गांधी मनुष्यता के महात्मा थे.
हिंसक वर्चस्व से प्रतिरोध का हिंसारहित असहयोग और अवज्ञा का उनका रास्ता मनुष्यता
की उनकी अवधारणा की ही तरह उदात्त है.
आज उनके चिन्तन और आख़िरी आदमी की उनकी चिंता पर संगठित हमले हो रहे हैं.
ऐसे में उनको बचाने का एक ही तरीका है कि उन्हें अधिक से अधिक पढ़ा जाए, उनके
रास्ते पर चलकर एक लोकतान्त्रिक, उदार, सुसंस्कृत, सहिष्णु सभ्यता को पनपने और पसरने
के लिए
वातावरण निर्मित किया जाए.
गाँधी के समय-समय पर दिए गए वक्तव्यों-भाषणों-लेखों को एकसाथ समाहित कर राजीव
रंजन गिरि ने यह पुस्तक संपादित कर एक महत्वपूर्ण कार्य किया है.
इसकी सुंदर समीक्षा अनुपमा शर्मा ने की है.
पुरुषार्थ, त्याग और स्वराज
अनुपमा शर्मा
गांधी पर लिखना और बोलना मेरे लिए
हमेशा से बहुत कठिन रहा है, इसका एक बहुत बड़ा
कारण उनको सम्पूर्णता में पढने का अभाव भी
रहा. जितना कम जाना-समझा उनमें भी उनकी बहुत सी बातों पर मेरी असहमति ही दर्ज़ हुई.
इन असहमतियों के बीच भी एक सत्य हमेशा यह भी
रहा कि मैं गांधी के दर्शन पर आक्षेप करती हूँ, पर उसी दर्शन को आधार मान उसके समान्तर अपने एक दर्शन विशेष की निर्मिति करती हूँ जो उसी
गाँधी की बनी ज़मीन पर उपजता है. आप गांधीवादी हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं. पर इस सत्य को झुठला नहीं सकते कि
गांधीवाद एक दर्शन है, एक जीवन-पद्धति है, ऐसी जीवन पद्धति जिसका यदि कालांतर में विश्व अनुसरण कर
पाता है तो यह मानवता के उस सुन्दर स्वप्न का साकार होना होगा, जिसे गाँधी ज़ामा पहनाना चाहते थे.
गाँधी को पढना सत्य को शोधना जैसा
है. जिस प्रकार सत्य के शोधन के बाद हमारे भीतर एक प्रकार की विवेक-संपन्नता एवं
पवित्रता आती है कि हम समय के सत्य को स्वीकार कर पाते है, उन्हें झटके में खारिज़ नहीं करते, दुत्कारते नहीं. पिछले दिनों राजीव रंजन गिरि के सम्पादन
में मोहनदास करमचंद गाँधी पर निकली एक
पुस्तक ‘पुरुषार्थ, त्याग और स्वराज’ पढ़ी, जिसमें गाँधी के समय समय
पर दिए गए वक्तव्यों-भाषणों-लेखों को एकसाथ समाहित किया गया है. यह संकलन इस मायने
में भी अनूठा है कि इसमें संग्रहीत लेख व भाषण कुछ कभी गुजराती में लिखे या दिए गए, कभी अंग्रेजी में. वे सभी अनुदित रूप में इस पुस्तक में
समाहित किए गए है. इसमें उनके बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में दिए वक्तव्य, यंग इंडिया, सर्चलाईट, हिन्दू, हिन्दुस्तान टाइम्स एवं
हरिजन में छपे अंग्रेजी लेखों, गुज़राती पत्र नवजीवन में
छपे लेख, उनके जब-तब दिए गए
भाषणों-वक्तव्यों को माला में पिरोने का काम किया गया है. इसके लिए सम्पादक राजीव
रंजन गिरि साधुवाद के पात्र हैं. भिन्न-भिन्न अवसरों एवं विषयों पर लिखे ये लेख
गाँधी एवं गांधीवाद को समझने में प्रेरक-सूत्र का काम करते हैं. इसमें पुरुषार्थ, असहयोग, अनुशासन, दृढ़ता, वीरता, चरित्र, स्वराज, स्वतंत्रता, सत्य, ईश्वर, लोकतंत्र, अहिंसा विषयक गाँधी के विचार हैं, जो हमें एक दिशा देने में सार्थक भूमिका निभाते है. गाँधी
को मानने के लिए उन्हें जानना बेहद ज़रूरी है,
यह पुस्तक
उसका एक अच्छा एवं सफल माध्यम हो सकती है.
