फणीश्वरनाथ रेणु : कुछ स्मृतियाँ: प्रेमकुमार मणि




 

सौ साल पहले आज ही के दिन फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म जिला पूर्णिया के गाँव औराही हिंगना में हुआ था. ५६ वर्ष की अवस्था में ११ अप्रैल, १९७७ के दिन  लेखन, प्रेम और जनपक्षधर राजनीति में रमने वाले इस व्यक्तित्व का देहावसान हो गया.

रेणु का जन्मशताब्दी वर्ष जितने विराट ढंग से मनाया गया है वह अपने आप में मिसाल है, ग्यारह से अधिक पत्रिकाओं ने उनपर अपने विशेष अंक निकाले हैं. सैकड़ों ऑनलाइन गोष्ठियां उनपर आयोजित की गयीं हैं, और अभी वे अनवरत हैं.

शताब्दी वर्ष के आयोजनों की शुरुआत समालोचन पर विमल कुमार के लेख 'हिंदी का हिरामन' (४ मार्च, २०२०) से हुई. विमल कुमार के संपादन में 'माटी' के रेणु अंक का आज लोकार्पण भी है.

इसी क्रम में लेखक-आलोचक प्रेमकुमार मणि के दो लेख समालोचन पर छपे-  ‘कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणु’ और ‘रेणु की राजनीति’.  दोनों लेख मूल्यवान हैं और रेणु पर अलग और  नई बातें कहते हैं. ‘रेणु की राजनीति’  को बाद में ‘प्रतिमान’ पत्रिका ने भी छापा.

आज  रेणु जन्मशताब्दी वर्ष समारोह पूर्ण हो रहा है. इस अवसर पर यह स्मृति आलेख प्रस्तुत है. प्रेमकुमार मणि का रेणु के साथ स्नेह-संवाद था.

इस महान लेखक की अंतिम यात्रा में कुछ ही लोग थे. जब प्रेमकुमार मणि वहां पहुंचे- कुल सात लोग थे. चार कांधा दे रहे थे, तीन पीछे थे उनमें एक उनकी पत्नी लतिका जी थीं और यह पटना में हो रहा था.

तो यह होती है हिंदी लेखक की जिंदगी. खैर 

प्रस्तुत है.

  

फणीश्वरनाथ रेणु: कुछ स्मृतियाँ                            
प्रेमकुमार मणि

 



मेरे बचपन की कुछ स्मृतियों के साथ एक प्रसंग रेणु जी का है. आँखें खोलने के साथ जो किताबें घर में देखीं, उनमें से एक किताब 'मैला आँचल' थी, जिस के लेखक रेणु जी हैं. तब कोई पांचवीं या छठी जमात का छात्र रहा होऊंगा. याद कर सकता हूँ कि उस किताब की कीमत चार रुपए थी, जो उन दिनों के ख्याल से अधिक थी. वह प्रति अब मेरे पास नहीं है,लेकिन मन के अतल में उसकी स्मृति सुरक्षित है. वह किताब मेरे पिताजी की लाई हुई थी. कुछ उन्हीं दिनों की बात है कि एक रोज पिताजी के बैठके में उस किताब पर उन्हें कुछ बोलते सुना. पिताजी के नित्य लगने वाले "दरबार" में आसपास के कुछ पढ़े -लिखे लोग इकट्ठे होते थे. चाय- जो प्रायः तुलसी -पात के काढ़े होते थे- पीते हुए वे लोग बात करते थे. गोबर -माटी से लिपे-पुते खुले  मैदान के इर्दगिर्द  फूल-पात-वनस्पतियां होती थीं, और ऐसे ही परिवेश  में पिताजी का 'प्रवचन' चल रहा होता था. उस रोज के विषय रेणु जी थे, खास कर उनका उपन्यास 'मैला-आँचल'. मैं चाय की प्यालियाँ देने गया था और बात सुनने के लोभ-वश वहीं जम गया. बात सुनने की 'बीमारी' कुछ -कुछ मुझे भी लग गई थी. पिताजी अपने रौ में बोले जा रहे थे. विशेष कर उस उपन्यास के लोक -जुड़ाव पर कि किस तरह लोक जीवन के राग-रंगों, बोली-बानी को इस उपन्यास में समेटने की कोशिश की गई है. मुझे गुदगुदी हो रही थी कि क्या इन चीजों को इस रूप में भी लिख कर  कोई लेखक हो सकता है!  यह रेणु नाम से मेरा पहला साक्षात्कार था. 

