मति का धीर : उपेन्द्र नाथ 'अश्क'

उपेन्द्र नाथ अश्क : जन्म शताब्दी वर्ष


पिता और पुत्र के सम्बंध जटिल हैं.जब ‘अश्क’ जैसा पिता हो तो यह जटिलता और बढ़ जाती है. नीलाभ ने पिता को याद भर नहीं किया है, उस जटिलता को आत्मीयता में रूपांतरित करते हुए इस सम्बंध में अंतर्निहित स्नेह और तनाव को एक जरूरी और पठनीय दस्तावेज में भी बदल दिया है.




नीलाभ 
सहयात्रा की अन्तर्धार

किसी लम्बे सफ़र के सहयात्रिओं के लिए एक-दूसरे के बारे में तटस्थ रहना या फिर पूर्वाग्रह से मुक्त हो कर सोचना-विचारना अक्सर सम्भव नहीं होता. सफ़र के दौरान तो आपसी निकटता इस कैफ़ियत को बढ़ाती ही रहती है, सफ़र के ख़त्म होने या फिर एक-दूसरे से अलग होने के बाद भी स्मृतियों का रसायन एक-दूसरे को आँकने की क्षमता पर अपना असर छोड़ता रहता है. फिर, अगर ये सहयात्री पिता-पुत्र के रिश्ते में बँधे होने के साथ-साथ हम पेशा भी हों तो कठिनाई और भी बढ़ जाती है. इसलिए आज जब दिवंगत पिता को स्मरण कर रहा हूँ तो यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि उन्हें किस रूप में और किन स्मृतियों के सहारे याद करूँ. कारण यह कि उनके साहचर्य में बितायी गयी सुदीर्घ अवधि में मेरे तईं उनका कोई स्थायी रूप नहीं रहा. मेरी किशोरावस्था तक अगर वे पूरी तरह पिता की भूमिका में मौजूद थे तो उसके बाद धीरे-धीरे यह भूमिका कब और कैसे मित्र, सखा, गुरु, सहकर्मी और प्रतिस्पर्धी में रूपान्तरित होती चली गयी, इसका सही-सही अनुमान शायद उन्हें ख़ुद भी नहीं रहा होगा. दिलचस्प बात है, और मेरे लिए बहुत ही अर्थपूर्ण, कि इन सारे रूपों में साहित्यकार उपेन्द्रनाथ अश्क की उपस्थिति बराबर उस अन्तर्धारा की तरह बनी रही, नदी की सतह पर जिसका अक्सर पता नहीं चलता.

अन्तर्धारा शब्द का प्रयोग मैंने जान-बूझ कर किया है और हो सकता है कि बहुत-से लोग इससे असहमत हों, क्योंकि हिन्दी-उर्दू के साहित्यिक क्षेत्र में उपेन्द्रनाथ अश्क एक विवादग्रस्त व्यक्तित्व का नाम है. साहित्यकार विषेषण को उन्होने कुछ इस तरह अपने नाम का हिस्सा बना लिया था, मानो यह उनके कर्म का सूचक न होकर उनके अस्तित्व का सूचक हो. मानो यह भी उनके तख़ल्लुस अश्क के साथ ही उनके नाम के शुरू में पैवस्त हो गया हो. इसका ज़िक्र भी वे कुछ ऐसी बाक़ायदगी और पाबन्दी से करते कि लोग उनसे ख़ासे नालाँ रहते थे और प्रतिक्रिया में इस विशेषण को उनके नाम के आगे से खुरच निकालने की पुरज़ोर, मगर बेसूद, कोशिशों में मुब्तिला रहते थे. यों बीसवी सदी के हिन्दी-उर्दू साहित्य के इतिहास में उनकी साहित्यिक लड़ाइयों, संघर्षो, विवादों का एक लम्बा ब्योरा दर्ज है. उन्होंने जीवन के अनेक क्षेत्रो में ज़ोर-आज़माई करने के बाद लेखन को चुना था और इस चुनाव के बाद व्यक्तिगत परिस्थतियों के चलते बीच-बीच में अगर उन्होने पूर्णकालिक लेखन को कुछ समय के लिए स्थगित कर दूसरी तरह का काम किया भी, तो भी उनकी नज़र बराबर लेखन-कर्म पर टिकी रही. अपने चुनाव के प्रति न केवल उनमें अडिग आस्था थी, बल्कि वे निष्ठापूर्वक इस चुनाव का औचित्य भी सिद्ध करते रहे.

