ओम निश्चल ने पिछले डेढ़
दशक में प्रकाशित कविता-संग्रहों में से अपनी पसंद के संग्रहों के आधार पर डेढ़ दशक
की कविताओं का एक लेखा-जोखा तैयार किया है. इसमें समकालीन सृजनरत पीढ़ियों का समावेश
है. संग्रहों के बहाने काव्य प्रवृत्तियों पर भी चर्चा की गयी है. हिंदी कविता के प्रेमियों
के लिए यह कितना उपयोगी है यह तो आप बतायेंगे.
एक वरिष्ठ आलोचक ने एक
बार एक बात कही थी कि ऐसे आलेखों में दिक्कत यह होती है कि कवि-गण अपना ज़िक्र देखते
हैं और सुखी–दुखी-कुपित होते हैं. ज़ाहिर है जिसकी भारी आशंका यहाँ है. फिर भी ओम जी
मिहनत से हिंदी कविता के परिसर की लगातार चल रही हलचलों पर न केवल निगाह रखे हुए हैं, उसे दर्ज़ भी कर रहे हैं.
हिंदी कविता के डेढ़ दशक
(किताबों
के दरीचे से)
ओम निश्चल
हिंदी कविता का आंगन बहुत प्रशस्त है. खड़ी बोली के उदभव से अब तक कविता में अनेक मोड़ आए, अनेक युगों का सूत्रपात हुआ. अनेक शैलियों में इसकी शाखाएं प्रशाखाएं फैली और विकसित हुई हैं. इसी के साथ कविता के प्रतिमानों का भी विकास हुआ है. कविता के लक्षणों और कसौटियों के निर्माण में भारतीय मनीषा सदियों से कार्यरत रही है. संस्कृत और भारतीय भाषाओं के काव्यशास्त्र इसका प्रमाण हैं. खड़ी बोली के विकास के साथ आधुनिक कविता का रथ अग्रसर होता गया. प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता, अकविता, युवा कविता, समकालीन कविता, आज की कविता इत्यादि नामों से अभिहित की जाने वाली हिंदी कविता अनेक आंदोलनों से होकर गुजरी है. नई कविता : स्वरूप एवं संभावनाएं में जगदीश गुप्त ने बीसियों काव्यांदोलनों की चर्चा की है. किन्तु सच यह है कि काव्यांदोलनों के रथ पर सवार कविता आंदोलनों के पस्त होते ही नेपथ्य में चली गयी. अनेक काव्यांदोलन तो युगीन विक्षोभ या आवश्यकताओं के कारण नहीं, कवियश:प्रार्थियों की अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण चलाए गए ताकि वे इतिहास में अपने नाम दर्ज करा सकें. ऐसे ध्वजवाहकों की कमी नहीं रही जिन्हें काव्येतिहास में केवल आंदोलनधर्मी रचनाकारों के रूप में ही याद किया जाता है. उनके योगदान की चर्चा प्राय: नहीं होती.
इन कविताओं में अशोक वाजपेयी ने अनश्वरता के उजाले की खोज की है तो लिंडा हेस ने कबीर के प्रतिबिम्बों के एक नये आभास की बुनावट लक्षित की है. कबीर मर्मज्ञ पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इन कविताओं में कवि के खुद के अनुभवों को कबीर की वाणी के आलाप में ढलते देखा है. मनीष पुष्कले कहते हैं, इन कविताओं की साख—कथन की कथरी, बिरह के बीज और रहस्य की राख़ से ओतप्रोत है और कबीर को गाने वाले प्रहलाद सिंह टिपान्या इसे यतीन्द्र के अंतर की अभिव्यक्ति मानते हैं. कभी देवीप्रसाद मिश्र ने एक बातचीत में यह कहा था, 'यतीन्द्र की कविताओं में अवध की कूक, अवसाद और वक्रता है.' गुलजार ने ऐसा ही भरोसा यतीन्द्र में जताया है. एक सम्मोहित आलोक से भरी यतीन्द्र की कविताओं से गुजरते हुए लगता है, यह युवा कवि है तो सगुण भक्ति वाले राम की अयोध्या में जनमा, जहॉं लोक में यह श्रुति है कि 'हम ना अवध मा रहबै हो रघुबर संगे जाब.‘ ---पर निरगुनिया कबीर के पड़ोस में बैठ कर वह जैसे उन्हीं की साखियों को सदियों बाद अपने शब्दों में उलट-पुलट रहा है.
हिंदी कविता का आंगन बहुत प्रशस्त है. खड़ी बोली के उदभव से अब तक कविता में अनेक मोड़ आए, अनेक युगों का सूत्रपात हुआ. अनेक शैलियों में इसकी शाखाएं प्रशाखाएं फैली और विकसित हुई हैं. इसी के साथ कविता के प्रतिमानों का भी विकास हुआ है. कविता के लक्षणों और कसौटियों के निर्माण में भारतीय मनीषा सदियों से कार्यरत रही है. संस्कृत और भारतीय भाषाओं के काव्यशास्त्र इसका प्रमाण हैं. खड़ी बोली के विकास के साथ आधुनिक कविता का रथ अग्रसर होता गया. प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता, अकविता, युवा कविता, समकालीन कविता, आज की कविता इत्यादि नामों से अभिहित की जाने वाली हिंदी कविता अनेक आंदोलनों से होकर गुजरी है. नई कविता : स्वरूप एवं संभावनाएं में जगदीश गुप्त ने बीसियों काव्यांदोलनों की चर्चा की है. किन्तु सच यह है कि काव्यांदोलनों के रथ पर सवार कविता आंदोलनों के पस्त होते ही नेपथ्य में चली गयी. अनेक काव्यांदोलन तो युगीन विक्षोभ या आवश्यकताओं के कारण नहीं, कवियश:प्रार्थियों की अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण चलाए गए ताकि वे इतिहास में अपने नाम दर्ज करा सकें. ऐसे ध्वजवाहकों की कमी नहीं रही जिन्हें काव्येतिहास में केवल आंदोलनधर्मी रचनाकारों के रूप में ही याद किया जाता है. उनके योगदान की चर्चा प्राय: नहीं होती.
कविता के मूल्यांकन
की दिशा में अनेक प्रयत्न हुए हैं. साठोत्तरी कविता, आठवें
दशक की कविता, नवें दशक की कविता के रूप में शोध और
अनुशीलन का मार्ग प्रशस्त रहा है. ऐतिहासिक घटनाक्रमों से प्रभावित प्रेरित
कविताओं का मूल्यांकन भी उनके वैशिष्ट्य के अनुसार हुआ है. प्राय: बीसवीं शती के
कवियों पर पर्याप्त चर्चा हुई है. इधर इक्कीसवीं शती के बीते डेढ़ दशक में कविता
में एक नई पीढ़ी का उदय हुआ है. भूमंडलीकरण के फलस्वरूप वैश्विक चौहद्दियां और
सीमाएं टूटी हैं. मुक्त बाजार ने पूरी दुनिया विशेषकर तीसरी दुनिया के देशों में
कारोबार का संजाल फैला रखा है और दिनोदिन यह बाजार और प्रशस्त हो रहा है. इस बीच
माध्यमों ने जनमानस की रुचियों को अपने अनुसार अनुकूलित किया है. हमारी सांस्कृतिक
शुचिता का आज कोई अर्थ नहीं रहा. उस पर विदेशी मीडिया, रहन सहन, सभ्यता, विचार
-व्यवहार का दूरगामी असर पड़ा है. इंटरनेट, ब्लाग,
वेबसाइट्स और चैनलों ने पूरी तरह हिंदुस्तान के जन मानस को आच्छादित कर लिया है.
प्रभाव और अभिप्रेरण ने हमारी अपनी वैचारिकी की मौलिकता को क्षति पहुंचाई है और
लगातार आघात-प्रत्याघात जारी हैं.
ऐसे हालात में जहां
वैश्विक परिवर्तनों से कविता पर असर पड़ा है, वहीं
देश के अंदरूनी हालात व घटनाक्रमों ने भी उसकी वैचारिक कोशिकाओं को अछूता नहीं
रहने दिया है. कहा जाता है जब देश में कोई विपक्ष न बचा हो, तब
कविता ही विपक्ष का मोर्चा संभालती है. यही ऐसी विधा है जो सत्ता और पूँजी से
टकराती है तथा इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं जब लेखकों ने सत्ता का विरोध
करने के लिए गोलियां खाई हैं और कारावास की सजाएं भुगती हैं. यहां तक कि ऐसे लेखक
भी हमारे समय में हुए हैं जिन्होंने नोबेल पुरस्कार को आलू का बोरा कह कर ठुकरा
दिया है तथा लेखकीय सत्ता और ईमानदारी पर आंच नहीं आने दी है. पूँजी और प्रलोभनों
के पसरते प्रभुत्व के बावजूद दुनिया भर में लेखकों ने समय समय पर सत्ता के अन्याय
का प्रतिकार किया है और सत्ता के दिए तमगे ठुकराए हैं.
हिंदी कविता के अतीत
में झांकें तो वहां आज भी दूसरे विश्वयुद्ध की छायाएं मिलेंगी. आजादी की लड़ाई
में कवियों की एकजुटता दिखेगी. आजादी के बाद के मोहभंग की छायाएं मिलेंगी. आपातकाल
के दौरान सत्ता के दमन के प्रति प्रतिरोध दिखेगा और भूमंडलीकरण,
उदारतावाद, बाबरी ध्वंस, गुजरात
त्रासदी, और सांप्रदायिक शक्तियों के उभार का
प्रत्याख्यान दिखेगा. यानी कविता जन प्रतिनिधियों से भी कहीं ज्यादा सजग दिखती
है और हिंसक होते प्रतिगामी समय में प्रतिपक्ष की भूमिका में खड़ी दिखती है.
पिछला डेढ़ दशक (2001-2015) नए कवियों के आगम का दशक रहा है. इस डेढ दशक ने नए कवियों की अपनी आवाज निर्मित की है. आज कविता के कथ्य, शिल्प और अंदाजेबयां में जो सकारात्मक परिवर्तन दिख रहा है वह इन्हीं युवा कवियों की देन है. उदाहरणत: यह वह पीढी है जिसने 2000 के आसपास लिखना शुरु किया और अब तक अपनी एक पहचान बना ली है. किन्तु किसी भी समय की कविता का इतिहास केवल युवा कवियों से तय नहीं होता, उसमें कई पीढ़ियों की आवाजाही रहती है. पिछले डेढ़ दशक की कविता को भी लगभग तीन पीढ़ियों के कवियों ने मिल कर गढ़ा है. इस दौरान पुरानी और नई दोनो पीढ़ियों की सैकड़ों काव्यकृतियां प्रकाशित हुईं जिनमें से कुछ चुनिंदा कृतियों की चर्चा के जरिए हम इस कालावधि की कविता का सम्यक् मूल्यांकन कर सकते हैं.
कवियों में वरिष्ठतम
कुंवर नारायण का अवदान यों तो समय सिद्ध है किन्तु इस डेढ़ दशक के दौरान
आई उनकी दो कृतियों का अपना महत्व है. 2008 में आया प्रबंधकाव्य वाजश्रवा के
बहाने आत्मजयी का ही एक दूसरा पहलू है तो कुमारजीव बौद्धकालीन अनुवादक
का एक जीवनकाव्य जिसकी आधार भित्ति पर एक जीवन मूल्य को सहेजने की कोशिश कुंवर
नारायण ने की है. आत्मजयी जहां
नचिकेता के आत्मबल और पिता वाजश्रवा के अहंकार के खोखले प्रदर्शन का काव्य है तो
वाजश्रवा के बहाने वाजश्रवा के प्रायश्चित और नैतिक बल का काव्य. इस काव्य
की विशेषता यह कि इसमें वाजश्रवा का अंत:करण विगलित होकर निर्मल हो उठता है और यह
संदेश देता है कि इस जीवन में कभी भी भूलसुधार संभव है.
‘वाजश्रवा के बहाने’ तक पहुँचकर कुंवर नारायण के यहां एक ऐसे लचीले
और प्रवाही गद्य का आविर्भाव हुआ है कि वह मुक्त छंद को प्रभावी बना देता है. ‘नचिकेता
की वापसी’ एवं ‘वाजश्रवा के बहाने’ दो खंडों में उपनिबद्ध काव्य वाजश्रवा के
क्रोध-शमन और उत्सुकतापूर्वक पुत्र को स्वीकारने के बोध का काव्य बन गया है.
उत्तर जीवन की धूप में वाजश्रवा का मन भी कुछ धुला-धुला-सा लगता है, जिस पर इससे
पहले वैदिक जीवन की भौतिकता का मुलम्मा चढ़ा हुआ था. यह वाजश्रवा का अपने जीवन की
ओर पुनरवलोकन ही है कि यहॉं आकर उसका अहंकार भस्म हो उठता है और वह नचिकेता के स्वागत
के लिए अत्यंत समुत्सुक दिखता है. एक सुगठित पद्य-बंध में कुंवर नारायण इस दृश्य
की साकार परिकल्पना करते हैं जहाँ वाजश्रवा का रोम-रोम पुकारता है : लौट आओ
प्राण/पुन: हम प्राणियों के बीच/तुम जहाँ कहीं भी चले गए हो हमसे बहुत दूर—लोक
में, परलोक में/तम में, आलोक में/शोक में, अशोक में. कवि कहता है—एक पुकार
की कातरता से गूँजती हैं दिशाएं. यह वाजश्रवा की पुकार है, एक विक्षुब्ध पिता
की पुकार . पुत्र की वापसी का सौभाग्य और पिता के हार्दिक स्वीकार को कवि एक नए
संवत्सर का शुभ पर्व मानता है. यह दो पीढि़यों के बीच सुलह की संजीवनी है. तभी वह
कहते हैं : सब कुछ बीत जाने के बाद भी सब कुछ नष्ट नहीं हो जाता. कवि के शब्दों
में:--
किंचित श्लोक- बराबर जगह में भी
पढ़ा जा सकता है
एक जीवन –संदेश
कि समय हमें कुछ भी
अपने साथ ले जाने की अनुमति नहीं देता,
पर अपने बाद
अमूल्य कुछ छोड़ जाने का
पूरा अवसर देता है
कविता की तमाम
परिभाषाएं कवियों ने की हैं किन्तु इस काव्य में कविता की जो परिभाषा कुंवर
नारायण ने की है वह अन्यत्र दुर्लभ है. वे कहते हैं:
कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है
एक जीवन-दृष्टि—
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएं हों
बर्बर महत्वाकांक्षाएं नहीं
वाणी में कवित्व हो
कर्कश तर्क-वितर्क का घमासान नहीं,
कल्पना में इंद्रधनुषों के रंग हों
ईर्ष्या - द्वेष के बदरंग हादसे नहीं,
निकट संबंधों के माध्यम से
बोलता हो पास-पड़ोस,
और एक सुभाषित, एक श्लोक की तरह
सुगठित और अकाट्य हो जीवन-विवेक.
