सहजि सहजि गुन रमैं : नरेश चंद्रकर




















नरेश चंद्रकर : १ मार्च १९६०, नागौर (राजस्थान)

साहित्य की रचना प्रकिया- १९९५ (गद्य)
बातचीत की उड़ती धूल में – २००२ (कविता संग्रह)        
बहुत नर्म चादर थी जल से बुनी २००८(कविता संग्रह)        
कविता संग्रह अभी जो तुमने कहा शीघ्र प्रकाश्य

गुजरात साहित्य अकादमी सम्मान
मंडलोई सम्मान

फिलहाल – बैंक में मुलाजिम
ई-पता : nareshchandrkar@gmail.com

नरेश चंद्रकर- जीवन की सामान्य इच्छाओं के अधूरेपन, सपनों और उम्मीदों के लगातार होते बुरे हाल को अपनी सहज शैली में विन्यस्त करते हैं. जीवन के जरूरी कामों में कविता इस तरह घुलमिल गई है कि वह बुहारी से भी फूट पड़ती है और सड़क पर चिपक गए शब्दों में जीवन का संदर्भ भर जाता है.
चमक और शोर से दूर खड़ा कवि अपनी कविता से भी पहचान लिया जाता है. आत्मीयता के इस बसेरे में जन की लगातर मुश्किल होती दैन्दिनी का तीखा बोध है.
















Ganesh Haloi



पर क्या अब कोई मतलब नहीं बचा


यह नहीं कह रहा हूं सिर्फ

कृष्ण पक्ष की प्रति‍पदा
उन्नीस सौ साठ के दि‍न
जब तेज बारि‍श थी

उस दि‍न मेरा जन्म हुआ था

बल्कि बाकायदा जन्म प्रमाण- पत्र
वोटर पहचान-कार्ड लेकर आया हूँ

यह नहीं कह रहा हूं सिर्फ
कि यह वि‍रासत के काग़ज़ात का मामला है

बल्कि यह मामला है
मुवावज़े की रकम पाने का

यह मामला है
जिस मुवावज़े का मैं
सच्चा हकदार हूँ

वैसा ही हकदार 
जैसा
इफ्तार की दावतों में ह्क़ है
नमाज़ि‍यों को रोज़ा तोड़ने का 

फि‍र क्यों कहा जा रहा है :

ऊपर से आई पर्ची में
यह नाम नहीं था

नरेश चन्द्रकर 

यह प्रामाणि‍क नाम ही नहीं है
न.च.

तो क्या अब कोई मतलब नहीं बचा
हमारे समय में

कि क्या कह रहा है

एक ज़िन्दा आदमी  !!!




दूसरा आदमी 

पढ़ते हुए कि‍ताब खुली छोड़ कर जाता हूँ 
बांच लेता है कोई

पेरू खाते हुए जाता हूँ  
ज़रा-सा उठकर
दांत गड़ा देता है कोई 

बातें करते हुए बच्‍चों से
बराबर लगता है 
कोई सुन रहा है बगल में बैठे पूरी देर

प्रत्‍येक दृश्‍य में अदृश्य है कोई

रौशनी के हर घेरे में छि‍पा है अंधेरा
कागज में पेड़ है  
काले में छि‍‍पा है सफेद 
सुर में बैठी है बेसुरी तान
वस्‍तुओं में कीमतें हैं
लकड़ी में दीमकें
अनाज में घुन है

कहे में रह जाता है
हमेशा ही अनकहा
शब्‍दों में छि‍पे हैं मौन

बसे हुए शहर में अदृश्‍य है नदि‍यां
आइने में हैं दूसरा भी अक्‍स

रहता हूँ जि‍स गली, मकान में
वहां रह चुका पहले भी कोई

चाय के प्‍याले से चुस्‍कि‍यां लेते हुए जानता हूँ
झूठा है कप 
नहीं मानता फि‍र भी
नहीं यकीन करता फिर भी
नहीं स्वीकारता फिर भी

हर सिम्त में है
हर वस्तु में हैं
हर मोड़ पर है

दूसरा आदमी !!




