वरिष्ठ कथाकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ ने २५ अप्रैल २०२० को अपना ७५ वां जन्म दिन मनाते हुए यह सोचा कि क्यों न एक ऐसा वृत्तांत रचा जाए जो जितनी आपबीती हो उतनी ही जगबीती भी, जिसमें आत्म हो और अन्य भी. यह सिर्फ कथा न हो बल्कि जहाँ से ये कथाएं पुष्पित-पल्लवित हो रही हैं वहां की सभ्यता-संस्कृति, आबो-हवा की पड़ताल और बानगी भी उसमें हो.
‘हम तीन थोकदार’
में धीरे-धीरे थोकदार बढ़ने लगे,
थोकदार यहाँ जातिबोध से बाहर निकलकर क्षेत्र की प्रवृत्ति और पहचान की तरह उभरे
हैं. साहित्य, इतिहास, मिथक, पुरातत्व से
भरे पूरे इस वृत्तांत को पढ़ना दिलचस्प और अर्थगर्भित तो है ही यह हिंदी में
उपलब्धि की तरह है.
समालोचन में
इसका प्रकाशन मई २०2० से प्रारम्भ हुआ था. लेखक और संपादक ने लगभग सभी हिस्सों पर
आपसी-बातचीत की, पाठकों के पत्रों और सुझाव आते रहे. इस तरह इसका एक रूप बनता गया,
जो इस समापन क़िस्त के साथ आज यहाँ सम्पूर्ण हुआ है. यह समालोचन के लिए भी संतोष का
विषय है.
यह क़िताब के रूप में भी प्रकाशित हो रही है.
इसका समापन
हिस्सा प्रस्तुत है.
समापन क़िस्तहम तीन थोकदार
(बारह)
और अंत में
जोगी करमी नाथ का
किस्सा जो थोकदार नहीं बन सका
बटरोही
‘थोकदार’ -फोविया में से जन्मा एक मध्यवर्गीय पहाड़ी
वर्ष 2020 में
जब मैंने उम्र के पचहत्तरवें पायदान में कदम रक्खा था, तीन थोकदारों का यह किस्सा उन्हीं
दिनों शुरू हुआ था, यह जानने के लिए कि तीन चौथाई सदी की इस यात्रा ने मुझे किस
मुकाम तक पहुँचाया. इस बीच जिन्दगी के 75
साल बीत गए.
एक पिछड़े गाँव
के खाते-पीते घर में पैदा हुए लड़के की जो उपलब्धियां होनी चाहिए थीं, पीछे लौटकर
देखता हूँ तो एक अलग किस्म का असंतोष अपने आगे बिखरा पाता हूँ. जिस पहाड़ी किसान के
घर पर जन्म लिया था, वहां स्मृतियों के नाम पर दूर-दूर तक फैले क्षितिज तक फैली
प्रकृति की अवर्णनीय सुगंध और देवताओं का स्वप्निल साम्राज्य फैला था. हर चीज इतनी
अव्याख्येय थी कि परिवेश के छोटे-से टुकड़े को भी
अस्तित्व में समेट पाना संभव नहीं था. सुन्दर वनस्पतियाँ और प्रकृति के
अनेक रूप थे... विराट आकाश और उसके प्रतिबिम्ब की तरह उसी आकार में फैली चेतनाशील धरती;
ठहरे हुए शोर को आर-से-पार तक बहा ले जाती नदियाँ, लबालब सुगंध के बीच डूबे
रंग-विरंगे पुष्प और पूर्वी-पश्चिमी क्षितिजों के बीच हर रोज तयशुदा वक़्त पर
लुका-छिपी करते सूरज, चाँद और नक्षत्र गण... न जाने कौन उन्हें हमारे बीच भेजता था और कौन
बिना चेतावनी दिए उठा ले जाता था. इसी के बीच जागरण और निद्रा और अनन्य सपनों के
साथ अठखेलियाँ करता विकसित होता प्यारा बचपन.
मैं नहीं जानता
कि खुद की सांसों के साथ बनता-बिगड़ता वह परिवेश अच्छा था या बुरा? वह मेरे
अस्तित्व की शर्त थी इसलिए मैंने उनके बारे में अलग से कुछ सोचा ही नहीं. जैसा कि
उम्र के बीतते लमहों के साथ होता रहा है, आदमी सोचता कुछ है, हो कुछ और जाता है, जिन्दगी
के साथ कदम-ताल करती अनुभूतियों, गंध और स्पर्शों को मैं शब्दों का आकार देकर अपने
लिए भाषा रचता रहा. विरासत में मुझे जो शब्द और प्रसंग मिले उन्हें अपनी भाषा के
साथ पिरोता हुआ अपनी दुनिया रचता चला गया. शब्द और घटनाओं के जरिये एक बार फिर से उन्हें
रचने की कोशिश... मुझे नहीं मालूम कि इस कोशिश में मैं कितना कामयाब हुआ. कामयाबी
और नाकामयाबी के तराजू पर तो मैंने उसे कभी नहीं तौला. इस तरह की तुलना की ओर
ध्यान जाता ही कहाँ है!
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इतने सालों के
बाद जाने कैसे इस जिज्ञासा ने जन्म लिया कि जिन्दगी की भागमभाग का कुल हासिल क्या
प्राप्त हुआ, क्या खोया और क्या पाया? इस मुकाम पर पहुँचकर दरअसल खोने और पाने
वाले सारे गुणा-भाग कितने अर्थहीन लगने लगते हैं? जैसे कि हम रंगमंच पर अभिनय करते
हुए जबरदस्ती थमा दी गई पाण्डुलिपि के संवाद रट रहे हों और हैरान होकर अपनी ही
भूमिका के साथ लुका-छिपी का खेल रच रहे हों. पूरी भागमभाग में जिसे हम हासिल समझ
रहे होते हैं, वह छायाभास निकलता है और सारा जोड़-घटाना आपस में गड्ड-मड्ड होकर एक
उदास संगीतमय अहसास में बदल जाता है.
घटना १९५६ की गर्मियों की है जब मैंने पहली बार शहर देखा था. नौ-दस साल की उम्र थी, उस दिन मुझे जो अनुभूति हुई थी, विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि वह फिर कभी महसूस नहीं हुई. गाँव से पहली बार निकला था और जिस नयी धरती पर मैंने पाँव रखे थे, वह दृश्य मेरे लिए अकल्पनीय था. अविस्मरणीय भी. मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसी धरती और उसमें चहलकदमी कर रहे लोग, साफ-सुथरी सड़कें और उनके किनारे रात के अंधियारे में भी चमचमाते बिजली के लट्टू हमारी ही दुनिया के हिस्से हैं. उसे मैं अपनी भाषा में बखान नहीं कर सकता था. अगर मुझे उस वक़्त किसी जादुई चमत्कार की जानकारी होती तो निश्चय ही मैं उसके साथ इसकी तुलना कर सकता था! बाद के जीवन में मैंने उससे कहीं अधिक चमत्कृत करने वाली जगहें देखीं, एक-से-एक विस्मयकारी, जिन्हें अनुभवी लोग ब्रह्माण्ड के आश्चर्यों में गिनते थे... मगर इस अनुभूति की तुलना के लिए मेरे पास कोई विशेषण नहीं था.
