विष्णु खरे : एक ‘सफल’ ख़ूनी पलायन से छिटकते प्रश्न



मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की व्यावसायिक सफलता के कई  अर्थ निकाले जा रहे हैं. नागराज मंजुले के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म की अभिनेत्री रिंकू राजगुरु और अभिनेता आकाश ठोसर  की जम कर प्रशंसा हो रही है. रिंकू को तो  'सैराट' में एक्टिंग के लिए हाल ही में 63वें नेशनल अवॉर्ड से नवाजा भी जा चुका है. फ़िल्म में उनका नाम आर्ची है. इस फ़िल्म के संगीत निदेशक अजय–अतुल हैं.
प्रख्यात सिने मीमांसक विष्णु खरे का क्या कहना है? आइये पढ़ते हैं.



एक सफल ख़ूनी पलायन से छिटकते प्रश्न                              

विष्णु खरे 
बीच में निर्देशक नागराज मंजुले


राठी शब्द ‘’सैराट’’ का संक्षिप्त अर्थ हिंदी में संभव नहीं है. उसे शायद ‘तितर-बितर’ होने या ‘भगदड़’ से ही समझाया जा सकता है. मैंने ‘पलायन’ चुनना सकारण बेहतर समझा है. कलात्मक या व्यापारिक दृष्टि से सफल फिल्मों के शीर्षक किस तरह अन्य भाषाओँ में जज़्ब हो जाते हैं, यह पड़ताल भी सार्थक और दिलचस्प हो सकती है. बहरहाल, उसे लगे एक महीना नहीं हुआ है कि मराठी फिल्म ‘’सैराट’’ का नाम करोड़ों ग़ैर-मराठी ज़ुबानों पर भी है. अभी उसने नाना पाटेकर अभिनीत कामयाब ताज़ा फिल्म ‘’नटसम्राट’’ को पीछे छोड़ा है और अब वह मराठी सिनेमा के इतिहास की सफलतम फ़िल्म मानी जा रही है. उसने शहर और देहात के मल्टीप्लेक्स और सिंगल-स्क्रीन सिनेमा के अर्थशास्त्र को प्रभावित किया है. यह कल्पनातीत था कि कोई मराठी फ़िल्म सिर्फ़ थिएटरों में पहले तीन हफ़्तों में 50 करोड़ का आँकड़ा छू ले.

महाराष्ट्र में सिनेमा अपने आदिकाल से बन रहा है, वह उसकी मातृभूमि है. स्वाभाविक है कि ‘कलात्मक’ या व्यावसायिक रूप से कुछ मराठी फ़िल्में सफल होती आई हैं. महाराष्ट्र के बहुभाषी निर्माता-निदेशकों, लेखकों, संगीतकर्मियों और अभिनेताओं-अभिनेत्रियों आदि द्वारा  प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हिंदी और भारतीय सिनेमा के विकास में जो लगातार बेमिसाल योगदान दिया जा रहा है उसके ब्यौरों का  बखान असंभव है. बेशक़, कई कारणों से बीच में मराठी फिल्म पिछड़ी, सिनेमा के इतिहास में ऐसा होता रहता है, लेकिन इधर पिछले कुछ ही वर्षों में अनेक नए, युवतर मराठी फ़िल्मकार उसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंच पर हिंदी के समकक्ष ही नहीं, आगे ले जाते दीखते हैं. मराठी सिनेमा की बहु-आयामीय अस्मिता का एक नया ‘’टोटल स्कूल’’ विकसित होता लग रहा है.

‘’सैराट’’ के अधिकांश अभिनेता या तो अज्ञात हैं या अल्पज्ञात. उसका कथा-स्थल सैलानियों में लोकप्रिय नहीं है. क़स्बा देश-भर के सैकड़ों ऐसे क़स्बों की तरह सामान्य है - न सुन्दर, न कुरूप. किशोरों-युवकों के पास आपसी क्रिकेट-मैच, कूएँ की तैराकी और कभी नाव की सैर के अलावा मनोरंजन के  कोई साधन नहीं हैं. बस-अड्डा है लेकिन ट्रेन यहाँ से नहीं जाती. फिल्म के नृत्य-संगीत आकर्षक हैं लेकिन वह शेष तत्वों को दबाने की कोशिश नहीं करते. कोई डांस-आइटम-गर्ल नहीं है. ’प्रेम’ की हसरत है, कभी-कभी वह हासिल भी हो जाता है, लेकिन ‘’सेक्स’’उतना नहीं है. समाज निम्न और अन्य वर्गों में यथावत् बँटा हुआ है. बस्ती के बाहर दलित पिंजरापोल जैसे हालात में रह रहे हैं. चीनी मिल है जो सत्ता और राजनीति  के केंद्र और हर तरह के शोषण-पेरण का प्रतीक है. गन्ने और केले के घने हरे आदमक़द खेत कोई राहत या सुकून नहीं देते – एस.यू.वी. पर सवार मौत वहाँ भी अपने शिकारों के लिए गश्त लगाती है.  क़स्बे पर क़ाबिज़ ताक़तवर खानदानी शरीफ़ लोगों के पास बेशुमार दौलत, रसूख़और ताबेदार क़ातिल माफ़िआएँ हैं. प्रशासन और पुलिस उनके गुलाम हैं. उनसे कोई जीत नहीं सकता, उनके ख़िलाफ़ कोई सुनवाई हो नहीं सकती. न वह कुछ भूलते हैं और न कुछ मुआफ़ करते हैं. जब कोई दलित किशोर-युवा किसी सर्वोच्च सवर्ण लड़की से प्रेम करने लगता है और यह जात-बिरादरी-समाज  की इज़्ज़त का सवाल बन जाता है तभी उस और उसके परिवार पर भयावहतम प्रतिहिंसा बरपा की जाती है. यदि खुद अपनी बेटी उसके प्रेम में ज़िद्दी और कुलघातिनी है तो उसे भी किसी क़ीमत पर बख्शा नहीं जा सकता.

