भाषा के रूप में हिंदी सबल है, उसका साहित्य समृद्ध है,
उसमें आलोचनात्मक विवेक का लगातार प्रसार हो रहा है. एशिया में कमोबेश अब वह एक सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित हो रही है.
हिन्दी-दिवस (१४ सितंबर, २०१६) पर राहुल राजेश का विशेष आलेख आपके लिए.
रोमन लिपि में हिन्दी का कुतर्क
राहुल राजेश
अब
तक तो अंग्रेजी भाषा
के अंग्रेजीदां पैरोकार
हिंदी भाषा पर ही
हावी होने के उपक्रम
करते रहे थे. लेकिन
इधर हाल के वर्षों
में अंग्रेजी भाषा
के इन अंग्रेजीदां पैरोकारों
ने हिंदी पर हावी
होने का एक और उपक्रम
शुरू कर दिया है.
वह है- हिंदी में
देवनागरी लिपि की जगह
अंग्रेजी की रोमन लिपि
के इस्तेमाल की
वकालत करना! और उनकी
इस मुहिम को न
सिर्फ अंग्रेजी मीडिया
और चेतन भगत जैसे दुटकिया अंग्रेजी लेखक हवा दे
रहे हैं बल्कि फेसबुक,
ट्वीटर, व्हाट्सएप्प आदि
जैसे सोशल मीडिया पर
सक्रिय तमाम अंग्रेजीदां लोग
भी पूरे ज़ोर-शोर से दे रहे हैं.
दुर्भाग्य यह कि इस
झाँसे में कई हिंदी
वाले लोग भी आ
जा रहे हैं जो
यह कह रहे हैं
कि भाई, मानो या न
मानो लेकिन फेसबुक, ट्वीटर,
व्हाट्सएप्प आदि जैसे सोशल
मीडिया प्लैटफ़ार्मों पर देवनागरी
लिपि की जगह रोमन
लिपि में लिखना कहीं
ज्यादा आसान और सुविधाजनक
है!
हिंदी
में देवनागरी लिपि
की जगह रोमन लिपि
की वकालत को हवा
देने का एक और
हास्यास्पद प्रयास तब किया
गया जब संसद में
राहुल गाँधी के हाथ
में रोमन लिपि में
लिखी हिंदी की पर्ची
वाली तसवीर तमाम सोशल
साइटों और मीडिया में
तैरने लगी! लेकिन
ऐसे लोगों को यह बात क्यों समझ में नहीं आ रही कि रोमन में लिखना और रोमन लिपि की थोथी
वकालत करना दोनों अलग-अलग बातें हैं! और
उन्हें इस फर्क को समझने की सख्त जरूरत है. बात-बात में अँग्रेजी बघारने का मतलब बात-बात
में हिन्दी को गरियाना तो नहीं होता न!
मुझे यह बात हरगिज समझ में नहीं आती कि सरलता, सहजता और सहूलियत की मांग और अपेक्षा सिर्फ और सिर्फ हिन्दी से ही क्यों की
जाती है? जो लोग हिन्दी को रोमन में
लिखने की मुंहजोर वकालत करते नहीं थक रहे, वे यही मांग तेलगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम, बंगला, उड़िया आदि अन्य भारतीय भाषाओं से क्यों नहीं कर रहे? क्या इन भाषाओं की लिपियाँ बहुत सरल-सीधी
हैं? और
इनको लिखने में लोगों को कोई दिक्कत नहीं होती? क्या वे लोग फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सएप्प आदि जैसे सोशल मीडिया प्लैटफ़ार्मों पर इन लिपियों में बड़ी आसानी से और धड़ल्ले से लिख रहे हैं और
उनकी उँगलियाँ नहीं टूट रहीं? या फिर यह सीधे-सीधे मान लिया जाए कि लोगों को सारी
तकलीफ, सारे गिले-शिकवे, सारी दिक्कत सिर्फ और सिर्फ हिन्दी से ही है? और ऐसा वे इसलिए किए जा रहे हैं कि हमारी सर्वसमावेशी हिन्दी इनकी हर
जायज-नाजायज मांग को पूरा करने की कोशिश में इनको पलटकर लताड़ नहीं रही....