बाद के दिनों में जब मैं नयी दुनिया का हिस्सा बना, अपने उसी परिवेश के अंतर्विरोधों से घिरता चला गया और मुझे अपनी ही धरती के खलनायक की तरह पेश किया जाने लगा. उस उम्र में चीजों को विश्लेषित कर सकने का विवेक तो होता नहीं, हर नयी चीज को स्वीकार करते चले जाना होता है और उन्हीं में से हम अपने नायक चुनने लगते हैं. अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं उस दिन के अपने हुलिए का वर्णन कर देना चाहता हूँ.
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जिस बात का
जिक्र करने जा रहा हूँ उस वक़्त मेरी उम्र करीब पांच साल थी. गाँव के स्कूल में
दूसरे दर्जे में पढ़ रहा था. माँ नहीं रही थी और मैं अजीब से अवसाद की गिरफ्त में
था. पिताजी के मन में मुझे लेकर अनेक सवाल उठने लगे थे, जिनमें से सबसे बड़ी समस्या
थी मेरे भविष्य की. वो मुझे पढ़ाना चाहते थे, मगर गाँव में ऐसी कोई सुविधा नहीं थी.
पिताजी ने ही गाँव में एक मिडिल स्कूल खोला था, जिसके शुरुआती बैच के छात्रों में
से एक मैं भी था. तब मेरी उम्र दस साल थी. शिक्षक जुड़ नहीं पाए थे, प्राइमरी के
एकमात्र अध्यापक ज्वाला दत्त जी ही हमें छठी कक्षा का कोर्स पूरा करवा रहे थे.
पिताजी गाँव-इलाके के संभ्रांत थोकदार थे, किसी भी तरह की समस्या आ जाने पर उनका
निर्णय अंतिम होता था, जाहिर है कि बिना साधनों और शैक्षिक शर्तों को पूरा किये
इलाके के लोगों ने उन्हें समर्थन दे दिया था और मिडिल की कक्षाएं शुरू हो गईं.
दूसरा मिडिल स्कूल गाँव से करीब पंद्रह किलोमीटर के उतार-चढ़ाव भरे पहाड़ी रास्ते के
बाद सामने की चोटी पर था. इलाके के कुछ लड़के वहां किराये पर कमरा लेकर पढ़ भी रहे
थे, मगर पिताजी की मुझे वहां कमरा लेकर पढ़ाने की हिम्मत नहीं हुई. मैं खुद भी अपने
में ऐसी कूबत नहीं महसूस करता था कि अकेले सारी व्यवस्था कर सकूं. अंततः पिताजी को
सबसे सुरक्षित रास्ता यही समझ में आया कि मुझे आगे की पढाई के लिए बुआ के पास नैनीताल
भेज दें. बुआ कम उम्र की विधवा थीं, जिनकी अपनी कोई संतान नहीं थी. पिताजी ने शायद
सोचा होगा कि मैं बुआ का सहारा बन कर उनका अकेलापन दूर कर सकूँगा. शायद पिताजी का
सोच ठीक ही रहा होगा, मगर इस पूरे प्रकरण में न मेरी राय ली गई और न बुआ की. गाँव
से नैनीताल तक का रास्ता दो दिनों में तय करना होता था, पहले दिन तीस किमी का पैदल
रास्ता; रात को अल्मोड़ा में विश्राम और दूसरे दिन बस से साठ किमी की यात्रा.
जिस प्रसंग का
मैं यहाँ जिक्र कर रहा हूँ, वह पहले दिन की छानागाँव-अल्मोड़ा की पैदल यात्रा से
जुड़ा था. कल्पना की जा सकती है कि उस दिन मैं कितना उत्साहित और उमंगित रहा हूंगा.
एक अपरिचित जगह की यात्रा जहाँ लोगों के बीच पता नहीं किन शर्तों पर मुझे अपने लिए
ठौर बनानी थी. बुआ जी को मैंने गाँव में पहले देखा नहीं था, इसलिए उन्हें लेकर
किसी तरह की धारणा बनाने का प्रश्न नहीं था. मुझे सिर्फ इतनी याद है कि गाँव से
निकलने के दो दिन के बाद जब हम दूसरे दिन नैनीताल पहुंचे थे, रात को खाना खाने के
बाद पिताजी और बुआजी के बीच संक्षिप्त बातचीत हुई थी जिसमें पिताजी ने लगभग आदेश
के लहजे में बताया था कि भविष्य में मैं उन्हीं के साथ रहूँगा. बुआ के द्वारा कुछ
संकोच करने के बाद पिताजी ने फिर से कहा कि मैं उन पर किसी किस्म का बोझ नहीं
बनूँगा. घर के कामों में उनका हाथ बंटा दूंगा और इतनी मदद तो मैं कर ही दूंगा कि
वह मेरे स्कूल की फीस दे सकें. मुझे किसी तरह की दिक्कतों या औपचारिकताओं से मतलब
नहीं था, मुझे तो उन दोनों के आदेशों का पालन करना था.
अल्मोड़ा शहर की
जड़ पर एक छोटी नदी बहती थी- बिसनाथ– जिसके एक ओर के शिखर को ‘पौधार’ कहा जाता था
और दूसरी को अल्मोड़ा. लम्बी पीठ वाले किसी चौपाये की तरह अल्मोड़ा आर-से-पार तक
फैला हुआ था जिसके दोनों ओर हरी लाल टिन की छतों वाले सुन्दर मकान और विशालकाय
शंकुधारी पेड़ खड़े थे. मेरे लिए वह रहस्यमय लोक से कम नहीं था.
मेरी पोशाक अल्मोड़ा
के शहरी लड़कों से अलग थी. मोटे कपड़े की कमीज और पजामा जिसके ऊपर ऊनी थुलमे से बना भद्दा-सा
कोट था जो मेरे कन्धों पर थुलथुल लटका हुआ था. गाँव से पहली बार शहर के लिए निकला
था इसलिए माथे पर माथे पर लम्बा केसरिया तिलक और उसके बीच में अक्षत के चावलों का
गुच्छा माथे को और ज्यादा बदसूरत बना रहा था. सिर पर मोटे कपड़े की गाँधी टोपी थी
जिसके नीचे मोटी चुटिया का कोना झांक रहा था. अल्मोड़ा शहर की सीमा से कुछ ही दूर
पहुंचे होंगे कि देखा, मेरी टोपी एक पेड़ की शाखा पर बैठे हमउम्र लड़के के हाथ में लटकी
हुई लहरा रही है. सिर पर हाथ लगाकर टटोला, टोपी नहीं थी. ऊपर की ओर देखा, मेरे
दो-तीन हम उम्र लड़के एक रस्सी से टोपी को बांधे हवा में लहरा रहे थे. पेड़ के नीचे
उसी तरह के लड़के टोपी को कभी सड़क पर खड़े
अपने साथियों की ओर उछालते और फिर पेड़ की डाल पर बैठे लड़कों की ओर फैंककर मानो
हार-जीत का खेल कर रहे थे.
पेड़ पर चढ़े लड़के
बारी-बारी से तालियाँ पीटते हुए मेरी ओर इशारा करके चिल्लाते, आ गया पहाड़ी
कव्वा... कव्वा पहाड़ी... और जमीन पर खड़े लड़के पिताजी की ओर हाथ जोड़े पुकारते, पैलाग
थोकदार ज्यू, स्वागत है आपका हमारी नगरी में... मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि लड़के
मेरा स्वागत कर रहे हैं या मजाक उड़ा रहे हैं. हम दोनों नजरें झुकाए चुपचाप चले जा
रहे थे मगर वो लड़के टोपी दिखाकर हमें सौंपने के लिए ललचा रहे थे. वो ऐसी भाषा बोल
रहे थे जो थी तो मेरी ही बोली की तरह, लेकिन उससे दुर्गन्ध फूट रही थी.