गए डेढ़ दशक में केदारनाथ
सिंह ने दो बड़े संग्रह आए. टालस्टाय और साइकिल और सृष्टि पर पहरा.
यों तो दोनों ही संग्रह केदारनाथ सिंह की
कविताओं के बड़े संग्रह हैं. तथापि सृष्टि पर पहरा केदार जी के संग्रहों
में नायाब है. इधर दुनिया जितनी तेज़ी से बदल रही है, उतनी तेज़ी से ही बहुत-सी
भाषाओं,संस्कृतियों और सभ्यताओं का
लोप हो रहा है. लिपियॉं ख़तरे में हैं,
प्राणि-प्रजातियॉं भी. यहॉं तक कि बरसों-बरस कोठार में संजोकर रखे गए बीज अब शायद
ही किसी किसान के घर मिल सकें. ऐसी स्थिति में यह कवि अपनी भाषा और संस्कृति के
लिए कितना चिंतित है, इसका साक्ष्य
‘हिंदी ‘हलंत का क्या करें’, देवनागरी, मंच और मचान, नदी का स्मारक, अगर
इस बस्ती से गुज़रो, कविता, अन्न-संकट, भोजपुरी, जैसे दिया सिराया जाता है, देश
और घर, बैलों का संगीत प्रेम, एक ठेठ किसान के सुख-- जैसी कविताएं हैं.
केदार जी की कविताओं
में हम पाते हैं कि तमाम विपरीतताओं के बीच मनुष्यता अभी भी कहीं-न-कहीं जि़ंदा
है, अक्षरों में हलंत जीवित है, नदी के लौटने की आशा में नावें प्रतीक्षारत हैं,
‘स’ के संगीत से एक हल्की-सी सिसकी और ‘म’ से किसी पशु के रँभाने की आवाज़ आती है.
नगण्य–सी होते हुए भी एक छोटी-सी घास की पत्ती बैनर उठाए मैदान में खड़ी दिखती
है. हर मुश्किल में काम आने वाली हिंदी में अभी भी एक कारक की बेचैनी और एक तदभव
का दुख जीवित है. कविता और सीकरी के बीच सदियों से चली आने वाली अन-बन मौजूद है,
और सरहदों के बावजूद कवि की यह जिंदादिल नसीहत भी कि
पक्षियों को अपने
फैसले खुद लेने दो
उड़ने दो उन्हें
हिंद से पाक
और पाक से हिंद के
पेड़ों की ओर
अगर सरहद ज़रूरी है
पड़ी रहने दो उसे
जहॉं पड़ी है वह
केदारनाथ सिंह की कविता इसी विश्वास, प्रतिरोध, बेचैनी
और तद्भवता की कविता है, जिससे गुज़रते हुए आज भी माझी के पुल से गुज़रने का-सा
अहसास होता है.
चंद्रकांत देवताले हिंदी के वरिष्ठ कवियों में हैं. अकविता
के दौर में पहचाने गए और गए चार दशकों में अनेक कविता संग्रहों के प्रणेता देवताले
ने अपने काव्य में कविता की श्रेष्ठ परंपराओं का अनुसरण करते हुए युगीन कथ्य को
सहेजा है. तुकाराम के अभंग की-सी निर्भीकता से प्रभावित प्रेरित देवताले की शुरुआत
हिंदी के एक नाराज से लगते युवा कवि के रूप में हुई थी. तब जिन कवियों में यह
निर्भीकता और साहसिकता देखी जा सकती थी, उसमें धूमिल के बाद की पीढ़ी में लीलाधर
जगूड़ी, देवताले, कुमार
विकल, राजकमल
चौधरी में सर्वाधिक तेजस्विता के साथ परिलक्षित हुई. हाल ही आया चंद्रकांत देवताले
का संग्रह खुद पर निगरानी का वक्त उनकी बेफिक्री और संत सरीखी अदायगी का
विरल उदाहरण है. उनकी कविताओं में प्रकृति का हाहाकार और विलाप ध्वनित होता है तो
विनाश के शिलान्यास का महापर्व और वेंटीलेटर पर पड़ी नदियों की कराह भी सुनाई
देती है. देवताले अपने सपनों से बेदखल मनुष्य के पक्ष में खड़े दिखते हैं. आज के
हालात पर फटकार की तरह बरसने वाली देवताले की अभंग-सरीखी कविता इस समय पर चाबुक की
तरह है. यह और बात है कि कवियों की आवाज़ महामहिमों और श्रीमंतों तक नहीं पहुंचती.
जब व्यवस्था अश्लीलता की हद तक क्रूर है, कवि
अपनी शर्मिंदगी का इज़हार यों करता है:
''बेहद संवेदनशील शब्द हैं शांति और व्यवस्था
और इनको कायम रखने के नाम पर ही
और इनको कायम रखने के नाम पर ही
हो रही हत्याएं और
अग्निकांड
मोहताज हैं जिसके हम करोड़ों
वही बुनियादी चीज आपने हमसे मांगी
मोहताज हैं जिसके हम करोड़ों
वही बुनियादी चीज आपने हमसे मांगी
वह भी इतनी ऊँची
कुर्सी पर बैठ कर
शर्मिंदा हैं हम तो/ आप अपनी जानें?''
शर्मिंदा हैं हम तो/ आप अपनी जानें?''
एक कविता में उनका
यह कहना है कि सब मुझे अच्छा अच्छा कहें और मैं इसे अपने हक़ में बड़ी बात मानूँ.
यह मुझे स्वीकार्य नहीं है. कवियों के लिए देवताले की कविताएं कसौटी हैं. वे
कवियों से चाहते हैं कि वे शोकेस में सजाने वाली कविताएं न लिखें. धन्य कर देने
वाली तालियों की आवाजों के लिए न लिखें. अब जब कि भाषा में हत्यारे वायरस प्रवेश
कर गए हैं, वे कहते हैं, कवियो, अब तो
मंचों, मीडिया के चिकने पन्नों और चमकदार बक्से से
बाहर निकलो. निकलो अपने साथियों के साथ कविताओं के किलों, हरमों, पिंजरों,
बैठकखानों से बाहर निकलो. (अपने आप से) वे बाजार के प्रभाव में प्रोडक्ट बनती जा
रही रचना को बचाने की जरूरत महसूस करते हैं, दूसरे
यह भी कि कविता अपनी चुटकी भर अमरता की खातिर अपनी भाषा, धरती और
लोगों के साथ विश्वासघात न होने दे.
खबर का मुंह
विज्ञापन से ढंका है हिंदी कविता में शायद एक ऐसा संग्रह है जिसके
जरिए आज के सर्वभक्षी विज्ञापनवादी पूंजीवादी भौतिकवादी बाजारवादी समय को लीलाधर जगूड़ी
ने अत्यंत सूक्ष्मता से आकलित किया है. जगूड़ी सामान्य से दिखते कथ्य को अपनी
सूक्ष्म कवि-प्रज्ञा से इस तरह मथते हैं कि वह अर्थ के नवाचार की दृष्टि से मूल्यवान
हो उठता है. यों तो इसी अवधि में उनका संग्रह जितने लोग उतने प्रेम भी आया
किन्तु खबर का मुंह विज्ञापन से ढंका है कविता में नवाचार का आगम कहा जा
सकता है.
कथा
संसार की ही तरह कविता में भी विनोद कुमार शुक्ल ने सदैव अपना अलग रास्ता अख्तियार
किया है. वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह के साथ ही विनोद
कुमार शुक्ल ने अपनी कविता को चालू कविता की आबोहवा से बचा कर रखा है. कभी के बाद अभी को देखें तो ऐसा लगता है कि
उनकी कविता वाक् में, शब्द में, अर्थ में, रस में, ध्वनि में, रीति में, वक्रोक्ति में, उक्तिवैचित्र्य मे— यहॉं तक कि किसी असंभवता में भी
कुछ खोजने बीनने और रचने से उद्वेलित है. वह जीवन को अच्छी उम्मीदों के साथ जीने
का जतन सिखाती है. ‘जीवन को मैंने पाया इसे भूला नहीं’---वे
कहते हैं. ‘अच्छे से एक दिन रहूँ तब तक अमर
रहूँ’ में एक भी दिन को अच्छी तरह से
जीना उम्मीद और आश्वस्ति के साथ जीना है. उनकी इन कविताओं में दंगे, कर्फ्यू, आदिवासी, जंगल, विस्थापनानुभूति, पड़ोस, पड़ोसी और पड़ोस-भाव पर तो
कविताऍं हैं ही, अलगाववादी प्रवृत्तियों के
विरुद्ध यह ख्वाहिश भी है : ‘सिर उठा कर मैं बहु जातीय नहीं,सब जातीय/बहु संख्यक नहीं/ सब
संख्यक होकर/ एक मनुष्य खर्च होना चाहता हूँ/एक मुश्त.‘(लोगों और जगहों में, पृ.15)
कवि
की चिंता अकारण नहीं है कि एक भाषा में बचाओ दूसरे प्रदेश की भाषा में जान
से मारे जाने का कारण बन जाता है और एक ही प्रांत में होना उस प्रांत का बंदी जैसा
बन जाना, भले, नए राज्य बनने से देश के स्वतंत्र
होने जैसी खुशी होती हो. कहॉ रहे वे नागरिक जिन्हें वह देशवासी कह कर पुकारे.
बिहारी हो या छत्तीसगढ़ी, उसका स्थायी पता उससे खो गया है. वह जैसे
कमाने-खाने के लिए भागती हुई प्रजातियों में बदल गया है. इस तरह शुक्ल की कविता
परदुखकातर है. वह आदिवासियों को उनके जन्मजात अधिकारों से बेदखल किये जाने का शोक
मनाती है तो उन्हें सभ्यता के जगमगाते
हुए मंच पर बसाने के पीछे की हिंस्र मानसिकता का खुलासा भी करती है. कहना यह कि
शुक्ल की कविता उन आवाजों को अनसुना नही करती जो सताई हुई कौमों की कराह से आती
है तथा अपनी कलात्मक जिद में यह भूल नहीं जाती कि मनुष्य का जन्म किसी भी कविता
के जन्म से बड़ा है. भले ही, कविता ही मनुष्य को बड़ा बनाती हो.
ऋतुराज जब तक राजस्थान के कवियों के आईने में
देखे जाते रहे, उनका सही मूल्यांकन नहीं हो सका. पर वे
सदैव राजस्थान के प्रगतिशील कवियों में सबसे ज्यादा तेजस्वी वाग्विदग्ध और
प्रत्युत्पन्नमति वाले कवि रहे हैं. उनकी कविता विस्तार में नहीं, संतुलन
में घटित होती है. कम कहना और सारभूत कहना उनकी कविता का लक्ष्य रहा है. इसीलिए
इस डेढ दशक में उनके कई संग्रह आए. सभी महत्वपूर्ण. लीला मुखारविंद, आशा नाम
नदी और फेरे. पर कई कारणों से फेरे का
आंतरिक घनत्व उनके पिछले दोनों संग्रहों पर भारी पड़ता है. ऋतुराज की कविताएं
आजादी के बाद के भारत में पैदा इजारेदारों, राजनीतिकों तथा छद्म बुद्धिजीवियों की
बढ़ती गयी आबादी पर शोक प्रकट करती हैं. वे इस बात पर हैरानगी जताती हैं कि एक हरे भरे उपग्रह इस सुंदर और विपुल
पृथ्वी पर कैसे लोग काबिज हैं. किस तरह से ऐसे लोग देने नहीं बल्कि लोगों की
रोशनी छीन लेने के हुनर में पांरगत हैं. नतीजतन राजनीति की विष्ठा में लिथड़े
चेहरों पर तो भरपूर रोशनी है पर जनता के सपनों पर सूर्यग्रहण छाया है. झूठ के
विराट उजाले में आखिर कौन सचाई की इबारत बॉंचे ?
वे कहते हैं, यह कैसी दुनिया है जहॉं सोते हुओं को जगाने का
उपक्रम चल रहा है. भयानक से भयानक खबरों के बीच लोग सो रहे हैं. इतने भरे बैठे हैं
बेचैन ठहरे हुए समय में कि जैसे कोई ठोस निर्विकार जड़ शिल्प हों. सत्यं शिवं
सुंदरम् के अभिलाषी हम सबने इस वसुंधरा को कैसे एक कचरे में पिंड में बदल दिया है.
कवि के ही शब्दों में:
इतनी सुंदर प्रकृति
पर इतने गंदे असभ्य लोग
इतनी सारी भाषाऍं
पर उपेक्षा की
पर इतने गंदे असभ्य लोग
इतनी सारी भाषाऍं
पर उपेक्षा की
गालियों से खामोश
इतने धर्म, पंथ और प्रवहमान नदियॉं
पर सर्वत्र कचरा ही कचरा
इतने धर्म, पंथ और प्रवहमान नदियॉं
पर सर्वत्र कचरा ही कचरा
भौतिक अभौतिक जैविक पराजैविक ढेरों कचरा. (निर्विकार जड़ शिल्प,
पृष्ठ 89)
कवि के इस विक्षोभ में नेपथ्य से कहीं न कहीं मुक्तिबोध की-सी वेदना
की सिसकियां सुन पड़ती हैं. ‘सब चुप साहित्यिक चुप’ जैसी धिक्कार भरी चेतावनियां
लिखने वाले मुक्तिबोध की आत्मा जैसे इस सीधे-सादे कवि में उतर आई हो. ऋतुराज
का यह नया संग्रह फेरे उस समय आया है जब वरिष्ठ लेखकों में लिखने की गति
मंद पड़ रही है.