गाँधी के इन दिए भाषणों एवं लिखे
लेखों में कई बार उनकी ही स्वयं की बातों में विरोधाभास भी प्रकट होता है, उन्होंने स्वयं कहा कि वे प्रयोग की प्रक्रिया पर है, इसीलिए जहाँ ज़रूरी लगा, अपना
मत-परिवर्तन करने से घबराए नहीं. उनका चिंतन एक जगह ठहरा हुआ नहीं, कदम-दर-कदम बढ़ता गया,
इस शर्त पर
कि उनके आदर्शों पर आधारित नई मानवीय सभ्यता की रचना हो सके. उन्होंने स्वयं कहा
भी- “जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों
में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी
पर विश्वास हो, तो वह एक ही विषय पर लिखे हुए दो
लेखों में से, मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत
माने.”
आलोचक राजीव रंजन गिरि ने पुस्तक
को संपादित करते हुए ‘राष्ट्रपिता का प्रत्यय’ शीर्षक से भूमिका अध्याय
लिखा है, जिसमें असल में गाँधी के गाँधी
बनने की प्रक्रिया है, कि किन-किन पडावों को पार
करते, किन दुर्गम पहाड़ों को चढ़कर गाँधी
ने जीवन की गहरी सतहों का अर्जन किया था. किस प्रकार मोहनदास करमचंद ने महात्मा
गाँधी बनने तक की यात्रा तय की है. भूमिका में सम्पादक ने गाँधी जीवन के दक्षिण
अफ्रीका प्रवास के प्रारम्भिक संघर्षों को बताते हुए लिखा है- “गाँधी ने संघर्ष की राह चुनी. वे सार्वजनिक जीवन की तरफ
कदम-दर-कदम बढ़ने लगे. लोगों से जुड़ते गए. संस्था बनाई, संगठन बनाया. सामने आने वाली चुनौतियों को स्वीकार करते
चले. एक ओर रंगभेदी निजाम की नीतियों के विरुद्ध संघर्ष था, तो दूसरी ओर इस रंगभेद के मार्फ़त विशेषाधिकार प्राप्त लोगों
से, उनके दृष्टिकोण से संघर्ष. इस
संघर्ष के पक्ष में लोगों को बनाए रखने के लिए गाँधी ने कई भाषण दिए, लेख लिखे. नतीज़ा यह हुआ कि दक्षिण अफ्रीका में हुए संघर्ष
में, गांधीजी केन्द्रीय शख्सियत के रूप
में उभरे.”
इस पुस्तक में कई लेख गाँधी के
स्वर्णिम संकल्पना ‘हिन्द स्वराज’ की पूर्वपीठिका के रूप में हैं. ‘पुरुषार्थ से ही मिलेगा स्वराज’, ‘स्वराज के लिए त्याग’,
‘स्वराज के
लिए आवश्यक है निर्भयता’ उसी कड़ी से जुड़ते लेख
हैं. गांधीजी ने सत्ता के स्वरूप, सत्य और उसकी साधना, समकालीन जीवन में परिव्याप्त गुण-दोष, समकालीन विश्व में भारत की भूमिका और भारत का स्वधर्म, तथा राज्य और समाज के आपसी संबंधों, समाज के मर्म तथा विस्तार की गहरी मीमांसा 'हिन्द स्वराज' में प्रस्तुत की है. ‘हिन्द स्वराज’ की रचना तो मात्र दस दिन
में हुई, परन्तु इसका गर्भकाल बहुत लंबा
लगभग बीस वर्ष का है. इसका प्रमाण यह भी
है कि इसकी अभिव्यक्ति में एक सामाजिक दायित्वबोध, प्रश्नाकुलता, वैज्ञानिकता और
भविष्यद्रष्टा होने के जितने परिपक्व अभिप्राय प्रकट होने थे, हुए, या कम से कम उनकी नींव
पड़ी. गांधी देख रहे थे कि इन दिनों मानव सभ्यता एक आंतरिक क्रूरता की दिशा में बढ़
रही है और उसकी आंतरिक कोमलता की कुर्बानी देकर तथाकथित सभ्यता का ठाठ रचा जा रहा
है. इसलिए गांधीजी ने यह बार-बार कहा कि ''मानव परिवार को आंतरिक
कोमलता का बलिदान नहीं करना चाहिए.''
