मैं कहता आँखिन देखी : सुमन केशरी





कवयित्री सुमन केशरी अपनी मानवीय दृष्टि और सहज अभिव्यक्ति के कारण अलग से पहचान ली जाती हैं. उनका लेखन परम्परा को आत्मसात करता हुआ समकालीन दृश्य को आलोकित और समृद्ध करता है. मिथकों के अर्थगर्भित स्पर्श से उनका काव्य – संसार मार्मिक और गहरा हुआ है. बौद्धिक बहस मुबाहिसों में उनकी आवाजाही है.

अपर्णा मनोज ने सहज बहनापे के साथ भाषा और साहित्य पर एक बैठकी की है.


सुमन केशरी से अपर्णा मनोज की बातचीत        






कोई स्त्री कविता पास क्यों जाती है और कैसे...

अपर्णा जी, मेरा मानना यह है कि रचनात्मकता मूल रूप से शब्द एवं संगीत में ही प्रकट होती है. कविता शब्द, संगीत या लय का ही तो समुच्चय है,. कोई भी पद-बंध जब जलराशि युक्त मेघ की भांति अर्थ एवं भाव से भर जाता है तो हम उसे कविता कहते हैं.गद्य की किसी भी विधा में -चाहे वह कहानी हो ,उपन्यास हो या चिंतन हो,  अर्थ एवं भावपूर्ण वाक्यों को पढ़ते ही हमारे मन में पहली बात क्या आती है- अरे, यह तो कविता है -क्यों मैं ठीक कह रही हूँ न? तो कविता मनुष्य की मूल रचनात्मक अभिव्यक्ति है. और अब मैं आपके प्रश्न का उत्तर दूं तो कहूँगी कि केवल स्त्री ही नहीं पुरुष भी अर्थात मनुष्य मात्र अपनी मूल अभिव्यक्ति को खोजने के लिए -प्रकृति यानि कि सार-तत्व से जुड़ने के लिए उन पदबंधों का सृजन करता है जिसे आप कविता कहते हैं.  वैसे आपकी बात पर मुझे एक अन्य बात भी सूझती है और वह यह कि भाषा के विकास पर हुए  शोध इस ओर संकेत करते हैं कि इसके विकास में माताओं द्वारा बच्चों से किये संवाद की बड़ी भूमिका रही है. यहाँ मैं अपने प्रिय कवि को याद करना चाहूंगी. सूरदास कहते हैं- यशोदा हरि पालने झुलावे / हलरावे दुलरावे जोई-सोई कछु गावे- यह जो जोई-सोई है न यही भाषा की शुरुआत है और कविता की भी. अपने मन के स्पष्ट या अस्पष्ट भाव को ध्वनि देने के लिए ही स्त्री या कोई भी मनुष्य कविता के पास जाता है - क्योंकि कविता मनुष्य के सारतत्व के, उसके मूल स्वाभाव की ही अभिव्यक्ति है, विस्तार है.  

स्त्री का सृजन संसार पुरुष के सृजन संसार से कैसे भिन्न है.. 