हिंदी
कविता में नरेश सक्सेना का होना एक परिघटना है. साठ साल तक होते होते यह कवि केवल
अपने गीतों के लिए जाना जाता रहा है. पांच जोड़ बांसुरी का वह अंतिम कवि था. किन्तु
पहल सम्मान मिलने के अवसर पर 2001 में आए नरेश सक्सेना के संग्रह समुद्र पर
हो रही है बारिश ने आलोचकों के समक्ष एक संकट खड़ा कर दिया कि वे अचानक वयस्श्रेष्ठ
इस कवि को किस पंक्ति में रखे. पर उसके दसियों बरस बाद आए नरेश सक्सेना के दूसरे
संग्रह सुनो चारुशीला ने नरेश सक्सेना की कविता में संवेदना की प्रगाढ़ता
को प्रमाणित किया तथा उन्हीं के शब्दों में जताया कि कविता अपने आयतन और
भार से ज्यादा अपनी संवेदना के घनत्व में होती है. पानी के इस इंजीनियर और एक समय उच्छ्वास-भर-भर
कर सुने जाने वाले गीतों के इस रचयिता की कविता संवेदना-प्रवण होने के साथ साथ
विचारों में भी दृढ़ता से भरी दिखती है. अंधविश्वासों और अवैज्ञानिकता पर चोट
करती हुई वह ईश्वर की औकात बताती है तो अपनी ज़मीन जायदाद से बेदखल किसानों के
ऑंसुओं का आख्यान भी लिखती है. इस बारिश में जैसी कविता के आरोह-अवरोह में हम अपनी जमीन से
बेदखल होते किसानों का विलाप सुन सकते हैं: '
जिसके पास चली गयी मेरी ज़मीन
उसी के पास अब मेरी
बारिश भी चली गयी
अब जो घिरती हैं काली घटाएं
उसी के लिए घिरती हैं
कूकती हैं कोयलें उसी के लिए
उसी के लिए उठती हैं
धरती के सीने से सोंधी सुगंध
अब नहीं मेरे लिए
हल नही बैल नही
खेतों की गैल नहीं
एक हरी बूँद नहीं
तोते नहीं, ताल नहीं, नदी नहीं, आर्द्रा नक्षत्र नहीं
कजरी मल्हार नहीं मेरे लिए
जिसकी नहीं कोई जमीन
उसका नहीं कोई आसमान.'
उसी के पास अब मेरी
बारिश भी चली गयी
अब जो घिरती हैं काली घटाएं
उसी के लिए घिरती हैं
कूकती हैं कोयलें उसी के लिए
उसी के लिए उठती हैं
धरती के सीने से सोंधी सुगंध
अब नहीं मेरे लिए
हल नही बैल नही
खेतों की गैल नहीं
एक हरी बूँद नहीं
तोते नहीं, ताल नहीं, नदी नहीं, आर्द्रा नक्षत्र नहीं
कजरी मल्हार नहीं मेरे लिए
जिसकी नहीं कोई जमीन
उसका नहीं कोई आसमान.'
इस कविता के जरिए जैसे नरेश सक्सेना ने
भूमंडलीकरण और सुधारों के फलस्वरूप बढ़ते पूँजीवादी प्रभुत्व के बीच कारपोरेट
घरानों के नाम औने पौने ज़मीनें सौगात में दे दिए जाने से पैदा हालात पर एक कवि का
शोकगीत लिख दिया है. पृथ्वी को बिल्डरों की मेज पर एक अधखाये फल के रूप में
देखने वाले कुमार अम्बुज से एक कदम आगे बढ़ कर यह कविता वंचितों की एक असाध्यगाथा
में बदल गयी है. पर्यावरण, विलुप्त होती मार्मिकता, मनुष्यता, संवेदनशीलता और मनुष्य में घर करती कुटिलता के
इतने मार्मिक संकेत यहां हैं कि लगता है कवि ने समाज के पतन की एक एक ईंट की
भरभराहट अपने कानों से सुनी और देखी है. पतन के इस शर्मनाक दौर में भी उनकी कविता 'गिरना' इस सलीके से मनुष्य को गिरना सिखाती है कि अपने
गिरने और पतन पर गर्व हो उठे. उदाहरण के तौर पर: '
'गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए/गिरो आंसू की एक बूँद की तरह
किसी के दुख में/गेंद की तरह गिरो खेलते बच्चों के बीच
.....बारिश की तरह गिरो,सूखी धरती पर
पके हुए फल की तरह
धरती को अपने बीज सौंपते हुए गिरो.''
मनुष्यता की एक एक भंगिमा को अपनी ऑंखों से आत्मसात करने वाले, सॉंसों की धौंकनी से अपने अनुभवों की भाषा में प्राण फूँकने वाले नरेश सक्सेना ने बहुत कम लिखा है, पर कम लिख कर यह सिद्ध किया है कि यह दरअसल उतना कम भी नहीं है. उनकी कविता का घनत्व उसके आयतन और भार से बहुत-बहुत ज्यादा है.
'गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए/गिरो आंसू की एक बूँद की तरह
किसी के दुख में/गेंद की तरह गिरो खेलते बच्चों के बीच
.....बारिश की तरह गिरो,सूखी धरती पर
पके हुए फल की तरह
धरती को अपने बीज सौंपते हुए गिरो.''
मनुष्यता की एक एक भंगिमा को अपनी ऑंखों से आत्मसात करने वाले, सॉंसों की धौंकनी से अपने अनुभवों की भाषा में प्राण फूँकने वाले नरेश सक्सेना ने बहुत कम लिखा है, पर कम लिख कर यह सिद्ध किया है कि यह दरअसल उतना कम भी नहीं है. उनकी कविता का घनत्व उसके आयतन और भार से बहुत-बहुत ज्यादा है.
जैसा कि कहा गया है, कविता के निर्माण और विकास में पुरानी पीढ़ी का
भी उतना ही सहकार रहा है, जितना युवतर पीढ़ियों का. लिहाजा इसी अवधि में
सदी की शुरुआत में आए अशोक वाजपेयी का संग्रह दुख चिट्ठीरसा है---कविता
की दृष्टि से एक मार्मिक संग्रह था. पर कुछ बरस पहले आए कहीं कोई दरवाज़ा
ने काव्यप्रेमियों को गहराई से आकृष्ट किया. हालांकि इस बीच उनका एक और संग्रह 'नक्षत्रहीन समय में' भी आ
गया है पर कभी कभी उम्र बढ़ने के साथ अनुभव तो गहरा होता है पर संवेदना का द्रव्य
कुछ हल्का पड़ने लगता है. दुख चिट्ठीरसा है और कहीं कोई दरवाजा की तासीर लगभग
एक-सी है. हालांकि दुख चिट्ठीरसा है पर पिछली सदी के जीवनानुभवों का प्रभाव ज्यादा
है. इस दृष्टि से आज के समय को कहीं कोई दरवाज़ा में ज्यादा क्लोज आब्जर्वेशन्स
के साथ पहचाना गया है. फ्रांस के एक शहर नान्त के नीरव एकांत और
लोआर नदी के सान्निध्य में लिखी गई ये कविताएं अशोक वाजपेयी के उत्तरजीवन की
उत्तरदायी अभिव्यक्ति के रूप में सामने हैं. अशोक वाजपेयी को ऐश्वर्य और वैभव
का कवि मान कर भले ही देखा जाता रहा हो, पर वैभवसंपन्न कवि के रचे संसार में भी
आखिरकार सत्य की ही दुंदुभि बजती है.
आखिरकार ऐसा कवि भी
इसी नतीजे पर पहुंचता है कि वैभव आखिरकार ध्वस्त होता है, बेशक उसकी आकांक्षा कभी नहीं मरती. इन कविताओं
में कवि की आस्था फिर शब्दों के प्रति सबल हुई है और जीवन को देखने-समझने के लिए
नए व मौलिक बिम्बों के उपार्जन में वह सतत अग्रसर हुआ है. तभी वह पहली ही कविता टोकनी
में कहता है: 'दुख रखने की जगहें धीरे-धीरे कम हो रही
हैं.' 'अपने हाथों से उठाओ पृथ्वी' अशोक
वाजपेयी के इस संग्रह की कुछ चुनिंदा कविताओं में एक है जिसमें वह छह महाद्वीपों
में बँटी हुई पृथ्वी के घायलों, बेघरबारों, अकारण
मारे जाने वालों का जायज़ा लेता हुआ मनुष्यों से कहता है, 'इसे अपने
हाथो से उठा कर महसूस करो. महसूस करो कि असमय सूख रही नदियों, अकालनग्न होते पर्वतों के बावजूद इसकी वत्सलता
कभी चुकने वाली नही है . अभी भी यह तुम्हारे गुनाहों को विस्मृति के क्षमादानों में फेंकती जा रही है.' कहीं कोई दरवाज़ा अशोक वाजपेयी के कृतित्व का निश्चय एक सार्थक
मोड़ है; उन्हीं के शब्दों को उधार लेकर कहें तो
यह उस दरवाजे़ की तरह है जो जितनी बार खुलता है उतनी बार गहरी सॉंस लेता है.
राजेश जोशी हमारे समय के ऐसे
लुभावने कवि हैं जिनके यहां कविता की बेहतरीन किस्में मिलती हैं. वे अपने समय में
चल रहे मुहावरों को सलीके से अपनी कविता के भाल पर बिठाते हैं तभी उनकी कविता में
जनोन्मुख उद्धरणीयता के साथ एक सुचिक्कन
स्थापत्य देखने को मिलता है. इस डेढ़ दशक में उनके कई संग्रह आए. दो पंक्तियों
के बीच, चांद की वर्तनी और अभी हाल में जिद.
पर अभिव्यक्ति की कुशलता, अनुभव की गहराई और संवेदना के घनत्व की दृष्टि
से चांद की वर्तनी का जवाब नहीं. राजेश जोशी की कविताओं में केवल राजेश ही
नहीं बोलते, पूरी कवि-परंपरा बोलती है. वे परंपरा से सबल स्वरों को अपनी आवाज और
अपनी तराश देते हैं तथा प्राय: अपने मौलिक निरूपण से चकित कर देते हैं. चांद की वर्तनी के लिए अरुण कमल ने अपनी
सम्मति टॉंकते हुए लिखा है कि राजेश जोशी की कविता अब भाषा के नए उपकरणों एवं
आयुधों व्यवहार करती है तथा कविता को वहां ले जाती है जहां भाषा अर्थ से अधिक
अभिप्रायों में निवास करती है.
कहना न होगा कि राजेश जोशी प्रारंभ में कुछ अत्यंत
चमकीली पदावलियों के कारण चर्चा में आए थे. बच्चे काम पर जा रहे हैं, जब भगवत रावत ने लिखा तो वह एक सामान्य कथन-भर बन कर रह गया किन्तु
राजेश की कविता में आते ही यह अपने समय का एक अचूक काव्यात्मक मुहावरा बन गया. वे
और नहीं होंगे जो मारे जाएंगे---लिख कर रघुवीर सहाय को जितनी चर्चा नहीं मिली, उससे कहीं अधिक ध्यान जोशी की कविता मारे जाएंगे ने खींचा है.
जनसंवेद्य होना किसे कहते हैं खास तौर पर गद्य कविता में, इसे राजेश जोशी से बेहतर कोई नहीं जानता. कच्चे माल के लिए राजेश ने
अपनी परंपरा में झॉंकने से कभी गुरेज़ नहीं किया लिहाजा जो काम ज्ञानेन्द्रपति ' विलुप्त प्रजातियों के अंतिम वंशधर' में नहीं कर सके, उसे चांद की वर्तनी में राजेश जोशी ने
अपनी कविता 'विलुप्त प्रजातियॉं' में कर दिखाया. याद रहे निराला की कुकुरमुत्ता
के बरक्स खुद ज्ञानेंद्रपति ने मशरूम वल्द कुकुरमुत्ता एवं अष्टभुजा
शुक्ल ने मशरूम केयरआफ कुकुरमुत्ता जैसी कविता लिख कर यह
जताया है कि कथ्य कैसा भी हो, वह कवियों की अपनी अभिव्यक्ति क्षमता से व्यक्तिव्यंजक
और अद्वितीय हो उठता है. एक से एक मार्मिक कविताओं के इस संग्रह की केवल एक छोटी
सी कविता देखिए जो एक लुभावने कवच से मंडित है:
मैं हिंदी साहित्य का एक अदना-सा विद्यार्थी
मेरी हाय विडम्बना तो देखिए
मैं कामायनी में सवार था
फिर भी जा रहा था प्रसाद के नगर से दूर. (विडंबना, पृष्ठ 25)
इसीलिए हाल ही आए उनके संग्रह जिद
पर लिखते हुए मैंने यह पाया कि कविता को
शब्दों का नया घर ही नहीं, नई प्रतीतियों और आशयों का आशियाना भी
चाहिए. राजेश जोशी ने कविता को हमेशा बोलचाल के निकट रखा है तथा नई प्रतीतियों की
आमद से उसे संपन्न बनाया है. जिद की कविताओं में भी राजेश जोशी ने
एक ऐसी काव्यात्मक व्यूहरचना की है जिसमें हमारे समय की विफलताओं,
निरंकुशताओं, अश्लीलताओं और बाजारवादी आक्रामकताओं का
चेहरा भलीभांति देखा जा सकता है.
