गैबरिएल गार्सिया मार्केज से प्लीनियो एपूलेयो मेंदोजा की बातचीत (सुशील कृष्ण गोरे)




२० वीं शताब्दी के महत्वपूर्ण लेखकों में से एक१९८२ में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित, जादुई यथार्थवाद के जनक, कोलम्बिया के मार्केज से लेखक–पत्रकार मेंदोजा की बातचीत का अंग्रजी से अनुवाद सुशील कृष्ण गोरे ने बहुत ही मन और मेहनत से किया है. 


गैबरिएल गार्सिया मार्केज से प्लीनियो एपूलेयो मेंदोजा की बातचीत


यह महज़ एक संयोग ही था कि मैं लेखन के क्षेत्र में आ गया; वो भी अपने एक मित्र को सिर्फ़ यह दिखाने के लिए कि मेरी पीढ़ी में भी लेखक पैदा करने की कूवत है. इसके बाद तो मैं लिखने के आनंदजाल में फँस गया जिसने अवांतर रूप से मुझे एक दूसरे ही जाल में उलझा दिया जहाँ मुझे यह इलहाम होने लगा कि मेरे लिए इस संसार में लिखने से बढ़कर प्यारा कुछ भी नहीं है.

आपने कहा कि लिखना एक प्रकार का सुख है. आपका यह भी कहना है कि लिखना शुद्ध रूप से एक यातना है. क्या है यह ?

दोनों बातें अपनी जगह सही हैं. शुरू-शुरू में लिखने के क्रम में मैं जब लिखने की कला सीख रहा था मैं आनंदातिरेक में लिखता रहा जिसमें लगभग किसी प्रकार के दायित्व का निर्वाह नहीं था. उन दिनों सुबह दो-तीन बजे के आसपास अख़बार का अपना काम पूरा करने के बाद मैं जब लिखने बैठता था तो किसी किताब के चार, पाँच या कभी-कभार दस पृष्ठ भी बड़ी आसानी से लिख लेता था.
एक बार तो ऐसा हुआ कि एक पूरी कहानी ही एक बैठक में लिख डाली थी.

 ...और अब?

अब तो अगर दिन भर में एक अच्छा खासा पैराग्राफ भी लिख लेता हूँ तो भी अपना भाग्य समझता हूँ. वक्त निकलने के साथ-साथ लिखना एक यंत्रणादायी प्रक्रिया बनता गया है.

ऐसा क्यों? जबकि होना तो यह चाहिए था कि आपकी महारत जितनी बढ़ी, लिखना आपके लिए उतना ही आसान होता.

सीधी सी बात है. दरअसल होता यह है कि तब आपकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है. आपको लगने लगता है कि एक-एक शब्द जो आप लिखते हैं उसका बहुत वजन है और वह बहुत सारे लोगों को प्रभावित करता है.  

शायद प्रसिद्धि भी इसकी एक वज़ह हो सकती है. क्या आपको यह स्थिति बुरी लगती है?

यह स्थिति मुझे परेशान करती है. एक ऐसे महाद्वीप में जो सफल लेखकों का अभ्यस्त नहीं है वहाँ किसी ऐसे लेखक के साथ, जिसे साहित्य में सफलता की कोई आकांक्षा न हो, जो सबसे बुरी बात हो सकती है वह है उसकी किताबों की धड़ाधड़ बिक्री. मुझे सार्वजनिक चकाचौंध में रहना पसंद नहीं. मुझे टेलीविजन, कांग्रेस, कांफरेंसेज तथा राउंड टेबलों से नफरत है.

साक्षात्कार?

जी हाँ. उससे भी. मैं किसी के लिए कामयाबी की दुआ नहीं करना चाहूँगा. यह ठीक एक पर्वतारोही की तरह होती है जो पहाड़ के शिखर चूमने के उन्माद में ख़ुद को लगभग मार देता है. जब वह शिखर पर पहुँच जाता है तो क्या करता है? नीचे ही उतरता है या जितना संभव हो उतनी सावधानी के साथ अपनी गरिमा बचाकर नीचे उतरने की कोशिश करता है.

जब आप युवा थे और आपको दूसरे प्रकार के काम करके अपना गुज़र-बसर करना पड़ता था तो आप रात में लिखा करते थे और बहुत सिगरेट पिया करते थे.

हाँ. एक दिन में चालीस-चालीस सिगरेट.

और अब?

अब मैं सिगरेट नहीं पीता और केवल दिन के समय लिखता हूँ.

सुबह क्या करते हैं?

नौ बजे से तीन बजे अपराह्न तक एक शांत कमरे में रहता हूँ जो कायदे से गर्म हो. दरअसल आवाज तथा सर्दी से मेरा ध्यान बँटता है.

क्या दूसरे लेखकों की तरह आपको भी कोरे कागज़ का कोई टुकड़ा देखकर झुँझलाहट होने लगती है?

हाँ. मुझे सबसे अधिक बेचैनी चारों तरफ से बंद कमरे में बंद रहने से होती है और उसके बाद खाली कागज के टुकड़े से. लेकिन हेमिंग्वे की कुछ सलाह पढ़ने के बाद मेरी यह परेशानी भी खत्म हो गई. उन्होंने बताया है कि आप अपने काम को बीच में छोड़कर तभी उठें जब आपको यह पता हो कि जब कल आप उस काम पर लौटेंगे तो उसे आगे कैसे बढ़ाएंगे.

आपके लिए किसी रचना के सृजन का प्रस्थान-बिंदु क्या होता है?

एक चाक्षुष बिंब. मुझे लगता है, दूसरे लेखकों के मामले में रचना किसी विचार, किसी अवधारणा से जन्म लेती है. मेरे साथ प्रारंभ हमेशा एक दृश्य से होता है. Tuesday Siesta को मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ कहानी मानता हूँ और इसे मैंने एक औरत और एक छोटी लड़की को देखकर लिखी थी. वो काली ड्रेस पहनी हुई थी और उसकी छतरी भी काली थी. वे दोनों चिलचिलाती धूप में एक वीरान शहर के रास्ते पर पैदल चली जा रही थीं. In Leaf's Storm की रचना के पीछे भी एक बीज-दृश्य ही था जिसमें एक बूढ़ा आदमी अपने पोते को लेकर एक अंत्येष्टि में जा रहा है. इसी तरह नोबडी राइट्स टू दि कर्नल की रचना का प्रस्थान-बिंदु वह दृश्य बनता है जिसमें एक आदमी बैरांक्विल्ला के बाज़ार में दोपहर के भोजन का इंतजार कर रहा है. उसकी प्रतीक्षा में एक मौन विकलता पैठी होती है. इसके कई वर्ष बाद पेरिस में मैं भी एक पत्र, शायद वह मनी ऑर्डर था, का उसी प्रकार से इंतज़ार कर रहा था जिसमें उसी प्रकार की विकलता छिपी थी. उस समय मैं उस आदमी की स्मृति के साथ तदाकार हो गया था.

वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड (हिंदी में- एकांत के सौ वर्ष  नाम से प्रकाशित) लिखने के पीछे कौन सा दृश्य बिंब था आपके पास?

एक बूढ़ा आदमी अपने बच्चे को सर्कस दिखाने ले जाता है जहाँ बर्फ़ की नुमाइश लगाई गई है.

क्या वह आदमी आपके दादा कर्नल मार्खेज थे?

जी हाँ!

क्या वास्तव में ऐसा हुआ था?

ठीक ऐसा तो नहीं लेकिन इसके पीछे एक सच्ची घटना की प्रेरणा थी. मुझे याद है अराकाटका में मैं जब बहुत छोटा था तो मेरे दादा मुझे साँड़नी दिखाने सर्कस ले गए थे. दूसरे दिन जब मैंने उनसे कहा कि मैंने बर्फ़ नहीं देखी है तो वे मुझे लेकर उस सर्कस कंपनी के अड्डे पर गए और कंपनी के लोगों से कहा कि वे मुझे जमे हुए कीड़ों का क्रेट खोलकर दिखाएं और उन्होंने मुझसे क्रेट के भीतर हाथ भी डलवाया. समग्र वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड उसी एक दृश्य से उत्सर्जित एक रचना है. वही दृश्य प्रस्थान-बिंदु है.

