मेरा बचपन और किले की छाया
मनीषा कुलश्रेष्ठ
बहुत सारा रिवाईंड करूँ तो...फिल्म एक ही
जगह जाकर रुकती है. मुझे याद आता है, एक-एक नए
शहर में बस का रुकना. मैं पिता की उँगली पकड़े हुए उतरती हुई महसूस करती हूँ कि एक
विशालतम किले की छाया उस पूरे शहर पर पड़ रही है. मैं चकित हूँ. तीन वर्ष की उम्र
में पहली बार कोई ऐतिहासिक महत्व की इमारत देख रही हूँ और उत्सुक हो उठती हूँ.
मुझे उस अबोध अवस्था में यह नहीं पता है कि मुझे पूर्ण वयस्क होने तक यहीं रहना है
और यह शहर मेरे व्यक्तित्व पर अपना कोई उदात्त प्रभाव छोड़ेगा, जिससे मैं कभी मुक्त न हो सकूँगी. यकीन मानिए, किले
की विशाल छाया आज भी मेरे स्वप्नों में चली आती है और उस सुबह मैं लगातार अनमनी
रहती हूँ.
यह वह शहर है, जहाँ
के इतिहास को निकाल दें तो भारत के इतिहास से नमक चला जाए. शहर, जिस ने इतिहास के भारी उतार-चढ़ाव देखे हैं. यह शहर, जो इतिहास की
सबसे खूनी लड़ाईयों का गवाह रहा है,
शूरवीरों का शहर जिनके शौर्य- बलिदान के गान अभी भी स्थानीय
चारण - गायकों द्वारा गाए जाते हैं. चित्तौड़गढ़ की प्राचीनता का पता लगाना कठिन
कार्य है, किंतु माना जाता है कि महाभारत काल में महाबली भीम
ने अमरत्व के रहस्यों को समझने के लिए इस स्थान का दौरा किया और एक पंडित को अपना
गुरु बनाया, किंतु समस्त प्रक्रिया को पूरी करने से पहले
अधीर होकर वह अपना लक्ष्य नहीं पा सका और प्रचंड गुस्से में आकर उसने अपना पांव
जोर से जमीन पर मारा जिससे वहां पानी का स्रोत फूट पड़ा, किले
में स्थित आज भी पानी का यह सदानीरा कुंड भीमलत कहलाता है.
मारवाह की गंध मुझे सदा लौटा कर चित्तौड ले
जाती है. चित्तौड़गढ़ याद आते ही, नाहर
बिल्डिंग याद आती है, जहाँ हम बचपन में रहते थे, काका – सा, काकी सा याद आते हैं. भामाशाह भारती
स्कूल का पहला दिन याद आता है.. स्कूल के संस्थापक दादा – दीदी!! हमारे सबसे पास के पड़ोसी डाँगी परिवार....और
फिर बस बाढ़ आ जाती है स्मृतियों की और सबकी सब आकर हाथ थामने लगती हैं, दुपट्टा खींचने लगती हैं...हम याद हैं? हम याद हैं?
सैंकड़ों बातें, न जाने कितनी घटनाएँ -
परिघटनाएँ कुतुहल भरी...वह शहर ही कुछ ऎसा था...!!!
मुझे याद है, मेरा
स्कूल, किले के एक दम नीचे था. यह वह समय था जब कलेक्ट्रेट
के पार नई कॉलोनियाँ कम ही बसी थीं, सब कुछ मानो किले की
छाँव के भीतर – भीतर.
किला रोड से गाँधी चौक,
पटवा बाज़ार, मेन बाज़ार, या समानांतर चलें तो जूना बाज़ार, दरगाह...गर्ल्स
हायर सैकेण्डरी स्कूल, बस स्टेण्ड, अप्सरा
पिक्चर हॉल, गंभीरी नदी का पुल और आगे जाकर कलेक्ट्रेट,
रेलवे स्टेशन फिर शहर लगभग खत्म हो जाता था. सब कुछ किले के डैनों
में समा जाए इतना. हमारे स्कूल के बगल में, किले की तलहटी से
एक दम लगा हुआ बहुत सुन्दर जैन मंदिर था...साफ – सुथरा, शीतल
फर्श और चन्दन की सुगन्ध से सुवासित.
एक बार स्कूल मॆं शोर मचा कि मंदिर की दिशा
में, किले से एक बड़ी चट्टान, बहुत बड़ी चट्टान लुढ़कती हुई आ रही है, जो मंदिर को
ध्वस्त कर स्कूल के मैदान में गिरने को थी...दीदी और दूसरी टीचर्स ने सब बच्चों को
मैदान से तुरंत अन्दर लिया. हम कुतुहल से खिड़की से देखते रहे..वह चट्टान इतनी
बड़ी थी और जिस तेजी से आ रही थी, वह स्कूल की छत पर भी गिर
सकती थी.. जैन मंदिर का तो पूरा नष्ट होना तय था. .दीदी ने सब बच्चों को सामूहिक
प्रार्थना करने को कहा...हमने आँख खोली तो पाया, चट्टान एक
दूसरी चट्टान पर आकर टिक गई. यकीन मानिए...जब तक मैं चित्तोड़ रही वह चट्टान वैसे
ही टिकी रही, फिर उसके आस – पास कुछ पेड़ उग आए सीताफल के. मंदिर
अपनी शीतल शांति और चन्दन की महक में डूबा, अडिग खड़ा रहा
जैसे स्वयं तपस्यारत कोई तीर्थंकर. अब पता नहीं, कभी गई तो
देखूँगी वह चट्टान...!!