मुझे ऐसा लगता है कि यूँ तो अपने मूल भावों में स्त्री और पुरुष में कोई ज्यादा भिन्नता नहीं होती. दुःख-पीड़ा, हर्ष-आनंद, दया- करूणा, क्रोध आदि का अनुभव दोनों ही समान भाव से करते हैं, पर दोनों की अभिव्यक्ति में जरूर भिन्नता  होती है. मैं पाती हूँ कि पुरुषों का फलक अधिकतर बड़ा होता है क्योंकि एक तो उन्होंने दुनिया देखी होती है...जाहिर है  कि पुरुष  न जाने कब से दुनिया न केवल देख रहे हैं बल्कि चला  भी रहे हैं, अतः उनमें आत्मविश्वास भी है कि उन्होंने जिन्दगी  के मेले न केवल देखे हैं, बल्कि लगाए भी हैं.  तो, यह कोई पुरुष की प्राकृतिक महानता का नहीं, बल्कि पितृसत्ता की निरंतरता का कमाल है कि पुरुषों  की अभिव्यक्ति का दायरा, उनके सोच और चिन्ताओं  का दायरा बड़ा होता है. इसके विपरीत स्त्रियाँ अपनी रचना में आमतौर से  बड़ा फलक नहीं उठातीं और कई बार वे प्रश्नों को दार्शनिक धरातल पर नहीं ले जा पातीं, उसे जनरलाइज़ और कन्सेप्चुअलायिज नहीं करतीं तथा they tend to play safe....जबकि पुरुष exploration करते  हैं- वे संश्लेषण और विश्लेषण दोनों ही करने की कोशिश करते हैं. मैं इसके लिए स्त्रियों को दोषी नहीं ठहराती क्योंकि सामजिक और सांस्कृतिक स्थितियां  ऐसी रही हैं कि हम लोगों के अनुभव और सोच का दायरा बहुत बड़ा नहीं हो पाता...  इसी से तो लड़ने की जरूरत है, औरत का अपना मोर्चा कविता में, समाज में, रोजमर्रा  की जिन्दगी में यही है. मेरी एक कविता है- बेटी के लिए एक कविता - इसमें बार बार इस बात पर बल है कि बेटी शब्द की  साधना करे - यानि  जिज्ञासा, कर्म और  ज्ञान की साधना- उसी से उसे अपने प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे और यह समझ भी कि शब्द के  प्रयोगों में जरा से बदलाव से अर्थ कितने बदल जाते हैं.  ज्ञान की दुनिया में प्रवेश पुरुषो के लिए सहज है पर हमें इसकी वास्तव में साधना करनी पड़ती है...आज भी जब मैं आपसे बात कर रही हूँ तो पाती हूँ कि आप घर की व्यवस्था भी देख रही हैं और मुझसे बात भी कर रही हैं... मैं गलत तो नहीं कह रही न

और भी देखिये कि हिन्दी में स्त्री-लेखन की  बात करते समय पहले घर का मुहावरा बरता जाता था और अब सेक्स का...स्त्रियों ने स्वयं जैसे मान लिया है कि उनकी अभिव्यक्ति और खोज के क्षेत्र बस यही हैं. घरे-बाहिरे के बीच के इस विभाजन का, इस जेंडर डिवीजन ऑफ लेबर का स्वयं स्त्रियों द्वारा आत्मसातीकरण सबसे बड़ी चिंता का विषय है.  बड़ी असुविधा होती है ऐसे वर्गीकरणों से,,,,सोचना यह चाहिए कि क्या घर और सेक्स के सवालों को भी एक  दार्शनिक धरातल पर उठाने और समझने की जरूरत नहीं है.....और हम स्त्रियों में ही ऐसी लेखिकाएं सौभाग्य से मौजूद हैं जो अपने दायरे को बड़ा करती रही हैं- कृष्णा सोबती, कुर्रतुल ऐन हैदर, शिम्बोर्स्का, और भारत में अल्पज्ञात मैरियन फ्रेडरिकसन, जिन्होंने अपने उपन्यास'एकार्डिंग टु मेरी' में जीसस और मेरी की कहानी के बहाने बहुत बड़ी 'कहानी' कहने की कोशिश की है... तो मेरा मानना यह है कि हम लेखिकाओ के सामने बड़ी चुनौतयां हैं दुनिया को देखने, जानने समझने और अभिव्यक्त करने की...चीजों को दार्शनिक धरातल पर रख कर देखने की, गहराई और समग्रता से पड़ताल करने की...एक आत्मविश्वास पैदा करने की....         

संसार की सभी भाषाएँ पुरुष-प्रदत्त भाषाएँ हैं. इस पुरुष-प्रधान भाषा में एक स्त्री को अभिव्यक्ति की किन दुश्वारियों से गुज़रना पड़ता है.