मुसलमानों की मुसलमान जानें, ऐसी कहानियाँ अखिल भारतीय हिन्दू समाज में हम आजीवन सुनते-पढ़ते-देखते आए हैं. किसी भी बहु-संस्करण क़स्बाई दैनिक को देखते रहें, यह घटनाएँ  मनमानी  उबाऊ नियमितता से लौटती आती हैं. उनके प्रस्तार-समुच्चय (permutations-combinations) अपने पल-पल परिवर्तित ख़ूनी कैलाइडोस्कोप में लगभग अनंत हैं. विडम्बनावश, एक कलाकृति के रूप में ’’सैराट’’ अब ख़ुद उनमें शामिल हो गई है. ऐसी हर कृति की एक त्रासद नियति ऐसी भी होती है. फिर यह भी है कि ऐसी ‘सम्मान-हत्याएँ‘’ (ऑनर किलिंग्ज़) भले ही बहुत लोकप्रिय न हों, दलित या विजाति-घृणा और हत्यारी  मानसिकता चहुँओर बनी हुई हैं. 

यहाँ ध्यान रखना होगा कि विजातीय प्रेम/विवाह तथा दलित-स्वीकृति के मामले में मराठी संस्कृति तब भी कुछ पीढ़ियों से अपेक्षाकृत शायद कुछ कम असहिष्णु हुई प्रतीत होती है. राष्ट्रीय स्तर पर कई अन्य ऐसे विवाह परिवारों द्वारा स्वीकारे भी जाते रहे हैं, मेरे कुछ अनुभव भी ऐसे हैं. आज से 55 वर्ष पहले खंडवा में मेरे घनघोर दलित मित्र कालूराम निमाड़े ने अपनी नारमदेव ब्राह्मण प्रेमिका दमयंती से कमोबेश निरापद विवाह किया था. लेकिन इस समस्या से सम्बद्ध कोई ठोस विश्लेषण और आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं. दम्पतियों की सर-कटी लाशों और उनके बेसहारा शिशुओं को इस सब से कुछ तसल्ली और राहत नहीं मिलतीं.

किसी कम-लागत फ़िल्म को ‘’सैराट’’ जितनी बेपनाह सानुपातिक व्यावसायिक सफलता मिले तो कुछ दुर्निवार प्रश्न खड़े होते हैं. पहला एक घंटा ‘’आती क्या खण्डाला’’-टाइप है और वह प्रचलित homo-erotic (समलिंग–स्नेहिल) भले ही न हो, अधिकांश भारतीय फिल्मों की तरह नाच-गाने और मेल-बॉन्डिंग (पुरुष-मैत्री) पर टिका हुआ है. लेकिन उसमें शराफ़त से किसी एक लड़की से सम्बन्ध बना लेने की जोखिम-भरी हसरत-ओ-तड़प भी है. हमारे किशोर और युवा वर्ग में नारी के लिए दीवानगी तक ललक है. यहाँ एक विचित्र तथ्य है कि फिल्म की नायिका वास्तविक जीवन में अब भी नाबालिग़ है और शायद नायक भी. यह एक घंटा self-indulgent है क्योंकि वह ऐसा कुछ भी स्थापित नहीं करता जो बीस मिनट में establish नहीं हो सकता था. वह क्लिशे (पिष्ट-पेषण) के साठ मिनट हैं और शायद निदेशक वैसा ही वातावरण निर्मित करना चाहता था. लेकिन होश में लानेवाला पहला तमाचा नायिका के भाई के हाथ से उसके पिता के इंटर कॉलेज में मराठी कविता पढ़ानेवाले दलित शिक्षक के मुँह पर नहीं, हमारे गाल पर पड़ता है और पिछला सारा शीराज़ा बिखर जाता है. लेकिन यह तो होना ही था. 

अपना संभावित जाति-विवाह तोड़ना, माता-पिता-भाई को समाज और कस्बे में बदनाम कर भयानक जोखिम उठा अपने दलित प्रेमी के साथ पलायन, अत्यंत कठिन परिस्थितियों के बीच सीमावर्ती  आंध्रप्रदेश में डोसा बनाते हुए और पीने के पानी की मशीनी बोतलें भरते हुए टीन की दीवारों-छतों वाली एक गन्दी बस्ती में अज्ञातवास,बीच में एक लगभग आत्मघाती ग़लतफ़हमी और अनबन और पुनर्मिलन, फिर वह दो बरस जिनमें एक बेटे, एक स्कूटी और एक छोटे से फ़्लैट का जीवन में आना, और इस सब बदलाव में नायिका आर्ची का अपने माता-पिता, भाई-बहनों और घर को सहसा याद करना. सर्वनाश मायके से कई भेंटें लेकर आता है.


