मेघ - दूत : राइनेर मारिया रिल्के





युवा कवि को पत्र राइनेर मारिया रिल्के (१८७५-१९२५, जर्मन भाषा के लेखक–कवि,अपने DUINESER ELEGIEN और DIE SONETTE AN ORPHEUS के लिए ख्यात)   द्वारा १९ वर्षीय काप्पुस को लिखे गए हैं जो मिलिटरी अकादमी का छात्र है और कवि बनना चाहता है. यह पत्र-व्यवहार १९०२ से १९०८ तक चला. रिल्के की मृत्यु के ३ वर्ष बाद ही ये पत्र प्रकाशित हो गए थे.
             ये पत्र सृजनात्मकता पर गहरी अंतरदृष्टि और प्रश्नाकुलता के कारण जाने जाते हैं.अपर्णा भटनागर ने इनमें से दो पत्रों का अंग्रेजी से अनुवाद किया है.












पेरिस
फरवरी १७, १९०३ 


प्रिय
काप्पुस

कुछ दिनों पूर्व आपका पत्र मिला. आपने जो अपार विश्वास मुझमें दर्शाया उसका मैं तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ. इससे अधिक मैं आपके लिए और क्या कर सकता हूँ. मैं आपकी कविताओं पर कोई चर्चा नहीं चाहता क्योंकि आलोचना मेरे स्वभाव के विपरीत है. सच पूछा जाये तो किसी भी तरह की आलोचना कला के मर्म का स्पर्श करने में सक्षम हो ही नहीं सकती  . इस तरह की समीक्षाएं मात्र गफलत पैदा करती हैं - कम या अधिक. चीजें इतनी प्रत्यक्ष नहीं होतीं कि हम उनको  इतनी आसानी से छू सकें या उन पर कुछ कह सकें. हमारी अनुभूतियाँ अनिर्वचनीय होती हैं; वे जिस शून्य या रिक्तता में जन्म लेती हैं, उनके बीच शब्दों को रख देना इतना आसान नहीं. और कला तो इन सब अनुभूतियों में सर्वोपरि है - जिसे आप वर्णित नहीं कर सकते. इसकी रहस्यमयी मौजूदगी जीवन ख़त्म होने के बाद भी सनातन रूप में  टिकी रहती है.

इतना सब कह लेने के बाद मैं बेजिझक आपसे कह सकता हूँ कि आपकी कविताओं में कोई विशेष आपकी अपनी शैली मुझे नहीं दिखाई दी. हाँ, इतना अवश्य है कि उनमें कुछ मौन और गोपन बह रहा है, जो आपके जीवन से जुड़ा अपना अहसास है. आपकी अंतिम कविता ‘माय सोल‘ में ये अहसास इस कदर मुखर हुआ है कि आपकी अंदरूनी   मनोदशा शब्द और संगीत बनकर प्रवाहित हो गयी है. आपकी खूबसूरत कविता ‘लियोपार्डीमें एकान्तता की ऐसी कसक है, जो एक सम्बन्ध स्थापित करती चलती है. लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि आपकी कविता में वह सब नहीं जो होना चाहिए, उनमें वह उन्मुक्तता नहीं जो मैंने ढूँढने की कोशिश की - अंतिम वाली में भी नहीं और न ‘लियोपार्डी’ में . आपके पत्रों के साथ संलग्न कविताओं को पढ़कर मैं उनमें कई कमियों को देख पा रहा हूँ, किन्तु उन्हें अक्षरश: लिखने में यहाँ असमर्थ हूँ.

आप अपनी कविताओं का स्तर जानना चाहते हैं - मालूम करना चाहते हैं कि वे कितनी उत्कृष्ट हैं . आपने मुझसे पूछा . औरों से भी आपने यही जानने की कोशिश की. आपने उन्हें पत्रिकाओं में भेजा, उनके लौटा दिए जाने पर व्याकुलता भी हुई ; और अब आप मेरी राय जानना चाहते हैं. मेरा निवेदन है कि आप ये सब करना बंद करिए. आप उस सब को बाहर खोज रहे हैं , जो वहाँ है ही नहीं. इसमें कोई परामर्श नहीं दे सकता . कोई नहीं. बस एक तरीका है - अपने अन्दर गहरे तक उतरो . तलाशो उन कारणों को  जो तुमसे लिखवा रहे हैं; जानने की कोशिश करो कि क्या उनकी जड़ें भीतर तक पैठ रही हैं - बिलकुल दिल तक, पूछो अपने आप से कि क्या तुम इसे न लिखकर जीवन खो बैठोगे - या न लिखना जीवन खो देने जैसा है - क्या अंगीकार कर सकते हो इसे! इस सबके अतिरिक्त, अपने नीरव अन्धकार के क्षणों में खुद से बात करके देखो और जानो कि क्या तुम्हे लिखना चाहिए ?

