कथा - गाथा : सतीश जायसवाल




सतीश जायसवाल
जन्मः 17 जून 1942


मूलतः कथाकार. 1982 में राजकमल से प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘जाने किस बंदरगाह पर’ से चर्चित. ताज़ा संग्रह 'नदी नहा रही थी' समेत कई कहानी संकलन प्रकाशित. बच्चों के लिये भी लेखन. नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया द्वारा प्रकाशित 'भले घर का लड़का' कई भाषाओं में अनूदित. कुछ कवितायें भी प्रकाशित. यात्रा-प्रेमी. यात्रा-संस्करण प्रकाशित.  कुछ सालों तक बख्शी शोध पीठ में अध्यक्ष रहे. पेशे से पत्रकार और कुछ समाचार पत्रों में संपादक समेत महत्वपूर्ण पदों पर काम. कई सम्मान और पुरस्कार.


सतीश की कहानिओं का काव्यत्व आमंत्रित करता है. उनका सैलानीपन साथ चलने के लिए बाध्य करता है. उनकी कहानियाँ अनुभव के सुंदर वन में अकेला छोड़ देती हैं. विस्मित.
रिश्तों के आत्मीय और संवेदनशील घरौंदे में उनकी कहानियाँ बार-बार वापस लौटती हैं. 



अब घर चलना चाहिये


खिड़की पश्चिम की तरफ खुलती है। लेकिन अभी बंद थी । इण्डियन काफी हाउस वाला हरे रंग का वह पेटेंट पर्दा खिड़की पर लटक रहा था जिसकी निचली पट्टी  पर पीले रंग की तीन आड़ी धारियां बनी होती हैं। खिड़की के पीछे बगीचा था और बगीचे में ताड़ के ऊंचे -ऊंचे पेड़ों की कतारे करीने से खिंची हुई थीं। वह तीसरे पहर का समय था। और तीसरे पहर की धूप ताड़ के पत्तों पर पड़ रही थी। वही धूप अब पत्तों से छन रही थी और हरे रंग के पर्दे में संध बनाकर खिड़की से भीतर आ रही थी और खिड़की के साथ वाली टेबल पर उतर रही थी। धूप क्वांर महीने की थी।

क्वांर महीने के तीसरे पहर की धूप का रंग पीला था और वह सीझ रही थी। धूप की छाया छरहरी थी और वह तिरछी हुई जा रही थी। उसकी रंगत सांवली थी। सांवली रंगत वाली धूप की तिरछी छाया दूर तक फैल रही थी और वहां दूर पर एक लड़की दिखाई दे रही थी । लड़की अकेली थी । अकेली लड़की की रंगत सांवली थी और उसका बदन छरहरा। छरहरे बदन वाली वह सांवली लड़की तिरछी हुई जा रही थी। धूप की छाया की तरह। तीसरे पहर के इस समय में एक अकेली लड़की का इस तरह बगीचे में दिखाई पड़ना कुछ अलग -अलग सा लग रहा था। उत्सुकता जगाता हुआ भी।

ताड़ के पत्तों से छन रही धूप लड़की पर पड़ रही थी। और इस तरह पड़ रही धूप में उसकी छरहरी छाया दूर तक खिंच रही थी। अकेली लड़की शायद किसी का रास्ता देख रही थी। समय काटने के लिये वह अपनी ही छाया के साथ कौतुक करने लगी। पहले वह कुछ कदम तिरछी चाल चली फिर ताड़ की आड़ लेकर छिपने लगी। तीसरे पहर की धूप उसके कपड़े पकड़ कर खींच रही थी। और वह, अब अपने हाथ ऊंचे करके खिड़की को छू रही थी। ऐसे में उसका छरहरापन और भी छरहरा नजर आया। अब वह खिड़की के साथ लटक कर झूलती हुई सी दिख रही थी।

दो हमवयस वृद्ध खिड़की के साथ वाली टेबल पर कब्ज़ा करके देर से बैठे हुये थे। उनमें से एक ने अपने साथ वाले को भी यह कौतुक दिखाना चाहा और कहा- देखो।

