भूपिंदरप्रीत की पन्द्रह कविताएँ (पंजाबी) : रुस्तम सिंह






'कवि का काम शीशा साफ़ करना नहीं
धुँधले-से
आकार पैदा करना है'
भूपिंदरप्रीत (जन्म :1967) समकालीन पंजाबी कविता के परिदृश्य में महत्वपूर्ण और अग्रणी कवि माने जाते हैं, उनके छह कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उनकी कविताओं के अनुवाद आप पहले भी समालोचन में पढ़ चुके हैं. उनकी पन्द्रह नई कविताओं का हिंदी अनुवाद रुस्तम सिंह ने कवि की मदद से किया है. 



भूपिंदरप्रीत की पन्द्रह कविताएँ (पंजाबी)                  
(पंजाबी से अनुवाद : कवि के साथ रुस्तम सिंह)
एक कोशिश धुआँ
जब मैं तुम्हारी बात कर रहा था
कारखाने की चिमनी से धुआँ उठ रहा था
चिमनी की तरह अन्दर से जली
तुम चुप थीं
ताप-घर के अँधेरे में झुलस रहा
कारीगर था मैं एक
सोचा
अगर मैंने धुएँ को देखना छोड़ दिया
तुम्हारा आकाश मुझसे
छूट जायेगा
पीछे बचेगा कारखाना
बात नहीं
ताप-घर में पिघलता
बात करता रहा
मैं तुमसे
धुएँ के आकाश में मिल जाने तक



ज़ीरो
अनिश्चित था
कि आओगी तुम
लाँघ कर मुझे अपने अन्दर से
और मिला दोगी
मेरे ही बंटे हुए भागों को आपस में
जो तकसीम हो रहे हैं
अपने ही बचे हुए भाग्य से
और वही हुआ
तुम नहीं आयीं
तुम्हारी जगह
खाली जगह आयी
जिसमें मैं सारे समीकरणों को
तुम्हारे समीकरणों से
मिलाते-मिलाते
एक हारा हुआ गणितज्ञ हो गया
और सोचने लगा
जहाँ से शुरू हुए थे
हमारी वो ज़ीरो कहाँ है





आ ही रहा हूँ

उस अनन्त खूबसूरती में
मैंने बाहें खोलीं
और रुके हुए समय के लिए रास्ता बना दिया
ज़ंग लगे पुल पर एक औरत धूम्रपान कर रही थी
पीठ पर लटका बच्चा
बहते पानी के ऊपर उड़ते धुएँ को देख खुश हो रहा था
पक्षी थे कि
घने वृक्षों से
तड़पकर निकलते
दुआओं की तरह
बददुआएँ थीं कि
मिट्टी में दबी
सिसक रही थीं
दम तोड़ रही थीं
मैंने अपनी बाहें खोलीं
और पागल सूर्य से कहा-
मेरी आत्मा के लिए आग का एक कोना बचा के रखना
आ ही रहा हूँ पास तुम्हारे
भटके समय को राह दिखाकर
हो ही जाना है ख़त्म उस औरत का धूम्रपान
कुछ ही देर में



तुझे पता है!
मुझे पता नहीं
मैं तुम नहीं
धरती पर डोलती तुम्हारी
परछाईं हूँ
और कहीं एक मृग है
चरना चाहता है जो
इस हरी परछाईं को
पर थक-हार सो जाता है नाभि में
मुझे पता है
मैं 'मैं' नहीं
एक मरीचिका हूँ
जो फिर से जन्म लेने के लिए
भटक रही है
तुम्हारी योनि की तलाश में
और रास्ते में आ जाता है बार-बार
ख़ुदा
तुझे पता है !