क्या दर्शकों ने सिर्फ़ उस सुपरिचित, लगभग टपोरी पहले घंटे को चाहा? क्या उन्हें बीच का ‘’दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे’’-स्पर्श अच्छा लगा ? क्या उन्हें क़स्बाई माफिया द्वारा नायक-नायिका को चेज़ करने और उस पलायन में  पराजित होने में आनंद  आया? क्या वह आँध्रप्रदेश में अपने आदर्शवादी, ’पवित्र’ नायक-नायिका के सफल संघर्ष से खुश हुए? क्या उन्हें यह हीरो अच्छा लगा जो एक एंटी-हीरो,अ-नायक है ? क्या उन्हें बीच में उन दोनों के मनमुटाव के  सस्पेंस ने रोमांचित किया ? क्या वह जानते या चाहते थे कि बाद की सुख-स्वप्न जैसी ज़िन्दगी न चले? फिर यह दर्शक हैं कौन? इनके पैसे कैसे वसूल हुए? कितने दलित,कितने सवर्ण,किन जातियों के ? कितने किशोर/युवा ? कितने वयस्क,बुद्धिजीवी ? क्या सब सवर्णवाद के आजीवन शत्रु रहेंगे ? क्या वाक़ई ‘’सैराट’’ कोई जातीय, सामाजिक और राजनीतिक प्रश्न उठाती है ? यदि वह त्रासदी को ही उनका एकमात्र हल बनाकर पेश कर रही है तो उसमें कहाँ मनोरंजन हो रहा है कि फिल्म सुपर-हिट है? 

क्या यह फिल्म दर्शकों को और मनोरंजन की उनकी अवधारणाओं को बदल रही है ? क्या दर्शकों ने इसे एक समूची ज़िन्दगी की फाँक की तरह देखा,टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं? क्या इसमें कहीं कोई सैडो-मैसोकिस्ट, परपीड़क-आत्मपीड़क तत्व, किशोर-प्रेम का नेत्र-सुख,prurience और voyeurism भी सक्रिय हैं? क्या यह फिल्म सिर्फ़ मराठी संस्कृति में वैध फिल्म है? हिंदी में बनी तो नतीज़े क्या होंगे? ''सैराट'' की अपूर्व सफलता गले से तो उतरती है,दिमाग़ में अटक कर रह जाती है.
_______


विष्णु खरे
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
____

फ़िल्म मीमांसक विष्णु खरे की  मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की विवेचना ने अब एक बहस का रूप ले लिया है. ‘सैराट’ हिंदी ‘मायने’ से शुरू हुआ यह विवाद अब फ़िल्म के मंतव्य तक पहुंच गया है. इसका एक दलित एंगल भी है. इस बहस को आगे बढ़ाते हुए श्री आर. बी. तायडे का आलेख जो मूल अंग्रेजी में है दिया जा रहा है.
________

19/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. इतने सारे प्रश्न मगर उत्तर एक भी नहीं। वैसे सैराट का नजदीकी हिंदी शब्द बेलगाम होगा.....यह पलायन तो किसी भी दृष्टि से नहीं हो सकता। किशोर प्रेम हमेशा दर्शकों को आकर्षित करता है....हिंदी में बॉबी और क़यामत से क़यामत तक को याद करें........सैराट की सफलता का सबसे बड़ा कारण अजय-अतुल का संगीत है। सालों बाद ऐसा संगीत आया है कि लोग गानों के दौरान थियेटर में नाचते हैं। खरे जी से बेहतर समीक्षा की अपेक्षा थी।

    जवाब देंहटाएं
  2. बेनामी22 मई 2016, 9:53:00 am

    खरे जी अपनी आत्ममुग्धता में इतना जकड़े हुए होते हैं कि इनकी आँख कुछ बाहर का देख ही नहीं पाती चाहे वह साहित्य में हो या सिनेमा में...मैं असल ज़िन्दगी के 15-16 उदाहरण दे सकता हूँ जहाँ प्रेम के आड़े कोई नहीं आया हा थोडा विवाद जो अरेंज मैरिज में भी होता है वह ज़रूर होगा और यदि वह इस धरती पर कहीं नहीं होता तब ऐसा कोई कहे तो समजो उसकी आँख का चश्मा पक्का है...रही बात फिल्म की तो तो सफलता के पिछले पैमानों को हटाकर भी देखिये लकीर के फ़कीर गुरु जी इस देश में साहित्य और सिनेमा तथा संगीत की लगभग हत्या(अटेम्प्ट टू मर्डर) के ज़िम्मेदार ये आलोचक भी हैं ये बुर्ज़ुआ या कहें आयातित मानसिकता के खोखले साहित्यकार भी हैं...माफ़ करियेगा मैं फ़िल्म के मुद्दे से ज़रा इतर चला गया ऐसा लगा होगा पर नहीं यह सब बातें एक दूसरे में इस कदर गुम्फित हैं कि आप एक तार छुएंगे तो अगला अपने आप झनझना उठेगा...यह समीक्षा का पता नहीं कैसा उद्धरण था
    समालोचन पर विष्णु जी के इस कदर चाटुकार हैं कि वे अगर किसी सही बात को गलत सिद्ध करें तब भी लोग झुके ही नज़र आते है क्यों भाई ऐसा क्या है...
    दरअसल हमें अपने भ्रम तो तोडना होगा इस बदलती दुनिया को पुराने चश्मे हटाकर देखने की भी ज़रूरत है
    सैराट का मतलब स्वछन्द,जंगली,कर्कश भी होता है
    पर फ़िल्म देखकर दो तरह का जंगल नज़र आता है एक मानसिक और एक भौतिक...
    और एक बात विष्णु जी के सफलता का पैमाना क्या है???
    अरुण देव जी भी ज़रा टीका टिप्पड़ी करें

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरे दो चुलत भाईयो ने love marriage की है उंची जाती की लडकी से ....आज तक लडकी के घरवाले उसे अपना नही रहे...दोनो post graduate है ...नौकरी पे भी है

      और एक लड़की ने उंची जाती के लड़के से प्यार किया ...दोनो के घरवाले ने विरोध किया ...दोनो के टुकडे rail के नीचे पाए गए .....यह 4-5 साल पहले की situation है....सातारा के एक गांव की...