हाई स्कूल में पहुँचा तब उनका उपन्यास लगभग आधा पढ़ सका. मेरा मन जमा नहीं. यह भी संभव है मैं उसे जज्ब करने की मानसिक स्थिति में नहीं था. इंटर में पहुँचा तब फिर एक बार उस किताब को उठाया और पढ़ गया.  इस बार प्रभावित हुआ, यह नहीं कह सकता. लेकिन पढ़ जरूर गया. इन्ही दिनों उनकी कहानी 'तीसरी कसम' और  उनका दूसरा उपन्यास 'परती-परिकथा' पढ़ पाया. अब रेणु का आकर्षण मेरे मन पर घिरने लगा था. लेकिन वह बड़े लेखक हैं, यह बात कहीं से मेरे मन में नहीं थी. मुझे लगता था, बड़े लेखक होते तो निश्चय ही उन्हें दिल्ली में रहना चाहिए था. जैसे कि दिनकर जी बड़े लेखक हैं और वह दिल्ली में रहते हैं. यह सब मेरा अपना बचपना था.

1972 में रेणु जी ने विधानसभा का चुनाव लड़ा था. निर्दल प्रत्याशी के रूप में. मुझे याद है अख़बार का वह पहला पन्ना अथवा मुखपृष्ठ जिस पर चुनाव नतीजों के समाचार छपे थे. जीतने वाले और हारने वाले प्रमुख लोगों के नाम छपे थे. हारने वाले प्रमुख लोगों में सब से ऊपर रेणु जी का नाम था. मेरे पिता ने  भी उस चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में हिस्सा लिया था और वह भी चुनाव हार गए थे, लेकिन रेणु जी की हार ने मुझे पता नहीं क्यों कुछ पल के लिए उदास बना दिया था. मुझे यह लगा कि रेणु जी को चुनाव नहीं लड़ना चाहिए था. और यदि वह चुनाव में उतरे तो यह कैसी जनता है, जो उनका महत्व नहीं समझ सकी. तब मेरी उम्र इतनी ही थी कि मैं जनता के मिजाज को इसी अंदाज़ में और इतना ही समझ सकता था. 


राजनीतिक तौर पर वह दौर इंदिरा गांधी का था. उनका समाजवादी तेवर रंग ला रहा था. 1971 के बंगलादेश अभियान ने उन्हें दुनिया भर में चर्चित कर दिया था. लेकिन कुछ ही समय में उनकी लोकप्रियता उतार पर आने लगी. महंगाई और कुछ अन्य कारणों से मध्यवर्ग का आक्रोश उभरने लगा. 1974 के आरम्भ से ही बिहार में राजनीतिक गहमागहमी उभरने लगी. राजनीतिक दल और जमे -जमाए नेता अप्रासंगिक होने लगे थे. इस बार छात्रों ने राजनीति में सीधे दखल दी. वे इकठ्ठा हुए और सड़कों पर उतरे ,विधानसभा का घेराव किया. 18 मार्च 1974 को छात्रों के जुलूस पर पुलिस बल का हमला हुआ और छिटपुट हिंसा और आगजनी की घटनाएं  हुईं. उस रोज मैं पटना में था. उथल-पुथल के बाद नगर में अजीब-सा खौफनाक सन्नाटा पसरा पड़ा था.  रात को आए भूकंप के हल्के झटके  ने मानो दिन की उथल-पुथल को अपने अंदाज़ में  रेखांकित कर दिया था. पूरा पटना लगभग वैसी मनोदशा  में था, जैसे अठारहवीं सदी की फ्रांसीसी-क्रांति के आरम्भ में बास्टिले (कारागार) के पतन के रोज का पेरिस. इस रोज की घटना ने पुराने समाजवादी और तब के सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण का ध्यान आकर्षित किया. कुछ ही रोज बाद उन्होंने छात्र नेताओं से बातचीत की और स्वयं उसे नेतृत्व देने के लिए प्रस्तुत हुए. 

जयप्रकाश जी से रेणु जी के रिश्ते पुराने थे. कुछ-कुछ गुरु-शिष्य की तरह. एक समय जयप्रकाश जी रेणुजी के क्रान्तिनायक थे.   रेणुजी के उपन्यास 'मैला आँचल' में जयप्रकाश नारायण का जिक्र है. मेरीगंज के सोसलिस्ट नारा लगाते हैं 'जयपरगास-ज़िंदाबाघ'. सच्चाई है कि रेणु जी समाजवादी जयप्रकाश नारायण के व्यक्तित्व से गहरे स्तर पर प्रभावित थे. इसलिए जब जयप्रकाश नारायण ने छात्र-युवा आंदोलन की कमान संभाली ,तब रेणु जी का भी उधर आकर्षित होना स्वाभाविक था. 