दरअसल मेरा तो मानना यह है कि भाषा से पहले समाज को जानने बूझने और उसके नियामक तत्वों, सोच और अवधारणाओं में निहित पुरुषवादी दृष्टि को समझने की जरूरत है. पुरुष अभी तक वर्चस्व के दायरे में ही सोच पाता है और वही उसकी सीमा भी है और सामर्थ्य भी. दुनिया इसी दृष्टि से चल और चलाई जा रही है. कहाँ-कहाँ हमारा वर्चस्व है पुरुष इसी में मगन रहता है... स्त्री इसके विपरीत एकोमेडेटिव  होती है...वैसे,  सोच अब बदल भी रही है और हम किसी से कम नहीं वाली प्रवृत्ति बढ़ रही है. इससे बड़ी जीत पुरुषवादी सोच की क्या होगी कि हम स्त्रियाँ युद्ध और आतंक के क्षेत्र में जाकर गर्वित होती हैं....हम अगर पुरुष की तरह नहीं हो पाती तो न्यूनता ग्रंथि से भर जाती हैं...हमें रुक कर सोचना होगा अपने उत्स को जानना होगा...अपनी प्रकृति को पहचाना होगा और हम यह न भूले कि स्त्री और पुरुष परस्पर  अन्योन्याश्रित हैं...और जरूरी है कि मानव हित के लिए पुरुष अपने भीतर  कुछ स्त्री तत्व लायें. अर्धनारीश्वर की अवधारणा को नए सिरे से देखने की जरूरत है...               
  
कवयित्री के रूप में आपकी पहचान पहले बनी पर आपकी पुस्तक "याज्ञवल्क्य से बहस" बहुत बाद में आई. इसका क्या कारण रहा.... 

दरअसल यूँ तो मैं कवितायेँ बहुत पहले से लिखती रही हूँ पर एक लम्बे अंतराल के बाद जब मैंने १९९४ में लिखनी फिर शुरू कीं तो लगा कि हाँ, अब बात कुछ बन रही है. रचना को लेकर मेरे मानदंड कुछ अलग ही हैं...साहित्य की विधिवत पाठक होने के कारण मैं किसी भी रचना को जब भी पढ़ती हूँ तो उसका मूल्यांकन साथ साथ होता चलता है. भले ही वह मेरी अपनी ही रचना क्यों न हो. अक्सर ही मैं लिख कर रचना को खुद से फिजिकली और मेंटली अलग कर देती हूँ और फिर कई दिनों महीनो बाद उसे पढ़ती हूँ...अगर कुछ काम करना हो तो करती हूँ...कई कई बार संतुष्ट न होने पर उसे फिर छोड़ देती हूँ, कितनी ही बार ऐसा भी हुआ है कि परिष्कृत रचना मूल रचना से एकदम अलग हो गयी है..कितनी ही रचनाओं को दिन का प्रकाश हासिल नहीं हुआ...यही कारण है कि 'याज्ञवल्क्य से बहस' का प्रकाशन २००८ में हुआ...आज मैं उसके कलेवर से बहुत संतुष्ट नहीं हूँ...उसमे कई किस्म की कवितायेँ हैं, संकलन का फोकस स्पष्ट नहीं हो पाया है,  जिसके फलस्वरूप उस पर समग्रता से बात नहीं हुई बावजूद इसके कि उस पर बहुत लिखा गया है...लिखा जा रहा है... यह भी देखती हूं कि  जब जब मैंने 'याज्ञवल्क्य से बहस' संकलन  से कोई रचना निकाल कर इधर -उधर प्रकाशित  करवाई है उस पर लोगों की उत्साहपूर्ण और गहरी सराहनाओं  ने मुझे अचम्भे में डाल दिया है. यह बात मैंने अपनी दो लम्बी कविताओं- 'राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल' और 'बीजल से एक सवाल'  के सन्दर्भ में खास तौर पर कहूँगी क्योँ कि फेस बुक और 'समालोचन'  दोनों के पाठक इसे बखूबी समझ सकेंगे...मेरे कहने का अभिप्राय बस इतना ही है कि रचना प्रक्रिया मेरे लिए बेहद मेहनत की चीज है....मैं उसे हलके ढंग से नहीं ले पाती और जब तक मैं स्वयं संतुष्ट न हो जाऊं छपवाने के  चक्कर में नहीं पड़ती.

