Anjolie Ela Menon THE PROPHET |
मनोज कुमार झा की कुछ कविताएँ
शक्ति-तन्तु
थोड़ी तेल ढ़ाल दो ढि़बड़ी में
बढ़ा दो बाती फगुनिया की माई
हिया के हंडी में हो रहा हड़हड़ .
बदरे को बाँध ले गया सिपाही
उसी के साथ लोन पर लिया था बैल सिलेबिया
हिसाब तो हो गया रफा-दफा
मगर कौन भरोसा सरकारी कागज-पत्तर का
थोड़ा भी हुआ उन्नीस-बीस तो धर लेगी पुलिस
अब इस बुढ़ौती में बर्दाश्त नहीं होगा इतनी बेज्जती इतना
धौंजन.
ठंड अब सीधे हड्डी में गड़ता है
बुढ़ापे में देह का मांस भी हो जाता है पुरानी रजाइ
कहीं घूरा के पास बैठने का मन था
जिसके पास ओढ़ना-बिछौना उसी के पास तो डाँट-पात
उस टोले में घूरा जोड़ा था भीखन मिसर ने
वहीं जाके बैठ गए तो खिलाया तमाखू और
कहने लगा गोतिया सभ का कहानी
किसी का नहीं होता दुनिया में कोई
सब घर एके हिसाब
हमारे मन में घूम रहा था मगर लोन का लट्टू .
धन्नो बाबू का बचवा अमरीका का मशीन ठीक करता है
सो उसके घर में कुह-कुह करने लगा है पैसा।
वैसे भी नामी खानदान है
सत्तनारायण कथा तक में बनता था तीन रंग का परसाद
बहुत बाभनो को नहीं मिलता था एकनम्बरी परसाद.
दरबज्जा पे भागवत बँचवा रहा है
वहीं जाके बैठ गया सोचकर कि दस जन बैठेंगे साथ और
सुनेंगे कथा-पुरान तो भाग जाएगा माथे में बैठा मधुमक्खी .
बड़ा सरजाम है इस कालेजिया बाबा का
देखा था फहफह दाढ़ी वाले महतमा को
चभर चभर बोलते टीवी पर.
बीच-बीच में सारा आसन-बासन झंडा-बंडा
दरसनिया-परसनिया लुप्प से बिला जाता था जब
झम-झम करती आती थी किसिम किसिम के अटपटिया-फटफटिया का
गुन गाती भुक-भुक हँसती बिलैती लड़की.
लोक-परलोक का किस्सा सुनते जब अकछा जाता था मजमा
तो महतमा सुमिरने लगते थे किसिम-किसिम के देवता-पितर.
इस महतमा के आवाज में भी साध था मगर
जब पिराई आवाज में सुमरते थे निरगुनिया बाबा तो
बज्जर से बज्जर कलेजा करने लगता था टह-टह.
पूरे जवार में नहीं था वैसा दाढ़ी सिवाय ठक्कन बाबा के
बड़का गाँव के जमींदार ने गछा था दो किलो सरसों तेल
फी महीना दाढ़ी पोसने के लिए
पूरा बरहबीघवा घूम आए निरगुनिया बाबा लाठी ठकठकाते
नहीं छूआ एक तिनका सिवाय एक कनेर के फूल के
कान में खोसने के लिए.
हाट पर फेंके सब्जी सब से छाँटकर बाबा ने बनाया था तरकारी
तो
हाथ चाटते उठे थे पाँचों जन
जब भी खाली पेट सोते थे सपना में आता था वही तरकारी.
कालेजिया बाबा भी कहानी बढि़या पसारते हैं
मिलाने आता है सूता से सूता
मगर छाती में नहीं उठता है कोई अंधड़
और पुजापा भी बहुत फैलाते हैं
बहुत नक्सा बाँधते हैं सरग-नरक का
सारा मोह-माया धरती पर चू जाने के बाद जब
खह-खह जल जाएगा देह का भूसा और
इस घाट रहेंगे हम और उस घाट तुम फगुनिया की माई
तो फिर किसे फिकिर कि सरग मिला या नरक .
टीवी वाले महतमा भी बहुत गुन गाते थे हाकिम-हुकुम का
और कालेजिया बाबा भी बहुत चैहद्दी सुनाते हैं ताकतबाज सब का.
गंगा के दिअरा में कथा सुनाए थे क्राइमर को
तो चाकू से काटने लायक खिलाया था दही
बाँच रहे थे किस्सा कि पुलिस के हाकिम ने
पिलाया था रंग-बिरंगा ठंडा
जब से बाँध के ले गया बेचारा बदरे को
पुलिस के नाम से भड़क जाता है रोयाँ.
