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यात्रा - याद
बादलों को पर्वतों पर अटखेलियाँ करते देखा                                

केदार सिंह


ज पुनश्चर्या का उन्नीसवां दिन था शैक्षणिक भ्रमण का दिन. लगातार अठारह दिनों तक दस से चार बजे तक वर्ग में बैठकर पढ़ाई की ऊब से मुक्ति का दिन. समन्वयक की घोषणा के अनुसार हम सभी प्रतिभागी पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय (नेहु)की अतिथिशाला में ब्रह्म मुहूर्त से ही जगकर चहलकदमी करने लगे थे. सूर्योदय होने को था. सूर्य की किरणें बादलों का लिहाफ हटाकर पर्वतीय नगरी मेघालय की सुन्दर वादियों पर अपनी स्वर्णिम आभा विखेरने को आतुर थीं, पर चंचल बादल के टुकड़े उन्हें ढंक ले रहे थे. बादल और किरणों की लुका-छिपी का यह नजारा अद्भुत था. बिखरी रूई की तरह बादल हमारे आस-पास भी मंडरा रहे थे. विभिन्न राज्यों से आए हम सभी करीब बाईस प्रतिभागी तैयार होकर इस गेस्ट हाउस की बालकनी से कभी मेघ की रिमझिम, कभी बादलों की अटखेलियों का आनन्द लेने लगे.

पहाड़, घाटी और लंबे-लंबे दरख्तों से भरे जंगलों की हसीन वादियों से घिरा देश का अभिन्न एवं एवं समृद्ध हिस्सा, पूर्वोत्तर क्षेत्र के एक ओर हिमालय की शृंखलाएँ तथा अन्य दिशाओं में भूटान, तिब्बत, म्यांमार तथा बंगलादेश की सीमाएँ हैं. असम, अरुणाचल, मणिपुर, नागालैण्ड, मिजोरम, त्रिपुरा और मेघालय, इन सात राज्यों को पूर्वोत्तर की संज्ञा दी गई है. इन सात राज्यों में मेघालय की राजधानी शिलांग! इसकी खुबसूरती को देखकर ऐसा लगता है, मानो विधाता ने स्वयं फुरसत के क्षणों में इसका निर्माण कर धुंए के समान बादलों को फैला दिया हो.

मेधालय में गारो, खासी और जयन्तिया नामक तीन पहाडियाँ हैं. इन्हीं पहाडि़यों को केन्द्रित कर यहाँ तीन जनजातियाँ - गारो, खासी एवं जयन्तिया हैं. इन जनजातियों की भाषाएँ भी अलग-अलग पहाडि़यों के नाम पर ही गारो, खासी और जयन्तिया हैं. हमारे गेस्ट हाउस की केयर-टेकर रोसा नामक खासी भाषी खूबसूरत महिला थी, जो तो थी एक बच्चे की माँ, लेकिन कद-काठी के कारण देखने में लड़की की तरह लगती थी. वह अंग्रेजी अच्छी तरह बोल लेती थी. कभी-कभी हम लोगों के साथ टूटी-फूटी हिन्दी का भी प्रयोग कर लेती थी. उसने आकर खुबलई’ (खासी भाषा में नमस्कार) करते हुए, सूचना दी कि आपलोगों को चेरापूंजीले जाने के लिए बस आकर लग गई है. गंतव्य स्थल चेरापूंजी का नाम सुनते ही हम सभी खुशी से भाव विभोर हो गए.

बचपन में पुस्तकों में पढ़ी गई चेरापूंजी की प्राकृतिक छटा हमारी स्मृतियों में कौन्ध गई. आज हम सभी उसी चेरापूंजी की शैक्षणिक यात्रा करने जा रहे हैं, जहाँ विश्व में सर्वाधिक वर्षा होती थी, (अब मासिनराम में सर्वाधिक वर्षा होती है, जो चेरापूंजी से 10 या 12 किलोमीटर की दूरी पर है.) जहाँ पर्वतों पर और पर्वतों से नीचे आकर बादल अटखेलियाँ करता है, जहाँ पर्वतों से फूटने वाले झरने निरंतर झर-झर करते हुए धरती की गोद में समाकर सुरम्यता प्रदान करते हैं, जहाँ की सड़कें पर्वतों का सीना चीरकर सर्पाकार आगे बढ़ती जाती हैं, जहाँ की सरहदें कामायनी के जलप्लावन का दृश्य उपस्थित करती हैं, जहाँ के पर्वत, झरनें, बादल, कन्द्राओं की रमणीयता हमें मंत्र मुग्ध कर देती है.

