हरीश त्रिवेदी: कविता



विश्व के अग्रिम पंक्ति के आलोचक-अध्येता प्रो. हरीश त्रिवेदी का कविता लिखना और समालोचन में उसका प्रकाशित होना विश्व-साहित्य की घटना है, ठीक उसी तरह जैसे अगर Terry Eagleton कहें कि उन्होंने कविता लिखी है और वह प्रकाशित हो रही है.

प्रो. हरीश त्रिवेदी हिंदी में लिखते रहें हैं पर ये कविताएँ छात्र-जीवन के बाद अब लिखी गयीं हैं और समालोचन पर ही प्रकाशित हो रहीं हैं.

लगभग आजीवन गद्य में रमने के बाद आख़िर वह क्या है जिसे कहने के लिए कविता की जरूरत महसूस हुई?

ये कविताएँ अंदर की यात्रा करती हैं. जो कि कविता की अपनी ख़ास विशेषता है. पहली कविता का शीर्षक पुनश्च भी बहुत कुछ कहता है, जैसे पूरा जीवन कोई लम्बा पत्र रहा हो जिसमें यह कहना छूट गया था.

यह ऐतिहासिक अंक प्रस्तुत है. साथ में आलोचक–पत्रकार आशुतोष भारद्वाज की एक टिप्पणी भी दी जा रही है.

 



प्रोफेसर हरीश त्रिवेदी का सन्दर्भ मेरे सामने अक्सर बड़े अप्रत्याशित तरीके से आता रहा है. कई बरस पहले जब मैं रामचंद्र गुहा से पहली मर्तबा मिला था, बातचीत में उन्हें मालूम चला कि मैं उपन्यास विधा पर काम कर रहा हूँ, तुरंत बोले: “आप हरीश त्रिवेदी से परिचित हैं? उनसे ज़रूर मिलिए.” राम गुहा उन्हें अपने निबंधों में भी उद्धृत करते रहे हैं.

मैं पिछले बरसों में सेमिनार में पेपर पढ़ने यूरोप गया हूँ. रोम और पेरिस जैसी जगहों पर वहाँ के अकादमिक मुझसे पूछते हैं: “आप इंडिया से हैं. हरीश त्रिवेदी को जानते होंगे?”

पिछले कई दशकों से तमाम विधाओं में काम करते क़द्दावर भारतीय हरीश त्रिवेदी को भारत का श्रेष्ठतम आलोचक मानते आये हैं. वे पश्चिम के अकादमिक जगत में भारतीय आलोचना का चेहरा हैं, जिनका उत्तर-औपनिवेशिक अध्ययन और अनुवाद पर काम दुनिया भर में पढ़ा और संदर्भित किया जाता है. पश्चिम में मेरे दो अकादमिक मित्र, एक जर्मन और एक फ्रांसीसी, प्रोफेसर त्रिवेदी को ‘द बिग मैन’ कह कर बुलाते हैं- और ये दोनों खुद वरिष्ठ अध्येता हैं, हालाँकि प्रोफेसर त्रिवेदी से कभी नहीं मिले हैं.

मैथ्यू अर्नोल्ड ने कभी कहा था कि अँग्रेजी के आलोचक के लिए अँग्रेजी का ज्ञान, किसी समकालीन यूरोपीय भाषा का ज्ञान, पश्चिम की किसी एक क्लासिक भाषा यानी ग्रीक या लेटिन का ज्ञान और पूर्वीय सम्पदा यानी संस्कृत अथवा चीनी साहित्य का ज्ञान अनिवार्य है. अगर इसे हम भारतीय आलोचक के संदर्भ में देखें तो लगता है मैथ्यू अर्नोल्ड ने शायद यह प्रोफ़ेसर त्रिवेदी के लिए ही लिखा था, जो संस्कृत, हिंदी, उर्दू, अँग्रेजी और यूरोप की सम्पदा से अपना सत् ग्रहण करते रहे हैं.

शायद इसलिए जब एके रामानुजन का निबंध ‘थ्री हंड्रेड रामायण’ चर्चा में था, प्रोफ़ेसर त्रिवेदी हमें तुरंत याद दिला सके थे कि तुलसीदास बहुत पहले लिख गए हैं- “रामायण शत कोटि अपारा.” और जब रामानुजन ने अपना प्रसिद्ध वाक्य दिया कि “कोई भी भारतीय रामायण पहली बार नहीं पढ़ता”, तो  प्रोफ़ेसर त्रिवेदी ने तुरंत पूछा : “आप ऐसे कितने भारतीयों को जानते हैं जिन्होंने रामायण एक बार भी पढ़ी है?”

आलोचक का लेकिन एक गुण और होता है, जो इस क़िस्से में झलकता है. शिमले आने से पहले जब मैं दिल्ली में था, संजीव कुमार (आलोचक) से फ़ोन पर कभी-कभार उपन्यास विधा पर, ख़ासकर हिंदी उपन्यास पर, बतियाया करता था. एक दिन फ़ोन पर वे बोले, “आशुतोष, हरीश त्रिवेदी मेरे पड़ोस में रहते हैं. एक दिन टहलते हुए मिल गए, मैंने तुम्हारा ज़िक्र किया कि तुम उपन्यास पर काम कर रहे हो, बड़े अच्छे प्रश्न उठा रहे हो. वे तुरंत बोले, ‘अच्छा! कौन है जो हिंदुस्तान में उपन्यास पर काम कर रहा है, लेकिन जिसे मैं नहीं जानता हूँ?

