उपनिवेश
और हिन्दी कहानी
अरुण देव
हिन्दी में कहानी के उदय और विकास के दूसरे निहितार्थ भी हैं. बनारस पर
अंग्रेजों के अधिकार के सवा सौ साल बाद तथा फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के सौ
साल बाद हिन्दी की पहली कहानी सरस्वती के जनवरी अंक में छपी जिसका नाम था
इन्दुमती और कहानीकार थे- किशोरीलाल
गोस्वामी. यह सरस्वती का पहला अंक था और
किशोरीलाल गोस्वामी स्वयं इसके संपादक-मंडल में
थे. यह अंग्रेजी ढंग की हिन्दी में छपी पहली कहानी थी हालांकि इसके सौ साल
पूर्व इंशा अल्लाह खां ने रानी केतकी की कहानी उर्फ उदयभान चरित्र नाम से एक
कहानी हिन्दी में लिखी थी, इंशा अल्लाह खां स्वयं फोर्ट विलियम कालेज से जुडे़ हुये थे और इस कालेज के हिन्दी और उर्दू विभाग के अध्यापक जान गिलक्राइस्ट की
प्रेरणा से उन्होंने यह कहानी लिखी थी. इंशा अल्लाह खां के अनुसार यह एक प्रयोग भर
था-
"एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें
हिंदवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी
फूल की कली के रूप खिले. बाहर की बोली और गँवारी कुछ इसके बीच में न हो."
और यह इससे भी स्पष्ट है कि अगले सौ साल तक कोई कहानी हिन्दी में सामने नहीं
आयी. रानी केतकी की कहानी की कोई परम्परा नहीं बन सकी. इन्दुमती ने अपनी नवीनता के कारण ध्यान आकर्षित किया.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य के इतिहास में इस
कहानी को संदेह से देखते हैं. उन्हें यह किसी बांग्ला कहानी का रुपांतर लगा था, आगे चलकर इस कहानी पर शेक्सपियर के टेंपेस्ट का प्रभाव माना गया. हिन्दी की इस
पहली कहानी का विवाद जैसे किसी औपनिवेशिक देश में किसी साहित्यक विधा के उदय और
विकास का रुपक हो.
इन्दुमती के लिखे जाने से पहले भी भारत
में कथा कहने का अपना एक ढंग था. इसकी एक लम्बी परम्परा थी. ऐक्शन और
इमोशन जैसे आधुनिक कहानी के दो महत्वपूर्ण
तत्व इन में पर्याप्त मात्रा में पाये जाते थे जैसे - कथासरित-सागर, वृहत्कथा, वैतालपचीसी, कादम्बरी, माधवानलकामकंदला, सीत-बसन्त, सारंगा-सदाबृज, आदि आदि. इन पुरानी
पोथियों में आचार्य शुक्ल के अनुसार कथा
का प्रवाह अखंड गति से एक ओर चला चलता था जिसमें घटनाएं पूर्वापर क्रम से जुड़ती
सीधी चली जाती थी. मीनाक्षी मुखर्जी इसे ही Circular (वृत्ताकार) कहती हैं.
इन्दुमती के साथ ही कहानी के कथ्य और शिल्प में परिवर्तन
हुये. कहानीकार दिक् और काल के प्रति सचेत हुआ. एक समय एक राजा था से अब
आधुनिक कहानियों का काम नहीं चल सकता था. कहानी के प्लाट को एक निश्चित ऐतिहासिक
और भौगोलिक सीमाओं में बाधा गया. पात्र अब किसी मानवीय प्रवृत्ति के प्रतिनिधि
नहीं थे. कहानी में आये व्यक्ति का सन्दर्भ उसके समय और संस्कृति से जुड़ता था.
इस तरह हिन्दी कहानी का सम्बन्ध औपनिवेशिक भारत के मध्य वर्ग से बना. 19 वीं सदी के
भारत के लिए कहानी उसी तरह एक औपनिवेशिक निर्मिति थी जैसे रेल, तार या रेड़ियो. इनसे एक ख़ास तरह की आधुनिकता का प्रसार हो रहा था जिसकी एक
सत्तामूलक रणनीति भी थी.