आपकी कविताएँ मिथकों से समृद्ध हैं. आज के समय में मिथक कैसे कविता को अर्थवान बनाते हैं ..

आपका कहना एकदम दुरुस्त है,  मेरी रचनाओं में मिथकों का प्रयोग बहुत ज्यादा मिलता है....दरअसल इसके लिए मैं  अपने पिता स्वर्गीय सी पी केशरी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करूंगी, उन्होंने बहुत छोटी उम्र में ही मुझे बेडटाइम स्टोरी की तरह रामायण-महाभारत से परिचित करवा दिया था. कर्ण के जीवन की विडम्बना का ज्ञान हद से हद मुझे १०-११ वर्ष की उम्र तक हो गया था...वे मेरे लिए राजगोपालाचारी का महाभारत ले के आये थे. हम पढ़ते और चरित्रों घटनाओं पर बात करते. मुझे याद है कि जब मैंने १३-१४ वर्ष की आयु में अपनी पहली कहानी  लिखी - प्रेम सम्बन्ध पर तो वे ही मेरे पहले श्रोता थे - वे भौंचक मुझे देखते रहे थे ...आज उस दृष्टि का विश्लेषण करूं तो गोया कह रहे थे कि लड़की बड़ी हो गयी.....तो एक तरह से मिथकों के प्रति लगाव  और उन्हें समझने की कोशिश की शुरुआत मेरे जीवन में बहुत पहले से  हो गयी थी.

दरअसल मिथक किसी भी समाज और संस्कृति का निचोड़ होते हैं....कोई भी संस्कृति मिथकों के बिना जीवित नहीं रहती...हम किसी भी समाज के अतीत को ख़ारिज नहीं कर सकते खास कर उसे साजिश भर तो नहीं ही  समझ सकते.

लोगों को लग सकता है कि सीता और सावित्री के मिथक स्त्री  की शक्ति का, उसके व्यक्तित्व का अपमान हैं पर अगर गहराई से देखें तो सीता एक बेहद मजबूत, गर्वीली स्त्री हैं, और  सावित्री तो प्रेम के लिए यम तक से भिड़ जाती हैं...यह है स्त्री शक्ति - या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रुपेण संस्थिता ....स्त्री शक्ति को हमें उसके प्रेम और निर्माण करने की क्षमता  से अलगा कर नहीं देखना चाहिए..

इसी तरह अश्वत्थामा के मिथक में मुझे आज के मानव की वेदना दिखाई पड़ती है- उसकी शिरोवेदना औऱ क्या है?

मैं बेटी के लिए कविता  लिखती हूँ तो अनायास मुझे द्रोपदी और जाबाला याद आती हैं...क्या आज भी यह प्रश्न हमें उद्वेलित नहीं करता कि गर्भ पर किसका हक़ - माँ का भी या केवल पिता का, केवल माँ का क्यों नहीं? आप केवल एक शब्द कहिये सीता और सुनिए उसकी प्रतिध्वनि... मिथक रचना को अर्थवान बनाते है और रचनाकार और पाठक को गहरे में उसकी भूमि से जोड़ते हैं. पर मैं एक बात की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगी कि हमें  मिथकों का प्रयोग करते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए और उसे मनचाहे ढंग से तोडना मरोड़ना  नहीं चाहिए.  मिथकों में जीवन का स्पंदन होता है,  मनचाहे ढंग से प्रस्तुति करने पर वे अर्थहीन और प्राणहीन हो जाते हैं....