अप्रैल 1974 के पहले पखवारे में तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ जेपी का मुंह पर  पट्टी बांधे जो मौन जुलूस निकला, उसमें पटना शहर के अधिसंख्य बुद्धिजीवियों ने हिस्सा लिया. रेणु जी ने इनका नेतृत्व किया था. मुँह पर पट्टी बांधे कतारबद्ध जुलूस में  रेणु जी की तस्वीर अख़बारों में प्रकाशित हुईं. उनकी  भागीदारी को तत्कालीन समाचार पत्रों ने प्रमुखता से चिन्हित किया था. उन दिनों अख़बार आज की तरह बिकाऊ और गुलाम नहीं थे. रेणु जी की  यह सक्रियता मुझे  पसंद आई थी. हालांकि अपने वैचारिक  कारणों से मैं जयप्रकाश आंदोलन का आलोचक था. इस विषय पर मेरा एक छोटा-सा लेख 'साप्ताहिक दिनमान' में प्रकाशित हुआ था. बावजूद इसके मुझे रेणु जी की यह छवि इसलिए पसंद आई कि मैं किसी रचनाकार- लेखक को ऐसा ही जीवन्त और सक्रिय देखना चाहता था. घरघुस्सू और कलमघिस्सू लेखकों से मुझे चिढ होती थी. मुझे हमेशा महसूस होता था कि लेखक का लिखना ही महत्वपूर्ण नहीं है, उसे अपने लेखन के अनुरूप होना भी चाहिए. उसके व्यक्तित्व का कुछ मतलब होता है या होना चाहिए.

धीरे-धीरे जयप्रकाश आंदोलन गाँव-कस्बों में पसरता जा रहा था. जगह-जगह जन सरकारें बन रही थीं. यह सब जेपी के अपने राजनीतिक प्रयोग थे ,जिसे उन्होंने एक लम्बे अंतराल के बाद फिर से शुरू किया था. उन्हीं दिनों समाचार -पत्रों से जानकारी मिली कि रेणु जी आंदोलन के सिलसिले में अपने इलाके अर्थात पूर्णिया जिले में गिरफ्तार कर लिए गए हैं. वह अपने गाँव के प्रखंड मुख्यालय पर किसानों की समस्याओं को लेकर धरना दे रहे थे. उन्हें गिरफ्तार किया गया और ढाई महीने तक वह पूर्णिया जेल में रहे. लगभग इन्ही दिनों  एक प्रखंड मुख्यालय पर प्रदर्शन करते समय एक अन्य समाजवादी नेता जगदेव प्रसाद पुलिस की गोलियों के शिकार हुए थे. दरअसल ये दोनों लोग बिहार के गरीब-गुरबों की धड़कन थे. साप्ताहिक दिनमान ने रेणु जी की गिरफ्तारी को लेकर  एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थीइस सम्पादकीय टिप्पणी के साथ कि यदि इस स्तर का लेखक किसी यूरोपीय देश में गिरफ्तार होता तो वहां लोग सड़कों पर उतर आते. हिंदुस्तान अभी ऐसा नहीं था. आज भी नहीं है. लेकिन मेरे जैसे लोग विचलित हुए थे. जाहिर है उनके प्रति मेरा आकर्षण गहराता जा रहा था. 


जेल से छूटने के बाद वह पटना आए. उन दिनों डाकबंगला रोड पर एक कॉफी हाउस हुआ करता था. अब उसके अवशेष भी नहीं हैं. वह पटना के दो कॉफी घरों में से एक था. केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय उसका सञ्चालन करता था  और जैसा कि मैंने सुना था उसकी स्थापना में रेणु जी की भी प्रच्छन्न जैसी कोई भूमिका थी. उन दिनों पटना में मेरे जानते वातानुकूलित कोई रेस्तरां नहीं था. वह कॉफी हाउस वातानुकूलित था. आज भी उसे भव्य ही कहूँगा. मैं वहाँ दो -तीन  दफा गया  था. शाम को लेखकों पत्रकारों का जमावड़ा वहाँ लगता था. तब का पटना आज की तरह सांस्कृतिक स्तर पर विपन्न नहीं था. रेणु, नागार्जुन, प्रफुलचन्द्र ओझा मुक्त, उपेंद्र महारथी और जाने कितनी सांस्कृतिक हस्तियां यहाँ होती थीं. सतीश आनंद की नाट्यसंस्था 'कला संगम' तब खूब सक्रिय थी, जिसने पटना में व्यवस्थित रंग-मंच का एक संस्कार विकसित किया था. हमलोग तो नव-सिखुए थे और अपने ग्रामीण संस्कारों और संकोच के कारण कुछ-कुछ सहमे भी होते थे. लेकिन लिखी हुई कुछ चीजें प्रकाशित होने लगी थीं, इस कारण इक्के-दुक्के लोग जानने लगे थे. उन्हीं दिनों समाजवादियों की एक पत्रिका 'जनता' में मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसकी चर्चा एक सभा में जेपी ने की थी. पटना के कॉफी हाउस में ही मुझे भी इसका पता चला. सूर्यनारायण चौधरी, सुरेंद्र किशोर और अनेक पत्रकार साथी वहाँ जुटते थे. सुरेंद्र किशोर भी कुछ समय तक  'जनता' से जुड़े थे. उन दिनों उनका समाजवादी तेवर शीर्ष पर था. थोड़े तुनुकमिजाज लेकिन शफ्फाक सुरेंद्र जी से मेरी जल्दी ही दोस्ती हो गई. चौधरी जी पहले ही करीबी हो चुके थे.