आचार्य शुक्ल ने हिन्दी की प्रारम्भिक कहानियों की संभावित सूची में
बंगमहिला की दुलाईवाली को भी रखा है, ये मिर्जापुर में रहती थीं और इनका पूरा नाम राजेन्द्रबाला घोष था. घोष ने अनेक
बांग्ला कहानियों का हिन्दी में
अनुवाद किया था. वैसे तो यह कहानी दो मित्रों की आपसी चुहुल को एक स्त्री की निगाह
से देखती है, पर ध्यान दिया जाय तो इस कहानी का प्रधान
उपजीव्य 'ट्रेन-यात्रा' का अनुभव है. इसमें 19 वीं सदी के भारत में पति के साथ
यात्रा कर रही पत्नी के अनुभव दर्ज है. ट्रेन में यात्रा कर रही एक स्त्री का पति स्टेशन पर छूट जाता है.
सहयात्रियों के चुहल, टी.टी. के आने का डर तथा तथा असुरक्षित गंतव्य की आशंका इसमें ढंग से व्यक्त हुई है.
शायद इस कहानी मे ट्रेन पहली बार कथा
का विषय बन रही थी. कहानी ही क्या 19 वीं सदी का गद्य भी इस प्रकार के परिचयात्मक विवरणों से भरा पड़ा है. 19वीं सदी
के भारत के मध्यवर्ग का औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत निर्मित तत्कालीन आधुनिकताओं से
कैसा सम्बन्ध बन रहा था इसके दिलचस्प प्रमाण इन प्रारम्भिक कहानियों में मिलते
हैं.
पं. ज्वालादत्त शर्मा द्वारा लिखित 'विधवा'
जो 1914 में प्रकाशित हुयी को भी इस दृष्टि से देख सकते हैं. सरसरी दृष्टि
से यह कहानी सुधारवादी लगती है जिसमें एक विधवा अपनी शिक्षा के बदौलत स्कूल में
लेडी प्रिंसपल का पद प्राप्त करती है और बाद में उसका श्वसुर जिसके कारण वह घर
छोड़ने को विवश हुयी थी उसके पास चपरासी पद के आवेदन के साथ उपस्थित होता है. कहानी में प्रेरणा प्राप्त करने के जो एक
आधे-दृश्य उभरते हैं वे भी गौरांग लेखकों की कृपा से ही संभव हुए हैं. 'बहुत समय
बाद मानों माँ सरस्वती के इशारे से ही उसने आलमारी में से एक पुस्तक निकाली. पुस्तक
भी, सुप्रसिद्ध ग्रन्थकार स्माइल्स साहब की आत्मावलम्बन. चटाई पर बैठकर पार्वती
उसे पढ़ने लगी.'
इन कहानियों में उभरने वाला मध्यवर्ग, उसका परिवेश और
उसकी आकांक्षाओं पर उपनिवेश की छाया है. जो कहानियां ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में लिखी
गयीं है उसमें भी यह प्रवृत्ति मिलती है. प्राच्यवादियों द्वारा निर्मित प्राचीन
भारत के वही गौरवपूर्ण चित्र और औपनिवेशिक इतिहासकारों द्वारा हिन्दू-मुस्लिम
सम्बन्धों की वहीं शत्रुतापूर्ण अभिव्यक्तियां.
19 वीं सदी की हिन्दी कहानी अंग्रेजी शासन के अंतर्गत बन रहे उस मध्यवर्ग की
अजीब दास्तान है जो एक ओर तो स्वाधीनता का आकांक्षी था वहीं दूसरी तरफ औपनिवेशिक
शासन की श्रेष्ठता का हिमायती भी. उपनिवेश को स्थायी बनाने के लिए यह आवश्यक था कि
जहां भारतीय जनता अंग्रेजों की सभ्यता, संस्कृति तथा
उनके माध्यम से आ रहे ज्ञान-विज्ञान के प्रति सम्मान और स्वीकार का भाव रखे वहीं
भारतीय समाज के अन्तर्विरोधों को इतना उभारा जाये कि आगे चलकर इनका
स्वाधीनता का कोई सम्मिलित प्रयास असंभव हो जाय.