शहरी जीवन के
साथ यह मेरा पहला विमर्श था जिसने मुझे एक ही झटके में अपनी जड़ों से काटकर अलग
करते हुए मुझमें जबरदस्त हीनता ग्रंथि भर
दी. अपने गाँव से काटकर मैं गाँव और शहर के बीच त्रिशंकु सा लटक गया था.
ठीक इसी तरह की
हीनता मेरे मन में तब उत्पन्न हुई जब अंग्रेजी के आतंक में पगे नैनीताल के लड़कों
के साथ मेरा संवाद हुआ. वह भाषा मेरे लिए कतई अपरिचित थी और उस भाषा से भी वैसी ही
दुर्गन्ध फूट रही थी जैसी अल्मोडिया लड़कों की हिंदी से. अल्मोड़ा ने मेरी पहाड़ी
भाषा का अपहरण कर लिया था, नैनीताल ने मेरी हिंदी का. शायद तभी से मेरे मन में
अपनी जाति थोकदार और अपनी भाषा पहाड़ी के प्रति हीनता की भावना घर करती चली गई और
मैं तेजी से भारतीय बनता चला गया.
टिकर गाड़ का जोगी करमी नाथ/ गाँव का किस्सा
मूल नाम करम
सिंह से बदलता हुआ पहले वह करमिया कहलाया, उसके बाद टिकर गाड़ के श्मशान घाट में
मुर्दों का संस्कार करने वाला जोगी बन गया. उसे किसी ने नाथ-पंथ की दीक्षा नहीं
दी, जाने कब से उसे ‘जोगी’ की जगह ‘नाथ’ कहा जाने लगा. बचपन में उसे इन शब्दों के
अर्थ भी मालूम नहीं थे. टिकर गाड़ के पश्चिमी बुर्ज पर दसेक परिवारों का गाँव था
उसका, टिकर, जहाँ गाँव के लोगों के अनुसार बीस-पच्चीस पुश्त पहले उसका पुरखा भीम
सिंह उसकी लकड़दादी के साथ आया था, और उसके देखते-देखते ही इतना बड़ा गाँव बस गया था.
अपने पुरखों की कोई यादगार स्मृति उसके मन में नहीं है, अलबत्ता जब भी वह कुछ याद
करने की कोशिश करता, उसकी यादें राजपूत और जोगी चेहरों के बीच झूलती रहती थीं. उसे
मालूम था कि गाँव के दूसरे लोगों की तरह उसकी जाति राजपूत थी, हालाँकि वह उस उम्र
में दूसरी जातियों से राजपूतों के फर्क के बारे में कुछ भी नहीं जानता था, या उतना
ही जानता था, जितना जोगियों के बारे में. इन दोनों का फर्क भी उसे मालूम नहीं था.
अब जरूर मालूम है, मगर उस छुटपन में नहीं था, जब उसे अपनी जाति राजपूत से बदलकर
नाथ बनानी पड़ी थी. किसी ने ऐसा करने के लिए उसे मजबूर नहीं किया था, बल्कि किसी एक
को छोड़ने, बदलने या अपनाने के बारे में भी उसने कुछ नहीं सोचा था. मानो सब कुछ
खुद-ब-खुद होता चला गया था.
उसकी बातों से
लगता था, बचपन के दिनों में वो अतीत के बारे में कुछ भी जानना नहीं चाहता था, कोई
भी बच्चा नहीं जानता, सबकी तरह वह भी हमेशा अपने वर्तमान के बारे में सोचता था. अब
इलाके में उसकी चर्चा एक सदाशयी अधेड़ के रूप में होती थी, एक परोपकारी जोगी; और
अपनी चर्चा के बारे में उसके मन में ख़ुशी पैदा होती हो, ऐसा भी नहीं था. इन दिनों
गाँव-इलाके के लोग कहने लगे थे कि, जिसका कोई नहीं, उसका पुछियारा जोगी करमी नाथ;
उसकी यह हैसियत कैसे बनी, इस बारे में भी वह सावधान नहीं था. इसीलिए लोगों को
ताज्जुब होता था कि दुनिया-जहान की खबर रखने वाले इस भले मानस को अपने पुरखों और
बिरादरी की खबर नहीं है. शायद इसीलिए लोगों के मन में जिज्ञासा उठनी स्वाभाविक थी
कि ऐसा वो पहले से ही था या किसी खास वजह से आज के दिन ऐसा बना?
उसके टिकर गाँव के घर में और नदी किनारे वाले कमरे में जमीन-आसमान का फर्क
था. गाँव में बहुत ज्यादा तो नहीं, तीन-चार बाखलियों में आठ-दस पक्के मकान जरूर
थे. मगर बाकी घरों की हालत भी ऐसी नहीं थी कि उन्हें खंडहर बनने के लिए छोड़ दिया
जाए जैसी कि आजकल के मकानों की हालत हो गई
थी. और टिकर के घर में अकेला करमियाँ ही तो नहीं था, दूसरे अनेक भाई-बहिन रहते थे,
गाय-भैंसें, बकरियां ही नहीं,दूसरे जानवर भी रहते थे जिन्हें शरण की जरूरत थी. वह
घर छोड़कर जोगी नहीं भी बनता तो बाकी लोगों को तो इसी घर में रहना था, जैसे कि वह घर
छोड़ने के दिन से नदी किनारे के इस सीलन भरे कमरे में रह रहा था. वैसे, आज के दिन
करमियाँ के लिए क्या घर, क्या बेघर. जिस दिन उसने टिकर का घर छोड़ा, उसने घर के
बारे में सोचना छोड़ दिया था. उसका सारा समय मुर्दों, गाड़ के बहते पानी, घी, कपूर,
जलती मानुस-गंध, जोगी-भस्म और खुद के, मुर्दों के परिजनों के नदी से आर और पार
आने-जाने में बीतने लगा. उसे खुद भी याद नहीं है कि इस आवागमन में कब उसकी नज़र देह
से हटकर आत्मा में थमने लगी थी. पहले तो वह आत्मा के बारे में कुछ भी नहीं जानता
था.
एक दिन करमियाँ आधी रात को टिकर के उस खेत पर पहुँच गया, जहाँ उसका बचपन
बीता था. यह सब अचानक हुआ, उसी तरह जैसे वह अचानक राजपूत से नाथ बन गया था.
उन दिनों टिकर गाड़ के तुन और क्वेराल के जुड़वां पेड़ करमियाँ को बहुत प्रिय
थे. तब वह बच्चा ही था हालाँकि इतना जानता था, दोनों ही अलग-अलग जातियों के पेड़
थे. करमियाँ को वो जुड़वां भाई लगते थे. दोनों ही पेड़ नदी से सटे उस समतल खेत के
किनारे खड़े थे जिनका आकार बरसात के पानी से बदलता रहता था. खेत भले बदलते हों, पेड़
नहीं बदलते. गाँव से नदी की दूरी दो किलोमीटर से कम नहीं थी, लेकिन वह दूरी उसे एक
छलांग की तरह लगती थी. इसीलिए वह दिन में एक बार गाँव से नदी तक और नदी से गाँव तक
लगभग भागते हुए चला जाता था. बौज्यू ने शायद उसके इसी शौक को देखते हुए दोपहर के
वक़्त उसे दोनों भैंसों को नदी से पानी पिलाने का काम सौंप दिया था. वह भैंसों को
पानी पिलाने के बदले खुद भी दूर-दूर तक खेतों-घाटियों तक घूम आता था. उस दौरान वह
घाटी में खड़े उन अनेक पेड़ों का साक्षी रहा था जो उसके सामने ही किशोर और जवान हुए
थे. अलबत्ता तुन और क्वेराल के दोनों पेड़ उसके बचपन से लेकर आज तक वैसे ही थे,
जैसे उसने पहली बार देखे थे.