हमारे
समय की कविता वही है जिसमें हमारा समय बोलता है. जिसमें उसके नागरिकों किसानों
मजदूरो स्त्रियों की पीड़ा बोलती हो, उनका हास परिहास, रुदन और
ख्वाहिशें बोलती हों. जिसमें अन्याय, सत्ता और पूंजी के अहंकार के प्रति कवि
का प्रतिकार बोलता हो. जो नए युग के शत्रुओं को पहचानती हो. ऐसा काम मंगलेश डबराल
की कविता करती है. वह आज के बदलते हुए दौर में छाते जा रहे कारपोरेट घरानों,
पूँजीपतियों, नव दौलतियों के आचरणों पर तो प्रहार करती
ही है, सत्ता
के अहंकारी रवैये और समाज के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए सत्ता के समर्थन और
प्रायोजन को भी चिह्नित करती है. हालांकि कुछ बरसों पहले आया उनका संग्रह 'आवाज भी
एक जगह है'--कविता कला, कथ्य
और समय के निर्वचन की दृष्टि से मूल्यवान संग्रह है किन्तु नए युग की चुनौतियों
से रूबरू नये युग के शत्रु में आज का क्रूर और पूँजीवादी समय ज्यादा
आक्रांत चेहरा दीख पड़ता है1
इसमें संशय नहीं कि बाजार के घटाटोप और बहुराष्ट्रीय निगमों की आक्रामक पैठ ने हमारी
चेतना को ढँक लिया है; सत्ता और अर्थव्यवस्था आम आदमी की नियति बदल
पाने में निरुपाय दिखती है, उनकी दिलचस्पी अमीर होते जाते लोगों में है.
ताकत और तकनीक के गठजोड़ ने इस दुनिया को नई तरह से अपनी गिरफ्त में लिया है. हर
हाथ में इलेक्ट्रानिक गजेट्स की उपलब्धता ने संपर्क की त्वरित सुविधा के बावजूद
जिस तरह का आभासी समाज रचा है उसने एक-दूसरे को अजनबी-सा बना दिया है. दुनिया अपने
में खोई और मशगूल दिखती है. पारंपरिक बैंकों के दिन लद गए हैं. वे हाशिए में हैं
तथा नई चाल और तकनीक के बैंक परिदृश्य पर छा गए हैं, जो कर्ज की चार्वाक परंपरा के सूत्रधार-से दिखते हैं और कर्ज-अदायगी
में विफल रहने वाले किसानों को आत्महत्या की तरफ धकेल रहे हैं. आदिवासियों को
खदेड़ा जा रहा है, न केवल ध्वस्त होती पारिस्थितिकी ने जीवन के
लिए जरूरी प्राणवायु पर संकट पैदा किए हैं बल्कि भाषा में भी आक्सीजन लगातार घट
रही है. राजनीति ने सांप्रदायिकता और धार्मिकता की बेल को सतत सींचने और संवधित
करने का काम किया है. ऐसे में नये युग में शत्रु कवि की उस विक्षुब्ध
मन:स्थिति की ओर इशारा करता है जो इसी क्रूर, अमानवीय और पूँजीवादी होते समय की फलश्रुति है.
कितनी विडंबना है कि यह दौर नई सभ्यता के लिए चाहे जितना मुफीद हो, आदिवासियों, ग़रीबों, मजलूमों व प्राकृतिक संसाधनों के लिए संकट का समय है. अचरज नहीं, कि हमारे समय के बड़े कवियों में आज सबसे ज्यादा फिक्र पारिस्थितिकी
के असंतुलन और आदिवासियों के उजड़ने को लेकर है. कुंवर नारायण अभी हाल की लिखी एक
कविता में आदिवासियों की ओर से कहते हैं, 'मुझे मेरे जंगल और वीराने दो.' विनोद कुमार शुक्ल ने 'कभी के बाद अभी' में तमाम कविताएं आदिवासियों पर केंद्रित की हैं. मंगलेश भी 'आदिवासी' कविता में इसी चिंता के साथ सामने आते हैं. उनका
मानना है, नदियां इनके लिए केवल नदियां नहीं, वाद्ययंत्र हैं, अरण्य इनका अध्यात्म नहीं, इनका घर है. पर आज हालत यह है कि इनके आसपास के पेड़ पत्रहीन नग्नगाछ
में बदल गए हैं. उन्हें उनके अरण्य से दूर ले जाया जा रहा है. उनके अपने कोयले
और अभ्रक से दूर. वे एक बियाबान होते हरसूद और जलविहीन टिहरी की ओर धकेले जा रहे
हैं. उनके वंशी और मादल संकट में हैं. कैसी विडंबना है कि जैसे ही वे मस्ती में
अपनी तुरही मांदर और बांसुरी जोरों से बजाने लगते हैं, शासक उन पर बंदूकें तान देते हैं. उनकी कविता के सॉंचे में कोई ज्यादा तब्दीली
भले नहीं आई हो पर कठिन और दुर्वह होते समय के साथ उनकी कविताओं का यथार्थ उत्तरोत्तर
गाढ़ा और सॉवला हुआ है. तभी तो वे कहते हैं: 'यथार्थ इन दिनों बहुत ज्यादा यथार्थ है.' यह 'वह जो यथार्थ था' से बहुत आगे का कवि-समय है.
ज्ञानेन्द्रपति आपात्काल के दौर की उपज हैं. 'भिनसार' में
शामिल उनकी शुरुआती कविताओं में तमाम राजनीतिक इंदराज मिलते हैं. किन्तु तत्सम
और तद्भव की अनूठी जुगलबंदी से रचित उनकी कविता की आभा प्रथमद्रष्ट्या भले ही
अपनी भाषा में उच्चभ्रू लगती हो, किन्तु उनकी कविता हमेशा जनचित्त को
अपनी संवेदना के केंद्र में रखती आई है. गंगातट के साथ उन्होंने अपने
दूसरे दौर की एक मजबूत शुरुआत की तो उसके बाद संशयात्मा में उन्होंने
अपने समय के सँवलाए यथार्थ को परत दर परत उकेरते हुए एक लोकतांत्रिक समाज में आम
आदमी के दुर्वह जीवन का खाका तो खींचा ही, वैश्विक
यथार्थ की सूक्ष्मताओं का अंकन भी किया है. सांप्रदायिक समय व उनये सांस्कृतिक
मेघों से लेकर बीज संकट, गुजरात
त्रासदी, शीत युद्ध, अमरीकी
वर्चस्व, कवि-हत्या, मानव बम,
इथियोपिया संकट, पक्षी प्रजातियों के विलोपन तक आज के
वैश्विक समय का कोई ऐसा मुद्दा न होगा जो ज्ञानेंद्रपति की कविता का विषय न बना
हो. इस अर्थ में वे लगभग हिंदी के उपजीव्य कवि बन चुके हैं. संशयात्मा के
बाद हालांकि मनु को बनाती मनई में ट्राम में एक याद जैसी रोमेंटिक
कविताओं का एक बृहत्तर समुच्चय ही मिलता है जिसमें उनकी लौकिक-अलौकिक प्रेमाभिव्यक्तियों
की एक नई दुनिया खुलती है किन्तु संशयात्मा आज के समय का एक
प्रातिनिधिक काव्य बन सका तो उसकी वजह यह है कि कवियों ने सत्ता से समझौते नहीं
किए.
हिंदी कविता में त्रिलोचन, केदारनाथ
अग्रवाल, विजेंद्र और ज्ञानेंद्रपति के रास्ते
चलने वाले कवि दिनेश कुमार शुक्ल को कम तरजीह मिली है. पर अब तक का उनका
कविता संसार प्रगीतात्मक और एक देशज नैरेटिव से बना हुआ संसार लगता है जहां पहुंच
कर शहराती कविता की एकरसता से निजात मिलती है. कभी तो खुलें कपाट के बाद उनके नया अनहद, कथा कहो कविता आदि कई संग्रह आए हैं. किन्तु नया अनहद
एक तरह से नए काव्य का प्रस्तावन है. इन कविताओं का नैरेटिव आख्यान की तरह
खींचता है तो इनमें अनुभव भाषा और संवेदना की एक त्रिवेणी प्रतिबिम्बित होती है.
यह प्राय: लंबी कविताओं का संग्रह है और वे लंबी कविताओं के मिजाज के कवि भी हैं. ध्रुपद
का टुकड़ा जैसी अनूठी कविता यहां है तो तुम मुँडेर पर, उड़ते सारस,दुख सुख
प्रेम तरल तिरबेनी, रोटी और बेटी, मगहर की टिटिहरी जैसी कविताएं भी. पर कविता ही दुख की बोली है
लिख कर इस कवि ने कविता के शाश्वत उद्गम के स्रोत पर फिर अपनी मुहर दर्ज की है. रोटी और बेटी के भीतर व्याप्त करुणा
हमें बांध लेती है :
बेटियां हैं
अंतरिक्ष , दिशाएं
जहां पैदा होते हैं
नक्षत्र
बेटियां हैं
नदियां---
अपने सत्त से
सिझातीं
फस्लों को
खेतों को करतीं
पुरनम अपनी करुणा से.
................
बेटियॉं हैं
पूस की धूप----
पिघले हुए कुंदन सी
पोर पोर व्यापतीं
नवान्न के दानों
में (रोटी और बेटी, पृष्ठ 45)
दिनेश कुमार शुक़्ल
प्रकॄति से प्रेरणा लेने वाले कवियों में हैं, लेकिन
कविता का अर्थ उनके लिए प्रकॄति में ही उमड़ घुमड़ कर रह जाना नहीं, बल्कि
उसके साहचर्य से संवलित हो कर नया अर्थ खोजना-बीनना है. उनके मन में घाघ-भड्डरी
जैसे लोकोक़्तिकारों तक के प्रति भी एक गहरा विनय है, उनके
प्रदेय के प्रति गहरी अनुशंसा है, खेती-किसानी, हल-बैल, जुताई-बुवाई, निराई, सिंचाई, कटाई, मड़ाई और
ओसाई व किसानों के सखा नक्षत्रों--यथा आर्द्रा, उत्तरा, पूर्वा, पुनर्वसु
और पुष्य के साथ वे अपनी कविता की ज़मीन खोजते हैं. जिस कविता से नए अनहद का उद्घोष
कवि ने किया है, वह अवधी में उपनिबद्ध है--वही अवधी जिसमें
तुलसी और जायसी ने समाज को अपनी सिद्ध रचनाएं दी हैं. नया अनहद में मन में
बसे एक छतनार वॄक्ष की कल्पना कवि ने की है, जिस पर
हमारे पक्षियों-प्राणि-प्रजातियों का बसेरा है, पारस्परिक
अनुराग में निबद्ध एक ऐसे सामुदायिक सौहार्द का रूपक है यह नया अनहद जहाँ
चार-चार गुइयों के अटूट मिलन भर से जग से अत्याचार मिट जाता है. दिनेश कुमार शुक़्ल
का कवि चौकन्ना है, वह बाजारवाद की विभीषिका और विश्वग्राम की
संकीर्णताओं पर क्रिटिकल रुख अख्तियार करता है, वह कहता
हैः वस्तुएं थीं, पैकेजिंग थी, ब्रांड थे/ च्वाइस बहुत थी और क्रेडिट कार्ड
थे/सर्वव्यापी एक मुद्रा थी--अभय मुद्रा, भूमि मुद्रा, वज्र
मुद्रा और मुद्राराक्षस कीटाणु भर कम्प्यूटरों में हँस रहे थे (वस्तुओं का व्याकरण) .
हिंदी कविता ने अनेक दिग्गजों को हाशिए में ढकेला है तो अनेक नवागतों
का स्वागत हृदय से किया है. घर घर घूमा से कविता में पदार्पित लीलाधर
मंडलोई ने कविता को उन आवाजों से भरा और सिरजा है
जिनके पास श्रम और कर्मठता का पसीना है, अपनी जमीन बेशक नहीं पर उनके अंत:करण का कोना करुणा और मानवीय
संवेदना से सदैव प्रशस्त रहा है. अब तक के कविता कर्म में एक दर्जन भर संग्रह दे
चुके मंडलोई कविता के शाश्वत साधक हैं. वह उनकी शख्सियत में ही अनुस्यूत है.
उनकी कविता में एक तरफ गद्य की बांध लेने वाली सत्ता है तो दूसरी तरफ कविता की
वाचिक अदायगी में एक तरह की प्रगीतात्मकता का आवेग भी है गोकि अन्त्यनुप्रास
वहां न के बराबर है. मंडलोई ने अपने लेखकीय जीवन की वर्णमाला अभावों और संघर्षों
की पाठशाला से सीखी है, इसलिए उनकी कविताओं में जनजातियों के बे-आवाज उल्लास के
साथ-साथ हाशिए पर फेंके गए समाज के आत्मसंघर्ष को सेंट्रल स्प्रेड देने की कोशिश
मिलती है.