एक गहरे उत्तर को पाने की चाह में, खोद डालो खुद को उतने ही गहरे तक. जब अन्दर से एक सहमति झंकृत होने लगे, इस पवित्रतम प्रश्न का उत्तर ज़ोरदार ‘हाँ‘ में आने लगे, तब अपने जीवन की आवश्यकता समझते हुए इसे उसी रूप में ढालना. तब तुम्हारे साधारण से साधारण या उदासीन लम्हे भी इस प्रबल उद्रेक के साक्षी होंगे. इसके उपरान्त तुम स्वत: प्रकृति के करीब आ जाओगे. फिर तुम वह सब कहना जो इसके पूर्व कभी नहीं कहा गया - उन सबके बारे में जो तुम रोज़मर्रा में देखते हो, गुनते हो, जांचते हो, छूते हो, प्रेम करते हो या कि खोते हो - संवेदनाओं के हर पहलू.

प्रेम कवितायेँ मत लिखना. उन सब पर लिखने से बचना जो देखने में सरल, नाज़ुक लगती हैं क्योंकि उन पर काम करना उतना ही मुश्किल होता है. वे मेहनत मांगती हैं -यानी तुम्हारा सारा पसीना. इनका सृजन तब ही संभव है जब तुम अनुभूतियों में पक कर बारीक संवेदनाएं गुम्फित करने में सक्षम होते हो और वह भी तब जबकि इन पर बहुतेरा लिखा जा चुका है, बहुत सुन्दर लिखा जा चुका है. इसलिए इन सामान्य दिखने वाले विषयों को टाल जाओ और बस वही लिखो जो जिन्दगी का नजराना है; जिसे वह तुम्हे रोज़ दे रही है. अपने दुखों की कहो, इच्छाओं की कहो, ह्रदय को छूने वाली घटनाओं की कहो, अपने मौन की कहो, अपनी विनम्र ईमानदारी की कहो और जब ये सब कहना आ जाए तब उन सब सरल आस-पास दिखने वाली चीज़ों पर कहना, अपने सपनों की कल्पनाओं पर कहना और जो कुछ भी तुम याद रख सको उन सब पर भी कह लेना. अगर तुम्हें अपनी जिंदगी रिक्त लगे, उसमें वह सौष्ठव न दिखे तो शिकायत जीवन से नहीं; स्वयं से करना. इतना कहने का जीवट रखना कि जिंदगी की अपार, अतुलनीय सम्पदा पर जौ-भर लिखने का कवित्व भी  तुम्हारे भीतर नहीं; क्योंकि उस चितेरे ने तो सृजन में कोई कसर नहीं छोड़ी-न अकिंचनता है, न कोई अकिंचन.

अगर तुम किसी कैद में भी हो, ऊँची खड़ी प्राचीरें बाहर की हर आवाज़ को अवरुद्ध कर रही हों - तब भी तुम्हारे पास बहुत कुछ होगा सृजन के लिए..कम से कम वे अवशिष्ट पल तो होंगे, वे संजोयी स्मृतियाँ तो होंगी जिनके बीच से तुम्हारा बचपन गुज़रा - इन स्मृतियों के घर से बड़ा और कौन-सा सुख होगा , या इस खजाने से बड़ा और क्या अमोल होगा . इस कैद में तुम अपने बीते पलों को सत्कार देना . कोशिश करना कि वे प्रचुर कोमल , उजली भावनाएं तुम्हारे भूत से बरस सकें ; तुम उन्हें कुरेद कर निकाल पाओ. तब  तुम्हारा व्यक्तित्व निखार पर होगा , तुम्हारी निविड़ता विस्तार पर होगी और इस विस्तार में गोधूली होने तक तुम्हारे पास सार्थक जीवन के ढेर सारे क्षण होंगे- वे क्षण जिनके पास से दुनियावी आवाजें बिना छुए निकल जाती हैं - दूर बहुत दूर और तुम अपनी तरफ पूरी तरह मुड़ चुके होते हो जिसमें डूबकर कविता निसृत होती है. फिर तुम्हें किसी से अच्छे या बुरे के बारे में पूछने की आवश्यकता महसूस नहीं होगी और न ही पत्रिकाओं में प्रकाशन सम्बन्धी राय जानने की. तब ये सब जो तुमने लिखा वह केवल तुम्हारी पूँजी होगी, तुम्हारी निधि, तुम्हारे जीवन कि कलाकृति और तुम्हारी अपनी आवाज़. वह कलाकृति सर्वोत्कृष्ट है , जो आपकी ज़रुरत से निकली है. और इस पर फैसला सुनाने का इससे बेहतर तरीक अन्य कोई नहीं.