होश सँभालते ही किले के नीचे गाँधी चौक को
जाती सड़क पर बनी बिल्डिंग “नाहर बिल्डिंग” का नन्हा बाशिन्दा पाया खुद को. ‘नाहर
बिल्डिंग’ एक बहुत बड़ी बिल्डिंग जिसमें दर्जन से ज़्यादा किराएदार रहा करते थे,
चार मंजिला इमारत जिसमें बहुत से बेतरतीब दो – दो, तीन तीन कमरों के सेट थे किराएदारों के लिए. हमारे काका सा ( नाहर
बिल्डिंग के मकान मालिक,शहर के नामचीन वकील) भी जैन थे. मुझे
याद है, काका – सा के यहाँ बहुत से जैन साधु–साध्वियाँ आते
थे, जिन्हें महारासा कहते थे. मुझे उन साध्वियों के प्रति
विशेष कौतुहल रहता था. काका सा–काकी सा
के मन में मेरे माता–पिता के लिए विशेष स्नेह था, क्योंकि
वे दोनों शिक्षा विभाग से जुड़े थे.. मैं
और मेरा भाई जब नर्सरी क्लासेज़ में थे तब हम जल्दी घर आ जाते थे, और एक अनकहे अनुबंध के तहत काकी सा के पास रह जाते, हेडमिस्ट्रेस
माँ के घर लौटने से पहले मैं और मेरा भाई कब काकी – सा की रसोई के बाहर बस्ता पटक,
खाना खा कर...खेलने लगते थे. शाम को माँ आती तो काकी सा जगाती,
उनके लम्बे – चौड़े परिवार में हम दो चूहा– बिल्ली (यही कहती थीं
काकी – सा, हम दोनों को) पता नहीं चलते. वे हमें खाना खिलाकर
सुला देतीं. गुड्डा भाई साहब, गुड्डी जीजी का मेरी बड़ी बहन
के हमउम्र थे, वो मुझे होमवर्क करवा देते. ऎसा निस्वार्थ
प्रेम मिलता था कि हमारे बचपन को पता ही नहीं चला कि हमारी माँ नौकरीशुदा हैं,
शाम को पूरी बिल्डिंग के बच्चे छत पर होते थे. छ: बजे छत पर छिडकाव
होता...गद्दे बिछते, सफेद चादरें, आगरा
से सहेज कर लाई गईं सुराहियाँ भरी जातीं. खरबूजे – आम कटते...आपसे में बँटते,
क्योंकि आपस में छतें जुड़ी – जुड़ी छतों का रिश्ता बहुत गहरा हुआ
करता था, तब प्राईवेसी नियामत नहीं, लानत
मानी जाती थी. शहर की कौनसी छत जिस से किल्ला न देख सको? आठ
बजते बजते शहर सोने जाने लगता, सामने ही प्रहरी सा विशाल
किला अपने डैनों में शहर को छिपाए, अपनी भव्यता में रात को
भी जागता (भव्यता या कि अतीत के
स्मृतिविमोह में लगभग सिज़ोफ्रिनिक हो चुका किला)
बचपन और उसके भय. मैं बहुत डरपोक थी,
रात को, बीच रात को दहाड़ सुनाई देती. मैं
बुरी तरह डर जाती. बिल्डिंग का कोई बच्चा बताता...यह दहाड़ नाहर की है. किले पर जो
आरक्षित जंगल है वहाँ रहते हैं नाहर. तब किसे पता था कि नाहर बाघ है, चीता है, लेपर्ड (तेंदुआ) है कि सिंह....मेरी कल्पना
में अयाल वाला सिंह उभरता. और पुरवाई लू में बदल जाती और नींद गुम. एक अजीब किस्म
का भय और आकर्षण नाहर शब्द से रहा, नाहर जो कालिका माता के
मंदिर के मुख्य द्वार पर बना था, नाहर की छाल जिसपर मंदिर के
गुसांई बैठते थे. इस अति प्राचीन मंदिर की आस – पास के कई गाँवों कस्बों में
मान्यता रही है. कहते हैं, मूल रुप से यह मंदिर एक सूर्य
मंदिर था. निज मंदिर के द्वार तथा गर्भगृह के बाहरी पार्श्व के ताखों में स्थापित
सूर्य की मूर्तियाँ इसका प्रमाण है. बाद में मुसलमानों के समय आक्रमण के दौरान यह
मूर्ति तोड़ दी गई और बरसों तक यह मंदिर सूना रहा. उसके बाद इसमें कालिका की
मूर्ति स्थापित की गई. महाराणा सज्जनसिंह ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था.
चूंकि इस मंदिर में मूर्ति प्रतिष्ठा वैशाख शुक्ल अष्टमी को हुई थी, अतः प्रति वर्ष यहाँ एक विशाल मेला लगता है. किले के नीचे से मेरी ध्वजा
और मंदिर की पूरा शहर देखता है. मेरी प्रार्थनाओं में वह ध्वजा और मंदिर की लाल
लाईट सदा रही, चाहे वह पी.एम.टी देने जा रहे हैं उदयपुर,
तो बसस्टेण्ड से दिखती उस ध्वजा नमन करते. परोक्षत: तो आखिरी बार
नमन किया था जब बहुत से रोड़ों के बाद अपने मनचाहे साथी से विवाह के लिए जा रहे
थे. विवाह हुआ शहर छूट गया, एक अंतराल बाद मायके लौटी तो
मायका जयपुर शिफ्ट हो चुका था. आज भी अपरोक्षत: वह ध्वजा मन में फहराती रहती
है..कालिका का स्त्री शक्ति का प्रतिरूप और उनका नाहर मुझे आज भी आकर्षित करते
हैं!
भामाशाह भारती में पढ़ते 1975 – 1976 के बीच
के समय में क्या – क्या कुतूहल न देखा. चट्टान तो 1975 में मंदिर से फुट भर दूरी
पर रुक गई थी, फिर 1976 की शुरुआत में
हल्ला मचा कि पुच्छल तारा आएगा. सारा स्कूल बसंत के शुरुआती, एक सुनहरे दिन की शुरुआत में आकाश में मुँह बाए खड़ा है. प्रार्थना तक
नहीं हुई. नाश्ते में मिलने वाली खिचड़ी ठण्डी हो गई. पुच्छल तारा आया लकीर छोड़ता
सा.. आधा – एक घण्टा नज़ारा रहा. मैं अब तक उसे हैली समझती रही थी मगर पता चला
हैली तब नहीं आया था, मगर कुछ तो ज़रूर आया था, कल रात मैंने नेट पर देखा कि 1976 के बसंत में क्या हुआ था अंतरिक्ष में
तो पता चला एक ‘वेस्ट कॉमेट’ नाम का पुच्छल दिखा था उन दिनों. चेचक के टीकों ने
हमें बहुत आतंकित किया था उन दिनों. एक
बार के अलावा मैं कभी हत्थे नहीं चढ़ी उनके, बाथरूम में छुप
जाती थी, नहीं तो मेरे भी बाँहों पर चार – चार चितकबरे
सिक्के छपे होते. अभी एक ही है.