कॉफी-हाउस में रेणु जी एक खास जगह बैठते थे. वह पूरब तरफ था और उस जगह कुर्सियां नहीं, दो बड़े सोफे हुआ करते थे. लोग उस जगह को रेणु कार्नर कहते थे. रेणु जी को पहली  दफा वहीं देखा. उनके अपने ही कोने में. यह  1974 का आखिरी या 1975 का आरंभिक कोई  महीना रहा होगा. मेरा परिचय उसी लेख के हवाले से कराया गया, जो 'जनता'  में प्रकाशित हुआ था. सूर्यनारायण चौधरी जी ने पहल की थी. रेणु जी ने गौर से मुझे देखा और आहिस्ता अंदाज़ में अपना सिर हिलाया. उनके चेहरे पर कोई भाव आया हो, इसे मैंने चिह्नित नहीं किया. हाँ, उन्होंने मेरे घर वगैरह के बारे में पूछा और इसके साथ ही यह कि कोई मेजर काम किया है क्या ? यह 'मेजर  काम' क्या होता है, मैं जानता भी नहीं था. फिर भी अंदाज़ से ही मैंने ना कह दिया. मैंने उनके उपन्यासों पर कुसुम सोफट की किताब कुछ ही समय पहले पढ़ी थी. किसी प्रसंग में उसकी चर्चा की तब यह कह कर कि हाँ यह उनके पीएचडी की थीसिस थी,उन्होंने बात समाप्त कर दी . फिर वह मुझ से मेरी पसंदीदा  किताबों के बारे में पूछने लगे. मुझे गर्व की अनुभूति हो रही थी कि मैं 'मैला-आँचल' के लेखक से बात  कर रहा हूँ . इसी बीच उन्होंने पूछा - कॉफी लेंगे? मैंने कुछ संकोच से ही हाँ भाव में  मुंडी हिला दी. उस रोज के पूर्व कॉफी हाउस मैं दो-तीन  बार गया जरूर था, लेकिन कॉफी पी नहीं थी. कॉफी तो कॉफी, उन समय तक मैं चाय भी नहीं पीता था. लेकिन रेणु जी कह रहे हैं तो इसका कुछ मतलब है. मेरी मुंडी अनायास हिल गई थी. मुझे लगा यह उनका प्रसाद हैऔर इस से वंचित होने का अर्थ बहुत कुछ से वंचित होना है.

कॉफी आई. कॉफी, दूध, शक्कर सब अलग-अलग. मैं जानता भी नहीं था कि इसे कैसे बनाया जाता है, यानी कौन चीज कैसे मिलाई जाती  है. रेणु जी इस वक्त तक एक दूसरे व्यक्ति से बात में मशगूल हो गए थे. उन्होंने अपनी प्याली में केवल कॉफी लिया, दूध-शक्कर छुआ भी नहीं, और पीने लगे. मैंने भी अनुसरण किया. मुझे कॉफी का स्वाद इतना तीखा लगा कि बयान नहीं कर सकता हूँ. अजीब-सा स्वाद. मानो जले हुए पुआल का अर्क पी रहा हूँ. जानलेवा काढ़ा. इसे कैसे पीते हैं लोग ! मुझे लगा कि दूध चीनी भी बाद में  पीएँगे रेणु जी. लेकिन उन्होंने नहीं लिया और एक समय बेरा सब उठा कर ले गयातब मैं देखता रह गया. कुछ दिनों में  सब कुछ जान-समझ लेने के बाद  मुझे अपनी मूर्खता का अहसास हुआ. तो रेणु जी से मेरी पहली मुलाकात इस तरह हुई. 

उन दिनों पटना में मेरा पता था हिमाचल प्रेस, कदमकुआं, पटना. यह रजनी बाबू का प्रेस था, जिनसे मेरी घनिष्ठता थी. वहाँ भी शाम को कभी-कभार मैं बैठता था. पटना विश्वविद्यालय के हिंदी प्राध्यापक प्रोफ़ेसर रामबुझावन बाबू पटना में मेरे स्थानीय अभिभावक थे. उन से इस  बात का पता हुआ  कि रजनी बाबू के बेटे और मेरे मित्र अरुण जी (अब दिवंगत) का विवाह रेणुजी की बेटी से होना तय हुआ है. यह अंतरजातीय विवाह था. रजनी बाबू का परिवार उदार था और रेणु जी तो अपनी तरह के थे ही. मैं यदि भूल नहीं रहा हूँ तो यह विवाह 1975 की गर्मियों में हुआ था. क्योंकि मुझे स्मरण होता है उसके कुछ ही समय बाद देश में इमरजेंसी लग गई थी. 1975 की बरसात में ही पटना में भयावह बाढ़ आया था, जिसमें अधिकांश  पटना जलमग्न  हो गया  था. इस बाढ़ का आँखों देखा हाल रेणु जी ने दिनमान में धारावाहिक, कोई  तीन अंकों में लिखा था. 