उनका पुराना कर्ज़

वे बिल्डर    
ठेकेदार
बड़े हुकुमरान तो नहीं थे

उनके हिस्से की जि‍तनी थी सॉंसें, ली उन्होनें     
जि‍तने झेलने थे दुख-द्वंद्व,  झेल गए
जि‍तनी नापनी थीं पैरों तले की ज़मीन, नाप ली उन्होनें   

उन्होनें कब कहा कि‍सी से
गोल-गोल घुमावदार चक्कदार सीढ़ियां
ब्रह्मराक्षस की बावड़ी
वहां का अंधेरा
वहां का आकाश में टंगे रहने वाला टेढे मुंह का चाँद उनका है   

हांफने  से उनकी हांफती थी कमीज़
दुख से दुखी होती थी नसें
पसीने से भीग जाता था रक्त  

कब कहा उन्होनें    
बौद्धिक संपदाओं में शामि‍ल रखो मुझे
कब उठाया शोर पहचानों - पहचानों का उन्होनें    
कब चाहा इतना अधि‍क चौबीस घंटे गलबहियों में डाले रहे कोई उन्हे 

उनके चर्चित  चि‍त्र को देखकर तो नहीं लगता
वे वंश परंपरा समृद्ध करने में लगे रहें होंगे
बल्के उन्होनें  अपना तेजस्वी जीवन जीया
और गंवा कर जा चुके यहाँ से  

अब क्यों समवेत स्वर  में कोई गाए
मुक्तिबोध    मुक्तिबोध      मुक्तिबोध      
(वि‍शेष कर उन्हें पढे बि‍ना)

क्या सच में भी पुराना कर्ज़ था कई लोगों का उन पर 
जि‍से उतारे बि‍ना
चले गए वे यहॉं से !!
  
                                          


कवि‍ता में उपस्थित मुक्तिबोध 

राजनांदगांव की नीरव शांत रात्रि
कवि‍ राम कुमार कृषक
मांझी अनंत
शाकीर अली
पथि‍क तारक, शरद कोकास
महेश पुनेठा, रोहि‍त

कवि‍ता-पाठ और कवि‍ताओं के दौर के बीच 
अंधेरे की धाक गहराती रही
देर रात हुई
सभा वि‍सर्जित 

पहली कि‍रण की तरह
कमरे में प्रवेश हुआ सुबह
कवि‍ वि‍जय सिंह
साँस में लंबी गहरी गंध लेते हुए यह पहला ही वाक्य  फूटा :
यहाँ बीड़ी पी है कि‍सी ने ?

नीरे नि‍खट्ठू
तमाखू के वि‍कर्षण से ग्रसि‍त मि‍त्रों में
वि‍संगत था यह वाक्य कहना :

बीड़ी पी कि‍सी ने !

ताजा हुआ
सदाबहार
लहलहाता
वही तैल चि‍त्र महामना कवि ‍का

जैसे आज भी सुन रहे हैं
गुन रहें हैं
दि‍ख रहे हैं
छि‍प रहे हैं

कवि‍ता में उपस्थित मुक्तिबोध  !!




क्या नाम दूं क्या उपमा दूं

एक आदमी को साइकल या कभी बाइक पर
धीमी गति‍ से चलते देखा है


एक छोटा-सा
ऐंठा हुआ
कसकर बटा हुआ रस्से का टुकड़ा हाथ में


जैसे वह ज़ंज़ीर या
सांकल
या चाबुक का काम लेता हुआ
उस सोटे से


मुहल्‍ले में इधर-उधर
गलि‍यों में
घर के मुहानों पर


जूठन अबेरती पगुराती घस-फूस कचरे से अटे मैदाननुमा
रि‍क्‍त पड़े ज़मीन के
खुले टुकडों में बैठी गायों को
सुबह शाम हकालते दि‍खा


यह भी दि‍खा
टूटी सडक वाली सकरी गली में
गोबर से सनी राह पर


वे राहें जो बनी हैं
गोबर सोसायटी में
जैसे प्रतीक कहता है


गोबर से सनी उन राहों पर
होता है उन गायों का ठीया
या कहें :