उन्हीं दिनों विनोबा भावे हमारे दादा – दादी
( भामाशाह के संस्थापक) के मेहमान बने..और हमारे स्कूल में ठहरे. बहुत बूढे जर्जर,
अल्पभाषी. भूदान पर सरलतम और संक्षिप्त भाषण दिया, फिर भी हम बच्चे क्या समझते? हमारे स्कूल के दादा –
दादी गाँधीवादी थे और बहुत समर्पित. स्कूल भी सेवा भाव से चलाते थे. एकमात्र
प्राईवेट स्कूल था. गाँधीवादी विचारधारा के साथ साथ बहुत प्रेरणास्पद मूल्यों को
उस स्कूल ने मुझे दिया. सरल शिक्षा, सुग्राह्य
शिक्षा...मूल्य और नैतिकतापूर्ण. आए दिन प्रभात फेरी होती. कविता – पाठ होते.
इतिहास रोचक ढंग से पढ़ाया जाता...क्योंकि इतिहास के तो डैनों के नीचे हम रहते
थे... रतन सेन – पद्मिनी, अलाउद्दिन खिलजी, राणा साँगा, राणा कुम्भा, पन्ना
धाय, उदयसिंह, महाराणा प्रताप - अकबर
का युद्द, जयमल – फत्ता, गोरा – बादल,
इस बीच कहीं प्रेम की लौ जगाती मीराँ. कहाँ जाती मैं और मेरी बनती –
बिगड़ती व्यक्तित्व की कच्ची मिट्टी सी मूरत..!
नाहर बिल्डिंग से गाँधी चौक जाते में पड़ती
थी आटा चक्की और लक्ष्मीनारायण मंदिर,जिसके
अहाते में उगे रहते थे, तुलसी और मारवाह के पौधे. उसी के
सामने एक अकेली बूढ़ी पापड़ वाली रहती थी. वह सम्माननीया, आत्मस्वाभिमानी
स्त्री थी, केवल पापड़ बेच कर उसका काम चल जाता था, उसने कभी भीख नहीं माँगी. तब के मूल्यों पर सच में अब यकीन होता है कि
इज्जत कपडों से नहीं होती... उसे मैंने सदा एक ही साड़ी में देखा, मगर वह सहजीवन के नितांत भारतीय मध्यमवर्गीय मूल्यों के चलते समाज में
अकेली जी गई, ससम्मान. उसके पापड़ बहुत खाए मैंने, पांच पैसे के दो.
तीसरी कक्षा पास ही की थी कि ‘इंदिरागाँधी’
नाम निषेध हो गया. बच्चे कहते मत लेना यह नाम , लिया
तो तुमको पुलिस ले जाएगी. नाहर बिल्डिंग
से कई युवा और किशोर खाकी निकर पहन कर शाखा में जाते थे....अचानक सब बन्द. शहर में
कुछ ही गिरफ्तारियाँ हुईं..एक मेरी मम्मी की सहकर्मी के बेटे की भी. शहर अजीब से
भय और जोश दोनों में था. मैं सदा की शैतान बच्ची, जिस दिशा
में निषेध लिखा हो उसी तरफ बढ़ने को आतुर...अकेले में फुसफुसाती...’इंदिरा गाँधी.
इंदिरा गाँधी’ और फिर अपनी गुस्ताखी पर खिलखिलाती...पुलिस ने तो पकड़ा भी नहीं.
ऎसे बालपन में एमरजेंसी की परिभाषा...खाक समझ आती? पर इतिहास
का वह वक्फा मन पर लिख गया अपने किस्से. फिर अगले साल चुनाव हुए...बिल्लों और
झण्डों का शौक मुहल्लेभर के बच्चों के साथ हमें भी...जो गहमा – गहमी तब देखी वो
फिर दुबारा नहीं दिखी. भाषण, कव्वालियाँ, बहुत सांस्कृतिक किस्म का प्रचार भी और फूहड़पने का प्रचार भी. हम भी
बच्चों के साथ चीखते गला फाड़ कर “गली – गली में शोर है.....”
मुझे बहुत प्रिय था किला और किले के सात
पोल. सावन में किला बहुत सुन्दर हो जाता है, गिजाईयाँ
भर जाती हैं, हर पेड़ और हर काई भरी दीवार पर. लाल राम जी की
गुड़ियों से गीली घास भर जाती. सावन आते ही किले पर दाल – बाटी – चूरमा की गोठ
(पिकनिक) होती हैं. विजयस्तम्भ, गोमुख, गोमुख की चना खाने वाली लथड़ – पथड़ करती, हँसते
मुँह वाली, पीली आँखों वाली चपल मछलियाँ, लंगूर . शांत और उपेक्षित सा पड़ा मीरां का मंदिर, कुंभ
श्याम मंदिर के प्रांगण में ही बना है. इस मंदिर के भीतरी भाग में मीरा व उसके
आराध्य मुरलीधर श्रीकृष्ण का सुंदर चित्र है. मंदिर के सामने ही एक छोटी-सी छतरी
बनी है. यहाँ मीरा के गुरु स्वामी रैदास के चरणचिंह (पगलिये) अंकित हैं. बनवीर की दीवार मुझे बहुत अनूठी लगती थी,
जिस पर बचपन में मैं खूब ऊपर तक चढ़ जाती थी.
पहली ही पोल में घुसते ही सीधे हाथ पर ऊपर
चढ़ एक एक बहुत सुन्दर झरना गिरता था/है!, (एक
बात बताओ, वह झरना बचा क्यों नहीं पाए तुम मेरे चित्तौड के
निवासियों?) तब
स्थानीय लड़कियाँ सावन के सोमवार करती थीं, हम ठहरे यूपी से
माईग्रेट हुए माटसाब – बहनजी के बच्चे...हालांकि पैदा राजस्थान में ही हुए,
दूध के दांत उगे भी नहीं थे कि घाणेराव (पाली) से चित्तौड़ आ गए थे
मगर स्थानीय रीति – रिवाज़ नहीं मानते थे हमारे घर में, एक
तो युवक – युवती से दिखते आगरा कॉलेज से ताजा – ताजा पढकर राजस्थान में नौकरी करने
आए मेरे माता – पिता आधुनिक थे, उस पर नितांत आर्य समाजी.