मगर यह सब तो आज सोच पा रहा हूँ. मेरे अन्तर्मन में उनकी जो प्रारम्भिक छवियाँ सँजोयी हुई हैं, उनमें उनके कर्म की, उनके साहित्यकार वाले रूप की प्रकट उपस्थिति नहीं है. सच तो यह है कि आधी सदी से भी ज़्यादा पीछे पलट कर समय के धुँधलके को भेदते हुए बचपन के धूमिल स्मृति-लोक में झाँकता हूँ तो माँ के अलावा पहली सूरत या सूरत का आभास अपने छोटे मामा का ही दर्ज कर पाता हूँ, जो बम्बई से पंचगनी आये हुए हैं. पिता उस समय सैनेटोरियम में थे और यक्ष्मा के संक्रमण से  बचाने के लिए मुझे अलग-थलग ही रखा जाता था. यह तो मुझे बहुत बाद में पता चल पाया कि तब तक वे औसत से कहीं ज़्यादा ज़िन्दगी जी आये थे. जालन्धर का तकलीफ़देह पारिवारिक माहौल, लाहौर के आरम्भिक संघर्ष, तीन विवाह और उनसे पैदा होने वाले भूकम्प, फ़िल्मी दुनिया का लुभावना लोक - सब पीछे रह गया था और टी.बी. से जूझते हुए वे एक नये जद्दजेहद की तैयारी कर रहे थे, जिसका आग़ाज़, आंशिक रूप से रग मुक्त होनेके बाद, इलाहाबाद में दोबारा बसने के फ़ैसले के साथ ही होनेवाला था.

पिता से जुड़ी हुई पहली स्मृति इसी जद्द-जेहद के इब्तदाई दौर की है. पिता ने रोगमुक्त होने के बाद इलाहाबाद बसने का फ़ैसला किया था. बम्बई में फ़िल्मी जीवन के दो  वर्षो में जो अच्छी-ख़ासी रकम जमा की थी, वह बीमारी के डेढ़-दो  वर्षोँ में साफ़ हो गयी थी. दिल्ली में तीस हज़ारी के भैरो  मन्दिर के पास का किराये का मकान मेरे बड़े मामा की घोर लापरवाही के कारण शमशेर सिंह नरूला के भाई ने हथिया लिया था, लाहौर अब बिदेस बन चुका था, और जालन्धर ही रहना होता तो वे इक्कीस साल की उमर में, किसी अवलम्ब के बिना, लाहौर जाते ही क्यों! इसलिए पिछले पड़ावों  से कोई उम्मीद बाँधी नहीं जा सकती थी. ऐसी हालत में आगे की राह इलाहाबाद की तरफ़ ही जाती थी, जहाँ श्रीपतराय और वाचस्पति पाठक जैसे पुराने मित्र थे, महादेवी जी और पन्त जी जैसे शुभेच्छु सहकर्मी थे. यह अलग बात है कि इलाहाबाद आने के कुछ ही महीनों में यह स्पष्ट हो गया था कि विपदा के घात-प्रतिघात आम तौर पर अकेले ही झेलने पड़ते हैं. श्रीपतराय के घर हेस्टिंग्स रोड पर श्री अज्ञेय के कारण और फिर साहित्यकार संसद में गंगाप्रसाद पाण्डे की वजह से स्थायी बसेरे का सवाल बराबर सिर पर मँडराता रहा. पिता अभी ज़ेरे-इलाज थे. अधिक श्रम मना था. ऐसे में माँ सुबह रसूलाबाद से इक्के पर चलतीं, छै-सात मील का सफ़र तय करके लीडर प्रेस आतीं, जहाँ भारती भण्डारका दफ़्तर था और दिन-दिन भर मुझे साथ लिये मकान की तलाश करतीं.

