रामविलास शर्मा: धर्म,राष्ट्र और फासीवाद: रविभूषण


राज्य और धर्म का पुराना गठजोड़ रहा है, दोनों एक दूसरे के काम आते थे. कुल मिलाकर यह गठजोड़ जनता के हितों की रक्षा,  और तार्किक चेतना के प्रसार में  बाधक था. धर्म के लिए और तो कभी इसके नाम पर अंतहीन बर्बर युद्ध हुए.   

आधुनिकता के साथ यह अवधारणा आयी कि राज्य और धर्म दोनों के क्षेत्र अलग हैं और राज्य को धर्म से निरपेक्ष रहना चाहिये. धर्म को भी राज्य से सम्मानित दूरी बनाकर रहना चाहिये.

आधुनिक राष्ट्रों के निर्माण इसी सिद्धांत पर हुए, स्वाधीन भारत के मूल में भी यही प्रतिज्ञा है.

भारत ही नहीं विश्व में बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में राज्यों से धर्म की निकटता बढ़ने लगी और  धार्मिक राष्ट्रवाद की प्रवृति तेजी से उभरी और उसका एक फासीवादी रुझान भी सामने आने लगा.

हिंदी के आलोचक-विचारकों ने अपने लेखन में इसको समय-समय पर  रेखांकित किया है और इसके खतरों को लेकर आगाह भी किया है.  

रामविलास शर्मा का लेखन विपुल है, उसमें जगह-जगह उन्होंने धर्म, राष्ट्र और फासीवाद के आंतरिक सम्बन्धों पर  विचार किया है.  व्यवस्थित रूप से इसे एक लेख के रूप में प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक रविभूषण ही लिख सकते थे, उनका इस क्षेत्र में विशेष अध्ययन है.  

वैसे तो यह विषय कई सत्रों की गोष्ठी में विवेचित होने का अधिकार रखता है. तब तक यह आलेख देखें. 

 

रामविलास शर्मा
धर्म,राष्ट्र और फासीवाद 
रविभूषण

   

रामविलास शर्मा की अब तक प्रकाशित कुल 112 पुस्तकें उनके पुत्र विजयमोहन शर्मा को छोड़कर किसी भी व्यक्ति के यहाँ या किसी लायब्रेरी में शायद ही होंगी. उनकी सभी पुस्तकों का ही नहीं, प्रमुख पुस्तकों का भी गंभीर अध्ययन करने वाले भी बहुत कम हैं . पर उनके निधन के लगभग इक्कीस वर्ष बाद भी उनके लेखन एवं विचार-चिंतन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने वालों की कमी नहीं है. कवि-कथाकार, लेखक-आलोचक ही नहीं, पत्रकार और अध्यापक भी इसमें शामिल हैं. डॉ. शर्मा के किसी एक मत, विचार एवं स्थापना पर जो भी विचार समय-समय पर व्यक्त किये गये हैं, उसमें उनके अंतर्विरोधों के साथ-साथ समग्रता में देखने-समझने की कम कोशिशें हुई हैं. उन्हें आज भी ‘मठाधीश’ कहा जा रहा है. साहित्य और कथा-साहित्य को केवल सबाल्टर्न दृष्टि से देखने-समझने, परखने-जाँचने वाले आलोचकों ने यह जानने का अधिक प्रयत्न नहीं किया है कि सबाल्टर्न दृष्टि, इतिहास और इतिहास-लेखन के प्रति डॉ. शर्मा के क्या विचार थे? इतिहास-लेखन की कई पद्धतियों-दृष्टियों में से एक सबाल्टर्न भी है, जिसके जन्म और अवसान के न सही, पर धूमिल होते जाने के भी अधिक वर्ष नहीं बीते हैं. पेड़ की एक डाल पकड़कर झूलने वालों की संख्या हमारे समय में काफी है.  

 

(दो)

हम सब आज जिस दौर से गुजर रहे हैं- काली-अंधी सुरंग में फँसकर, घिर कर आपस में जिस तरह टकरा रहे हैं, क्या उससे समस्याएँ सुलझेंगी? हम फासीवाद का सामना कर रहे हैं और भारत हिन्दू राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. डॉ. शर्मा को केवल साहित्यालोचक के रूप में जानना-समझना सही नहीं है. उनके उन विचारों को अधिक सामने नहीं लाया जाता जो हमारे लिए आज सर्वाधिक जरूरी है. संभव है कि हम उनके विचारों से सहमत न हों, पर उस पर विचार तो करें. रामविलास शर्मा ने अपना कोई मठ नहीं बनाया, पर उन्हें ‘मठाधीश’ कहा जाता है, उन्होंने अपनी कोई मंडली नहीं बनाई, पर उनके ‘भक्तों’ का भी उल्लेख किया जाता है. उनके वैसे पक्षों की अवहेलना की जाती है, जो स्वाधीन भारत को केवल समझने के लिए ही नहीं, कई प्रश्नों को सुलझाने के लिए भी आवश्यक हैं. फिलहाल अपना ध्यान हम ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ और ‘फासीवाद’ पर केन्द्रित करें. कुछ महानुभावों के लिए यह विषय महत्वपूर्ण और प्रासंगिक नहीं भी हो सकता है, पर यह जानना जरूरी है कि हिन्दू राष्ट्रवाद और फासीवाद के विरुद्ध डॉ. शर्मा के विचार क्या हैं? उनके गंभीर अध्येताओं और आलोचकों ने उनके इस पक्ष पर अबतक विशेष ध्यान नहीं दिया है? 

बीसवीं शताब्दी के चालीस के दशक के मध्य में विशेषतः द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात भारत में जिस प्रकार की जैसी-जितनी हलचलें थीं, उन पर आज एक बार फिर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है. कांग्रेस के भीतर बहुत पहले से- लाला लाजपत राय, मदनमोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन आदि के यहाँ हिन्दूवादी रूझान मौजूद थी, पर इनमें से कोई भी हिन्दू राष्ट्र का पक्षधर नहीं था. धर्मान्ध और साम्प्रदायिक शक्तियाँ स्वाधीनता-आन्दोलन के दौर में प्रमुख नहीं थी. स्वाधीन भारत में ये शक्तियाँ कहीं अधिक शक्तिशाली हो उठीं. आजादी के तुरत बाद अक्टूबर 1947 में डॉ. शर्मा ने अपने लेख ‘संस्कृति और फसिज्म’ में लिखा- 

‘‘फासिज्म सबसे पहले नागरिकता के अधिकारों को खत्म करता है, जनवादी विधान को नष्ट कर देता है, हिंसा और दमन के जरिये वह समाज पर बड़े-बड़े महाजनों और पूंजीपतियों की तानाशाही कायम करता है. इसलिए फासिज्म जनतंत्र का सबसे बड़ा दुश्मन है.’’

 (मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य’, 2008, पृष्ठ 54)

पिछले कुछ वर्षों से जनतंत्र के खतरे में होने की काफी बातें की गई हैं, पर पूंजीवादी लोकतंत्र से फासीवाद के रिश्ते पर कम विचार किया गया है. आज हम सब पूंजीवादी लोकतंत्र को बचाने, उसकी रक्षा करने में अधिक लगे हुए हैं. अगर पूंजीवादी लोकतंत्र से जनता की सभी समस्याएँ हल हो गयी होती, तो क्या फासीवाद का प्रादुर्भाव संभव था? 

“पूंजीवादी लोकतंत्र जनता की समस्याएँ हल नहीं कर पाता, तब फासिस्टवाद को आगे बढ़ने का मौका मिलता है. वह कहता है-हमारे पीछे चलो, यह लोकतंत्र बेकार है. हम ऐसा रास्ता दिखाएंगे जिससे तुम्हारी समस्याएँ हल हो जाएंगे. यह स्थिति भारत में है और अमरीका में है.’’ 

(भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खण्ड 2, 1999, पृष्ठ 744) 

भारत में फासीवाद की धमक के समय इस पर कम विचार होता है कि स्वाधीन भारत में पूंजीवादी लोकतंत्र की चमक क्रमशः किस प्रकार कम होती गयी है. विचार हम इस पर भी कम करते हैं कि ‘मन की बात’ किस समय, किनके यहां क्यों प्रमुख रहती है और इसका नव उदारवादी अर्थव्यवस्था से, मार्केट ‘इकोनामी से प्रत्यक्ष-परोक्ष कोई संबंध है या नहीं? फासिस्ट नेता के यहाँ तक, बुद्धि-विवेक प्रमुख है या ‘मन की बात’? एक व्यक्ति के मन की बात सब क्यों सुने? 

“फासिस्ट नेता बुद्धि या तर्क के सहारे अपना रास्ता नहीं देखता, उसे तो सीधे ईश्वर से प्रेरणा मिलती है.. फासिज्म विचार-क्षेत्र में अवैज्ञानिकता, बुद्धिहीनता, अतार्किकता को जन्म देता है. जो बात तर्क से सिद्ध नहीं हो सकती, उसी को वह ऊपर उठाता है.’’ 