यह कहकर संजीव जी हँसने लगे. प्रोफ़ेसर त्रिवेदी के इस प्रश्न की अतिरंजना में ही उसका मर्म था. एक अध्येता-आलोचक हमेशा अपनी विधा में हो रहे काम पर सजग और चौकन्नी निगाह रखता है.

वे अँग्रेजी के प्रोफ़ेसर हैं, लेकिन हिंदी में पूरी तरह रमे हुए हैं. उन्होंने प्रेमचंद की जीवनी से लेकर हिंदी के अनेक लेखकों के अनुवाद अँग्रेजी में किए हैं, तमाम लेखकों को अँग्रेजी की दुनिया तक ले गए हैं. अमिताव घोष और मकरंद परांजपे जैसे लोग उनके विद्यार्थी रहे हैं. मैंने क़द्दावर, उनके हमउम्र और विकट अहंकारी लोगों को भी उनके सामने गुरुजी कहते हुए पैरों में पड़ते देखा है. 

किसी सच्चे आलोचक की तरह वे विपरीत मत का बहुत सम्मान करते हैं. नब्बे के दशक में शिमले के उच्च अध्ययन संस्थान में फ़ेलो रहे जयदेव ने हिंदी के तीन लेखकों की ‘नक़ली आधुनिकता’ पर शोध किया, जिनमें निर्मल वर्मा और कृष्ण बलदेव वैद शामिल थे. जयदेव के शोध का शीर्षक था- ‘कल्चर ऑफ़ पेस्टीच’ (मेरी समझ से निर्मल और वैद पर इससे भीषण प्रहार कभी नहीं हुआ. यह दिलचस्प है कि हिंदी में इन दोनों को गरियाता जाता है, अक्सर हल्के और भावुक ढंग से, लेकिन उनका सबसे बेहतरीन तार्किक प्रतिकार अँग्रेजी में हुआ है.) 

ख़ैर, जैसी कि शिमले के संस्थान की परम्परा है, यह पांडुलिपि एक रिव्यूअर के पास पहुँची. वह रिव्यूअर थे हरीश त्रिवेदी- निर्मल वर्मा के अभिन्न मित्र, ज़बरदस्त प्रशंसक और अनुवादक भी. कोई अन्य शायद उस पांडुलिपि को ख़ारिज कर देता, और संस्थान के नियमों के तहत फिर संस्थान उसे कभी नहीं छापता. प्रोफ़ेसर त्रिवेदी ने लेकिन जयदेव की पांडुलिपि को बड़ा सम्मान दिया. इस तरह निर्मल वर्मा को सबसे बड़ी वैचारिक चुनौती देती किताब उस संस्थान से छपी जहाँ निर्मल ख़ुद कभी फ़ेलो रहे थे, उस इंसान की स्वीकृति और समर्थन से छपी जो निर्मल के गहरे दोस्त थे. 

अब प्रोफ़ेसर त्रिवेदी कविता लिख रहे हैं (मैंने उन्हें काफ़ी पढ़ा है, और मुझे उनकी कोई कविता याद नहीं आती और मेरे ख़याल से यह उनकी पहली प्रकाशित कविता (एं)होनी चाहिए), यानी ख़ुद को आलोचकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.

आशुतोष भारद्वाज


  


हरीश त्रिवेदी                                                                                                                                 
कविताएँ
 

 

१. 

पुनश्च

(रघुवीर सहाय जी की स्मृति को,

जिनकी आधी पंक्ति यहाँ भटकी चली आयी है.) 

 

 

इस रेले में निकल जाते तो निकल ही जाते

इतनी बड़ी भीड़ में घुल जाते मिल जाते.

रोज़ बढ़ता आंकड़ा अगले दिन जब आता

उसमें मैं हूँ या नहीं कौन बता पाता. 

 

हफ्ते-दस दिन में छुट्टी बेहतर है

महीनों कढ़िलने से बरसों घिसलने से

काया गलाते किसी रोग की कारा में

स्वयं कष्ट पाने से औरों को दुखाने से.

 

जीवन तो कट ही गया, और क्या होना है.

तिहत्तर हो गए, फिर होंगे चौहत्तर

पचहत्तर छेहत्तर यही तो होंगे अब.

बाकी सब हो चुके, अब यही होना है.

 

बिटिया ब्याह गयी, लड़का लग गया.

इतनी दूर जाके लगा है पाताल में

उसकी जब सुबह है तब अपनी शाम है.

एक ही धरा में हैं यही आराम है.

 

आठ साल हो गए हम को रिटायर हुए.

चालीस साल खट के चाकरी करने पर.  

बिलकुल निकम्मे हैं, पेंशन खाते हैं

निकम्मी सरकार को चूना लगाते हैं.

 

मान लें बच गए तो फिर करेंगे क्या.

कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठेंगे.

इंतज़ार करते हुए अनमने जीते हुए

टकटकी लगाये कि काल कब आता है.