पचास साल पहले का इलाहाबाद एक बड़ा-सा गाँव ही था. निर्जन और खुला-खुला. तो भी मकानों की क़िल्लत पुरानी बीमारी जैसी थी. अन्त में वहीं लीडर प्रेस के नज़दीक की एक कच्ची सड़क पर, जिसके एक तरफ़ बँगलों की क़तार थी और दूसरी तरफ़ ख़ुसरो बाग़ की ऊँची चारदीवारी, एक मकान मिल गया. बड़े-से बँगले की पिछली तरफ़ बनी छोटी-सी बँगलिया. पिता के साथ पहली स्मृति इसी बँगलिया के बीच वाले कमरे की है. शाम का वक़्त है. कमरे में एक बिना शेड का बल्ब लटका जल रहा है. लोहे के बड़े-से ट्रंक पर ईंट के रंग के कढ़ाईदार पर्दे बिछा कर मैं और पिता बैठे हुए हैं. कुछ सामान पहुँच गया है. बाक़ी सामान माँ ले कर आने वाली हैं और पिता कह रहे हैं कि थोड़ा-सा सबर करो , अभी तुम्हारी माँ आयेगी तो  कुछ खाने-पीने का इन्तज़ाम करेगी.

अजीब बात है कि स्मृति की तमाम पुरपेच गलियों से होकर जब मैं स्मृति के उस धुँधलके में झाँकता हूँ तो न मुझे गर्मियों की लू में रसूलाबाद से इक्के पर माँ के साथ 6-7 मील दूर शहर आना याद आता है, न हेस्टिंग्स रोड औरसाहित्यकार संसदका वातावरण. बस, झुटपुटे के समय नंगे बल्ब के नीचे लोहे के ट्रंक पर बिछे पर्दे पर पिता के साथ बैठना और उनके सान्त्वना-भरे स्वर का एहसास होता है.

उसके बाद तो बिम्बो की एक लम्बी श्रृंखला है - उसी बँगलिया के बरामदे में पिता के साथ बैठ कर वर्षा को धारासार गिरते देखना....थोड़ा बड़े होने जाने पर दो पहर को पिता के सो  जाने पर दबे पाँव भाग निकलना.....मसूरी जाना, वहाँ बुख़ार से बिस्तर थाम लेना और माँ के अचानक इलाहाबाद लौट जाने पर महीना भर बाद पिता के साथ सेकेण्ड क्लास के कूपे में इलाहाबाद लौटना.....एक रात दस बजे लीचियाँ खाने की फ़रमाइश करना, फिर पिता के साथ चौक जा कर लीचियाँ ख़रीदना और पिता के निर्देश पर उन्हें घर ले जा कर सबके साथ मिल-बाँट कर खाना......

कुछ और बड़े होने पर अन्य बिम्ब भी आ जुड़े. किशोरावस्था में क़दम रखते ही पिता का एक दूसरा रूप उजागर होने लगा. प्राप्तेषु षोड़षे वर्षेके पुराने संस्कृत सूत्र में उनका विश्वास उनके बदले हुए व्यवहार से प्रकट होने लगा. सोलह साल का होने पर पुत्र को मित्रवत मानते हुए उन्होने धीरे-धीरे जीवन के अपने अनुभव बेबाकी के साथ मुझसे बाँटने शुरू किये. कुछ समय बाद पिता और मित्र की उस भूमिका में गुरु की भूमिका भी आ मिली और मित्रवत होने के नाते मुझे जो छूट मिली थी, वह शिष्यवत होनेके नाते कुछ पाबन्दियों से बराबर घिरी रही. कारण शायद यही था कि ज़िन्दगी की तमाम ऊँच-नीच से गुज़रने के बाद पिता ने कुछ उसूल बना रखे थे, जिनका वे बडी कड़ाई से पालन करते थे. किसी क़िस्म की उच्छृंखलता और स्वैराचार उन्हें पसन्द नहीं था. शायद उन पर हमारे दादा की फक्कड़, लगभग घर-उजाड़ू, स्वच्छन्दता की तीखी प्रतिक्रिया हुई थी. शुरू-शुरू में तो ख़ैर वे कठोरता से मना कर दिया करते, पर बाद में भी, जब पाबन्दियाँ शिथिल हो गयी थीं, तब भी वे नापसन्दी ज़ाहिर करने से कतराते न थे.