ऐसे लोगों को हिन्दी बोलने-लिखने-समझने में भी बेशुमार दिक्कतें आ रही हैं और
ये हर मौके पर हिन्दी पर यह निराधार आक्षेप और आरोप लगाते नहीं थकते कि हिन्दी तो
बड़ी संस्कृतनिष्ठ है! ऐसे
तंगनज़र लोगों को अब कौन समझाए कि आज की खड़ी बोली हिन्दी या फिर राजभाषा हिन्दी में
अरबी,
फारसी,
उर्दू से आए हजारों शब्द धड़ल्ले से बोले-लिखे, पढ़े-समझे जा रहे हैं! क्या इन लोगों को
तेलगु,
तमिल,
कन्नड़,
मलयालम,
बंगला,
उड़िया आदि या फिर मराठी-गुजराती जैसी अन्य भारतीय भाषाएँ संस्कृतनिष्ठ नहीं लगती? क्या ये भाषाएँ संस्कृत के पेट से नहीं जन्मी
हैं? तेलगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम, बंगला, उड़िया आदि की बात तो छोड़िए,
मराठी-गुजराती जैसी हिन्दी की अत्यंत निकटवर्ती भाषाओं में भी संस्कृत शब्दों की
बेशुमार भरमार है और लोग इन संस्कृत शब्दों को धड़ल्ले से लिख-बोल और पढ़-समझ रहे
हैं!
महज चंद उदाहरण ही काफी होंगे इस बात को समझने के लिए. मराठी में ‘स्टेशन’ को ‘स्थानक’ कहा जाता है और महाराष्ट्र में आपको हर जगह ‘स्टेशन’ के लिए ‘स्थानक’ ही लिखा मिलेगा. लेकिन यही शब्द अगर हिन्दी में ‘स्टेशन’ के लिए अपना लिया जाए और प्रयोग किया जाने लगे तो लोग तुरंत
हाहाकार मचा देंगे! हिन्दी के ‘शायद’ के लिए गुजराती में ‘कदाच (कदाचित)’ शब्द है! हिन्दी के ‘पूछताछ’ के लिए बंगला में ‘अनुसंधान’ शब्द है; हिन्दी के ‘निकास’ के लिए बंगला में ‘बहिर्गमन’ शब्द है; हिन्दी के ‘साफ-साफ/स्पष्ट/साफ-सुथरा’ के लिए बंगला में ‘परिष्कार’ शब्द है; हिन्दी के ‘चर्चा’ शब्द के लिए बंगला
में ‘आलोचना’ शब्द है! क्या
ये शब्द संस्कृतनिष्ठ नहीं हैं? फिर
लोग कैसे इन जैसे हजारों संस्कृतनिष्ठ शब्दों को दिन-रात बिना किसी हिचक और तकलीफ
के धड़ल्ले से बोल रहे हैं? और
तो और, संबंधित राज्य सरकारें भी
अपने सरकारी कामकाज में इनका भरपूर प्रयोग कर रही हैं!
तो क्या यह फिर सीधे-सीधे मान लिया जाए कि लोग सिर्फ और सिर्फ हिन्दी के प्रति
ही दुराग्रही हैं और जानबूझकर दुराग्रही हैं? और ये सारे दुराग्रह, ये
सारी ज़ोर-जबरदस्ती सिर्फ और सिर्फ हिन्दी पर ही जानबूझकर आजमाई जा रही है? क्या हिन्दी का बस यही दोष है कि भारत के संविधान ने उसे
संघ की राजभाषा का दर्जा दे दिया?