 

...या फिर हो सकता है ऐसा भी हो जाए

आगे के बरसों में हम कुछ कर जाएँ.

ऐसा कुछ जो अभी कल्पना से बाहर है.

ऐसा कुछ काम जो किसी के काम आये.

 

पहले के पत्रों में ‘पुनश्च’ होता था.

कुछ सयाने थे रिश्तेदारों में,

गुनी कलाकार थे, असली खबर वे

पुनश्च तक पहुँच जाएँ तभी बताते थे. 

 

यही हरि इच्छा है क्या अपने बारे में?  

जो बीत चुका वह तो सब रीता था.

अब कुछ होगा क्या, कुछ कर पाएंगे

ऐसा कुछ हो सकेगा हौसला-हारे में? 

_____  

 

पुनश्च 1.: और अब मंगलेश डबराल की स्मृति को भी.  

जब मुझे भान हुआ कि रघुवीर जी की एक पंक्ति या उसकी ध्वनि यहाँ चली आई है तो मुझे उनकी उस कविता की कुछ और पंक्तियाँ तो याद आयीं पर कविता का शीर्षक नहीं याद आया. मैंने सोचा कि किससे पूछूं तो लगा कि मंगलेश से अधिक उपयुक्त कौन होगा. वे रघुवीर जी के सच्चे भक्त और अनुयायी थे, मतलब मुरीद हम भी थे और सैकड़ों और भी थे मगर वैसे नहीं. तो मैंने उन्हें फ़ोन किया. वे बोले. “हरीश जी, पांच मिनट का समय दीजिये”, और फिर तीन ही चार मिनट में पूरे ब्यौरे के साथ उनका फ़ोन आया. यह सितम्बर 2020 के अंत की बात है. वही मेरा उनसे अंतिम संपर्क था.)


पुनश्च 2. यह कविता मैंने पिछले साल 28 सितम्बर को लिखी थी. होते-होते कोरोना मुझे हुआ तो इस वर्ष 21 अप्रैल को. कभी-कभी कला आगे चलती है, जीवन पीछे. वैसे रघुवीर जी की उस कविता का शीर्षक है “बचे रहो”, जैसा कि घटित भी हुआ.  

  

२.

 

पुराना वो ज़माना

 

फिर न आएगा पुराना वो ज़माना हरगिज़.

याद भूले-से भी उसकी न दिलाना हरगिज़.

 

बैठे-बैठे यूँ ही उठ पड़ना औ चल देना कहीं.
चल नहीं सकता वो अब तर्ज़ पुराना हरगिज़.

 

नाक-मुंह बाँधे हुए चोर-उचक्कों की तरह

अपने कूचे में हमें फिर न घुमाना हरगिज़.

 

दिल तो चाहे है तुम्हें पहलू में लेकिन फ़िलवक़्त

दो कदम दूर रहो, पास न आना हरगिज़.

 

ख्वाब में भी कभी सोचा न था ये गत होगी.

इससे भी बद कोई सूरत न दिखाना हरगिज़.

 

ख्वाहिशें पहले की जितनी भी थीं पूरी कर लीं,

दिल में अरमान नए अब न जगाना हरगिज़.

 

हम बुज़ुर्गों का भला क्या है, चले जायेंगे,

नौजवानों को यहाँ से न उठाना हरगिज़.

 

अब तो जाते हैं जहन्नुम को या फिर जन्नत को,

हमें “हरीश” यहाँ फिर न बुलाना हरगिज़.

 

आभार: यह छोटी सी झोपड़ी मैंने उसी ज़मीन पर (यानी उसी भाव-भूमि पर और उसी बहर और रदीफ़-काफ़िये को लेकर) खड़ी की है जिस पर 1857 में दिल्ली शहर की तबाही के बाद मौलाना अल्ताफ़ हुसैन “हाली” ने एक मशहूर ग़ज़ल कही थी: “तज़्किरा देहली-ए-मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़ / न सुना जाएगा हम से ये फ़साना हरगिज़.” तो मौलाना साहेब को सलाम और बहुत शुक्रिया!

______



हरीश त्रिवेदी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और संस्कृत लेकर बी. ए. किया, वहीं से अंग्रेजी में एम. ए., और वहीं पढ़ाने लगे.  फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में पढ़ाया, ब्रिटेन से वर्जिनिया वुल्फ पर पीएच. डी. कीऔर सेवा-निवृत्ति तक दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे. इस बीच शिकागो, लन्दन, और कई और विश्वविद्यालयों में  विजिटिंग प्रोफेसर रहे, लगभग तीस  देशों में भाषण दिए और घूमे-घामे, और एकाधिक देशी-विदेशी संस्थाओं के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष रहे या हैं. अंग्रेज़ी साहित्य, भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, विश्व साहित्य और अनुवाद शास्त्र पर उनके लेख और पुस्तकें देश-विदेश में छपते रहे हैं.  हिंदी में भी लगभग बीस लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं. और एक सम्पादित पुस्तक भी आई है "अब्दुर रहीम खानखाना" पर. (वाणी, 2019). 