      और एक लड़की के घरवालो ने उसे जान से मारने की धमकी दी है वजह बताने की जरूरत नही...

      हाल ही मे एक लड़की के मा बाप ने खुदकुशी की ...सिर्फ इसलिए कि लड़की दूसरे जाती के लडके से प्रेम कर रही थी ...शादी करना चाहती थी ....

      हाल ही मे एक लड़की के मा बाप ने खुदकुशी की ...सिर्फ इसलिए कि लड़की दूसरे जाती के लडके से प्रेम कर रही थी ...शादी करना चाहती थी ....

      यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है. ...

      सभी घटनाए news मे नही आती ...
      जो शहरो मे रहते है उनके लिए यह unusual हो सकता है. ...गाव की हालत अभी भी यही है....



      हटाएं
  3. भाई बेनामी जी. समालोचन पर विष्णु खरे की तीखी आलोचनाएँ भी मौजूद है. आप उनके प्रत्यूषा बनर्जी वाले आलेख को देखें. ३० टिप्पणियों में दस से अधिक में ही उनकी बेमुरव्वत आलोचना की गयी है . लिंक दे रहा हूँ .http://samalochan.blogspot.in/2016/04/blog-post_24.html
    __
    समालोचन उठाने -गिराने और आलोचना को मैनेज करने वाली पत्रिका कभी नहीं रही.

    जवाब देंहटाएं
  4. औसत समीक्षा। एकदम चलताऊ। समीक्षक ने खुद का अनुभव पेलकर इसे और उबाऊ बना दिया है। सैराट का हिंदी मतलब है स्वछन्द, खुद निर्देशक इस बात की तसदीक करता फिर रहा है फिर ये पलायन कहाँ से आया। जो लोग झिंगाट पर नाच रहे हैं वो इंटरवल के बाद आर्ची को रोता देख सिनेमा हाल छोड़ जा भी सकते थे। बम्बई में आधा सिनेमा छोड़ निकल जाने का चलन सालों से है, बशर्ते फिल्म इस समीक्षा जैसी बेकार हो तो। पता नहीं समीक्षक को नेपथ्य में चलते दृश्य क्यूँ नहीं दिखते, प्रेम में विफल होने के बाद विकलांग प्रदीप का दो बार किसी को नमस्ते करना क्यूँ नहीं दिखता? आंध्र प्रदेश में गुंडों से बचाने के बाद डोसा बेचने वाली महिला अचानक से मराठी बोलना क्यूँ नहीं दिखता? अचानक से मंग्या पाटिल का आर्ची की मदद करना क्यूँ नहीं दिखता? आर्ची की बदलती ज़िन्दगी के साथ सोनल ताई का विधायक बनना क्यूँ नहीं दिखता? प्रेम में मगन जब लड़की नाच रही है तो बौने का सर खुजाना क्यूँ नहीं दिखता? बुलेट चलाने वाली लड़की 180 डिग्री पर बदल गयी ज़िन्दगी में भी ड्राइविंग सीट पर है, एक्टिवा चलाते हुए, क्यूँ नहीं दिखता? मराठी पढ़ाने वाले सर जब पाटिल की लड़की के साथ सोने की बात करता है तो लड़के का विरोध क्यूँ नहीं दिखता? इंटरवल से ठीक पहले आर्ची पिस्तौल फेंकती नहीं झटक देती है, क्यूँ नहीं दिखता? पर्श्या का बाप गाँव से निकाले जाने के बाद जब अपने लोगों के बीच ही गाल पर थप्पड़ मार रहा है और बदली हुयी भाषा बोल रहा है क्यूँ नहीं दिखता? कक्षा में परिचय देता हुआ नायक खुद को कवि और खिलाड़ी बताता है और लड़की अगले दृश्य में नोटिस बोर्ड पर एक कविता पढ़ रही है "यू डोंट नीड टू बी सिंगल एनीमोर" , क्यूँ नहीं दिखता? क़स्बे वैसे ही हैं लेकिन उनका संगीत क्यूँ नहीं दिखता? अजय-अतुल का काम क्यूँ नहीं दिखता?
    पर यहाँ तो ज्ञान का टपकता हुआ जामुन फ़िल्म की सौंधी जमीन को बदरंग कर रहा है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत सही कहा आपने ....

      इस समीक्षा मे बहुत कुछ नही बताया ..