मैं सावन के सोमवार में व्रत भले ही नहीं करती थी( शिव जी सा पति पाने को ) लेकिन
मुहल्ले की अपनी हम उम्र सखियों के साथ लोटा सर पर रख कर झरने पर ज़रूर जाती,
वहाँ फलाहार खाते, लोटे को मिट्टी और फूलों से
सजाते और गीत गाते हुए लौटते ‘सेवरा’ लेकर. बाकि सब घाघरा पहने होतीं और मैं
फ्रॉक! मम्मी और बड़ी बहनें
डाँटती...गँवार कहीं की! हाय! बहुत मज़ा था उस गवाँरपन में कि कोई कुछ कहे मैं खुद
को पक्की राजस्थानी कहती हूँ, मैंने हर उत्सव में भाग लिया
जलझूलनी ग्यारस, गणगौर, तीज....शीतला
सप्तमी. सारे त्योहार मुझ से कुछ न कुछ कहते थे. कुछ नहीं तो उत्सवधर्मिता के
प्रति रुझान वहीं पड़ा. होली पर खूब गोबर के बड़ूल्ये बनाए... फिर बहनें हँसी,
भाई ने चिढ़ाया- मम्मी इसकी किसी राजस्थानी लड़के से शादी कर दो. आस
– पास मुहल्लों में बाल – विवाह होते, अक्षय
तृतीया को. मैं तो मन ही मन राजी थी कि बाल विवाह कर दें, तो
भी मुझे कुछ आपत्ति नहीं थी, शादी का शौक था, क्योंकि उस उम्र में शादी यानि गहने – कपड़े, चमकीला,
गोट्रे वाला घाघरा– लुगड़ा!
थोड़े दिन बाद तो घर भर ने मज़ाक कर कर के,
मुझे अलग कर दिया....”तू हमारी नहीं है, देख
तू एक तो गोरी, हम सब साँवले कायस्थ, हम
सबकी बड़ी काली आँखे...तेरी गहरी भूरी, छोटी आँखें. फिर हम
सब का नाम ‘स’ से...सुमतेन्द्र–सुधा, सीमा, शैलजा, संजीव.....तू मनीषा! तुझे तो हमने आटा देकर
भीलनी से लिया है. मैं रोती हुई छत पर भाग जाती – “तो मुझे ले जाओ मेरी माँ के
पास.” एक करोंदे बेचने वाली बंजारण आती थी..गोरी, नीले गोदने
भरा चेहरा और मेरून घाघरा – लुगड़ा पहने. मुझे लगता यही है मेरी माँ.
बहुत दिन तक बड़ों का यह मज़ाक मेरे छोटे से
जी का गंभीर जंजाल बना रहा.हमारे घर, नाहर
बिल्डिंग के सामने तब धोबियों की गुआड़ी थी, नीचे उनके गधे
बँधते, ऊपर वो रहते
थे. हम भी पहली मंज़िल पर रहते थे, उनका हर क्रियाकलाप हमारी
खिड़्की से दिखता था, हमारा उनको. तब कौन परदे और प्राईवेसी
की बात करता था? रात
को उनके गधों की ढेचूँ – ढेचूँ..सुनाई देती. रूपा काका ( तब सबको नाम के साथ काका
- काकी कह कर पुकारने का रिवाज था, धोबी हो कि हरिजन) की नई
शादी हुई थी, उनकी बींदणी बहुत सुन्दर, अपने मेंहदी रचे हाथों से मक्के के रोट थापती, सुघड़
और गोल. उन दोनों के रोमांस की साक्षी मैं...बींदणी घूँघट से इशारा करती...मैं
खिड़की से कूद कर भाग जाती. उनके घर में रोज सुबह शाम मोटे मक्के के पीले रोट बनते
थे और लहसुन की चटनी. और मेरा मन वही खाने को ललचाता था. मम्मी डाँटती, पागल हो वह गरीबों का मोटा खाना है, मगर मेरा बस
चलता तो रूपा काका की बहन सुगनी (मेरी हम उम्र) के हाथ से मक्का की रोटी ले आती और
अपना दूधरोटी का कटोरा उसे दे आती, रोज वही दूध और रोटी...या
फिर लौकी – बैंगन.....सबसे ज़्यादा जलन मुझे सुगना से ही होती, जो मेरी हम उम्र थी और कितनी आज़ाद. न स्कूल न किताबें. न होमवर्क. बस
सुबह गधे पर अपना लहँगा धोती की तरह खोंस लेती और अपने बापू या भाई के साथ जा रहे
गधे की सवारी करती... मैं पूछती, “ ऎ सुगनी..किधर?”
वह घमण्ड से कहती... “ नद्दी और किधर?” मैं मन मसोस कर रह जाती. मन में
छल छल करती कालपनिक नदी लहरा जाती. मम्मी को न बताओ तो एक राज़ की बात आपको बता
दूँ, एक बार दोपहर में, बुखार में मैं
घर पर थी, तब चुप – छाने मैं अपने पड़ोसी, स्कूलमेट बाबू के साथ नद्दी गई थी और हम खूब तैरे, मम्मी
की सैकण्ड शिफ्ट. उनके आने से पहले लेट गई और बुखार 102....बाबू ! याद है
शैतानियाँ ! एक बार फिसलपट्टी से तूने गिराया था...खून रुका ही नहीं, तूने कहा, बीड़ी का काग़ज थूक से चिपका ले खून रुक
जाएगा...ए! सच्ची रुक गया था खून, इस टोटके से. निशान अब भी
है,बाँयी भौंह पर.
माँ की डाँट तो पड़ी ही,
पड़नी ही थी “ जब देखो तब एक न एक तोता पाल लाएगी, कब छ्ठी में आए तो अपने स्कूल में डालूँ तो चैन मिले पीछे से पता नहीं
क्या क्या उधम चलते हैं. शिफ्ट भी तो तेरी सात से बारह और हम सबकी बारह से पाँच.