इस प्रकार आपने दो स्मृतियों को एक साथ जोड़ दिया और उपन्यास का पहला वाक्य आपको मिल गया. यह ठीक इस प्रकार कैसे हुआ?

कई साल बाद कर्नल और्लियानो बुएंडिया जब गोलीबारी करते एक दस्ते का सामना कर रहा था तो उसे अतीत की परतों में जा छिपी उस शाम की याद हो आई जब उसके पिता उसे बर्फ़ ढूँढ़ने ले गए थे.

प्राय: आप किसी उपन्यास के पहले वाक्य को काफी अहमियत देते हैं. आपने मुझे एक बार बताया था कि कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि पूरा उपन्यास लिखने में जितना समय नहीं लगा उससे कहीं ज्यादा समय आपको उसका पहला वाक्य लिखने में लग गया. ऐसा क्यों हुआ?

क्योंकि पहला वाक्य किसी भी उपन्यास की शैली, उसके स्वरूप और यहाँ तक कि उसकी लंबाई की भी जांच-परख करने की प्रयोगशाला हो सकती है.

क्या उपन्यास लिखने में आपको ज्यादा वक्त लगता है?

दरअसल, लिखने में समय नहीं लगता. लिखने का काम तो तेज गति से हो जाता है. मैंने वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड दो साल से भी कम समय में लिख दिया था. लेकिन उसे लिखने के लिए टाइपराइटर पर बैठने से पहले मैं पंद्रह-सोलह साल उस पर सोचता रहा.

और इतना ही लंबा समय ऑटम ऑफ़ द पैट्रिआर्क में भी लगा होगा. उस पर लिखने से पहले आपने उसके प्रौढ़ होने का इंतजार किया होगा जिसमें समय लगा होगा. क्रॉनिकल आफ अ डेथ फोरटोल्ड को लिखने के लिए आपको कितनी लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ी थी?

तीस वर्ष.

इतना लंबा क्यों?

जब यह वाकया 1951 में हुआ था तो उस समय मेरी उसमें दिलचस्पी महज़ वैसी ही थी जैसी की किसी समाचार में होती है. मैंने उसे किसी उपन्यास की सामग्री की नज़र से नहीं देखा था. लेकिन उस समय वह विधा कोलंबिया में बहुत विकसित नहीं थी और मैं एक स्थानीय समाचार पत्र के साथ क्षेत्रीय पत्रकार के ब़तौर संबद्ध था. इसके अलावा, उस स्थानीय पत्र की इस मामले में रुचि नहीं रही होगी. बहुत साल बाद मैंने इस मामले के बारे में साहित्यिक ढंग से सोचना शुरू किया लेकिन हमेशा मेरे दिमाग में यह एक खयाल घूमता रहा था कि यदि मेरी माँ इस उपन्यास में अपने ही तमाम इष्ट मित्रों और परिजनों को देखेगी तो कितना ख़फा होगी. ऊपर से यदि उपन्यास स्वयं उसके बेटे ने लिखा हो तो अंदाज लगाइए, उसकी झुँझलाहट का पारावार क्या होगा. इसके बावजूद सच्चाई यह है कि वह विषय तब तक मेरे ऊपर हावी नहीं हो पाया था. वो तो कई साल बाद ऐसा हुआ कि घटना का एक सशक्त पहलू आविष्कृत होकर मेरे सामने यूँ आ गया कि दोनों हत्यारे हत्या को अंज़ाम नहीं देना चाहते थे और उन्होंने भरसक कोशिश की थी कि कोई व्यक्ति ऐसा मिल जाता जो इस वारदात को होने से रोक देता लेकिन वे इसमें असफल रहे. वास्तव में इस पूरे नाटक का सबसे अद्वितीय पहलू यही है; बाकी बातें तो सामान्य हैं. इस कृति में विलंब का दूसरा कारण उसके स्वरूप को लेकर था. असल जिंदगी में जब पति वारदात के लगभग पच्चीस वर्ष बाद अपनी परित्यक्ता पत्नी के पास लौटता है तो कहानी का अंत हो जाता है. लेकिन मेरे दिमाग़ में बात बहुत साफ थी कि उपन्यास में उस अपराध से संबंधित पूरा ब्यौरा आना चाहिए. उपन्यास के घटनाक्रम की तफ़सील होनी चाहिए. उस कहानी को ठीक असल ज़िंदगी की तरह ही उपन्यास में भी खत्म नहीं किया जा सकता था. उपन्यास की काल संरचना में स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने के लिए कथावाचक के रूप में मैंने पहली बार प्रथम पुरुष में कोई उपन्यास लिखा था. इसलिए इससे क्या हुआ कि तीस वर्ष बाद मुझे यह पता चला कि हम उपन्यासकार लोग अक्सर यह भूल करते हैं कि हम समझते हैं कि हमारा सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक सूत्र है - सत्य.

हेमिंग्वे अकसर कहा करते थे कि हमें किसी विषय पर लिखने में न तो बहुत जल्दबाजी करनी चाहिए और न ही बहुत देरी. क्या आपको बहुत समय तक किसी कहानी को अपने दिमाग में बिना लिखे रखे रहने में कोई परेशानी नहीं होती?

वास्तव में, मेरी ऐसी किसी चीज के बारे में लिखने में कभी रुचि ही नहीं रही जो वर्षों मेरी उपेक्षा को सह न सकती हो. यदि वह विचार वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड की तरह पंद्रह वर्ष, ऑटम ऑफ़ द पैट्रिआर्क की तरह सत्रह वर्ष और क्रॉनिकल आफ अ डेथ फोरटोल्ड की तरह तीस वर्ष मेरे दिमाग के कोने में टिका रह सकता है तो फिर मेरे पास लिखने के अलावा कोई चारा नहीं बचता.

क्या आप लिखने के लिए नोट्स लेते हैं?
कभी नहीं. केवल कुछ फुटकर चीजों को संक्षेप में लिख लेता हूँ. मुझे अपने अनुभवों से मालूम है कि जब आप नोट्स लेने लगते हैं तो आप सिर्फ़ उस नोट्स के बारे में सोचने लगते हैं; उसके परे किताब के बारे में नहीं.

क्या आपको अपने लिखे हुए को बहुत दुरुस्त करना पड़ता है?
इस लिहाज़ से देखा जाए तो मेरी रचनाएं संशोधन की प्रक्रिया में काफी परिवर्तित हो जाती हैं. जब मैं छोटा था तो सीधे लिखना शुरू कर देता था. उनकी प्रतियां बना लेता था और दोबारा उन्हें पढ़ता था. अब तो मैं लिखने के दौरान ही अपनी रचनाओं की एक-एक पंक्ति सुधारता चलता हूँ जिससे अंत में मेरे हाथ में एक पूरा साफ-सुथरा पृष्ठ होता है जिस पर न तो कोई गंदा निशान होता है और न ही कोई काट-छाँट. वह पृष्ठ प्रकाशन के लिए लगभग तैयार होता है.

क्या आप खूब पेज फाड़ते हैं?
इतना कि आप कल्पना नहीं कर सकते. उसके बाद जाकर कोई पन्ना मैं टाइप कर पाता हूँ...

क्या हमेशा टाइप ही करते हैं?
हमेशा. इलेक्ट्रिक टाइपराइटर पर. जब मैं गलत शुरूआत कर देता हूँ, या टाइपिंग में मुझसे कोई गलती हो जाती है, या लिखा हुआ कोई शब्द पसंद नहीं आया तो न जाने कौन सा भूत मेरे ऊपर सवार हो जाता है या कौन सा पाप-बोध प्रभावी हो जाता है कि मैं समूचा पन्ना ही टाइपराइटर से बाहर निकाल देता हूँ और नए पेज पर टाइप करना शुरू कर देता हूँ. बारह पृष्ठ की कहानी लिखने में मुझसे पाँच सौ पन्ने बर्बाद हो सकते हैं. इसका मतलब यह निकला कि मैं अभी तक अपनी इस खब्त़ से उबर नहीं पाया हूँ कि टाइपिंग में हुई गलती रचनात्मकता के एक दोष सदृश होती है.