गाँव के दक्षिण-पूर्वी छोर पर जो नौला उसने अपने होश सम्हालने के साथ ही
देखा था, रोज की तरह सूरज की पहली किरण के साथ जागता और अस्त होता था. इसी के
समानांतर गाँव वालों की इच्छाएं और दिनचर्या का भी जन्म होता था. गाँव के
इर्द-गिर्द दूसरे भी अनेक जल-स्रोत बिखरे पड़े थे, जिन्हें लोगों ने अपनी
कल्पनाशीलता और मेहनत से सजा-संवार दिया था. नौले के गिर्द अनेक, और घाटी में दूर
तक अनेक छोटे-बड़े पेड़ ऐसे फैले हुए थे मानो उन्हें व्यवस्थित ढंग से रोपा गया हो, हालाँकि
वो खुद ही जन्म लेते रहे थे. उन्हें देखकर करमियाँ छुटपन से ही सोचता था कि गाँव
में रहने वाले लोगों के अलावा इन पहाड़ों और घाटियों के अन्दर भी कुछ लोग रहते हैं,
जो दिखाई तो नहीं देते, लेकिन खेतों-पहाड़ों को सजाने में दिन रात मेहनत करते रहते हैं.
गाँव के लगभग मध्य में बने देवालय में ऐसे स्त्री-पुरुष गाँव वालों को कभी-कभी
साक्षात् दिखाई देते थे जो उन्हें अपना आशीर्वाद देते, उनके कल्याण की कामना करते
थे.
सामने के उत्तरी शिखर पर जो देवी का मंदिर था, उसकी ख्याति दूर-दूर तक थी
और लोग हर मौसम के बदलने के बाद लम्बी चढ़ाइयाँ चढ़ते हुए वहां एकत्र होते थे; उत्सव
मनाते और रतजगा करते थे. दूसरी सुबह अपने पवित्र झंडों और वाद्य-यंत्रों के साथ वो
लोग अपने-अपने गाँवों की ओर लौट जाते. इन्हीं मेलों में वे लोग अपने खेतों में जो
फसलें उगाते थे, उन्हें सामूहिक रूप से देवी को अर्पित करते, उन्हें पशु-बलि भेंट
करते और भेंट के मांस को प्रसाद के रूप में आपस में बाँटकर अपनी खुशहाल जिन्दगी की
कामना करते.
कभी अगर बहुत दिनों से संचित कोई इच्छा पूरी हो जाती तो उसकी स्मृति में वह
औरत या मर्द अपने गाँव-जंगल के बीच खुद ही कोई छोटा-सा देवालय बना लेता. अनगढ़
पत्थर की दीवारों और पहाड़ से खोदकर निकाले गए सलेटी पत्थर की छतों से उन शिशु
देवालयों को वो लोग पूरे मन से घरोंदे की शक्ल देते. लोग उन्हें भी पूरे
श्रद्धा-भाव से पूजते. करमियाँ ने बहुत बचपन में ऐसा ही एक मंदिर बनाया था, जिसके
लिए वह छत का पत्थर लेने गाड़ किनारे की गेरू-गुफा तक गया था. लाल पत्थर की छत से
छाया गाड़ किनारे का वह शिशु देवालय गाँव-घाटी के हर कोने से दिखाई देता था. मंदिर
बनाने का यह सिलसिला कब शुरू हुआ था, उसे याद नहीं है मगर देवताओं के प्रति सम्मान
की भावना आज भी उसी तीव्रता से महसूस होती है.
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उन्हीं दिनों गाँव के लोगों ने सवाल उठाना शुरू किया था कि करमियाँ का
दिमाग कुछ और चाल खेल रहा है, उसके लक्षण थोकदारों के बच्चों जैसे नहीं हैं, उसकी
हरकत नदी किनारे मुर्दा पूजने वाले नाथ के जैसे लग रहे हैं. लोगों ने कहना शुरू
किया कि ये बार-बार घाट के मंदिर जाकर उसका पूजा-पाठ करना एक दिन उसके शरीर को भूत-प्रेत
का डेरा बना डालेगा. वह लोगों से कटा-कटा रहने लगा और अपना ज्यादातर वक़्त नदी
किनारे के एकांत में बिताने लगा. शुरू में श्मशान में उतारे गए शवों को वह हैरत से
निहारता था, धीरे-धीरे उनकी ओर देखते हुए खुद से बातें करता दिखाई देने लगा. सभी
लोग आश्चर्य व्यक्त करते कि खेत-नदी-पहाड़ के बीच दौड़ते रहने वाला करमियाँ पेड़ों और
जल-धाराओं के साथ न जाने क्या ऊल-जलूल बातचीत करता रहता है. मुश्किल से
सत्रह-अठारह साल का होगा, मगर साधु-महात्माओं की जैसी बातें करता रहता है.
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वह आषाढ़ की शुरुआत थी, पौधे-वनस्पतियाँ नए सिरे से अंकुरित हो रही थीं. करमियाँ
ने देखा, गाड़ किनारे खड़े विशाल क्वेराल के नीचे इस बार तुन के पौधे पैदा हो गए थे.
‘क्वेराल के नीचे तो क्वेराल ही होना चाहिए, तुन की जगह तो यह नहीं है’, वह मानो
खुद से बोला, ‘जैसे तुन के शरीर से क्वेराल पैदा नहीं हो सकता.’ उसे खुद ताज्जुब
हुआ कि वह कैसी अबूझ बातें सोच रहा है.
...जैसे यह गाड़ का पानी... करमियाँ बड़बड़ाया, ऊपर सेमल की जड़ से अलग हुआ
गधेरा अपने साथ जो पानी लेकर आता है, गाड़ का पानी वही तो होता नहीं. कदम-कदम पर सब
कुछ बदल जाता है, आदमी की जात भी तो ऐसी ही है!... हर कदम पर पानी बदलता है, ऐसे
ही उसकी जात कैसे एक रह सकती है?... थोकदारों की भी एक दिन यही गत होनी है! सभी
कुछ बदलना है तो थोकदारों को भी बदलना ही है.
बाज्यू जब चुप नहीं रह सके तो बरस पड़े करमियाँ पर.
“ये तेरा पूजा-पाठ कुछ काम नहीं आता थोकदारों के. आखिर में भैंस-बैलों और खेतों की रखवाली से ही पेट भरता है हमारा. हम लोगों के काम देह की ताकत आती है, दिमाग की ताकत नहीं. पता नहीं कहाँ ध्यान लगा रहता है तुम्हारा, सारी आन-औलादें ऐसे ही खेतों-जानवरों से मुंह मोड़ लेंगी तो भूखे मरोगे एक दिन.”
करमियाँ चुप नहीं रह सका.
“वो गाड़-गधेरों के देवी-देवता भी तो हमारी ही रखवाली करते हैं. हमको उनका भी तो ध्यान रखना ही ठहरा. नीचे टिकर गाड़ में जब तुम पुरखों को जलाकर अकेला छोड़ आते हो, उनकी रखवाली के लिए नहीं चाहिए क्या कोई!...”