जीवन के गहरे अध्ययन से उन्होंने कुछ सूत्र बनाये थे, जिन्हें वे अक्सर हमारे सामने दोहराते. बिना उद्देश्य का जीवन उनके निकट व्यर्थ था और दूसरों के अनुभवों से लाभ उठाने की वे बराबर हिमायत करते. वे कहते-आग जलाती है, यह जानने के लिए आग में उँगली देना कहाँ की दानाई है, आदमी दूसरों के अनुभवों-तजरुबों से भी तो सीखता है.......दोयम दर्जे का काम भी करों  तो उसे अव्वल दर्जे की कुशलता के साथ करो ........उस्ताद की जगह हमेशा ख़ाली है; तुममें दक्षता हो तो वहाँ जा बैठो . प्रतिभा की कमी मेहनत और लगन से पूरी की जा सकती है. आधे शक पर भी शब्द कोश देखने की हिदायत उन्होंने इतनी बार दोहरायी कि वह मेरे स्वभाव का हिस्सा बन गयी.......कुदरत अपने साथ की गयी ज़्यादतियों को कभी माफ़ नहीं करती, वे कहते, और सुख और दुख दोनों स्थितियों  में समभाव रहने की वकालत करते.

मुझे आज भी आश्चर्य होता है कि अपनी व्यस्त दिनचर्या में वे कैसे घर-परिवार के लिए समय निकाल लेते थे. शायद ही कोई दिन जाता हो जब वे दस-बारह घण्टे काम न करते हों. मगर इसके साथ उनकी नज़र घर की हर छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी घटना पर रहती. जीवन के नियम बनाना और घर को इन नियमों के आधार पर चलाना, उनके विचार में बहुत ज़रूरी था. कई बार मतभेद भी होते. इसका निपटारा भी अनोखे  ढंग से होता. अक्सर वे अपनी राय ज़ाहिर करके आख़िरी फ़ैसला घर वालों पर या परिवार के सदस्य-विशेष पर छड़ देते. व्यवस्थित जीवन उन्हें पसन्द था. बेमक़सद ज़िन्दगी जीना उन्हें ज़िन्दगी जैसी नेमत का अपमान करने जैसा जान पड़ता था. वे कहते थे कि आदमी को अपनी ज़िन्दगी का एक मक़सद तय करना चाहिए और उसे हासिल करने की दिशा में बढ़ना चाहिए. अगर परिस्थितयाँ प्रतिकूल हों और रास्ता भटक जाय तो भी जब तक मक़सद पर नज़र टिकी रहेगी, आदमी अपनी मंज़िल पा ही लेगा.