बहुत सारे लेखकों को इलेक्ट्रिक टाइपराइटर से एलर्जी होती है. आपको नहीं है?
नहीं. मुझे एलर्जी नहीं है. मैं इलेक्ट्रिक टाइपराइटर से इस कदर मोहासक्त हूँ कि बिना इसके मैं कुछ लिख ही नहीं सकता. सामान्यत: जब आपके चारों तरफ़ की सभी परिस्थितियां सुखद हों तो आप बेहतर लिख सकते हैं. मेरा मन इस रूमानी मिथक की कैद में कभी नहीं रहा कि जब तक एक लेखक भूख से बिलबिला न उठे और पस्त न हो जाए तब तक वह कुछ सार्थक लिख ही नहीं सकता. मेरा तो मानना है कि जब आपका पेट अच्छे भोजन से तृप्त होता है और आपके पास एक अदद इलेक्ट्रिक टाइपराइटर हो तभी आप बेहतर लिख सकते हैं.

आप अपने साक्षात्कारों में उन रचनाओं के बारे में शायद ही मुँह खोलते हैं जिन्हें आप लिख रहे होते हैं. ऐसा क्यों?
क्योंकि वे मेरे व्यक्तिगत जीवन का अहम हिस्सा होती हैं. सच्चाई यह है कि मुझे उन लेखकों से भी नाराज़गी है जो अपने साक्षात्कारों में बेलाग भाव से अपनी अगले उपन्यास के कथानक का खाका प्रस्तुत करते फिरते हैं. इससे यह जाहिर होता है कि उनके लेखन के मोर्चे पर सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है और वे अख़बारों के सामने उन समस्याओं का विश्लेषण प्रस्तुत करके एक प्रकार की आत्म-सांत्वना प्राप्त कर रहे हैं जिनका समाधान वे अपने उपन्यास में नहीं ढूँढ़ पा रहे होते हैं.

लेकिन ऐसा लगता है कि आप जिस उपन्यास पर काम रहे होते हैं उस पर बातचीत आप अपने सबसे करीबी मित्रों के साथ साझा करते हैं.
जी हाँ. मैं जिन उपन्यासों को लिख रहा होता हूँ उनका परीक्षण करता रहता हूँ. जब मैं कुछ लिखता हूँ तो उसके बारे में काफी बातें करता रहता हूँ. इस क्रम में मुझे पता चल जाता है कि अपने लेखन में कहाँ मेरी स्थिति मजबूत है और कहाँ मैं भुरभुरी जमीन पर खड़ा हूँ. मेरे लिए यह एक प्रकार का पूर्वाभ्यास है.
   
आप बात तो खूब करते हैं लेकिन उन मित्रों को उस तक फटकने नहीं देते जो उस समय आप लिख रहे होते हैं.
बात सही है. कभी पढ़ने नहीं देता. यह मेरे लिए एक अंधविश्वास सा बन गया है. दरअसल मेरा मानना है कि लेखक सदैव अकेला ही होता है. ठीक वैसे ही जैसे बीच समुद्र में डूबते जहाज के नाविक - निपट अकेले. लेखन दुनिया का सबसे तनहा पेशा है. लिखने में कोई चाहकर भी आपकी सहायता नहीं कर सकता.

आपकी निगाह में लेखन के लिए सबसे आदर्श स्थान क्या हो सकता है?
मैं इसे पहले भी कई बार बता चुका हूँ: प्रभात काल हो और कोई द्वीप हो या फिर रात की बाहों में झूमता कोई महानगर. सुबह मुझे नीरवता चाहिए... शाम को कुछ शराब और कुछ साथी... गपशप के लिए. मेरे लिए ये जरूरी होता है कि मैं आम आदमी के लगातार संपर्क में रहूँ  जिससे कि मैं जान सकूँ कि दुनिया में क्या चल रहा है. मेरी यह स्थिति विलियम फॉकनर की इस बात में बख़ूबी बयां हो जाती है जब वे कहते हैं कि देखा जाए तो किसी लेखक के लिए सबसे उपयुक्त स्थान रंडियों का कोठा होता है; क्योंकि इस जगह सवेरे बड़ी निस्तब्धता होती है लेकिन हर रात एक महफ़िल.

चलिए, अब लेखन के शिल्प पक्ष पर बात करते हैं जो किसी लेखक के होने से जुड़ा होता है. लेखक बनने की लंबी प्रक्रिया में आपको किसका सहयोग सबसे अधिक मिला?
सबसे पहला नाम मैं अपनी दादी का लेना चाहूँगा जिनका सबसे अधिक सहयोग मिला. वे खूंखार से खूंखार चीजों और घटनाओं की कहानियाँ कुछ इस ढंग से पेश कर देती थीं मानो सचमुच उन्होंने उन चीजों को देखा हो और उनमें डरने या अचम्भे की कोई बात ही न हो. मुझे लगता है कि यह उनके धीर व्यक्तित्व का हाव-भाव और बिंबों का वैभव ही था जिनकी बदौलत उनकी कहानियाँ इतनी विश्वसनीय   बन पड़ती थीं. अपनी दादी की इसी कथा-विधि का इस्तेमाल करके मैंने वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड लिखी थी.

क्या अपनी दादी के चलते ही आपको यह भान हुआ कि आप में एक लेखक छिपा है?
नहीं-नहीं. ऐसा नहीं है. ऐसा काफ्का के कारण हुआ जिसने Gennan में चीजों को कुछ उसी ढंग से प्रस्तुत किया है जिस ढंग से मेरी दादी किया करती थीं. सत्रह साल की उम्र में जब मैंने काफ्का की मेटामारफॉसिस पढ़ी थी तो मुझे लगा कि मैं लेखक बन सकता हूँ. उस कहानी में जब मैंने देखा कि कैसे ग्रेगर सैम्सा  ने एक सुबह उठने पर पाया कि उसका शरीर तो एक बड़े से कीड़े में रूपांतरित हो गया है, तो मैंने खुद से कहा कि यार मैं नहीं जानता कि तू भी ऐसा लिख सकता है, लेकिन यदि तू लिख पाता तो यक़ीनन मैं लिखने के प्रति उत्सुक हूँ.

इस दृश्य ने आपको इतना ज़बरदस्त ढंग से अपील क्यों किया? क्या इस वजह से कि लेखन में जो चाहे उसे आविष्कृत कर पाने की स्वतंत्रता होती है?
अचानक मुझे लगा कि साहित्य में न जाने कितनी ऐसी संभावनाएं मौजूद हैं जो मुझे उन तार्किक और अत्यंत अकादमिक उदाहरणों के पार ले जाती हैं जिन्हें मैंने सेकेंडरी स्कूल की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा था. यह अनुभव एक तरह से एक शुचिता-बंधन को तोड़ने जैसा अनुभव था. लेकिन कुछ सालों बाद मैंने यह पाया कि ऐसा नहीं कि आप हर कपोल-कल्पना को साहित्य की ज़मीन पर साकार कर सकते हैं. अगर करने की कोशिश करते हैं तो आप झूठबयानी का जोखिम उठाएंगे और साहित्य में झूठ जीवन से भी ज्यादा गंभीर माना  जाता  है. यहाँ तक की ऊपर से देखने में बहुत ऊलजलूल किस्म की रचना के भी अपने नियम होते हैं. आप रचना में से तर्कसंगतता को तभी खिड़की से बाहर फेंक सकते हैं जब आपको ये शर्त मंजूर हो कि इसके बाद आपकी रचना में कोई उथल-पुथल और तर्कहीनता नहीं व्यापेगी.

