नन्द चतुर्वेदी के अंतिम कविता संग्रह–
‘आशा बलवती है राजन्’ पर हिमांशु पंड्या की यह समीक्षा मन से लिखी गयी है, एक तरह से यह कवि से संवाद है.
कवि के अनेक व्यक्तिगत प्रसंग इसे और भी विश्वसनीय बनाते हैं.
इस तरह के संवाद जहाँ कविता को खोलते हैं
वहीँ कविता और कवि के प्रति रूचि भी पैदा करते हैं.
हिमांशु वर्तमान से आँख मिलाते
हुए इन कविताओं को परखते हैं.
क्या
इस चिठ्ठी पर आपका नाम है ?
हिमांशु
पंड्या
यह नन्द बाबू के अंतिम संग्रह की
कवितायेँ हैं जो उनकी मृत्यूपरांत आया, हालांकि
इसकी पांडुलिपि उन्होंने ही तैयार की थी.
इस संग्रह की कई कवितायेँ उनके मुंह से
सुनी हुई हैं. इस संग्रह की कवितायेँ लिखे जाने का अंतिम
दशक ही मेरी उनकी ढेरों मुलाकातों का दशक था.
मैं 99 से इस शहर में रहने लगा और 2000 से गृहस्थी बसाई. 2012 में उदयपुर छोड़ दिया. उसके
कोई दो बरस बाद एक दिन उनकी मृत्यु की खबर मिली. इसे
आप विडम्बना ही कहेंगे कि समय और भूगोल की दूरी के कारण ही मुझे यह खबर विश्वसनीय
लगी. लगा कि हाँ, उनकी
उम्र हो ही गयी थी, वरना वहां रहते कभी ये ख्याल नहीं आया
कि एक दिन वे नहीं रहेंगे.
सिर्फ़ समय और भूगोल की दूरी ने इस खबर
को विश्वसनीय बनाया कि नन्द बाबू नहीं रहे. वहां
तो बस वे थे. उन ढेरों घनी दुपहरियों में जो वैसे तो
आग बरसाती थीं लेकिन अहिंसापुरी के उस शांत पसरे माहौल में एक आश्वस्तकारी
उपस्थिति के रूप में वे हमेशा मौजूद थे.
(दो)
अंत तक लड़ना पड़ता है अपनी निराशाओं से
अंत तक शत्रु अपराजित नज़र आते हैं
मदोन्मत्त एक एक सीधी प्रभुता की चढ़ते
बहुत सी हीन लड़ाइयों में दिन बीत जाते
हैं
फिर जब हिसाब मिलाते हैं
पछतावा होता है
इस संग्रह की कविताओं में गहरा निराशा
बोध है. संग्रह की शीर्षक कविता भी स्वयं कवि
के शब्दों में, "महाभारत के एक जटिल मूल्य क्षरण के
प्रसंग की दुखान्तिका से गुजरती है जैसे. सब कुछ अँधेरे में लिपट गया हो जैसे !" लेकिन कवि यह मानने को तैयार नहीं है. वह
अगले ही क्षण लिखता है, "किन्तु एक प्रबल मानवीय विश्वास चमकता
है 'आशा बलवती है राजन' में." कठोर सच यह है कि इस कविता में मूल्य
क्षरण का पाताल ही है, कहीं कोई आशा की किरण भी नहीं है. जिस
समाज में सत्य का पाठ पढने वाले हमेशा 'अनादर
के ढलानों' पर खड़े हों, वहां
एक सत्यवादी के मुख से 'हतो नरो' ऊर्ज्वसित स्वर में और 'कुंजरो वा' कांपते त्रस्त स्वर में ही निकलता है
और फिर तो आधे अधूरे युधिष्ठिर को हिमशिखरों में गलने ही जाना होता है, कृष्ण
को व्याध के बाण से मारा ही जाना होता है.
कविता की अंतिम पंक्तियाँ कुछ यों हैं :
सत्य अब वस्तुओं, विज्ञापनों
के
बाज़ार में बिकता है
आत्मा की जल वाली नदी
दुर्दिनों की रेत में विलुप्त हो गयी
है
आशा बलवती है राजन !