      हटाएं
  5. बेनामी22 मई 2016, 11:13:00 am

    अरुण जी मैंने समालोचन को कटघरे में नहीं खड़ा किया है मैं नियमित पाठक रहा हूँ इस पत्रिका का मेरा अफ़सोस इस पर टिप्पड़ी करने वाले स्वधन्यमान साहित्यकारों पर था
    और वह लिकं वाला लेख मैं पढ़ चुका हूँ मुझे प्रत्यूषा की आत्महत्या पर संवेदना है पर ऐसी एक लाख आत्महत्यों से आप भी परचित होंगे इस पर विष्णु जी का लेख मुझे नहीं समझ में आता कयोकि यह एक बॉलीवुडीय आत्महत्या थी
    ....
    अन्य लेखो में यदि विष्णु जी बदटिप्पड़ी भी करें तो लेखक धन्य क्यों हो जाता है इस पर मेरा प्रश्न था या है।
    आप के इन प्रयासों को बिना टिप्पड़ी के भी अनेको लोग पढ़ते हैं प्रचार प्रसार भी करते हैं वह एक अलग विषय है
    मुझे कई दिनों से लग रहा था इसलिए मैंने ऐसी टिप्पड़ी का दुस्साहस किया
    और बेनामी का भी कारन है चीजे पूर्वाग्रह से लगभग मुक्त रहती है आप क्षमा करेंगे

    जवाब देंहटाएं
  6. कमलेश पाण्डेय22 मई 2016, 2:27:00 pm

    मेरे मराठी मित्रों ने 'सैराट' का मतलब बताया है 'uncontrollable...to run wild with passion'.तीन घंटे लम्बी और मराठी में होने के बावजूद
    हिंदी के दर्शकों में इसकी लोकप्रियता चमत्कार से कम नहीं.तीन घंटे तो लोग शाहरुख़ खान को भी झेल नहीं सकते.मेरे ख़याल में तो फिल्म की कास्टिंग,कस्बाई माहौल और ह्यूमर,और आर्ची का किरदार निभाने वाली वाली लड़की का अभिनय इसकी सफलता का मुख्य कारण है क्योंकि कहानी में ऐसा कुछ नहीं है जो पहले नहीं देखा.कहानी के तल पर इसी निर्देशक की 'फंड्री' बेहतर फिल्म थी.मुझे तो 'सैराट' 'Bobby Meets Honour Killing' लगती है.

    जवाब देंहटाएं
  7. विष्णु खरे22 मई 2016, 2:30:00 pm

    पाण्डेयजी, मेरे पास महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा,पुणे द्वारा प्रकाशित तथा गो.प.नेने - श्रीपाद जोशी द्वारा संपादित बृहत् मराठी-हिंदी शब्दकोश का 1971 का संस्करण है जिसमें 'सैराट' के अर्थ 'तितर-बितर','चाहे-जिधर' और 'भगदड़ मचना' दिए हुए हैं. चूँकि फ़िल्म 'भागने' और 'पीछे',flight and pursuit,पर टिकी हुई है इसलिए मुझे अब भी उसका अर्थ 'पलायन' के नज़दीक लगता है.

    अभी-भी मेरे मराठी कवि-लेखक मित्र उसका ठीक-ठीक समानार्थी हिंदी शब्द तय नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि मराठी में ही उसके एकाधिक अर्थ हैं.नायक-नायिका के पलायन में भय ज्यादा है, अनियंत्रण या वाइल्ड पैशन कहीं नहीं. दरअसल वैसा कोई बिनधास्त, उन्मुक्त सीन है ही नहीं.यह नायक-नायिका ऋषि कपूर - डिंपल के खानदान के हैं भी नहीं, यद्यपि सार-रूप में आपका one-liner फिल्म की सचाई के बहुत करीब है. दरअसल जो लोग चाहते हैं कि ऐसी जटिल फ़िल्म पर सम्पूर्ण चर्चा दिए गए एक हज़ार शब्दों में निपट जाए, तो वह उनकी निजी
    जहालत है.मेरे सारे प्रश्न rhetorical हैं, उनमें उत्तर भी छिपे हुए होंगे.
    मुझे तो इसी की ख़ुशी है कि एक ग़ैर-हिंदी भारतीय फिल्म पर 'समालोचन' ने एक बहस की शुरूआत तो की, वर्ना लोग अपने-अपने बिलों में न जाने कहाँ चिपके रहते हैं. 'सैराट' की विराट सफलता का गहरा विश्लेषण होना चाहिए.

    जवाब देंहटाएं
  8. बेनामी22 मई 2016, 5:55:00 pm

    पेट में गया हुआ जहर सिर्फ एक आदमी को मारता है
    लेकिन कान में गया हुआ जहर हजारों को खतम कर देता है
    इसलिए दुसरो के कहने पे विश्वास मत रखिए आपने जो देखा है उसपे विश्वास रखिए
    खरे जी से अच्छी समीक्षा की अपेक्षा थी छोडीऐ
    अभी तो सिर्फ सैराट झाल जी. झिंग झिंग झिंगाट