इसलिए श्रीमान, मैं आपको कोई राय नहीं दे सकता पर इतना कह सकता हूँ कि उतर कर वहाँ तक पहुँचिये जहां से आपके जीवन का सोता फूट रहा है और इसी उत्स पर आपको अपने तमाम प्रश्नों के उत्तर सृजन के साथ मिलेंगे. बिना किसी विवेचना के अपने हर उत्तर को मान दीजिये , उसे स्वीकार कीजिये.तब शायद तुम एक कलाकार कहलाने का गौरव पा सको. यदि ऐसा हो तो इसे अपनी नियति समझकर स्वीकार करना  - उसकी महानता , उसके बोझ बिना फल की इच्छा किये अंगीकार करना क्योंकि एक कलाकार अपना संसार खुद रचता है – उसी में बसता है तथा उस प्रकृति के लिए पूरी तरह समर्पित हो जाता है जो उसका निर्माण कर रही है.

इस सबके बावजूद जबकि आप गहरे तक उतरे , अपने एकाकीपन के अन्दर तक चलते चले गए ; हो सकता है अनायास ये लगने लगे कि आपको लेखन का परित्याग करना होगा; ऐसा तब होगा जब आप बिना लिखे भी जी पा रहे होंगे या आपको लगेगा कि उसके बिना भी आप जिन्दा हैं - ऐसे में लिखना छोड़ देना ही श्रेयस्कर है. लेकिन फिर भी खुद की खोज में निकलना व्यर्थ नहीं जाएगा. आपकी जिंदगी ऐसे में अनूकुल रास्ते तलाश पाएगी, स्यात वे राहें आपके लिए शुभ हों, समृद्धि दे सकें और आप बहुत आगे तक चले जाएँ. मेरे मित्र मैंने जितना कहा उससे अधिक की शुभेच्छा रखता हूँ. इन सबके अतिरिक्त और क्या कहूँ. जो यथेष्ट है वह कह ही दिया है. लेकिन एक छोटी -सी बात और जोडूंगा - बाह्य जगत को न देखकर, उसमें अपने उत्तर न तलाश कर आत्मलीन हो लेना .. शांति और चाव से अपने कर्म में लगे रहना - तो आगे का मार्ग स्वतः प्रशस्त होगा. सभी अबूझ प्रश्नों के उत्तर भी यूँ खुद को खोज कर पा जाओगे.

आपके पत्र में प्रोफ़ेसर होरासेक का ज़िक्र देखकर बेहद ख़ुशी हुई. उनके प्रति श्रद्धा का भाव है जो वर्षों से सिंचित है. उनकी विद्वता और नेकी ने सदा मुझे प्रभावित किया. उनके प्रति मेरे भावों को यदि आप प्रेषित कर सकें तो मैं आपका आभारी रहूँगा . ये मेरी खुशनसीबी है कि इतने लम्बे अंतराल के बाद भी वे मुझे याद करते हैं.आपकी सभी कवितायेँ इस पत्र के साथ संलग्न करके भेज रहा हूँ. एक बार पुनः आपको  इस विश्वास और पूछे गए ईमानदार प्रश्नों के लिए  दिल से धन्यवाद् देना चाहता हूँ . अपनी ओर से सभी प्रश्नों के उत्तर देने की खरी कोशिश की है. अजनबी होते हुए भी शायद मैं आपके लिए उपयोगी सिद्ध हो सकूँ. 