पाठ के विधान में अंतिम पंक्ति आशा का
सन्देश नहीं, व्यंग्य का खड़ग ही लगती है. एकबारगी
यह मान लें कि नन्द बाबू ने यह पंक्ति इस कविता विशेष के लिए नहीं बल्कि समूचे
संग्रह के लिए लिखी तब भी संग्रह के मूल स्वर के साथ संगति बैठाना मुश्किल है. फिर
ऐसा क्यों लिखा उन्होंने ? या ज्यादा सरल सवाल - यही
शीर्षक क्यों ?
(तीन)
बात जब पक्षधरता की हो तब कवि अभिधा को
ही चुनता है, उदाहरण हैं आज़ादी से जुडी ये तीन
कवितायेँ. 'आज़ादी की आधी सदी' में वे सीधे सीधे अपने समय के
स्वाधीनता के सवालों को उठाते हैं जो जाहिर है, सामाजिक
समानता के सवाल हैं. स्वतन्त्र भारत में प्रत्येक नागरिक को
मूलभूत सुविधाएं मिलना किसी की कृपा नहीं वरन उसका अधिकार है. और
यह कोई बड़ी आकांक्षा नहीं, एक आम आदमी का मेनिफेस्टो है. कवि
लिखता है कि गेंहू,चावल,शक्कर
या लज्जा ढकने के वस्त्र की 'कृपा' रेखांकित
कर उसे कृतज्ञ न बनाया जाए, बस.
दंगे में न मरूं
मरूं तो शिनाख्त न किया जाऊं
हिन्दू या मुसलमान
कौन सा हिन्दू, मुसलमान
कौनसा ?
हमारे दौर में युवा आकांक्षा के सबसे
बड़े प्रतीक ने भी यही कहा था, "एक आदमी की कीमत उसकी फौरी पहचान और
करीबी संभावना तक सीमित कर दी गई है. एक वोट तक. एक नंबर तक. एक वस्तु तक.
कभी भी एक इंसान को उसके दिमाग से नहीं आंका जाता."
दूसरी कविता 'गणतंत्र' में वे
प्रार्थना शैली में अपनी आकांक्षाएं गिनाते हैं. वे इस गणतंत्र के महत्त्व को
जानते हैं जो हज़ारों वर्षों पुराना भी है और 'कल की आकांक्षा' जितना नया
भी.
वे सब हमारी प्रार्थनाएं हों
द्वेष रहित गणतंत्र के लिए
वे सब जो व्यर्थ मान ली गयी हैं
विलासिता के द्वार पर हास्यास्पद.
(तीसरी कविता का ज़िक्र मैं लेख के आखिर
में करूंगा.)
नन्द बाबू का सपना समता और समाजवाद का
सपना था. इस सपने वाले भारत के लिए वे आजीवन प्रयासरत रहे. वे लोहिया के पथ के
अनुयायी थे. हालांकि आश्चर्यजनक यह है इस किताब की भूमिका में उन्होंने अपने
प्रेरणास्पद विचारकों में सबसे प्रमुखता से मार्क्स को उद्धृत किया है. एक अनुमान
लगाया जा सकता है कि समाजवादियों की वर्तमान खेप के पतन ने यह दिशा बदली हो. पर
फिर, मार्क्सवाद के झंडाबरदारों ने ही कौन सा अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है हालिया
दशकों में ? मेरे विचार से, इसका कारण यह है कि वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था में
समाजवादी आकांक्षाएं जिस तरह से अप्रासंगिक होती चली गयीं, पूंजी का अबाध भयावह
केन्द्रीयकरण जिस तरह होता चला गया, उसने कवि को वंचितों की एकजूटता के वैश्विक दर्शन
की ओर मोड़ा. ठीक उस समय, जब मार्क्सवादी राजनीति इस मुल्क में अपने हिमांक पर थी,
पूँजी के वैश्विक दैत्य के सामने इस दर्शन की प्रासंगिकता सर्वाधिक मौजूं थी.
यानी - जिस समय आपको अपना लिखा व्यर्थ
लगने लगता है, ठीक उसी समय आपको लिखने की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है.