    जवाब देंहटाएं
  9. मराठी प्रैस में खबरें छपी हैं कि 'सैराट'की समाप्ति के बाद कई दर्शकों ने स्टेज पर चढ़ कर शायद झिंग झिंग झिंगाट पर नृत्य किया है.यह वह नृत्य-गीत है जो भाई द्वारा तलवार से केक काटे जाने के बाद पिता ज़मींदार पाटील के घर-प्रांगण में नायक-नायिका सहित सैकड़ों हर तरह के कस्बाइयों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है,जिनमें (बाद में) दम्पति के हत्यारे भी शामिल हैं.इससे एक हल्का सुराग मिलता है कि आम दर्शकों ने फिल्म को आंशिक रूप से शायद पहले एक घंटे की किशोर/युवा सामुदायिक ड्रिंकिंग मौज-मस्ती के लिए ही पसंद किया है वर्ना दो लाशों के हिला देने वाले दृश्य के बाद कोई कैसे असली स्टेज पर असली dans macabre पेश कर सकता है ? और भले ही यह फिल्म एक दलित ने बनाई हो,इस पर आम या बुद्धिजीवी दलितों की राय मैं अब तक जान नहीं पाया हूँ.जिस तरह एक लुम्पेन दर्शक-वर्ग सल्मानादिक की फिल्मों को हिट कर डालता है,क्या उसका विडंबनात्मक उभार हम मराठी में भी देख रहे हैं ? विचित्र तो यह है कि महाराष्ट्र सरकार ने फिल्म की सफलता को बहुविध भुनाने के लिए उसकी नाबालिग़ नायिका को प्रदेश में अंतर्जातीय विवाह की ambassador घोषित कर दिया है, जबकि उसकी बौद्धिक परिपक्वता और जाति,वर्ग,समाज,राजनीति आदि के बारे उसके विचारों को कोई नहीं जानता.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कीसीने गलत जानकारी दी है़. फील्म के खत्म होने पर सभी दर्शक स्तब्ध हो जाते .आप कीस काल्पनीक दुनिया मे है ? Do u think Nagraj is fool? I am surprise to read such pathetic review of this movie.

      हटाएं
  10. कुमार गौरव22 मई 2016, 7:07:00 pm

    ज़िंदगी स्वयं किसी रोशन माहौल से सन्नाटे में कब बादल जाती है हम नहीं बता सकते। सैराट ने इस पक्ष को दिखाया है एक वक्त जब दर्शक सब कुछ अच्छे-अच्छे के भाव में बह जाता है तभी निर्देशक दूसरे सच को सामने ला देता है। वही दर्शक जो मंच पर चढ़कर नाच रहा है अंत में कुछ नहीं कह पता। एक सच खामोशी के साथ भीतर तक कचोटता है। विष्णु खरे जी अगर इसके पक्षों पर पर्दे की दृष्टि से बात करते तो नए आयाम मिलते लेकिन बोझिल शब्दों से भरी एक समीक्षा ही में इसे कहना पसंद करूंगा

    जवाब देंहटाएं
  11. ‘सैराट’ मैंने अब तक नहीं देखी मगर नागराज मंजुले की पहली फ़ीचर फ़िल्म ‘फैन्ड्री’ पिंपरी के अशोक चित्र मंदिर में उन लोगों के बीच बैठकर देखी थी जिन्हें विष्णु खरे लुम्पेन दर्शक-वर्ग कहते हैं. उस फ़िल्म के आखिरी बीस-पच्चीस मिनटों के अत्यंत मार्मिक-कारुणिक सीक्वेंस में अपने अगल-बगल बैठे लोगों के ठहाके शायद कभी भूल नहीं पाउँगा. उसके बाद ज़ी ग्रुप के मराठी फ़िल्म चैनल ‘झी टॉकीज’ ने ‘फैन्ड्री’ के वर्ल्ड टीवी प्रीमियर में उसे जिस प्रतिक्रियावादी ढंग से सेलेब्रेट किया था वह भी अविस्मर्णीय है.
    बहरहाल, ‘सैराट’ की व्यावसायिक सफलता ने मुझे किंचित डरा दिया है. मेरा डर उस बात को लेकर तो है ही जिसे विष्णु जी ने ‘विडंबनात्मक उभार’ कहा है, मगर मेरा ‘सिनिकल’ मन नागराज को लेकर भी चिंतित है. मैं उनकी तुलना मन-ही-मन व्योमेश शुक्ल से कर रहा हूँ. जिस तरह हिंदी कविता में व्योमेश ‘precocious’ या ‘arguably precocious’ माने जाते थे (या हैं), कुछ ऐसा ही मामला नागराज का भी लगता है. जैसे व्योमेश की कविताएँ काफी हद तक ‘autobiographical’ थीं वैसे ही नागराज की ये दो फ़िल्में भी हैं. इतना ही नहीं, जो वैचारिक तैयारी व्योमेश में नज़र आई थी, वही नागराज में भी दिखाई देती है. ‘बचपन, परिवार, स्कूल, कैशोर्य और युवावस्था की ताज़ा पूँजी’ हमेशा नहीं टिकती; क्या उसके ख़त्म होते ही कवि चुप हो जाता है और अपना रास्ता बदल लेता है?
    ‘सैराट’ की इस अप्रत्याशित सफलता के बाद नागराज कौन सी राह पकड़ते हैं यह देखना दिलचस्प होगा.

    जवाब देंहटाएं
  12. भारतजी,आपकी टिप्पणी ''सैराट'',मेरे और सभी टिप्पणीकारों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है,विशेषतः ''फंदरी'' वाली जानकारी .उसे समझना और महसूस करना बहुत ज़रूरी है.मुझे ''सैराट'' की बॉक्स-ऑफिस सफलता से हर्ष है क्योंकि सांस्कृतिक रूप से मैं स्वयं को मराठी माणूस ही मानता हूँ लेकिन आपकी तरह मैं भी उसकी कामयाबी से puzzled और चिंतित हूँ.नागराज मंजुले के सन्दर्भ में व्योमेश शुक्ल को जोड़कर आपने इस विमर्श को एक बहुआयामीय दिशा दे दी है हालाँकि मैं व्योमेश को अभी कुछ ढील और,यद्यपि बहुत कम, देना चाहता हूँ.