जब मैंने ख़ुद लेखक बनने का फ़ैसला किया तो उनकी हिदायतों का स्वरूप भी बदलने लगा. बिलकुल शुरुआती दौर में तो उनकी भूमिका गुरु जैसी ही थी और यह स्वाभाविक था. लेकिन कभी-कभी साहित्यकारउपेन्द्रनाथ अश्क वाली अन्तर्धारा भी उभर आती और पिता की भूमिका के साथ जा मिलती. मैंने जब अपनी रचनाएँ छपने के लिए भेजनी शुरू कीं तो अपने नाम के आगे अश्कलिखना बन्द कर दिया. मुझे याद है, इससे पिता को एक झटका-सा लगा था. मानों  मैंने अपनी विरासत का परित्याग कर दिया हो या पिता के रूप में उन्हें अस्वीकृत कर दिया हो. लेकिन मैंने उन्हें समझा दिया कि मैं अपने बल-बूते पर अपनी जगह बनाना चाहता हूँ. न तो मुझे विरासत से इनकार है, न पिता अथवा गुरु के नाते उन्हें अस्वीकृत करने की इच्छा. कुछ ही समय में उन्होने ने इस फ़ैसले को तसलीम कर लिया  और जैसे एक कुशल कारीगर अपने बेटे को अपना हुनर हस्तान्तरित करता है, उन्होंने मुझे भाषा और साहित्य की बारीक़िय से परिचित कराना शुरू किया. धीरे-धीरे पिता, मित्र और गुरु की भूमिका के साथ-साथ उन्होने एक सहकर्मी की भूमिका भी अपना ली और शुरू में जो साहित्यिक सम्पर्क इकतरफ़ा  था, वह बाद में आदान-प्रदान का रूप लेने लगा. कैसी भी राय क्यों  न हो, वे उस पर गौर करने के लिए हमेशा तत्पर रहते. उनका कहना था कि सुझाव कहीं से भी आये, यदि वह रचना को बेहतर बनाने की दिशा में ले जाता है तो उसे अपनाने से कोई गुरेज़ नहीं करना चाहिए. अपने अन्दर अच्छे-बुरे की तमीज़ पैदा करनी चाहिए और अपने विरोधिओं की भी अच्छी रचनाओं को सराहने का माद्दा विकसित करना चाहिए.

साहित्य पिता के लिए जीवन-सरीखा था. लिखने की इच्छा उनके अन्दर अत्यन्त बलवती थी और किन्हीं कारणों से जब उनका लिखना रुक जाता तो वे बैचेन होने लगते. अक्सर कहते कि अगर मैं लिखता नहीं तो मुझे ऐसा लगता है जैसे कि मैं जी नहीं रहा. महज़ धन के लिए लिखना उन्हें वेश्यावृत्ति सरीखा लगता था. और यश के पीछे दौड़ना मरीचिका के पीछे भागने जैसा. हालाँकि लेखन ही उनके जीवन के अधिकांश में उनकी आजीविका का आधार था और यश भी उन्हें प्रचुर मात्रा में मिला था. यश और धन से उन्हें इनकार नहीं था, पर उन्हें वे लेखन की गौण उपलब्धियाँ मानते थे. इस पर भी, लेखकों के अधिकारों के लिए शायद जितनी लड़ाइयाँ साहित्यकार उपेन्द्रनाथ अश्क ने लड़ीं, उतनी उनके समकालीनों और परवर्तियों में भी बिरलों  ने ही लड़ी होंगी. इसकी क़ीमत भी उन्होंने भरपूर चुकायी. अन्धे को नैनसुख कहना उन्होंने सीखा न था. जो कुछ ठीक समझते, साफ़गोई से व्यक्त करते. नतीजे के तौर पर विवाद और विरोध मोल लेते. फिर चूँकि लड़ाई में पीछे हटना उनकी आदत में शुमार न था, इसलिए विरोध तीखा हो जाता.

दूसरी ओर, नये-से-नये लेखक की रचनाएँ पढ़ना, उसे पत्र लिख कर राय देना वे अपना कर्तव्य समझते थे. कई बार हम उनसे कहते कि नये रचनाकार इस ख़ुदाई ख़िदमतगारी का बुरा भी मान सकते हैं. मगर वे सदा प्रेमचन्द और अपने सम्बन्धों  का हवाला देते. कहते कि लेखन के आरम्भ में प्रेमचन्द ने एक अग्रज के नाते मुझे बहुत प्रोत्साहन दिया था, मैं उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहा हूँ.