यह नितान्त अकाव्यात्मक वाक्य है लेकिन
वास्तविकता यही है कि नन्द बाबू को अपनी मृत्यु की आहट सुनाई देने लग गयी थी. अपनी
देह के क्षरण को उनसे अधिक कौन समझ पाता होगा ? उनकी कविता 'सुगंध वृक्ष'
में बचपन की स्मृतियों से वृक्ष और बहन चले आते हैं, जैसे लहना सिंह को अंतिम समय
में भाई कीरतसिंह और आम का पेड़ याद आ गए थे. लेकिन जीवन से उनकी रागात्मकता हम
सबसे ज्यादा थी. भरी दुपहरियों में, चाहे हम धृष्टतापूर्वक बिना पूर्वसूचना के ही
पहुंचे हों, वे हमेशा अपने स्वच्छ सूती रंगीन कुर्तों में सचेत बैठे मिलते.
कुर्ता बिना सिलवट का होता, उस पर
प्रेस वाली लाइनिंग नहीं नज़र आती. ऐसा लगता था जैसे उसे करीने से सुखाया गया है और
फिर तार से उतार कर पहन लिया गया है. सिर्फ एक बार, जब वे बीमार थे, तब मैंने
उन्हें अस्त-व्यस्त देखा था. बिना शेव किये हुए उनके चेहरे के सफ़ेद खूंटे और
झुर्रियां, उस यथार्थ की बयानी कर रहे थे जो उनकी देह का हिस्सा था पर उनकी आत्मा
का नहीं. मुझे लगता है कि उनकी उस दिन की अन्यमनस्कता का कारण बीमारी नहीं थी.
वे चाहते थे कि हम काल के वशीभूत
जर्जरित काया से न मिलें, इस काया के भीतर जीवन की ऊर्जा से सराबोर उनके स्व से
मिलें. जब बहसों के दौरान मैं थोड़ी और प्रज्ञा थोड़ी ज्यादा उत्तेजना में आते तो वे
मंद मंद मुस्काते, "देखा बच्चू ! उम्र की रेखा को लांघकर मैं तुम तक आ ही
पहुंचा न !"
यह पूरा संग्रह अपनी वय की पहचान के
साथ पीछे के जीवन की ओर दृष्टिपात का उदाहरण है. (मैं सिंहावलोकन शब्द से बच रहा
हूँ क्योंकि वह नन्द बाबू की जीवन दृष्टि से मेल नहीं खाता.) थोड़े दिनों पहले आये
उनके एक संस्मरण संग्रह का तो नाम ही था 'अतीत राग'. लेकिन 'वय की
पहचान' मैंने इसलिए कहा है कि यह संग्रह अतीत राग है, वीत राग बिलकुल नहीं है.
अपनी प्रसिद्द कविता 'महाराज' में वे इस चालाकी का ज़िक्र करते हैं कि वैराग्य, त्याग
जैसे झुनझुने अभावों को लुभावना आवरण देकर ढकने के लिए ही गढ़े गए हैं.
धर्म ग्रंथों में बहुत सी ऊलजलूल बातें
जैसे त्याग, जैसे विरक्ति
जैसे वैराग्य, करुणा जैसे दान लिखी हैं
वह सब समर विजेताओं के लिए नहीं
दास लोगों के लिए हैं
'शरीर' उनकी एक अप्रतिम कविता है. उम्र
के नवें दशक में वे ही इतने अकुंठ भाव से देह की आकांक्षा और गरिमा को रेखांकित
करती कविता लिख सकते थे. इस कविता में वे हमारी घर नामक संरचना, उसमें निर्मित
शरीर की अपवित्रता, उससे उपजे डर के दर्शन और तृष्णाओं की अग्नि का ज़िक्र करते
हैं, इस पवित्रता दर्शन के पीछे ब्राह्मणत्व के होने को चिह्नित करते हैं. और फिर
पौराणिक कथाओं से उठते हाहाकार को दर्ज करते हैं.
बहुत सी घटनाएं थीं
स्त्रियाँ यम के पास जाती थीं हठीली,
अडिग
मृत्यु से उठा लिए गए अपने पतियों के
शरीर माँगने
देहातीत प्रेम का एक बार फिर देहानंद
लेने के लिए
द्रौपदी पाँच-पाँच पतियों को बाँधे रही
शरीर से
अनुद्विग्न, प्रसन्न
राम कौन सी सीता के लिए विकल थे
'मृगनयनी' कहते
अघोरी शिव भुवन भर में दौड़ते रहे
पार्वती के ठन्डे, गलते अकिंचन शरीर को
शरीर पर लिए शरीर के लिए
तथागत ने शरीर के लिए ही तो पूछा था
तुम भी एक दिन ऐसी ही हो जाओगी, यशोधरा
!