“जलाने के बाद पुरखा बचा ही कहाँ रहता है करमियाँ. सब लोग धुवां बनकर आसमान में चले जाते है. वहां वो क्या करते हैं, हम क्या जानें? हमारे काम तो यही धरती-मिट्टी, गाड़-गधेरे और तुन-क्वेराल ही आते हैं... अपनी धरती का ही ख्याल कर लो, यही तुम्हारे लिए बहुत है. आसमान में पुरखों की देखभाल के लिए वहां बहुत देवी-देवता हैं.”
बाज्यू के अपने ठोस तर्क थे, जिसके साथ वो किसी भी हालत में समझौता करने के
लिए तैयार नहीं थे.
“घर के सब लोग खेतों, गाड़-गधेरों और जंगल-पानी की रखवाली ही तो कर रहे हैं बाज्यू, मैं कभी-कभी घाट के मंदिर जाकर मुर्दों को घी-धूप चढ़ा आता हूँ तो इसमें तुमको क्यों परेशानी होती है? तुम जो करते हो करो, मैं तुमको मना करता हूँ कोई? तुमको वो अच्छा लगता है, मुझे ये...”
“तो फिर तू भी बन जा नाथ. सारी जिन्दगी मुर्दों की पूजा करके अपने मन की कर...” बाज्यू तो गुस्से में कह गए, मगर करमियाँ के हाथ तो मानो संजीवनी आ गई. उसने उसी दिन तय कर लिया कि वह घर छोड़ देगा और अब उसका नया घर घाट का वह कमरा होगा जहाँ बरसों से बूढ़ा नाथ एकदम अकेला रहता था. बाकी लोगों को उसकी जिन्दगी जो भी लगती रही हो, करमियाँ को वह एकांत जिंदगी की सबसे बड़ी नियामत लगती थी. दूसरे ही दिन वह तय करके गया कि घाट के एकांत से वह टिकर गाँव के घर नहीं लौटेगा.
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टिकर का करमियाँ इस तरह करमी नाथ बन गया और फिर एक दिन टिकर गाड़ का जोगी
करम सिंह नाथ. यही से शुरू हुई उसकी नयी जीवन-यात्रा जो देह से होती हुई आत्मा तक
पहुँचती है. नाम के जो हिस्से फालतू थे, वो खुद ही छूटते चले गए और जरूरत के हिस्से
शामिल होते चले गए. एक अनजान पहाड़ी गाँव टिकर से शुरू हुई यात्रा करमियाँ को
किस-किस सोपान का स्पर्श कराती हुई किस मोड़ पर लाकर छोड़ गई, वह सब जोगी करमी नाथ
की समझ से भी बाहर था. जिन्दगी की यात्रा में पड़ने वाले मोड़ों के सीधे-सरल रास्तों
की जानकारी भला किसे रहती है? कब आदमी
थोकदार से जोगी, देह से आत्मा, लोक धुनों से शास्त्रीय सुरों और रंक से राजा तक की
यात्रा तय करने लगे; और कब उसे पूरा करने के बाद एकदम नयी संस्कृति ही रच डाले; कब
किसकी देह से एकदम नया इतिहास अंकुरित होकर तुन की जगह क्वेराल और क्वेराल के भीतर
से सेमल का अंकुरण होने लगे, कौन जानता है?
⤊
पचहत्तर पार की दुनिया
जिन्दगी के
पचहत्तर वर्ष पूरे करने के बाद पीछे लौटकर देखा. मेरे सामने दो चेहरे थे- एक
मेरा, और दूसरा वह, जिसने इतने सारे साल मेरे साथ बिताए.
मैं इस दूसरे
शख्स को नहीं पहचान पा रहा था.
‘मैं वह हूँ
जिसे तुमने अर्जित किया है’, उसने मुझसे कहा. मैंने फिर भी नहीं पहचाना तो वह मुझे
पीछे की ओर मोड़ ले गया. जिस दिशा में वह मुझे ले जा रहा था, वह मेरा अतीत था.
अतीत विशाल
सुरंगनुमा कोठरी थी जिसका आधा हिस्सा एक सफ़ेद चिड़िया थी और दूसरा हिस्सा काली
चिड़िया. काली चिड़िया सफ़ेद को अपनी चोंच से कुतर-कुतर रही थी मगर इससे उसका उजलापन
जरा भी नहीं घट पा रहा था. जितना उजास काली चिड़िया अपने भीतर भर रही थी, सफ़ेद
चिड़िया अपने उजलेपन को हाथों-हाथ चूसकर अपने अन्दर फिर-से भर लेती थी और दोनों
आकार बराबर बने रहते.
सफ़ेद चिड़िया
अँधेरे-उजाले के इस खेल को देखकर मजे से गाना गा रही थी.
मैं अपने चेहरे
को नहीं पहचान पाया.
‘अपने किसी
पुरखे का नाम लो’, चेहरे ने मुझसे कहा.
मैंने ‘थोकदार’
नाम लिया.
मैंने चेहरे से
कहा कि इस शब्द को अब कोई नहीं पहचानता. बच्चों को यह आदमी पुरा-संग्रहालय में रखा
हुआ एक अनगढ़ बुजुर्ग का बुत नजर आता है. उस आदमी के पास भाषा नहीं है.
‘हजारों सालों
तक कोई भाषा कैसे जिन्दा रह सकती है?’ बच्चों ने एक स्वर में ऐसे कहा मानो सुबह की
प्रार्थना गा रहे हों. मैंने उस चेहरे के साथ-साथ बच्चों की प्रार्थना का अर्थ
समझाने की कोशिश की मगर किसी की समझ में कुछ नहीं आया.
धुर-अतीत से एक
तेज आवाज आकर मेरे कानों से टकराई, ‘शब्द-ब्रह्म’! मुझ पर उससे कोई चेतना नहीं
पैदा हुई.
उस चेहरे को
हैरानी हुई. ‘पचहत्तर साल तक तुम शब्द की खेती करते रहे, फिर भी तुम्हारे अन्दर
चेतना का अंकुरण नहीं फूटा. यह चिंता की बात है. क्या तुम नास्तिक हो?’
मेरे पास जवाब
देने के लिए उत्तर नहीं था.
‘तुम्हें गढ़ते
हुए मैंने ऐसा तो नहीं सोचा था’, उसकी आँखों से झरती निरीहता को संबोधित करते हुए
मैंने उससे कहा, ‘मैंने तुम्हें शब्द से नहीं, क्षितिज पर तैनात देवदार के गर्भ
में से पैदा किया था.’
‘निसर्ग!’ उसके
अन्दर से एक अनायास ध्वनि निकली. फिर जैसे कंप्यूटर के की-बोर्ड का वह बटन दब गया
हो जिसकी उसे तलाश थी; रुके हुए पानी का बंध फूट जाने की तरह हजारों शब्द झर-झर
झरने लगे...
ब्रह्माण्ड,
अंड, कटाह, अखिल, अखिल विश्व, अग जग, अधिलोक, अनंत, आदिम अंड, आलम, कायनात, कुदरत,
खगोल, खल्क, खुदाई, गोलक, जहाँ, ज्योतिर्लिंग, त्रिभुवन, त्रिलोक, दिक्काल,
दुनिया, धरती आकाश, निखिल, निसर्ग, फैलाव, ब्रह्मगोल, ब्रह्म वैवर्त, भव, भुवन,
भुवनांड, महांड, महापिंड, महायोनि, यह सब, विशाल, विश्व, विश्व गोलक, विश्वांड,
विष्टप, सम्पूर्ण विश्व, संसार, सकल, सर्ग, सर्वमिदं, सृष्टि, हेमांड...