harish.trivedi@gmail.com

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  1. बहुत उत्सुक होकर समालोचन का अंक खोला । एक विश्वख्याति के विद्वान आलोचक की प्रथम प्रकाशित कविताएँ पढ़ने के लिए । ये दोनों कविताएँ दरअस्ल हिंदी कवि रघुवीर सहाय और उर्दू के शाइर और नस्रनिगार हाली को एक तरह का ट्रिब्यूट है । श्रद्धाजंलि शब्द यहाँ जँच नहीं रहा । और क्या ही अद्भुत ट्रिब्यूट है । दोनों को उन्हीं की शैली में ट्रिब्यूट । ये दोनों कविताएँ (एक ग़ज़ल) एक तरह से विदागीत हैं । आत्मकथा में गूँथी हुई । जितना मैं जानता हूँ हाली को समर्पित उन्हीं की ज़मीन में कही हुई ग़ज़ल, जिसकी कि उर्दू में परम्परा है, में रदीफ़ और क़ाफ़ियों का सही और उस्तादाना प्रयोग किया गया है। इसे निभाना आसान नहीं । हिंदी में इस टक्कर के सिर्फ़ शमशेर ही हो सकते थे। ऐसा नहीं हो सकता कि हरीश त्रिवेदी ने पूर्व में कविताएँ न लिखी हों । आपकी और आशुतोष भारद्वाज की यह ज़िम्मेदारी है कि वे हरीशजी के इस ख़ज़ाने को खोजें । यह हिंदी पर उपकार/अहसान होगा । यह और इतना लिखकर अब आराम से कविताओं को दुबारा पढूँगा । समालोचन का शुक्रिया ।

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  2. गज़ब ही कविताएँ है ..प्रो हरीश त्रिवेदी को कौन नहीं जानता। पर वे कविताएँ भी लिखते हैं, ये नई बात पता चली। शुक्रिया, उनके इस रूप से परिचित कराने के लिए।

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  3. कविताएं पढ़ कर लगा कि कुछ पढ़ा है वरना कितनी कविताएं हलक में ही गुम हो जाती है। दो कविताएं ही अपनी अनुगूंज में इतनी आस्वादक हैं कि इनके नशे में मत्त हुआ जासकता है। इससे आगे कहने की हिम्मत नहीं। बस पूछना यह ज्ञानियों से कि अब ऐसी कविताएं लोग क्यों नही लिखते?

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  4. देवेंद्र मोहन12 जून 2021, 9:17:00 am

    आप त्रिवेदी जी पर छाप कर बधाई के पात्र हैं। कितने लोगों को जानकारी है भला उन की विद्वतापूर्ण लेखनी के बारे में आज? धन्यवाद बहुत बहुत

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  5. ये कविताएं हाली और र.स. की रचनाओं की तरह ऊपर से देखने में साधारण लगती हैं, लेकिन जरा ठहर कर पढ़ने पर गहरी काट करती है। लगता है हरीश जी के आलोचना कर्म के पुनश्च की तरह कविता आई है। 'पुनश्च' कविता को और भी मानीखेज़ बनाती।

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  6. समालोचन का बहुत आभार. ऐसी शख्सियत से पहली बार परिचय कराया. हरीश सर को सादर प्रणाम.

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  7. यह पुनश्च एक सुखद उद्घाटन है।
    और अधिक की प्रतीक्षा जगाता हुआ।

    आशुतोष भारद्वाज की टिप्पणी समुचित है।
    बधाई।
    -कुमार अम्बुज

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  8. वे हिंदी और अंग्रेजी, दोनों केअसाधारण विद्वान् हैं। हिंदी के प्रति मोह उनमें कुछ ज्यादा है। उनका कविता में होना सुखद है। कविता कई बार आपको वहाँ ले जाती है, जहाँ गद्य चुक जाता है। .. बहरहाल समालोचन कॉ उनके कवि से रूबरू करवाने के लिए बधाई!

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  9. संजीव कौशल12 जून 2021, 11:28:00 am

    सर की कविताएं पढ़ कर दिल तर हो गया। इतने सालों में कभी यह आभास भी नहीं हुआ कि सर कविताएं लिखते हैं। बहुत खूब!
    समालोचन का बहुत-बहुत आभार!

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  10. विनोद पदरज12 जून 2021, 11:29:00 am

    कविताएं पढ़कर रघुवीर सहाय और शमशेर दोनों याद आते हैं उन्होंने पहली कविता के संदर्भ में तो उल्लेख भी किया है
    लेकिन जो सवाल कइयों ने उठाया है कि दो ही कविताएं
    इससे उनके कवि होने का पता नहीं चलता उनकी और कविताओं की प्रतीक्षा रहेगी

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  11. गिरधर राठी12 जून 2021, 11:51:00 am