प्रशासनिक अधिकारी होने के साथ-साथ कविता-कर्म ! ये सामंजस्य आप कैसे बिठाती हैं.

भारत सरकार में नौकरी करते हुए मुझे २५-२६ साल हो गए हैं...मुझे लगता है कि इस नौकरी ने न केवल मुझमें आत्मविश्वास पैदा किया, मुझे एक पहचान दी बल्कि मेरे अनुभव क्षेत्र को भी भांति भांति से समृद्ध किया. यह सही है कि जब मैं शोध करने के मूड में होती हूँ तो यह नौकरी मुझे जम कर काम करने का मौका  नहीं देती पर उसके अलावा मैं बहुत कृतज्ञ रहती हूँ कि मुझे अपनी रचनात्मकता के लिए समय और स्पेस दोनों मिलता रहा है...


सुमन केशरी से हरप्रीत कौर की बातचीत यहाँ देखें : बातचीत 




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  1. भारतीय पुरातन इतिहास की हर घटनाओं सत्य से भी गहरी सीख छिपी रहती है। हर समय लगता है कि किसी न किसी चरित्र को जी रहे हैं।

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  2. मिथकों को लेकर अच्छी पहल है, किसी भी सभ्यता की सांस्कृतिक समीक्षा का आवश्यक पहलू! स्त्री-पुरुष की प्रकृति और तत्संबंधी दुनियाओं का अंतर यथार्थ है, भाषादि रूपों में दूर तक फैला हुआ! तमाम नकारात्मकताओं के बावजूद स्त्री का इन रूपों में स्वयं को व्यक्त करना जहाँ एक ओर सृजनमूलक है वहीं दूसरी ओर प्रत्युत्तर-मूलक भी! रचना प्रक्रिया पर और बातें अपेक्षित थीं, प्रभाव व प्रयोग के लिहाज से! बहरहाल..सुंदर बतकहीं !
    आभार/अमरेन्द्र..

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  3. I must confess that I swing between beliefs that the literature or attitude to literature in not feminine and masculine, or is masculine and feminine. Premchand, very famously commented that "Bangla lekhakon mein streeguna ki adhikataa hai...." When I read Ashapurna Devi (Bangla) or Pratibha Roy (Oriya) I can see the reach of their insight and depth of their feelings, when describing weak, helpless, dependent, subjugated, yet strong women. Mahasweta Devi on the other hand uses bigger canvas, mostly because of her own experience and what she writes could have been written by any one sensitive and who is hurt by exploitation and angry about it. It is funny that left writers or left critics would sing praises of symbolism of Spartacus but the symbolism of Sabari or Kubja or Nishad or Gargi or Satyakam is anathema for them. I think, as the famous Baengali poet Chandidas said- Sabar oopar manush staya- human truth is the highest from of truth. So humanism and not man/woman/black/white/dalit/.. divisions

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  4. pasand aaya. balance hai drishti mein. lekhikaon mein is samay yah kam dekhne mein aata hai.

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  5. Manisha Kulshreshtha20 जून 2011, 9:30:00 am

    एक सुलझे हुए रचनाकार का बहुत सुलझा हुआ, रचना - प्रक्रिया का पता देता, सहेजने लायक साक्षात्कार.सुमन जी और् अपर्णा , अरुण तीनों को बधाई.छाया चित्र बहुत अच्छे लगे, साक्षात्कार जीवंत हो गया.