रेणु जी उन दिनों बीमारी से लगातार जूझ रहे थे. बीमार होने, ठीक होने और पुनः बीमार होने की खबरें मिलती रहती थी. जब भी पटना में होते कॉफी हाउस जरूर आते. उनके इर्द-गिर्द एक परिमंडल बना होता. डॉ रामबचन राय प्रायः  उनके साथ होते थे. उनका रिक्शा उनके साथ होता था. यह उनकी लक्ज़री थी. जिस रिक्शे से आते, उसी से लौटते थे. जितने वक़्त तक कॉफी-घर में बैठते उनका रिक्शा बाहर खड़ा होता था. जाते वक़्त जेजे कार की दुकान से अगर की बत्तियां या साबुन-पेस्ट वगैरह की खरीदारी करते. उनकी अपनी आकर्षक धज थी. खूब सँवारे हुए बाल. सुनहले फ्रेम का चश्मा. इस्तरी किए हुए कपडे. कभी बहुत जोर से बोलते उन्हें नहीं सुना. कई बार मैं कह चुका हूँ कि उनकी तरह का आभिजात्य हिंदी साहित्य में यदि कोई दूसरा था तो वह अज्ञेय थे. जनवादी दौर में आभिजात्य को नकारात्मक अंदाज़ में देखने का प्रचलन था. इसलिए उन दिनों इन सब की साहित्यिक दुनिया में आलोचना होती थी. रेणु की भी पीठ पीछे खूब आलोचना होती थी. लेकिन रेणु का जो आभिजात्य थावह समाजवादी संस्कारों में पगा था. इसकी व्याख्या करना आसान नहीं होगा.  

इमरजेंसी में संभवतः स्वास्थ्य संबंधी कारणों से ही  उनकी गिरफ्तारी नहीं हुई थी. मुझे स्मरण होता है, इमरजेंसी लगने पर कुछ समय के लिए वह नेपाल भाग गए थे ,लेकिन जल्दी ही पटना लौट गए. क्योंकि  बाढ़ के समय वह पटना में जरूर थे. आपातकाल का आतंक और बाढ़ की विभीषिका शांत हुई, तब पटना का जनजीवन सामान्य हुआ. कॉफी हाउस खुल गया था और वहाँ बैठकियाँ शुरू हो गई थीं. रेणु जी प्रायः आते. उन दिनों की एक घटना  याद कर सकता हूँ. मैं अपना खाना खुद बनाता था. उन दिनों मेरा डेरा दलदली रोड के एक भुतहे मकान में था, जिसे लोग भगतिन-भवन कहते थे. गांधी मैदान के बिलकुल निकट का वह मकान रहस्यमय  दीखता था. उपन्यासकार मधुकर सिंह ने उसे आधार बना कर एक उपन्यास लिखा है. कुछ समय पहले हृषिकेश सुलभ के उपन्यास में भी उस भवन की अनायास चर्चा है. उसी भुतहे मकान की तीसरी मंजिल पर मैं रहता था. साथी लेखक आते रहते थे. एक रोज मैं हिंदी साहित्य सम्मेलन के पास वाली मंडी से सब्जी लेकर लौट रहा था, तब किसी ने नाम लेकर पुकारा. मुड़ा तब देखता हूँ, एक रिक्शा रुका है और उस पर रेणु जी बैठे हैं. मैंने उन्हें प्रणाम किया और सब्जी की पोटली छुपाने की कोशिश की. उन्होंने सहजता से कहा- ‘मुझे मालूम है आप खाना खुद बनाते हैं. कल प्रोफ़ेसर साहब (रामबुझावन बाबू) के साथ आप के डेरे पर गया था. आपका कमरा देख आया हूँ. आप सब्जी डेरे में रख कर कॉफी हाउस आइए.'

मैं शर्मिंदा हो रहा था. मेरे फटीचर डेरे पर रेणु जी आए. अच्छा ही हुआ मैं नहीं था. और रामबुझावन बाबू को भला उन्हें वहाँ ले जाने की क्या पडी थी. यही सब सोचते मैं डेरा लौटा और सब्जी रख कर फिर कॉफी हाउस पहुंचा, जो मेरे डेरे से बहुत दूर नहीं था. कॉफी हाउस में रेणु जी भीड़ से घिरे थे. मुझ से कोई बात नहीं हुई. जब वह चलने लगे तो हाथ से मुझे इशारा किया. मैं उनके साथ बाहर आया. वह यथेष्ट लम्बे थे और मैं काठी का लघुकाय. उन्होंने प्यार से मेरे कंधे पर अपने हाथ रखे और कहा- प्रोफ़ेसर साहब  से आपके बारे में बहुत कुछ जाना है. आप तो बौद्ध भी हैं. मनु-स्मृति पर आपकी पुस्तिका भी देख चुका हूँ. आप के डेरे पर फिर कभी आऊँगा.' जब भी वह मेरे डेरे की चर्चा करते मुझे पता नहीं क्यों ग्लानि होती. लेकिन दूसरा डेरा लेने की मेरी औकात नहीं थी. 