वृद्ध एकाएक समझ नहीं पाया कि उसका हमवयस दोस्त उसे क्या देखने के लिये कह रहा है। उसकी उम्र उसे पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले चुकी थी। अब उसे अपने भारी शरीर के साथ इधर-  उधर धूमकर देखने में दिक्कत होने लगी थी। बातें भी, अब उसकी समझ में देर से ही आती हैं। फिर भी वह, उम्र के साथ जुड़े हुये इन लक्षणों को यथासंभव छिपाकर रखता है। उसने अकचका कर धूप की उस छाया पर अपना हाथ रखा, जो थोड़ी देर पहले उनकी टेबल पर उतरी थी और अब टेबल से नीचे की तरफ सरकने लगी थी। वृद्ध ने लगभग झपट्टा मारते हुये, अपना हाथ, उस पर कुछ इस तरह रखा जैसे सरकती हुई धूप की उस छाया को वह टेबल पर रोक लेगा। तब हमवयस ने उसे बताया - यहां, टेबल पर नहीं। वहां, खिड़की से बाहर देखो।

खिड़की से बाहर बगीचा था। क्वांर महीने के इस तीसरे पहर में बगीचा सुनसान था। बगीचे में खड़े हुये ताड़ के ऊंचे-ऊंचे पेड़ कुछ अजब तरह से अकेले-अकेले से लग रहे थे। पश्चिम की तरफ झुकती हुई धूप थकी-मांदी थी और ताड़ के बड़े- बड़े पत्तों पर ठहर कर सुस्ता रही थी।

वद्ध ने समझा कि हमवयस अपनी और उसकी उम्र की तरफ इशारा कर रहा है- हां, अब अपनी उम्र थकने लगी है। अब कहीं ठहर कर ऐसे ही सुस्ताने का मन होता है, जैसे ताड़ के पत्तों पर ठहर कर सुस्ता रही यह धूप।
वृद्ध धूप की बात कर रहा था। लेकिन, इस समय उसकी पत्नी उसके मन में थी। वह और उसकी पत्नी, जब दोनों अपने घर पर होते हैं तो, शाम के नजदीक वाले ऐसे समय में साथ बैठकर पीछे छूट गये दिनों की बातें किया करते हैं। वे दिन अब लौटकर नहीं आने वाले हैं। पीछे छूट गये दिन सर्दियों की खिलती हुई धूप की तरह मुलायम थे और अब स्मृतियों में खिलखिला रहे थे। उनका स्पर्श सुखद था। ताड़ के बड़े-बड़े पत्तों पर ठहर कर सुस्ताती हुई धूप ने वृद्ध को एक अलग सी अनुभूति से भर दिया। वृद्ध ने अनुभव किया कि वह खुद एक पुराना फलदार वृक्ष है। और उसका भरा-पूरा परिवार इस फलदार वृक्ष की फैली हुई शाखाएं हैं। इसमें बेटा- बहू, बेटी- दामाद, नाती- पोते सभी हैं।

इस समय उसकी पत्नी उसके साथ नहीं थी। वह अपनी बेटी के घर गई हुई है। वहां, वह अपनी बेटी के बच्चों की जतन कर रही होगी। और वृद्ध, यहां इण्डियन काफी हाउस में खिड़की के साथ वाली टेबल पर कब्जा जमाये, हमवयस के साथ अकेला बैठा काफी पी रहा है।

हमवयस ने उसे, पीछे छूट गये दिनों से, वापस खींचा और आज के साथ जोड़ा। हमवयस ने बताया - आजकल का चलन पुराने दिनों से अलग है। इसमें, थकने के लिये कोई जगह नहीं होती। आजकल का मुहावरा है, लाइफ बिगिन्स एट सिक्सटी।
- जिन्दगी मुहावरे से नहीं चलती।वृद्ध ने अपना तर्क रखा।

- यह मुहावरा नहीं, आज की ग्लोबल सोसाइटी का सच है।हमवयस ने वृद्ध को उकसाया- तुम तो एक सरकारी कोयला कम्पनी में बड़े अफसर रह चुके हो इसलिये मैनेजमेण्ट के इस नये चलन को बेहतर समझ सकोगे। आजकल मल्टीनेशनल कम्पनियां अपने यहां साठ पार के लोगों को कान्ट्रैक्ट पर रखना अधिक पसंद कर रही हैं।