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  6. बहुत सुंदर सुमन.
    तुम तो मेरी एक कविता की कविता लिखने वाली और कलम को औज़ार ही नहीं हथियार बनाने वाली और जरूरत पड़ने पर कलम छोड़ कर हथियार उठाने वाली औरत की अनुभूति ...हो. एक जगह तुमसे सहमत नहीं हूँ, स्त्रियों की तुलना में पुरुष रचनाकारो के फ़लक की व्यापकता को लेकर तुम्हारा आकलन हमारी छात्र पीढ़ी के लिए सही है जब लड़कियाँ "कल्चरल शॉक देने से बचती थीन और बस में मजानूगर्दी की हरकतों को नजरअंदाज कर देती थेऐस पीढ़ी की लड़कियाँ मजनुओ के गाल पर पाँच उँगलियों के निशान का रेखा-चित्र बना देती हैं. प्रवंचनाओं तथा वर्जनाओ को चुनौती देते हुए पुरुशवादी समाज के हक़ीक़त तो निर्वस्त्र करके कल्चरल शॉक देने लगी हैं लेखिकाये. मैत्रेयी पुष्पा जैसी लेखिकाओ की साफगोई से विभूतिनारायण राय जैसे मठाधीशों की बौखलाहट इसी कल्चरल शॉक का नतीजा है. महिला दावेदारी और विद्वता के[क्रमिक और मात्रात्मक ही सही] की 30-35 में बढ़े पराभव के चलाते माफी माँगनी पड़ी. इस कल्चरल शॉक की तुलना दलित दावेदारी और विद्वता से सवर्ण्वादियो को मिलने वाले कुल्चरल शॉक से की जा सकती है. बार-बार लगातार कल्चरल शॉक देते रहने की आवश्यकता है. अन्याय की पीड़ा ताजी होने के कारण, अन्याय के विरुद्ध दलित और महिला रचनाकर्मियौ के लेखन की धार ज्यादा तेज है.इससे मुझे लगता है कि महिला रचनाकर्मियों का फ़लक ज्यादा व्यापक और सघन होता है.

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  7. कवयित्री सुमन केशरी जी की साहित्यिक परिपक्व ओर सुलझे हुए रचनाकार की मानवीय दृष्टि, मिथकों के अर्थगर्भित स्पर्श एवं अभिव्यक्ति युक्त समृद्ध लेखन परम्परा से साक्षात्कार करने के लिए अपर्णा जी का कोटि कोटि अभिनन्दन....

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  8. सुमन केशरी ने एक बेहतर रचनाकार के रूप में तो अपनी अलग पहचान बनाई ही है, सर्जनात्‍मक प्रक्रिया और मानवीय प्रकृति को वे जितनी गहराई से समझती और विश्‍लेषित करती हैं, यह उनकी रचनात्‍मकता का एक और उल्‍लेखनीय पक्ष इधर उभर कर आया है। कविता को मनुष्‍य की मूल रचनात्‍मक अभिव्‍यक्ति के रूप में व्‍याख्‍यायित करते हुए वे मनुष्‍य की मूल प्रकृति को कितनी गहराई से विश्‍लेषित करती हैं, साथ ही तमाम विरोधी स्थितियों के बीच स्‍त्री के सृजनकर्म की भिन्‍नता को कितनी विनम्रता से वे पुरुष के बडे़ अनुभव फलक बाहर की दुनिया के मुकाबले स्‍त्री को घरेलू जीवन की छोटी दुनिया में सीमित मानकर संतोष कर लेती हैं, जबकि हम जानते हैं कि इस छोटी दुनिया की गहराई उस बडे फलक वाली बाहरी दुनिया पर कितनी सवाई पडती है। बहरहाल सुमनजी का यह साक्षात्‍कार मुझे कई दृष्टियों से महत्‍वपूझर्ण लगा। अपर्णा को बधाई कि सुमनजी से इतनी सार्थक बातचीत उपलब्‍ध करवाई।

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  9. इस बातचीत की विशिष्‍टता यह कि सुमन केशरी के कवि-हृदय ही नहीं बल्कि उनके स्‍त्री-मन के भी जैसे ढेरों स्‍नैप क्लिक कर लिये गये हैं। बहुत ही स्‍वाभाविक, सार्थक और उपयोगी चर्चा... बधाई और शुभकामनाएं...