उस रोज के बाद से रेणु जी से कुछ सहज हुआ. उनसे एक भय भी बना रहता था. कई दफा उन्हें कॉफी हाउस में देखा और मैं दरवाजे से ही लौट आया. मुझे अनुमान होता था वह यही सोचेंगे कि बूढ़ों के बीच यह क्यों बैठता है. इसे तो अपनी पढाई-लिखाई पर ध्यान देना है. उन्ही दिनों कथाकार मधुकर सिंह ने समान्तर लेखकों का एक सम्मलेन राजगीर में आयोजित किया था. संयोजन में मेरी भी सहायक की मौन अथवा गौण भूमिका थी. यह सम्मेलन 1975 के दिसम्बर में हुआ था. उन दिनों 'सारिका' कहानी की प्रमुख पत्रिका थी, जिसे बेनेट कोलमेन कम्पनी मुंबई से निकालती थी. बाद में इसका दफ्तर दिल्ली चला आया था. उन दिनों कमलेश्वर उसके संपादक थे और समान्तर कहानी आंदोलन उन्ही की देन था.

राजगीर का सम्मेलन तो शानदार ढंग से संपन्न हुआ, लेकिन लौटते में, उसमें शामिल अधिकांश लेखकों को लिए-दिए कमलेश्वर जी पटना के फासीवाद  विरोधी सम्मेलन में घुस गए. फासीवाद विरोधी यह सम्मेलन इंदिरा गांधी के समर्थन में था. मैं इमरजेंसी के विरुद्ध था और इसी आधार पर मैंने सीपीआई की सदस्यता से इस्तीफा किया था. इसलिए मैं तो उस सम्मलेन में नहीं गया, लेकिन मधुकर सिंह ने उत्साह से हिस्सा लिया था. मधुकर सिंह ने जयप्रकाश आंदोलन में भी एक समय हिस्सा लिया था और रेणु जी के साथ धरना पर बैठे थे. फासीवाद विरोधी सम्मेलन के कुछ ही रोज बाद कॉफी हाउस में रेणु जी से मधुकर जी की मुलाकात हुई. रेणु जी अपने अंदाज़ में थे. उनके हाथ में चारमीनार सिगरेट की पैकेट थी. सिगरेट  मधुकर सिंह की तरफ बढ़ाते हुए हुए उन्होंने अत्यंत भोले अंदाज़ में पूछा- मधुकर, फासिस्ट की सिगरेट लोगे?  वातावरण में अचानक एक अजीब-सा  सन्नाटा फ़ैल गया. 


पूरे इमरजेंसी के दौर में रेणु जी  बार-बार बीमार पड़ते रहे. पेप्टिक अल्सर की बीमारी बढ़ती ही जा रही थी, जब देश में चुनावों की घोषणा हुई, तब वह उत्साहित हो गए. उस वक़्त भी वह पटना मेडिकल अस्पताल में भर्ती थे. राजेंद्र सर्जिकल के जनरल वार्ड में एक कोने में उनका बिस्तर लगा हुआ था. जहाँ बैठने के लिए दो मोढ़े होते थे. उनसे कई बार कहा गया कि कॉटेज में आ जाएं. उनका तर्क था मैं तो जनता का आदमी हूँ, उसी का लेखक. मैं किसी विशेष का दावा नहीं करता. मैं अपनी जनता के साथ ठीक हूँ. उसी जनरल वार्ड में अज्ञेय जी चुनावी अपील पर उनके  दस्तखत लेने आए. हर समय वहाँ लेखकों का जमावड़ा लगा रहता. उन दिनों मैं नित्य प्रति दिन उनके पास जाता रहा. एक तरह से कहूँ तो असली रेणु को मैंने उस अस्पताल में ही जाना.

एक रोज गया तब देखा उनके हाथ में एक पतली-सी बंगला पत्रिका है. बिस्तर पर तकिए से लग कर वह उसे पढ़ रहे थे. मैंने प्रणाम किए तो बैठने का संकेत कर वह पढ़ते रहे. फिर आहिस्ता से पत्रिका रखते हुए पूछा- बंगला जानते हैं ? मैंने नहीं कहा, तब वह बंगला की विशेषताओं पर कुछ समय तक बोलते रहे. जब बात ख़त्म हुई तब कहा- रामकिंकर  बैज पर यह अंक है. आपने इनके बारे में कुछ जाना है? मेरे फिर नहीं कहने पर वह प्यार से बोले- ऐसे कैसे काम चलेगा. आप को बहुत कुछ जानना होगा. कितने घंटे रोज पढ़ते हैं ? फिर थोड़ा विराम दे कर वह रामकिंकर बैज के बारे में बताने लगे. किस तरह रवि बाबू ने उनकी खोज की. कैसे वह शिल्पकार बने. रिज़र्व बैंक के दिल्ली कार्यालय के आगे यक्षणी  की मूर्तियां उनकी ही बनाई हुई हैं. उसकी कथा भी विस्तार से उन्होंने सुनाई.