तेरा करें भी तो क्या?” मैं कुढ़ जाती, “कुछ मत करो, और डालो भाई को एक नए खुले कॉनवेंट में
और हमें वहीं गाँधीवादी भामाशाह में.” सुबह की शिफ्ट में पाँचवी कक्षा तक पढ़ हैं.
यकीन मानिये मेरी आज़ादी के वो पाँच घण्टे मुझे बहुत प्रिय थे. ( आज भी मुझे एकांत
के 4 घण्टे न मिलें तो अजीब लगता है, सप्ताहांतों को छोड़ दो
तो, भाग्यशाली हूँ वे 4 घण्टे आज भी मिलते हैं, तब शैतानी में गुज़रते थे अब रचनात्मक होते हैं) उस समय का सदुपयोग बारली
रोड पर अमरूदों के बाग थे, वहाँ डोल कर, कर रहे हैं झुण्ड के साथ. भय तो कोई था ही नहीं, सारा
शहर अपना...लोग अपने. अब के समय के हिसाब से सोचूँ तो पूरा फॉर्मूला तैयार था कि
कभी कोई हादसे का शिकार होती या.....एक सात–आठ साल की लड़की, मोहल्ले के ड्रॉप - आऊट बच्चों के गैंग के साथ घूम रही है, माता–पिता नौकरी पर...बारली रोड पर ट्रक चलते रहते, गन्नों की लदी बैलगाड़ियाँ, खींच रहे हैं गन्ने. मैं
पूरी रंग में रंग गई थी मुहल्ले के बच्चों के, खूब मेवाड़ी
बोल लेती, अब भूल गई. (तभी तो जब मुझ पर जींस पहन कर,
एलीटिस्ट होने और गाँव की नकली कहानी लिखने का आरोप लगाती हैं तो
मुझे खीज होती है कि एलीट मायफुट..अरे बारली रोड पर बैलगाड़ियों से गन्ने चुराने
का मज़ा किसने लिया? नद्दी पर नहाने कौन गया? सर पर छोटा चरु रख कर ‘सेवरा’ किसने गाया? पैदल पैदल
आठ कोस चढ़ाई वाला किल्ला हर सण्डे के सण्डे कौन चढ़ा? बन्दर
बाटी किसने खाई बीन कर? सुगनी, कुरजाँ,
गफूरिया..नकली कैसे हो सकते हैं? अंशु से कौन
डाँट खाता है जब मँहगी वाईन ‘रेवेरा वाईन’ को बचपन में वैद जी के पिलाए गए
द्राक्षासव जैसा बता देती हूँ? ) बंदरबाटी और एलीटिज़्म की
बात पर याद आया कि अभी एक बरस पहले ही, आगरा पोस्टिंग में
लॉन में एक लेडीज़ मीट थी, मैंने मैस के लॉन में से बंदरबाटी
उठाई और छील कर खा ली, मेरे पास वाली लेडी ने पूछा..क्या है
यह, उत्सुकता में उसने चखा, फिर अगली
ने इस तरह फिर बात फैल गई. थोड़ी देर बाद बहुत सारी लेडीज़ ‘रियली टेस्टी’ करके खा
रही थीं और मैं मन ही मन मुस्कुरा रही थी.
मथुरा की ही तरह चित्तौड़ वालों की होली एक
दिन नहीं होती है/ थी? फागुन लगा नहीं कि रंग
खेलने का बहाना मिल गया, रंग पंचमी, होली,
रंग तेरस, कुछ तो शीतला सप्तमी पर भी खेल लेते
थे. उन दिनों चित्तौड़गढ़ में रंग तेरस पर ज़्यादा भारी रंग खेला जाता था, होली से भी ज़्यादा...पता नहीं क्यों?
भामाशाह भारती के पास एक बावड़ी के पास था...वह बावड़ी है क्या
अब भी? वहाँ एक परिवार रहता था.. कोई राजपूत
परिवार.. बहुत हल्की याद है बावड़ी से लगे कमरे थे, सजे हुए,
खूबसूरत फानूसों से सजे...
स्कूल के नीचे एक आयुर्वेद का दवाखाना था,
एक डिस्पेंसरी. आयुर्वेद दवाखाने में हम बेवजह पहुँच जाते, वैद जी पेट दुखता है. वैद जी नब्ज़ देखते और पुड़ियों में चूरण मिलता. कई
बार एक्टिंग ठीक नहीं होती तो वैद जी डाँट कर भगा देते. एक गुआड़ी थी थोड़ा नीचे
उतर कर...उसमें एक शराबी रहता था, माधो पुरी ! अल्कोहलिक
लम्बा – चौड़ा, तन्हा – दयनीय दानव – सा. आँखें चढी
हुई..अकेला रहता था गुआड़ी में उससे भी मुझे भय होता था. छठी में आने तक आवारगी का
यही सिलसिला चला, फिर मम्मी का स्कूल, मम्मी
की शिफ्ट में एडमिशन हुआ तो सुधार होने लगा, गँवईपन छूटने
लगा. उस गँवईपन के प्रति मोह बरकरार है, आज भी अवसर मिले तो
मैं लौट जाऊँ उस ज़मीनी ज़िन्दगी की तरफ जो असल और ख़ालिस हुआ करती थी, बिन दिखावे की, उपभोक्तावाद विहीन ज़िन्दगी जिसमें
छाछ बेचना पाप होता था, वह तो जो बरतन ले आए उसकी होती थी.
“बैण जी, लाली ने मोखळ छास मँगाल्यो.” खीरे, मतीरे, भी खेत से आते तो मुहल्ले भर में भेजे जाते.
ट्यूशन पढ़ाना अपराध और निकृष्टतम काम मानते थे अध्यापक, फिर
भी हमारे घर मम्मी के स्कूल की लड़कियों का झुण्ड आता, मम्मी
से निशुल्क पढ़ कर जाता. हाल ही में इन्दु पुरी दीदी ने मेरी माँ के बारे में
उद्गार लिखे कि वे बेहतरीन अध्यापिका रहीं हैं और उनकी प्रेरणा ही से वे अपने
सरकारी स्कूल ज़िले का बेहतरीन स्कूल बना चुकी हैं तो मैं बहुत गर्व से भर गई. बाद
में मेरी माँ प्रिंसीपल बनीं, इंस्पेक्ट्रेस ऑफ
गर्ल्सस्कूल्स रहीं, मगर उनकी लोकप्रियता सदा बनी रही,
उनकी छात्र्राएँ मुझे जब – तब मिलती रहीं, “तुम
सुधा मैडम की बेटी हो, वे बहुत बढिया टीचर रहीं..”