प्रकृति, अदिति,
क़ुदरत, निसर्ग, परमजा, माया, सकल जननी.
स्वर्ग, अक्षय
लोक, अमर धाम, अमर लोक, अमरालय, इंद्र लोक, गोलोक, जन्नत, त्रिदशालय, त्र्यालय,
दिव्य लोक, देव लोक, द्यावा, द्युलोक, निसर्ग, पुण्य लोक, फ़िरदौस, बहिश्त, बैकुंठ,
मंदार, वैकुण्ठ, सुख धाम, सुर लोक, सुरेन्द्र लोक, स्वर्ग लोक.
अस्तित्व, जीवन,
भव, भाव, भूति, मौजूदगी, वजूद, वर्तिता, विद्यमानता, वृत्ति, संभूति, सत्ता,
सत्त्व, हस्ती, होनी...
प्राण,
अंतर्भूत, आत्मा, ऊर्जा, ओज, चित, चेतन तत्त्व, जान, जीवः, जीवथ, जीवन, जीवन बल,
जोर, ज्योति, दम, परान, प्राण, मरुत, मारुत, वैश्वानर, श्वास, सत्त्व, साँस, हयात,
हृदयस्थ प्राण.
(साभार: समान्तर
कोश – हिंदी थियारस – अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार)
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निसर्ग-ब्रह्म: देवदार के जंगल में घुसा लड़का
उस वक़्त मेरी
उम्र सात साल रही होगी.
अगर कभी आपको
समुद्र सतह से सात हजार फुट की ऊँचाई पर फैले देवदार के घने जंगल के बीच बैठकर
सुस्ताने का मौका मिला हो तो यह वैसा ही एक परिसर था. इस परिसर को मैंने पहली बार
देखा था. गाँव के शिखर पर से सुदूर क्षितिज पर से ढहते शांत जलस्रोत की तरह के इस
अंचल को मैं जाने कितनी बार देख चुका था. वहां पहुँचने के बाद यह परिसर मुझे आकाश
से पाताल तक फैला हुआ किसी तपस्वी के विशाल आसन जैसा दिखाई दिया था.
मैंने तपस्वी को
नहीं देखा था, मगर गाँव के मंदिर में कभी-कभार एक जोगी आकर देवता के हवन-कुंड के
किनारे पालथी मार कर तरह-तरह की ऊंची आवाजों में देवता का आह्वान करता था, मैंने
उसे ही तपस्वी समझा था. मैं कल्पना करता था, वह जोगी अपनी तीखी आवाज से सामने
क्षितिज के पीछे छिपे ‘भगवान’ को बुलाने के लिए वहां आता था जिससे कि भगवान और वह
दोनों मिलकर गाँव-इलाके को खुशहाल कर सकें...
जिस दिन मैं
देवदार के परिसर में पहुंचा था, मैंने उसी क्षण से भगवान की तलाश शुरू कर दी थी.
तलाशी के दौरान मुझे यकीन था कि भगवान इसी परिसर के आकार का होगा और उसके विशाल
आकार के लिए इतने ही बड़े घर की जरूरत पड़ती होगी. अवश्य भगवान इसी घर में रहता
होगा. जितना बड़ा भगवान, उतना ही बड़ा था उसका घर. उतना ही ऊँचा और घना उसका शरीर.
मैंने उस वक़्त
सोचा था, यह जंगल भगवान का किला होगा जहाँ से वह पल-भर में देवदार की नुकीली
चोटियों पर चढ़ कर सारी दुनिया को अपने फरमान सुनाता होगा. देवदार के पेड़ पर से
भगवान सारी दुनिया को आसानी से देख सकता होगा, हालाँकि कोई आदमी अपने घर से भगवान
को नहीं देख सकता होगा. उसी दिन मैं समझा कि देवदार के जिस सिरे को हम अपनी धरती
से गरदन को कितना ही टेढ़ा करके नहीं देख पाते थे, भगवान के लिए उसकी चोटी तक
पहुँचना क्यों इतना आसान होता होगा.
बाद की जिन्दगी
में जब मैंने शब्द की दुनिया में प्रवेश किया, और शब्द-ब्रह्म जब मेरी जबान से उछल
कर दिमाग में ठहरने के बजाय चारों ओर की प्रकृति में विलीन हो जाता था, मैंने
भगवान के किले को नाम दिया, ‘प्रकृति ब्रह्म’. शायद मैंने इसे ‘शब्द ब्रह्म’ की
तर्ज पर गढ़ा होगा. यही कारण है कि शब्द की दुनिया की बारीकियां मेरी कभी समझ में
नहीं आईं. शायद इसके पीछे यह कारण रहा हो कि वे लोग जिसे ‘शब्द’ कहते थे, मेरे लिए
वह प्रकृति थी. मैं प्रकृति की प्रत्येक बारीकी को समझता था मगर शब्द की बारीकियां
मुझे देखते ही गायब हो जाती थीं. उन्हीं दिनों मुझे लगा था, ब्रह्म शब्द नहीं,
निसर्ग है और उसका नाम ‘निसर्ग ब्रह्म’ होना चाहिए.
‘ब्रह्म’ के जो
एक सौ इक्कीस पर्याय मुझे रटाये गए (उपरिलिखित), उनमें ‘शब्द’ का उल्लेख था, मगर
देवदार का जिक्र नहीं था. ब्रह्माण्ड, प्रकृति, स्वर्ग, अस्तित्व, प्राण का उल्लेख
था, लेकिन आदमी का जिक्र नहीं था. जाने क्यों मुझे सारी जिन्दगी लगता रहा कि यह
(शब्द) मेरे लिए नहीं है, इसीलिए मैं हमेशा देवदार और आदमी को ही पढ़ता रहा. इन
दोनों की चिंताएं मेरी चिंताएं बनीं, मैं अपने अधिक-से-अधिक नजदीक आया लेकिन उन
लोगों से कटता चला गया जो शब्द को अस्तित्व का पहला पर्याय मानते थे.
इस प्रक्रिया
में ‘थोकदार’ के बुत के चेहरे की धूल साफ होती चली गयी और वह आकार पहचानने-योग्य
बनता चला गया. मेरी और मेरे समाज के चेहरे की अनुहारि एक में घुलने लगीं.
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मुक्तिबोध का केशव और मैं
मेरी इस टिप्पणी
का सम्बन्ध न तो मुक्तिबोध के साथ है और न उनके मित्र केशव से. शब्द की दुनिया का
हिस्सा बनने के बाद मेरी पहली दोस्ती मुक्तिबोध से हुई. उनकी पहली किताब ‘एक
साहित्यिक की डायरी’ से. इस किताब ने मेरे और मेरी अभिव्यक्ति के रिश्ते को आत्मीय
सम्बन्ध के रूप में बदल दिया और इनसे मेरे लेखन की दुनिया झरने लगी. मुझे नहीं
मालूम कि जो शब्द मेरे अस्तित्व में से झरा, वह मुझे और मेरे साहित्यिक संसार को
कितना स्पष्ट कर सका, कितना सार्थक बन सका और वह मुझे शेष संसार के साथ कितना जोड़
सका... क्या आदमी जो जिन्दगी जीता है, उसका हिसाब-किताब जानता है?