पृथ्वी पर गिरी अचानक, रंगहीन पांखुरी
की तरह
और इसके बाद वे कविता में उन नायकों को
कठघरे में खड़ा कर देते हैं जो अपनी प्रिया की पुकार को ठुकराकर महान बने. यों ये
काम बरसों पहले मैथिलीशरण गुप्त ने भी किया था मगर वहां यशोधरा के प्रति बुद्ध के
कर्तव्य का ही हवाला था. वह राष्ट्र निर्माण की कविता थी, यह व्यक्ति की
आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति की कविता है.
वासवदत्ता के कामातुर कांपते शरीर से
तुमने कहा था 'तब आऊँगा जब द्वार बंद
होंगे'
तथागत ! वासवदत्ता आत्मा नहीं शरीर थी
तुम्हें उसी क्षण, सारे लोक के सामने
अपनी युवा कामना के लिए बुलातीं
किसने गिने कितने कल्प कल्पान्तारों तक
तुम्हें देखने के लिए प्रतीक्षा विह्वल
रही
वृषभानुकुमारी, कृष्ण !
ऐसा इसलिए ही हो पाया क्योंकि नन्द
बाबू ने भोग और त्याग के दो छोरों के बीच सादगी का वरण किया था. वैश्वीकरण की
गलाकाट दौड़ में खाया अघाया या हांफता मध्यवर्ग जिन दो छोरों के बीच पेंडुलम सा
झूलता है, उसे ये कवितायेँ सम्यक मार्ग की ओर जाने का रास्ता सुझाती हैं. एक ऐसा
रास्ता जिसमें खुशियाँ बाज़ार की मोहताज नहीं होंगीं.
प्रकट तो होना ही है
जो तुमने खरीदा एक भय ही था
केवल दीनता.
काम की चीज़ें कुछ दूसरी थीं
जिन्हें खरीदना तुम भूल ही गए थे !
अब मुझे कहने की इजाजत दीजिये, जो
व्यर्थताबोध नन्द बाबू की कविताओं में आया है - वह उनका वैयक्तिक बोध नहीं है. वह
आधी सदी बीतने के बाद उन कसौटियों की परख है जो इस आज़ाद मुल्क के नागरिकों के लिए
वांछित थीं. वह इस गणतंत्र का लेखा जोखा है. जब वे 'अकाल मेघ' में कहते हैं कि
'सारे ताल, कुएं सूख गए हैं' तब वे प्रकृति की नहीं इस देश की बात कर रहे हैं,
दीन-हीन-वंचित को संसाधनों से महरूम किये जाने के षड्यंत्र का रूपक खींच रहे हैं.
और फिर वे बेदखल हुए लोगों की तरफ से आरोप पत्र दाखिल करते हुए विकास के इस मॉडल
को खारिज करते हैं.
हमारा गाँव, भूखंड हमारे मन में रहेगा
काकी और हम सब सड़क पर
एक व्यवस्थित, चालाक अकाल
पीठ पर बाँधे रहेंगे, अपनी भूमि से
बेदखल हुए.
इक्कीसवीं शताब्दी में आकर सबसे बड़ी
विडम्बना जिससे कवि साक्षात्कार कराता है वह यह नहीं है कि परिस्थितियाँ विकट हैं.
वे तो कब नहीं थीं. शायद आज़ादी के फ़ौरन बाद ज्यादा रही होंगी. 'क्या होता है
भयावह' कविता में वे लिखते हैं
लोग कहते हैं विस्तार से मत कहो
सारांश बता दो
अब विस्तार से क्लेशों का वर्णन सुनते
किसी को क्रोध न आये
लेखक को लगने लगे अविश्वसनीय घटना है
अब जब दो दशक पहले शुरू हुए उदारीकरण
के चक्र ने नोटबंदी के साथ एक वृत्त पूरा कर लिया है और हमारी चुनी हुई सरकारें
बाज़ार की बड़ी ताकतों के सामने नतमस्तक हो गयी हैं तब समता का सपना इसलिए
अस्वीकार्य हो गया है क्योंकि बाज़ार ने वंचना को षड्यंत्र नहीं बल्कि प्रतियोगिता
में असफलता साबित कर दिया है. जहाँ सबके लिए मूलभूत संसाधनों की नैसर्गिक बात भी
'विलासिता के द्वार पर हास्यास्पद' ('गणतंत्र', 30) मान ली गयी है. बाज़ार की क्रूर
सच्चाई यही है.