(संस्कृति और फासिज्म, वही) 

रामविलास शर्मा के आलोचक आज ‘संस्कृति और ‘फासिज्म’ लेख की चर्चा क्यों नहीं करते? तानाशाही कायम करने के लिए प्रतिक्रियावादी शक्तियों द्वारा जिन सात तरह के ‘भुलावे’ पैदा करने की बात डॉ. शर्मा ने कही है, उनमें सातवाँ भुलावा संस्कृति का है. 

१. जाति, नस्ल या खून का भुलावा पहला है, जिसे जर्मन फासिस्टों ने पैदा किया था. जर्मन फासिस्ट अपने को ‘संसार की सर्वश्रेष्ठ जाति’ घोषित कर रहे थे, इटली के फासिस्ट रोमन पुरखों के गीत गा रहे थे और जापान में इनके समर्थक और अनुयायी अपने को ‘सूर्य का संतान’ बता रहे थे. प्राचीन भारत का गौरव गुणगान आज कहीं अधिक है. 

२. फासिस्टों का दूसरा भ्रम ईश्वरी प्रेरणा’ का है और 

३. तीसरा उसका युद्ध-संबंधी प्रचार है. भारत में अब चुनाव को भी ‘युद्ध’ कहा जाता है. फासिस्ट युद्ध और उसके पर्यायवाची शब्दों का बहुत सोच-समझ कर प्रयोग करते हैं. इससे जन-मानस को प्रभावित नहीं किया जाता, उसमें एक हिंस्र-भावना भी उत्पन्न की जाती है. फासिज्म को डॉ. शर्मा ने ‘मानवीय प्रगति का सबसे बड़ा दुश्मन’ कहा है, जो ‘‘समाज को बर्बर-युग की ओर ठेलता है.’’ 

४. फासिज्म का चौथा भुलावा उनके अनुसार ‘राष्ट्रीयता’ का है. भारत में आज अंधराष्ट्रवाद जितना है, उतना पहले कभी नहीं था. ‘‘राष्ट्र में अंधभक्ति का मतलब होता है, इन मुट्ठी भर लोगों के पीछे आँख मूँदकर चलो.’’ (वही पृष्ठ 55) 

५. फासिस्ट दूसरे देशों के फासिस्टों से मेल करने में नहीं हिचकते. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प सभी देशों के शासकों के मित्र नहीं हो सकते थे. 

६. ‘व्यक्तित्व के विकास’ को डॉ. शर्मा ने फासिस्टों को ‘छठा भुलावा’ कहा है. 

७. संस्कृति सातवाँ भुलावा है, जिसमें सब फँस जाते हैं. जो संगठन अपने को ‘सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन’ कहता रहा है उसकी सांस्कृतिक दृष्टि और, ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को समझने की कहीं अधिक जरूरत है. 

फासिस्ट पुरानी संस्कृति को तोड़ता-मरोड़ता ही नहीं, अपने को ‘संस्कृति का रक्षक’ भी घोषित करता है डॉ. शर्मा ने फासिज्म को ‘साहित्य और संस्कृति का सबसे बड़ा शत्रु’ कहा है, यह माना है कि ‘कम्युनिस्ट विरोध’ ‘फासिज्म के प्रचार का सबसे या निर्बल अस्त्र’ है. द्वितीय विश्वयुद्ध में फासिस्टों की हार हुई थी, फिर मात्र दो-तीन वर्ष के भीतर डॉ. शर्मा को ‘संस्कृति और फासिज्म’ जैसा लेख लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? 

आज सांस्कृतिक संगठनों में भी फासिज्म पर उतना विचार नहीं होता, जितना आवश्यक है. रामविलास शर्मा ने 1947 में ही भारत में फासिज्म के लक्षण देखे थे- ‘‘फासिज्म के लक्षण हमारे देश में भी प्रकट होने लगे हैं. मुस्लिम फासिस्ट इस्लामी राज और हिन्दू फासिस्ट हिन्दू राष्ट्र की बात करते हैं.’’ (वही, पृष्ठ 58) 

पाकिस्तान मजहब के आधार पर एक राष्ट्र बना. उस समय उसी प्रकार भारत को भी धर्म के आधार पर ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने के हिमायती भी थे, पर उनकी तुलना में सेकुलर भारत बनाने वालों की संख्या कहीं अधिक थी. नेहरू ही नहीं, पटेल और सभी प्रमुख कांग्रेसी नेता विभाजन के पश्चात भारत को ‘सेकुलर’ (धर्मरिपेक्ष) राष्ट्र बनाने के पक्ष में थे. आजादी के लगभग 71 वर्ष बाद 2018 में मेघालय उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश एस आर सेन ने संविधान के खिलाफ जाकर, आचार संहिता का उल्लंघन कर यह कहा था कि विभाजन के समय भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर देना चाहिए था. जिन्होंने उस समय भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित नहीं किया, वे जस्टिस सेन की तरह काबिल नहीं थे. यह अनुसंधान का विषय है कि डॉ. रामविलास शर्मा के पहले किसने यह कहा है कि ‘‘हिन्दू राष्ट्रवाद एक फासिस्ट विचारधारा’ है. अपने एक आरंभिक लेख ‘राष्ट्र भाषा हिन्दी और हिन्दू राष्ट्रवाद’ में उन्होंने लिखा – ‘‘फासिज्म का आधार झूठ होता है और हिन्दू राष्ट्रवाद एक फासिस्ट विचारधारा है.’’ 

(भाषा-साहित्य और संस्कृति, 1954, पृष्ठ 13)

‘‘सबसे बड़ी और पहली शर्त यह है कि वह अपने देश की जनता के प्रति सच्चा हो.’’

(‘प्रगति और परम्परा’: 1953, पृष्ठ 2)

‘‘सोवियत लेखक संघ के तीन हजार सदस्यों में से एक हजार युद्ध के मोर्चे पर काम करते थे और इनमें लगभग ढाई सौ ने अपने बलिदान से ही उत्तरदायित्व को निबाहा’’. (वही, पृष्ठ 41),

उस समय यह भी कहा जा रहा था – ‘‘इस्लाम धर्म के किसी अनुयायी को हिन्दुस्तान में नागरिकता के अधिकार नहीं मिल सकते.’’ (वही, पृष्ठ 14)

‘अमेरिकी साम्राज्यवाद का संचार-प्रौद्योगिकी से सीधा संबंध है. जॉक देरिदा ने आज के पूंजीवाद के लिए ‘टेली-टेक्नो-सांइंटिफिक (दूरस्थ-प्रौद्योगिकीय-वैज्ञानिक) उपसर्ग का प्रयोग किया है.’

‘‘उनके जैसे व्यक्ति के हाथ में ही अगली बार देश की बागडोर होनी चाहिए.’’

1999 में वे फासीवाद का मुख्य आधार संस्कृति नहीं मान रहे थे.

(आज के सवाल और मार्क्सवाद; पृष्ठ 292)  

यह लेख 1947 का है. उन्होंने अपने एक लेख ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन किसकी सेवा करेगा हिन्दी साहित्य की या हिन्दू साम्प्रदायवाद की’ (दिसम्बर 1947) में केवल हिन्दू सम्प्रदायवादियों की ही नहीं, हिन्दी साहित्य सम्मेलन जैसी संस्था की भी आलोचना की थी. क्योंकि एक समय हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में इसने ‘‘पथ प्रदर्शक का काम किया था.’’ 

पर आजादी के बाद यह संस्था दूसरे मार्ग पर चलने लगी. डॉ. शर्मा 1947 में ही हिन्दू सम्प्रदायवादियों का विरोध कर रहे थे. यह वह समय था, जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी को राष्ट्रभाषा परिषद का अध्यक्ष चुना गया था. डॉ. शर्मा हिन्दी साहित्य सम्मेलन के मंच पर कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी, पं. अमरनाथ झा, गोस्वामी गणेशदत्त आदि के आगमन को ‘हिन्दी की प्रगति का सूचक’ नहीं मानते थे. सम्मेलन के ‘एक स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा (हिन्दू राष्ट्रवाद) की ओर’ खिंचाव की उन्होंने आलोचना की थी. 