ऊपर जि‍स बाइक या सायकि‍ल सवार का जि‍क्र है, उसका घर
या कहें :
देसी दूध की डेयरी


और वि‍शेष बात यह
बछि‍या पर भी होती है
उस आदमी की आंख
और
बछि‍या की पीठ पर हवा में घूमता
उस आदमी के हाथ का
चलता है सटाक से
रस्से का सोटा


यह भी दि‍खा
दुहने के बाद
चारा ढूंढने
सानी-पानी स्‍वयं करने
स्वयं अपना उदर भरने छोड़ी जाती हैं वे गायें


आसपास के मुहललों गल्लों-ठेलों
होटलों घरों में
दूध मुहैया कराती
भटकती
घि‍सटती चलती
खुद्दार
स्वावलंबि भरे स्तनों वाली गायों को
क्या नाम दूं क्या उपमा दूं


जैसे ही
दूध दूहने डेयरी के पास ले जाने
सोटे से पि‍टती दि‍खती है वे गायें


शब्द सड़क पर चि‍पट जाते हैं !!




वस्तुतओं में तकलीफें

नज़र उधर क्यों गई ?


वह एक बुहारी थी
सामान्यसी बुहारी
घर - घर में होने वाली
सडक बुहारने वालि‍यों के हाथ में भी होने वाली


केवल
आकार आदमकद था
खडे खड़े ही जि‍ससे
बुहारी जा सकती थी फर्श


वह मूक वस्तुत थी
न रूप
न रंग
न आकर्षण
न चमकदार
न वह बहुमूल्य वस्तु कोई
न उसके आने से
चमक उठे घर भर की आँखें


न वह कोई एन्टिक‍ पीस
न वह नानी के हाथ की पुश्तैनी वस्तु हाथरस के सरौते जैसी


एक नजर में फि‍र भी
क्यों चुभ गई वह
क्यों खुब गई उसकी आदमकद ऊंचाई


वह ह्दय के स्थाई भाव को जगाने वाली
साबि‍त क्यों हुई ?


उसी ने पत्नी-प्रेम की कणी आँखों में फंसा दी
उसी ने बुहारी लगाती पत्नी की
दर्द से झुकी पीठ दि‍खा दी


उसी ने कमर पर हाथ धरी स्त्रिओं की
चि‍त्रावलि‍यां
पुतलि‍यों में घुमा दी


वह वस्तु नहीं थी जादुई
न मोहक ज़रा-सी भी


वह नारि‍यली पत्तों के रेशों से बनी
सामान्य - सी बुहारी थी केवल


पर, उसके आदमकद ने आकर्षित कि‍या
बि‍न विज्ञापनी प्रहार के
खरीदने की आतुरता दी
कहा अनकहा कान में :


लंबी बुहारी है
झुके बि‍ना संभव है सफाई
कम हो सकता है पीठ दर्द
गुम हो सकता है
स्लिपडिस्क


वह बुहारी थी जि‍सने
भावों की उद्दीपि‍का का काम कि‍या


जि‍सने संभाले रखी
बीती रातें
बरसातें
बीते दि‍न


इस्तेमाल करने वालों की
चि‍त्रावलि‍यां स्मृतियाँ ही नहीं


उनकी तकलीफें भी


जबकि वह बुहारी थी केवल ! !




जाने की प्रक्रि‍या


चुपचाप कैसे चली गई
चौमासे की बरसातें


यह पता भी न चला


बारि‍श की फुहारें देखकर
यह अनुमान कठि‍न था


कि ऋतांत की बारि‍श हो रही है


यदि‍ पहले ज्ञात होता
इसके बाद नहीं होगी वर्षभर बारिश
रोमांचि‍त रहता मन


चुपचाप करवट लेगा मौसम
इसका संकेत नहीं था
मौसम वि‍भाग के पास भी


बादलों की गर्जना
बारि‍श में भीगना
सड़कों पर जल-भराव के दृश्य
सीलन की गंध


गए सब चुपचाप


प्रकृति‍ को देखकर ही नहीं


जीवन पर भी
ठीक बैठता है यह वाक्य


गए सब चुपचाप !!