क्या आपका मतलब फंतासी के गर्त में रचना के जाने से है?
हाँ! मेरा मतलब रचना के फंतासी के गर्त में डूबने से ही है.

क्या आप फंतासी से घृणा करते हैं. यदि करते हैं तो क्यों?
ऐसा इसलिए क्योंकि मैं ये मानता हूँ कि कल्पना यथार्थ पैदा करने का एक साधन मात्र होती है और अंतत: सृजन का उत्स हमेशा यथार्थ ही होता है. फंतासी सबसे घृणित इस अर्थ में है कि उसमें यथार्थ का कोई आधार नहीं होता. वह वाल्ट डिज्नी शैली की एक शुद्ध और सपाट खोज होती है. मुझे याद आता है एक बार जब मेरी रुचि बच्चों की कहानियों की किताब लिखने में हुई थी तो मैंने दि सी आफ लॉस्ट टाइम का एक ड्राफ़्ट आपके पास भेजा था. अपनी स्वाभाविक स्पष्टवादिता के साथ आपने कहा था कि वह आपको अच्छी नहीं लगी. साथ ही, आपने यह भी कहा था कि नापसंदगी की वजह फंतासी से आपकी वितृष्णा है. इस तर्क से मैं बहुत क्षुब्ध हुआ, क्योंकि बच्चों को भी फंतासी पसंद नहीं आती. बच्चे जो चीज पसंद करते हैं वह है कल्पना. फंतासी और कल्पना में वही फर्क होता है जो एक जीते-जागते मनुष्य और एक वेंट्रीलोक्विस्ट के डमी के बीच होता है.

काफ्का के अलावा कौन से लेखकों को पढ़कर आपको अपना शिल्प विकसित करने में सहयोग मिला और उनसे लेखन के गुर सीखे?\
हेमिंग्वे.

जिन्हें आप महान उपन्यासकार नहीं मानते.
उन्हें मैं एक महान उपन्यासकार तो नहीं परंतु लघुकथाओं का एक उम्दा कथाकार जरूर मानता हूँ. उनकी एक सलाह हुआ करती थी कि लघुकथा को समुद्र के विशालखंड यानी आइसबर्ग की तरह होना चाहिए. लघुकथाओं को आइसबर्ग की नोंक यानी 'टिप आफ दि आइसबर्ग' की तरह होना चाहिए जिसके नीचे उसके उस हिस्से का आधार छिपा होना चाहिए जो हमें दिखाई नहीं देता. इसका मतलब यह कि कहानी की चिंतन भूमि, अध्ययन और उसे लिखने के लिए जुटाई गई सामग्री ज प्रत्यक्ष रूप से कहानी में कहीं नज़र नहीं आती हैं यह सच है कि हेमिंग्वे से हमने घटनाओं के एक-एक विवरण को नोट करना सीखा.

ग्राहम ग्रीन से भी आपको कई चीजें सीखने को मिली थीं. हम लोगों ने एक बार इस पर बात भी की थी.
जी हाँ! ग्राहम से मैंने विषयवस्तु का अंदाज़ लगाना सीखा अर्थात अपने परिवेश से कथात्मक स्तर पर संश्लिष्ट तत्वों में से महत्वपूर्ण तत्वों को चुनकर अलग करना जो आप जानते हैं कि कितना दुरूह काम है. आपका परिवेश आपके लिए इतना जाना-पहचाना होता है कि आपको समझ में नहीं आता कि आखिर शुरू कहाँ से किया जाए और इसके बावजूद आपके पास कहने के लिए इतना कुछ होता है कि आपको अंतत: कुछ नहीं सूझता. उष्ण प्रदेशों के भौगोलिक क्षेत्रों के साथ भी यही मेरी समस्या थी. मैंने बड़े चाव से क्रिस्टोफर कोलम्बस, पिगाफेरा और इंडीज के दूसरे क्रानिकलरों को पढ़ा है और उनकी मौलिक दृष्टि की सराहना भी की है. मैंने साल्गारी और कोनार्ड तथा बीसवीं सदी के प्रारंभिक लातीन अमेरिकी ट्रापिकलिस्ट रचनाकारों को भी पढ़ा है जिन्होंने हर चीज को आधुनिकतावादी नज़रिए से देखा है. इसके अलावा भी कइयों को पढ़ा, लेकिन मैंने हमेशा पाया कि उनके वर्णनों और वास्तविकता में भारी भेद है. उनमें से कुछ तो चीजों को सूचीबद्ध करने के चक्कर में फँस गए और विडंबना है कि उनकी सूची जितनी लंबी हुई उनकी दृष्टि उतनी ही संकुचित.

जैसा कि हम जानते हैं, कुछ में विमर्श का अतिरेक आ गया. ग्राहम ग्रीन ने साहित्य की इस समस्या के समाधान का एक सटीक रास्ता परस्पर भिन्न तत्वों को एक आंतरिक संगति के सूत्र में पिरोकर निकाला. ऐसी संगति जो सूक्ष्म भी हो और वास्तविक भी. इस विधि का प्रयोग करते हुए आप ट्रापिकल यानी उष्ण प्रदेशों के क्षेत्रों की संपूर्ण पहेली को समझ सकते हैं........

क्या आपको कोई और सलाह याद आती है?
डॉमिनिकन लेखक जुआं बॉश  के बारे में मैंने ऐसा कुछ सुना है जो उन्होंने लगभग पच्चीस वर्ष पहले कराकस में कहा था. उन्होंने कहा था कि तुम्हें लिखने की कला यानी तकनीक, पाठ का ढांचा खड़ा करने के तरीके सीखने के लिए  चौकस लेकिन अदृश्य यात्राएं करनी चाहिए क्योंकि तुम अभी नौजवान हो और तुम सीख सकते हो.

क्या आपकी पत्रकारिता से आपके साहित्यिक पेशे में कोई मदद मिली?
मिली तो है लेकिन वैसी नहीं जैसा कभी-कभार कह दिया जाता है. पत्रकारिता ने भाषा का एक अधिक प्रभावशाली इस्तेमाल करना सीखाया. पत्रकारिता ने मुझे अपनी कहानियों को प्रमाणिक बनाने के रास्ते बताए. रेमेडियोस दि ब्युटिफुल को उसके स्वर्गारोहण के लिए सफेद चादरों से ढंकना अथवा फादर निकानोर को जमीन से छ: इंच ऊपर तैरने से पहले एक कप चाकलेट (कोई दूसरा पेय देने की बजाय चाकलेट) देना - ये वास्तव में पत्रकारिता की युक्तियां हैं और बहुत उपयोगी भी हैं.

आप हमेशा से एक जबरदस्त सिनेमाप्रेमी रहे हैं. क्या सिनेमा से लेखक उपयोगी तकनीक सीखता है?
सीखता होगा. लेकिन मुझे वास्तव में उसकी जानकारी नहीं है. मेरे लिए मेरे काम में सिनेमा सहायक और बाधक दोनों रहा है. सिनेमा ने मुझे यह सिखाया कि चित्रों में कैसे सोचा जाए. लेकिन इसी के साथ मुझे अब यह भी लगता है कि मेरे अंदर चरित्रों और दृश्यों की कल्पना करने के प्रति एक अतिरंजित उत्साह आ गया है और यहाँ तक कि वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड के पहले के अपन सभी उपन्यासों में मुझे कैमरे के कोणों और फ्रेमों के प्रति एक मोहासक्ति भी दिखाई देती है.

ज़ाहिर है आप नोबडी राइट्स टू दि कर्नल के बारे में सोच रहे हैं.....
बिल्कुल सही कहा आपने. यह एक ऐसा उपन्यास है जो शैली की दृष्टि से एक फिल्म पटकथा की भांति है. इसके चरित्र ऐसे चलते-फिरते और गतिशील हैं, मानो कि कोई कैमरा उनका पीछा कर रहा हो. जब मैंने वह उपन्यास फिर से पढ़ तो मुझे कैमरे की उपस्थिति महसूस हुई. अब मैं पूरे यकीन से कह सकता हूँ कि साहित्य के समाधान सिनेमैटोग्राफी के समाधान से एकदम भिन्न होते हैं.