स्वभाव से यारबाश आदमी थे. खुली ज़िन्दगी जीने वाले. अपना सारा अच्छा-बुरा खोल कर रख देने वाले.. जब तक स्वास्थ्य साथ देता रहा, वे या तो लोगों को घर बुला लेते या फिर ख़ुद साथी रचनाकारों से मिलने चले जाते. उदार ऐसे थे कि अगर विरोधी भी कभी ज़रूरत में मदद माँगता तो इनकार न करते. लड़ाई उनके निकट हमेशा विचारों की थी. मतभेदों को वे साहित्य के मंच पर ही तय करने के हामी थे. लेकिन धीरे-धीरे बदलती हुई सामाजिक और आर्थिक परिस्थतिओं में वे अकेले होते चले गये. इलाहाबाद को उन्होंने सोच-समझ कर बसेरे के लिए चुना था. एक अर्से तक शहर साहित्य का केन्द्र भी रहा. लेकिन फिर यहाँ का मेला उठने लगा. लोग बाहर से आ-आ कर यहाँ बसने की बजाय, दिल्ली और भोपाल की तरफ़ भागने लगे.

जो लोग यहाँ रह गये थे उनके आपसी सम्बन्धों में, मिलने-मिलाने में, महफिलों और गोष्ठियों  में दूरी बढ़ने लगी. पिता धीरे-धीरे सिमटते चले गये. उन्होंने  अपने आप को सिर्फ़  अपने लिखने-पढ़ने तक सीमित कर लिया. रही-सही कसर गिरते हुए स्वास्थ्य, आर्थिक कठिनाइयों और पारिवारिक बिखराव ने पूरी कर दी.

वे हमेशा ही से संयुक्त परिवार के समर्थक रहे थे. ख़ुद अपने परिवार को उन्होंने ने संयुक्त बना रखा था और इसके लिए कुछ नियम बनाये थे. लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों  में उन्होंने इन नियमों का उल्लंघन भी देखा. पहले का ज़माना होता तो वे इसे कभी बरदाश्त न कर पाते. लेकिन टूटते हुए स्वास्थ्य और आसन्न मृत्यु ने उन्हें विवश कर दिया था. वे पिछले पचास वर्षोँ से अपना वृहद उपन्यास एक-एक खण्ड करके बढ़ाते जा रहे थे. अन्तिम खण्ड लिख रहे थे और शायद इसीलिए ऐसी बहुत-सी बातें नज़र अन्दाज़ करने लगे थे, जो पहले कभी न करते.

कहीं-न-कहीं इस उपन्यास को वे अपनी ज़िन्दगी से जोड़ कर देखने लगे थे. वे कई बार कह चुके थे कि इस उपन्यास को पूरा किये बिना मैं मरने वाला नहीं. इसलिए उसे तत्काल पूरा करने की बजाय आगे बढ़ाये जाने के पीछे शायद यह भावना रही हो कि इस प्रक्रिया में वे अपनी ज़िन्दगी को भी बढ़ाते चल रहे हैं. ज़ाहिर है इस क्रम में बहुत कुछ उलट-पुलट गया था. मेरा उनसे आख़िरी मतभेद इन्हीं बातों को ले कर हुआ था. मेरा कहना था कि उन्हें बिना वक़्त खोये अपना उपन्यास पूरा कर लेना चाहिए, जिससे वे व्यर्थ के तनाव से मुक्त हो सकें. यही नहीं, बल्कि उन्हें अपने परिवार के सिलसिले में भी अपनी पुरानी टेक और सपनों में बदलते हालात की रोशनी में तरमीम करनी चाहिए. मनुष्य की आयु की तरह संयुक्त परिवारों की भी आयु होती है और जब उनके नियमों में शिथिलता आने लगे तो वास्तविकता को स्वीकार करके संयुक्त परिवार को भंग कर देना चाहिए. हो सकता है इससे कुनबे के लोग साथ-साथ घुटने की बजाय अलग-अलग साँस ले सकें.

