुआवजे के लिए
अब मुकदमा है
जिसकी पेशी पर जाने के लिए
घर सुबह से तैयार है.
______________________

  
परमेश्वर  फुंकवाल
16 अगस्त 1967
आई आई टी कानपुर से सिविल इंजीनियरिंग में परास्नातक
परिकथा, यात्रा, समालोचन, अनुनाद, अनुभूति, आपका साथ साथ फूलों का, लेखनी, नवगीत की पाठशाला, नव्या, पूर्वाभास, विधान केशरी में रचनाओं का प्रकाशन. कविता शतक में नवगीत संकलित.
पश्चिम रेलवे अहमदाबाद में अपर मंडल रेल प्रबंधक
pfunkwal@hotmail.com
_______
प्रख्यात चित्रकार कुंवर रवीन्द्र के अब तक लगभग सत्रह  हज़ार रेखांकन और चित्र प्रकाशित हो चुके हैं.

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  1. सादर बधाई आप को आदरणीय परमेश्वर जी

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  2. कविताएं अच्छी हैं बधाई. रमेश शर्मा

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  3. अच्छी कविताएँ। वैसे ही और मुआवजा कविताएँ ज्यादा पसंद आईं। मुआवजा कविता बहुत कम बोलकर बहुत कुछ बोल जाती है और अंदर तक झकझोर जाती है.... । समालोचन और कवि को शुभकामनाएँ।

    राहुल राजेश, अहमदाबाद।

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11-12-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1824 में दिया गया है
    आभार

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  5. परमेश्वर जी कविता में 'लौटना' किस तरह कवियों को पकडे रहा है . अभी इन पंक्तियों पर ठहरी हूँ , एक प्रगाढ़ रिश्ता अपनेआप बनने लगा है 'लौटना' क्रिया से ..
    इस तरह बस उम्मीद में चलते रहना है
    कोई कहे भी कि
    लौट आओ
    तो संभव न हो सके
    उसे सुन पाना.
    कभी याद करती हूँ एक छंद कुंवर जी का ..
    अच्छा लगता
    बार-बार कहीं दूर से लौटना
    अपनों के पास,

    उसकी इच्छा होती
    कि यात्राओं के लिए
    असंख्य जगहें और अनन्त समय हो
    और लौटने के लिए
    हर समय हर जगह अपना एक घर
    (पिता से गले मिलते)
    या फिर शमशेर जी को याद करते हुए अभी ..
    लौट आ, ओ फूल की पंखड़ी
    फिर
    फूल में लग जा
    शुक्रिया परमेश्वर जी . समालोचन को बधाई .

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  6. शायद पहली बार पढ़ रही हूं ..या ठहर रही हूं। बहुत खूब लि‍खा है। सारी कवि‍ताएं मन को छूती हैं। धन्‍यवाद

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  7. सभी टिप्पणीकारों और पाठकों का हार्दिक आभार.विशेषकर अपर्णा जी का उन्होंने 'लौटने' पर कुछ बेहतरीन पंक्तियाँ साझा की हैं. अरुण जी और समालोचन का शुक्रिया, यहाँ होना सुखद है. कुंवर रविन्द्र जी की सुन्दर पेंटिंग ने इस पोस्ट को विस्तार दिया है..उनकी कला को नमन.

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  8. शायद पहली बार पढ़ रहा हूं ..या ठहर रहा हूं। बहुत खूब लि‍खा है।

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