    जवाब देंहटाएं
  13. विष्णु जी,
    चूँकि मैं भी अपने-आप को मराठी माणूस मानता हूँ इसलिए महाराष्ट्रीय समाज के बारे में कुछ बातें जोड़ना चाहूँगा. बहुत संभव है यह बातें सिर्फ महाराष्ट्रीय समाज के लिए स्पेसिफिक न होकर हमारे देश के अन्य भाषाई समाजों या क्षेत्रीयताओं के लिए भी मौज़ूं हो.
    फुले-आम्बेडकर के रैडिकल उद्यम का घर रहे इस समाज में प्रति-क्रान्ति जिस तेज़ी से उभरी है वह देखने लायक है. इस समाज में वैचारिक फाल्टलाइन्स का लगभग अभाव मुझे बेहद चकित करता है. सावरकर के बगल में अन्नाभाऊ साठे की तस्वीर लगती है, और शरद पोंक्षे के फैन समता पर लेक्चर देते हैं. यहाँ विजय पाडळकर ‘अल्पसंख्य’ जैसा वाहियात उपन्यास लिख सकते हैं और महेश मांजरेकर ‘कोंकणस्थ’ जैसी फ़िल्म बना सकते हैं. कभी-कभी मैं सोचता हूँ अगर उदय प्रकाश हिंदी के नहीं बल्कि मराठी के लेखक होते तो योगी आदित्यनाथ से पुरस्कार स्वीकार करने जैसी ‘तुच्छ’ बात पर, हमारे विदर्भ की भाषा में कहूं तो ‘शेंबडा पोट्टा’ भी ध्यान नहीं देता.
    दूसरी ओर मैं इस स्थिति को कभी अमेरिकी समाज के बरक्स भी रखने लगता हूँ जहाँ आप ‘लिबरल’ होते हुए भी कुछ मुद्दों पर ‘कॉनज़र्वेटिव’ स्टैंड लेते हैं या ‘कॉनज़र्वेटिव’ होते हुए भी कभी-कभी ‘लिबरल’ झंडा उठाते हैं. कहीं यह एक पिक्चर परफेक्ट पोस्ट-आइडियोलॉजिकल ‘विकसित’ समाज की ‘चाहूल’ तो नहीं?
    खैर ‘सैराट’ की सफ़लता पर सोचते हुए ऐसा लगा कहीं इसके पीछे विशुद्ध डेमोग्राफिक कारण तो नहीं जैसे २०१४ के लोकसभा चुनावों में ब्रांड मोदी की जीत के पीछे थे, मसलन युवा वर्ग जिसके पास फ़िल्म को देखने और पसंद करने की मुख्तलिफ वजहें हैं.

    जवाब देंहटाएं
  14. भारतजी,मेरे परिवार की जड़ें छिंदवाड़ा में हैं जो 1956 तक सेन्ट्रल प्रॉविन्सेज़ और बरार में था.सिर्फ अस्सी मील दूर नागपुर हमारी राजधानी थी और मेरे पिता 1934 में बी.एससी.करने वहीं गए थे,बाद में पुणे में भी आर्मी मेडिकल कोर की ट्रेनिंग ली.छिंदवाड़ा में तब सैकड़ों पढ़े-लिखे मराठी परिवार थे - अब भी हैं.दो मुहल्लों के नाम मराठी हैं.बचपन से ही मराठी और ग़ैर-मराठी दलित-आदिवासी भी भरे पड़े हैं.आपने ठीक लिखा है की मराठी साहित्य में यदि पारम्परीण प्रतिबद्ध विचारधारा है भी तो उतनी अनम्य नहीं है जितनी हिंदी में है.''पार्टनर,तुम्हारा पॉलिटिक्स क्या है'' यह प्रश्न मराठी के बौद्धिक-सर्जनात्मक क्रॉस-एग्जामिनेशन का हिस्सा हिंदी-जितना नहीं है.मैं और मेरे कई मराठी लेखक मित्र इस पर पड़ताली चर्चा करते रहे हैं.आपकी यह क्षितिज-विस्तारक टिप्पणी भी मेरे लिए बहुत उपयोगी रही है.