अपनी सोच को अमलीजामा पहनाने के
लिए गाँधी ने कई प्रयोग भी किए. जो सोचा, उस पर अपने विचार ज़ाहिर
किए, उस मार्ग पर स्वयं पहला कदम
बढ़ाया. अपने मूल दृष्टिकोण सत्य एवं अहिंसा का पक्ष अनेक अवसरों पर स्पष्ट किया.
इस पुस्तक में भी सम्पादक राजीव रंजन गिरि ने कुछ लेख इन प्रयोगों पर भी संग्रहीत
किए है, जिनमें बिम्बित होता चलता है कि
गाँधी जिनके लिए लड रहे थे और जिनसे संघर्ष कर रहे थे, उन्हें समझाने का भरपूर प्रयास करते कि वे एक नई सभ्यता की
रचना के लिए संघर्ष कर रहे हैं. कोई उनका दुश्मन नहीं है. अपने विचार को ज़ाहिर
करने के लिए ही गांधी ने हिन्द-स्वराज रचा.
जिसमें उन्होंने हिंदुस्तान की वास्तविक दशा बताई और अपने विचार की दिशा भी
दिखाई. यह किताब गाँधी दर्शन का मौलिक-सूत्र है, जो
गाँधी की चेतना एवं चिंतन की बुनियाद भी है और बुलंदी भी. तभी तो 20 वीं सदी के प्रसिध्द लेखक मिडल्टन मेरी को कहना पड़ा- ''मुझे लगता है कि आधुनिक
ज़माने में लिखी गई पुस्तकों में 'हिन्द स्वराज' सबसे महान पुस्तक है. मैं इसे दुनिया के आध्यात्मिक
महाग्रन्थों में एक महाग्रन्थ मानता हूं.”
गाँधी आतंरिक जकडबंदियों से तो लड़
ही रहे थे, पर एक पक्ष बाह्य भी था कि भारतीय
मानस औपनिवेशिक मूल्यों को आत्मसात करता जा रहा था. इससे संघर्ष करना बेहद मुश्किल
उपक्रम था. उपनिवेशवादी मूल्य आधुनिक शिक्षा,
आधुनिकता और
इससे उत्पन्न विभिन्न विचारधारात्मक संरचनागत निर्मितियों की मार्फ़त, औपनिवेशिक हुकूमत से संघर्ष करने वाले भारतीयों की मानसिक
बुनावट में जगह बना रहे थे. इसकी शिनाख्त के बाद ही आधुनिकता की समूची संकल्पना को
गाँधी मानव-विरोधी समझकर इसके भौतिक आधार और सांस्कृतिक-आध्यात्मिक अधिरचना को
खारिज़ करते हैं.