आप अपने उपन्यासों में संवाद को इतना कम महत्व क्यों देते हैं?
क्योंकि स्पानी भाषा के संवादों से सत्य व्यक्त नहीं हो पाता. मैं हमेशा कहता रहा हूँ कि इस भाषा में वाचिक और लिखित संवाद के बीच में गहरी खाई है. स्पानी का कोई संवाद जो वास्तविक जीवन में अच्छा है, जरूरी नहीं कि किसी उपन्यास में भी अच्छा ही हो. इसलिए मैं संवादों का बहुत कम प्रयोग करता हूँ. 

क्या अपना कोई उपन्यास लिखने से पहले ही आपको भान हो जाता है कि उपन्यास के हरेक चरित्र के साथ क्या घटित होने वाला है?
बहुत सरसरी तौर पर. उपन्यास के विकास के क्रम में अप्रत्याशित चीजें घटती हैं. कर्नल औरेलियानो ब्युएंडिया के बारे में मेरे मन में पहला विचार था कि वह गृहयुद्ध का एक सैनिक होगा जिसकी मौत एक पेड़ के नीचे पेशाब करते समय होती है.

मर्सिडिज ने मुझसे कहा था कि जब उसकी मृत्यु हुई थी तो आपको काफी कष्ट हुआ था.
हाँ! मुझे मालूम था कि ऐसी एक स्थिति आनी चाहिए जब मुझे उसे मारना था लेकिन मैं हिम्मत नहीं कर सका. कर्नल पहले से ही बूढ़ा हो चला था जो छोटी सुनहरी मछलियां पकाया करता था. तभी एक शाम मुझे लगा कि उपन्यास में अब उसका काम पूरा हो गया है. मुझे उसे मारना पड़ा. जब मैंने वह अध्याय पूरा किया तो मैं अपने घर की दूसरी मंजिल पर मर्सिडिज के पास कांपते हुए पहुँचा. वह जान गई थी कि उस क्षण क्या घटित हुआ है और वह मेरा मुँह देखती रही. उसने कहा, 'कर्नल मर गया.' मैं विस्तर पर लेट गया और दो घंटे पड़े-पड़े रोता रहा.

आपको क्या लगता है, प्रेरणा जैसी कोई चीज होती है? क्या इसका अस्तित्व होता है?
प्रेरणा एक ऐसा शब्द है जिसे स्वच्छंदतावादियों ने खारिज़ कर दिया है. मैं इसे न तो कोई आशीर्वाद मानता हूँ और न ही अल्ला का करम. इसे मैं एक ऐसा क्षण मानता हूँ जब आप बड़ी मजबूती और नियंत्रण के साथ अपनी कथावस्तु के साथ एकाकार हुए रहते हैं. जब आप कुछ लिखना चाहते हैं तो आप और आपकी कथाभूमि के बीच एक दोतरफा तनाव पैदा हो जाता है. आप उस कथाभूमि को उद्दीप्त करते हैं और उधर से वह कथाभूमि भी आपको झकझोरती है. एक क्षण ऐसा आता है जब सारी बाधाएं गिर जाती हैं. अंतर्द्वंद्व गायब हो जाते हैं और आपके भीतर ऐसी चीजें घटने लगती हैं जिनकी आपने कल्पना तक नहीं की होगी और वह क्षण एक ऐसा अद्भुत क्षण होता है जिसमें आपके लिए इस दुनिया में लिखने से ज्यादा सुंदर कुछ नहीं होता. मैं इसी को प्रेरणा कहता हूँ.

क्या कभी-कभार ऐसा भी होता है कि कोई उपन्यास लिखने के दौरान आपके हाथ से प्रेरणा का वह अद्वितीय क्षण छूट जाता हो?
हाँ जी, ऐसा भी होता है. उसके बाद मेरे पास एक ही चारा बचता है. मैं प्रारंभ से सोचना प्रारंभ कर देता हूँ. इन क्षणों में मैं एक पेंचकस लेकर घर के सभी ताले और प्लग कसने लगता हूँ और दरवाजों को हरे रंग में रँगने लगता हूँ क्योंकि मेरा मानना है कि शारीरिक श्रम से यथार्थ के भय से उबरने में मदद मिलती है.

कहाँ गलती हो जाती है?
अकसर यह समस्या संरचना को लेकर पैदा हो जाती है.

क्या यह समस्या कभी-कभी बहुत गंभीर भी हो जाती है?
बिल्कुल. कभी-कभी ये समस्या इतनी विकट हो जाती है कि मुझे पूरा काम आदि से आरंभ करना पड़ जाता है. मेक्सिको में ऑटम ऑफ़ द पैट्रिआर्क के लगभग 300 पृष्ठ लिखे जाने के बाद 1962 में उसे लिखना मैंने बंद कर दिया था और नए लेखन में पूर्ववर्ती से जो केवल एक चीज बचकर आई वह उसका मुख्य चरित्र मात्र था. मैंने इस कृति पर दोबारा बार्सिलोना में काम शुरू किया. छ: महीने जमकर खूब लिखा और फिर एक बार छोड़ दिया क्योंकि इस उपन्यास के केंद्रीय चरित्र जो कि एक तानाशाह था, के कुछ नैतिक पहलुओं को मैं पकड़ नहीं पा रहा था. लगभग दो साल बाद अफ्रीका में शिकार पर मैंने एक किताब खरीदी क्योंकि उसमें हेमिंग्वे का प्राक्कथन पढ़ने में मेरी रुचि थी. वह प्राक्कथन बहुत बड़ा तो नहीं था लेकिन उसके अंदर हाथियों पर जो अध्याय था उसे मैं पढ़ गया. फिर क्या था – मुझे अपने उपन्यास की उस विकट उलझन का समाधान मिल गया. हाथियों में पाये जाने वाले कुछ रीति-रिवाजों को देखकर मैं उपन्यास के उस तानाशाह पात्र की नैतिकता की बुनावट को पूरी तरह समझ गया.

क्या संरचना तथा केंद्रीय चरित्र की मानसिक बनावट से जुड़ी समस्याओं से इतर कोई समस्या नहीं हुई?
हाँ! हुई थी. एक समय ऐसा भी आया था जब मुझे एक बहुत गंभीर समस्या नज़र आई. हुआ यह कि मैं उपन्यास में मौसम के मिजाज को गरम नहीं बना पाया था. यह एक गंभीर धर्मसंकट था क्योंकि उपन्यास की रचना कैरीबियन सिटी की पृष्ठभूमि में की गई थी जहाँ स्वाभाविक है भीषण गरमी होनी चाहिए थी.

तो फिर इसके लिए आपने क्या युक्ति निकाली?
इसका एकमात्र उपाय मुझे यही सूझा कि क्यों न अपने पूरे कुनबे को लेकर कैरीबियन यात्रा पर निकल जाया जाय. लगभग साल भर वहाँ मैं घूमता रहा और कुछ भी नहीं किया. जब मैं वापस बार्सिलोना पहुँचा जहाँ बैठकर में वह उपन्यास लिख रहा था; तो उसमें कुछ पौधे उगाए, कुछ सुगंध बिखेरी और तब जाकर अंत में अपने पाठक को एक उष्ण प्रदेश के शहर की भीषण गरमी का अहसास दे सका.

उस समय आपको कैसा लगता है जब आपका कोई उपन्यास लगभग पूरा हो चुका होता है?
वह समय उस उपन्यास से हमेशा-हमेशा के लिए मेरी रुचि के चले जाने का होता है. यानी उपन्यास से उपन्यासकार की अंतिम बिदायी. हेमिंग्वे हमेशा कहा करते थे कि लिखे जाने के बाद या पूरा हो जाने के बाद अपनी रचना या उपन्यास एक मरे हुए शेर की तरह हो जाता है.

