मैं कहता आँखिन देखी :: सुमन केशरी


      सुमन केशरी से हरप्रीत कौर की बातचीत               

सुमन केशरी हिंदी की महत्वपूर्ण कवयित्री के साथ ही साथ साहित्य और समाज की व्यावहारिक और सैद्धांतिक समझ रखने वाली प्रबुद्ध आलोचक भी हैं. युवा कवयित्री हरप्रीत ने उनसे नारीवाद और साहित्य पर ख़ास  बातचीत की है.



आपकी  दृष्टि में स्त्री-विमर्श क्या है ? 

 तौर  से विमर्श का  मायना   ही यह होता है की जिस ग्रुप  का विमर्श होता है, वही इसकी सैद्धान्तिकी या आचरण रचता है. अतः स्त्री विमर्श का अर्थ हो जाता है स्त्रियों के बारे में स्त्रियों की सोच व उनकी ही रचना. मैं जब भी किसी विमर्श के बारे में सोचती हूँ मेरे मन में ये सवाल उठते हैं कि वे रचनायें अथवा सैद्धान्तिकी, जो उस विशिष्ट वर्ग द्वारा नहीं गढ़ी गयी पर जो दूसरे लोगों द्वारा गढ़ी जाकर भी संदर्भित वर्ग के प्रति संवेदना और चिंता एवं चिंतन से पुष्ट हैं, उन्हें उस विमर्श का हिस्सा माना जाए या नहीं? यानि क्या गोदान में धनिया, झुनिया या सिलिया का चरित्र स्त्री विमर्श के दायरे में नहीं आता? क्या उर्मिला और यशोधरा लिख कर मैथली शरण गुप्त स्त्रियों के दुःख को वाणी नहीं देते? क्या राधा का विरह इसलिए कमतर हो जाता है की उसकी रचना सूर ने की? आदि. दरअसल मेरे लिए विमर्श संकुचित दायरे में रख कर देखी जाने वाली बात नहीं है...हम जानते हैं कि स्त्रियों की 'मुक्ति' का सवाल एक अहम् सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक मुद्दा है. हमें स्वयं तो इसके लिए काम करना ही होगा पर अकेले हमारे करने और स्त्रियों के सन्दर्भ में दूसरे पक्ष यानि पुरुषों को सदा विपक्ष की तरह ट्रीट करने से नुक्सान ही होगा. दरअसल विमर्श में से बाकी सबको हटा देना मेरी दृष्टि में विश्वसनीयता का नहीं केक में बड़े हिस्से पर अपनी पकड़ बनाने की बात है...अपने वर्ग के अन्य लोगो में 'ऊँचा' उठ कर उनका प्रतिनिधित्व करने की लालसा है... अक्सर ही हम पाते हैं कि जो ऊँचा उठ जाता है वह तथाकथिक प्रभु वर्ग के तौर तरीके अपना लेता है... 

वैसे सच कहूँ तो स्त्रियों की दशा बहुत विचित्र है.चाहे वह उच्च वर्ग की हो या निम्न की, उच्च जाति की हो, पिछड़ी हो या दलित-वह सभी जगह लगभग वंचितों में ठहरती है. उसके अस्तित्व की रक्षा, उसके व्यक्तित्त्व  का विकास बहुत जरूरी है.स्त्रियों को स्वयं उठ कर आगे आने की बहुत जरूरत है...पर इसके बावजूद भी मैं एक साझा मंच की हिमायती हूँ...अलग होकर हम स्वयं को कमजोर ही करते है..उस पर भी जाति या वर्ग के धरातल पर भी अलग हो जाएं तो समझिये कि हम और कमजोर हो जायेंगी... 

क्या  स्त्री विमर्श को आप पॉवर डिस्कोर्स  मानती हैं?

कोई भी डिस्कोर्स  अंततः पॉवर डिस्कोर्स होता है.  यह सभी डिस्कोर्स अपने लिए जगह की तलाश होते हैं. एक ऐसी जगह की तलाश जहाँ आप निर्णय ले सके अपने और अपनों के तथा  बाकी लोगो के बारे में. वह निर्णय नितांत व्यक्तिगत भी हो सकता है और उसके विशद सामाजिक राजनैतिक पक्ष भी हो सकते हैं. वह साधनों पर हिस्सेदारी और उसके बारे में निर्णय की भी बात है अतः स्त्री विमर्श निश्चित रूप से सीधे सीधे पवार डिस्कोर्स से जुड़ा़ है.

समकालीन कविता में  आप स्त्री विमर्श का क्या स्वरूप दिखता  है  ? 