चूँकि गाँधी भौतिक और आध्यात्मिक
क्षेत्र को एक-दुसरे से काटकर नहीं देखते. आधुनिकता की संकल्पना जिस मनुष्य का
निर्माण करती है, उसमें स्वायत्त आध्यात्म के लिए
स्थान नहीं है. गाँधी के अनुसार सम्पूर्ण मनुष्य की रचना के लिए भौतिक विकास के
साथ ही आध्यात्मिक उन्नति भी आवश्यक है. गाँधी भावी खतरों को भांप गए थे. उनके डर
आज साक्षात आँखों के आगे है. एक ओर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का हुजूम खड़ा है तो
दूसरी ओर मैक्ड़ोनाल्ड संस्कृति मुँह बाए खड़ी है. जिनकी गिरफ़्त में आज पूरा समाज
है. गाँधी भविष्यदृष्टा थे, उनके डर आज घटित हो रहे
हैं, भारतीय पूँजी का निरंतर होता दोहन
आज इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है. गाँधी ने यूँही हस्तकला-शिल्प, लघु-कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की, खादी-धारण करने की पैरवी अकारण ही नहीं की थी. वे भविष्य
में आ पड़ने वाली इन चुनौतियों को देख एवं समझ रहे थे.
गांधीजी ने सदा यह माना कि समाज
राज्य से बड़ा है और राज्य समाज की सेवा के लिए है. इसी प्रकार उन्होंने यह भी माना
कि समाज और मनुष्य की सेवा के लिए उद्योग हैं. उद्योग का विस्तार और उद्योगवाद में
बहुत बड़ा फर्क है. उद्योगवाद का अर्थ है, किसी खास तरह के
उद्योग-तंत्र को ही मानव जाति का लक्ष्य मान लेना. व्यवहार में इसका अर्थ यह होता
है कि एक खास तरह की उद्यमशीलता यानी पुरुषार्थ के पक्ष में शेष सब तरह के
पुरुषार्थों की यानी उद्यमशीलता की स्वतंत्र संभावनाओं को नष्ट कर देना और इस
प्रकार मानव समाज के स्वत्व का अपहरण कर उसे मुट्ठी भर लोगों की अधीनता में ले
आना. गांधीजी ऐसी उद्योगवादी सभ्यता को शैतानी सभ्यता और पापपूर्ण सभ्यता कहते
हैं. इसी प्रकार जो राज्य समाज की सेवा का एक माध्यम न होकर स्वयं ही लक्ष्य बन
जाए, वह राज्यवादी राज्य कहलाएगा और
उसकी रक्षा तथा विस्तार के लिए कोशिश में जुटे लोग राष्ट्रभक्त नहीं बल्कि
राज्यवादी राज्यभक्त कहलाएंगे. यह राज्यवाद भी पापपूर्ण ही है.
स्वतंत्र भारत में यूरोपीय सभ्यता
नाम की कोई सीधी चीज नहीं है. यदि स्वयं गांधीजी की बात को मानें तो सभ्यता का
अर्थ है श्रेष्ठ आचरण की शक्ति. लेकिन दूसरी ओर वे यह भी दिखाते हैं कि यूरोपीय
सभ्यता तो अधर्म और विकृति को ही बढ़ाती है. अत: स्पष्ट है कि सभ्यता का अर्थ है
आचरण की शक्ति. इसलिए स्वाधीन भारत में जो लोग आज जैसा आचरण कर रहे हैं वह समकालीन
भारतीय सभ्यता की ही शक्ति या विकृति है. यह शक्ति या विकृति यूरोप से सीखी हुई हो
सकती है, लेकिन सीखने वाले भारतीय ही हैं.
अत: उनका दोष समकालीन भारतीय सभ्यता का ही दोष है. भारत में आज भारतीय सभ्यता के
ही अच्छे और बुरे, श्रेष्ठ और निकृष्ट रूपों के बीच
टकराहट है. इसीलिए इस टकराहट को पहले से भी अधिक बौद्धिक तथा संवादपूर्ण होना
चाहिए. भारत के विभिन्न राजनैतिक दलों को आपस में उससे अधिक बातचीत करते दिखना
चाहिए जितनी कि उन दिनों भारतीय राजनैतिक दल अंग्रेजों से करते दिखते थे. सच्चाई
तो यह है कि आज के बड़े राजनैतिक दल आपसी बातचीत का केवल अवैध या छिपा हुआ रिश्ता
ही रखते हैं. गाँधी के लिखे ये लेख चरित्र की शुद्धि पर विशेष महत्व देते हैं.