आप कहते हैं कि हर अच्छा उपन्यास यथार्थ की एक काव्यात्मक पुनर्रचना होती है. क्या आप इस अवधारणा को जरा स्पष्ट करना चाहेंगे?
हाँ-हाँ जरूर; क्यों नहीं. जहाँ तक में समझता हूँ उपन्यास कूट भाषा में यथार्थ का एक पुनराविष्कार होता है. वह इस संसार की पहेली को बूझती, उससे जूझती एक कूटबद्ध रचना है. किसी उपन्यास में जिस यथार्थ की रचना या निर्माण होता है वह वास्तविक जीवन की जड़ों से जुड़ा होने के बावज़ूद बुनियादी तौर पर उससे भिन्न होता है. यही बात सपने के साथ भी सच है.

आप अपने उपन्यासों, ख़ास तौर से वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड तथा ऑटम ऑफ़ द पैट्रिआर्कमें जिस तरह यथार्थ को निरूपित करते हैं, उसे 'जादुई यथार्थ' कहा गया है. मुझे ऐसा महसूस होता है कि प्राय: आपके यूरोपीय पाठक आपकी कहानियों में छिपे जादू के प्रति तो लालायित रहते हैं; लेकिन उसके पीछे के यथार्थ को पकड़ नहीं पाते.
निश्चित रूप से इसका कारण उनकी तर्कशील बुद्धि है जो उन्हें यह देखने से रोकती है कि यथार्थ टमाटर और अंडे का भाव जानने तक ही महदूद नहीं है. लातीन अमेरिका का एक-एक दिन यह सिद्ध करता है कि यथार्थ अभूतपूर्व घटनाओं से अटा पड़ा है. अपनी यह बात साफ करने के लिए मैं अकसर एक अमेरिकी यात्री एफ.डब्ल्यु.अप द ग्राफ का उदाहरण देता हूँ जिसने पिछली सदी के अंत में अमेजन के जंगलों में रोमांचक यात्राएं की थीं. उन यात्राओं में बहुत सारी अद्भुत चीजों के अलावा उन्होंने खौलते पानी की नदी और एक ऐसी जगह भी देखी जहाँ की मूसलाधार बारिश में से मनुष्य की आवाजें सुनाई देती हैं. एक बार अर्जेंटीना के धुर दक्षिण में कोमोडोरो रिवेडेविया में दक्षिणी ध्रुव से उठी हवाओं ने एक पूरे के पूरे सर्कस को ही उड़ा कर फेंक दिया था और दूसरे दिन मछुआरों के जालों में शेरों और जिराफों के मुर्दा शरीर फँसे मिले थे. Rig Mama's Funeral में मैंने पोप द्वारा कोलंबिया के एक गाँव की अकल्पनीय और असंभव यात्रा की कहानी बतायी है. मुझे याद है मैंने वहाँ के मुखिया का वर्णन एक ऐसे गंजे और हट्टे-कट्टे आदमी के रूप में किया था जिससे कि वह न लगे कि वह एक दुबला-पतला आदमी था. इस कहानी के लिखे जाने के ग्यारह वर्ष बाद पोप खुद कोलंबिया गए और वहाँ पहुँचने पर जिस मुखिया ने उनकी अगवानी की वह ठीक वैसा ही एक लंबा और छरहरा व्यक्ति था जैसा मैंने कहानी में लिखा था. मेरे वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड लिखे जाने के बाद बैरांक्विल्ला में एक लड़के ने दावा किया कि उसको सूअरों जैसी पूँछ है. यह जानने के लिए कि हमारे जीवन में कितनी सारी असाधारण घटनाएं रोज घटती रहती हैं - आपको सिर्फ इतना करना है कि आप अख़बार का पन्ना खोलें और पढ़ें. मुझे यह भी मालूम है कि जिन अत्यंत साधारण लोगों ने वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड को ध्यान से और मजे के साथ पढ़ा है उन्हें उसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं दिखी होगी क्योंकि जब उपन्यास पूरा हो जाता है तो उन पाठकों को लगता है कि मैंने ऐसा कुछ भी नहीं लिखा जो उनकी अपनी ज़िंदगी में न घटित हुआ हो.

इसका मतलब यह कि अपनी रचनाओं में जो कुछ आपने लिखा वो सब वास्तविक जीवन पर आधारित है.
मेरे उपन्यासों में एक भी पंक्ति आपको ऐसी नहीं मिलेगी जो वास्तविकता पर आधारित न हो.

क्या आप यह बात बिलकुल दावे के साथ कह सकते हैं? वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड में कुछ ऐसी अजीबोगरीब घटनाएं घटित हुई हैं. रेमेडियोस दि ब्युटिफुल स्वर्ग में पहुँच जाती है, सशरीर. पीली-पीली तितलियाँ मौरिसियो बेबिलियोनिया के चारों तरफ पंख फड़फड़ा कर उड़ती रहती हैं.
सारा कुछ तथ्यों पर आधारित है.

जैसे...........?
जैसे मौरिसियो बेबिलियोनिया का ही उदाहरण लें. जब मैं लगभग पाँच साल का था तो एक दिन अराकाटका स्थित मेरे घर एक इलेक्ट्रिशियन बिजली का मीटर बदलने आया. मुझे वह दृश्य आज भी इस तरह याद है मानो कल ही की बात हो. वह बिजली के खम्भे पर चढ़ने के बाद गिरने से बचने के लिए अपनी कमर पर चमड़े की एक बेल्ट बाँध लेता था. उस बेल्ट पर मैं इस कदर ध्यानमग्न हो जाता था कि मत पूछिए. वह इलेक्ट्रिशियन मेरे घर कितनी बार आया होगा. एक बार मैंने देखा कि मेरे दादा जी एक कपड़े से एक तितली को हकांकर भगा रहे थे और साथ ही भुनभुना रहे थे कि 'कमाल है...जब भी यह इलेक्ट्रिशियन घर आता है; यह पीली तितली उसके पीछे लग जाती है. वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड के मौरिसियो का भ्रूण रूप इसी दृश्य में कहीं कैद था. उसकी कल्पना का यथार्थ यहाँ था.

और... रेमेडियोस दि ब्युटिफुल कौन थी? कहाँ से उसे सशरीर स्वर्ग भेजने का ख़याल आपके दिमाग में आया?
कथा में मूल रूप से मेरी योजना थी कि रेमेडियोस दि ब्युटिफुल को रेबेका तथा  आमरैन्टा के साथ घर में कशीदाकारी करते हुए गायब कर दी जाएगी. लेकिन यह सिनेमैटोग्राफिक तकनीक मुझे कारगर नहीं लगी. मुझे रेमेडियोस के साथ आगे बढ़ते रहना पड़ा. तभी मेरे दिमाग में उसे सशरीर स्वर्ग भेजने का विचार कौंधा था. आप जानना चाहते होंगे कि आखिर इस आइडिया के पीछे की हकीकत घटना क्या थी? एक औरत थी जिसकी पोती अलस्सुबह घर से भाग गई थी. उसने इस सच्चाई को छुपाने के लिए क्या किया कि खुद ही लोगों से कहने लगी कि वह तो स्वर्ग चली गई है.

आपने तो वैसे भी अपने कुछ लेखों में पहले ही इस पर विस्तार से बता दिया है; लेकिन सचमुच उसे स्वत: उड़कर स्वर्ग भेजने के लिए कितना पापड़ बेलना पड़ा होगा?
हाँ, बिलकुल सही है. वह तो जमीन छोड़ ही नहीं रही थी. मैं तो बड़ा हैरान-परेशान हुआ कि क्या किया जाए कि वह जमीन से उठकर उड़ने लगे. एक दिन यूँ ही मैं इस मुश्किल झमेले पर सोचते हुए अपने बागीचे में पहुँचा. उस दिन बड़ी तेज हवा चल रही थी. डील-डौल से एक भारी-भरकम काली लेकिन बड़ी सुंदर सी औरत अभी-अभी घर के कपड़े धोकर उन्हें सुखाने के लिए बाहर अरगनी पर लटकाने की कोशिश कर रही थी. मैंने देखा कि वह चादरों को टाँग नहीं पा रही थी क्योंकि तेज हवा के झोंके उन्हें उड़ा कर दूर फेंक दे रहे थे. तभी मेरा दिमाग कौंधा. मुझे लगा कि मुझे जिस चीज की खोज थी वह यही है.