चित्तौड़ वाले मित्र कभी मिलें,
मुझे या मेरे भाई को और वहाँ के पागलों का ज़िक्र न हो संभव है क्या?
मैं और पल्लव भी मिलते ही दूदू की बातें करते हैं. दूदू के समकालीन
चित्तौड़ में दो और पागल थे. दूदू और भँवरी बैण्डी हिंसक थे, जिनसे शहर के सारे बच्चों को भय लगता था. शहर को गम्भीरी नदी का पुल दो
हिस्सों में बाँटता है, पुराना शहर और नया शहर. इस पत्त्थर
के सुदृढ़ पुल को अलाउद्दीन खिलजी के शहजादे खिज्र खाँ ने सन् १३०३ (वि. सं. १३६०)
में बनवाया था. कभी इस पुल से बस्ता लिए
गुजर रहे हों.... और दूदू मिल जाए, यह भय मुझे सदा रहता था.
उस ज़माने की लबालब गंभीरी नदी का पुल और उसपर आपके समानांतर दूदू गुजर रहा हो हाथ
में पत्थर लिए तो बस मेरी तो जान निकल जाती थी, इधर उफनती
नदी उधर दूदू की पगलाई हिंसक आँखें. दूदू सलाम कर दे तो चुपचाप गरदन हिला दो और
तेज - तेज फूट लो. भाटा उठा दे तो बस अस्पताल. हालाँकि बच्चों में से किसी को मारा
नहीं उसने, पर कहते हैं कुछ वयस्कों को उसने ज़रूर घायल किया
था. भंवरी बैण्डी एक लम्बी, बॉय कट घुँघराले बालों वाली,
मारक तौर पर आकर्षक और जवान पगलिया थी. जो मिल जाता पहन लेती,
सलवार और मरदाना कमीज़. हरवक्त झूमती चलती, उसे
देख कर हँस दो तो हिंसक, भाटा मारती देखते ही. जब वह गर्भभार
लिए गजगामिनी सी गुजरती तो पुल खाली हो जाता, मैंने उसे हर
दूसरे साल गर्भवती देखा, बड़ी हुई तो सोच में पड़ जाती थी कि
क्या आसान होता होगा इस हिंसक को बहलाना ! नवजात को किसी ने उसके साथ नहीं
देखा..मैंने तो नहीं देखा. छोटा सा तो शहर... एक पागल और था काले कोट और नीचे नंगी
टाँगों वाला बाबा जो बस चुपचाप कागज बीनता, पढता और जलाता.
कहते हैं कि बहुत बड़ा वकील था, उसका कोई ज़रूरी कागज़ खो
गया तब से वह कागज़ बीनता और मजार के पास बरगद के नीचे जलाता. मैं सोचती, कभी वह कागज मिल गया तो यह ठीक हो जाएगा और फिर बड़ा आदमी बन जाएगा?
शहर में एक बहुत बड़ी इमारत थी,
गाँधी चौक से आगे, पोस्टऑफिस....उसमें नीचे
पोस्ट ऑफिस और तारघर था, ऊपर पोस्टमास्टर्स और क्लर्क्स रहा
करते थे. बाद में जब अलेक्जेन्डर कुप्रिन की कहानी ‘रत्नकंगन’ पढ़ीं तो वह
बिल्डिंग बहुत याद आई. कि एक सभ्रांत विवाहित महिला को बहुत खूबसूरत चिट्ठियाँ
मिलती हैं, एक अज्ञात दीवाने की, जो
उसकी हर हरकत पर नज़र रखे है और खत में सब कुछ उसके बारे में सत्य बातें लिखता
रहता है...उसके जन्मदिन पर वह एक कंगन भेजता है, पुराना –
सा. उस दिन खत में लिखता है जन्मदिन की
पार्टी में मोज़ार्ट की एक खास सिम्फनी बजाए. वह महिला अपने पति को बता देती है.
पति और महिला जब वह कंगन लौटाने और उससे मिलने जाते हैं तो पता चलता है वह एक
मामूली क्लर्क है....अंत में ऎसी ही बिल्डिंग में मरा मिलता है, और वह सिम्फनी बज रही होती है. मेरे अंतस वह पोस्टऑफिस जीवंत हो जाता है
जब - जब यह कहानी पढ़ती हूँ, क्योंकि क्यूप्रिन की यह कहानी
जिसका निर्मल जी ने अनुवाद किया है, मेरी सबसे प्रिय कहानी
है.
गफूरिया को कैसे याद न करूँ!! मेरी स्वाँग
कहानी का नायक! उसके कपड़ों , अदाओं का
क्या तो जलवा! पूरा शहर उसे जानता था. ‘क्रॉसड्रेसर’ या ‘ट्रांसवेस्टाईट ‘ टर्म तब
मेरे छोटे शहर के लोग तो क्या जानते...मुम्बई या भारत में ही यह टर्म प्रचलित नहीं
थी. गफूरिया बकायदा मर्द था, सात बच्चों का बाप. बहुरूपिया
नहीं था, न वह उसकी रोज़ी रोटी थी. वह क्रॉसड्रेसर था,
उसे कभी साधना की तरह लेटेस्ट फैशन के चूड़ीदार कुर्ते में देख लो,
कभी माला सिन्हा की तरह शरारे – कुर्ते में, काका
सा के यहाँ शादी में लेडीज़ संगीत से पहले वह बाहर ज़रूर नाच कर जाता “कंकरिया मार
के जगाया”. नाचते - नाचते रुक जाता फिर अदा से उँगली का छल्ला ठीक करता. मुझे याद
है एक बार बालपन में पब्लिक पार्क में दशहरे के मेले में मैं खो गई. शाम के सात
बजे थे...रास्ता उम्र के लिहाज से लम्बा, अनजान. तब रोते हुए
जूना बाजार से जा रही थी तो गफूरिया मिला, गुनगुनाता जा रहा
था, साईकिल पर बेलबॉटम – टॉप पहने, “दिल
– विल प्यार व्यार मैं क्या जानू रे”
“ अरे तू तो माटसाब की बच्ची है,
चल बैठ, साईकिल पर.”