    कुछ लिखा पर गायब हो गया। अब आपको ही। शायद संयोग ही है कि "बचे रहो"शीर्षक दर्ज कर ने से पहले ही अंगरेज़ी का शब्द Survivor दिमाग़ में उमड़ पड़ा। बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की survivors पर एक कविता और ग़ालिब के ख़त 1857की दिल्ली पर याद आने लगे। संयोग ही है कि रघुवीर सहाय और मंगलेश डबराल याद आए इस हवाले से भी कि नौ प्रसिद्ध कवियों के अंग्रेज़ी अनुवाद की उस कार्यशाला में शरीक हुए थे हरीश भी, जिसका फल था Survival नामक संग्रह जो साहित्य अकादेमी से छपा था। अब कुंवर नारायण ,केदारनाथ सिंह, और अमरीका इंग्लैंड से आमंत्रित कवि संपादक अनुवादक डैनियल वाएसबोर्ट भी हम survivors की यादों में ही बचे हैं।भारत विभाजन पर हमें अविस्मरणीय संस्मरण कथात्मक रचनाएं अधिक मिली थीं, अमृता प्रीतम वाली कविता जैसी कविताएं शायद कम। अब इस कोरोना काल में कुछ कवियों ने आत्मिक चीत्कारों की ऐसी कविताएं दे दी हैं और दे रहे हैं कि हम survivors अपने आगे बचे रहने वालों के लिए विषाद और यादों के अलावा भी शायद कुछ और छोड़ जाएंगे। Poetry of Survival नामक कविता का एक प्रकार तो होगा ही दुनिया में--हरीश बता सकते हैं-- कोरोना का एक यह योगदान भी उसमें होगा ...पता नहीं इस तरह की कविता पर "सन्नाटा छा "जाना चाहिए, जैसा कि रघुवीर जी मानते या सोचते थे, या कवि को "बधाई" देना सही होगा?

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  12. ज्योतिष जोशी12 जून 2021, 3:35:00 pm

    'पुनश्च ' शीर्षक कविता और ' पुराना वो जमाना ' शीर्षक ग़ज़ल, हरीश जी को समझने के लिए बहुत हैं। बेहद सधे अंदाज में रघुवीर सहाय की स्मृति को जीवित करते वे कविता में जीवन के चौथे चरण की कशमकश को पूरी मार्मिकता के साथ व्यक्त करते हैं। इसी तरह ग़ज़ल में अपनी स्वाभाविक मस्ती के साथ ' हम बुजुर्गों का भला क्या है, चले जाएंगे ' कहते हुए आज के आपदा काल में नवजवानों के बचे रहने की कामना करते हैं और पुराने दिन को आज के समय के साथ रखते हुए रीत रहे जीवन को देखते हैं।
    प्रिय आशुतोष उन्हें पूरी पहचान के साथ रखते हैं और उनकी वैश्विक समझ की तस्दीक करते हैं।
    मैं 1995 के दिसम्बर से हरीश जी को जानता हूँ। याद करता हूँ तो ध्यान आता है कि पहली भेंट भारत भवन, भोपाल में हुई थी। समवाय के आयोजन में। तब से अब तक न जाने कितनी बार मिले, सुना उनको, पढ़ा भी ; और हमेशा नई से नई समझ पाई। वे हमेशा अपनी सहज मुस्कान के साथ आत्मीयता से मिलते रहे, जैसा सबके साथ उनका व्यवहार होता है। अपनी सादगी, सहजता और विनम्रता में वे हमेशा नायाब लगे।
    उनके इस पक्ष को पाठकों के बीच ले आना महत्वपूर्ण है। अपने सृजन में भी वे कितने आत्मीय और करुण हैं इसे इन रचनाओं में हम देख सकते हैं। आलोचना में लेखक का अंतर्भाव अदेखा रह जाता है जो रचना में सहज ही प्रकट होता है।
    इस प्रस्तुति के लिए प्रिय द्वय अरुण और आशुतोष साधुवाद के पात्र हैं।

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  13. हरीश जी ने लिखा है कि कभी-कभी कला आगे चलती है और जीवन उसके पीछे। प्रेमचंद ने भी साहित्य को अंधेरे के बरक्स एक जलती मशाल कहा था । संदर्भ अलग भले हों पर निष्कर्ष एक है। कला का सच यही है। यह जीवन की सुंदरतम सृजनात्मक ऊर्जा है। पहली कविता में इस वैश्विक महामारी से मृत्यु का ग्रास बनते लोगों के बीच एक उम्रदराज व्यक्ति की मनःस्थिति का अंकन है।उम्र के आखिरी पड़ाव तक आते-आते जीवन की नश्वरता का बोध वैसे भी हावी हो उठता है। आलोचक कवि को बधाई !

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  14. गोपेश्वर सिंह12 जून 2021, 3:37:00 pm

    प्रो हरीश त्रिवेदी की दो कविताओं की प्रस्तुति के लिए आपका और समालोचन का आभार।
    दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में ही आवास होने के कारण हरीश जी से अक्सर मुलाकात होती थी। कभी कभी सुबह-शाम टहलने के क्रम में भेंट होने पर मैं उनसे बहुत कुछ पूछता था। अंग्रेजी का कोई संदर्भ होने पर मैं अब भी उन्हें फोन करता हूं। वे भी कभी कभी बहुत आत्मीय ढंग से फोन करते हैं।वे अंग्रेजी साहित्य के विद्वान हैं, हिंदी में भी लिखते हैं,वे प्रकृति प्रेमी बढ़िया फोटोग्राफर हैं, खूब ठहाका लगाते हैं, यह सब तो जानता था, लेकिन वे कवि हैं, यह नहीं मालूम था।
    दोनों कविताएं अच्छी लगीं। बंधुवर हरीश जी को बधाई और कवि रूप में उनका स्वागत। भविष्य में उनकी कविताएं पढने को मिलती रहें, यह कामना है।
    बंधुवर हरीश जी को नमस्कार।