वे मुझ पर बहुत ख़फ़ा हो गये थे. अर्से तक उनसे एक अबोला-सा रहा. मैं ख़ुद उन दिनों उनके एकांकियों पर दूरदर्शनन के लिए एक धारावाहिक बनाने में जुटा हुआ था और ख़ासे तनाव और मुश्किलसे गुज़र रहा था. कई बार दिल में ख़याल आता कि मुझे उनके साथ फिर से पहले की तरह बैठ कर सम्बन्ध सुधार लेने चाहिएँ. तमाम मतभेदों के बाद भी हमारे बीच सहमतिओं का एक बहुत बड़ा आधार और इतिहास था. लेकिन मैंने अपने इरादे को धारावाहिक पूरा होने तक मुल्तवी कर रखा था. मैंने सोचा था कि धारावाहिक के जंजाल से मुक्त होकर मैं कुछ समय उनके पास गुज़ारूँगा  और उनके जीवन की इस जलती-तपती सन्ध्या बेला में कुछ छाया की व्यवस्था करूँगा. लेकिन तभी, जब धारावाहिक पूरा होने के क़रीब था, वे अस्वस्थ हो गये. पहले कूल्हे की हड्डी टूटी, फिर बिस्तर पर लेटे रहने की वजह से तमाम रोग, जो नियंत्रण में रहते थे, सहसा बेक़ाबू हो उठे.

सारी उमर वे सख़्त-से-सख़्त बीमारी से जम कर लोहा लेते रहे थे. यहाँ तक कि समूचे साहित्यिक संसार में उनकी बीमारिओं को लेकर क़िस्म-क़िस्म के चुटकुले, लतीफ़े और क़िस्से मशहूर थे. अक्सरहा लोगों ने उनकी बीमारियों के सिलसिले में ख़ासी निर्ममता और सम्वेदनहीनता से फ़िकरे भी कसे थे. लेकिन हम परिवारवाले ही जानते थे कि कैसे वे रात-रात भर टहलते हुए गुज़ार देते हैं. दमे, गठिया, प्रॉस्टेट और दूसरी शारिरिक गड़बड़िय ने उन्हें कैसे जकड़ रखा है. इसके बावजूद, जब तक वे कूल्हे की हड्डी टूटने की वजह से बिस्तर की क़ैद भुगतने को मजबूर नहीं हुए थे, उन्हने सारी जकड़बन्दिओं को नज़र अन्दाज़ करते हुए जीने और लिखने का रास्ता निकाल लिया था. क़ैद-ए-हयात--बन्दे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं, मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाये क्यों’ -- वे ग़ालिब का शेर दोहराते और बीमारी के हर दौर के बाद फिर उठ कर खड़े हो जाते. लेकिन यह आख़िरी मरहला जान-लेवा साबित हुआ तो इस में भी उन्होंने  आसानी से अपनी गिरफ़्त ढीली नहीं की. आख़िरी दिनों में उन्होंने बेइन्तहा तकलीफ़ पायी और लगभग नीम-बेहोशी की हालत में धीरे-धीरे एक डूबते हुए जहाज़ की तरह विलीन हो गये. उनसे सुलह-सफ़ाई की इच्छा तो क्या पूरी होती, अन्त समय में क़ायदे से विदा लेना भी सम्भव नहीं हो पाया.


उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’ : (१९१० - १९९५), जालन्धर,पंजाब.
उर्दू लेखक के रूप में साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ१९३२ में मुंशी प्रेमचन्द्र की सलाह पर हिन्दी में लिखना आरम्भबम्बई प्रवास में फ़िल्मों की कहानियाँ,पटकथाएँ, सम्वाद और गीत लिखे१९६५ में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार१९७२ में 'सोवियत लैन्ड नेहरू पुरस्कार' से सम्मानित  उपन्यास : गिरती दीवारे, शहर में घूमता आइना, गर्मराख, सितारो के खेलकहानी संग्रह : सत्तर श्रेष्ठ कहानियां, जुदाई की शाम के गीत, काले साहब, पिंजरानाटक: लौटता हुआ दिन, बड़े खिलाडी, जयपराजय, स्वर्ग की झलक, भँवरएकांकी संग्रह : अन्धी गली, मुखडा बदल गया, चरवाहेकाव्य : एक दिन आकाश ने कहा, प्रातः प्रदीप, दीप जलेगा, बरगद की बेटी, उर्म्मियाँसंस्मरण: मण्टो मेरा दुश्मन, फिल्मी जीवन की झलकियाँ, आलोचना अन्वेषण की सह यात्रा, हिन्दी कहानी एक अन्तरंग आदि
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नीलाभ 
(१६ अगस्त १९४५ - २३ जुलाई २०१६)
 एम. ए. इलाहबाद से, 1980 में चार वर्ष बी.बी.सी. की विदेश प्रसारण सेवा में प्रोड्यूसर
काव्य : संस्मरणारम्भ, अपने आप से लम्बी बातचीत, जंगल खामोश  है, उत्तराधिकार, चीजें  उपस्थित हैं, शब्दों से नाता अटूट है,शोक  का सुख, खतरा अगले मोड़ की उस तरफ  है और ईश्वर  को मोक्ष
गद्य : प्रतिमानों की पुरोहिती और पूरा घर है कविता
शेक्सपियर, ब्रेष्ट तथा लोर्का के नाटकों के रूपान्तर इनके अलावा,मृच्छकटिकका रूपान्तर सत्ता का खेल के नाम से.
जीवनानन्द दास, सुकान्त, भट्टाचार्य, एजरा पाउण्ड, ब्रेष्ट, ताद्युश रोजश्विच, नाजिम हिकमत, अरनेस्तो कादेनाल, निकानोर पार्रा और पाब्लो नेरूदा की कविताओं के अलावा अरुन्धती राय के उपन्यास के गाड आफ स्माल थिंग्स और लेर्मोन्तोव के उपन्यास हमारे युग का एक नायक का अनुवाद

रंगमंच के अलावा टेलीविजन, रेडियो, पत्रकारिता, फि्ल्म, ध्वनि-प्रकाश  कार्यक्रमों तथा नृत्य-नाटिकाओं के लिए पटकथाएँ और आलेख
फि्ल्म, चित्रकला, जैज  तथा भारतीय संगीत में ख़ास  दिलचस्पी
ई-पता : neelabh1945@gmail.com

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  1. Ak lambe arse baad Neelaabh ko padhaa....hameshaa ki tarah bandhaataa aur likhe jaane ke naye prayog se parichit karaataa...ab mujhe Neelaabh ko ak patra likhnaa hi hogaa....isi bahaane...

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  2. नीलाभ जी का ये संस्मरण कितना सहज और भावप्रवण है .. इस अंतर्धारा से गुज़रना सुखद रहा. अरुण जी आभार ! नीलाभ जी को पढ़ा , आपके माध्यम से .
    अश्क जी को नमन !

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  3. एक अविस्मरणीय संस्मरण ....अरुणजी ,एक बार पुनः शुक्रिया, पढाने के लिए ..
    वंदना

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  4. नीलाभ के गद्य का मैं पुराना प्रशंसक हूँ और ये आज तक समझ नहीं पाया की एक लेखक के रूप में जो स्थान उन्हें मिलना चाहिए वो क्यों नहीं मिल पाया.अश्क जी पर नीलाभ का संस्मरण बेहद मार्मिक और संवेदित है, सहज और अंतस को स्पर्श करने वाला.ये सिर्फ एक पुत्र द्वारा एक पिता को याद करना नहीं है ,बल्कि पिता -पुत्र के जटिल संबंधो के एक-एक रेशे को एक संवेदित लेखक की आँखों से देखना है,ये संस्मरण ये भी समझा देता है की क्यों हिंदी के लेखकों की दुनिया इतनी स्वार्थपरक और मतलबी है.आपने ज़बरदस्ती विस्मृत कर दिए गए अश्क जी जैसे बड़े लेखक को याद रखा और इस अन्तेर्यात्रा को साझा करने का बड़ा प्रयास किया और वो भी नीलाभ के द्वारा .बहुत शुक्रिया .

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  5. नीलाभ जी अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनके परिचय में जन्‍म का उल्‍लेख है, मृत्‍यु का नहीं। ऐसी ग़लतियां दुरुस्‍त की जानी चाहिए।

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