पश्चिम के श्रेष्ठताबोध की चुनौती देने के
क्रम में जिस प्राचीन भारतीय महानता का आख्यान रचा जा रहा था वह भी प्राच्यवादियों की ही सुसंगत गतिविधियों के परिणाम थे. इस प्रकार उपनिवेश न केवल कहानी के बाहर
बल्कि भीतर भी कार्य कर रहा था. अफ्रीकी लेखक न्गुगी वा थ्योंगो ठीक ही लिखते हैं-
उपनिवेशववद ने भौतिक संपदा के सामाजिक उत्पान पर सैनिक विजय के जरिए अपना
नियंत्रण रखा और राजनीतिक अधिानायकवाद द्वारा उसे परिपुष्ट किया. लेकिन प्रभुत्व
का इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र उपनिवेश की जनता का मानसिक जगत था, जिस पर उसने संस्कृति के जरिए नियन्त्रण स्थापित किया. बिना मानसिक नियन्त्रण
के आर्थिक नियन्त्रण और राजनीतिक नियन्त्रण न तो कभी पूरा हो सकता है और न कारगर.
जनता की संस्कृति पर नियन्त्रण का मतलब दूसरों के सन्दर्भ में खुद को परिभाषित
करने के उपकरणों पर नियंत्रण करना होता है.
उपनिवेश प्रेम जैसे मूल्य को भी कैसे प्रभावित कर सका था इसे देखना हो तो चन्द्रधरशर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' को देखना चाहिए. लहनासिंह और सबूदारनी का प्रेम
विक्टोरियन नैतिकता की सीमा में इस कहानी में संभव हुआ है. आश्चर्य नहीं की यह
नैतिकता आचार्य शुक्ल को भा गयी. उनके अनुसार-
"घटना इसकी ऐसी है जैसी बराबर हुआ करती है, पर उसमें प्रेम
का एक स्वर्गीय स्वरूप झाँक रहा है-केवल झाँक रहा है निर्लज्जता के साथ पुकार या
कराह नहीं रहा है. कहानी भर में कहीं प्रेमी की निर्लज्जता, प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृत्ति नहीं है."
इस पर बच्चन सिंह का कहना है- "प्रेम
का कोई स्वर्गीय स्वरूप नहीं होता, जो कुछ होता है
लौकिक ही होता है, उदात्त हो सकता है. आचार्य शुक्ल द्वारा गिनाई गई प्रेम की
विशेषताएं भी निषेधात्मक हैं- उसमें निर्लज्ज प्रगल्भता नहीं है, वेदना की वीभत्स विवृत्ति के लिए अवकाश नहीं है. आचार्य शुक्ल की
आदर्शोंन्मुखी नैतिकतावादी विचारणा इसके
सही मूल्यांकन में बाधक होती है."
विक्टोरियन नैतिकता की खास बात यह थी कि वह प्रेम और यौनाकांक्षा को अलग-अलग
देखती थी. सार्वजनिक क्षेत्र में वह यौनाकांक्षा के गोपन पर ज़ोर देती थी. यह
नैतिकता तब की शहरी नैतिकता थी जिसके समक्ष नैतिकता की कोई दूसरी अवधारणा ग्रामीण
थी और इस लिए दोयम मान ली गयी थी. विक्टोरियन नैतिकता शासक वर्ग की नैतिकता थी. इस
कहानी में आया प्रेम नैतिकता के इन्हीं शर्तों को पूरा करता है. जिस कारण से तब के
भारत के शासकों के लिए इस तरह की नैतिकता की आवश्यकता थी लगभग उन्हीं कारणों से यह
भारतीय-मध्यवर्ग के लिए भी आवश्यक था. वह इस तरह की नैतिकता को स्वीकार करके अपने
को आधुनिक साबित करते थे. भारतीय स्वाधीनता की आकांक्षा की यह अजीब विडम्बना थी कि वह औपनिवेशिक मूल्यों को स्वीकार कर उपनिवेश से मुक्ति चाहती थी. प्रारम्भिक
हिन्दी कहानियां इस अन्तर्द्वन्द्व की भी कहानियां हैं.