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  15. अरुण कमल12 जून 2021, 3:39:00 pm

    प्रोफ़ेसर हरीश त्रिवेदी जी की कविताओं के लिए बहुत-बहुत आभार ।यह हमारा सौभाग्य है ।

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  16. वंशी माहेश्वरी12 जून 2021, 3:40:00 pm

    हरीश जी की गद्यात्मक प्रतिभा तो सर्वविदित है .
    दो कविताएँ, ख़ासतौर से पहली कविता में गद्य की प्रतिध्वनि गूँजती .
    दोनों कविताओं का शिल्प बातचीत के साथ- साथ प्रश्न चिन्ह दे जाती हैं .
    ‘ ऐसा कुछ हो सकेगा हौसला- हारे ? ‘

    बहुत ही बढ़िया किया आपने अरुण जी, इन कविताओं का
    रसास्वादन कराके. धन्यवाद.

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  17. हरीश त्रिवेदी जी के विद्वान- आलोचक रूप से हिंदी जगत परिचित है।कुछ माह पूर्व हैदराबाद विश्वविद्यालय के समाज विज्ञान संकाय द्वारा नामवर सिंह की 'दूसरी परंपरा की खोज' पुस्तक पर आयोजित वेबिनार में भागीदारी करते हुए संस्कृत तथा हिंदी साहित्य विषयक उनके अगाध ज्ञान के साथ ही उनकी विनम्रता एवं सहिष्णुता से रू-ब-रू होने का सुअवसर मिला।
    इन कविताओं पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी।
    बहरहाल, कवि हरीश त्रिवेदी का स्वागत है।
    हरीश जी के कवि को सामने लाने के लिए समालोचन -संपादक अरुण देव को साधुवाद।

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  18. राहुल द्विवेदी12 जून 2021, 7:29:00 pm

    बहुत सुंदर कविता "पुनश्च "... उस कविता की यह पंक्ति कितनी तो मानीखेज है --
    "जब उसकी सुबह है तब अपनी शाम है
    एक ही धरा पर हैं यही आराम है " .
    "पुराना वो जमाना " शीर्षक से लिखी ग़ज़ल एक व्यक्ति के जीवन के उत्तरार्ध में उपजने वाले विचारों का शानदार रेखाचित्र है ।
    आशुतोष की प्रस्तुति बहुत ही रोचक थी । अरुण जी और आशुतोष दोनों को साधुवाद । उम्मीद है प्रो हरीश जी की और कविताओं से जल्द ही मुलाकात होगी

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  19. हम बुजुर्गों का भला क्या है चले जायेंगे
    नौजवानों को यहाँ से न उठाना हरगिज़ !

    73 वर्ष के एक विद्वान आलोचक की समालोचन में प्रकाशित दो कविताओं ने जैसे हिंदी-साहित्य-जगत में आग लगा दी है । 73 की उम्र क्या होती है ? अभी तो तीन हज़ार कविताओं का कचरा ढोने वाले कवि 83 की उम्र में ज्ञानपीठ की प्रतीक्षा में जिये जा रहे हैं । हरीश त्रिवेदी तो इस लिहाज़ से युवा ही कहलायेंगे । कविताओं के साथ उन्हें सम्पादक और आशुतोष भारद्वाज ने विश्वस्तरीय आलोचक बता दिया । आग लगने का एक कारण यह भी है । और ध्यान दीजिए उन्होंने ख़ुद को रघुवीर सहाय का मुरीद बताया और मंगलेश डबराल को भक्त । इन दो कविताओं की ख़ासियत यह है कि ह त्रि इस दुनिया से जाने को तैयार हैं । एक निरर्थक जीवन जीने से बेहतर है कि चले जाएं । एक निक्कमी सरकार की पेंशन खाने से बेहतर है कि मर जाएँ । ये जाने को तैयार हैं और कुछ कवि इस फ़ानी दुनिया में जर्जर होकर भी रहने के इंतिज़ाम में मशगूल हैं । और ध्यान रखा जाए कि ह त्रि कवियशप्रार्थी नहीं हैं । ये कवितानुमा कविताएँ तो उनकी वसीयत जान पड़ती हैं । इन दो साधारण/असाधारण कविताओं से हिन्दी-संसार इतना हिल क्यों गया है ? अशोक वाजपेयी के विशाल-काव्य-कचरे को ढोने वाले बंधुआ मजदूरों को इन दो कविताओं का भार क्यों लग रहा है ? समझ नहीं आ रहा ।

    हाँ मैं हरीश त्रिवेदी की इस बात से सहमत नहीं कि मुझे इस दुनिया में फिर न लाना, हरगिज़ । मैं तो इसी मृत्यु-लोक में दुबारा, तिबारा, चौबारा आना चाहूंगा ।

    कुछ और लिखना चाह रहा था कुछ और लिख गया । क्षमा करें । मुझे इस प्रसंग में दूसरी बार आना पड़ा । यह भी चमत्कार ही समझिए । हो सकता है इन पैरोडीनुमा कविताओं के पक्ष में मुझे तीसरी बार आना पड़े क्योंकि हिंदी की तथाकथित मौलिक कविताओं से ये बेहतर हैं ।