इसके बावजूद वृद्ध ने साठ पार की नयी शुरुआत के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी। वह अपनी पेंशन से संतुष्ट है।
कोयला कम्पनी में रहते हुये उसने दो नंबर का धन भी भरपूर कमाया था। सब मिलाकर उसकी संतुष्टि और उसकी जरूरत से इतना अधिक है कि अब कुछ और सोचने की उसके पास कोई जरूरत ही नहीं बची है। लेकिन इच्छाएं जरूरतों से अलग थी। और रह रहकर जाग उठती थीं। हमवयस के साथ रहते हुये वह इन इच्छाओं का जीवन जी लेता है। इतनी देर में उसकी उत्सुक्ता जागी। उसने हमवयस से पूछा- तुम मुझे, खिड़की से बाहर क्या दिखा रहे थे?

तब तक अकेली लड़की खिड़की से दूर हट चुकी थी। अब वह पेड़ के तने के साथ टिक कर खड़ी थी। उसके हाथ में कोई पुस्तक भी थी। पेड़ के तने के साथ टिककर वह पुस्तक पढ़ रही थी। पुस्तक पढ़ती हुई वह लड़की बीच-बीच में सर उठाती और सीधे आकाश को देखती। ऐसे में लगता जैसे वह कोई कविता पढ़ रही है और आकाश को सुना रही है। हमवयस ने अनुमान किया कि अकेली लड़की कोई प्रेम कविता पढ़ रही है। अकेली लड़की अभी प्रेम करने की भरपूर उम्र में थी। पेड़ के तने के साथ टिक कर खड़े होने से उसका छरहरापन और अधिक उभर आया था। क्वांर महीने के तीसरे पहर की पीली धूप में उसकी छरहरी छाया दूर तक निकल रही थी। लड़की का जोर ना अपनी काया पर था ना उसकी छाया पर।

हमवयस ने वृद्ध को वह बात बतायी जो उसके मन में आ रही थी- यह लड़की किसी के प्रेम में डूबी हुई है। उसी से मिलने के लिये, तीसरे पहर के इस सुनसान समय में, यहां आई हैं।

- इसके स्तन कितने भरे-भरे हैं।वृद्ध ने अपनी लोलुपता उजागर करने में कोई संकोच नहीं किया। इस उम्र में दो दोस्तों के आपस में कोई संकोच, कोई परहेज होना भी नहीं चाहियें। अब उसकी इच्छा जाग रही थी, जो उसकी जरूरत से अलग थी। उसने हमवयस को अपने अनुभव की बात बतायी- पुरूष के हाथ लगने के बाद ही स्तनों में ऐसा भराव आता है। पुरूष का स्पर्श पाकर स्त्री पृथ्वी की तरह खिलती है।’’

वृद्ध एक परायी लड़की के उरोजों पर नजर गड़ा रहा था। और उनको बार-बार स्तन कह रहा था। इसमें उसे एक अवश संतुष्टि की प्राप्ति हो रही थी। लेकिन हमवयस को यह बात खटक रही थी। वह सोच नहीं पा रहा था कि क्या यह, मेरा दोस्त, अपनी बेटी के लिये भी इसी भाषा में बात कर सकेगा? अनुभवी वृद्ध को यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई कि इस समय हमवयस क्या सोच रहा होगा। उसने हमवयस को समझाया-आदमी अपनी औरत के बदन को जैसा देखता है, अपनी बेटी को उस नजर से नहीं देखता।

हमवयस स्त्री का बदन जानता है और स्त्री के बदन की बात भी समझता है। लेकिन अपनी औरत का बदन क्या होता है और बेटी उससे अलग कैसी होती है, यह वह नहीं जानता। ना उसकी अपनी औरत है, ना उसकी कोई बेटी है। वह एक अकेला है।
-यह घर गृहस्थी के अनुभव से समझ में आने वाली बात है। इसे तुम नहीं समझोग।वृद्ध अपने अनजाने में हमवयस पर चोट कर बैठा। या, शायद जान बूझ कर उसने ऐसा किया। अपनी अनुभव सम्पन्नता के सामने, जो उसे गृहस्थ जीवन का एक अर्जन है, उसने हमवयस की माप को हल्के से नापा। फिर अपने इस किये पर लीपा-पोती भी करने लगा- एक परायी लड़की के साथ हमारा क्या लेना-देना?