अंगरेजी ढंग का पहला मौलिक उपन्यास हिन्दी में लिखने वाले लाला श्रीनिवास दास
ने कथा की अंतर्वस्तु और रुप-बन्ध दोनों में नई चाल का अनुसरण किया है. यथार्थ, आम-भाषा और संवाद का अंगरेजी ढंग परीक्षा गुरु में कथ्य को प्रस्तुत करने का सिर्फ माध्यम भर
नहीं है,
वह एक उद्देश्य के रुप में सामने आता है. चेस्टरफील्ड, शेक्सीपीयर, विलियम कूपर, पोप,
बायरन, आदि के पदों के भावार्थ उपनिवेश के सांस्कृतिक भावतन्त्र के
ही प्रभाव हैं. कथ्य में नगरों में पनप रहे मध्यवर्ग के कार्य - व्यापार और
औपनिवेशिक चकाचैंध में उपभोक्तावाद के दुष्प्रभावों का चित्रण के बावजूद अन्ततः
केन्द्रीय प्रवृत्ति अनुकरणधर्मा ही है.
बेनिडिक्ट एंडर्सन ने अपने ‘इमैजिन्ड कम्युनिटिज़‘ में मुद्रित-शब्दों के प्रसार से राष्ट्रवाद के उदय को देखा है.
मुद्रित-शब्दों के द्वारा किसी राष्ट्र का काल्पनिक समूह अपने को एकत्र करता है.
यही कारण है कि पश्चिम में प्रेस और राष्ट्र का उदय दोनों साथ-साथ हुये.
मुद्रित-शब्दों ने पहली बार विचारों के आदान-प्रदान के साझे-क्षेत्र का जहां
निर्माण किया, वहीं भाषा को भी स्थायित्व प्रदान किया
जिससे कि राष्ट्र के निर्माण का रास्ता बन सका. इस तरह पूंजीवाद और मुद्रित-शब्दों
ने राष्ट्र को संभव किया. भारत में राष्ट्र की परिकल्पना का साम्राज्यवाद के विरोध
में विकास हुआ. पश्चिम में राष्ट्र के विकास की प्रक्रिया में जहां चर्च और
सामंतवाद विपक्ष था वहीं भारत में इसने धर्म और सामंतवाद के बरक्स विदेशी शासन को
अपना प्रतिपक्ष माना. पश्चिम के राष्ट्र के उदय और भारत में इसके विकास के ये मौलिक अन्तर हैं.
मुद्रित
शब्दों में लिखे जा रहे ऐसे आख्यानों को फ्रेडरिक जेम्सन ने राष्ट्रीय रुपक कहा
है. अगर आख्यान राष्ट्र का रुपक है तो फिर
इन कहानियों को राष्ट्र के किस पक्ष का
रुपक माना जाना चाहिए.
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devarun72@gmail.com
आपने भारतीय व पश्चिम राष्ट्रवाद के तात्विक भेद को दिखाया है ,परन्तु सत्ता के प्रति विरोध का भाव दोनों जगह था ।भारत जैसे देश में जहां विदेशी शासन से सत्ता का आभास स्पष्ट था ,वहीं ब्रिटेन जैसे देश में चर्च की भूमिका इतनी सत्तावादी थी कि राजा को भी मध्यवर्ग के साथ कुछ मुद्दों पर साथ होना पडा ।भारत में राष्ट्रीयता का स्वरूप भी परिवर्तित होता गया ,अत: इसके प्रति समझ में भी अंतर आता गया ।बंकिम के समय की राष्ट्रीयता प्रेमचंद व यशपाल के समय अर्थविस्तार के साथ मौजूद थी ।उसी प्रकार बिटेन व फ्रांस में राष्ट्रीयता के उदय का भी कुछ उभयनिष्ठ व विशिष्ट कारक व स्वरूप था ।
जवाब देंहटाएंहिन्दी कहानी के इतिहास के बारे और अधिक जानकारीपरक आलेख है यह! अब तक यही जाना और माना जाता रहा है कि गुलेरी जी की ’उसने कहा था’ हिन्दी की पहली कहानी है
जवाब देंहटाएंएक अच्छी पोस्ट है , अरुण जी .. काफी कुछ कहती हुई .. विद्यार्थियों के लिए बहुत उपयोगी ..
जवाब देंहटाएंमहत्त्वूर्ण जानकारिय़ां...
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