सम्पादक राजीव रंजन गिरि की सदाशयता इस रूप में भी प्रकट होती है कि उन्होंने समय
की इस आवश्यकता को समझते हुए ही गाँधी के इन विषयक लेखों का चयन किया है.
जो असहमति का रास्ता चुनता है, उसके लिए स्पेस यानी जगह कम से कमतर होती चली जाती है.
राजसत्ता का दायित्व है कि वो असहमति के स्पेस को फलने-फूलने दे. गाँधी अकेले अपनी राह पर चलते जा रहे थे, वे जानते थे कि भले ही वे अकेले हों किन्तु सही राह पर है, यही रास्ता मुक्ति का एवं स्वराज का मार्ग प्रशस्त करेगा.
शायद अकेला पड़ जाना ही किसी भी गांधी की नियति है. गांधी ने नोआखली में प्रोफेसर
निर्मल कुमार बोस से यह बात कही थी कि- "मैं सफल होकर मरना चाहता हूं, विफल होकर नहीं. पर हो सकता है कि विफल ही
मरूं." असफल होना भी गांधी होने की नियति है. मगर गांधी के बिना न तो गांधी हुआ जा
सकता है न लोकतांत्रिक. इसीलिए वो असफल आदमी आज भी हमारे अंदर ज़िंदा बचा हुआ है.
यह अनायास नहीं है कि बुद्ध के बाद गाँधी को वही महत्व दिया गया.
राजीव रंजन गिरि द्वारा संपादित
इस पुस्तक के सभी लेख गाँधी की सोद्देश्यता को ही प्रकट करते हैं, गाँधी वस्तुत उस नयी सभ्यता के खिल़ाफ थे, जो आत्मवंचना पर टिकी हुई है. वे पश्चिम और विकसित के नाम
पर विश्व पर छा जाने की कामना रखने वाली उस सभ्यता और जीवन-पद्धति में बुनियादी
परिवर्तन लाना चाहते थे, जो अबाध भोग, घोर हिंसा, आतंकवाद, क्रूरता, शोषण, रंगभेद, स्वार्थपरता आदि की भावना पर आश्रित थी. तमाम सुख-सुविधाओं
की उपलब्धता के बावजूद आज मनुष्य अपने को जितना असहाय पाता है, उतना शायद ही उसने कभी अनुभव किया हो. गाँधी इससे बेखबर
नहीं थे. इस दृष्टि से गाँधी के ये लेख आज के अंधकारमय समय में एक नई रोशनी देने
का कार्य करते हैं.
पुस्तक- पुरुषार्थ, त्याग और स्वराज
लेखक- मो. क. गाँधी
सम्पादक- राजीव रंजन गिरि
प्रकाशन- गाँधी स्मृति
एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली
मूल्य- 50 रूपए
अनुपमा शर्मा
anupamasharma89@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-08-2017) को गये भगवान छुट्टी पर, कहाँ घंटा बजाते हो; चर्चामंच 2685 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
AAJ HAR DESH KO EK EK GANDHI KI ZAROORAT HE
जवाब देंहटाएंme yeh nhi kehta ki Gandhi ki sari bate sahi he lekin inhe read jarur kiya jana chahiye
जवाब देंहटाएंइस लेख में गांधीवाद को जीवन पद्धति के रूप में दिखाया गया है इसके साथ उधोग का विस्तार और उधोगवाद में अंतर ,सभ्यता का अर्थ और राजनीतिक दल की सच्चाई को भी सामने लाया गया है , जो बहुत अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंगाँधी को समझने और उनको जानने के लिए सिर्फ उनको पढ़ना या उन पर चर्चा ही काफी नही हैं उनको सही अर्थ मे समझने के लिए उनके कहे बातो पर चलना ज़रूरी हैंऔर उनको अपने जीवन मे अपनाने की ज़रूरत हैं।गाँधी सिर्फ पुस्तक मे लिखे विचार नहीँ है वो एक मार्ग हैं और उस मार्ग पर चल कर ही हम गाँधी को जान सकते हैं ।
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