हम सभी नेहु के एक प्राध्यापक डा॰ भरत प्रसाद जी के नेतृत्व में बस में बैठकर रवाना हुए तब वर्षा की हल्की-हल्की बौछारें पड़ रही थी, रास्ते में सब कुछ सामान्य ढंग से दिख रहा था, लेकिन यह क्या थोड़ी देर के बाद ही पूर्वोत्तर की पहाडि़यों को ढंकने वाला आकाश से टपकने वाला गाढ़ा काला रंग धीरे-धीरे चारो ओर पसर गया. दूर के दृश्य आंखों से ओझल हो गए. पुनः थोड़ी दूर जाने के बाद घिरे हुए बादलों के बीच विहँसता हुआ सूरज दिखलाई पड़ा. मानो आकाश ने गाढ़े काले रंग को थोड़ी देर के लिए समेट लिया हो. बस सर्पाकार गति से एक ओर पहाड़ी और दूसरी ओर खाई के बीच बनाए गए रास्ते से होकर गुजरती जा रही थी. यहाँ समतल जमीन के अभाव में पहाडि़यों की ढलानों पर ही जहाँ-तहाँ खेत बनाकर अनारस या अन्य छोटे-छोटे पौधे वाले फल-फूल की खेती लह-लहा रही थी. आगे पहाडि़यों से पानी के तेज बहाव के कारण रास्ता कहीं-कहीं पत्थरों और मिट्टी से अवरूद्ध हो गया था, थोड़ी देर के लिए हमारी यात्रा अवरूद्ध हो गई. लोगों को पूछने पर ज्ञात हुआ कि अक्सर यहाँ के रास्ते ऐसे ही थोड़ी देर के लिए बन्द हो जाते हैं, पर तुरन्त ही मशीन से मलवे को हटवा कर रास्ता साफ कर दिया जाता है. हमलोग अभी आपस में बात कर ही रहे थे कि एक मशीन आई और रास्ते से मलवे को हटाते हुए आगे बढ़ गई. रास्ते में कहीं-कहीं थोड़ी समतल जमीनपर छोटे-छोटे लकड़ी या कंक्रीट के भूकंप अवरोधक घर बड़े सुन्दर ढंग से बने हुए थे. पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की भाँति यहाँ भी सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं का वर्चस्व है. इसी वर्चस्व की झलक नौकरी-पेशे आफिस, बाजार या खेतों में भी मिल रही थी.
           
रास्ते पर बने घरों की खिड़कियों में रंग-बिरंगे वस्त्रों से सुसज्जित  बच्चे अपने हाथ हिला कर हमारा अभिवादन कर रहे थे. हमलोग भी अपने हाथ हिलाकर उनके अभिवादन का उत्तर देते जा रहे थे. साढ़े ग्यारह बजे के आस-पास हमारी गाड़ी थोड़ी चैड़ी सड़क पर किनारे होकर रूक गई. हल्की-हल्की वर्षा हो रही थी. गाड़ी रुकते ही लोग उतरने लगे. साथ में मैं भी गाड़ी से उतर गया. उतरने के बाद बांई तरफ एक बोर्ड देखा. उसपर लिखा था - दुनानसिंग सेम व्यू प्वाईंट (डिमपेप). समझते देर नहीं लगी कि यह प्वाइंट दर्शनीय स्थल है. हरियाली से लदा हुआ पर्वत, और पर्वत के नीचे लंबी गहरी खाई. आसमान से उतर बादलीउस गहरी लंबी खाई में इस तरह फैली थी मानो कोई तरुणी लेटकर अपने सुडौल जांधों और वक्षों को अपनी साड़ी से ढंकने का असफल प्रयास कर रही हो, पर हवा के झोंके साड़ी को स्थिर नहीं रहने दे रहे हों. मादकता भरे इस दृश्य को कुछ लोगों ने अपने कैमरे में, कुछ ने अपनी नजरों में कैद कर लिया. दस-पन्द्रह मिनट के पश्चात् हमारी गाड़ी अगले प्वाइंट के लिए प्रस्थान कर गई. बारह बजे के आस-पास हम लाटरिन ग्यू सोहरा’ (रिम प्वाइंट) नामक स्थान पर खड़े थे. यहाँ भी एक ओर काफी ऊँचा लंबा पर्वत था, पर्वत के नीचे काफी लंबी एवं गहरी खाई थी. पर्वत से एक साथ अनेक झरने गिर रह थे. पगडंडियों से गुजरते हुए हमारा मन झरनों की संगीत लहरियों को सुनने एवं देखने को व्याकुल हो गया. हम सभी आत्ममुग्ध होकर देख रहे थे तभी किसी ने कहा गाड़ी खुल रही है, और हमलोग देखते ही देखते बस में सवार होकर आगे की यात्रा के लिए निकल पड़े.