लेकिन क्या हिन्दी को छोड़कर, जिन
राज्यों में तेलगु, तमिल, कन्नड,
मलयालम, बंगला, उड़िया आदि या फिर मराठी-गुजराती जैसी अन्य भारतीय भाषाएँ राज्य के सरकारी
कामकाज के लिए विधिवत अपनाई गई हैं और सरकारी कामकाज में इनको ही लिखा-बोला, पढ़ा-समझा जा रहा है, वहाँ इन भाषाओं में इस्तेमाल हो रहे हजारों संस्कृतनिष्ट शब्दों को
आग्रहपूर्वक और सख्ती से छाँटकर बाहर फेंक दिया जा रहा है? क्या वहाँ के लोग इन संस्कृतनिष्ट शब्दों से बहुत बिदक रहे हैं?
तो फिर हर बार हिन्दी पर ही हमला क्यों किया जाता है? क्या यह बार-बार बताने की जरूरत है कि भाषा, व्याकरण और लिपि के लिहाज से हिन्दी सबसे वैज्ञानिक भाषा है? बाकी भाषाओं की तुलना में हिन्दी को बोलना, समझना,
पढ़ना और लिखना भी सबसे आसान है. हिन्दी की देवनागरी लिपि तो अपने आकार-प्रकार और
बनावट में तमाम अन्य लिपियों की तुलना में सबसे ज्यादा वैज्ञानिक, सरल, सहज, सुंदर और ‘टेक्नोलोजी-फ्रेंडली’ है. फिर हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने की मूर्खतापूर्ण
वकालत क्यों की जा रही है? अपनी लिपि की जो कुर्बानी हिन्दी से मांगी जा रही है, क्या वही कुर्बानी तेलगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम, बंगला, उड़िया आदि अन्य भारतीय भाषाओं से मांगने
की हिम्मत है किसी माई के लाल में? है चेतन भगत में इतनी कूब्बत कि वह हिन्दी को छोड़कर, इनमें से किसी एक भी भाषा से उसकी लिपि की
कुर्बानी मांग सके? फिर सरलता-सहजता और सहूलियत के नाम पर सारी ज़ोर-आजमाइश हिन्दी पर ही क्यों
जनाब?
सरलता, सहजता और सहूलियत यानी
टंकण-मुद्रण की आसानी और सुविधा के नाम पर हिन्दी से पहले ही उसका पूर्णविराम, चन्द्रबिन्दु, अर्धचंद्रबिन्दु, संयुक्ताक्षर, पंचमाक्षर आदि लगभग छीना जा चुका है! अब उससे उसकी पूरी की
पूरी लिपि छीनने की साजिश की जा रही है! जो लोग फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सएप्प आदि जैसे सोशल मीडिया प्लैटफ़ार्मों पर देवनागरी लिपि में लिखने में दिक्कत महसूस करते हैं तो यह
उनकी कमी है. उनके डिवाइस की कमी है. अभ्यास और अपनापे की कमी है. पर यह देवनागरी
लिपि की कमी हरगिज नहीं. यह व्यक्ति की कमी अवश्य हो
सकती है. लेकिन यह देवनागरी लिपि की कमी कैसे हो सकती है? सूचना प्रौद्योगिकी भी इस लिपि को नाकाबिल नहीं मानती. इसलिए
किसी व्यक्ति की कमी को किसी लिपि या फिर भाषा की कमी और नाकाबिलियत मत बताइये!
यह सोलह आने साफ है कि रोमन लिपि की वकालत करते हुए देवनागरी लिपि की जो
समस्या बताई जा रही है, वह
दरअसल देवनागरी लिपि की समस्या नहीं है. न ही किसी अन्य भाषा
की लिपि की.