                              

नये बन रहे तानाशाह

उन्हें पसंद नहीं होती प्रेरक-कथाएं 
उनके लि‍ए असहनीय हो जाती हैं शौर्य-गाथाएं
वे सुनना नहीं चाहते वीरता की बातें 
लोरि‍यों तक में

पढना नहीं चाहते वे स्नेहपूर्ण पंक्ति‍यां
कब्र पर लगे पत्थरों में भी 

वे नहाना नहीं चाहते दूसरी बार
एक बार नहाई जा चुकी
नदि‍यों के जल में

ऐसी  उन्मत्त पसंदगि‍यों पर चलकर
खड़े होता है
वज़ूद एक दि‍न

नये बन रहे तानाशाहों का  !!



मंदि‍र के अहाते से 

सामुहिक प्रयासों से बने भित्तिचित्र जैसा था वह कोना 

उसमें अंकित थी
अधूरी छूटी आशाएं
अपूर्ण कामनाएं
पूरे न हो पा रहे मनसूबे
टूटते हुए सपने
नाकामयाबि‍यों की फेहरि‍श्त
असुरक्षि‍त जीवन की शिकायतें
जीने की सामान्य इच्छाएं 

भित्तिचित्र जैसे उस कोने में
बढते ही जा रहे थे
मन्नतों के रंगीन डोरे 
और नारि‍यल

मंदि‍र के अहाते में खड़े होकर भी
मैनें समझ लिया था :

इच्छाओं का बुरा हाल है

हमारे समय में !!

17/Post a Comment/Comments

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  1. बधाई एक अच्छे कवि को और उनकी कविता में समाये कवियों को भी । अच्छा है कवि इस तरह से एक दूसरे की कविता में कम से कम उपस्थित तो रहेंगे ।

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  2. बहुत अच्छी कवितायेँ !''जाने कि प्रक्रिया और ''उनका पुराना क़र्ज़''लाज़वाब ...!अरुण जी ,अच्छी कवितायेँ पढवाने के लिए एक बार फिर शुक्रिया :)

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  3. बहुत अच्छी कवितायें हैं अरुण जी . यह पहली बार मैं नरेश जी की कवितायें पढ़ रहा हूँ . शुक्रिया आपका . कवि को हार्दिक बधाई .

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  4. विमल चंद्र पाण्डेय10 मार्च 2011, 3:28:00 pm

    मेरे पसंदीदा कवि की शानदार कवितायेँ बाँटने के लिए शुक्रिया ....

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  5. रौशनी के हर घेरे में छि‍पा है अंधेरा
    कागज में पेड़ है
    काले में छि‍‍पा है सफेद
    सुर में बैठी है बेसुरी तान
    वस्‍तुओं में कीमतें हैं
    ...लकड़ी में दीमकें
    अनाज में घुन है.................बहुत सुन्दर सभी अभिव्यक्तियां नरेश जी की ...शुक्रिया शेयर करने का अरुण जी !!!!!!!

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  6. १- नहीं ,इनकी नज़र में कागज़ आदमी से ज्यादा जिंदा है !
    २- मेरी हरेक उपस्थिति में कोई और भी है मौजूद .......
    सशक्त रचना ,गहरी अनुभूति !
    ३- नहीं,नहीं,नहीं .....मुक्तिबोध के दाय से तो , मानवता नहीं
    मुक्त हो पायेगी !
    ४- गहरी उपस्थिति होती है उनकी ,उनकी कविताओं में !
    ५- सामंती दस-युग और आधुनिक पूंजीवादी युग में शोषित
    मनुष्यों का अंतर स्पष्ट करती कविता ! सराहनीय !
    ६- नारी की सफाईकर्मी भूमिका का प्रभावशाली चित्रण !
    ७- सच,सब कुछ गुज़र जाता है चुपचाप !
    ८- संजोये सब के विद्ध्वंसक !
    ९- डूबते हुए अंधों के हाथ मजबूती से पकड़ी रस्सी पर !

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  7. नरेश चंद्रकर जी को पढ़कर अपनी संवेदनाओं पर जाने-अनजाने पड़ रही धूल हट-सी जाती है. अरुण जी, आपको भी इन्हें मुझ तक पहुँचाने के लिए बहुत, बहुत धन्यवाद.