हमारा अगला दर्शनीय पड़ाव था नोहकालिकाई फाल. यहाँ एक फाल नहीं, काफी ऊँचे पर्वत के सीने को चीरकर अनेक झरने एक स्वर में झर-झर गिर रहे थे. उनमें से कुछ क्षीणकाय झरनों का जल पर्वत की आधी दूरी पर ही आकर धुँए की तरह बादल बनकर आस-पास वातावरण में विखर जा रहा था. स्वर्गीय आभा प्रदान करने वाले इस मनोरम दृश्य को देखकर हम सभी इतने मंत्र मुग्ध हो गए कि हमें वक्त का कोई ख्याल ही नहीं रहा. अभी करीब एक बजे होंगे कि साथ गए शिक्षक महोदय का आदेश हुआ कि यहीं देखते रहना है कि आगे भी जाना है. तब हमारी तंद्रा भंग हुई, और हमलोग पुनः दूसरे गंतव्य के लिए प्रस्थान कर गए.
आंधे घंटे तक चलने के पश्चात् डेढ़ बजे के आस-पास हमारी गाड़ी मवास्माई केवनामक गुफा के पास जाकर रूक गई. मावास्माईगुफे की लंबाई एक छोर से दूसरे छोर तक 150 मीटर है. यह गुफा अति प्राचीन काल से अपने अन्दर अनेक तथ्यों को छुपाए हुए है. जो भी पर्यटक यहाँ आते हैं वे गुफा के अन्दर से होकर गुजरते हैं. गुफा के मुंह पर जाकर देखा तो मैं काफी भयभीत हो गया, किन्तु अपने कुछ साथियों को उत्साहित देखकर मैं भी तैयार हो गया. इसके अन्दर से गुजरते हुए हम काफी रोमांचित और भयभीत भी हो रहे थे. भयभीत होने का कारण था अति संकीर्ण मार्ग, जल जमाव और कहीं-कहीं धुप्प अंधकार. ऊपर से पानी भी गिर रहा था. उस पानी से हम भींग भी गए. ठण्ड भी लगने लगी. खैर गुफा के दूसरे छोर पर पहुंचकर हमें उतनी ही अधिक खुशी हुई, जितनी खुशी माउण्ट एवरेस्ट पर विजय पाने वाले को हुई होगी.

गुफा से निकलने के पश्चात् हमें काफी जोरों की भूख लगी थी. हम सबों ने निर्णय लिया कि लंच के बाद अगले प्वाइंट के लिए प्रस्थान करेंगे. भोजन के पश्चात् थंगखरंग पार्क’ (सोहरा) प्वाइंट के लिए हमारी गाड़ी प्रस्थान कर गई. यह हमारा अंतिम, किन्तु महत्त्वपूर्ण पड़ाव था. महत्त्वपूर्ण इसलिए कि यह थंगखरंग पार्क हमारे देश की सीमा की सबसे ऊँची भूमि पर अवस्थित है. इस ऊँचाई के बाद नीचे काफी गहराई में कुछ किलोमीटर के बाद बंगलादेश की सीमा प्रारंभ हो जाती है. हिन्दुस्तान और बंगलादेश की सरहद पर मेघना और सुरमा नामक नदियों का जल काफी तेजी से आप्लावित हो रहा था. दूर-दूर तक जलमग्न धरती के उस छोर को सरहद के रूप में देखकर मन काफी भाव विभोर हो गया और कामायनी के जल प्लावन का दृश्य हमारे सामने उभर कर आ गया.