स्त्री की पीड़ा और उसकी संभावनाओं को ध्यान में रख कर अनेक कविताएँ दोनों पक्षों की ओर से लिखी जा रही हैं. चंद्रकांत देवताले, विष्णु नागर, अरुण देव, बोधिसत्व , समीर वरण नंदी आदि की स्त्री विषयक कविताएँ बेहद मार्मिक हैं. कई लोग स्त्रियों के बारे में कविताएँ इसलिए भी लिख रहे हैं कि वे अपनी पक्षधरता सामने ले आना चाहते हैं. ऐसी कविताएँ बहुत मजबूत तो नहीं पर एक तरह से महत्वपूर्ण जरूर हैं. 

पर उससे भी ज्यादा जरूरी यह रेखांकन करना है कि कविता के क्षेत्र  में अनेक स्त्रियाँ अपनी रचनाशीलता के साथ उपस्थित हैं..अनेक रंगों की रचनाएँ - प्रेम से लेकर शोषण और आगे बढ़ने के संकल्प तक, सब तरह की कविताएँ पढ़ने को मिल रही हैं. इस क्षेत्र में भविष्य अत्यंत उज्जवल दिखाई पड़ता है. मुझे कात्यायनी, अपर्णा भटनागर, विपिन चौधरी, लीना मल्होत्रा आदि की कविताएँ महत्वपूर्ण लगती हैं. हम लोग प्रयोग कर रही हैं और यह आत्म- विश्वास का सूचक है. जैसे आप ही पुरुष स्वर में कविता लिखती हैं.  अन्य भारतीय भाषाओं में भी लगभग यही स्थिति है. अनेक कविताएँ लिखी जा रही हैं. अभी हाल ही में साहित्य अकादमी के अखिल भारतीय महिला लेखिका सम्मेलन संबंधी एक आयोजन में मेरा सिक्किम जाना हुआ था. वहां मैंने एक खास बात नोट की. नेपाली लेखिकाओं की  कविताओं में सीमा पर लड़ने वाले जवानों और हिमालय का उल्लेख बार बार आया. यह उनके जीवन से जुड़ा प्रश्न है. खुद मैंने भी एक कविता "फौजी" पर लिखी है जो "याज्ञवल्क्य से बहस" में संकलित है, पर शायद उसका विषय औरत न होने के कारण वह चर्चा में नहीं आई. यही मेरे लिए सोचने की बात है.  विमर्शों पर हमारा ध्यान इतना जाता है कि उससे इतर पर हम ध्यान ही नहीं देते और उसके महत्व को आंकने के निकष ही जैसे हम लोग भुला बैठे हैं. यह तो जैसे एक जाल में फँसना हुआ , एक कुएं में गिरने जैसा हुआ. इससे मुक्ति जरूरी है. हमें व्यक्ति की तरह सोचना चाहिए बिना यह भूले कि हम औरतें भी हैं, भले ही आज अधिकांश लोग अस्मितावादी नजरिए को ही सोचने समझने का  एकमात्र सही नजरिया क्यों न मान रहे हों. यही चुनौती भी है और सम्भावना का मार्ग भी. 

स्त्री  स्वतंत्रता और संयुक्त परिवार की अवधारणा पर आपकी राय ?, स्वतंत्रता क्या है?

स्वतंत्र , अर्थात अपने "शासन" पर स्व का वश...स्त्रियों के सन्दर्भ में यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्यों कि यूँ तो समाज , परिवार के माध्यम से व्यक्ति पर चलन, परम्परा रीति रिवाज आदि के नाम पर नियम लागू करता है पर हम सब जानते हैं कि औरत का अधिकार उसके शरीर तक पर नहीं है, उसके संपूर्ण जीवन के बारे में क्या कहा जाए. स्त्री के विषय में अधिकाँश निर्णय स्वयं परिवार वाले या समाज अथवा बिरादरी वाले लेने के हिमायती हैं. स्त्री  स्वतन्त्रता की बात इस मायने में भी बाकी सब अस्मिताओं की स्वतंत्रता से अलग हो जाती है. इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है की अस्मिता के लिए लड़ रही सभी जातियां या समुदाय चाहे वे दलित हों या मुसलमान अथवा कोई अन्य, सभी अपने अपने समुदाय की स्त्रियों को वश में रखना चाहते हैं. तो स्त्री की स्वतंत्रता केवल आर्थिक स्वतंत्रता नहीं है.खुद को स्त्री मानने के प्रति स्त्रियाँ इतनी कंडीशंड होती हैं कि वे स्वयं ही सबके बाद खाना खाने, सबके सो जाने के बाद सोने और तो और खुद को कभी थका हुआ स्वीकार न करने को अपनी स्वाभाविक  स्थिति के रूप में देखती हैं. यह कंडीशनिंग बहुत महत्वपूर्ण है और यही वस्तुतः स्त्रियों को स्त्री बनाए रखती है.औरत कितनी भी आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाए, उसे सामाजिक हैसियत भी प्राप्त हो जाए पर उसे घर की बहू-बेटी से ज्यादा बड़ा दर्जा नहीं मिलता. मुझे अपने जीवन की एक घटना याद आती है. जब मुझे सरकारी नौकरी मिली तो हमारे बड़े जेठजी बहुत खुश हुए...देर तक बातें हुईं और उसी क्रम में यह भी कल्पना कर ली गयी की अगर कभी जेठ जी ही किसी ऑफिशियल काम से मेरे पास आ गए,तो मैं उनसे ऑफिसर की तरह मिलूंगी या सर पर तुरंत पल्ला डाल कर उनके पैर छुऊंगी...वे बड़ी देर तक इसका मजा लेते रहे की बॉस साहिबा ऑफिस में मेरे पैर छूएंगी!  यह बात उस हालत में न की गई होती अगर मेरे पति अफसर होते. तब सोशल- ईकानामिक संबंध और पारिवारिक संबंध स्वत: अलग-अलग मान लिए जाते और किंतु पर स्त्री के सन्दर्भ में स्वाभाविक तौर पर यह घाल मेल हो गया..यही कंडीशनिंग है.  