काल
बॉंका तिरछा में वे गरबीली गरीबी में साँस लेते मानव की अस्तित्व-हीनता
की उस दुर्लभ अनुभूतियों से रु-ब-रु होते हैं, जिनसे गुज़रते हुए सुचिक्कन
जीवन शैली के अभ्यस्त कवियों को संकोच होता है. कवि के सरोकारों का तेज जिन
कविताओं में प्रखर है, उनमें चोखेलाल-सीरीज़ की कविताएँ हैं जो आम आदमी का
प्रातिनिधिक चरित्र है, मृत्यु का भय, कस्तूरी, पराजयों के बीच, अनुपस्थिति, मैं इतना अपढ़ जितनी
सरकार, उन पर न कोई कैमरा, आपको क्यूँ नहीं दीखता, झाँकने को है एक
अजन्मा फूल
और अमर कोली प्रमुख हैं. ‘मृत्यु का भय’ से अचानक धूमिल की वह कविता कौंधती है जिसमें नौकरी छूटने
वाले व्यक्ति की पीड़ा बयान है. ‘कस्तूरी’ में एक स्त्री की संभावनाओं का दुखद अंत ही नहीं है, मानवीय सभ्यता की
हिलती हुई शहतीरों पर प्रहार भी है. पर इन सब कविताओं के कथ्य के पीछे कवि की एक
अंतर्दृष्टि सक्रिय है, जिसका संकेत पराजयों के बीच में मिलता है. यह कविता
जैसे कवि का अपना मेनीफेस्टो है, जहाँ वह मुखर और प्रखर होते हुए कहता है, 'ईश्वर के भरोसे छोड़
नहीं सकता मैं यह दुनिया.' उसके लिए छोटी-सी चींटी भी उम्मीद का दूसरा नाम है. वह कौल उठाता
है 'मुमकिन है टूट पड़े
कानून का कहर/कम से कम मैं एक ऐसा समाचार तो बन ही सकता हूँ/कि बंद पलकों में एक
सही हरकत दर्ज हो/ बंद कपाटों में ऐसी हलचल कि सोचना शुरू हो'. मंडलोई के
काव्यात्मक गुस्से की भंगिमाएँ देखनी हों तो ‘आपको क्यूँ नहीं दीखता’ और ‘अमर कोली’ जैसी कविताएँ जरूर
पढ़नी चाहिए. तबेले में पशुवत जीवन जीते हुए मवेशियों के हालात का चित्र खींचते हुए
मंडलोई ने दुधारू पशुओं के प्रति क्रूरता का मार्मिक उदाहरण कविता के रूप में रखा
है जो हमारी उत्तर आधुनिक हो रही सभ्यता की अचूक स्वार्थपरता का तीखा उदाहरण है.
अपनी कविता प्रविधि में सुगठित, कथ्य में तल्ख और विचारों से प्रगतिशील कवि कुमार अम्बुज
का संग्रह अमीरी रेखा आज के समय को रेखांकित करने वाले कुछ चुनिंदा
कविता संग्रहों में एक है. हमेशा से जिरह और संवेदना के नाजुक तारों को मिलाती हुई कुमार अम्बुज की
कविता मनुष्यता के उत्तरोत्तर अधोपतन से लेकर राजनीतिक और नैतिक उच्चादर्शों
के भीतरी विचलनों पर एक कवि के अचूक अवलोकनों का साक्ष्य उपलब्ध कराती है. तानाशाह
को लेकर हिंदी में कविता लिखने का खूब चलन रहा है. बहुत उबाऊ किस्म की बयानबाजी
से लेकर जनवादी लटके झटकों वाली कविताओं तक--- किन्तु अम्बुज की 'तानाशाह की पत्रकार वार्ता' का मिजाज बिल्कुल अलग है. उसे
हू बहू उद्धृत करना अम्बुज की उस हिकमत की थाह लेना है जो अभिधा की ताकत से पैदा
हुई है:
वह हत्या
मानवता के लिए थी
और यह सुंदरता के लिए
वह हत्या अहिंसा के लिए थी
और यह इस महाद्वीप में शांति के लिए
वह हत्या अवज्ञाकारी नागरिक की थी
और यह जरूरी थी हमारे आत्मविश्वास के लिए
परसों की हत्या तो उसने खुद आमंत्रित की थी
और आज सुबह आत्मरक्षा के लिए करनी पड़ी
और यह अभी ठीक आपके सामने
उदाहरण के लिए
कुमार अम्बुज की कविता सोचती हुई कविता है. वह
हमारे समाज का जस का तस आईना नही है,
वह उम्मीदों,
प्रार्थनाओं और हताशाओं से बनी है . वह भाषा के फलदार वृक्ष के लिए उद्विग्न रहने
वाली कविता है,
जिसकी डालियॉं छूने भर से झुकने को आतुर दिखती हैं. उसके हृदय की अविरल गहराइयों
में जंगल,नींद,तारे,
सफलताओं, विफलताओं, सभी के लिए जगह है. वह बेजान
चीजों से भी कुछ जरूरी कहने का रास्ता निकाल लेती है. गिरते उड़ते पत्ते, पत्थर हूँ, संग्रहालय, और 'राख'
में उनकी यही कोशिश दिखती है. सहनशीलता,
कृतज्ञता, संस्कार, सभ्यता, स्मृति और मानव-स्वभाव की
पेचीदगियों से अपनी इन सोचती हुई कविताओं के जरिए अम्बुज ने हिंदी के काव्यास्वाद
को फिर एक नया उत्कर्ष दिया है और मुश्किलों में भी जीवन की खोज को वरीयता दी है.
राजेश जोशी और मंगलेश डबराल की पीढ़ी के बाद के कवियों में कुमार अम्बुज ने न
केवल अपनी पहचान निर्मित की है,
बल्कि भाषा और शिल्प की सलवटों को बारीकी से सँवारा है.
नए
इलाके में अरुण
कमल की काव्य यात्रा का एक महत्वपूर्ण मोड़ था तो मानवीय अंतर्दृष्टि पुतली में संसार में और सघन,ऐंद्रिक तथा हृदय-द्रावक हुई है.
कहना न होगा कि अरुण कमल की दुनिया दिनों¨दिन परिपक्व होती हुई बोध कथाओं
में ढल रही है---सुभाषितों की तरह हमारी स्मृति में उतर रही है. उनके लिए ऐसा
इसलिए संभव है क्योंकि वे महज शब्दों से नहीं, रक्त और धमनियों के संबंध की
तरह जनसाधारण से जुडते हैं. एक-एक कतरा अनुभव के लिए वे साधारण से साधारण विषय के
पास जाते हैं--निम्न से निम्न और निर्बल से निर्बल व्यक्ति से मिलते हैं, तभी वे यह महसूस कर पाते हैं कि
दुनिया में इतना दुख है इतना ज्वर/ सुख के लिए चाहिए बस दो¨ रोटी और एक घर/ और वही दिन ब दिन मुश्किल पड़ रहा है (पुतली
में संसार, आत्मकथ्य/पृष्ठ 58)
अरुण
कमल मानवीय अंतःकरण का निरन्तर परिष्कार करने वाले कवि रहे हैं. पुतली में
संसार इस दिशा में अग्रगामी कदम है. अरुण कमल का जीवन बोध निरन्तर उन्नत और
परिष्कृत हुआ है. अपने समय और समाज को समझने
की प्रविधि पैनी हुई है. उनके अनुभव के आकाश का चाँद अनूठा है--
मैं जब उठूँ तो भादो हो¨
पूरा चंद्रमा उगा हो¨ ताड़ के फल सा
गंगा भरी हो धरती के बराबर
खेत धान से धधाए
और हवा में तीज-त्योहार की गमक
इतना भरा हो¨ संसार
कि जब उगूँ तो चींटी भर जगह भी खाली न हो. (पुतली में संसार, इच्छा, पृष्ठ 100)
इस
कविता की उठान लगभग रघुवीर सहाय जैसी है--सन्नाटा छा जाए जब मैं कविता सुनाकर उठूँ.
किन्तु शेष कवि-कल्पना उनकी अपनी है--यथार्थ की खुरदुरी परत को चीरती - भेदती कोमल
इच्छा का प्रतिफलन. इस तरह किसी जड़ीभूत सौंदर्याभिरूचि के विरुद्ध अरुण कमल
कविताओं में देशज और गतिशील वृत्तांत रचते हैं. उर्वर प्रदेश में उनका मन
जलकुंभी की उर्वरता(हरीतिमा) पर लुब्ध हो उठा था. यहाँ वे धान से धधाए खेत के
अभिलाषी हैं--एक हरी-भरी दुनिया के आकांक्षी. वे शोषण, अन्याय, असमानता, बेबसी, लाचारी, दैन्य और नैतिक स्खलनों की
बारीक से बारीक चीख सुनने वाले कवि हैं. लेकिन उस चीख को किसी नारे में बदलने के
ख्वाहिशमंद नहीं हैं. उनकी कविता ऐसी तमाम खामोश पुकारों और हाशिए की आवाजों को¨ सुनती है जो दुनिया के शोरगुल
में बिखर जाती हैं. तभी तो कौर तोड़ते ही कवि को लगता है---कोई पुकार रहा है :
जैसे ही कौर उठाता हूँ
कोई आवाज देता है.
जनपदीयता, लोक चेतना तथा जनवाद का हल्ला बेशक कविता में पिछले
दिनों ज्यादा रहा है, सच्चे अर्थों में जनता की सुध लेने वाले कवि इने
गिने हैं. कविता और लोक पर सबसे ज्यादा गोलबंद कवियों के यहाँ भी लोकोन्मुखता का
दावा ही ज्यादा दिखता है, लोक के सुख दुख,लोकचर्या और लोकाचार को लेकर सच्ची कविता का प्रायः अभाव रहा है. इसी
हवा में अपनी भी दो चार साँस है शीर्षक संग्रह के रचयिता अष्टभुजा शुक़्ल
लोकचेतना के ऐसे विरल कवियों में हैं जिन्हें जनचित्त को पहचानने की अचूक शक़्ति है, समाज में फैली नाना विसंगतियों से जिनका अपना भी वास्ता है, जो जनता के बीच जनता की ही तरह रहते आए हैं, खेती-किसानी में रमे रहते हुए कवित्त को भी साधा है, तथा भारतीय जनता की ही तरह सादगी संपन्न होते हुए भी सारी दुनिया
ठेंगे पर रखने के मिजाज को भी बचाए रखा है. कहा जाना चाहिए कि त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन तथा नए कवियों में ज्ञानेन्द्रपति
सरीखी जनपदीयता फिर एक बार अष्टभुजा जी के यहाँ ही फलवती हुई है.
अष्टभुजा में विनोदी वॄत्ति है, शब्दों, पदों, वाक़्यों की संगति-असंगति और उनकी समानांतर रगड़ से
उपजती अर्थध्वनियों को पकड़ने- भाखने की अचूक शक़्ति भी. वे कविता में वाचिकता के
गुणों के हामी हैं. छंद जितना भी सधे, साधने की चिंता उन्हें रहती है, उनके छंदों का कविताओं से गहरा नाता है, बिगाड़ नहीं है. उनमें छंदों से ऊब नहीं है. वे छंदों, पदों और अन्त्यानुप्रासों का पूरा मजा लेते हैं, बशर्ते कि कोई उम्दा बात निकल कर आए. तद्भव और तत्सम का फ्यूज़न भी
उनके यहाँ देखते ही बनता है. शब्द उनके यहाँ दरेरा देकर आते हैं और पाठक को आनंद
और उत्तेजना से भर देते हैं. अष्टभुजा शुक़्ल की कविता सर्वानुमति में सिर हिलाने
वाली कविता नहीं है, वह सुकुमारता से गढ़ी गई कवि-कल्पना के विपरीत
प्रतिपक्ष में हाथ उठाने वाली कविता है. इसी हवा में अपनी भी दो चार
सांस है गए डेढ़ दशक के कुछ चुनिंदा संग्रहों में है,
इसमें संदेह नहीं.
कविता में आठवां दशक
जिस तरह से उर्वर रहा है, इक्कीसवीं शती के गए डेढ दशक के अनेक
कवियों में संवेदना की वह ताकत है जिसने हिंदी कविता को एक नया परिप्रेक्ष्य दिया
है. इन कवियों में अनामिका, अनीता वर्मा, सविता सिंह, पवन करण, प्रेमरंजन अनिमेष, नीलेश रघुवंशी,
प्रियदर्शन, एकांत श्रीवास्तव, आशुतोष दुबे, गीत चतुर्वेदी, यतींद्र
मिश्र, अरुण देव, प्रभात, कुमार अनुपम और बाबुषा कोहली प्रमुख हैं. अनामिका के कई संग्रह इसी
अवधि में प्रकाशित हुए. दूब धान, खुरदुरी
हथेलियां और टोकरी में
दिगंत: थेरी गाथा.
खुरदुरी हथेलियां में अनामिका के यहाँ स्त्री अंतःपुर से
बाहर आती हुई तथा अपने दुख, अवसाद, अकेलेपन
तथा संत्रास को भूल कर तमाम तरह के चरित्रों से बोलती बतियाती और उनके सुख-दुख में
शामिल दिखाई देती है. बिहार में जन्मी, फली और बढ़ी अनामिका की अंतश्चेतना में
गँवई और घरेलू चरित्र तथा उनकी बोली-बानी के चीन्हे-अचीन्हे संवाद भी उसी पुलक से
समाए होते हैं, जिस विदग्धता से उनके बौद्धिक मानस में
देश-विदेश की घटनाएं हलचल मचाती हैं. अपने समूचे विट और चपल वाग्वैभव का अहसास
कराती अनामिका की कई कविताओं का पाठ कभी कभी खुरदुरी हथेलियों-सा खुरदुरा भी लग
सकता है, किन्तु ये अलग प्रजाति की कविताएं हैं, यह अलग
प्रकार के अनुभवों की दुनिया है, जिसे सजाने के लिए अनामिका आख्यानों, बतकहियों, परंपराओं
और जनश्रुतियों का पूरा सहयोग लेती हैं. फिर भी यह कहना जरूरी है कि वे उन
कवयित्रियों में नहीं हैं जो अपनी ही बनाई दुनिया के अवसाद और अकेलेपन का विषण्ण
राग गाती हुई निःशेष हो जाती हैं, बल्कि समाज के खटराग के बीच उठती हुई धुन
को जीवन के वस्तुनिष्ठ संसार में सहेजती हुई चलती हैं. ऐसे में बहुतेरे जनपदीय और
कस्बाई शब्द उनकी स्मॄति में बजते हुए महानगर के उनके जीवनानुभवों में शामिल हो
लेते हैं.