यहाँ के पार्क ने भी हमें काफी आकर्षित किया. काफी लंबे-चैड़े एरिया में यह पार्क फैला हुआ है. इस पार्क में चलने के लिए पतली-पतली कंक्रीट की सड़के हैं. इसमें फूल-पौधों की क्यारियाँ खूबसूरत ढंग से बनाई गई हैं. अभी हमलोग आधा पार्क घूमें ही होंगे कि बारिश शुरू हो गई. ऊँचाई से गिरते पानी के फव्वारें कुहासे के समान मेघ हमें बरबस अपनी ओर आकर्षित करने लगे और अज्ञेय की यह पंक्ति स्मरण में आ गई - अरे यायावर रहेगा याद. समेट लेना चाहता था ज्यादा से ज्यादा स्मृतियों को. यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता को, सरल जीवन को, हस्तशिल्प, कारीगरी को.

बारिश की राजधानी चेरापूंजी शिलांग से 60 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है. इस चेरापूंजी को सोहरा नाम से भी जाना जाता है. वापस लौटने का समय हो गया था. मन में आह्लाद और आँखों में आश्चर्यचकित करने वाली खुशी थी.

दूसरे राज्यों की भांति अकूत सम्पदा और सौन्दर्य प्रदान करने वाले यहाँ पर्वतों का भी लोगों ने अब दोहन शुरू कर दिया है. यह चिन्ता का विषय है. नागार्जुन ने कभी बादलों को घिरते देखा था. आज हमने बादलों को पर्वतों पर अटखेलियाँ करते देखा.



केदार सिंह ::

कविता, लेख और कुछ किताबें
स्नातकोत्तर, हिन्दी विभाग,
विनोबा भावे विश्वविद्यालय,
हजारीबाग-825301 (झारखण्ड)

kedarsngh137@gmail.com

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  1. मेरे पसंदीदा लेखों में से एक है, बहुत कम लेख ऐसे मिल पाते है।

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  2. kedar ji aur Arun ko badhai ... lohit ke teer se garo, khasi jayantiya ki pahadiyan .. beech mein golakar havaon mein basata shilong hai .. wahin se aur upar wah cherapoonji .. jharno ka desh .. ek nadi swarg ko jaati ho jaise.. upar ko uthati .. viparyay:)

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  3. बहुत सुंदर यात्रा वृतांत
    तीन साल इस इलाके तैनात रहा, लेकिन लगता है तब मैने ठीक तरह से नहीं देखा, आज इस क्षेत्र को काफी करीब से देख पाया हूंय़

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  4. केदार भाई आपका लेख वाकई बहुत सुन्दर है। तीन साल का पुराना दिन आपने याद दिलाया। धन्यवाद।

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  5. केदार सिंह बड़ी सहजता से पूर्वोत्तर के प्राकृतिक सम्मोहन को अपने यात्रा-वृतांत में प्रस्तुत कर देते हैं। केदार जी आपसे विशेष अनुरोध करूँगा कि आप और लिखें। बहुत-बहुत बधाई। आपका स्वागत है केदार सिंह जी...

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  6. जैसा कि फोन पर आपसे चर्चा हुई थी कि इस लेख को हम पूर्वोत्तर वार्ता पत्रिका में प्रकाशित करना चाहते हैं ताकि और अधिक पाठक इसका लाभ उठा सकें। आप अपनी अनुमति भेजें।
    संपादक, पूर्वोत्तर वार्ता, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी, पो. रिन्जा, शिलांग 793006, मेघालय
    फोन 09774286215

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  7. yatra warnan bahut aacha hai. giwant drishyoon ka warnan kiya gaya hai...

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  8. SAMALOCHANA PAR KEDAR JEE KA YATRA VRITANT DEKHKAR HARSIT HUA.YAH YATRA VIRTANT PURVOTER KI VADIOO SE SAKSHATKAR KARTI PRATIT HOTI HAI .SAMALOCHANA PAR PRASIT YAH AKELA YATRA VIRTANT HAI .AISI AUR RACHNAO KI APEKSHA HAI.KEDAR JEE KO EK UTKRISTH RACHANA KE LIY BAHUT BAHUT BADHAI.

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  9. धीरंजन सिंह12 फ़र॰ 2019, 9:04:00 am

    यात्रा बेहतर बन पड़ी है,रोचक,ज्ञान वर्धक है।

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  10. आपने पुर्वोत्तर भारत कि बहुत हि सुन्दर प्राकर्तिक छवि प्रस्तुत की है और हमें भी जाने की इच्छा हो रही है।
    Dr.K.Kumar

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  11. Purvotar ko bohot acche se darshya gya hai
    Bohot khoob

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