लेकिन इतनी देर में हमवयस उस परायी लड़की के साथ एक नासमझ से जुड़ाव का अनुभव करने लगा था। इस जुड़ाव को वह अभी के बाद भी बनाये रखना चाहता था। वह उस परायी लड़की को कोई अच्छा सा नाम भी देना चाहता था। ऐसा नाम जो इस जुड़ाव को अभी के बाद भी बनाये रखे।

- किसी नदी का नाम कैसा रहेगा? उसने वृद्ध से परामर्श किया।

- गंगा, यमुना या सरस्वती। कुछ भी रख लो।वृद्ध ने बेमन से कहा। वृद्ध का मन अब इस खेल में नहीं लग रहा था। वृद्ध समझ रहा था कि यह खेल पूरे तौर पर हमवयस का रचा हुआ है और पूरे का पूरा उसी का है। हमवयस का यह खेल वृद्ध को अपने लिये किसी पराये का खेल लगने लगा था, जिसमें उसकी अपनी कोई जगह नजर नहीं आ रही थी। लेकिन हमवयस बराबर उलझता जा रहा था। इस बार उसकी उलझन इस बात को लेकर थी कि अपनी नदियों के साथ हमारा आत्मीय लगाव कितना विरक्तिपूर्ण है। और हम कितनी कम नदियों को जानते हैं। वृद्ध के बेमन हो जाने को समझते हुये भी उसूने पूछा- इच्छामती क्यों नहीं?

- उसे मैं नहीं जानता।वृद्ध ने एक गहरे बेगानेपन के साथ जवाब दिया। वृद्ध यह नाम पहली बार सुन रहा था।
- इच्छामती एक नदी का नाम है।हमवयस ने उसे बताया।

हमवयस उसे इच्छामती नदी के बारे में बताना चाहता था कि वह इच्छाओं से भरी हुई नदी है। इच्छाओं से भरी हुई यह नदी उसके नज़दीक आने वालों के मन में भी इच्छा जगाती है। वह अकेली, सांवली लड़की ऐसी ही है। नदी की तरह, इच्छाओं को जगाती हुई। अभी थोड़ी देर पहले खिड़की के पीछे, वह उन दोनों के इतने नजदीक थी कि उस पर पड़ने वाली पश्चिम की धूप के साथ उसकी छाया भी खिड़की के कांच से उतर कर उनकी टेबल पर पड़ रही थी। अब वह, उनसे दूर वहां, पेड़ के तने से टिकी हुई थी। फिर भी नजदीक लग रही थी। यहां से उसका भराव दिख रहा था। और भरी-भरी सी वह सांवली लड़की इच्छा जगा रही थी। लेकिन वृद्ध की इच्छा अब थकने वाली थी। अभी थोड़ी देर पहले उसने लड़की के भरे-भरे स्तनों की तरफ इशारा किया था। तब दरअसल वह उसकी इच्छा ही थी। लेकिन हमवयस को यह पसंद नहीं आया था। वृद्ध ने अपने अनुभव से समझ लिया कि हमवयस अब इच्छा से आगे निकल रहा है। कोई अपनापन सा पालने लगा है जिसके साथ एक अधिकार- भाव भी जुड़ रहा है।

तभी उस अकेली लड़की ने पेड़ का तना छोड़ा और तेजी से उस तरफ दौड़ी जिधर थोड़ी सी धूप अभी बची हुई थी। ऐसा लगा, जैसे वह, उसी बची हुई धूप को पकड़ लेने के लिये उधर की तरफ दौड़ी है। दौड़ती हुई उस सांवली लड़की का छरहरापन अब और छरहरा लगा। उसकी छाया और अधिक लम्बी लगी।