अनीता वर्मा अपने
पहले ही संग्रह ‘एक जन्म में सब’ से चर्चा में आई थीं. अवसाद और उदासियों की हल्की
–हल्की थाप से रची अनीता की कविताओं का
एक अलग ही संसार है जो अन्य समकालीन कवयित्रियों से उन्हें अलग करता है. रोशनी
के रास्ते पर अनीता वर्मा का दूसरा संग्रह है जो न केवल अनीता की कविताओं में
एक अलग रंग भरता है बल्कि इस अवधि की कविताओं में वे अलग पहचान बनाती हैं. अनीता वर्मा
की कविताओं में हर मानवीय चीख के लिए चिंता और व्यथा है, चाहे वह
बहशियों के बीच चीखती स्त्री के मासूम स्वप्नों का बिखरना हो या ठंड में काँपते
रिक़्शेवाले की फटी कमीज़. एक और प्रार्थना की पंक़्तियों में व्यक्त क्षोभ
हमारी संवेदना को अचानक विचलित कर देता हैः
प्रभु मुझे मुक़्त
करो/ एक प्रसन्न संसार के लिए/ उस ग्लानि से कि मैं मँहगी शाल ओढ़ सकूँ/ और मेरी
नींद रिक़्शे पर पड़ी रहे.
उपभोक़्तावादी संसार में जहाँ आदमी के भीतर से संवेदना की नदी सूखती जा रही है, कवयित्री एक दुस्साहसिक कल्पना करती हैः
कुछ दिनों बाद शायद बनाए जाएं विज्ञापन/ खरीदिये एक पूरा आदमी भाव प्रेम और संवेदना से भरपूर( विज्ञापन).
उपभोक़्तावादी संसार में जहाँ आदमी के भीतर से संवेदना की नदी सूखती जा रही है, कवयित्री एक दुस्साहसिक कल्पना करती हैः
कुछ दिनों बाद शायद बनाए जाएं विज्ञापन/ खरीदिये एक पूरा आदमी भाव प्रेम और संवेदना से भरपूर( विज्ञापन).
देखने की बात यह है
कि न तो वे गगन गिल की तरह हैं न अनामिका
की तरह. न सविता सिंह जैसी. गगन गिल की
कविताओं में भी एक अनूठी तराश मिलती है तो उदासियों का एक अजाना संसार जो कभी
बुद्ध के बहाने खुलता है, कभी स्त्री की अलक्षित आकांक्षाओं के
जरिए. अनामिका में जीवन की उत्सवता भी है, स्त्री
की पीड़ा को शब्द देने की कोशिश भी.
सविता सिंह ने अपने
जैसा जीवन से शुरुआत की थी. उसके बाद उनके दो महत्वपूर्ण संग्रह इसी डेढ़ दशक
की उपलब्धि हैं. पर स्वप्न समय में वे एक महत्वपूर्ण कवयित्री
के रूप में सामने आती हैं. आधुनिक और निरंतर चंचल होते इस समय में आजादी की
जिस आबोहवा में आज की स्त्रियॉं सांस ले रही हैं, यह सोचना अप्रत्याशित लगता है
कि सविता सिंह की कविताओं की ये स्त्रियां आखिर किस समाज से आती है जो आज भी नीर
भरी दुख की बदली में पल पुस रही हैं. यों तो इन कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि
स्त्री का जीवन दुखों की पोटली ही है. तब भी ‘सपने और तितलियॉं’, ‘चॉंद तीर और अनश्वर स्त्री’ व ‘स्वप्न के ये राग’ जैसी लंबी कविताऍं अलग से ध्यातव्य हैं. आत्मीयताओं से वंचित और
अपूर्ण इच्छाओं की पांडुलिपियों जैसी लगती स्त्रियॉं यहॉं अपने स्वाभिमान व अस्तित्व
के लिए संघर्षरत दिखाई देती हैं ---यह कहती हुई कि :
मैं स्वयं काम हूँ स्वयं रति
अनश्वर स्त्री
संभव नहीं, नहीं मृत्यु मेरी.
सविता सिंह की कविताओं में स्त्री स्मिता को लेकर जो विषण्ण राग आद्यंत पसरा हुआ है, उसकी शिनाख्त यहॉं भी की जा सकती है. वे उन आधुनिक स्त्रियों की नुमाइंदगी करती हैं जो अपने अवचेतन में व्याप्त स्त्रियों की दुनिया का एक रूपक गढ़ती हैं और उसे गहरे स्याह संवेदन और नीले रंग से रंगती हैं. इस संवेदना का रंग शहरी कवयित्रियों में कहीं ज्यादा प्रगाढता से मिलता है. आधुनिक सभ्यता के इस मोड़ पर भी स्त्रियॉं एक टीस के साथ जीवन बिता रही हैं, सोच कर दुख होता है. दुख होता है कि दुस्वप्न का यह राग स्त्रियॉं सदियों से गाती चली आ रही हैं. ये कविताऍं बताती हैं कि भौतिक संपन्नता और आधुनिकता की चेतना से लैस इस युग में भी स्त्री अपनी इच्छाओं से अनुकूलित नहीं है. वह जीवन को एक स्वप्न की तरह जीती है---और स्वप्न को जीवन की तरह---स्वप्न चाहे कितने ही मोहक हों, भोर होते ही स्मृतियों की हथेलियों से चू पड़ते हैं. ‘स्वप्न समय’ को पढ़ना आधुनिक मध्यवर्ग की स्त्रियों के अलक्षित अंत:संसार से गुज़रना है.
मैं स्वयं काम हूँ स्वयं रति
अनश्वर स्त्री
संभव नहीं, नहीं मृत्यु मेरी.
सविता सिंह की कविताओं में स्त्री स्मिता को लेकर जो विषण्ण राग आद्यंत पसरा हुआ है, उसकी शिनाख्त यहॉं भी की जा सकती है. वे उन आधुनिक स्त्रियों की नुमाइंदगी करती हैं जो अपने अवचेतन में व्याप्त स्त्रियों की दुनिया का एक रूपक गढ़ती हैं और उसे गहरे स्याह संवेदन और नीले रंग से रंगती हैं. इस संवेदना का रंग शहरी कवयित्रियों में कहीं ज्यादा प्रगाढता से मिलता है. आधुनिक सभ्यता के इस मोड़ पर भी स्त्रियॉं एक टीस के साथ जीवन बिता रही हैं, सोच कर दुख होता है. दुख होता है कि दुस्वप्न का यह राग स्त्रियॉं सदियों से गाती चली आ रही हैं. ये कविताऍं बताती हैं कि भौतिक संपन्नता और आधुनिकता की चेतना से लैस इस युग में भी स्त्री अपनी इच्छाओं से अनुकूलित नहीं है. वह जीवन को एक स्वप्न की तरह जीती है---और स्वप्न को जीवन की तरह---स्वप्न चाहे कितने ही मोहक हों, भोर होते ही स्मृतियों की हथेलियों से चू पड़ते हैं. ‘स्वप्न समय’ को पढ़ना आधुनिक मध्यवर्ग की स्त्रियों के अलक्षित अंत:संसार से गुज़रना है.
अपने देश समाज और मातृभूमि से प्यार करने वाले कवि के पास लोक का वह
अनुभव होता है जिसे वह समाज के भीतर धँस कर प्राप्त करता है. एकांत श्रीवास्तव
इसी लोक के कवि हैं जिनके संग्रहों के नाम ही हम देखें तो यह पता चलता है कि यह
कवि अन्न, मिट्टी, बीज और फूल से होता हुआ फिर धरती से मुखातिब है---यह कहता हुआ
कि 'धरती अधखिला फूल है.' पिछले संग्रह से लगभग एक दशक बाद आए इस संग्रह
में निहित संवेदना के तरल प्रकाश में गए दस वर्षों का कविता-समय समाहित है. एकांत
अपने समकालीनों में बिल्कुल अलग हैं. उन्हें पढते हुए लगता है इस कवि का लालन-पालन
लोकगीतों की उर्वर उपत्यका में हुआ है. करुणाकलित हृदय से निकली पुकार की तरह ये
कविताऍं अनुगूँज बन कर हमारा पीछा करती हैं. खदान में काम करने वाले बच्चे, स्त्री या कामगार हों या ट्रेन में सिक्के गिनता हुआ अंधा भिखारी
--एकांत श्रीवास्तव मानवीय पीड़ा के एक एक क़तरे को पहचानते हैं. 'ग्वालिन महकती है रात में' शीर्षक खंड की 'डूब' कविता सभ्यताओं को निगलते इस समय की निर्ममता
का आख्यान है. जल की सतह पर डूबे हुए एक आदमी के हाथ की ओर इशारा करती हुई यह
कविता अंतत: मनुष्य के डूबते उतराते अस्तित्व की लड़ाई का हिस्सा है. कभी कभी
सोचता हूँ लोकधुनों, लोकवार्ताओं और मनुष्य के मामूली-से सपनों और
इच्छाओं को स्वर देता हुआ यह कवि आखिर किसके लिए लिखता है, किसके लिए गाता है और किसके कंधे पर रुई के फाहे की तरह भरोसे से
अपना हाथ रखता है, तो इस कवि की कविता 'बुलबुल का गीत' में मुझे उसका प्रत्युत्तर मिल जाता है: मैं उन झाड़ियों के लिए गाती हूँ/जिनकी जड़ें
मिट्टी में गहरे धँसी हैं/मैं कठिन पठार में उगे उन पेड़ों के लिए गाती हूँ/जो
भीतर पृथ्वी के गहरे कुंड से/अपने लिए जल खींचते हैं.
समकालीन कविता में आवाजों का कोरस समाया है. कुछ आवाजें बहुत दमदार
होती हैं—चीख और आक्रोश की हदों को छूती हुई तो कुछ रोजमर्रा के जीवनव्यापी
कथ्य से वस्तुनिष्ठता के निष्ठापूर्ण चित्रण में निमग्न. कुछ महीन आवाजें ऐसी भी
जो अपने आसपास के संसार से मामूली से मामूली कथ्य को अपनी संवेदना में उतारती हुई
प्रतीत होती हैं. आशुतोष दुबे इसी संवेदना के कवि हैं. बौद्धिक अतिरेक से
कविता के कंधे भले ही मजबूत दिखें, उनका आत्म बल
कमजोर होता है. इस अर्थ में आशुतोष बुद्धि बल के नहीं, आत्मबल
के कवि हैं. उनकी कविता पहली मुलाकात में कुछ अटपटी लग सकती है, क्यों
कि वह उद्धरणीय नहीं है, किन्तु अपने
पूरे और थिर पाठ में आहिस्ता आहिस्ता मघई पान की तरह हमारी अंतश्चेतना में घुलती
है. उनका संग्रह विदा लेना बाकी रहे कविता में उनके इसी आत्मबल का साक्ष्य
है.
संयोग से कविता की जिस उर्वर परिधि में देवीप्रसाद मिश्र, गीत
चतुर्वेदी या प्रेमरंजन अनिमेष आते हैं उसी परिधि में आशुतोष दुबे भी आते हैं. 'चोर
दरवाजे से' 'असंभव सारांश' और 'यकीन की आयतें' के बाद 'विदा लेना बाकी रहे' के माध्यम से आशुतोष ने कविता की कुछ और अलक्षित शक्तियों,
रुपकों, उपमेय, उपमानों, उत्प्रेक्षाओं और प्रत्ययों से परिचित कराया है. भाषिक
अपव्यय से बचते हुए आशुतोष दुबे लगातार अपने सामने मितकथन का मानक रखते हैं और
अभिव्यक्ति को बहुत ही नुकीले-सधे और सँवरे रूप में प्रस्तुत करते हैं. वे अलग
रंग और ढब के तथा बारीक बीनाई के कवि हैं. उन्होंने शब्दों में प्राणवत्ता की
सांस फूँकी है. आशुतोष स्थूलता के चितेरे नहीं, अंत:करण
की स्वच्छ, निर्मल पाटी पर पड़ते कोमल आघातों, स्पंदनों, आंसुओं, झरनों, हिलाते-झकझोरते-जगाते
शब्दों, आवाजों, व्यग्रताओं, चपलताओं
और छायाओं को चुनने-बीनने वाले कवि हैं. वे परिपाटी से अलग चलते हुए कविता को
समकालीनता की व्याधियों और रूढ़ियों से बचाना चाहते हैं.
स्त्री विमर्श और
दलित विमर्श पिछले डेढ़ दशक से हिंदी कविता और कहानी के केंद्र में रहा है. लिहाजा कविताओं में भी
उसकी बानगी देखने को मिलती है. पवन करण का संग्रह स्त्री मेरे भीतर इसीलिए
अपने समय में बेहद चर्चित संग्रह रहा कि पहली बार स्त्री की अभिव्यक्ति को लेकर
पवन करण इतना खुल कर सामने आए. इस संग्रह में एक नई स्त्री उभरती हुई प्रतीत होती
है. भाभी का प्रेमी, बहन का प्रेमी जैसी कविताओं ने स्त्री विमर्श के नए द्वार खोले. जो बातें स्त्री
अपनी कविताओं में खुल कर नहीं कह सकती थी, पवन करण
ने कल्पना और यथार्थ के ताने बाने में बुनते हुए कहीं. इन कविताओं की खुल कर
चर्चा हुई . इसका दूरगामी असर यह हुआ कि आज स्त्रियॉं भी बहुत बेबाकी से अपने
बारे में, पुरुष वर्चस्व के विरोध में लिख रही हैं.
2003 के आसपास आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल की कविताएं नगाड़े की तरह बजते
शब्द शीर्षक से प्रकाशित होकर चर्चित
हुईं. पहली बार किसी आदिवासी कवयित्री ने आदिवासियों, आदिवासी
स्त्रियों के शोषण की दास्तान अपने शब्दों में लिखी. भले ही वे संथाली कवयित्री
के रूप में पहचानी गयी हों किन्तु हिंदी में छपने के कारण वे हिंदी समाज में एक
हिंदी कवयित्री के रूप में समादृत हुईं . भारतीय ज्ञानपीठ से ही आया बोधिसत्व का
संग्रह दुख तंत्र मठों मंदिरों में जीवन बिताती देवदासी सरीखी स्त्रियों
के दुखतंत्र का बयान है. जिस तरह के काल्पनिक कथालोक के साथ बोधिसत्व ने ये
कविताएं लिखी हैं , वे हम जो नदियों का संगम हैं तथा सिर्फ कवि नहीं जैसे उनके संग्रहों
से ज्यादा चर्चित हुईं.