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  10. unki kavita ki sadgi men adbhut maulikta hai

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  11. Samalochan vakt ki maang hai. Mai Arun Dev ji ke is yogdaan kee saraahanaa kartaa huen. Sabhee tathya man ko chhuu lene ko aatur hai. Suman Kesari ji kee baatjeet se bahut nayee nayee jakariean mili.

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  12. क्या आज भी यह प्रश्न हमें उद्वेलित नहीं करता कि गर्भ पर किसका हक़ - माँ का भी या केवल पिता का, केवल माँ का क्यों नहीं? आप केवल एक शब्द कहिये सीता और सुनिए उसकी प्रतिध्वनि... मिथक रचना को अर्थवान बनाते है और रचनाकार और पाठक को गहरे में उसकी भूमि से जोड़ते हैं. पर मैं एक बात की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगी कि हमें मिथकों का प्रयोग करते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए और उसे मनचाहे ढंग से तोडना मरोड़ना नहीं चाहिए. मिथकों में जीवन का स्पंदन होता है, मनचाहे ढंग से प्रस्तुति करने पर वे अर्थहीन और प्राणहीन हो जाते हैं.... bhut hi sunder batchit hai . kavita ke madhyem se istri ke man ko samjhne ki khubsurat kosiss. arun aavar aapka.

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  13. describtions of intimate life the mystery he brings out in relationship are timeles.you can read a suman in any era and she always sound so valid

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  14. Satya Mitra Dubey( Satya Dubey)21 जून 2011, 7:13:00 pm

    Satya Mitra Dubey( Satya Dubey)

    सुंदर , संतुलित , सोच -समझ से - प्रश्न एवं उत्तर दोनों दृष्टियों से भरा साक्छात्कार .

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  15. अच्छा लगा इस साक्षात्कार को पढ़ना. स्त्री विमर्श की थोथी खींचतान से ऊपर उठाकर पितृसत्ता के महीन षडयंत्रों को समझते-समझाते सुमन जी ने मर्म पर हाथ रखा है.

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  16. ek bahut achchhaa saakshaatkaar! purush aur stree rachanaakaaron ke phalak aur perception par apani dhaaranaaon ko Suman ne belaag tareeqe se saamane rakhaa hai. apani rachanaa-prakriyaa ke bahaane unhonne jis tarah apane saahityik vyaktit...wa ki nirmiti ki prishthabhoomi ke roop meein apane pitaa ke pratyaksha/paroksha/saanketik yogdaan ki vistrit charchaa ki hai, vah viral hai- aatmiyataapoorna toh hai hi. mujhe yah sabse achchhaa ansh lagaa hai. iske alawaa apane anubhav-sansaar ki samajh ke prati jo aatma- vishwaas ka bhaav hai vah isliye bahut aashwast karataa hai ki unhein us anubhav sansaar ki seemaaon ka ehsaas hai(jabki bahut saare log apane anubhav sansaar ko zabran vistrit dikhaane ke moh/chakkar mein rachanaa ka kabaadaa kar dete hain). kul milaakar yah saakshaatkaar suman ki saaf samajh aur sateek abhivyakti ki praamaanik gawaahi detaa hai (yah isliye bhi kahanaa zaroorti lagataa hai kyonki main toh '77-78 ki suman ko hi jaanataa hoon. haan, tabse duniyaa ki tamaam nadiyon mein bahut paani bah gayaa hai. Aparna aur Suman donon ko badhaai.

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  17. सुमन केशरी22 जून 2011, 1:03:00 pm

    आप सभी लोगों का बहुत बहुत आभार..अपनी रचनाशीलता के प्रति आश्वस्त भी हुई और जिम्मेदारी का और गहराई से अहसास हुआ...पुन: आभार

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  18. sumanji ki gahri drishti aur gahan adhyayan is lekh me jhalkta hai.. unhe padhna matlab bahut kuchh seekhna hai.. bahut saarthak baatcheet. dhanyvad aparnaji aur arunji..

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