अब रेमेडियोस दि ब्युटिफुल को सिर्फ चादर चाहिए था; उसके बाद वह स्वर्ग जा सकती है. इस दृश्य में यथार्थ का जो स्पर्श है वह इन्हीं चादरों से आया है. इसके बाद जब मैं लिखने के लिए टाइपराइटर पर आया तो रेमेडियोस दि ब्युटिफुल को उड़कर ऊपर जाने में कोई दिक्कत नहीं हुई. अब उसे स्वर्ग जाने से भगवान भी नहीं रोक सकता था.

Gabriel García Márquez by Plinio Apuleyo Mendoza 
(The Fragrance of Guava, London: Faber & Faber, 1988) से साभार




सुशील कृष्ण गोरे 
लेखक, अनुवादक, राजभाषा अधिकारी   

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  1. उम्दा पोस्ट, अच्छा लगा मार्केज का यह साक्षात्कार पढ़के. आपको बहुत-बहुत धन्यवाद !

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  2. रोचक व रचनात्‍म्‍ाक साक्षात्‍कार ।अरूण देव व सुशील गोरे के इस कार्य से मैं अपना वह कथन वापस लेता हूं कि हिन्‍दी में पश्चिमी लेखकों का 'वो' भी बेचने की कोशिश की जाती है । इस साक्षात्‍कार में एक महान लेखक ने अपने रचना व मनोजगत की बारीकी समझाई है ।अनुवाद भी विषय व भाव के अनुरूप है ।

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  3. अरुण जी बहुत धन्यवाद इस तरह के साक्षात कार या बातचीत पड़ने पर ..खुद के जीवन में पड़े कुछ खड्डों को भरने का तरीका पता पड़ जाता है कही तो ..उपयोगी बातें और गज़ब की शिख और कला जीवन जीने की .लेखन के प्रति केसा समर्पण ..वाह ..पुनः धन्यवाद जी !!!!!!!!!!Nirmal Paneri

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  4. वाह, बहुत खूब। इस साक्षात्कार से बहुत बल मिला। बहैसियत एक रचनाकार कई बातें ऐसी लगीं जिनसे मैं भी टकराता रहा हूं...कई गुत्थियां भी खुलीं...रास्ते भी.... आपका बहुत आभार अरूण भाई... सुशील जी अनुवाद बहुत बढ़िया हुआ है। लगा ही नहीं कि अनुवाद पढ़ रहे हैं...शुक्रिया

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  5. बहुत ही अच्छा साक्षात्कार ...बेहतरीन अनुवाद !शुक्रिय.अरुणजी आपको इतनी श्रेष्ठ बातचीत पढवाने के लिए.. !

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  6. बहुत अंतरंग बातचीत है। बहुत कुछ सीखने लायक और गुनने लायक।

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  7. bahut achchha saakshatkaar.. aur anuwaad bhi utna sundar ..Arun ji aur sushil ji ka aabhar!

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  8. पुरुषोत्तम अग्रवाल12 फ़र॰ 2011, 8:18:00 am

    क्योंकि पहला वाक्य किसी भी उपन्यास की शैली, उसके स्वरूप और यहाँ तक कि उसकी लंबाई की भी जांच-परख करने की प्रयोगशाला हो सकती है.
    वास्तव में, मेरी ऐसी किसी चीज के बारे में लिखने में कभी रुचि ही नहीं रही जो वर्षों मेरी उपेक्षा को सह न सकती हो. य...दि वह विचार वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सालीट्यूड की तरह पंद्रह वर्ष, ऑटम ऑफ़ द पैट्रिआर्क की तरह सत्रह वर्ष और क्रॉनिकल आफ अ डेथ फोरटोल्ड की तरह तीस वर्ष मेरे दिमाग के कोने में टिका रह सकता है तो फिर मेरे पास लिखने के अलावा कोई चारा नहीं बचता.
    हाँ-हाँ जरूर; क्यों नहीं. जहाँ तक में समझता हूँ उपन्यास कूट भाषा में यथार्थ का एक पुनराविष्कार होता है. वह इस संसार की पहेली को बूझती, उससे जूझती एक कूटबद्ध रचना है. किसी उपन्यास में जिस यथार्थ की रचना या निर्माण होता है वह वास्तविक जीवन की जड़ों से जुड़ा होने के बावज़ूद बुनियादी तौर पर उससे भिन्न होता है. यही बात सपने के साथ भी सच है.
    जब मैं लिखने के लिए टाइपराइटर पर आया तो रेमेडियोस दि ब्युटिफुल को उड़कर ऊपर जाने में कोई दिक्कत नहीं हुई. अब उसे स्वर्ग जाने से भगवान भी नहीं रोक सकता था.

    बहुत मार्के की बातें...बहुत अच्छा अनुवाद.
    अरुण तुम बहुत अच्छा काम कर रहे हो.
    धन्यवाद तुम्हें और सुशील को इस के लिए.

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  9. बहुत अच्छा इंटरव्यू . सधा हुआ अनुवाद. अरुण देव जी और अनुवादक सुशील कृष्ण गोरे के प्रति आभार .

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  10. बहुत कुछ मिला इससे सीखने को…कई सारे सवालों के जवाब मिले और तमाम नये सवाल पैदा हो गये…प्रस्तुति का हृदय से आभार!

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  11. एक चाक्षुष बिंब से क्लासिक रचने की महानता से परिचित कराने हेतु आपका आभार. मार्केश की रचना प्रक्रिया से प्रेरणा प्रत्येक कलाकार लेकर सीख सकता है.

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  12. Sushil ji, hats off to your writing skills. The style is greate selection of words is very nice. The syntax of sentences is very strong. Words seems to speak. A make me see, style spell bounds the reader. just see इस भाषा में वाचिक और लिखित संवाद के बीच में गहरी खाई है. nothing appears uncommon or unknown.
    KP Tiwari

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  13. बहुत-बहुत अभार। ज़ाहिर है इतने कद्दावर लेखक की बातचीत ही ज्यादा मायने रखती है। वह अपनी जगह स्पानी या अंग्रेजी में भी उतनी प्रभावशाली और विचारोत्तेजक है। यदि अनुवाद भी बेहतर लगा तो सोने पे सुहागा। मैं तो इतने से ही कृतकृत्य महसूस कर रहा हूँ कि आप सभी को पढ़ने में मजा आया। अनुवाद की दीवार बीच में खड़ी नहीं रही। अपना काम करके जो पाठ से निष्क्रमित हो जाए और दो भाषाओं के बीच एक अदृश्य डोर तान जाय मेरे हिसाब़ से वही अनुवाद है। आपने इस काम को हाथों हाथ लिया, इससे मुझे एक नई शक्ति मिली। अनुगृहीत।

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  14. bahut accha bhaiya
    maine to aapko pehle bhi bola tha ki mujhe aapki lekhan shakti acchi lagti hai
    mujhe to padhne me maja aaya to umeed hai ki aur bhi log isko padhenge or aapki taarif karenge iske translation me

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  15. विश्व के महान लेखक-पत्रकार मार्केज के उद्दात विचारों से अपनी मातृभाषा
    हिंदी में इतनी सहजता से अवगत हुआ की पता ही नहीं लगा की मैं अनुवाद
    पढ़ रहा हूँ | प्रेरक अनुवाद | अपने ज़माने की महान शख्सियत मार्केज
    को पढना अपने आप में एक महान अनुभव रहा |
    आभार |