जितेंद्र
श्रीवास्तव अपने समकालीनों में अपनी कविता और आलोचना के लिए सर्वाधिक सम्मानित
होने वाले कवियों में हैं. कायांतरण इस दरम्यान प्रकाशित उनके बेहतरीन
संग्रहों में एक है. अक्सर लोक-लालित्य, गांव और देश की कविताएं लिखने
वाले जितेंद्र में एक सांस्कृतिक समावेशिता दिखती है. वे लोकधुनों से प्रेरणा
लेते हैं, अपने लोकेल की स्थानीयताओं
को चित्रित करते हैं पर जब दिल्ली की बात आती है तो वे कहते हैं : दिल्ली में
एक और दिल्ली है लुटियन की दिल्ली/जहाँ पहुँचते ही आत्मा अपना वस्त्र बदल लेती है .
जितेंद्र की कविताओं में एक घरेलूपन है जो उनकी घर प्रतीक्षा करेगा जैसी
कविता से प्रकट होता है; उसमें देशज भंगिमा है. वह बतियाती मुद्रा में प्रतीत होती है.
उनकी कविताओं में अनेक पहचाने चरित्र आते हैं, अनेक देखी सुनी जगहें आती हैं
जिनके ब्यौरे पढ़ते हुए हम कवि के सरोकारों से रूबरू होते हैं.
युवा कवियों में प्रेमरंजन अनिमेष ने मिट्टी के फल से एक विशेष
आशा जगाई. दूध से भारी और पीड़ा से भरी उनकी कविताओं में जीवन को बारीकी से समझने
की शक्ति है. इसी के साथ संजय कुंदन की कविताओं ने भी कविता का एक विशेष वातावरण
निर्मित किया. घर निकासी से चर्चा में आई नीलेश रघुवंशी के दो संग्रह इस
बीच आए. पानी का स्वाद और अंतिम पंक्ति में. पानी का स्वाद
में उनका मातृत्व बोध कविता की कई शक्लें अख्तियार करता है तथा उन
तमाम नए अनुभवों से कविता को जोड़ता है जो उसके लिए अब तक अछूते रहे हैं. मदरिंग
हाइट्स की ऐसी अनुभूतियां पहली बार तफसील से कविता में आ सकीं.
संजय कुंदन का एक बेहतरीन संग्रह योजनाओं का शहर हाल ही में
आया है . यह विट और वक्रताओं का एक दुर्लभ उदाहरण है. अपने समय की मुश्किलों का बयान करने वाली संजय
कुंदन की कविता किसी कातर की आर्त पुकार में अपना स्वर नहीं मिलाती, निरीहता की हद तक नीचे उतर कर
प्रार्थना की भाषा में तब्दील नहीं हो जाना चाहती, बल्कि
यह आहिस्ता आहिस्ता अपने प्रभावक स्वर में किसी भी सु-व्यवस्था के चरमराते
हुए ढांचे को देख कर खिलखिला कर हँस पड़ती है जैसे कभी कभी समझौते के तहत लोगों की 'हॉं' में 'हॉं' मिलाते देख कवि की आत्मा खिलखिला उठती है. अशोक वाजपेयी ने कभी प्यार के
लिए 'थोड़ी
सी जगह' की
ख्वाहिश जताई थी, संजय
कुंदन 'थोड़ी
सी जगह' की
ख्वाहिश में जहॉं-जहॉं हाथ रखते हैं, 'हटो
हटो' की
दुत्कार सुनाई देती है. दो पीढ़ियों के कवियों में इस ‘थोड़ी सी जगह’ को
लेकर जो अंतराल और वैपरीत्य है, वही
आज के कवियों की अंतर्दृष्टि को पिछली पीढ़ियों के कवियों की अंतर्दृष्टि से अलग
करता है:
एक कागज भी नहीं देता जगह
उस पर हाथ रखो तो कहता है
उसे अभी अभी बनना है एक पोस्टर
एक ईंट की ओर देखो तो कहती है
उसे अभी अभी बदल जाना है एक बहुमंजिले मकान में
मैने सोचा इतिहास में जरूर बची होगी थोड़ी जगह
वहॉं पहुँचते ही प्रकट हुए एक देवता
बोले---यहॉं बैठेगी सिर्फ मेरी जनता.
हमारे समय में समसामयिकता
का इतना बोलबाला है कि कोई कवि जब अपनी परंपरा से जुड़ता है तो उसे किंचित संशय की
निगाह से देखा जाता है. लेकिन उसी परंपरा से आती हुई सदियों के आगे की आवाज़ को
सुनता हुआ कवि जब कबीर जैसे कृती कवि की बगल में बैठ कर उससे संवादमयता का एक सघन
रिश्ता बनाता है तो जैसे कवि के शब्दों में कृतज्ञता का सत्व उतर आता है. ''विभास'' में यतीन्द्र मिश्र कबीर जैसे
जुलाहे कवि से शब्दों को बुनने गुनने और रचने का सलीका सीखते हैं जो उनके इस
संग्रह में मुखरता से दीख पड़ता है. कबीर की अनहद सुनते हुए वे जब कबीरी प्रत्ययों
को आज के आलोक में बरतते हैं तो जैसे काल का सदियों का अंतराल सिमटता हुआ महसूस
होता है.
इन कविताओं में अशोक वाजपेयी ने अनश्वरता के उजाले की खोज की है तो लिंडा हेस ने कबीर के प्रतिबिम्बों के एक नये आभास की बुनावट लक्षित की है. कबीर मर्मज्ञ पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इन कविताओं में कवि के खुद के अनुभवों को कबीर की वाणी के आलाप में ढलते देखा है. मनीष पुष्कले कहते हैं, इन कविताओं की साख—कथन की कथरी, बिरह के बीज और रहस्य की राख़ से ओतप्रोत है और कबीर को गाने वाले प्रहलाद सिंह टिपान्या इसे यतीन्द्र के अंतर की अभिव्यक्ति मानते हैं. कभी देवीप्रसाद मिश्र ने एक बातचीत में यह कहा था, 'यतीन्द्र की कविताओं में अवध की कूक, अवसाद और वक्रता है.' गुलजार ने ऐसा ही भरोसा यतीन्द्र में जताया है. एक सम्मोहित आलोक से भरी यतीन्द्र की कविताओं से गुजरते हुए लगता है, यह युवा कवि है तो सगुण भक्ति वाले राम की अयोध्या में जनमा, जहॉं लोक में यह श्रुति है कि 'हम ना अवध मा रहबै हो रघुबर संगे जाब.‘ ---पर निरगुनिया कबीर के पड़ोस में बैठ कर वह जैसे उन्हीं की साखियों को सदियों बाद अपने शब्दों में उलट-पुलट रहा है.
पिछली
डेढ सदी में जैसा कि कह चुका हूं एक ऐसे नए कवि समूह का आगमन हुआ है जिसके पास नया
रचने का सामर्थ्य है. वह वैश्विक हलचलों, धार्मिक जातीय उन्माद और
फासीवादी कट्टरताओं, कला साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में व्याप रही
संकीर्णताओं आर्थिक सुधारों व उदारतावाद के फलस्वरुप पूंजी के नए दमनचक्र से पूरी
तरह वाकिफ है. वह कविता के इलाके में किसी सुखवाद की खोज में नहीं आ पहुंचा है बल्कि
कविता के कार्यभार की नई समझ के साथ परिदृश्य में हस्तक्षेप करते हुए दाखिल हुआ
है. गीत चतुर्वेदी ऐसी ही विरल विशिष्टताओं के कवि हैं जिनके संग्रह आलाप में
गिरह ने कविता के क्षेत्र में एक नए लहजे आग़ाज किया है. कविता को जो लोग
हमारी सभ्यता का पिछवाड़ा कह कर निंदित करते आए हैं, उन्हें क्या मालूम कि हमारे
समय की महान कविता की आवाज़ किसी राजपथ से नहीं सभ्यता के इन्हीं पिछवाड़ों से
आती है. चाहे पानीपत की लड़ाई का प्रसंग हो, या सिंधु लाइब्रेरी, राख इराक या पोस्टमैन, गीत चतुर्वेदी कविता को स्फीति
के चोले में विसर्जित नहीं करते, बल्कि उनके जरिए सभ्यता की बेबाकी से मीमांसा करते हैं. वे
उस पतनशील समाज की धज्जियां उड़ाते हैं जिसके चलते मदर इंडिया और सिंधु
लाइब्रेरी जैसी कविताएं लिखी जाती हैं.
कविता
में लंबे अरसे से काम कर रहे किन्तु 2012 में खबरों की दुनिया के संजीदा पत्रकार
प्रियदर्शन ने नष्ट कुछ भी नहीं होता संग्रह के साथ कविता में जिम्मेदारी
से प्रवेश किया है. यह उनका पहला ही संग्रह है किन्तु इसकी तमाम कविताओं में समय
समाज पारिस्थितिकी पर गंभीर टिप्पणियॉं उन्होंने की हैं. मसलन वे लिखते हैं, जल से नहीं, रक्त और आंसुओं से आप्लावित
हैं हमारे समय की नदियॉं. वे पूछते हैं, सभ्यता के बावर्चीखाने में अपनी विशाल कलछुल लेकर इक्कीसवीं
सदी नाम का यह प्रेत कौन सी नई रेसिपी तैयार कर रहा है? क्या इसमें मानुष गंध
आती है. (इन्फोटेनमेंट) अपने प्रोजैक आर्डर में ये कविताएं ब्यौंरों से बनी हुई
लगती हैं जिनमें हर वक्त एक अच्छी कविता की गुंजाइश दीख पड़ती है. इन ब्यौरों में लालित्य बेशक कम हो पर इनमें यह सवाल
पूछने का जज़्बा तो है ही: ‘क्या विशिष्ट जन बताएंगे/ कि जिन लोगों ने. लगातार गँदला किया
है यहां की नदियों का पानी / लगातार चुराई है यहां के जंगलों की लकड़ियां. यहां की
खानों में सेंधमारी की है.उनके खिलाफ कौन सी सजा तय करने जा रही है आपकी सभा?’ प्रियदर्शन की कविताओं में खबरों
के बीच रहने वाले एक ऐसे कवि से मुलाकात होती है जो शब्दों के अंबार में से कुछ
शब्द अपनी कविताओं के लिए संजो लेना चाहता है.
युवा कवियों के अपार काव्यसंसार में रोज ब
रोज इतना कुछ लिखा जा रहा है कि उस सबकी थाह ले पाना मुश्किल-सा है. एक वक्त था,
कविता और गद्य में फर्क था तो कवि कम थे. आज यह फर्क मिट गया है तो कविता का
क्षेत्र किसी रेलवे स्टेशन के भीड़संकुल प्लेटफार्म में बदल गया है. फिर भी भीड़ में भी अरुण देव का कवि व्यक्तित्व
पहचाना जाता है. कोई तो जगह हो से उन्होंने निश्चय ही कविता में एक
रागात्मक जगह बनाई है. कोई जरूरी नहीं कि
हर कविता आत्यंतिक रूप से किसी नैतिक संदेश का प्रतिकथन ही बन जाए. पर हर कवि
कविता में ऐसे सूत्र अवश्य छोड़ जाता है जिससे मनुष्यता की एक लीक निर्मित होती
है. उनकी 'सीख' कविता यही तो करती है: 'यथार्थ की खुरदरी सतह पर /भविष्य
के लिए गुंजाइश रखना/ जो रह गए पीछे बढ़ा देना उनके लिए हाथ/ ये पुरखों की सीख है
/ इसे मैं दुहरा भर रहा हूँ कि भुला न दिया जाए कहीं.' अरुण देव की कविता एक
साथ स्थिति, परिस्थिति, देश-काल, जीवन की नानाविध विद्रूपताओं
और अनुभवों का साक्ष्य है तो एक स्नेहिल आवाहन भी कि : ''आओ कि आज हम दोनों एक
साथ दहक उठें/ कि भीग उठें एक साथ /कि एक साथ उठें और फिर गिर जाऍं साथ-साथ.'' बर्बर होती मनुष्यता
और महत्वाकांक्षा की शिनाख्त करने वाले इस कवि का कंठ वाकई प्रेम, करुणा और लय से भीगा है.
गए
वर्षों में साहित्य अकादेमी से युवा कवियों के कई संग्रह आए. इनमें कुमार अनुपम
और प्रभात के संग्रह ध्यातव्य हैं. कुमार के संग्रह बारिश मेरा घर है की
कविताओं के भीतर एक मीठी सी नदी जैसे प्रवाहित दिखती है जब वे इसी चिंता से भर कर
कहते हैं: जिस शहर की रगों में/ नहीं बहती है कोई नदी/ उस शहर का दिल से कोई
रिश्ता नहीं होता. (शहर के बारे में) वे चरित्रों समूहों व्यक्तियों पर
लिखते हुए देखत तुमहिं तुमहिं होइ जाई वाले भाव से अभिभूत हो उठते हैं. इसे
उनकी कविता समुद्री मछुआरों का गीत में लक्ष्य किया जा सकता है. हमारी
रोटी है समुद्र. हमारी पोथी है समुद्र......हम अपनी सांसों के दम पर जिएंगे. जैसे
जीते हैं सब. अपने भीतर के समुद्र का भरोसा है प्रबल. इसी तरह वे कामगारों, बेरोजगारों, प्रतीक्षावादियों और दूब का
गीत लिखते हैं. इस कवि के पास ब्यौरों का लालित्य है, दैनंदिन जीवन की कश्मकश है, तथा कविता में करुणा के लिए
अपार जगह है तभी तो 'शब्दों में आंसू नहीं आते गनीमत है स्याही नहीं पसरती' एवं 'जीवन दैनंदिन' जैसी कविताएं लिखते हुए
कवि एक एक शब्द के लिए प्रतिश्रुत होता है. इस युवा कवि के कुछ शब्द जो उसकी
कविताओं उर्वरता का सूचकांक हैं:
बीज
को मिले अगर
करुणा
भर जल
नेह
भर खनिज
वात्सत्य
भर धरती और आकाश
तो
फूटती ही है एक रोज़ शाख .