सब कुछ
सब कुछ वैसे ही है
जैसे न होने के लिए हुआ ही जा रहा हो सब
जैसे किताब अपना पन्ना
आप न पलट सके
जैसे कोई नियति के बाहर
न निकल सके
सब
टहनियां इस कदर टेढ़ी और रूखी हैं
जैसे किसी कहानी का अन्त न मिल रहा हो
फसलें इतनी लहरा रही हैं
जैसे उन्हें काटने वाला ही न रहा हो
धरती पर
सब
जैसे सुना तो वही जाता है
समझा भी वही
लिखा भी वही
पर कविता नहीं बनती
शब्द की आंत में ज़हरीला मादा होता है
और असन्तुलन में भटकते शब्द
एक बेज़ार हुए कवि को ढूँढते
वैसे के वैसे ही पड़े रहते हैं
ता-उम्र
सब कुछ



अभाव
कुछ खास नहीं था वहाँ
घास पर ख़ामोशी से ओस की बूँदें सूख रही थीं
पीले टूटे तिनकों पर
हरी छाया
तेज़ धार से बनते पानी के घुँघराले सफ़ेद बाल
मेरी कार के धुँधले शीशे पर गिरा
हंसनी का सफ़ेद पंख
और रोशनी में मर रहा
अन्धा जुगनू
कुछ खास नहीं था वहाँ
अपना ही अभाव था
रंजिश में खड़े लोहे के जँगाले पुल-सा
नीचे जिसके
नुकीले पत्थर पर
धूप में सुखा रहा था
फुंकार
एक चितकबरा सांप


नियति
धरती पर जलती आँख बन रही थी
सूर्य की
जब मैंने तुम्हें सूनी सड़क पर
अपनी ही
छाया ढूंढते देखा
चुप रहा
क्या कहता
अभी-अभी छूट के आया था
रात के सन्नाटे से
जिसकी शीतल चाँदनी में जम कर बर्फ़ हो गये थे
सारे शब्द
भटक गयी थी मेरी छाया

लोप होने के लिए जगह नहीं बची थी
आत्मा में
क्या कहता
बस देखता रहा तुमको
छाया ढूंढते
नियति है शायद सबकी



एकांत-शिविर
अपनी इस उम्र से आगे जाने के लिए
उम्र से पहले गिर गये
सफ़ेद बाल ढूंढ रहा हूँ
वो वस्तुएँ
जिनका भय था
कविता की काल-कोठरी में बस गयी हैं
मरी हुई स्मृतियाँ
कई बार
जीना सिखा देती हैं
मैं शब्दों की कब्रें खोद रहा हूँ
आनन्द
एक गुब्बारा
दुःख
लम्बा सफ़ेद धागा
पकड़कर जिसे एक बोधी बच्चा
पहाड़ की ढ़लान
उतर रहा है
और नहीं मिल रहा उसे
एकांत-शिविर



जाने दोगी न !
मुझसे बाहर जाने के लिए
एक आदमी तुमसे रास्ता माँग रहा है
तुम उसे नहीं जाने दोगी ना !
तुम जो सिर्फ़ मेरी हो
और उस आदमी के आगे खड़ी हो
मील-पत्थर की तरह
मुझे आज़ाद कर
नहीं जाने दोगी न !



आग का फूल
सिर्फ़ आधी लकड़ी जली थी
जब वह आयी
लपटों में एक चित्र बन रहा था
जिसका सम्बन्ध
कामना से ज़्यादा ईश्वर की चित्रकारी से था
राख में कोई जुगनू जल रहा था
मुझे लगा
मृत्यु एक शब्द है
जिसे तुम्हारी मौजूदगी में लिख रहा हूँ
दो इंच उठती लपट में
और खुश हो रहा हूँ
जैसे आसमान में आग का फूल
खिल गया हो



रेतघड़ी
समय ज़िद्दी है
पर डरता है मेरे कमरे में रखी तुम्हारी रेतघड़ी से
मैंने जब सोचा
तुम्हारी प्रतीक्षा को जज़्ब कर दूँ
कांच के खिलौने में
एक ऊँट कराहने लगा
रेगिस्तान में
पर नखलिस्तान नहीं
कविता में सिर्फ पानी की उदासी
होती है

यही सोच मैंने
जाते समय की पीठ पर तोड़ दी प्रतीक्षा
बचा ली रेत घड़ी
जीना इसे ही कहते हैं
क्या
ऊँट ऐसे ही करवट बदलता ?