अमित स्नेह 
राइनेर मारिया रिल्के 













रोम
दिसंबर २३, १९०३ 


प्रिय
काप्पुस

मैं जानता हूँ कि क्रिसमस की इन लम्बी छुट्टियों में , जबकि तुम अपनी परम निविड़ता के साथी हो और इन पलों को सिर्फ अपने लिए बचाकर रखना चाहते हो -  ढेर सारी शुभकामनाएँ प्रेषित कर रहा हूँ.  यदि हम अपने अंतर्मन से पूछें तो यही पायेंगे कि एकांत पलों की ये लम्बी अवधि परम सुखकर होती है - एक छोटा सा एकांत आपको तृप्ति दे ही नहीं सकता ; जितना कि  लम्बा एकांत. आह्लाद के इन पलों को पाने के लिए आवश्यक है कि ये नीरवता फैलती चली जाए .. लम्बे समय तक आप अकेले हों - अपनेआप में बिलकुल अकेले . एक ऐसा अकेलापन जो खूब गहराए ; इतना कि आपको इसे संभालना कठिन जान पड़े . अधिकांशतः हमारे पास ये समय होता है - सभी के पास होता है ; किन्तु हम इसे जाया करते हैं .


अपने सामजिक कर्तव्य पूरे करने के लिए ; अपनी अनुषांगिक मिलनसारिता के लिए -जो नितांत बचकानी और तुच्छ है; अनुदार भी. जबकि ये ही वे क्षण होते हैं जिनमें हमारी नीरवता को पनपते जाना है - खूब -खूब पनपना है. मैं तो कहूँगा कि ये पनपना बिलकुल उस उदास यौवन के उठान जैसा प्यारा है या कि वसंत के आरम्भ की उदासी जैसा.  मेरे दोस्त किसी तरह का संदेह तुम्हारे मन में नहीं होना चाहिए. जानो कि अपरिहार्य क्या है ? क्या अंतर्मन में घुमड़ती उदास नीरवता! इन पलों में किसी से मत मिलो , बस अपने अन्दर चलते चले जाओ - और यहीं तुम्हें वह सब मिलेगा जो इच्छित है. जानते हो ये एकाकीपन कैसा होता है - उस मासूम बच्चे जैसा जो अपने आस-पास अपने बड़ों को काम में उलझा देखकर हैरान होता है और समझ नहीं पाता कि आखिर ये कर क्या रहे हैं ?


और जब बालमन जान लेता है कि ये व्यस्तता या गोरखधंधा मात्र एक जुगुप्सा है और तुम्हें पत्थर बनाने की या जीवन से काटने की प्रक्रिया ; तो कहीं बेहतर है कि तुम फिर से वही बालक बन जाओ जो इन सबसे अनजान था और इन सबसे अलग खुद में तन्मय . जीवन की ये दशा या वृत्ति क्या संतोषजनक नहीं ? फिर बच्चों-सी ये अबोधता  हम क्यों छोड़ देते हैं दुनियावी आत्मरक्षा और तिरस्कार से बचने के लिए बचपन की ये मासूम एकान्तता कहाँ बुरी है ; जबकि तुम अच्छी तरह जानते हो कि ये आत्मरक्षा या उपहास तुम्हें खुद से विलग कर रहा है.

मेरे प्यारे दोस्त , तुम अपने अन्दर के संसार को देखो . कोई भी नाम दो इसे ; कुछ भी कहकर पुकारो - चाहे तो बचपन का पुनरावर्तन या भविष्य में खुद को जानने की ललक .पर भीतर जो घट रहा है उसे अनदेखा मत करो , उसे अपने आस-पास के परिवेश से सर्वोपरि मानो क्योंकि जो कुछ भी भीतर चलता है वही तुम्हारा प्रेम है - एक पूर्ण प्रीत , बस तुम्हें यही देखना है कि इसे दुनिया के बीच में रहकर उचित सम्मान मिले , तुम्हारे भीतर इतना साहस हो कि दुनिया को अपने इस रवैये के लिए स्पष्टीकरण न देना पड़े.  जिस व्यवसाय में तुम हो ,वहाँ ये सब निभाना मुश्किल है , काफी मुश्किल.  बहुत सारे विरोधाभास हैं.