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  20. प्रचण्ड प्रवीर13 जून 2021, 8:23:00 am

    हरीश सर को पढ़ना सुखद है। अगर हम मूर्धन्य विद्वानों से परिचित नहीं हैं, उस स्थिति में उनके कर्म का अवलोकन दायित्व बन जाता है। उनकी इन कविताओं में सहजता है, कवि की महत्त्वाकांक्षा नहीं, जो कि अधिकांश समकालीन कविताओं में विद्यमान है। बरगद के पेड़ की छाँव की महत्ता एक पथिक समझ सकता है, डाकू-लुटेरे नहीं।

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  21. प्रयाग शुक्ल13 जून 2021, 8:37:00 am

    गुणी ओर गुणियों के प्रिय
    गुणग्राहक पुराने मित्र जो भी करते हैं उसमे कोई बात होती ही होती है।
    सुन्दर शानदार कवितायें।

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  22. विनय कुमार13 जून 2021, 8:39:00 am

    अंग्रेज़ी साहित्य और आलोचना से कोई ख़ास परिचय नहीं। प्रोफ़ेसर साहब के बारे में समालोचन की दीवार से ही ज्ञान हुआ। बढ़िया कविता और ग़ज़ल भी। लेकिन यह नहीं मान सकता कि सिर्फ़ दो कविताएँ लिखी होंगी। छंद ज्ञान से नहीं अभ्यास से सधते, और जो कहन है वह भी और वह मूड भी जब इतना कुछ आसानी से कहे में आ जाए।

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  23. चंदकला त्रिपाठी13 जून 2021, 8:41:00 am

    सोचा तो यह था कि हरीश त्रिवेदी जी की ज्ञान गूढ़ता से एलियन सी कविताएं मिलें शायद मगर यहां तो बोली की तरंग में बहती कविताएं मिलीं। बहुत अच्छी।

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  24. असद ज़ैदी13 जून 2021, 8:43:00 am

    हरीश त्रिवेदी को मैं तीस पैंतीस साल से जानता हूं, कुल मिलाकर अपने ही जैसे साधारण आदमी की तरह। वह इतने बड़े पैग़म्बर हैं यह आज यहां पता चला। अब तो उनसे मित्रता के लायक़ भी न रहा! न इन कविताओं पर कुछ कहने की हिम्मत बची है।

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  25. बौछार बल्कि मूसलाधार की गति कुछ थमी है तो मैं भी कुछ कहता हूँ. ...

    इतने सारे पाठकों ने मेरी दो अकिचन कवितायेँ का इतने खुले दिल बल्कि दरियादिली से स्वागत किया तो आप सब का कृतज्ञ हूँ और रहूँगा. यह तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था. उन मित्रों का भी आभार जिन्हें ये कवितायेँ साधारण, औसत या उससे भी कमतर लगीं. कल इनके छपने और प्रतिक्रियाएँ आने के पहले मेरी भी यही राय थी पर अब मेरा दिमाग़ कहीं फिर न जाय! वैसे "लज्जित" तो नहीं पर संकुचित अवश्य हूँ.

    यह बात बिलकुल सही है कि ये एक अकवि की आकस्मिक रचनाएँ हैं तो इन्हें अजूबा ही समझिये. यदि मैं सच में इतना "मंद" होता कि "कवियशः प्रार्थी" बनता तो कुछ तो रियाज़ या मशक्क़त करता और पिछले पचास वर्षों में दो से कुछ अधिक कवितायेँ लिखता. (एक और १९६८ में छपी थी तो कुल-जमा ज़िन्दगी में हुईं तीन, और तीन ही चार अंग्रेजी में.) कवि तो वे होते हैं जो दशकों तक अनवरत रचते हैं , जिनके पांच-सात संग्रह आ चुकते हैं, और शायद उनमें भी सब नहीं.

    सम्पादक श्री अरुण देव ने उचित ही विस्मय जताते हुए प्रश्न पूछा कि आजीवन गद्य लिखने के बाद अब मुझे कविता लिखने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई. इसका कच्चा चिटठा अभी तीन-चार दिन पहले मैंने अपने facebook पेज पर खोला है. संक्षेप में, मेरे अनेक अकवि मित्र कोरोना पर धड़ाधड़ कवितायेँ लिखे जा रहे थे तो उनके कहने पर मैंने भी कलम साफ़ कर दिया . इसे भी संक्रमण ही समझिये. जैसे मैंने अन्यत्र कहा, यह "कोविद कविता" या Pandemic poetry है, इसका भी शायद टीका निकले. मैं स्वयं अब कोरोना से धराशायी होकर डेढ़ महीने बाद बच निकल आया हूँ तो शायद अगले पचास साल फिर कविता न लिखूं! "आखिरी वक़्त में क्या खाक़ मुसलमाँ होंगे" -- पैगम्बर बनने की तो बात ही छोड़िये असद भाई.

    अंत में, ऐसे धूम-धड़ाके और गाजे-बाजे के साथ मेरी दुकलौती कवितायेँ छपेंगी कि कुछ भृकुटियाँ तन जाँय इसको अपना सौभाग्य ही कहूँगा. "शायर का जनाज़ा था बड़ी धूम से निकला"! ... सबका बहुत आभार.