एक रोज दो माँओं की कथा सुनाई. दोनों अपने -अपने बच्चों के साथ आई थी. एक का बच्चा सीरियस था. डाक्टरों को उसके बचने की कम ही उम्मीद थी. लेकिन उसकी माँ दो रोज तक बिलकुल नहीं सोई. बच्चे के पास बनी रही. नींद आती तब अपनी पपनियाँ तोड़ती, लेकिन सोती नहीं. चुपचाप अहर्निश सेवा का नतीजा हुआ कि उसका बच्चा ठीक हो गया. दूसरी माँ ढीठ और झगड़ालू किस्म की थी. उसका बच्चा रोता तो वह डाँटती- तुम्हीं नहीं हो एक. और भी बच्चे हैं मेरे. ठीक से रह, नहीं तो छोड़ के चली जाऊँगी. फटकार सुन कर  बच्चा चुप लगा जाता. एक रोज बच्चा मर गया.

तो इस तरह वह अस्पताल में भी सब कुछ पर अपनी नजर रखते थे. हर रोज उन्हें सुनाने के लिए कुछ न कुछ होता था. और नहीं तो प्रेमियों की कहानी ही. कोई प्रेमी जोड़ा एक-एक कर उनसे मिलने आता. लड़की पहले आती तो रेणु जी से लड़के के बारे में पूछती कि वह आए थे. यदि लड़का पहले आता तो लड़की के बारे में पूछता. फिर दूसरे के आने का इन्तजार होता और जब दोनों आ जाते तब लोग साथ निकल जाते.  रेणु जी आजिज आ गए थे. एक रोज, जैसा कि उन्होंने ही बताया, उन दोनों से कहा- आप लोगों ने मुझे पोस्ट ऑफिस समझ लिया है क्या ?

मनोभावों को समझने की उनके पास गजब की क्षमता थी. किस्सा वह लिखना ही नहीं, कहना भी जानते थे. किस्सा कहते हुए यदि कोई गीत का प्रसंग है तो वह गा कर सुनाते थे. उनके पास बहुत ही सुन्दर कंठ था. उनके सुनाने का अपना ही अंदाज़ था. कहने के लिए, सुनाने के लिए उनके पास बहुत कुछ था. वह समृद्ध मेधा के विरल इंसान थे. उन्होंने विस्तार के साथ लतिकाजी से अपने प्रेम-प्रसंग  की चर्चा की. कुछ लजाते हुए बोले- वह जब मेरा खाना लेकर घर से निकलती थीं, तब लोग अपनी घड़ी मिलाते थे. नौ बजे उनका समय था. ठीक नौ बजे.' अपनी बात ख़तम करते उनकी आँखें थोड़ी फैलतीं और फिर उनके चेहरे पर लाज की एक परत पसर जाती. आँखों पर किंचित आँसुओं का पर्दा भी.

(अज्ञेय,रामवचन राय और रेणु)

ओह! कितनी कहानियां हैं. सब एक दूसरे में ऐसी उलझ गई हैं कि सुलझा कर उन्हें निकालना मुश्किल हो रहा है. बीमारी के बीच लोकसभा चुनाव हुआ तो चुनावों को लेकर वैसी ही चिंता. इंडियन एक्सप्रेस उन्हें रोज चाहिए होता था. ऑपरेशन की तारीख  बार-बार टालते जा  रहे थे. आखिर में चौबीस मार्च को रिजल्ट आया. इंदिरा गांधी चुनाव हार गई थी. बस अगले ही रोज वह ऑपरेशन के लिए भर्ती हो गए. अब किस बात का इन्तजार. प्रसिद्ध डॉक्टर शाही जी ने उनका ऑपेरशन किया. लेकिन बेहोश करने के लिए जो एंथिसिया दिया गया, उसमें कुछ गलती हुई. उन्हें होश नहीं आया. हम लोग कक्ष के बाहर रात-दिन इन्तजार करते रहे. कई दिन, कई रात गुजर गए तो जी घबराने लगा. अंत में प्रार्थनाएं शेष रह गईं. दिल्ली-मुंबई से डॉक्टर आए. लेकिन देर  हो चुकी थी. 11 अप्रैल की भोर में रामबुझावन बाबू मेरे भगतिन भवन वाले डेरे में आए. मुझे सोते हुए से जगाया- रेणुजी नहीं रहे. हिंदी साहित्य सम्मेलन में उनका पार्थिव  शरीर है. जल्दी चलो. मैं आगे बढ़ता हूँ. 