और मैं तुम्हारी इस व्यथा को जानता हूँ बंधु.  इसलिए मैं बार-बार तुम्हें किसी तरह की सांत्वना या आश्वासन नहीं दे सकता , हाँ ; राय दे सकता हूँ. कम या अधिक - सभी व्यवसाय इसी तरह के होते हैं. उनकी अपेक्षाएं , उम्मीदें एक-सी होती हैं. उनके व्यक्ति से विरोध भी समान होते हैं.  आप उन लोगों को देखकर आक्रोश से भर उठते हो , जो चुपचाप इस नीरसता का हिस्सा बन जाते हैं . आप ये सब देखकर भर जाते हो. लेकिन फिर भी जिन स्थितियों से तुम गुज़र रहे हो वहाँ इतने भी अधिक समझौते , पूर्वाग्रह , भ्रामक विचार नहीं हैं कि ये आपको पूरी तरह विचलित कर दें ; अन्य स्थानों पर स्थिति कहीं अधिक शोचनीय है. कमोबेश कुछ आपको अधिक स्वातंत्र्य की झूठी दिलासा भी दे सकते हैं ; किन्तु इन सबसे परे महत्त्वपूर्ण ये है कि आपने अपने जीवन को किस तरह गठा है. मित्र, अपने एकांत में रहने वाले के लिए वे सब बातें गौण हो जाती हैं . सूरज का उगना , घटनाओं से भरी शामें उसे बस इतना प्रभावित करती हैं , जितना कि एक मृत व्यक्ति की देह को . वह इन सब के मध्य भी अपनी पवित्रता संजोये रहता है. प्रिय कापुस , बतौर अफसर तुम जिन स्थितियों से गुज़र रहे हो वे अन्य स्थानों पर भी अलग नहीं .


हो सकता है इसके बाहर तुम समाज से अधिक स्वाधीनता से सम्बन्ध बना सकते , पर ये सब अपनेआप को गोट में सिलने जैसा है ; इन सबसे तुम्हें उदास नहीं होना है और न ही उद्विग्न . मैं जानता हूँ कि ये बातें  तुम सबके साथ बाँट नहीं सकते पर तुम उन सबके करीब तो रह सकते हो जो तुम्हें संतोष दे सकें; मेरा विश्वास है कि वे तुम्हें त्यागकर कहीं नहीं जायेंगी . जैसे वे शांत रातें , वे हवाएं जो पेड़ों का स्पर्श पाकर दूर दराज के देशों से तुम तक आ रही हैं . दोस्त संसार तो समृद्ध है इनसे . जीवों के जीवन में यही सब तो घटता है - उन सबकी ओर देखो . बच्चे अब भी वैसे ही हैं - वही आह्लाद और वही सरल नाराजगी - तुम्हारे बचपन से अलहदा नहीं ये बच्चे. अपने बचपन में झांककर देखो - एकबार फिर सब पा जाओगे. इन बच्चों में विस्मृतियाँ मिलेंगी. वयस्कों में क्या है - न वह गरिमा और न ही वे मूल्य.


और अगर बचपन की ये स्मृतियाँ तुम्हें भयभीत कर रही हैं या यंत्रणा दे रही हैं तो स्वीकार करो इस सच को कि न तो तुम्हारा खुदा में विश्वास था और न तुमने उसे हर जगह देखा. तुमने उस ईश्वर को हमेशा के लिए खो दिया, मित्र  या तुमने उसे कभी पाया ही न था. और जिसे पाया ही नहीं वह मिलेगा कहाँ ? तुम मानोगे इस बात को कि एक बालक किस सहजता से उस परम तत्त्व को संभाले रहता है जबकि एक व्यस्क इसके लिए, बहुत  यत्न करता है और अपने इन यत्नों के बोझ से बुढ़ापे में कुचल जाता है . क्या तुम स्वीकार कर सकते हो कि जिसने उसे पा लिया है वह उसे एक छोटे कंकड़ की तरह खो देगाऔर क्या तुम ये मान बैठोगे कि किसी ने उसे इसलिए पाया कि वह उसे खोना चाहता है ? यदि  तुम्हें लगता है कि वह तुम्हारे बचपन में भी नहीं था. कभी था ही नहीं वह तुम्हारे साथ. या फिर कि ईशु इच्छाओं का धोखा  था व मोहम्मद अहंकार का भ्रम था इसलिए तुम उससे भयभीत होते रहे; तो मित्र बेहतर है कि उसे नकार दो. जिस प्रभु के अस्तित्त्व पर तुम्हें भरोसा ही नहीं, उस पर हम इन क्षणों में क्यों बातचीत कर रहे हैं? ये खोज क्या ऐसी नहीं जैसे जीवन को उस व्यक्ति में ढूँढ़नाजो मृत हो चुक है, शव हो चुक है ? 