स्वाधीन भारत के आरंभिक वर्षों में भाषा और संस्कृति को लेकर द्वेष बढ़ाने वालों से हिन्दी लेखकों और पाठकों को उन्होंने सावधान किया था. आज भी हिन्दी के प्रगतिशील लेखकों को उनकी बात सुननी चाहिए. ‘प्रगति और परम्परा’ (1948) के सभी निबंध 1947 के हैं. इस पुस्तक की भूमिका में उन्होंने प्रगतिशील लेखकों के लिए यह लिखा कि उसके लिए 

उनके लिए ‘लेखक की सामाजिक जिम्मेदारियों’ का सवाल बड़ा था. ‘लेखक और जनता’ लेख में उन्होंने लेखक को ‘सारथी’ कहा है, ‘‘जो लीक देखता हुआ साहित्य की बागडोर संभाले हुए उसे उचित मार्ग पर ले जाता है.’’ (वही, पृष्ठ 3) 

आज लेखक का यह दायित्व है कि वह भारत को हिन्दू राष्ट्र न बनने देने और फासीवाद को रोकने के लिए सामूहिक रूप से युद्ध-स्तर पर कार्य करे. आज साम्प्रदायिकता और अंध राष्ट्रवाद कहीं अधिक है. इसके खिलाफ लड़नेवाले राजनीतिक दल या तो नदारद हैं या चुप हैं. ये केवल चुनावी खेल में लिप्त-संलिप्त हैं. डॉ. शर्मा ने अपने लेख ‘साहित्य और भौतिकवाद’ में फासिज्म की दासता से संसार को बचाने के लिए सोवियत लेखकों की प्रशंसा इन शब्दों में की है-

उन्होंने 1947 से लेकर अपने जीवन के अंत तक हमें साम्प्रदायिक शक्तियों से, फासीवाद के आगमन से एवं हिन्दू राष्ट्र के निर्माण से न केवल सावधान किया था, अपितु इनके खिलाफ हमारे कार्यभार भी बताये थे. हिन्दू राष्ट्र के विजन की 1947 से अंतिम दिनों तक उन्होंने बार-बार आलोचना की- लगभग 50-52 वर्ष तक इन सब पर हमारा ध्यान क्यों नहीं जाता? अपने एक लेख ‘जनहत्या और संस्कृति’ में उन्होंने दंगाइयों के बारे में लिखा. 

“दंगों की आग भड़काने वाले अल्पसंख्यक लोगों को ही नहीं खतम करना चाहते, वे इस आग में अपनी शत्रु, देश की प्रगतिशील ताकतों को भी खत्म कर देना चाहते हैं… हिन्दू राज के नाम की आड़ में घोर प्रतिक्रियावादी राज कायम करने का षड़यंत्र चल रहा है?” 

(वही, पृष्ठ 131) 

हिन्दू धर्म के खतरे में होने की बात का प्रचार नया नहीं है. ‘इस्लाम खतरे में है’ की तरह ‘हिन्दू धर्म खतरे’ में है.’ जैसी आवाजें स्वाधीन भारत के आरंभ में ही सुनाई पड़ने लगी थीं. ऐसी ताकतें नेहरू का उस समय विरोध कर रही थीं और आज भी विरोध कर रही हैं. कुछ समय पहले कुछ ने यहाँ तक कहा कि गोली गांधी को नहीं, नेहरू को मारनी चाहिए थी. हिन्दू सम्प्रदायवादियों का नेहरू पर हमले का इतिहास पुराना है. आजाद भारत के आरंभ में रविशंकर शुक्ल की पुस्तक ‘हिन्दी वालो, सावधान!’ प्रकाशित हुई थी. इस पुस्तक में उस समय ‘हिन्दू राष्ट्रवाद की खुली घोषणा’ की गयी थी – 

‘‘हिन्दुस्तान एक हिन्दू राष्ट्र हो, जिसका राजधर्म हिन्दू धर्म हो और जिसमें सब प्रमुख पदों पर हिन्दुओं और मुस्लिमों की नियुक्ति हो ऐसा कोई व्यक्ति जो स्पष्ट रूप से हिन्दू धर्म न मानता हो, हिन्दुस्तान सरकार का प्रधान नहीं हो सकता.’’ (राष्ट्रभाषा हिन्दी और हिन्दू राष्ट्रवाद’; भाषा, साहित्य और संस्कृति’, 1954 में उद्धृत पुष्ठ 13-14) 

तब भाषा के क्षेत्र में हिन्दू राष्ट्रवाद को लागू करने की कोशिशें हो रही थीं, जिनका डॉ. शर्मा ने पुरजोर विरोध किया था. देश के बँटवारे का घातक परिणाम भाषा के क्षेत्र में भी दिखाई पड़ने लगा था. हिन्दू सम्प्रदायवादी हिन्दी के साथ हिन्दू राष्ट्र का नारा जोड़ने लगे थे. स्वाधीन भारत में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पहले अधिवेशन के पहले दिसम्बर 1947 में रामविलास शर्मा ने सम्मेलन के ‘पूंजीवादी दलदल में’ फँसते चले जाने से सावधान किया था. उन्होंने याद दिलाया था कि एक समय सम्मेलन के अध्यक्ष पं. पद्म सिंह शर्मा थे और अब ‘‘उसी पद पर गोस्वामी गणेश दत्त जैसे संकीर्ण मनोवृत्ति के लोग भी आये; जिन्होंने यह क्षमा-याचना की थी- ‘‘माफ करना जी, मुँह से उर्दू का शेर निकल गया.’’ (भाषा, साहित्य और संस्कृति, पृष्ठ 173) 

पुरुषोत्तम दास टंडन उर्दू की सांस्कृतिक परम्परा को विदेशी और राष्ट्र विरोधी कह कर उस पर हमला कर रहे थे, जिसका जवाब डॉ. शर्मा ने दिया था.

 

  

(तीन)

विगत तीस वर्ष में और विशेषतः इक्कीसवीं सदी में भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद पर कई अच्छी पुस्तकें प्रकाशित हुई, पर रामविलास शर्मा ने स्वाधीन भारत के आरंभ में ही विविध स्तरों पर सक्रिय इन शक्तियों की केवल पहचान ही नहीं की, हमें उससे सावधान भी किया. प्रथम लोकसभा चुनाव के कुछ समय पहले भारतीय जनसंघ का जन्म हुआ था. उसने एक राजनीतिक दल के रूप में चुनाव में भाग लेना आरंभ किया. गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर 4 फरवरी 1948 को प्रतिबंध लगा था, जो 12 जुलाई, 1949 को हटा. प्रतिबंध के हटने के बाद भारतीय जनसंघ की स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को हुई. आरंभ के तीन लोकसभा चुनावों में संसद में उसके अधिक सांसद नहीं थे. चौथे लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित ढंग से उसके सांसदों की संख्या बढ़ गयी. कांग्रेस के बाद संसद में स्वतंत्र पार्टी दूसरे स्थान पर और भारतीय जनसंघ तीसरे स्थान पर था. पहली बार स्वतंत्र भारत में दक्षिणपंथी राजनीतिक दल प्रमुख हो उठे. कांग्रेस को धक्का लगा था और कई राज्यों में संविद सरकारों का गठन हुआ था. नामवर सिंह 1967 में ‘आलोचना’ पत्रिका के सम्पादक बने थे. चौथे आम चुनाव के बाद आलोचना पत्रिका ने ‘चुनाव (चौथे) के बाद का भारत’ पर एक महत्वपूर्ण ‘संवाद’ आयोजित किया, जिसमें विविध विचारधाराओं और पीढ़ियों के बारह लेखकों ने अपने विचार प्रस्तुत किये थे, जिनमें अब केवल हमारे बीच रमेश कुंतल मेघ हैं. शतायु हों डॉ. मेघ! डॉ. शर्मा ने ‘आलोचना’ के लगभग दस पृष्ठों (पृष्ठ 4 से 13) में जो कुछ कहा था, उसे आज पुनः एक बार देखना-समझना जरूरी है. ‘आलोचना’ (पूर्णांक 38, अप्रैल-जून 1967) में पहला विचार डॉ. शर्मा का ही है. उन्होंने आरंभ ही इस वाक्य से किया था – 

‘‘भारत में यदि फासिस्ट तानाशाही कायम होती है तो इसकी जिम्मेदारी सबसे पहले वामपंथी पार्टियों पर होगी और इन वामपंथी पार्टियों में सबसे ज्यादा कम्युनिस्ट पार्टी पर.” 