जहाँ तक संयुक्त  परिवार की बात है मैं उसकी भूमिका किसी भी व्यक्ति के व्यक्ति के तौर पर विकास होने देने में अधिकांशतः संदिग्ध ही मानती हूँ. संयुक्त परिवार की संस्था चूंकि एक पारंपरिक संस्था है अत: वह अपनी बहुत-सी शक्तियाँ सीधे परम्परा और रीति-रिवाजों से प्राप्त करती है जिसे तोड़ना स्वयं उस संस्था के लिए कठिन हो जाता है. वहां बहुत कुछ मुखिया पर निर्भर होता है और उसके बाद वृहद् परिवार का हित सर्वोपरि हो जाता है. दरअसल मुखिया भी वृहद् परिवार के हित-अहित के दायरे में ही सोचता और निर्णय लेता है...व्यक्ति की आकांक्षा बहुत मायने नहीं रखती. फिर संयुक्त परिवारों की अपनी अपनी राजनीति भी होती है, जो व्यक्ति के मानसिक विकास को प्रभावित और निर्दिष्ट करती है.. स्त्रियों के लिए संयुक्त परिवार की संस्था बहुत आदर्श संस्था नहीं है. पर परिवार की अपनी अर्थवत्ता संयुक्त परिवार की कमजोरियों से समाप्त नहीं हो जाती. संक्षेप  में मेरा कहना यही है की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा अन्य सभी अवधारणाओं की तरह ही स्थिति और विवेक के आबद्ध है.

देह मुक्ति की अवधारणा  पर क्या सोचती हैं ? 

देह मुक्ति की अवधारणा को बृहतर सामाजिक-आर्थिक मुक्ति के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जा सकता है.यह सीधे स्त्री के अपने शरीर पर उसके हक के सवाल से जुड़ता है.यदि स्त्री की उर्वरता को पृथ्वी की उर्वरता के समकक्ष रखा जाएगा,तो उस पर स्वामित्व किसका, यह बात सहज ही उठती है. तमाम अस्मितावादी दरअसल स्त्री को इसी रूप में देखने के हिमायती हैं और इसीलिए वे स्त्रियों की वेशभूषा, उनकी शिक्षादीक्षा, नौकरी और सबसे ज्यादा उनके विवाह और सेक्स को निर्धारित और नियंत्रित करना चाहते हैं.  

देह केवल संतानोत्पत्ति  का माध्यम नहीं बल्कि आनंद का भी स्रोत है.पर अधिकांश शरीर संबंध केवल आनंद या लिप्सा से परिचालित नहीं होते. उसमें मनुष्य प्रेम के आकर्षण की तलाश में रहता है- यही संस्कृति है,अन्यथा उसे वेश्या गमन कहा जाएगा. इसीलिए मनुष्य दोस्ती का, प्रेम का, एक आवरण रचता है, फिर देह-संबंध में सौन्दर्य की रचना करता है.
और इसीलिए देह संबंधों की एकनिष्ठता  की बात आने लगती है और डेवीएशन  को पचाना जरा मुश्किल  होता है. इसीलिए मेरे हिसाब  से देहमुक्ति का सारा इडीयम  उतना सपाट नहीं है जैसा कि उसे  समझा जाता है. देहमुक्ति का सवाल केवल फ्री़ सेक्स  का सवाल नहीं है, सेक्स के लिए अपने हिसाब से ,अपनी इच्छा और सहमति से साथी चुनने का भी सवाल है. 

आपके लेखन में विषय विविधता है, कोरा स्त्री विमर्श उसमें नहीं है. क्या समकालीन कविता में खासकर स्त्री द्वारा लिखी जा रही कविताओं में सिर्फ 'स्त्री पीड़ा' की अभिव्यक्ति के कारण उसका लेखन कमजोर नहीं हो रहा ? आप क्या सोचती हैं ? क्या स्त्री लेखन में परिपक्वता आना अभी शेष है ?