अब खिड़की सूनी हो गई। वृद्ध ने अनुमान किया कि उधर की तरफ से लड़की का प्रेमी आया होगा, जिसके लिये वह दिन के इस तीसरे पहर में यहां आई थी और सुनसान बगीचे में अकेली उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। वृद्ध का इससे कोई लेना-देना नहीं था। फिर भी अपना यह अनुमान उसे अच्छा लगा। वहां लड़की के प्रेमी के होने का यह अनुमान हमवयस के अधिकार भाव को तोड़ने वाला था। वृद्ध को यह अच्छा लग रहा था।
क्वांर महीने के तीसरे पहर की पीली धूप और सांवली छाया का यह खेल हमवयस और वृद्ध के साझे में पनपा था। लेकिन हमवयस कोई एकतरफा सा अपनापन पालने लगा था जिसके साथ एक  अधिकार-भाव जुड़ रहा था। यह बात वृद्ध को खटक रही थी और वह अलग-थलग भी पड़ रहा था।

दोनों के अनजाने में एक कटुतापूर्ण प्रतिस्पर्धा शुरू हो चुकी थी। लेकिन हमवयस इस तरफ से पूरी तरह बेपरवाह था। उसे, इस खेल के साथ जुड़ गया वह अपनापन अच्छा लग रहा था, जिसके साथ एक अधिकार-भाव भी जुड़ चुका था। वह इसे देर तक बनाये रखना चाहता था, क्योंकि यह अपनापन उस परायी लड़की के साथ एक नासमझ जुड़ाव से उपज रहा था। अपने अनजाने में ही, या जानते-बूझते हुये भी उसने वृद्ध को नीचा दिखाना चाहा। उसने वृद्ध  से पूछा- क्या तुमने देखा है, नदी अपने समुद्र से कैसे मिलती है? वह दिव्य होता है।

वृद्ध ने नदी को समुद्र से मिलते हुये नहीं देखा था। लेकिन हमवयस के लिये उसके पास तगड़ा जवाब था। उसके मन में आया कि वह हमवयस से पूछे- क्या तुमने जाना है कि औरत कैसे आकर अपने आदमी से मिलती है? वह अपार तृप्तिदायक होता है

वृद्ध ने आंखे मूदीं और थोड़ी देर के लिये उस अपार तृप्तिदायक सुख में गुम गया। फिर उसने बात को सम्हाला, जो अब बिगड़ रही थी और उसमें कड़ुवाहट आ रही थी। वृद्ध घर-परिवार वाला आदमी है, दुनियादारी की ऊंच-नीच को समझ कर चलता है। उसने मन की बात मन में ही दबा ली। लेकिन उसी बात को अलग तरीके से कह भी दिया-तुम ठहरे छड़े-छरछरे आदमी। जहां चाहो, जाओ। जो चाहो, वह देखो। घर-परिवार वाला आदमी तो एक खूंटे से बंधा होता है।

वृद्ध को अब हमवयस की बातों में बिल्कुल भी रस नहीं आ रहा था। अब वह उससे पीछा छुड़ाना चाह रहा था।
जिस पेड़ के तने के साथ टिककर वह सांवली लड़की खड़ी थी वहां, अब सूनापन था। अब धूप और छाया का कौतुक भी वहां नहीं बचा था। खिड़की के साथ वाली उनकी टेबल पर शाम का अंधेरा उतर आया था। क्वांर महीने के तीसरे पहर की धूप ऐसे ही, एकदम से ढलती है और शाम सहसा गहरा जाती है।

- अब दिन छोटे होने लगे।दोनों ने एक साथ कहा। वृद्ध ने कहा- दिया बत्ती का समय हो रहा है। अब घर चलना चाहिये।
वृद्ध पुराने जमाने का आदमी है। पुराने दिनों की तरह बात कर रहा है, जैसे अभी भी घर में लकड़ी और कोयले वाला चूल्हा जलता हो जिसके उठते हुये धुंए से शाम का पता मिलता हो। घर में आंगन हो। आंगन में तुलसी का चैरा हो। चैरे पर संझाबाती करती घर की बहू हो। हां, उसने एैसे ही तो कहा- दिया बत्ती का समय हो रहा है।
अब उसे घर बुला रहा था। उसने कहा- अब घर चलना चाहिये।

इस पर हमवयस परेशानी में पड़ा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह कहां जाये। अपनी इस परेशानी को छिपाने के लिये उसने वृद्ध से कहा- तुम चलो। मैं अभी यहीं रूकूंगा।

हालांकि अब वह चाह रहा था कि वृद्ध अभी ना जाये। थोड़ी देर और ठहरे। वृद्ध के जाते ही वहां एक अजीब किस्म का सूनापन घर करने लगा था। इससे बचने के लिये हमवयस वहां से बाहर निकला। लेकिन सूनापन बाहर भी था। हमवयस समझ नहीं पा रहा था कि यह सूनापन भीतर है या बाहर है?