(आलोचना, वही, पृष्ठ 4) 

यह पंक्ति अक्सर उद्धृत की जाती है, पर डॉ. शर्मा के यहीं व्यक्त अन्य विचारों का उल्लेख लगभग न के बराबर किया जाता है. उस समय उन्होंने ‘एक राष्ट्रीय साम्राज्य विरोधी मोर्चे के रूप में’ कांग्रेस के भीतर से टूटने की बात कही थी. वे सम्प्रदायवाद को साम्राज्यवाद से जोड़कर देखते थे. यह मानते थे कि ‘‘तानाशाही का रास्ता रोकने की ताकत वामपंथी दलों में है, लेकिन वे अपनी ऐतिहासिक भूमिका पूरी नहीं कर रहे हैं, इस अर्थ में वे तानाशाही लाने के लिए जिम्मेदार होंगे”. (वही) 

1967 में उन्होंने फासिस्ट तानाशाही के खतरे के जो चार कारण- विश्व पूंजीवाद का संकट, अमरीका की लूटवादी नीति, भारत पर अमरीका का दबाव और भारत में अमरीका परस्त दक्षिणपंथी गुटों के बढ़ते हुए प्रभाव, बताये थे, वे आज कहीं अधिक सबल रूप में मौजूद हैं. दक्षिणपंथियों के बारे में तब उन्होंने लिखा था- 

‘‘ये दक्षिणपंथी हैं कौन ? ये वही हैं, जो साम्राज्यवाद के वफादार हिमायती रहे हैं, जिनसे कांग्रेसी नेता बराबर गठबंधन करते आए हैं. तब दक्षिण्पंथी ताकतें क्यों न आगे बढ़ें?’’ 

(वही, पृष्ठ 5) 

दक्षिणपंथी एवं साम्प्रदायिक ताकतों को आगे बढ़ाने में वामपंथियों की भी भूमिका रही है. कांग्रेस तो अव्वल रही ही है. हिन्दी प्रदेश साम्प्रदायिक शक्तियों एवं हिन्दुत्ववादियों का गढ़ है. डॉ. शर्मा ने 1967 में ही उत्तर भारत में साम्प्रदायिक दल को कांग्रेस का प्रमुख विरोधी माना था. सांगठनिक स्तर पर वे निरन्तर फैलते गये, पर राजनीतिक स्तर पर 1989 के लोकसभा चुनाव के बाद ही वे प्रमुख रूप से उपस्थित हुए. साम्प्रदायिकता अचानक राजनीतिक शक्ति के रूप में नहीं उभरी. डॉ. शर्मा इसके पीछे कांग्रेस की कम्युनिस्ट विरोधी नीति और सामंतों से गठबंधन करने की नीति का प्रमुख मानते हैं. उनकी शिकायत यह थी कि ‘‘एक पूंजीवादी नेतृत्व के रूप में पं. जवाहर लाल नेहरू तथा उनके सहयोगियों और उत्तराधिकारियों ने अपनी साम्राज्य-विरोधी, सामंत विरोधी भूमिका पूरी नहीं की.’’ (वही, पृष्ठ 6) 

दक्षिण पंथ का जवाब भारत में केवल वामपंथ है, इसे वामपंथियों ने पूरी तरह नहीं समझा. 1967 में डॉ. शर्मा ‘दक्षिणपंथी पार्टियों की बढ़ती हुई राजनीतिक शक्ति’ से हमें सावधान कर रहे थे, यह कह रहे थे कि वामपंथी पार्टियाँ ही इस खतरे को बदल सकती हैं. उस समय तक कम्युनिस्ट पार्टी केवल दो हिस्सों में विभाजित हुई थी. उन्होंने लिखा था – ‘‘वामपंथी दल एक दूसरे से अलग-थलग, परस्पर शत्रु-भाव रखनेवाले भी हैं. प्रजा सोशलिस्ट संयुक्त सोशलिस्टों से अलग हैं तो कम्युनिस्ट पार्टी के दो दल फूट के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराते हैं.’’(वही) 

उन दिनों जय प्रकाश नारायण को राष्ट्रपति बनाने का प्रस्ताव ‘स्वतंत्र पार्टी के साथ प्रजा सोशलिस्ट और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता’ रख रहे थे. फासिस्ट तानाशाही को केवल कोई राजनीतिक दल नहीं रोक सकता. हमारे सामने भारत के सभी राजनीतिक दलों का इतिहास और उनके क्रिया-कलाप हैं. भारत की वर्तमान संसद में 36 राजनीतिक दल हैं. आज क्या इन दलों में फासिस्टों को रोकने के लिए किसी प्रकार की एकता है? रामविलास शर्मा ‘‘फासिस्ट तानाशाही रोकने की ताकत किसान-सभाओं और मजदूर-संघों में संगठित किसानों और मजदूरों की दृढ़ एकता” में देख रहे थे, यह मान रहे थे कि यह ताकत ‘‘स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ के साथ मिलकर हुकूमत चलाने वाले वामपंथी पार्टी नेताओं’’ में नहीं है. उन्होंने लिखा था- 

‘‘कम्युनिस्ट पार्टी इस समय जो मुस्लिम लीग, जनसंघ, अकाली दल के साथ मिलकर मंत्रिमंडल बना रही है, उसकी एक दीर्घकालीन वीभत्स परम्परा है.’’ 

(वही, पृष्ठ 9) 

केरल के वामपंथी कम्युनिस्टों ने ‘मुस्लिम लीग के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने में पहल’ की थी. क्या साम्प्रदायिक संगठनों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाना और फासिस्ट विरोधी मोर्चा भी बनाना एक साथ संभव है? भारतीय राजनीति में जिस ‘न्यूनतम कार्यक्रम’ की बात सरकार बनाते समय की जाती है, वह नयी बात नहीं है. कम्युनिस्ट पार्टी ने बहुत पहले दक्षिण पंथियों के साथ न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर ‘संयुक्त मोर्चा’ बनाया था. डॉ. शर्मा ने 1967 में यह लिखा कि इसमें- ‘‘भारतीय संविधान द्वारा स्वीकृत धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त को कहीं खपत नहीं है.’’(वही) ये इस दलील को नहीं स्वीकारते थे कि -‘‘कुछ साम्प्रदायिक दल अपने अन्य साथी दलों की तुलना में कम साम्प्रदायिक हैं’’ जिस समय महाराष्ट्र से ‘कम्युनिस्ट’ से भिन्न माना गया था. 1967 से पहले के चुनाव में नम्बूदरीपाद ने मुस्लिम लीग के साथ संयुक्त मोर्चा बनाया था. ‘‘तब सुनने में आया कि केरल के लीगी उत्तर के लीगियों की तरह साम्प्रदायिक नहीं हैं.’’ 

ऐसी गहरी समझ से क्या फासीवादी शक्तियों का मुकाबला किया जा सकता है? डॉ. शर्मा के बहुत सारे कथन और विचार सामने नहीं लाये जाते. इसके लाने का मकसद केवल अतीत की गलतियों से सीखना है. 

आँख मूंद कर लम्बा सफर तय नहीं किया जाता. एक समय पूरन चंद जोशी, डॉ. गंगाधर अधिकारी, बी. टी. रणदिवे, इफ्तखारूद्दीन और सज्जाद जहीर के सहयोग से मुस्लिम लीग को प्रगतिशील बनाने में लगे हुए थे, जिसका उल्लेख डॉ. शर्मा करते हैं और डांगे, नम्बूदरीपाद आदि को ‘इसी नीति को आगे विकसित करते’ देखते हैं. साम्प्रदायिक दलों के साथ अब तक वामपंथी दलों ने समय-समय पर जो संयुक्त मोर्चा बनाया, उसने साम्प्रदायिक ताकतों को कमजोर न कर और अधिक शक्तिशाली बनाया है. जनसंघ को कांग्रेस से मुख्य शिकायत यह थी कि कांग्रेसी नेता हिन्दू राष्ट्रवाद की नीति पर नहीं चलते. जनसंघ हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में जन्मा और बढ़ा. साम्प्रदायिक दलों के लिए बहुजातीय राष्ट्रीयता का कोई अस्तित्व नहीं था. उनका विश्वास एक जातीय राष्ट्रीयता में था. 

‘‘जनसंघ के लिए बहुजातीयता माया है; राष्ट्रीयता ब्रह्म है, जो इस माया से परे है. जो लोग बहुजातियता की उपेक्षा करते हैं, वे राष्ट्रीयता की उपेक्षा करते हैं.’’ (वहि, पृष्ठ 8)

 

 

(चार)

‘कथन’ पत्रिका के पुनर्प्रकाशन पर डॉ. शर्मा ने रमेश उपाध्याय को आज के पूंजीवाद पर ध्यान केन्द्रित करने को कहा था. वे सम्प्रदायवाद को साम्राज्यवाद की शक्ति कहते थे. आज संसद के भीतर और बाहर फासीवाद और फासिस्ट सरकार की बात कही जाती है, पर पूंजीवाद और अमरीकी साम्राज्यवाद से इसके संबंध पर कम ध्यान दिया जाता है. अस्सी का दशक नब्बे के दशक से कुछ अर्थों में भिन्न था. अस्सी के दशक के मध्य में वे भारतीय पूंजीपति वर्ग को ‘साम्राज्यवाद से दबा हुआ पूंजीपति वर्ग’ कह कर उसे फासिस्ट नहीं मानते थे. साम्राज्यवाद के संबंध में उनका यह स्पष्ट विचार था कि साम्राज्यवाद भारत में समझौतों से संतुष्ट नहीं है क्योंकि वह हिन्दुस्तान को पाकिस्तान बनाने में असफल रहा. फासिज्म की दुनिया में यह समझाया जाता है कि 

‘‘अगर तुम हिन्दू हो तो तुम्हारा दुश्मन मुसलमान है, तुम अगर मुसलमान हो तो तुम्हारा दुश्मन हिन्दू है. अगर तुम सिख हो, तो तुम्हारा दुश्मन सारी दुनिया है… फासिज्म हिन्दुस्तान में साम्राज्यवाद के एजेंट के रूप में आता है.’’ 