मुक्तिबोध की
फैंटेसी मेरे लिए चमत्कार से कम नहीं थी. मुक्तिबोध को मैंने उन विराट कलात्मक
अपेक्षाओं के रूप में न पढ़ा, न समझा; असलियत यह थी कि वैसी समझ मुझमें थी भी नहीं.
मुक्तिबोध की जड़ों का मुझे दूर-दूर तक पता नहीं था, मेरे लिए उनका अनुमान लगा सकना
भी मुश्किल था... कहाँ मध्य प्रदेश का चम्बल इलाका और कहाँ उत्तराखंड का वनांचल,
इसके बावजूद उनकी फैंटेसी के बीच से गुजरते हुए मुझे अपनी थोकदारी जड़ों के अधिक
स्पष्ट आयाम और आशय प्राप्त हुए. मुक्तिबोध का यह पाठ मेरे लिए एक अनपढ़ देहाती
संस्कारों वाले जिद्दी छात्र का अनुमान था जो मेरे लिए भले ही अर्थवान हो, हिंदी
की दुनिया के लिए उसका कोई मतलब नहीं था. साहित्य की पृष्ठभूमि भले न हो, हिंदी
साहित्य का विद्यार्थी होने का दंभ तो था ही, जिसने मुझे मुक्तिबोध जैसे जटिल
रचनाकार को मेरा अन्तरंग बना दिया. ‘तीसरा क्षण’ की ये पंक्तियाँ जब मैंने पहली
बार पढ़ीं, मुझे वे अपनी रहस्यमयता के साथ मालवा के परिवेश में नहीं, अपने रचनात्मक
जीवन के प्रस्थान बिंदु, देवदार वनों के उस गझिन संसार में गईं जहाँ मैंने
अभिव्यक्ति का सलीका सीखा. मानो केशव का यह संवाद मुक्तिबोध ने मेरे लिए ही रचा
हो:
“जब हम हाई-स्कूल में थे, केशव मुझे निर्जन अरण्य-प्रदेश में ले जाता. हम भर्तृहरि की गुहा, मछिन्दरनाथ की समाधि आदि निर्जन किन्तु पवित्र स्थानों में जाते. मंगलनाथ के पास शिप्रा नदी बहुत गहरी, प्रचंड, मंथर और श्याम-नील थी. उसके किनारे-किनारे हम नए-नए भौगोलिक प्रदेशों का अनुसन्धान करते. शिप्रा के किनारों पर गैरव और भैरव सांझें बितायीं. सुबहें और दुपहर अपने रक्त में समेट लीं. सारा वन्य-प्रदेश श्वास में भर लिया. सारी पृथ्वी वक्ष में छिपा ली.”(मुक्तिबोध: तीसरा क्षण)
उन्हीं दिनों
पढ़ी थीं इस नयी-नयी हाथ लगी किताब की ये पंक्तियाँ:
और, एक बार, जब
हम दोनों फोर्थ ईयर में पढ़ रहे थे, वह मुझे कैंटीन में चाय पिलाने ले गया. केवल
मैं ही बात करता जा रहा था. आखिर, वह बात भी क्या करता – उसे बात करना आता ही कहाँ
था. मुझे फिलॉसफी में सबसे ऊंचे नंबर मिले थे. मैंने प्रश्नों के उत्तर कैसे-कैसे
दिए, इसका मैं रस-विभोर होकर वर्णन करता जा रहा था. चाय पीकर हम दोनों आधी मील दूर
एक तालाब के किनारे जा बैठे. वह वैसा ही चुप था. मैंने साइकोऐनलिसिस की बात छेड़ दी
थी. जब मेरी धारा-प्रवाह बात से वह कुछ उकताने लगता तब वह पत्थर उठाकर तालाब में
फैंक मारता. पानी की सतह पर लहरें बनतीं और डुप्प-डुप्प की आवाज.
साँझ पानी के
भीतर लटक गयी थी. संध्या तालाब में प्रवेश कर नहा रही थी. लाल भड़क आकाशीय वस्त्र
पानी में सूख रहे थे. और मैं संध्या के इस रंगीन यौवन से उन्मत्त हो उठा था.
हम दोनों उठे,
चले, और दूर एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो रहे. एकाएक मैं अपने से चौंक उठा.
पता नहीं क्यों, मैं स्वयं एक अजीब भाव से आतंकित हो उठा. उस पीपल वृक्ष के नीचे
अँधेरे में, मैंने उससे एक अजीब और विलक्षण आवेश में कहा, ‘शाम, रंगीन शाम, मेरे
भीतर समा गयी है, बस गयी है. वह एक जादुई रंगीन शक्ति है. मुझे उस सुकुमार
ज्वाला-ग्राही जादुई शक्ति से – यानी मुझसे मुझे डर लगता है.’ और सचमुच तब मुझे एक
कंपकंपी आ गयी!!
इतने में शाम
साँवली हो गयी. वृक्ष अँधेरे के स्तूप-व्यक्तित्व बन गए. पक्षी चुप हो उठे. एकाएक
सब ओर स्तब्धता छा गयी. और, फिर इस स्तब्धता के भीतर से एक चम्पई पीली लहर ऊँचाई
पर चढ़ गयी. कॉलेज के गुम्बद पर और वृक्षों के ऊंचे शिखरों पर लटकती हुई चाँदनी
सफ़ेद धोती-सी चमकने लगी.
एकाएक मेरे कंधे
पर अपना शिथिल ढीला हाथ रख केशव ने मुझसे कहा, ‘याद है, एक बार तुमने सौन्दर्य की
परिभाषा मुझसे पूछी थी?’
मैंने उसकी बात
की तरफ ध्यान न देते हुए बेरुखी-भरी आवाज़ में खा, ‘हाँ’.
’अब तुम स्वयं
सौन्दर्य अनुभव कर रहे हो.’
मैं नहीं जानता
था, मैं क्या अनुभव कर रहा था. मैं केवल यही कह सकता हूँ कि किसी मादक अवर्णनीय
शक्ति ने मुझे भीतर से जकड़ लिया था. मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि उस समय मेरे
अंतःकरण के भीतर एक कोई और व्यक्तित्व बैठा था. मैं उसे महसूस कर रहा था. कई बार
उसे महसूस कर चुका था. किन्तु अब तो उसने भीतर से मुझे बिलकुल ही पकड़ लिया था.
‘मैं जो स्वयं था वह स्वयं हो गया था. अपने से ‘वृहत्तर’, विलक्षण, अस्वयं.’
एकाएक उस
पाषाण-मूर्ति मित्र की भीतरी रिक्तता पर मेरा ध्यान हो आया. वह मुझसे कितना दूर
है, कितना भिन्न है, कितना अलग है – अवांछनीय रूप से भिन्न!!
वह मुझसे पंडिताऊ
भाषा में कह रहा था: किसी वस्तु या दृश्य या भाव से मनुष्य जब एकाकार हो जाता है
तब सौन्दर्य-बोध होता है. सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट , वस्तु और उसका दर्शन, इन दो पृथक
तत्वों का भेद मिटकर जब सब्जेक्ट ऑब्जेक्ट से तादात्म्य प्राप्त कर लेता है तब
सौन्दर्य भावना उद्बुद्ध होती है!!
मैंने उसकी बात
की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया. सौन्दर्य की परिभाषा वे करें जो उससे अछूते हैं; जैसे
मेरा मित्र केशव! उनकी परिभाषा सही हो तो क्या, गलत हो तो क्या! इससे क्या होता
जाता है!!