तुम उसे ‘एक‘ रूप में क्यों नहीं सोच पाते - वह ‘एक’ जो अभी आएगा अपनी नित्यता के साथ आएगा; जो पेड़ का शाश्वत फल है और हम उसकी पत्तियाँ. तुम ऐसा क्यों मान बैठे  हो कि उसके जन्म का दुःख भोगना और सुन्दर जीवन को पाना एक  युग था और उसकी गर्भावस्था मात्र महान सुन्दरतम इतिहास. तुम्हें नहीं लगता कि जो कुछ भी घटता है वह एक पुनरावृत्ति होती है, एक नया आरम्भ होता है क्या ये ‘उसका’ आरम्भ नहीं ? और जन्म या आरम्भ सदैव सुन्दर होता है, सखा. फिर जब वह अपनेआप में सम्पूर्ण है तो हम ये क्यों सोचें कि उसके पीछे जो आ रहा है वह परिपूर्ण न होगा ? वह परम उस महान प्रचुरता का आदि है तो हम भी उस क्रम की कड़ी हैं. वह अंतिम नहीं है, इसलिए वह हम सभी को समाहित किये है. हमारे होने का क्या अर्थ है यदि हम उसे तलाशें जो अपनी पूर्णता के साथ है?

जब मधुमक्खी मधु तैयार करती है, तब आप ये निर्णय ले पाते हो कि सभी पदार्थों में सबसे मीठा क्या है - बस परम पिता के होने को तय करना भी ऐसा ही है.  नगण्य या हलके से हलके काम को पूरा होते देखना भी आपका छोटा-सा मौन ,एकाकी सुख बन जाता है. अपने पूरे किये कामों को देखने के लिए क्या हम जिंदा रहेंगे; या हमारे पूर्वज उन्हें देखने के लिए जिन्दा होंगे ? लेकिन ये उन्हीं का आरम्भ किया काम होता है जिसे हम करते हैं और आनेवाला करता है; यही जीवन की रवानी है - प्रवृत्ति. ये सब गहराए समय के भाव-संकेत हैं ; उसकी मुद्राएं !जो हमारे झुकाव बनाती हैं और हमारे खून में गुनगुनाती है. तुम उसकी अंतहीन, अनिर्दिष्ट सत्ता का हिस्सा हो इस सच से क्या कोई तुम्हें बेदखल कर सकता है ?

कापुस , मेरे मित्र इस भक्ति में डूबकर क्रिसमस मनाओ. हो सकता है उस परम पिता को तुम्हारी इस व्यथा की आवश्यकता थी, ताकि तुम्हारा गठन उस अनुरूप हो सके. हो सकता है ये अवस्थांतर उसके हेतु कुछ रचने को तत्पर हो, ठीक वैसे ही जैसे कभी बचपन में तुम्हारी व्यग्रता उस सत्य -शिव के निमित्त कार्य करवाती थी. बिना कडवाहट के धीरज रखो और ये आस्था रखो कि उसके लिए कुछ असंभव नहीं; वह जब चाहता है तभी धरती पर बसंत की पदचाप सुनाई देती है .

बस खुश रहो और आत्मविश्वास रखो .
सदा तुम्हारा
राइनेर मारिया रिल्के

“समय की मोर पंखी से महकते  इन पत्रों को आज मैं फिर से पढ़ रही हूँ. काप्पुस तुमने बहुत अच्छा किया, इन पत्रों को अपनी अमानत नहीं समझा. इसलिए हर उस दिल के लिए जो अपने अँधेरे में गुम हो रहा है; ये ख़त सुकून देते हैं.














अपर्णा मनोज भटनागर- (१९६४, जयपुर),कवयित्री.
मेरे क्षण कविता संग्रह प्रकाशित.
टेबल टेनिस का शौक.कत्थक सीखा.लोक नृत्य में विशेष योग्यता.इधर ब्लागिंग में सक्रिय  
ई-पता:  bhatnagar.manuparna.manuparna@gmail.com

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  1. किसी भी युवा कवि के लिये ये पत्र 'फ्रेंड, फिलासफर एण्ड गाईड' जैसे हैं। अनुवाद भी बहुत सुन्दर है। बस थोड़ा गैप और एलाइनमेंट बेहतर हो जाये तो पाठक को आसानी होगी। आशा है अरुण जी ध्यान देंगे। बहरहाल अपर्णा जी को इस सार्थक काम के लिये बधाई

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  2. सिर्फ़ पत्र-व्यवहार ही नहीं...रचना-प्रक्रिया पर एक व्यापक दृष्टि का सा आभास हुआ...धन्यवाद...इस सार्थक श्रम के लिए...

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  3. अशोक भाई कर दिया है.आभार.