चालक
कोरे कागज़ पर समय को लिखता मैं
थोड़ा काल-रहित होता हूँ
एक शब्द मुझे विचारों से धकेलकर
ढ़लान से उतरती एक
बकरी के पास बिठा देता है
पर बेबस होता हूँ
सन्तुलन कैसे पैदा करूँ
शब्द, बकरी और भाषा की ढलान में

पर ऐसा कभी-कभी हो जाता है
जो मैं हूँ
शब्द उसकी शब्दकशी नहीं करते
बस उसकी केंचुल उतार रख देते हैं एक पत्थर पर सूखने
और मुझे सुझाव देते हैं
कि समय
किसी बूढ़े आलोचक के साईकल के टायरों में भरी हवा है
बात बूढ़े की करो
पर लिखो साईकल पर
और अन्त में जो बचे
वो वो हो जिसको
कैरियर ना कहा जा सके
इसीलिए मेरी बेबाक यात्रा की ब्रेक मेरे अचेत में है
मैं दृष्टि को
साईकल का कैरियर मानता हूँ
पागलपन को बच्चे की गद्दी
और जब चलता हूँ कविता में
तो लगता है
कोई अदृश्य आत्मा इसकी चालक है


छिपकली चुप क्यों रहती है
फन्दे की तरह
लटकती रह जाएगी यह
बरामदे की दूधिया रोशनी
तुम्हारी रीढ़ जितनी लम्बी तो है
ये ट्यूब
क्या मेरे अंतस जितना गहरा अँधेरा होगा इसमें?
छिपकली कुछ नहीं बताती
एकटक देखती रहती है
पतंगे की ओर



रोशनी के टुकड़े तड़प रहे हैं
जहाँ से निकलना था
मासूमियत ने
वहाँ से पशु के कराहने की
आवाज़ आ रही है
ताज़ा हड्डी पर नक्काश
आदमी के ज़िंदा होने की
नक्काशी कर रहा है
सुबह की रोशनी को काटती
पवन-चक्की
चल रही है
रोशनी के टुकड़े तडप रहे हैं
धरती पर
संस्कृति की दुर्गंध है या कि
किसी बौद्धिक ट्रेन के उलट जाने की चीख़ें
नाक पर हाथ रख
बन्द आँखों की कविता लिखता
गुज़रता हूँ मैं
कटे सिर वाली गाय की खुली आँखों के पास से



कविता की मौत निश्चित है
जब भी निराश होता हूँ
अपनी भाषा से
वह मेरी अमूर्त कविता के पास रुककर कहती है ---
हर सभ्यता
नग्न रेशों से बुनी जाती है
हर रेशा
नग्न इच्छा से
कवि का काम शीशा साफ़ करना नहीं
धुँधले-से
आकार पैदा करना है
क्या कभी तूने तस्सवुर किया है
मिट्टी में दफ़न देह को चींटियां कितने कोणों से
खाकर ख़त्म करती हैं?
शब्द भी ऐसे ही कर रहे हैं तुम्हारे साथ
बुद्धि पर
पागल जाल फेंकते रहो
चाकू मूर्त
धार अमूर्त
मरना है तो धार से मरो
चाकू को चाकू कहने से कविता की मौत निश्चित है.
_____

कवि और दार्शनिक, रुस्तम के पाँच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से एक संग्रह में किशोरों के लिए लिखी गयी कविताएँ हैं. उनकी कविताएँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी तथा एस्टोनी भाषाओं में अनूदित हुई हैं. रुस्तम सिंह नाम से अंग्रेज़ी में भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं. इसी नाम से अंग्रेज़ी में उनके पर्चे राष्ट्रीय व् अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं.
rustamsingh1@gmail.com 

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  1. भूपिंदरप्रीत3 अप्रैल 2020, 11:15:00 am