हम गए थे वहाँ मन करने थिर
मगर बाबा के रमनामी में भी था वर्दी का सूता
धड़फड़ ससर गए वहाँ से और एके निसास में पहुँचे हैं घर.
सच कहती हो फगुनिया की माई
अपनी मुट्ठी में ही अपनी जिनगी का मरम
लगता है आँख लग जाएगी अब धीरे-धीरे
ढि़बरी बुझा दो और भिनसारे बाँध देना गमछा में थोड़ा चूड़ा
मुनिया को देखने जाएँगे बहुत दिन हुआ उसका मुँह
देखे.
औसत अंधेरे से सुलह
पग-प्रहार से नहीं फूलते अशोक
सरल कहा ज्यों
पत्नी चुनकर फेंकती है धनिया की सूखी पत्तियाँ
समय वहाँ भी झाड़ते हैं पंख जहाँ जल का हो रहा होता है देह
सभय झाँकती बच्ची
नहानघर में
कि यात्रा की आँख में तो नहीं पड़े कीचक के केश -
कहते उतर गई उस धुँवाँते निर्जन में और समेट ले गई अंधियारे
का सारा परिमल
शेष पंखडि़याँ काग़ज़ी कुतर रहे थे झींगुर .
बाहर वन की सहस्रबाहु सहस्रशीर्ष
नृत्यलीन बली देह
सधन तम को मथ रही थी
व्योम शिल्पित, धरा शब्दित .
अपनी आँखें मूँद ली
हुआ पतित औसत अंधेरे के कुँए में
नींद मरियल
फटी-मैली की जुगत में
जैसी-तैसी सुबह में फिर खोई भेड़ें ढ़ूंढ़नी थी.
इस तरफ से जीना
यहाँ तो मात्र
प्यास-प्यास पानी, भूख-भूख अन्न
और
साँस-साँस भविष्य
वह भी जैसे-तैसे धरती पर घिस-घिसकर देह
घर को क्यों धाँग रहे इच्छाओं के अंधे प्रेत
हमारी संदूक में तो मात्र सुई की नोक भी जीवन
सुना है आसमान ने खोल दिये हैं दरवाजे
पूरा ब्रह्मांड अब हमारे लिए है
चाहें तो सुलगा सकते हैं किसे तारे से अपनी बीड़ी
इतनी दूर पहुँच पाने का सत्तू नहीं इधर
हमें तो बस थोड़ी और हवा चाहिए कि हिल सके यह क्षण
थोड़ी और छाँह कि बाँध सकें इस क्षण के छोर .
किसान की जेब में लाटरी की टिकट
वो उड़ने वाला हेलीकाप्टर लेकर आया
दादी भी खुश हुई.
सुबह निकला देखने मेड़ जिसकी ओट में
बेरोजगारी छुपाता था.
अब वो ऊंचे मकानों और भारी ओवरब्रिजों की ओट में
बेरोजगारी छुपाता है.
रात में गफ अंधेरा दिखा तो सोचा यह अच्छी जगह है
सुबह से खूंटियां गड़ने लगी.
खैनी खाने का मन जागा तो पिता की जेब टटोली
एक और तलधर जहाँ
वो पिता के जूते में पांव डालता है.
एक कागज दिखा
डर कि चमकीले
कागज पर भी लिखे जाते हैं स्यूसाइड नोट्स.
लाटरी की टिकट थी
सोचा किसने कुतर
दी पिता की जिद की अनिश्चय में छलांग.
पेट का पानी डोल गया
कि कुछ
अनिश्चितताएं तो जीवन के बाहर भी ले जाती हैं.
विवश
पेड़ की टुनगी से अभी-अभी उड़ा पंछी
आँखों के जल में उठी हिलोर
मन के अमरूद में उतरा पृथ्वी का स्वाद
इसी पेड़ के नीचे तो छाँटता रहा गेहूँ से जौ
उस शाम थकान की नोक पर खसा था इसी चिडि़या का खोंता
कंधे पर पंछी भी रहा अचीन्हा,
मैं अंधड़ की आँत में फँसा पियराया पत्ता
सँवारने थे वसंत के अयाल
पतझरों के पत्तों के साथ बजना था
बदलती ऋतुओं से थे सवालात
प्रश्नो में उतरता सृष्टि का दूध
मगर रेत के टीले के पीछे हुआ जन्म
मुट्ठी-मुट्ठी धर रहा हूँ मरूथल में .
फिर भी जीवन
इतनी कम ताकत से बहस नहीं हो सकती
अर्जी पर दस्तखत नहीं हो सकते
इतनी कम ताकत से तो प्रार्थना भी नहीं हो सकती
इन भग्न पात्रों से तो प्रभुओं के पाँव नहीं धुल सकते
फिर भी घास थामती है रात का सिर और दिन के लिए लोढ़ती है ओस
चार अंगुलियाँ गल गई पिछले हिमपात में कनिष्ठा लगाती है
काजल.