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  8. अरुण जी , नरेश जी की कविताएँ आम आदमी की संवेदनाओं के करीब हैं .. भित्तिचित्रों में भी वे यथार्थ की कविता रचते हैं .. कविताओं की ख़ास बात है कि जितनी तीव्र संवेदना है , उतनी ही तीव्र सम्प्रेषणीयता है .... कविताओं की सुन्दर लड़ी के लिए कविवर को नमन और आपको बधाई !

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  9. नरेश की कविताएँ अनुभूतिपरक कविताएं होती हैं..जालिम जी कर लिखता है।
    तो क्या अब कोई मतलब नहीं बचा
    हमारे समय में

    कि क्या कह रहा है

    एक ज़िन्दा आदमी !!!
    इसी तरह से कितना गहरा भावबोध है इन पँक्तियों में रौशनी के हर घेरे में छि‍पा है अंधेरा
    कागज में पेड़ है
    काले में छि‍‍पा है सफेद
    सुर में बैठी है बेसुरी तान
    वस्तुेओं में कीमतें हैं
    लकड़ी में दीमकें
    अनाज में घुन है

    इसकी कविता में
    स्पन्दित होतें हैं प्राण
    जब यह माँजता है भावों को
    सहलाता है शब्दों को
    जन्म लेती है कविता
    आत्मा के तेज से
    शरीर के उत्ताप से
    तराशे हुए हीरे की तरह.......

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  10. नरेश की कवितायें , हर समय मेरे साथ रहती हैं , और नरेश भी । लेकिन इतनी सारी कवितायें उसकी एक साथ यहाँ देखकर .. बहुत अच्छा लगा । अरुण , तुम्हारी मेहनत को सलाम ।

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  11. इच्‍छाओं का बुरा हाल है हमारे समय में... अद्भुत पंक्ति है। बुहारी और मुक्तिबोध को इस तरह सिवाय नरेश के और कौन याद कर सकता है...एक साथ इतनी सुंदर कविताएं पढ़कर मन को बहुत अच्‍छा लगा... बधाई और अरूण जी को धन्‍यवाद।

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  12. सुर में बैठी है बेसुरी तान......

    कितनी प्यारी-सी पंक्ति। इस एक लाइन ने ही सारी कविताएं पढ़वा ली। नरेश चंद्रकर जी को मैं भी पहली बार ही पढ़ रहा हूँ। लेकिन घर बना लिया मेरे मन में।

    "बसे हुए शहर में अदृश्‍य है नदि‍यां
    आइने में हैं दूसरा भी अक्‍स

    ...रहता हूँ जि‍स गली, मकान में
    वहां रह चुका पहले भी कोई"

    सादृश्यों का इतने सुंदर ढंग से सृजन में प्रयोग लाजवाब है नरेश भाई! आपकी "सुर में बैठी बंसुरी तान....." मेरे मन के अवचेतन में अरुण की एक कविता की एक लाइन के साथ जाकर बार-बार संयुक्त हो जा रही है। लगता है दोनों का श्लेष कहीं न कहीं से एक ही दृश्य या बिंब से उन्मेषित है।

    बहुत बधाई....नरेश जी।

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  13. रमेश उपाध्याय11 मार्च 2011, 2:58:00 pm

    मेरे प्रिय कवि और मित्र की कविताएँ पढ़वाने के लिय धन्यवाद, अरुण जी! लोग हमनाम, हमकदम, हमप्याला, हमनिवाला आदि होते हैं। मैं और नरेश भाई हमजनमदिन हैं। दोनों का जन्मदिन 1 मार्च को होता है।

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  14. नरेशजी, बहुत दिन बाद इस तरह आपको यहाँ देखना बहुत सुखद है. और इस तरह छा जाना तो और भी सुंदर है... मुंबई कब आ रहे हैं?

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  15. संभवत: पहली बार पढ़ रहा हूँ आपको| काफ़ी प्रभावित करती है आप की लेखनी| बधाई आप को और शुक्रिया अरुण भाई को यहाँ तक पहुचाने के लिए

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  16. आज फिर नरेश की कवितायें पढ़ लीं , फिर बहुत अच्छा लगा । अरुण फिर फिर तुम्हे बधाई ।

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