    मनीष मोहन गोरे

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  16. भाषा की एक अपनी गंध होती है, सृजन का माध्यम बनकर जो भाषा अपने इर्द-गिर्द एक खुशबू का रचाव करती है,अपनी सृजनात्मकता और प्रेषणीयता से पाठकों के मन को छूती है वह पाठकों को मदहोश करती है, रोमांचित करती है। सुशील कृष्ण गोरे जी का यह अनुवाद अपनी जादुई भाषा से मार्केज के जादुई यथार्थ के अपूर्व रचना-संसार से हमारा परिचय कराती है। मार्केज जैसे रचनाकार के साक्षात्कार का इतना सटीक और सहज संप्रेषणीय अनुवाद देखकर बहुत अच्छा लगा। यह अनुवाद एक ओर जहाँ अपनी सर्जनात्मकता से भी अपनी छाप छोड़ती है वहीं मार्केज कैसे उच्च कोटि के साहित्यकार का साहित्य और रचना-प्रक्रिया के बारे में रखे गए विचारों से भी हमें रूबरू कराता है। किसी साक्षात्कार का अनुवाद अनुवादक के लिए कठिन परीक्षा होती है क्योंकि साक्षात्कार के अनुवाद में साक्षात्कार लेने वाले और साक्षात्कार देने वाले दोनों व्यक्तियों की बातों के अलावा साक्षात्कार के वक्त व्यक्त उनकी मनोदशा, उनके मनोभावों का भी कहीं न कहीं अनुवाद करना होता है अनुवादक को साक्षात्कार के अनुवाद के समय उनके अनकहे संवादों की संवेदना से भी गुजरना पड़ता है और इस अनुवाद में अनुवादक ने इस कठिन अनुवाद प्रक्रिया का सहज निर्वाह किया है। परिमलेन्दु सिन्हा, मुंबई

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  17. एक बहुत सुन्दर लेख के लिए बधाई.
    इस साक्षात्कार के तीन पहलू है :
    पहला महान लेखक उपन्यासकार मार्केस
    उनके कहे प्रस्थान बिंदु और यथार्थ पर टिके रहने की हठधर्मिता बहुत प्रेरित करती है. रेमेडियोस का सशरीर स्वर्ग पहुँच जाना , जादू और तितली का प्रसंग विशेष रूप से उल्लेखनीय है. जीवन की उन घटनाओ को जिन्हें हम आप सी घटना मान लेते है मार्केस उसकी सूक्ष्म संवेदनाओ में उतर जाते है और कल्पना में भी कोई सच कोई यथार्थ दूंढ़ लेते हैं. पहले वाक्य की गुणवत्ता प्रति मार्केस की चौकसी बहुत रोचक है. कुल मिलकर उनका कथन लेखक समुदाय के लिए रोचक, प्रेरणादायक और पठनीय है.
    वे कहते है
    मेरे साथ प्रारंभ हमेशा एक दृश्य से होता है. Tuesday Siesta को मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ कहानी मानता हूँ और इसे मैंने एक औरत और एक छोटी लड़की को देखकर लिखी थी. वो काली ड्रेस पहनी हुई थी और उसकी छतरी भी काली थी; फिर से -In Leaf's Storm की रचना के पीछे भी एक बीज-दृश्य ही था जिसमें एक बूढ़ा आदमी अपने पोते को लेकर एक अंत्येष्टि में जा रहा है. पढ़ कर संतोष हुआ कि अंतर्राष्टीय साहित्यकार फिल्मो के लेखको से उतनी घृणा नहीं करते जितनी भारतीय . भारत में तो फिल्म लेखन को सृजनात्मक श्रेणी में रखा ही नहीं जाता. इसकी पुष्टि वह करते है कि सिनेमा ने मुझे यह सिखाया कि चित्रों में कैसे सोचा जाए.

    दूसरा पहलू मेदोज़ा कि प्रश्नों का है सम्पूर्ण प्रश्न श्रृंखला एक दुसरे में गुंथी हुई है उत्तरों से प्रश्न निकलते है. मार्केस के जीवन और लेखन के कई अनछुए पहलू निकल के सामने आते है जिसके लिए निश्चित ही मेदोज़ा बधाई के पात्र हैं

    तीसरा और अंतिम पहलू श्री सुशील कृष्ण गोरे के अनुवाद का है उन्होंने अत्यंत सूक्ष्मता से प्रश्नों अर्थो और भावो ka सम्प्रेषण किया है. जिस प्रकार अच्छे सम्वाद किसी भी फिल्म कि पटकथा को उसके उत्कर्ष के शिखर तक ले जाते है उसी प्रकार अनुवादक जी ने पूरे लेख को पाठक तक ज्यो का त्यों पहुँचाया है. रास्ते में कुछ भी टपकने नही दिया. शब्दों पर उनकी पकड़ प्रखर है वे केवल शब्दों का ही नहीं भावनाओं का भी अनुवाद करते हैं. मार्केस अपने सही और सूक्ष्म रूप में हम तक न पहुचते यदि सुशील कृष्ण गोरे सरीखे सक्षम पुल से होकर नहीं गुज़रते. साभार.
    मेरी किसी भी त्रुटि के लिए क्षमा याचना. धन्यवाद.

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  18. bahut inspiring aur sahajta, bachho jaisi masumiyat hai is lekhak ke andar, janane ke saath seekhne ko bhi milta hai aisi cheezen padhkar, anuvad bhi badhiya hai, badhai aur shukriya
    vimal chandra pandey

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  19. बेहतरीन और अदभुत है यह साक्षात्कार ....हम सबके लिये इसमें इतने सूत्र मौजूद हैं कि कुछ भी यदि हाथ में आ जाये , तो पूरा लेखन ही सुधर जाए ...बहुत आभार आपका

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  20. बहुत महत्वपूर्ण, बहुत सारी बातें तो ऐसी कि मानो हम खुद कहना ही चाह रहे थे . और बहुत सारी ऐसी कि अच्छा ? यह हमारे दिमाग मे क्यों नहीं आया ?
    हिन्दी का लेखक प्रायः अपनी रचना प्रक्रिया पर इस बेबाक़ी से नही बोल पाता, उस के *आग्रह * आड़े आते हैं शायद ...... . प्रेरक . और दिमाग की खिड़कियाँ खोलने वाला .

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  21. जितनी तारीफ़ की जाये कम है . इस महत्वपूर्ण और रोचक साक्षात्कार का शानदार अनुवाद करने के लिए सुशील चन्द्र गोरे जी को बधाई व अरुण जी को इसे पढवाने लिए हार्दिक धन्यवाद ...''जब मैंने वह अध्याय पूरा किया तो मै अपने घर की दूसरी मंज़िल पर मर्सिडीज के पास कम्पते हुए पहुंचा |वह जान गई कि उस क्षण क्या घटित हुआ है उसने कहा ''कर्नल मर गया''मै बिस्तर पर लेट गया और दो घंटे पड़े पड़े रोता रहा ....'' ये है मार्खेज़ होने के मायने ...

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  22. दुनिया एक सबसे तनहा पेशे के इस जादूगर को श्रद्धा सुमन....क्या दुनिया के उपन्यास लेखक को इस मृत्यु पर उतना ही शोक नहीं होगा जितना मार्खेज को कर्नल की मौत पर हुआ था?

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  23. यह सच्चा परोपकार है ।सुन्दर प्रस्तुति की बधाई ।हम जैसे लोगों का भी भला हो गया ।

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  24. शुक्रिया अरुण जी . बहुत खूब . लेखन के पीछे का दर्शन !

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  25. बहुत अच्छा साक्षात्कार और अनुवाद है।

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  26. एक रचनात्मक मन को यह इंटरव्यू वह रोशनी देता है, जहाँ वह अपने आसपास देखने को प्रेरित होता है...वह कुछ नया सोचने को बाध्य होता है. एक साक्षात्कार की उपयोगिता भी वही है कि वह पाठक की सोच को विस्तार दे. बहुत ही अच्छा अनुवाद है.
    इस इंटरव्यू को देर से पढ़ पाया, अफसोस हो रहा है. इसके कुछ हिस्से पढ़कर मैंने अपनी बेटी को भी सुनाये...

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  27. मानीखेज़ बातचीत ! धन्यवाद अनुवादक महोदय और समालोचन।

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