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चर्चित युवा कवि, एक कविता संग्रह तथापि जीवन प्रकाशित. कविता के लिए २००८ के भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित. विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ अनुवाद एवं आलेख छपे हैं
ई पता : jhamanoj01@yahoo.com
कुछ कविताएँ और (यहाँ पर किल्क करें)
मनोज कुमार झा की कविता की भाषा सबसे पहले असहज करती है. खड़ी बोली हिंदी की यह भाषा नहीं है. यह मैथिल का विन्यास है, भोजपुरी के निकट. कथ्य के सौन्दर्य और उसकी मार्मिकता का आनन्द लेने के लिए आपको ऐसी कविताओं के पास ठहरना होता है. इन कविताओं का परिवेश भी चतुर. चुस्त शहराती नहीं है. बल्कि देशज है पर दृष्टिसम्पन्न और परिवेश के प्रति जागरूक.
जवाब देंहटाएंपहली कविता छोटे से कोलाज़ में बडे कैनवास का सृजन करती है। लोगों और चीज़ों से भरे जीवन के द्वंद्व की कविता है ये. जो आपकी ऊँगली पकड़ अनुभूतियों के संसार में ले जाती है और आपके पास अन्त में जो बच रह जाता है; वह है - 'अपनी मुट्ठी में ही अपनी जिनगी का मरम'.
जवाब देंहटाएं'फिर भी जीवन' कविता जीवन राग की ऐसी कविता है जो पूरी जद्दोजहद से, हर नाकाफ़ी से लडते हुए; फिर भी बची हैं संभावनाएं की तर्ज़ पर निराशाओं के बरक्स जिजीविषा को ला ख़ड़ा करती है। कविता एक कंट्रास्ट क्रिएट करती है -जैसे अँधेरे और रोशनी को साथ खङा करना। जैसे एक फोटोग्राफर डार्करूम में उजली तस्वीरेँ तैयार करता है। अंतिम कविता के लिए कवि को खास बधाई। समालोचन आभार।
मनोज जी की कविताओं में मिट्टी की महक है जो भाषा की कठिनाइयों से निकल कर पाठकों से संवाद करती है. इस तरफ से जीना और फिर भी जीवन बहुत अच्छी लगीं. ये कविताएँ एक चेतावनी की तरह कानों में गूंजती है जब कहती है किसान की जेब में लोटरी का टिकट है. मनोज जी को बधाई और समालोचन का शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंपढ़ते ही पहला ख्याल तो यही आया कि जिस उत्तेजना उद्वेग में मुक्तिबोध की अँधेरे में निकली होगी उसी मनोदशा में मनोज कुमार से ये कवितायें निकली होंगीं .. ये कविताएं लिखी हुई दिखती है और बही हुई भी .. इन कविताओं में एक व्यापक शब्दों का एबस्ट्रेक्ट आर्ट भी नजर आया है .. जैसे तस्वीर को कर्व पर ले जा कर्व को बेतरतीब मरोड़ देने से छू करके कोई एक तस्वीर निकलती है जिसमें रंगों का लेयर पकड़ सकना मुश्किल होता है वैसे ही इन कविताओं में दिखा मुझे .. जवार भाषा पकड़कर कवि ने कुछ कमाल ही किया है .. ये नागार्जुन के जवार से अलग है .. मैथिली में लिखते हुए नागर्जुन यूँ उतरते थे .. भाषा की यह धूलखेली हालांकि जमीन से उठाई गई शुद्ध रेत मिट्टी नहीं है बल्कि समझिये की स्टूडियो के ग्लास स्लैब पर फैला कर कोई सैंड आर्टिस्ट कोई छवि बना रहा हो .. पहले पाठ में समझ कम आई ये कविताएं पर निश्चय ही इस कवि का वितान चौड़ा है .. दंग भी हुआ हूँ पढ़कर .. इस प्रयोग के लिए कवि को साधुवाद कहना ही होगा .. एलिट बैठकों में इन कविताओं के पोस्टर रंग जमा सकते हैं .. शुक्रिया समालोचन !
जवाब देंहटाएंSalam, manojji for a powerfull poetry.
जवाब देंहटाएंबिल्कुल निजी हस्ताक्षर वाले गिने चुने युवा कवियों मेँ एक। प्रतीक्षा के लिये उत्सुक करने वाले।
जवाब देंहटाएंआज पहली बार जाना के तारों से बीड़ी कैसे जलाते हैं और चाँद पे कुर्ता कैसे टांगते हैं .. मुग्ध!
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