सारे का सारा शहर इस समय घरों की तरफ भाग रहा था और सड़क पर कोई नहीं था। बाहर, अब वह लड़की भी नहीं थी जो पेड़ के तने के साथ टिककर वहां खड़ी थी। और ऐसा लग रहा था जैसे वह कोई कविता पढ़ रही है और आकाश को सुना रही है। हमवयस ने अनुमान किया कि इस समय वह अपने प्रेमी के साथ होगी और अब, दोनों मिलकर अपना घर बनाने की बात कर रहे होंगे।

हमवयस का ध्यान वृद्ध की तरफ गया। वह अपने घर पहुंच चुका होगा। वह भरा-पूरा घर होगा। घर में आंगन होगी। आंगन में तुलसी का चैरा। चैरे पर संझाबाती करती घर की बहू होगी। इस समय घर का मुखिया अपने घर में झूले पर बैठा धर्म-पदों का पाठ कर रहा होगा।

वृद्ध घर पहुंच चुका था। लेकिन घर में उसकी पत्नी नहीं थी। अभी वह अपनी बेटी के घर गई हुई है। वृद्ध के मन में सांवली लड़की बनी हुई थी, जिसके भरे- भरे स्तनों ने उसे ललचाया था। वृद्ध को अपने अनुभव पर भरोसा है कि इस समय वह सांवली लड़की अपने प्रेमी के साथ होगी और उसकी काया पृथ्वी की तरह खिल रही होगी















वृहस्पति चौक
बिलासपुर (छ.ग.) 495001
मोबाः 094252-19932
ई-पता: satishbilaspur@gmail.com

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  1. कहानी की शुरुआत पे रुक गया हूँ , दिलचस्प इतनी लग रही है कि रात में पडूँ ऐसा दिल ने कहा

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  2. सतीश जी
    बहुत दिनों बाद इतनी काव्यात्मक कहानी पढ़ रही हूँ!बेहद महीन और भावात्मक...!कहानी के भीतर भीतर कविता की खूबसूरती यूँ गुंथी सी ज्यूँ सर्दी में गुनगुनी धुप का मुलायम अहसास!बहुत शुक्रिया! आदरणीय अरुणजी को इतनी खुबसूरत कहानी पढवाने के लिए धन्यवाद्
    वंदना!

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  3. नदियाँ कई तरह से बहती हैं.. कहानियां की भाषा भी.. इस कहानी में एक अद्भुत बहाव है.. यात्रा वृतांतों की हर चीज को बारीक नजर से पकड़ने और जीवंत कर देने वाली detailing के बाद धीरे धीरे एक जगह टिक कर बस उसी की परतें खोलते जाने वाली भाषा.. और इस परत खोलने में कुछ बुनते रहने वाला भाव तो खैर मौजूद है ही

    अरुण देव जी के कहने पर यहाँ आया और बस अब आता ही रहूँगा..

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  4. इसे क्या कहा जाए, कविता या कहानी...
    सबसे खूबसूरत फोटो वही है जो पेंटिंग होने का भ्रम पैदा करे, कहानी में कविता का यही भ्रम कितना सुखद है... पाठक ऐसी रचनाओं के लिए ही फेसबुक खोलता है शायद
    बधाई स्वीकारें सतीश जी
    अरुण जी आप को क्या कहें,
    शुक्रिया नाकाफी होगा

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  5. सतीश भाई .. अरुणदेव जी के सौजन्य से आपकी कहानी पढने का सुअवसर कई साल बाद मिला। अपने शहर के इन्डियन काफी हॉउस से जुड़े हुए उद्यान की विशिष्टता को सजा कर आपने शब्दों की अद्भुत चित्रकारी की है - प्रौढ़ावस्था के मनोविज्ञान का कहानी के माध्यम से बढ़िया शब्दांकन किया गया है, बधाई।

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