अकारण
नहीं कि ज्ञानेन्द्रपति ने कुमार अनुपम को लंबी दूरी का यात्री माना है जहां वे
उसकी उत्तरोत्तर मँजती हुई अभिव्यक्ति के प्रति आशान्वित दिखते हैं.
प्रभात का पहला
कविता संग्रह अपनों में नहीं रह पाने का गीत तब आया जब वे बयालीस की उम्र पार कर चुके थे.
राजस्थान के लोकेल ने उन्हें जीवन के विरल अनुभवों से सींचा है. उन पर लिखते हुए
अरुण कमल ने पाया कि यह संग्रह कविता में एक नए महाद्वीप की खोज से कम नहीं है. यह
अपनी मातृभूमि यानी गांवों के जीवन की ओर लौटती हुई कविता है जो वीरान शून्य और
दरिद्र हो रहे गांवों की ओर समवेदना से निहारती है. करुणा,कसक,टीस और
विडंबनाओं से निर्मित प्रभात की कविता पानी की इच्छाओं में सेंध लगाती है तो सूखे
के बाद आई बरसात को देख आह्लादित भी होती है: 'अब सबको
अपने घर मिल गए हैं. सुनो तो कैसा कलरव है धरती पर पानी की बस्ती में.' पर मां
की याद पर कवि सजल हो उठता है, ‘’जिन्हें मां की याद नहीं आती, उन्हें
मां की जगह किसकी याद आती है?’’ और उसके न होने की पीड़ा को शब्द देते
हुए कहता है:'’तुम नहीं थी इसलिए मेरा बचपन दूसरों के
घरों के चूल्हे, आंगनों में ताकने-झाँकने में ही गुजरा’'. कविता
में प्रभात का अब तक का सफर बेशक मामूली हो पर वे लंबे सफर के तलबगार हैं. उनकी
कविताओं में वह हूक सुनाई देती है, जिससे गुजरते हुए हृदय हिलने लगता है.
अक्सर कविता में
रोमैंटिक आग्रहों को कमतर आंका जाता है जैसे कि वह कविता के लिए गैरजरूरी हो. पर
हाल में जब ऐसे ही आग्रहों की कवयित्री के रूप में युवा बाबुषा कोहली का पदार्पण
हिंदी कविता में हुआ तो लगा कि रोमैंटिक होना कविता की दृष्टि से विपथ होना नहीं
है. सलीका हो, गहराई हो तो भाषा और शिल्प में कैसी भी
तोड़ मरोड़ कर दिल में घर कर जाने वाली कविता लिखी जा सकती है ---और बाबुषा कोहली
ने ऐसा ही किया है. प्रेम गिलहरी दिल
अखरोट की कवयित्री को यह ठीक पता है कि ‘प्रेम
निर्मम घुड़सवार है. पीठ पर चाबुक मार मार कर उस जगह ले ही आता है सचमुच . बहुत
दूर है वो जगह जहॉं खिलती हैं प्रार्थना की पंखुड़ियॉं.‘ सच कहें तो बाबुषा कोहली की कविता की रेंज व्यापक
है, उसके
अनुभवों की पृथ्वी विपुल है. ये कविताएं एक स्त्री की आत्मा के साज से निकली
हुई ऐसी धुन है जिसे सुनते हुए भी समाज आज तक अनसुना करता आया है. अनुरक्ति और
विरक्ति में ऊभ चूभ होती हुई ये कविताएं नदी में अपनी पतवारें फेंक आई स्त्री की
तरह निर्भीक हैं. वह प्रेम के अश्वत्थामाओं के रहस्य से सुपरिचित है जिन्होंने
अमरता की घुट्टी पी हुई है. उसके जीवन में भी चंपई इच्छाएं, नारंगी
उम्मीदें और कुछ चटख फ़िरोज़ी स्वप्न हैं जिन्हें वह उम्र भर संजोये रखना
चाहती है और अलस्सुबह के पहले राग-सदृश अपने प्रिय से सिर्फ यह इसरार करना चाहती
है कि आखिरी ग़ज़ल हूँ तुम्हारी, आखिरी सांस तक पढना. ये कविताएं पढ़ते
हुए यही अहसास होता है जैसे अभी अभी किसी शहनाईनवाज़ की महफिल से उठकर आया हूँ.
हिंदी कविता का
पिछला डेढ़ दशक हिंदी कविता के कई मोड़ों का गवाह है. कविता के सूक्ष्म शरीर में
इस लंबी कालावधि के निशान देखे और महसूस किए जा सकते हैं. इस अवधि की कविताओं में
कहीं ब्यौरों की सघनता है, लालित्य है तो कहीं गद्य की भावप्रवण
सत्ता भी जो मनुष्य की विचारशील संवेदना से बार बार टकराती है. बहुत से कवियों
की कविताएं जैसे सीने से ज्वार उठाती हुई लगती हैं---वे अपने दाहक अनुभवों
में ले जाती हैं तो पूंजी प्रलोभन सत्ता कारपोरेट और मनुष्य-मनुष्य को विभाजित
करने वाली संकीर्णतावादी ताकतों के विरुद्ध लामबंद भी दिखती हैं. पर यह सारा काम
वे अपनी कविताई की सीमा में रहकर करती हैं. वे भूल नहीं जातीं कि हमारा समय हमारा
समाज हमारा तंत्र भ्रष्ट और विपथ हो सकता है, कविता
नहीं. वह हमेशा ऐसी ताकतों पर चाबुक की तरह पड़ती है तथा अपने पुरखे कवि कबीर की
तरह ऐसे संकीर्णतावादी समाज की खिल्ली भी उड़ाती है जो अपने कर्तव्य से विमुख
रहा है.
(यह आलेख 'पुस्तक वार्ता 'में इस महीने प्रकाशित है)
________________
ओम निश्चल हिंदी के सुधी कवि, गीतकार, समालोचक
एवं संपादक हैं तथा हाल ही में प्रकाशित उनकी आलोचनात्मक कृति शब्दों से गपशप
चर्चा में रही है.
सम्पर्क :
जी-1/506 ए, उत्तम
नगर, नई दिल्ली-110059
मेल: omnishchal@gmail.com/ फोन: 8447289976
Badhiya mulayankan badhai Omji
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओम निश्चल जी। सादर कुमार अनुपम
जवाब देंहटाएंओम जी एक सिटिंग में आपका आलेख पढ़ा । मूल्यांकन करने में आपने कोई जल्दबाजी नहीं की । कितना तो पढ़ा और याद रखा । आपकी मेहनत दिखाई पड़ती है । बहुत अच्छा लगा और मुझे नई जानकारियां भी मिली । धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआपने समय के साथ-साथ साहित्य की वीथियों में रमण किया है। अाप कह रही हैं तो आश्वस्ति होती है। मंडलेाई जी के बाद आप दूसरी लेखिका हैं जिन्होंने इसे उपयोगी पाया है। आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत ही शोधपरक, रोचक, वस्तुनिष्ठ, ईमानदार लेख।
जवाब देंहटाएंबधाई।
कुछ ज़रूरी लोग छूट भी गए हैं, ऐसा मुझे लगता है
जवाब देंहटाएंअभी अभी चंडीगढ़ से लौटा हूं. आपका लेख देखा भर है. जितना किया अच्छा किया. बधाई.
जवाब देंहटाएंकई ऐसे लोग भी छूट गये हैं, जिन्हें शायद आप छोड़ना नहीं चाह रहे होंगे.
उनके छूटने से लेख अधूरा लगेगा.
यदि जान कर छोड़ा है तो कोई बात नहीं. आपका अधिकार है.
लेकिन बहस तो होगी. मैं पूरा पढ़ कर कुछ नाम तो ज़रूर याद दिलाऊंगा.
उदाहरण के लिये विष्णु खरे, कात्यायनी,
संजय चतुर्वेदी, हरीशचंद्र पांडे, विष्णु नागर, इब्बार रब्बी,, असदज़ैदी, वीरेन डंगवाल.
नाम और भी हैं.आप तो स्वयं कह रहे हैं कि नाम आपके संग्यान में हैं. ज़रूरी बिल्कुल नहीं लेकिन जब इतना काम किया तो जैसे कैलाश वाजपेयी का नाम लिया कुछ और लिए जा सकते हैं.
हालांकि फिर भी कुछ नाम तो छूटेंगे ही.
मैं न सिर्फ आप की सूची में हूं बल्कि अपने इतने कम काम के ऐसे स्मरण से ख़ुशी के साथ कुछ संकोच में भी हूं.
पढ़ कर फिर लिखूंगा.
जी, आपने ठीक कहा है। तभी तो मैंने कहा है कि हो सकता है मुझे इसे समावेशी बनाने के लिए एक पश्चलेख लिखना पड़े। और यह भी कि जो बहुत से कविगण छूटे हैं, उनमें से अधिकांश पर लिखा भी है इसीलिए कहा कि जो छूटे हैं या छोड़े गए हैं, वे पर्याप्त संज्ञान में हैं। तथापि ऐसा कोई आलेख जिसमें कोई महत्वपूर्ण न छूटे, तैयार करना हमेशा एक मुश्किल काम होता है।
जवाब देंहटाएंध्यानाकर्षण के लिए साधुवाद। आभार।
Jo likha hai use bhi to darz karo.Namon par hi to aalochna dharm nahi kendrit nahi hota Us azadi ko to kathghare me Katghare me Khada na karo jabki isi ki ladai ki aaj charcha ho rahi hai Poorak lekh ki bat jabki Om ji kah chuke hai Om shanti
जवाब देंहटाएंजो किया बहुत अच्छा किया. उसकी बधाई तो सबसे पहले दे ही दी. अभी लेख तसल्ली से पढ़ना बाकी है. उस पर भी कुछ बात ज़रूर होगी.
जवाब देंहटाएंचयन आलोचक का अधिकार है. यह भी पहले ही कह चुका. ओम निश्चल सजग आलोचक हैं. अपनी समझ बढ़ाने के लिए कुछ प्रश्न पूछना मेरी प्रक्रति में है. आप जानते हैं.
आप स्वयं बहुत अच्छे आलोचक हैं आप से लंबी प्रतिक्रिया की अपेक्षा है. वह भी इस चर्चा को सम्रद्ध करेगी.
आजकल किसे पड़ी है जो समकालीन कविता में अपना दिमाग खपाये. ओम निश्चल ने जो किया है उसे गंभीरता से पढ़ा जाए यही मेरी इच्छा है.
वे क्या लिखें यह उनका अधिकार है. यह भी पहले ही कह चुका हूँ.
सुखद आश्चर्य है कि ओम निश्चल को इतना लिखने का समय मिल जाता है पारिवारिक व्यस्तताओं के बावजूद.इस आलेख में मौजूदा परिदृश्य समाया हुआ है, लेकिन विष्णु खरे, असद जैदी, विष्णु नागर, हरिश्चंद्र पांडे पर विचार का अभाव अधूरापन पैदा करता है.
जवाब देंहटाएंसारगर्भित मूल्यांकन.....बधाई
जवाब देंहटाएंहिंदी पट्टी की साहित्यिक हलचल की ख़बर रखते हैं अंग्रेजी अखबार भी।
जवाब देंहटाएंAgainst the tide I Shafey Kidwai registers the essence and presence of Hindi Poetry in FEATURES » FRIDAY REVIEW a supplement of THE HINDU.
The Hindu अखबार के अपने एक सुचिंतित अालेख में द हिंदू के नियमित लेखक प्रोफेसर शफी किदवई ने The Friday Review में 'समालोचन' में प्रकाशित '' हिंदी कविता के डेढ दशक: किताबों के दरीचे से''(“Fifteen Years of Hindi Poetry from the Prism of Books” ) को चर्चा का विषय बनाया है। पूरे आलेख का सिंहावलोकन करते हुए शफी साब ने नरेश सक्सेना, अरुण कमल और चर्चा में आए अन्य कवियों की चुनिंदा विशिष्टताओं को भी दर्ज किया है।
कहा जाता है अंग्रेजी अखबारों को हिंदीपट्टी के दुख दर्द की कोई फिक्र नहीं होती। वे उस भाषा के उपभोक्ता और उदभावक पूंजी के सिपहसालारों के पैरोकार हैं जो पूँजी और कारपोरेट के हितों के पोषक हैं। पर द हिंदू ने समय समय पर हिंदी के इलाके की गतिविधियों को अपने पन्नों पर दरियादिली से जगह दी है और उल्लेखनीय लेखकों के कामों को सराहा है।
जनाब शफी किदवई के प्रति साधुवाद एवं डॉ अरुण देव के प्रति आभार। यह लेखक मूलत: महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा की हिंदी पत्रिका ''पुस्तक वार्ता के वर्तमान अंक के लिए लिखा गया था जिसे www.http://samalochan.blogspot.in ने समानांतर प्रसारित किया।'
In the opinion of Prof. Shafey Kidwai:
For the editor of the e-magazine, Arun Dev, poetry is nothing but a roar against the arrogance of the power and to drive this point home he published Om Nishchal’s brilliantly written analysis “Fifteen Years of Hindi Poetry from the Prism of Books” and his sharp witted essay is certainly a delightful spoof on the theory avoidance prone articles churned out routinely by Hindi criticism.
http://www.thehindu.com/features/friday-review/against-the-tide/article8710137.ece
राजेश जोशी लिखते हैंं:
जवाब देंहटाएंलेख पढ़ गया। आपने संक्षिप्त टिप्पणियों में इस समय के अनेक महत्वपूर्ण संग्रहों को ले लिया है। बधाई और आभार।(एक मेल संंदेश से)
अच्छा लेख है.. लेकिन सब वही कवि लिये हैं जिन्हें लिए बिना रहा नहीं जाता
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.