इस सपने को रखने के लिए
फिलहाल हमारे पास जगह नहीं है
प्रेम और सौन्दर्य की
माँग गिर गयी है इन दिनों बाज़ार में
पुराने मालगोदामों में पड़ी सड़ रही हैं
बुद्ध को समर्पित 'थेरी गाथाएं'
और इस तरह एक समूची यात्रा के बाद कुल
जमा हासिल निल बटे सन्नाटा ही दिखता है. इस यात्रा में कितने ही लोगों ने साथ साथ
चलकर एक दूसरे का साथ दिया. क्या यह एक सामूहिक निराशा बोध नहीं है ?
दुनिया बदलने की कोशिश कितनी बार करते
हैं
लेकिन पता नहीं कैसे उसी पुरानी गली
उसी उदास मोड़ पर आ जाते हैं
वही जिद्दी कुत्ते, पुरानी चितकबरी
गुर्राती बिल्लियाँ
जाहिर है, एक रचनाकार के लिए संकट
दोहरा होगा. उसकी ईमानदारी उसे अपने से सवाल करने पर मजबूर करेगी कि क्या वह अपनी कहन
ठीक से संप्रेषित नहीं कर पाया ?
लिखने के बाद लिखने का पुण्य निष्फल हो
जाता है
जो लिखना चाह था वह भटकता ही रहा
अंतर्लोक में
जो लिखा वह लिखना ही नहीं था
जहाँ का तहां ही होता है लेखक
उस बवंडर के गुजरने के बाद
अपने लिखे के लिए इतना अनाश्वस्त
एक दावानल के बीच
जो कुछ लिखा उस सत्य में झुलसते
यह सारी पंक्तियाँ मैंने एक शब्द पर
ध्यान दिलाने के लिए लिखी हैं - 'अनाश्वस्त'. इतनी आश्वस्ति के साथ अपनी अनाश्वस्ति
का स्वीकार वही लेखक कर सकता है जो अपने पाठकों को कविता नामक उत्पाद का
ग्रहणकर्ता नहीं बल्कि समानधर्मा मानता है. वे
भूमिका में लिखते हैं, "मैं अस्थिर, अधीर समय का कवि हूँ, अपने निर्मित सपनों पर संशय करता इसलिए मैं 'कालजयी' कवितायेँ लिखने के दंभ से मुक्त हूँ." मुझे लगता है कि ईमानदारी यह होगी कि मैं इस बात को रेखांकित करूं कि
वे सूरते हाल को एकदम हाल हाल में बिगड़ गया नहीं बता रहे हैं और न किसी विशेष
खलनायक को चिह्नित कर उस पर सारा दोष मढ़ रहे हैं. इसी
बिंदु पर आकर लगता है कि उनका स्व विस्तार पा गया है.
आजादी को हम सब मरने देते हैं पहले
बाद में उसका महत्त्व बताने के लिए
कुछ इस तरह बताने के लिए
जो हम नहीं हुए, जो
हमने नहीं चाहा होना
बताते हैं क्या क्या नहीं हुआ
कारण और विकल्प, आत्मीयता
और उत्तेजना
नहीं होने दिया उन्होंने जो हमारे पक्ष
में नहीं थे
हमने क्या किया यह नहीं बताते
अपनी दलाली, कमीशन, चोरी
फिर सवाल यह स्वाभाविक ही उठता है कि
परिदृश्य इतना निराशाजनक है तो आशा बलवती कैसे है ? क्योंकि
स्वाधीनता की आधी सदी बाद, स्वाधीनता के अनेक आयामों पर विचार
करने के बाद लेखक के सामने यह स्पष्ट है कि स्वाधीनता भाव है और विकट से विकट
परिस्थितियाँ भीतर के भाव को तिरोहित नहीं कर सकतीं. और
हाँ, समानधर्मा को सपने का हस्तांतरण संभव
है. यहाँ मैं स्वाधीनता पर उस तीसरी कविता
का अंतिम अंश उद्धृत करता हूँ जो मुझे इस संग्रह में सर्वाधिक प्रिय है.