    समझ नही आता कैसे आभार प्रकट करू रुस्तम जी का,जिनों ने इन कवितायें को देखना और अनुवाद करना माना और मुझे हिंदी जगत के दोस्तों के सामने प्रस्तुत कीया,मैं आभारी हूँ अरुण देव जी का इन कवितायें को इस खूबसूरती के साथ प्रस्तुत करने का, करोना के इस दौर में इस महत्वपूर्ण ई पत्रिका में छपना बहूत सुखदाई लग रहा है

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  2. तेजी ग्रोवर3 अप्रैल 2020, 11:16:00 am

    अच्छा है जब काम चल रहा था मैंने इन कविताओं को नहीं छुआ। अब मैं इन्हें ख़ुद को छूने दे रही हूँ। बिम्बधर्मी यह कवि अपने बिम्बों में जिस धुंध को शिल्पित करता है उसमें एक अजीब तड़प है जो कविता को ढांप कर उसकी झलक दूसरी ओर से दिखाती है। जो दूसरी ओर जाने को आतुर होगा, उसे कविता दिख जाएगी। क्या कहूँ, ये कवि एक अनूठा मित्र भी है और इतना बड़ा दिल है इसका कि रश्क होता है। बिपन और यह व्यक्ति मिलकर अपने घर को कविता और ठहाकों का ठीहा बनाकर रखे हुए हैं। जितने संजीदा हैं उतने ही हंसोड़ हैं दोनों। इतनी उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए कवि, अनुवादक, संपादक सबको स्नेह भेजती हूँ। बधाई तो केवल खुद ही को दूंगी कि ऐसे विलक्षण दोस्त और साथी मिले हुए हैं मुझको।

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  3. बहुत अलग कविताएँ। पढ़ने पर पता चलता है इनके पीछे धीरज कितना है, जैसे फ़स्ल के पकने का इंतज़ार किया हो किसान। कवि को मेरा अभिवादन।

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  4. नरेश गोस्वामी3 अप्रैल 2020, 6:43:00 pm

    पढ़ कर उठा तो लगा कि मैं पहाड़ से उतरते उस बच्चे के पीछे छूट गया हूँ... दुबारा, शायद तिबारा पढ़ूँगा।

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  5. कुलजीत सिंह3 अप्रैल 2020, 6:44:00 pm

    बहुत अच्छी कविताएँ, अनोखे बिंब और भावसंवेदन!

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  6. कमलजीत चौधरी3 अप्रैल 2020, 6:47:00 pm

    समालोचन,
    कवि अग्रज से मिलवाने के लिए धन्यवाद।
    अच्छी और अलग कविताएँ लगीं। अनुवादक और कवि दोनों को शुभकामनाएँ।

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  7. भूपिंदर की कविता एक नई सदी की शुरुआत है। इसने नई कविता की बनावट को बदल दिया है। विभिन्न दृश्यों पर अपनी आवाज़ के बीच एक असामान्य संतुलन बनाया है और कविता बौद्ध वृक्ष के फल पर एक प्रश्न चिह्न भी लगाती है।

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  8. Rustam ji सही अनुवाद कविता को एक अलग ही भाषा दे देती है । आप यूँ ही हमें अनुवाद करते रहना ।

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  9. गौतम योगेंद्र3 अप्रैल 2020, 6:56:00 pm

    बहुत बढ़िया कविताएँ। अनुवाद भी मूल भाषा जैसा ही सहज। कवि, अनुवादक और प्रकाशक को ढेरों शुभकामनाएँ!

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  10. मंगलमूर्ति5 अप्रैल 2020, 8:26:00 pm

    बहुत समय बाद ऐसी कुछ कवितायें पढ़ीं जो समय के सममूल्य लगीं | कविता मुझे वही अच्छी लगती है जिसमें धूपबत्ती से उठते धुंए की सुगंध भी हो और वैसी ही धारावाहिता भी हो | भूपिंदर प्रीत की कवितायें मुझे वैसी ही लगीं - प्रियतमा के स्वच्छ चुम्बन जैसी तृप्तिकर | रुस्तम सिंह जी का अनुवाद हमें मूल की आत्मा तक पहुंचाने में सफल है, इसके लिए उनको विशेष साधुवाद |

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