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  4. आप अपनी कविताओं का स्तर जानना चाहते हैं - मालूम करना चाहते हैं कि वे कितनी उत्कृष्ट हैं . आपने मुझसे पूछा . औरों से भी आपने यही जानने की कोशिश की. आपने उन्हें पत्रिकाओं में भेजा, उनके लौटा दिए जाने पर व्याकुलता भी हुई ; और अब आप मेरी राय जा...नना चाहते हैं. मेरा निवेदन है कि आप ये सब करना बंद करिए. आप उस सब को बाहर खोज रहे हैं , जो वहाँ है ही नहीं. इसमें कोई परामर्श नहीं दे सकता . कोई नहीं. बस एक तरीका है - अपने अन्दर गहरे तक उतरो . तलाशो उन कारणों को जो तुमसे लिखवा रहे हैं; जानने की कोशिश करो कि क्या उनकी जड़ें भीतर तक पैठ रही हैं - बिलकुल दिल तक, पूछो अपने आप से कि क्या तुम इसे न लिखकर जीवन खो बैठोगे - या न लिखना जीवन खो देने जैसा है - क्या अंगीकार कर सकते हो इसे! इस सबके अतिरिक्त, अपने नीरव अन्धकार के क्षणों में खुद से बात करके देखो और जानो कि क्या तुम्हे लिखना चाहिए ?
    Har Lekhak ke liye Zaroori Seekh..... Jise Shaayad Bahut Kam Seekh Paate Hai......

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  5. Rilke ke vichaaro ki praachir se Dheere-Dheere Zameen Par Aakar Antraman Ko Sparsh Kartaa Anuvaad......

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  6. ये ख़त सुकून देते हैं............मैने इन्सान को खुद की अनुभूति अन्दर से लाकर बहार परतों में अभिव्यक्त करते इसतरह कभी नहीं देखा है ...हाँ शिवाजी सावंत को पड़ा है पर ...इसका अहसास एक जीवन की अनुभूति देगया है .....अपर्णा दी ...आज का दिन या यूं कहें बड़ा दिन तो है ही पर इस तरह के पत्र पड़ेंने के बाद खुद को इन्सान कहाँ खड़ा पता है उसका परिद्रस्य ...या खुद का मूल्याङ्कन कहाँ होता है ये कही दिखाई दिया है ...ये दो नो पत्र इन्सान की कही न कही तोलने वली मशीन लगी ....बहुत ही सुन्दर ...आप का आभार की आप ने इन से परिचय कराया

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  7. अपर्णाजी,ने बहुत सहज अनुवाद किया है. बधाई.

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  8. बहुत सुन्दर कथ्य...
    अनुवाद की सुंदरता बड़ी सहज है...!!!!
    सच, संग्रहणीय पत्र हैं!!!

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  9. बधाई अपर्णा दी ,,
    काफी कुछ प्राप्त हुआ यहाँ से ,, रिल्के के बारे में भी और कुछ खुद भी जानने में मदद मिली ,,इसे पढकर ऐसा लगा शायद यह खत मेरे लिए ही था ,, यही तो खतों कि एहमियत होती है ,, खास कर तब जब वो एहसासों से भरे खत हों
    सादर

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  10. अपर्णा जी, एक अच्छी चीज़ पढ़वाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया और बहुत अच्छे अनुवाद के लिए बधाई।

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  11. घनघोर एकांत-साधना की बात करते हैं रिल्के , एकांत को जीने की , उसे बनाए रखने की , उसका सम्मान करने की , उसके निबाह की ! लेखन एकांत की उस जद पा आकर ही क्या बहिर्मुख होगा , यह एक अलग प्रश्न है !

    एक विशिष्ट बात है कि रिल्के लेखन की कला से आगे बढ़ जीवन की कला भी सिखा रहे हैं . हर बिखरे में एक सामंजस्य बनाने की ! इसी समय कुछेक चिंतकों की बात याद आ रही है कि अपने अंतर्विरोधों को विराट आकाश में फलने फूलने दो , वे जगतरूप हैं , लेखन में उनका उसी विकसित रूप में आगमन होना चाहिए , उसी विश्रंखल रूप में ! महान लेखकों में उतने ही महान - महान वैविध्यपूर्ण अंतर्विरोध ! इसे लेखन की श्रेष्ठता में देखा कुछ चिंतकों ने !

    बहरहाल रिल्के के विचार कुछ प्रश्नों पर रोकते हैं , प्रश्नाकुल करते हैं , यह इन पत्रों की सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूँ ! 'गंभीर' शब्द की वकालत न करते हुए वे जिस लेखन की बात करते हैं वह श्रेष्ठ-सहज-गंभीर लेखन के प्रति जागरूक है , यह विशेष रूप से प्रीतिकर है !