(साक्षात्कार : डॉ. राम विलास शर्मा से बातचीत, 1986 पृष्ठ 93) 

आज भारत में फासीवाद की बात करने वाले अमरीकी साम्राज्यवाद से उसके संबंध का कम उल्लेख करते हैं. डॉ. शर्मा ने भारत में फासिस्टवादी प्रवृत्तियों को ‘साम्राज्यवाद के दलालों की प्रवृत्तियाँ’’ (वही, पृष्ठ 92) कहा है. 

अस्सी के दशक के भारत में इंडोनेशिया और पाकिस्तान जैसी स्थिति नहीं थी. इंडोनेशिया में ‘कम्युनिस्टों का कत्लेआम’ हुआ था और पाकिस्तान में कम्युनिस्ट आन्दोलन को पनपने नहीं दिया गया था. चुनाव से फासिस्टों के संबंध को जोड़कर डॉ. शर्मा ने कम देखा है, जबकि फासिस्ट चुनाव को एक हथियार अथवा युद्ध के रूप में ग्रहण करता है. पश्चिम बंगाल में भाजपा की जीत नहीं हुई, पर उसके विधायकों की संख्या पिछले विधानसभा चुनाव से पचीस गुना अधिक हो गयी. दूसरी ओर कांग्रेस और वाम मोर्चा शून्य में चले गए. कांग्रेस और वाम दल आत्म मंथन और आत्म चिंतन कर जब तक आगे नहीं बढ़ते, भारत में फासीवादी ताकतों और हिन्दू राष्ट्रवादियों को नहीं रोका जा सकता. 

नागार्जुन ने ‘बजट वार्तिक’ कविता (मार्च, 1950) में लिखा था ‘पूंजी को चाहिए छाँह साम्राज्यवाद की’ इसी शीर्षक से इन पंक्तियों के लेखक ने सोलह वर्ष पहले अपने एक स्तंभ (प्रभात खबर, 23.5.2005) में लिखा था- ‘ 

रामविलास शर्मा ने अनेक बार औद्योगिक और हेराफेरी वाले पूंजीवाद में अंतर किया है. उनके अनुसार औद्योगिक पूंजीवाद जहाँ साम्राज्यवाद से समझौते के बाद उसका विरोध करता है, वहाँ हेरा फेरी वाला पूंजीवाद साम्राज्यवाद से जल्द समझौता करता है. उन्होंने हेराफेरी वाले पूंजीवाद को ‘साम्राज्यवाद का सहयोगी’ कहा है. फासीवाद पर बात करते हुए वे साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के एक विशेष प्रकार पर भी बात करते हैं. उन्होंने सम्प्रदायवाद और भूमंडलीकरण दोनों को अलग-अलग न देखकर एक दूसरे से जुड़ा माना और सम्प्रदायवाद का विरोध करने के लिए साम्राज्यवाद और भूमंडलीकरण का विरोध आवश्यक माना है. 

साम्राज्यवाद के पनपने एवं फूलने में उन्होंने दक्षिणपंथ की भूमिका देखी और यह लिखा कि साम्राज्यवाद पूंजीवादी जनतंत्र की अपेक्षा दक्षिणपंथ पर अधिक विश्वास करता है. फासीवाद पर विचार के क्रम में पूंजीवादी लोकतंत्र, हेराफेरी वाला पूंजीवाद, सम्प्रदायवाद, धार्मिक कट्टरतावाद, साम्राज्यवाद सब पर वे विचार करते हैं और भारत में भाजपा के आगे बढ़ने का मुख्य कारण सम्प्रदायवाद और धार्मिक कट्टरतावाद मानते हैं. नब्बे के दशक के पहले भी अपने कई इण्टरव्यू में उन्होंने फासीवाद पर बातें कही हैं. डिक्टेटरशिप को ‘एक विशेष प्रकार की शासन-पद्धति के रूप में देखकर वे प्रत्येक राज्यसत्ता को ‘वर्ग-विशेष की डिक्टेटरशिप’ के रूप में नहीं देखते. 

हिटलर के शासन को उन्होंने ‘इजारेदार पूंजीपतियों का डिक्टेटरशिप’ कहा है. चर्चिल उनके अनुसार “पूंजीवादी जनतंत्र के नेता” थे, न कि ‘पूंजीवादी डिक्टेटरशिप के. इसीलिए हर मार्क्सवादी फासिस्टवाद के मुकाबले पूंजीवादी जनतंत्र का समर्थन करता है.’’ (‘साक्षत्कार’, पृष्ठ 135) भारत में जिस प्रकार दो पूंजीपतियों- उद्योगपतियों- बिरला-टाटा का एक साथ उल्लेख किया जाता रहा है, उसी प्रकार अब अम्बानी-अडानी का उल्लेख किया जाता है. आज का समय बिरला-टाटा का न होकर अम्बानी-अडानी का है. बिरला-टाटा का संबंध औद्योगिक पूंजीवाद से था, अम्बानी-अडानी का संबंध हेराफेरी वाले पूंजीवाद से है. 

हिन्दी प्रदेश में नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में सम्प्रदायवाद और जातिवाद के आधार पर सरकारें बनाने का सिलसिला आरंभ हुआ. डॉ. शर्मा के बार-बार बिरादरीवाद और सम्प्रदायवाद से लड़ने की बात कही है. इसी दौर में इजारेदार पूंजी भारत में फैली. यह पूंजी सब पर आज हावी है. प्रचार साधन भी इसके अधीन है. नब्बे के दशक में उन्होंने गैर इजारेदार पूंजीवादी रास्ते पर बढ़ने की बात कही थी. इसे नव उदारवाद उन अर्थनीतियों से जुड़ा पद है, जो वाशिंगटन स्थित संस्थाएँ लागू कर रही थीं. इसे ‘वाशिंगटन आम राय’ कहा जाता है और इस पद के जनक ब्रिटेन में जन्मे अर्थशास्त्री जॉन हैराल्ड विलियम्सन (7.6.1937-11.4.2021) थे. मनमोहन सिंह को ‘नब्बे के दशक का महलनोबीस’ कहा गया था. यह वित्तीय पूंजी का समय है. प्रभात पटनायक ने जलेस (जनवादी लेखक संघ) के सातवें राष्ट्रीय सम्मेलन (धनबाद 2-4 नवम्बर 2007) के अपने उद्घाटन-भाषण ‘वित्तीय पूंजी के वैचारिक वर्चस्व; में कम्युनिस्ट और प्रगतिशील राष्ट्रवादी शक्तियों को सावधान किया था कि वे ‘लुटेरे पूंजीवाद के वर्चस्व’ में न आयें. 

इसके बारह वर्ष पहले डॉ. शर्मा ने एक इण्टरव्यू में अमरीका द्वारा भारत के बुद्धिजीवियों की बुद्धि पर भी अपना पेटेंट करा लेने की बात कही थी. (‘आज के सवाल और मार्क्सवाद’, 2001, पृष्ठ 352) हिन्दी के कई ‘बुद्धिजीवी’ न तो आलोचक-विचारक की बात पर ध्यान देते हैं और न प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री की बात पर. औद्योगिक पूंजीवाद में हेराफेरी वाले पूंजीवाद की तुलना में बेशर्मी बहुत कम थी. औद्योगिक पूंजीपति चुनाव में सरकारी दल के साथ अन्य राजनीतिक दलों को भी चन्दा देते रहे हैं, पर उनमें से किसी ने भी अपनी इच्छानुसार भावी प्रधानमंत्री के नाम की कभी घोषणा नहीं की थी. केन्द्र में मनमोहन सिंह की सरकार के समय, संप्रग 2 के दिनों में, 2014 के लोकसभा चुनाव से पाँच वर्ष पहले जनवरी 2009 में ‘वाईब्रेंट गुजरात सम्मेलन’ में अनिल अम्बानी और सुनील मित्तल ने प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी का नाम सुझाया था. अनिल अम्बानी ने 2009 में ही यह कहा था – 

इसके बाद के वर्षों में और कई पूंजीपतियों ने साफ शब्दों में यह कहा था कि भारत का अगला प्रधानमंत्री मोदी को ही होना चाहिए. 2014 के लोकसभा चुनाव के समय इन पंक्तियों के लेखक ने अपने स्तंभ लेख ‘मोदी, भाजपा, संघ, मीडिया और कॉरपोरेट’ (प्रभात खबर, 12.5.2014) में यह लिखा था – 

‘‘यह चुनाव मीडिया और कॉरपोरेट मिल कर लड़ रहे हैं… निक्सन को ‘पैकेज्ड प्रेसिडेंट’ कहा गया था. क्या भारत का भावी प्रधानमंत्री ‘पैकेज्ड प्राइम मिनिस्टर होगा… यह चुनाव देश का भविष्य, लोकतंत्र का भविष्य भी तय करेगा.’’ 