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  26. यह "Unknown" लिख कर क्यों आया है? मैं अब भी unknown ही बना रहा ! यह मेरी, हरीश त्रिवेदी की, टिप्पणी है,

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  27. हरीश त्रिवेदी जी को सुनना हमेशा अच्छा लगता है। वे बहुत प्रवाह में और सुनियोजित तरीके से बोलते हैं। उनकी सहजता उनके ज्ञान को और धवल कर देती है। अहंकार नाम का नहीं।

    पहली कविता मौजूदा वक्त का दस्तावेज है। पढ़ लो और शांत हो जाओ। बचे रहना ही इतनी बड़ी बात हो गयी है । कविता में उदासी, तुर्शी, व्यंग्य, पीड़ा सब उमड़ घुमड़ कर आ रहे। ग़ज़ल भी दिलचस्प है। बच जाने के भाव दोनों में प्रबल हैं। यह कोविड पश्चात जीवन कथा है जो उदासी में डूबी है और उम्मीद की आस भी लिए है।
    कविता का विश्लेषण विद्वान लेखक, कवियों ने अपनी टिप्पणियों में किया है। मुझे तो पढ़ना सुखद लगा।

    आदरणीय त्रिवेदी जी को सादर नमस्कार।

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  28. फेसबुक पर कवियों की टिप्पणियाँ पढ़ीं । उन्हें टिप्पणी कहा जाएँ, इसके लिए कुमारिल की टुप् टीका से पूछना पड़ेगा। ये दो कविताएँ यदि कविताएँ हैं तो औसत दर्ज़े की क्यों हैं ? इसकी प्रतिपुष्टि में एक भी वाक्य नहीं दिया जाए तो वह टिप्पणी नहीं हो सकती।
    'बाकी सब हो चुके हैं, अब यही होना बाकी है।' में जीवन की कोई व्याख्या मिल सकें तो यह श्रेष्ठ कविता है। आयु की गिनती के निषेध से ही नहीं, अन्य सभी व्यक्तव्यों से कवि कुछ को निरस्त कर रहा है तो शब्दशः नहीं कहते हुए भी कुछ प्रतिष्ठित कर रहा है। वह यदि कोई मूल्य रखता है तो यह एक अच्छी कविता है।
    पैरोडी विधा है। अन्ततः, वह कविता है, उससे कम कुछ नहीं, यदि वह अपने प्रकृत विषय को उस मूल कविता के बाहरी खोल को लिए रच दें। मुँह- नाक बाँध फिर हरगिज नहीं घुमाने की प्रार्थना के पीछे की भावशबलता जिनके लिए स्पष्ट है, उनके लिए यह कविता है। आचार्य हरीश त्रिवेदी जी को अपने समकाल पर दो अच्छी कविता लिखने के लिए सादर बधाई।
    प्रवीण पण्ड्या

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  29. क्या बात है! कविताओं को पढ़ते हुए अगर हरीश जी के अनूठे अंदाज और तलफ़्फ़ुज़ में इन्हें मन ही मन सुन न रहा होता तो कोई तटस्थ टिप्पणी करना संभव था। बार बार पढ़ रहा हूं और देखने सुनने का अहसास इतना हावी है कि 'शुद्ध पढ़त' हाथ नहीं लग रही। लिहाज़ा मैं इनका 'शुद्ध पाठक' होने का दावा भी नहीं कर सकता। पर वजह जो भी हो, कोविद कवि ने तृप्तिकर आस्वाद दिया। सलाम!

    गुनी कलाकार थे, असली खबर वे
    पुनश्च तक पहुँच जाएँ तभी बताते थे.

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  30. हरीश खन्ना15 जून 2021, 12:11:00 pm

    प्रो. हरीश त्रिवेदी की दोनो कविताएं पढ़ी आनंद आ गया। वह इतनी बढ़िया कविता और ग़ज़ल लिखते है ,यह पहली बार पता चला। त्रिवेदी जी को लगभग पिछले तीस वर्षों से तो जरूर जानता हूं ,जब से अंग्रेजी विभाग , दिल्ली विश्वविद्यालय में आए थे। मिलना जुलना तो बहुत कम रहा पर जब भी मिले पूरी गर्म जोशी के साथ। अक्सर विश्वविधालय में घूमते फिरते मिल जाते थे। त्रिवेदी जी की एक विशेषता है कि अपनी बात को बड़े ही सहज ढंग से कह जाते है । इतने सहज ढंग से कहते हैं कि वह सीधा पाठक के मन को जाकर छूता है। वहां शब्दों का उहापोह और जंजाल नही होता। इनका व्यंग्य दूसरों से अधिक अपने आप पर होता है जिसके माध्यम से जीवन के यथार्थ को उजागर करते हैं।यह एक बहुत अच्छे वक्ता भी हैं, यह बात बडे़ दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि मैंने कई बार इनको सुना है।
    त्रिवेदी जी इसी तरह लिखते रहे और हम पढ़ते रहें।वह ठीक ठाक और स्वस्थ रहें मेरी शुभ कामनाएं।

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  31. यह रूप चमत्कृत कर गया बोलती और पुकारती कविताएं।टिप्पणी भी सुचिंतित हम।

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