    जवाब देंहटाएं
  15. साधुवाद! शब्द-पद-वाक्य में अर्थ की मनोभाषिकी मुखर है जो अपने समय को समझने की महीन दृष्टि प्रदान करती है। यथा:
    1) "वह मराठी सिनेमा के इतिहास की सफलतम फ़िल्म मानी जा रही है."( अतः इस बारे में गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना यथेष्ट है)
    2) "उसका कथा-स्थल सैलानियों में लोकप्रिय नहीं है. क़स्बा देश-भर के सैकड़ों ऐसे क़स्बों की तरह सामान्य है - न सुन्दर, न कुरूप. किशोरों-युवकों के पास आपसी क्रिकेट-मैच, कूएँ की तैराकी और कभी नाव की सैर के अलावा मनोरंजन के कोई साधन नहीं हैं. बस-अड्डा है लेकिन ट्रेन यहाँ से नहीं जाती."(स्मार्ट सिटी का भरोसा देने और बुलेट ट्रेन भारत में चलाने का ख़म ठोंकने वाले-यह कहाँ का भारत!)
    3) "पहला एक घंटा ‘’आती क्या खण्डाला’’-टाइप है और वह प्रचलित homo-erotic (समलिंग–स्नेहिल) भले ही न हो, अधिकांश भारतीय फिल्मों की तरह नाच-गाने और मेल-बॉन्डिंग (पुरुष-मैत्री) पर टिका हुआ है. लेकिन उसमें शराफ़त से किसी एक लड़की से सम्बन्ध बना लेने की जोखिम-भरी हसरत-ओ-तड़प भी है. हमारे किशोर और युवा वर्ग में नारी के लिए दीवानगी तक ललक है." (भारतीय सिनेमा के रूटीन दर्शक युवा लड़के-लड़कियों का आपसी गलबहियाँ, प्रेमालाप, चुहल, रोमांस, शरारत, अनबन, गुस्सा, टसुए बहाना आदि को देखने का आदी रहा है; सवाल है-फिर नया क्या?)
    4) "होश में लानेवाला पहला तमाचा नायिका के भाई के हाथ से उसके पिता के इंटर कॉलेज में मराठी कविता पढ़ानेवाले दलित शिक्षक के मुँह पर नहीं, हमारे गाल पर पड़ता है और पिछला सारा शीराज़ा बिखर जाता है."(सामाजिक यथार्थ का वह नंगा सच जिसमें सारे बदमाश, गुर्गे, अपराधी सवर्ण मानसिकता के होते हैं। समय बदल रहा है। लेकिन अब भी जातीय लठैती गई नहीं है। हर जगह अपनी ही जाति का एकाधिकार(बाबाराज) समझने वाले लोग किसी दलित से कम उसके अध्यापक हो जाने से अधिक चिढ़ने लगे हैं)
    5) "और इस सब बदलाव में नायिका आर्ची का अपने माता-पिता, भाई-बहनों और घर को सहसा याद करना. सर्वनाश मायके से कई भेंटें लेकर आता है."(भारतीय फ़िल्म जैसे बिना विवाद/हिंसा/हत्या का आलाप लिए ‘दि एण्ड’ तक नहीं जा सकती है। ऐसे मोड़ दर्शकों को एकरसता से ब्रेक और कहानी को ख़त्म करने की जिद(बनाने की महत्त्वाकांक्षा अधिक) से सने होते हैं।)
    5) "फिर यह दर्शक हैं कौन? इनके पैसे कैसे वसूल हुए? कितने दलित,कितने सवर्ण,किन जातियों के ? कितने किशोर/युवा ? कितने वयस्क,बुद्धिजीवी ? क्या सब सवर्णवाद के आजीवन शत्रु रहेंगे ? क्या वाक़ई ’सैराट’ कोई जातीय, सामाजिक और राजनीतिक प्रश्न उठाती है ?"(यह ऐसे प्रश्न हैं जिसका उत्तर पाने के लिए फ़िल्मी नहीं व्यवहारवादी दृष्टिकोण अपनाए जाने चाहिए? सवर्णवाद और उसकी बर्बर कार्रवाईयों का सर्वनाश हो; आरक्षण-हीन जातियाँ/अल्पज्ञानी तब भी महापंडित बनकर दूसरों को गरीबी में, अशिक्षा में, अभाव में कब तक जीते रहने के लिए राजनीति करेंगे? आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के पाँख यदि हमारे भी उगे हैं, तो हमें अलग से आकाश की कल्पना नहीं; उसी आकाश में उड़ने की बराबरी है। इस मुहिम में हम मारे जाएँगे, लेकिन वो भी कब तक अकेले जिंदा रहेंगे; सबको एक-दूसरे का साथ चाहिए, मंगल के लिए सहोदर नाता और भाईचारा चाहिए। और इन सबके लिए जरूरी है कि मानवीयता का उभार हो; आधुनिक सोच, विचार और वैज्ञानिक दृष्टि हमारे भीतर उमगे; व्यवहार-व्यक्तित्व-निर्णय-नेतृत्व में दिखे.....फिर देखते रहे ऐसी फ़िल्मी ताना-बाना का ‘सैराट’; रोका किसने है? लेकिन गंभीर सवाल का जवाब खुद से लिए बगैर अंगभीर कार्यों में संलिप्तता सही नहीं है।)

    सजग पाठक को झिंझोड़ने वाली एक ऐसी फ़िल्म समीक्षा जो वाद-विवाद का तूल खड़ा करने की बजाए खुद फ़िल्म देख लेने का इल्तज़ा करती है; का स्वागत किया जाना चाहिए। कोई भी प्रबुद्ध समीक्षक बने-बनाए फ़िल्मी ढर्रे की रौ में बह जाने से रोकना चाहता है। वह चाहता है कि यदि किसी फिल्म में समाज के सच को सामने लाने की कूव्वत और प्रतिबद्धता है, तो उसे व्यावसायिक लटके-झटके से बचना चाहिए। बेशुमार लोकप्रियता का आलोड़न सदैव आदमी को मंदबुद्धि साबित करती है, यदि हम बौद्धिक हस्तक्षेप भरा फिल्मी रूख अख़्तियार करने की सोचते हैं, तो कुछ प्रश्न अपने झोले में जवाब औरों से नहीं खुद से पूछना चाहिए। बड़े प्यार से फुरसत के साथ।


    एक कवि वैज्ञानिक प्रयोग नहीं कर सकता, लेकिन इस बारे में सोचने का पूरा अधिकार है। इस फ़िल्म समीक्षक की भी अपनी सीमाएँ हो सकती है, हम जरा आगे की सोचें, तो बात बने!

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.