 

 

(पांच)

‘आलोचना’ वाले परिसंवाद (1967) में डॉ. शर्मा ने फरवरी 1948 में सम्पन्न कम्युनिस्ट पाटी की दूसरी पार्टी कांग्रेस का हवाला दिया था. जिसमें बी.टी. रणदिवे ने साम्राज्य विरोधी मोर्चा बनाने में कम्युनिस्ट पार्टी को पहल करने की बात कही थी. तब कम्युनिस्ट पार्टी एक थी, आज वह कई धड़ों में विभक्त है. डॉ. शर्मा ने भारतीय जनता को कभी सम्प्रदायवादी नहीं माना था. आज भी भारतीय जनता साम्प्रदायिक नहीं हैं, पर उसे साम्प्रदायिक बनाने की अनेक स्तरों पर कोशिशें जारी हैं. हिन्दी प्रदेश की जनता का ही नहीं, तथाकथित शिक्षित मध्य वर्ग का मानस भी साम्प्रदायिक बनाया जा रहा है. कांग्रेस से असंतुष्ट होने के कारण हिन्दी भाषी जनता साम्प्रदायवादियों की ओर मुड़ी है. इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वह कल हिन्दू राष्ट्रवाद और फासीवाद के पक्ष में खड़ी नहीं होगी. हेराफेरी वाला पूंजीवाद डॉ. शर्मा के अनुसार ‘भाजपा का मुख्य आधार’ है. 1989-90 से यह पूंजीवाद भारत में बढ़ता गया और इसी दौर में भाजपा भी बढ़ी और फैली. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार (राजग एक की) नब्बे के दशक के अंत में बनी. जो चौबीस राजनीतिक दल एक साथ थे क्या वे सब हेराफेरी वाले पूंजीवाद के खिलाफ थे? तेरहवें संसदीय चुनाव के पहले 1999 में डॉ. शर्मा से नामवर सिंह, चन्द्रबली सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और अजय तिवारी ने ‘स्वाधीनता’ पत्रिका के शारदीय विशेषांक के लिए बातचीत की थी. इस बातचीत में उन्होंने साम्राज्य विरोधी लोगों को लेकर आगे बढ़ने की बात कही थी और कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर के ‘अवसरवाद’ और ‘सुसंगत साम्राज्य विरोध’ को पहचानने को कहा था. उन्होंने उस समय स्पष्ट रूप से यह कहा था कि कांग्रेस का आधार औद्योगिक पूंजीवाद है और भाजपा का मुख्य आर्थिक आधार हेराफेरीवाला पूंजीवाद है. उन्होंने इस बातचीत में ‘पुस्तिकाएँ निकालने की योजना’ बनाने, लोगों को शिक्षित करने और पहले अपने को शिक्षित करने का सुझाव दिया था. 

‘‘सम्प्रदायवाद फासिज्म का रूप क्यों लेता है, इसके ऊपर एक पुस्तिका निकालो. अमरीकी पूंजीवाद और बीजेपी, इसके संबंधों पर एक पुस्तिका निकालो… मैंने ऐसी एक योजना अजय तिवारी को पहले भी बताई थी और पाँच-छह पुस्तिकाओं के नाम बता दिए थे और कैसे लिखना चाहिए ये भी बता दिया था… संगठित होकर के एक फासिस्ट विरोधी प्रचार अभियान चलाओ. उसमें लोगों को शिक्षित करो कि हम फासिज्म की बात क्यों करते हैं, किन लोगों को इसके अंदर आना चाहिए.’’ (‘आज के सवाल और मार्क्सवाद’ पृष्ठ 150) 

जिस समय डॉ. शर्मा ने ये बातें कही थीं, उस समय राजग की स्थायी सरकार नहीं बनी थी. इस बातचीत में उन्होंने सामंती अवशेष, हेराफेरी वाला पूंजीवाद, उसके साथ कभी-कभी मिलनेवाले बड़े पूंजीपति, साम्राज्यवाद से प्राप्त सहायता सब की बात कही थी. 

‘‘वह मुख्य आधार नहीं है. उस सामाजिक आधार पर खड़े होकर वे इस संस्कृति को हथिया लेते हैं. मार्क्स ने एक जगह कहा है, पूंजीपति वर्ग स्वयं विज्ञान का सृजन नहीं करता, विज्ञान को अटैच करता है. वैसे ही ये संस्कृति को अटैच करते हैं. अच्छा, तुम आकर इनका खंडन करो. तुम ये दिखाओं कि गांधी अम्बेडकर की तुमने अच्छी व्याख्या की है. तुम ये बताओं कि तुम भारतीय संस्कृति और उसकी परम्परा के प्रतिनिधि हो… वे संस्कृति का जब नाम लें तब उनको चुनौती दो और कहो कि ये बात गलत है. इसकी व्याख्या इस तरह से होगी. जैसे गांधी जी ने जैसे अंबेडकर ने, जैसे सुब्रह्मण्यम भारती ने. सुब्रह्मण्यम भारती ने बहुत क्रांतिकारी बातें की थीं, जो सब बीजेपी को विरोधी दिशा में जाती हैं.’’ (वही पृष्ठ 154-55) 

संस्कृति के क्षेत्र में भाजपा को जितनी चुनौती दी जानी चाहिए थी, उतनी नहीं दी गयी. हिन्दी के प्रगतिशील आलोचकों ने इसे अपना मुख्य कार्यभार नहीं माना. 1999 के लोकसभा चुनाव के पहले अजय तिवारी ने उनसे साक्षात्कार लिया था. इस साक्षात्कार में डॉ. शर्मा ने भाजपा की नीतियों का विश्लेषण करने वाली चार-पाँच पुस्तिकाएँ निकालने का उन्हें सुझाव दिया था. जार्ज ने आरएसएस के बारे में जो कुछ कहा है, उसको ‘हाईलाइट’ करना उन्हें जरूरी लगा था. भाजपा के सहयोगियों पर दूसरी पुस्तिका निकालने की बात कही थी. 

‘‘तेरह महीनों में उनके सहयोगी विभिन्न मुद्दों पर आलोचना करते रहे हैं. आलोचना करने के बावजूद उनका साथ देते हैं तो उन आलोचनाओं को हाईलाइट करना कि जो आलोचना की थी वो सही थी, फिर भी उनके साथ जमे रहे, यह अवसरवाद है. तो इन आलोचनाओं का इन्होंने कोई सैद्धान्तिक उत्तर नहीं दिया तो हम यह बताना चाहते हैं कि ये सिद्धान्तहीन लोगों का जमावड़ा है. जो आक्षेप विरोधियों पर करते हैं, वो एक्चुअली इनके अंदर है.’’ (वह पृष्ठ 280) 

वे बस यात्रा आदि को इनका ‘असली एजेंडा’ न मानकर विश्व हिन्दू परिषद, उसके पहले गोलवलकर और संघ परिवार के असली एजेंडे को समझने को कह रहे थे. सावधान किया था कि ‘‘इनकी मीठी-मीठी बातों से धोखा नहीं खाना चाहिए.’’ (वही) पाँच पुस्तिकाओं के विषय उन्होंने 1999 में अजय तिवारी को सुझाये थे. मालूम नहीं उनके सुझावों पर डॉ. तिवारी ने कितना काम किया, कितनी पुस्तिकाएँ कब-कब निकालीं? उस समय दिल्ली में भाजपा की और बम्बई में शिव सेना की सरकार थी. उनका सुझाव था – 

‘‘पाँचवीं पुस्तिका का विषय दिल्ली-बम्बई हत्याकाण्ड होना चाहिए.’’ ‘‘यह चिंता भी प्रकट की ‘‘अभी दो नगरों में इनका यह हाल है अगर ये सारे देश में मेजारिटी के साथ आ गए तो कितना हत्याकांड होगा.’’ (वही) 2014 से भाजपा देश में ‘मेजारिटी’ में है और जो हाल है, वह सबके समक्ष है. 

भारत में फासिज्म के आने, पनपने और उसकी विशेषताओं पर डॉ. शर्मा ने विचार किया है. वे देश में फासिज्म के कई रूप देख रहे थे. ईसाई प्रचारकों को उनके बेटों सहित जीवित जलाना उनके अनुसार फासिज्म की यह भी कार्यनीति है. 