चाहे वह बांग्ला, तमिल, तेलगु, उर्दू या
चीनी,
कोरियाई या अन्य कोई भाषा ही क्यों न हो! वरना इन सारी
भाषाओं की गैर-रोमन लिपि में इतने अखबार, ब्लॉग, चैनल नहीं चलते! ये सब के सब आईटी पर ही आधारित हैं. चूंकि आईटी पहले-पहल रोमन लिपि वाले देशों में विकसित हुई, इसलिए
वहां रोमन का प्रयोग रूढ़ हो गया, वरना
विशेषज्ञ तो संस्कृत को कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त मानते हैं! क्या यह भी बताने
की जरूरत है कि चीन, जापान, कोरिया आदि जैसे अनेक देश रोमन के बिना ही साइंस, टेक्नोलॉजी, आईटी आदि
में इतनी उन्नति कर चुके हैं और उन्हें आसानी और सहूलियत के
नाम पर अपनी क्लिष्ट लिपियों की जगह रोमन लिपि अपनाने का कभी ख्याल तक नहीं
आया!
दरअसल,
यह नीयत, नीति, रीति, मनोवृत्ति और मानसिकता की समस्या है! अधिकतर
फेसबुकिए, ट्विटरिए, व्हाट्सऐपिए लोग आदत के शिकार हैं या वे देवनागरी में लिखना नहीं चाहते. या वे कोशिश नहीं करते. वरना आजकल माइक्रोसोफ्ट, एप्पल से लेकर
तमाम मोबाइल फोन कंपनियां ‘इनब्युल्ट हिंदी इनपुट’ के
साथ ही बाज़ार में अपने उत्पाद उतारती हैं! वहीं तमाम ब्लॉगर लोग थोक भाव में हिन्दी में लिख रहे हैं. उन्हें तो कोई समस्या नहीं है! जिन्हें अंग्रेजी की लत लगी हुई है, जो हिन्दी से परहेज करते
हैं कि इससे उनका ‘स्टेटस’ गिर जाएगा, उनका
कोई इलाज नहीं है! अंततः बात व्यक्ति के ‘माइंडसेट’ पर ही आकर रुक जाती है! वरना अभ्यास से क्या कुछ नहीं किया जा सकता!!
संत कबीर ने बहुत पहले ही कह रखा है- “करत करत अभ्यास जड़मति होत सुजान. रसरी
आवत जात सिल पै पड़त निसान॥”
संपर्क:-
राहुल राजेश, सहायक प्रबंधक (राजभाषा), भारतीय रिज़र्व बैंक, 15, नेताजी सुभाष रोड, कोलकाता-700001, (प. बंगाल).
मो.: 09429608159
ई-मेल: rahulrajesh2006@gmail.com
मो.: 09429608159
ई-मेल: rahulrajesh2006@gmail.com
राहुल जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ। हिंदी में जो संस्कृतनिष्ट शब्दो से परहेज रखने को कहते हैं उन्हें बंगला, मैथिलि, ओड़िया मराठी आदि भाषाओँ की और देखना चाहिए। कई तत्सम शब्द आसानी से प्रयोग में हैं। हिंदी को सरल करते करते तरल न बना दे हम। अंग्रेजी के लैटिननुमा शब्दो की ओर इनका ध्यान नहीं जाता।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15-09-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2466 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति ब्लॉग बुलेटिन - हिन्दी दिवस में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
जवाब देंहटाएंसहमति ।
जवाब देंहटाएंटिप्पणी बस इतनी की बात सवा सोलह आने सही है|हिंदी का स्वरूप मोबाइल प्रयोगकर्त्ताओं की सुविधा से नहीं तय हो सकता| कठिनाई यह है कि साहित्य जहां भाषा का सर्वोच्च परिनिष्ठित रूप गढ़ा जाता है, जो उसका टकसाली स्वरूप तय करता है, वहां भी बहुत अंधेर मची है|भाषा का स्वरूप और उसका स्तर मोबाइल-मंच पर कभी तय नहीं होगा;वह साहित्य-सदन में ही अपनी स्तरीयता प्राप्त करेगा|
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