स्वाधीनता कहती है
मुझे परिभाषित करो
यदि मैं तुम्हारा सपना हूँ तो मैं तुम्हारा
यथार्थ भी हूँ
तुम्हारा रोज खटखटाती हूँ दरवाजा
तुम्हारा घर आँगन मेरी संसद है
यहीं भटकती रहती हूँ तुम्हारी यातनाएं
लेकर
मैं तुम्हारी इच्छा शक्ति हूँ
तुम्हारी विजय की अकुंठित कामना
यदि विकट परिस्थितियाँ सच हैं तो उनसे
लड़ने की संकल्प शक्ति भी उतना ही बड़ा सच है. हर
पीढी अपने स्वाधीनता के सवालों और परिभाषाओं को खुद गढ़ती है. यह
एक अनवरत प्रक्रिया है. पूर्व प्रदत्त सत्य आदेश हो सकता है, परंपरा
हो सकती है, स्वाधीनता नहीं हो सकती.
जहाँ और जिस भी कविता में नन्द बाबू ने युवा/किशोर
पीढी को संबोधित किया है, वहां न अपरिचय/अविश्वास
का आरोपी भाव है, न समझाने वाला बड़प्पन का. वे
सिर्फ अपना अनुभव बांटना चाहते हैं, अपनी
चढ़ाई चढ़ने के लिए उन्हें खुला छोड़कर.
ये दिन मैंने तुम्हारे लिए रखे हैं
मूसलाधार वर्षा और उन्मत्त आँधियों के
लगातार भागने के, दो
दो सीढियां उचक-उचककर चढ़ने के
मुझे जहाँ से चढ़ाई शुरू होती है वहीं
छोड़ देने के
(चार)
मैंने शुरू में लिखा था कि जगह और समय
की दूरी के कारण ही मैं उनके जाने की खबर पर विश्वास कर पाया. अब
इस संग्रह को पढने के बाद मैं कह सकता हूँ कि यदि मैं अंतिम दो सालों भी उदयपुर
में रह रहा होता और उनके जाने के तीन दिन पहले भी उनसे मिला होता तो उनके पास ढेर
सी योजनाएं, ढेर से प्रस्ताव और ढेर से नक़्शे होते. अब
मुझे यह भी पता है कि एक सार्थक जीवन संतुष्ट कभी नहीं हो सकता.
कुछ काम और करने हैं अभी
मसलन उस पुराने कोट का अस्तर
जो नीचे है उसे ऊपर कराना और
ऊपर वाले को नीचे
गले में कुछ अटकता सा है. मैं
उठकर पानी पीता हूँ. रात के साढ़े तीन बजे हैं. क्या
बगल के कमरे में सो रही प्रज्ञा को जगा लूं ? ऐसा
नहीं करता हूँ. पूरी कविता दो तीन बार पढता हूँ. वैयक्तिक
क्षति का अहसास गहराता जाता है. शायद
विरेचन के लिए यह जरूरी ही था.
अंत में,
इसी कविता से,
उस चिठ्ठी पर मैंने पता नहीं लिखा है
तब भी मुझे जल्दी है
मैं उसे चिंता करने वाले लोगों तक
पहुंचा दूं
समय से पहले
नन्द बाबू चाहे चले गए हों पर इस
चिठ्ठी के पहुँचने का समय अभी निकला नहीं है. बिना
पते की यह चिठ्ठी पानेवाले की प्रतीक्षा कर रही है. क्या
इस चिठ्ठी पर आपका नाम लिखा है ? अगर
हाँ तो फ़ौरन दावा कीजिये.
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हिमांशु
पंड्या
साहित्य
के गम्भीर अध्येता
तमाम
पत्र-पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेख प्रकाशित
जसम
के सदस्य
himanshuko@gmail.com
बढ़़िया लिखा है हिमांशु। एक निजता लिए लेकिन उसके बावजूद टतस्थ होकर आकलन करता लेख।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा
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