    राजी सेठ का अनुवाद मैं पढ़ चुका हूँ , आज यहाँ यह अनुवाद देखकर खुशी हुई कि दो अनुवादों के बीच का संवाद सा हो गया ! दोनों सौन्दर्यपूर्ण लगे और एक दूसरे को पूर्ण सा करते हुए ! दीदी को बधाई !

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  12. अर्चना जी द्वारा अनूदित रिल्के के इन पत्रों को पढ़ना एक गहरे अनुभव से गुजरने जैसा है | सभी तरह की रचनात्मकता के सामने आने पर, यहाँ तक कि श्रेष्ठ रचनाओं से भी, अनिवार्यतः इतना गहरा असर नहीं होता| ऐसा लगता है कि इन पत्रों में रिल्के की समग्र जीवन-दृष्टि अन्तर्निहित है और जो लम्बे समय तक किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को एक सकारात्मक अर्थ में असहज कर देने में और उसकी रचनात्मक उर्जा को प्रकट होने के लिए उद्वेलित कर देने में समर्थ है !

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  13. Rilke ke patr hain hi aise .. aap sabhi ko ye patr pasand aaye , aabhar hriday se . Arun ji , aapne hamesha prerna di hai .. tab jabki likhne wale ki manah sthiti kappus se bhi kharab ho... aise mein rilke ke ptron ko padhvan aur anuwad ke liye prerit karna Rilke se baat karne jaisa hi hai .. aur in patron ke beech arun ji pratyaksh -apratyaksh taur par barabar the ...
    Regards!

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  14. अपर्णा ! आपका आभार इतनी खूबसूरत चीज पढ़वाने के लिए !

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  15. रिल्के के ये पत्र शिक्षाप्रद हैं. अत्यंत बौद्धिक पर भाषा में सहज. आपका अनुवाद भी उत्तम है. धन्यवाद अपर्णा जी, इसे साझा करने के किये. इन विचारों को किसी भी सृजनात्मक लेखन/ कला की कार्यशाला में पढ़ा जा सकता है.

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  16. बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर मिल गए रिल्के के विचार पढ़कर और शायद एक नयी सोच और विचार जागृत हो गए हैं. अपनी लिखी कविताओ में स्वयं को खोजना और आत्मसात करने की जो प्रक्रिया कही गयी हैं वह वास्तविक कविता के अर्थ को सार्थक करती हैं. संभवत जिसे हम बेहद सरल मानते हैं वो बहुत ही क्लिष्ट हैं और इसका ज्ञान होना आवशयक हैं. बहुत बहुत धन्यवाद अपर्णा दी इस लेख के लिए.

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  17. aprna.. in patron ko padhkar bahut sukuun mila hai.. aapka hriday se dhnyvaad.. main bahut samay se inhe padhna chahti thi..

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  18. एक बार मन बहुत विचलित था लेखन को लेकर शायद कापुस जितना न रहा हो या हो सकता है उस क्षणमात्र में कापुस से ज्यादा भी रहा हो ... बहरहाल मैंने अपनी व्यथा अपनी मौसी को सुनायी और उन्होंने मुझे कहा कि शांत मन से रिल्के के पत्र पढ़ो ..मैंने जब पूछ तो उन्होंने बताया नेशनल पब्लिशिंग हॉउस से इनका 'राजी सेठ'द्वारा किया हुआ अनुवाद "युवा कवि के नाम पत्र" नाम से प्रकाशित है | मैंने बहुत प्रयास किया मगर ये पत्र मुझे पढ़ने को नहीं मिले इस बीच दो पुस्तक मेले (विश्व पुस्तक मेला और दिल्ली पुस्तक मेला) भी आकार चले गए मगर मुझे यह पढ़ने को नहीं मिले !
    इस बार २ अक्टूबर को जब मैं पुनः मौसी से देहरादून में मिला तो उन्होंने मुझे बताया कि उन पत्रों का अनुवाद अपर्णा मनोज जी का किया हुआ समालोचन पर है | ...बस इतना ही |
    अपर्णा जी और समालोचन को मेरी प्रियातिप्रिय चीज़ मुझे देने के लिये आभार |

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  19. बहुत खूब अपर्णा जी।राजी सेठ का अनुवाद भी पढ चुके है।आपके प्रयास उन नव कवियों के लिए मददगार है जो लिखने की जद्दोजहद में उलझे है।
    लिखो आप तभी जब लगने लगे कि अब न लिखेंगे तो मर जायेंगे।
    साधुवाद

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