उसने सुरक्षित घर पहुँचा दिया,
ऊपर घर तक, जब मम्मी ने कान उमेठे...” कहाँ रह
गई थी?” तो वह अदा से बाल झटक कर बोला – जाने दो बहनजी बच्चे
हैं!” मम्मी ने हँस कर मुझे छोड दिया. तब से गफूरिया मुझे बहुत मानवीय लगने लगा.
कठपुतलियों के प्रति मेरा अशेष प्रेम,
चित्तौड़गढ़ में ही पनपा था. कठपुतलियों का खेल तो आए दिन स्कूल या
मोहल्ले में होता ही था, एक बार पापा के स्कूल पुरुषार्थी
स्कूल में ग्रीष्मकालीन कैम्प में कठपुतलियों पर वर्कशॉप हुई थी, लोककलामण्डल के लोग आए थे. पेपर मेशी से हैण्ड पपेट बनाना सीखा, न केवल पपेट बनाई, हमने स्क्रिप्ट भी लिखी, प्रदर्शन भी किया. उसके बाद आगे हम उदयपुर भी गए और लोककला मण्डल में
बाकायदा सात दिन की ट्रेनिंग ली. तब देवीलाल सामर जीवित थे और वे हमारे कार्यक्रम
में शामिल हुए थे. तब से कठपुतलियों को करीब से देखा और एक अजब – गजब दर्शन उन काठ
से आत्मसात किया.
हमारे बड़े होते – होते शहर बदलने लगा,
कॉलोनियाँ बसने लगीं. कुंभानगर, प्रतापनगर...नया
डाकघर बना. हम अब स्टेशन के पास, नए डाकघर की बगल में रहने
लगे थे, सरकारी घर में. पुराने मुहल्लों से निकलने लगे थे
शहर के लोग, किले के डैनों से बाहर.
‘मालगुड़ी डेज’ की तर्ज पर लिखना शुरु करुँ तो उससे ज़्यादा कहानियाँ – किस्से बन जाएँ, चित्तौड़ गढ. के. प्रेम कथाओं की मत पूछो, शौर्य और रूमान का शहर आखिर प्रेम कहाँ बिला जाएगा जी? पर अभी इस पर कलम नहीं चलाऊँगी, मेरे ज़माने के लोग जानते ही होंगे, उन दिनों के सरस कॉमिक और ट्रेजिक, एककोने, दुकोने. तिकोने प्रेमों की कनफूसियाँ....! हमारा खुद का पपी लव, फर्स्ट क्रश, प्रेम में बदलते - बदलते रह गया. ‘एस एम एस’ तो होते नहीं थे, टॉर्च की जल – बुझ, जलबुझ से छत – से छत पर सिग्नलिंग होती थी, सीढियों में टकरा गए तो पसीने से फिसलते हाथ थाम लिये बस, पत्र अदल – बदल लिए. बादबाकि फिर बन्दा बाहर चला गया पढने, फिर हम भी स्कूल पूरा करके उदयपुर हॉस्टल में चले गए. अब फेसबुक पर मिलकर क्या फायदा? हाँ, कविता लिखना तभी और उसी से सीखा...तो श्रेय पूरा बन्दे को लेखिका होने का.
निसन्देह लेखक परले दर्जे का अतीतजीवी होता
है. मेरा तो शहर अपने में लम्बा – चौड़ा अतीत लिए था,
भारतीय इतिहास के न जाने कितने पन्नों में फैला, कितने नायक – नायिकाओं की ज़मीन बना शहर, पन्ना धाय,
पद्मिनी, मीरा, राणा
साँगा, उदयसिंह, महाराणा प्रताप,
हुमायुँ की राखीबन्द बहन कर्मवती, न जाने
कितने सच्चे शौर्यमय किस्से कहानियों की सरज़मीं. मैं ने कहा न, किला सदियों की नींद जागा था, अपने अतीत के
स्मृतिविमोह में लगभग सिज़ोफ्रिनिक हो चुका किला!!! उसी स्मृतिविमोह का संक्रमण मैं किले के डैनों
के नीचे रहते पाल बैठी हूँ, ऎसे में लेखिका के अलावा और क्या
होती?
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manisha@hindinest.com
बहुत मन से लिखे गए संस्मरण ! अरुण बाबू, आपको और लेखिका दोनों को संयुक्त बधाईयाँ और आभार!
जवाब देंहटाएंसंस्मरण दुबारा पढ़े। पहले बनास जन के अंक में फिर यहाँ।बहुत आनंद आया।मेरे अपने शहर चित्तौड़ को मनीषा दी की लिखने के ज़रिये और अरुण जी के सहयोग से यहाँ इर से चित्तौड़ ने अपनी दस्तक दी है। हम किसी छूटे हुए शहर के बारे में संस्मरण लिखते समय चित्तौड़ पर कभी नहीं लिख पायेंगे।क्योंकि शायद ये शहर छूटेगा ही नहीं।-
जवाब देंहटाएंमाणिक
बड़ा जीवंत संस्मरण है! मनीषा को बधाई. और इसे नए विचार के लिए समालोचन को भी बधाई.
जवाब देंहटाएंयादे हमेशा जीवित रहनी चाहिए।
जवाब देंहटाएंमनीषा के बचपन के ये स्मृति-बिम्ब बहुत जीवंत हैं, यही नहीं, एक लेखिका की निर्माण-प्रक्रिया के अन्तरंग सूत्रों को समझने में मदद करती हैं। इसे पुस्तकाकार आना चाहिए। अरुण देव और मनीषा कुलश्रेष्ठ को बधाई।
जवाब देंहटाएंएक अच्छा रचनाकार ही इस आत्मीयता से अपने बचपन, परिवेश और समय को अपने अनुभव का हिस्सा बनाकर जी सकता है, वही उसे संवेदनशीलता से रच सकता है। बहुत मन से लिखा यह संस्मरण पढकर आज की सुबह सार्थक हो गयी। बधाई मनीषा को।
जवाब देंहटाएंवाह, इतनी जल्दी मनीषा जी ने यह संस्मरण तैयार कर दिया. बहुत बहुत बधाई! जिस तरह से इस संस्मरण में उन्होंने अपने बचपन और परिवेश को जिया है वह बहुत अच्छा लगा. कुछ दिन पहले की अपने चित्तोड़गढ़ की यात्रा की याद भी ताज़ा हो गई.