‘‘एक सम्प्रदाय में ही नहीं, अनेक सम्प्रदायों में ये फासिज्म पनप रहा है. मुख्य रूप से इस समय सबसे ज्यादा खतरा हिन्दू सम्प्रदायवाद से है. भारत जैसे देश में, तीसरी दुनिया के देशों में, वह सिर्फ योजनाओं और उद्योगों से आगे नहीं बढ़ सकता, उसको सम्प्रदायवाद की छाया चाहिए. अमरीका भाजपा का ज्यादा भरोसा करेगा, कांग्रेस का कम करेगा’’ (वही, पृष्ठ 283) 

उन्होंने ‘घरेलू मारकाट’ को एक ‘प्रधान खतरा’ कहा था, जो उस समय की तुलना में आज कहीं अधिक है. 1999 में वाजपेयी की सरकार के पहले जिन खतरों और आशंकाओं की वे बात कह रहे थे, वे आज कहीं अधिक प्रबल रूप में उपस्थित है. उस समय स्पष्ट रूप से भारत में फासिज्म के रूप के संबंध में कहना मुश्किल था, पर वे यह मान रहे थे ‘‘जिस रूप में भी आएगा, वह अमरीका के इशारे, के बिना नहीं आ सकता.’’ (वही, पृष्ठ 284) 

आज वह उपस्थित है और यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उसे अमरीका का समर्थन है या होगा. आज भारतीय फासीवाद पर बात करने और सोचने-विचारने वाले यूरोपीय फासिज्म से इसमें कुछ अंतर देखते हैं, पर डॉ. शर्मा इन दोनों में ‘हत्या आतंक के दांव पेंच में’ ‘कोई फर्क नहीं’ देखते थे. ‘‘झूठ बोलने में दोनों में कोई फर्क नहीं है. जो अभियोग इन पर लगाया जा सकता है, उससे पहले ही वो दूसरों पर लगा देते हैं.’’ (वही, पृष्ठ 285) 

आज भाजपा के नेता और प्रवक्ता बार-बार लोकतंत्र, संविधान सबको नष्ट करने का दोषी कांग्रेस सहित दूसरे दलों को मानते हैं. जो अभियोग साक्ष्य सहित भाजपा पर लगाये जाते हैं, वे बिना साक्ष्य के प्रचार-तंत्र और झूठ के सहारे वह दूसरों पर लगाती है. रामविलास शर्मा ने इसकी पहचान बहुत पहले कर ली थी. वे साफ शब्दों में यह कह रहे थे कि सम्प्रदायवाद से लड़ने के लिए ‘‘कांग्रेस का पूरी तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता है. वह अधिक से अधिक थोड़े समय के लिए साथ दे सकती है. मुख्य काम तो वाम पक्ष को करना है.’’ (वही, पृष्ठ 286) चुनाव में जीत हासिल करने, हिन्दू वोट को अपने पक्ष में करने के लिए कांग्रेस ने समय-समय पर कुछ भिन्न तरीके से जो कम किये, उसका परिणाम यह है कि आज संसद में उनके साठ सांसद भी नहीं हैं. क्या वामपक्ष ने भी अपनी भूमिका का निर्वाह किया? क्या अब भी वह संभल रही है? समझ रही है? डॉ. शर्मा ने कम्युनिस्ट पार्टी में ‘गहरी समझ’ के न होने की बात कही है. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जब एक वोट से गिरी थी, तो लोकसभा में हुई बहस में साम्राज्यवाद का जिक्र किसी ने नहीं किया था. ‘‘साम्राज्यवाद के पोषण से ही यह फासिज्म भारत में बढ़ सकता है. मानो यह समझ सही नहीं है; साम्राज्यवाद के पोषण से फासिज्म नहीं बढ़ता, अपनी शक्ति से बढ़ता है. लेकिन भारत में फासिज्म क्या है? इससे क्या खतरा है? उससे लड़ने के लिए हमें कौन से तरीके अपनाने चाहिए? यह विश्लेषण पार्टी ने नहीं किया. हमारा कहना यह है कि… संसद के भीतर और संसद के बाहर एक फासिज्म-विरोधी मोर्चा बनाना चाहिए. संसद के भीतर इस तरह का मोर्चा बनाना जरूरी है, इससे ज्यादा जरूरी संसद के बाहर इस तरह का मोर्चा बनाना है.’’ (वही, पृष्ठ 287) 

रामविलास शर्मा जब यह कह रहे थे केन्द्र में राजग की सरकार नहीं थी. आज सात वर्ष से केन्द्र में मोदी सरकार है. भाजपा पूर्ण बहुमत में है. फासीवाद आज कहीं अधिक दिखाई दे रहा है. क्या संसद के भीतर और बाहर कोई फासिज्म-विरोधी मोर्चा बना है? वह कब बनेगा या उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं है? भाजपा द्वारा राष्ट्रपति और निर्वाचन अधिकारी पर दबाव डालने की बात 1999 में डॉ. शर्मा ने कही थी- ‘‘जहाँ भी उनसे बन पड़ता है, वे दबाव डालते हैं.’’ (वही) आज दबाव डालने का प्रश्न नहीं है. संवैधानिक संस्थाओं सहित सभी संस्थाएँ झुकी हुई हैं. जो दो-चार व्यक्ति बचे रहते हैं, उन्हें ठिकाने लगा दिया जाता है. जो बात मानते हैं, उन्हें सेवा-निवृत्ति के बाद पुरस्कृत किया जाता है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई राज्यसभा के सदस्य बने और अभी सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री अरूण मिश्र मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बना दिये गये हैं. 

फासिस्ट विरोधी मोर्चा बनाने की बात डॉ. शर्मा ने बार-बार कही है. यह न उनके समय बना और न इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय तक बन पाया है . 

‘‘फासिज्म क्या है? यह बताना चाहिए. फासिज्म विरोधी मोर्चा कैसे बनाना चाहिए? उसके अंदर किस तरह के लोग आएंगे? उसकी नीति क्या होगी? उसका घोषणा पत्र क्या होगा? यह बताना चाहिए भले ही वह फलीभूत न हो… भारतीय कम्युनिस्टों को इस तरह परिस्थिति का विश्लेषण करना चाहिए. फासिज्म की जो व्याख्या करनी चाहिए वह उसने नहीं की.’’ (वही) 

वाजपेयी-आडवाणी को उदार भाजपा नेता कहने वाले आज कम नहीं है. 1999 में ही रामविलास जी ने हमें सावधान किया था. ‘‘जितने राज्यों में इनकी सरकारें बनी है, वे सब फासिस्ट सरकारें है. ऊपर से ये जितनी उदारता दिखाते हैं, वह सब नीचे बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद और शिवसेना को संरक्षण देने के लिए ही है. इसलिए इनकी उदारता से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए.’’ (वही पृष्ठ 147) चार वर्ष बाद 2003 में हनुमानगढ़ी (अयोध्या) के महंत ज्ञानदास ने विहिप (विश्व हिन्दू परिषद) को ‘हिन्दू’ न कहकर ‘राक्षस’ कहा था और प्रत्येक हिन्दू का यह कर्तव्य माना था कि वह इन ‘आतंकवादियों’ से अपने विश्वास की रक्षा करें.

 

 

(छह) 

नोम चोम्स्की ने जिन परिस्थितियों में समाज में फासिस्ट प्रवृत्तियों के उभरने की बात कही है, डॉ. शर्मा ने उसकी भी चर्चा की है. पूंजीवादी नीतियों के कारण जनता में असंतोष फैलने पर उसके बीच से- 

‘‘कोई हिटलर पैदा हो जाता है. वह लोगों को समझाता है, जो तुम्हारी खराब हालत है, उसका वास्तविक कारण यहूदी है या मुसलमान है या कोई और है. जनता की हालत क्यों खराब है, यह बात वे उसे नहीं बताते. इस तरह झूठे प्रचार के द्वारा वे लोगों को गुमराह करते हैं. सत्ताधारी बनने के दौरान और बन जाने के बाद वे बड़े पैमाने पर हिंसा संगठित करते हैं. अपनी इस हिंसक नीति के लिए जनादेश प्राप्त करके वे एक हद तक लोकप्रियता भी हासिल कर लेते हैं.’’ 

(‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खण्ड 2, परिशिष्ट 3, 1999, पृष्ठ 733)

 

यह जानना आवश्यक है कि 24 जुलाई 1991 को मनमोहन सिंह ने बजट के साथ जो नीतिगत प्रस्ताव पेश किये थे, उसके पहले भारत में कितने अरबपति थे? जानना यह भी जरूरी है कि सत्तर के दशक के पहले धीरूभाई अम्बानी और अस्सी के दशक के मध्य तक गौतम अडाणी की कितनी संपत्ति थी? आज यह जानना जरूरी है कि अम्बानी-अडाणी ने एक ही दिन में 43 हजार 743 करोड़ रुपये कमाये हैं. कोरोना को प्रधानमंत्री ने एक अवसर कहा था. कोरोना काल में अम्बानी की सम्पत्ति 24 प्रतिशत बढ़कर 83 अरब डालर हुई और अडाणी की सम्पत्ति 32 अरब डॉलर बढ़ी. आनंद महिंद्रा की सम्पत्ति सौ प्रतिशत और वायकोन की किरण मजूमदार की सम्पत्ति 41 प्रतिशत बढ़ी. कोरोना-काल में 40 उद्यमी अरबपति बने हैं. चीन और अमरीका के बाद भारत तीसरा देश है, जहाँ अरबपतियों की संख्या सर्वाधिक है. कोरोना काल में मुकेश अम्बानी ने प्रति घंटे नब्बे करोड़ रुपये कमाये हैं, जबकि चौबीस प्रतिशत भारतीयों की एक महीने की आमदनी तीन हजार रुपये से भी कम थी. आक्सफैम की ‘इनइक्वालिटी वायरस’ के अनुसार मार्च 2020 के बाद की अवधि में भारत में सौ अरबपतियों की सम्पत्ति में 12 लाख 97 हजार 822 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई है, जबकि हर घंटे 1.7 लाख लोग बेरोजगार हुए हैं. 

कोरोना महामारी के आरंभ से अब तक लगभग 97 प्रतिशत परिवारों की आय घट गयी है. 2020 में गौतम अडाणी की सम्पत्ति 175 प्रतिशत, सायरस पूनावाला की 87 प्रतिशत, राधाकृष्ण दमानी की 54 प्रतिशत, शिव नाडर की 53 प्रतिशत, अजीज प्रेम जी की 39 प्रतिशत, दिलीप साध्वी की 37 और मुकेश अम्बानी की 31 प्रतिशत बढ़ी है. इस सम्पत्ति का उत्पादन से कितना संबंध है? यह उत्पादक पूंजी है या अनुत्पादक पूंजी? जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) घटता गया है, और हेराफेरी वाली पूंजी बढ़ती गयी है. भारत में फासीवाद के आगमन में ‘हिन्दुत्व’ के साथ इस पूंजी की बहुत बड़ी भूमिका है. रामविलास शर्मा हिन्दू राष्ट्रवाद और फासीवाद के विरूद्ध थे और हम सब आज इसके विरूद्ध हैं या तटस्थ? डॉ. शर्मा ने 1999 के एक इण्टरव्यू में यह कहा था– 

‘‘बुद्धिजीवियों को आज आगे बढ़कर राजनीति में काम करना चाहिए. अगर संगठन में काम न कर सकें तो कम से कम लिखने में उनको पीछे नहीं हटना चाहिए.’’

_________________

रविभूषण
वरिष्ठ आलोचक-विचारक
१७ दिसम्बर 1946, मुजफ्फ़रपुर (बिहार)
‘रामविलास शर्मा का महत्व’ तथा ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ किताबें आदि प्रकाशित.
साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रचुर लेखन
 राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवा-निवृत्त.
ravibhushan1408@gmail.com

11/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. देवेंद्र चौबे18 जून 2021, 9:38:00 am

    बहुत अच्छा लेख। रविभूषण जी हमारे समय के बड़े आलोचक है।
    ����

    जवाब देंहटाएं
  2. सुशील मानव18 जून 2021, 10:32:00 am

    मौजूदा समय में बेहद ज़रूरी और महत्वपूर्ण लेख है ये. सझा करने के लिये समालोचन को शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  3. मंजुला चतुर्वेदी18 जून 2021, 3:17:00 pm

    अत्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक आलेख।रविभूषण जी को बधाई
    अरुण देव को हार्दिक धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  4. अमरेंद्र कुमार शर्मा18 जून 2021, 6:40:00 pm

    विगत कुछ महीनों के दौरान पढ़े गए लेखों में यह सबसे शानदार लेख है । कई दृष्टियों से इस लेख को पढ़ा जा सकता है , तब जबकि इस लेख की एक अपनी दृष्टि है ।

    जवाब देंहटाएं
  5. दया शंकर शरण18 जून 2021, 8:13:00 pm

    फासीवाद भी एक राजनीतिक विचारधारा है। इसके लिए संस्कृति का अर्थ है-एक जाति,एक नस्ल,एक राष्ट्र। कुछ लोग धर्म को हीं संस्कृति मान बैठते हैं।साहित्य में भी इससे प्रभावित कुछ थोड़े लेखक हर काल में रहे हैं।हिन्दी और उर्दू को अलग भाषा मानने के पीछे भी यही सोच रही है।जबकि भाषा धर्म से बड़ी होती है और संस्कृति की आत्मा भाषा में बसी होती है।धर्म एक होते हुए भी बांगलादेश पाकिस्तान से अलग हो गया।

    जवाब देंहटाएं
  6. इस सुचिंतित एवं ज्ञानवर्द्धक आलेख के लिए आदरणीय रविभूषण जी को मुबारकबाद और इसके प्रकाशन हेतु अरुण जी को साधुवाद।

    जवाब देंहटाएं
  7. यह मंच बहुत ही शानदार और प्रभावी है। जहाँ से साहित्यिक-राजनीतिक व सामाजिक आदि विषयों पर पाठकों को बहुमूल्य सामग्री मिल जाती है। मैंने जब भी इस मंच को देखा है मन प्रभावित हुआ है। आशा करते हैं आगे भी इस मंच से हम पाठक ज्ञानवर्धक होते रहेंगे।

    एक बात यह भी जाननी थी क्या इस मंच के किसी लेख आदि को हम कहीं अन्य प्रकाशित कर सकते हैं आपके नाम के साथ ?

    बहुत-बहुत शुभकामनाएँ

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुक्रिया. इसकी सामग्री कहीं अन्यत्र नहीं प्रकाशित की जा सकती. आप सिर्फ शीर्षक
      देकर लिंक दे सकते हैं.

      हटाएं
  8. अच्छा विश्लेषण, लेकिन आज बात को और आगे ले जाना होगा। इस आलेख में एक बात का उल्लेख सबसे पहले होना चाहिए। इसमें कहा गया है कि लेखकों का यह कर्तव्य है कि वे हिंदू राष्ट्र बनने से रोकें। युद्ध स्तर पर प्रयास करें। युद्ध स्तर पर प्रयास करके पाकिस्तान को धर्म के आधार पर बनने से रोकने की कोशिश का इतिहास क्या है? मुस्लिम लीग को क्या बनाना चाहते थे जोशी से लेकर जहीर। उल्लेख यहां हुआ है। क्या हुआ उसका ? इसका कोई इतिहास है ? है तो कहां है ?
    फासिज्म और अमेरिकी विरोध के दो तत्वों को यहां रखा गया है, जो सबसे महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रवाद और fascism का संबंध बहुत जटिल है। अमेरिका पर भारत कैसे निर्भर बना रहा, जबकि चीन उससे मुक्त होकर ज्यादा शक्तिशाली हो गया, यह प्रश्न ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। रवि भूषण गंभीर आलोचक हैं। उनको इन छोड़ दिए गए पक्षों को भी अध्ययन का विषय बनाना चाहिए।

    जवाब देंहटाएं
  9. धर्म,राष्ट्र और फासीवाद की जटिलता को संपूर्णता में समझने में अब्दुल बिस्मिल्लाह का 'अपवित्र आख्यान' उपन्यास राजनीतिक निबंधों से ज़्यादा असरदार है।
    इस उपन्यास में लेखक ने बहुसंख्यकवाद, अल्पसंख्यकवाद,
    सेकुलरवाद के आवरण में सक्रिय उदार बहुसंख्यकवाद के साथ ही सामासिक संस्कृति आदि की गतिकी पर दिलचस्प तरीके से विचार किया है।
    सुप्रसिद्ध साहित्यप्रेमी समाजशास्त्री प्रोफेसर अभय कुमार दुबे ने इस उपन्यास पर केंद्रित एक विचारोत्तेजक निबन्ध लिखा है जो उनकी पुस्तक 'साहित्य में अनामंत्रित' में संकलित है।

    जवाब देंहटाएं
  10. जिस उम्र में ढेर सारे बौद्धिकों आलोचकों की वाणी में थकान, कोरी आध्यात्मिकता, मिस्टीसिज्म दिखाई देने लगता है, वाक्जाल में उलझाने की वृत्ति बढ़ती जाती है, उस उम्र में भी रविभूषणजी के लेखन में विद्यार्थी जीवन जैसी जिजीविषा और आकांक्षा का बना होना, उनकी संवेदनशीलता की तस्दीक करता है। सहज भाषा में गंभीर मुद्दों पर विचार करता एक महत्वपूर्ण आलेख।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.