देह पर कपडे डाल कर मैं अपने साथी तरुण चौहान के साथ तेजी से सम्मेलन भवन पहुंचा, तब अर्थी वहाँ से उठ चुकी थी. तेजी से बाँस-घाट की तरफ चला तब गाँधी-मैदान के कोने पर ही अर्थी मिल गई. कुल जमा सात आदमी. चार कन्धा दिए हुए और तीन पीछे. जिसमें एक उनकी पत्नी लतिका जी भी थीं. हमलोग जुड़े तब संख्या नौ हो गई. घाट पहुँचते-पहुँचते कुछ और लोग जुट गए. फिर भी बड़ी संख्या नहीं थी. रामबचन राय, रिपुदमन सिंह वगैरह थे.

सुबह के आठ बजे, तो रिपुदमन सिंह ने याद दिलाया कि समाचार सुनना चाहिए. घाट के ठीक सामने एक गुमटी पर रेडियो से समाचार प्रसारित हो रहा था. हमलोग रुक गए. देवकीनंदन पांडे समाचार सुना रहे थे. प्रख्यात लेखक फणीश्वरनाथ रेणु का निधन हो गया. जसलोक अस्पताल से जयप्रकाश जी, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि के शोक सन्देश प्रसारित हो रहे थे. कुछ ही गज की दूरी पर कुछ लोगों के बीच वह प्रख्यात लेखक चिरनिद्रा में निमग्न था. लतिकाजी को लाश बासी होने की चिन्ता सता रही थी. वह जल्दी से जल्दी अंत्येष्टि पर जोर दे रही थीं.

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प्रेमकुमार मणि
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  1. फणीश्वरनाथ रेणु में जो भाषा की रवानगी है, वही रवानगी प्रेमकुमार मणि की भी भाषा में है. मैं जब भी उनका लिखा पढ़ा तो पूर्णविराम तक पहुँचे बिना ठहरा नहीं. काश आप रेणु जी की जीवनी लिखते. ऐसे तो रेणुजी पर हिंदी भाषा के कई dribbler काम कर ही रहे हैं.... बेहतरीन संस्मरण....

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  2. दया शंकर शरण4 मार्च 2021, 11:26:00 am

    रेणु जी को बहुत आत्मीयता से याद किया है प्रेम जी ने। उन्हें बधाई ! दरअसल,लेखक जितना बड़ा होता है,उसके भीतर की मनुष्यता भी उतनी हीं बड़ी होती है। रेणु जैसे सहृदय लेखक इस संसार में बहुत कम हुए।उनका साहित्यिक विवेक उनकी सामाजिक चेतना और संवेदना से निर्मित था। कभी-कभी विचारधाराएँ भी छोटी पड़ जाती हैं या बौनी दीखती हैं किसी के आगे।रेणु उनमें से एक थे।

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  3. प्रो. रवि रंजन4 मार्च 2021, 7:11:00 pm

    इस संस्मरण के माध्यम से रेणु जी के व्यक्तित्व के अनजाने पहलुओं को सामने लाने के लिए माणि जी को साधुवाद और इसे प्रकाशित करने हेतु अरुण जी को धन्यवाद।

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  4. मणि जी के पास अपने समय का एक जीवंत इतिहास है।रेणु जी को बड़ी आत्मीयता से याद किया है पर मेरे लिए यह एकदम चौंकाने वाली बात है कि जिस एक्टिविस्ट लेखक को आज लोग इतने सम्मान से याद कर रहे हैं उनकी अर्थी के साथ उनके अपने पटना शहर में सिर्फ चार जमा तीन लोग(जिसमें एक लतिका जी थीं) थे।
    - यादवेंद्र

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  5. मुझे सबसे ज्यादा अफसोस इस बात का हुआ कि उन दिनों मेडिकल साइंस इतना पिछड़ा हुआ था कि एक व्यक्ति को एनेस्थीसिया देने में ऐसी गड़बड़ हुई कि वह फिर होश में ही नहीं आ सका ? चिकित्सकों के लिए वह सिर्फ एक मरीज था लेकिन दुनिया के लिए एक बहुत बड़ा लेखक साहित्यकार और इस देश की सांस्कृतिक गाथा का चित्रण करने वाला एक चितेरा। बहुत विस्तार से प्रेम कुमार मणि जी ने रेणु जी के व्यक्तित्व पर यहां प्रकाश डाला है रचनाओं पर तो रेणू जी की बहुत बात होती ही है लेकिन एक लेखक की रचना प्रक्रिया को जानने के लिए उसके व्यक्तित्व को जानना बहुत जरूरी होता है और व्यक्तित्व जो है वह केवल बाहरी आवरण नहीं होता वह उसके मन का प्रतिबिंब होता है फिर भी काफी हद तक मणि जी ने उनके बारे में लिखने की कोशिश की है। समालोचन के प्रति बहुत बहुत आभार।

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