धिकांशत: मेरी रचना प्रक्रिया प्रर्श्नों से शुरू होती है. मैं चरित्र के भीतर प्रवेश करती हूँ, उससे संवाद कायम करती हूं... दुख या पीड़ा की अभिव्यक्ति मात्र मेरा कभी आशय नही रहा.दुख क्यों और उसका निदान क्या ,इसे ध्यान में रख कर ही रचना करती हूँ.
खाली पीड़ा  की अभिव्यक्ति अनार्की को जन्म देती है और अनार्की में  मेरी कोई आस्था नहीं. पर यह भी सही है कि बहुत सी रचनाएँ केवल पीड़ा की अभिव्यक्ति को ही रचना कर्म की इति मान  लेती हैं, जो कि मेरे लिहाज से सही नही है.इस दृष्टि से हमें सतत अपना विस्तार करने की जरूरत है.  

आपकी कोई  ऐसी रचना जिसे लिखने के बाद आप और रचना प्रक्रिया के दौरान आप लगातार बेचैन रहीं ?  

जैसा कि मैंने  ऊपर भी कहा है कि तमाम रचना प्रक्रिया दरअसल परकाया प्रवेश की प्रक्रिया है. अत: वह बेचैन करने वाली प्रक्रिया तो है ही.सटीक भावों व दृष्टि को सटीकतम शब्दों में अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया ही बेचैनी भरी प्रक्रिया होती है. कोई भी रचनाकार मूलत: इसी बेचैनी से गुजरता है. कई कई बार मैं महीनों किसी रचना पर काम करती हूँ और अजीब मनोदशा में रहती हूँ -बीजल, अश्वथामा, द्रौपदी, सीता, बा और पूर्वजों के लिए सीरिज वाली कविताएँ इसी श्रेणी की कविताएँ हैं.दरअसल दिए गए ढांचो को प्रश्न करना और अपने विवेक के अनुसार अपनी बात कह पाना और उस पर अडिग रहना अथवा उसे भी लगातार प्रश्न बिद्ध करते रहना कोई आसान काम तो नहीं ही है... मेरी रचना-प्रक्रिया का मूल मंत्र मेरे लिए यही है...


सुमन केशरी की कुछ कविताएँ यहाँ देखी जा सकती हैं : कविताएँ 
सुमन केशरी से अपर्णा मनोज की बातचीत यहाँ देखें : बातचीत 




हरप्रीत कौर :

हरप्रीत कौर : १९८१श्री गंगानगर
पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित  
तू मैंनू सिरलेख दे कविता संग्रह पंजाबी में शीघ्र प्रकाश्य
विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास दीवार में खिड़की रहती थी  का पंजाबी में अनुवाद
महात्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय में शोधरत
ई-पता : harpreetdhaliwal09@gmail.com

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  1. ये बातचीत एक खुली बातचीत है .. न कोई पूर्वाग्रह , न कोई जिद .. हमें खेमों से अलग करके साझा सोचने के लिए आमंत्रित करती . स्त्री-पुरुष के सहज संबंधों और नारी विषयक समस्याओं पर गंभीर चिंतन से सुमन जी के अनुभवों को कहती ... एक संतुलित पक्ष रखती बातचीत .. बधाई सुमन दी , हरप्रीत और अरुण को ..

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  2. सुमन जी ने जीवन के विभिन्न पहलू छूएं है - प्रेम, स्त्री की सामाजिक स्थिति , अपेक्षाएं, और उन अपेक्षाओ पर पूरा उतरने को ही अपना अस्तित्व मान लेने की त्रासदी.जिन चुनौतियों और संभावनाओ का उन्होंने ज़िक्र किया है हमें व्यक्ति की तरह सोचना चाहिए बिना यह भूले की हम औरते भी हैं, मै उनसे पूरी तरह सहमत हूँ. इस प्रकार के स्त्री विमर्श अनेक संकुचित और संकीर्ण विचारधारों को ध्वस्त करते हैं . सुमन जी, हरप्रीत और अरुण जी को बधाई और आभार.

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  3. suman ji main to aapko ek kavi ke roop me hi jaanta tha.aparna aur harpreet se aapki baatcheet bata rahi hai ki apne vicharon me bhi aap kitni saaf aur sankalpit hain meri badhai sweekaren

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  4. साधुवाद ,स्त्री -विमर्श पर सार्थक बातचीत है ,साहित्य के छौंक ने इसे और भी मनमोहक बना दिया है |

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  5. स्त्री -विमर्श पर सार्थक बातचीत

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  6. आज इन चिप्पणियों को एक बार फिर पढ़ा तो लगा कितनी नई बातें पढ़ रही हूँ मैं

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