जवाब देंहटाएंअपने बचपन और परिवेश के बारे में पूरी तरह डूबकर .. दिल से लिखा गया संस्मरण .... मनीषा जी और अरुण जी को बहुत बधाई !!
जवाब देंहटाएं:) blushing. Kyonki man se likha kala - vala ko pare rakh kar.
जवाब देंहटाएंबहुत सारे चित्र अपने लगे एक एक पन्ना पलटता गया | मनीषा जी कलम की धनी तो हैं ही स्मृतियों से भी बहुत संपन्न हैं|
जवाब देंहटाएंआभार अरुण जी संस्मरणों की इस यात्रा पर ले चलने के लिये !
एक सजग एवं मंझा हुआ नाविक ही अपनी स्मृतियों के प्रवाह में अपनी यादों और निर्मितियों के इतिहास को इस कदर अभिव्यक्ति की धारा में संभाल कर सफलतापूर्वक संप्रेषित कर सकता है ...
जवाब देंहटाएंमनीषा से वो सारी उम्मीदें जिंदा हैं, जो हिन्दी को आगे ले जाने से जुड़ीं हैं
जवाब देंहटाएंaaj tak itna sajeev chitran kisi shahar ka nki padha.....
जवाब देंहटाएंthoda nostalgic feel ho rha hai mujhe ......
बहुत आत्मीय और रोचक संस्मरण। कहीं कोलाज़ बनाता ..कहीं सामने बैठे कहानी सुनाता हुआ ..मनीषा को बहुत-बहुत बधाई। समालोचन का आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर स्मृति-चित्र या कहें मंजूषा ...मनीषा जी को पढ़ना हमेशा एक सुखद अनुभव होता है ..इस बार भी वैसा ही है ....यह आलेख पढकर चितौड़ जाने का मन हो रहा है ...बधाई मनीषा जी को और बाहर आभार अरुण देव जी का ..समालोचन का ..इस सुन्दर लेख को पढवाने हेतु :)
जवाब देंहटाएंमनीषा की किसी रोचक कहानी की तरह इसे निर्बाध पढ़ता चला गया... लगा जैसे मेरे अपने बचपन की बात है... वो बदमाशियां, वो गुल-गपाड़े, वो प्यारे-प्यारे कभी ना भुलाए जा सकने वाले दिन... कितने किरदार हैं जो एकदम जीवंत हो सामने आ जाते हैं... मनीषा के लेखन के सूत्र और कहानियों के किरदार भी इतनी सहजता से खुलते चले जाते हैं कि बस यही कहने का मन करता है कि जिये मनीषा-जियो... आई एम प्राउड ऑफ यू...
जवाब देंहटाएंबहुत ही आत्मीयता से व्यक्त रोचक संस्मरण। पढना शुरु किया तो पूरा होने पर भी लगा कि आगे और। अब अपेक्षा है आगे और की।
जवाब देंहटाएंमनीषा.....थोड़ा चित्तौड़ तो मैंने भी जिया है तुम्हारे साथ बचपन मे...है न?...:-)...सब यादें ताज़ा हो गईं......ताश के पत्ते भी याद आए मुझे तुम्हारे रेलवे क्रॉसिंग के पास वाले मकान के....:-))...खूब छोटी थी मैं तब....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद समालोचन....
सुनीता सनाढ्य पाण्डेय
मनीषा,इस संस्मरण ने कुछ भूला हुआ लौटाया।इतना जीवंत है संस्मरण में सब कुछ कि इसे दो बार पढ़ा। कुछ इसकी भाषा और कुछ एक छोटी लड़की को जानने की इच्छा .. कल इसे पढ़ा था पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं दे पाए।
जवाब देंहटाएंसमालोचन का ये देश विराना इस बार हमें भी राजस्थान ले उड़ा। तुम्हरी कलम में अतीत का एक टुकड़ा हमारा भी झिलमिलाने लगा .
हम कक्षा छह में थे तब।पापा की पोस्टिंग तो प्रतापगढ़ थी लेकिन 15 दिन चितौड़ में कोर्ट लगता था। हम बच्चे छुट्टियों में जाया करते थे।
कोर्ट के ऊपर ट्रांज़िट था। रोशनदान से कई बार प्रोसिडिंग्स देखा करते थे जो बहुत disturbing होता था। भाइयों को पिताजी से कई बार मार मिली और लड़की होने का लाभ मिला हमें ..कि पिटाई से तो हर बार बच ही गए।
कोर्ट के बाहर एक बूथ था ..वहां ठंडा दूध मिला करता था। एक सिनेमा हॉल भी याद आता है। रील बदलने में कभी -कभी बहुत समय लगता था और फिर लाईट का भी बदहाल था। एक पिक्चर पिकनिक से कम नहीं हुआ करती थी ..
और किला हमारे लिए उन दिनों कल्पना की सीढी था जिस पर चढ़ कर बालमन इतिहास को अपनी तरह देख रहा था। किले के ताल की मछलियों में जिस मरमेड की तलाश शुरू होती वह मीरा मेड़तनी के रूप में तब्दील हो जाती ...
तुम्हें एक बार पुनः कोटिश: बधाई।संस्मरण और पुरस्कार दोनों के लिए .
यह वह शहर जिसे निकाल दें तो भारत के इतिहास से नमक चला जाए...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
बधाई...
Suman Keshari- Bahut aatmiya sansmaran...bhasha ki rawanagi ..wah! sunder baat.Padha aur Jana...badhai!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया. अद्भुत प्रवाह है गद्य में
जवाब देंहटाएंआप सब की आभारी....
जवाब देंहटाएंगदगद हुई पढकर ...बधाई मनीषा
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा। पढ़ता चला गया। वे स्मृतियाँ ही होती हैं जो गद्य को सम्मोहक बनाती हैं। शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंबेहद दिलचस्प ..आज का तो दिन बन गया .
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति ,मन छू लेनें वाली यादें ,मंजुल
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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