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मैंने जवाब
दिया, ‘एक तो मैं वस्तु पक्ष का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझता. हिंदी में मन से बाह्य
वस्तु को ही वस्तु समझा जाता है – ऐसा मेरा खयाल है. मैं कहता हूँ कि मन का तत्व
भी एक वस्तु है तो ऐसे तत्व के साथ तदाकारिता या तादात्म्य का कोई मतलब नहीं होता
क्योंकि वह तत्व मन ही का एक भाग है. हाँ, मैं इस मन के तत्व के साथ तटस्थता के
रुख की कल्पना कर सकता हूँ; तदाकारिता की नहीं.’
मेरे स्वर और
शब्द की हलकी-धीमी गति ने उसे विश्वास दिला दिया कि मैं उसकी बात उड़ाने के लिए बात
नहीं कर रहा हूँ, वरन उसकी बात समझने में महसूस होने वाली कठिनाई का बयान कर रहा
हूँ.
उसने मेरी ओर
देखकर किंचित स्मित किया और कहने लगा, ‘तुम एक लेखक की हैसियत से बोल रहे हो इसलिए
ऐसा कहते हो. किन्तु सभी लोग लेखक नहीं हैं. दर्शक हैं, पाठक हैं, श्रोता हैं. वे
हैं, इसलिए तुम भी हो – यह नहीं कि तुम हो इसलिए वे हैं!! वे तुम्हारे लिए नहीं
हैं, तुम उनके सम्बन्ध से हो. पाठक या श्रोता तादात्म्य या तन्मयता से बात शुरू
करें तो तुम्हें आश्चर्य नहीं होना चाहिए.’
मेरे मुँह से
निकला, ‘तो?’
उसने जारी रखा,
‘तो यह कि लेखक की हैसियत से, सृजन-प्रक्रिया के विश्लेषण के रास्ते से होते हुए
सौन्दर्य-मीमांसा करोगे या पाठक अथवा दर्शक की हैसियत से, कलानुभव के मार्ग से
गुजरते हुए सौन्दर्य की व्याख्या करोगे? इस सवाल का जवाब दो.’
मैं उसकी चपेट
में आ गया. मैं कह सकता था कि दोनों करूँगा. लेकिन मैंने ईमानदारी बरतना ही उचित
समझा. मैंने कहा, ‘मैं तो लेखक की हैसियत से ही सौन्दर्य की व्याख्या करना
चाहूँगा. इसलिए नहीं कि मैं लेखक को कोई बहुत ऊँचा स्थान देना चाहता हूँ वरन इसलिए
कि मैं वहां अपने अनुभव की चट्टान पर खड़ा हुआ हूँ.’
उसने भौंहों को
सिकोड़कर और फिर ढीला करते हुए जवाब दिया, ‘बहुत ठीक; लेकिन जो लोग लेखक नहीं हैं
वे भी तो अपने ही अनुभव के दृढ़ आधार पर खड़े रहेंगे और उसी बुनियाद पर बात करेंगे.
इसलिए उनके बारे में नाक-भों सिकोड़ने की जरूरत नहीं, उन्हें नीचा देखना तो और भी
गलत है.’
उसने कहना जारी
रखा, ‘इस बात पर बहुत-कुछ निर्भर करता है कि आप किस सिरे से बात शुरू करेंगे! यदि
पाठक, श्रोता या दर्शक के सिरे से बात शुरू करेंगे तो आपकी विचार-यात्रा दूसरे ढंग
की होगी. यदि लेखक के सिरे से सोचना शुरू करेंगे तो बात अलग प्रकार की होगी. दोनों
सिरे से बात होगी सौन्दर्य-मीमांसा की ही. किन्तु यात्रा की भिन्नता के कारण
अलग-अलग रास्तों का प्रभाव विचारों को भिन्न बना देगा.
दो यात्राओं की
परस्पर भिन्नता अनिवार्य रूप से, परस्पर विरोधी ही है – यह सोचना निराधार है.
भिन्नता पूरक भी हो सकती है, विरोधी भी.
यदि हम यथा-तथ्य
बात भी करें तो भी बल (एम्फेसिस) की भिन्नता के कारण विश्लेषण भी भिन्न हो जायेगा.
किन्तु सबसे
महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रश्न किस प्रकार उपस्थित किया जाता है. प्रश्न तो आपकी
विचार यात्रा होगी. यदि इस विचार-यात्रा को रेगिस्तान में विचरण का पर्याय नहीं
बनाना है तो प्रश्न को सही ढंग से प्रस्तुत करना होगा. यदि वह गलत ढंग से उपस्थित
किया गया तो अगली सारी यात्रा गलत हो जाएगी.’
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मैं चाहता हूँ
कि साहित्य-सम्बन्धी धारणाएं वास्तविक साहित्य में विश्लेषण के आधार पर बनायी
जाएँ. जिस प्रकार विज्ञान में इंडक्शन से डिडक्शन पर आया जाता है – तथ्यों के,
संग्रह से उनके विश्लेषण द्वारा, उनके सामान्यीकरण से अनुमान और निष्कर्ष निकाले
जाते हैं – उसी प्रकार साहित्य में इंडक्शन से डिडक्शन पर क्यों न आया जाये?
इंडक्शन का क्षेत्र केवल हिंदी साहित्य तक ही सीमित क्यों रहे? उपन्यास क्या है,
यह पढ़ाते समय हम विश्व के प्रमुख उपन्यासों के उपरांत ही यह ठहराएँ कि उपन्यास
किसे कहते हैं और उसका शिल्प क्या है अथवा उसके प्रधान अंग क्या होते हैं...
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जब हम दोनों
भोजन को बैठे तो बनियान के भीतर उसके गोरे, सुघर, कसे हुए शरीर को देखकर मैं सन्न
रह गया – प्रसन्न नहीं हुआ. गोर शरीर पर एक बूढ़ा सफ़ेद-भूरा चेहरा! केवल बहुत
खूबसूरत मालूम हुआ. निश्चित रूप से, हाँ, चिंता की रखाएँ उसके चेहरे पर थीं. वे
काफी गहरी भी थीं. लेकिन क्या वे चिंता की थीं? या चिंतन की? मैं इसका निर्णय नहीं
कर सका.
भोजन के दौरान
उसने एक बड़ी मजेदार बात कही. उसने हाथ में कौर लेकर मेरी तरफ देखते हुए कहा,
‘तुममें और मुझमें एक बड़ा भेद है. विचार मुझे उत्तेजित करके क्रियावान कर देते
हैं. विचारों को तुम तुरंत ही संवेदनाओं में परिणत कर देते हो. फिर उन्हीं
संवेदनाओं के तुम चित्र बनाते हो. विचारों की परिणति संवेदनाओं में और संवेदनाओं
की चित्रों में. इस प्रकार तुममें ये दो परिणतियाँ हैं. अगर तुम्हारी कविताएँ किसी
को उलझी हुई मालूम हों तो तुम्हें हताश नहीं होना चाहिए. मैं तुम्हारी कविताएँ
ध्यान से पढ़ता हूँ.’ मैंने डरते-डरते पूछा, ‘मेरी कविताएँ तुम्हें अच्छी लगती
हैं?’ ‘उनमें और सफाई की जरूरत है. किन्तु मैं उन लोगों का समर्थक नहीं हूँ जो
सफाई के नाम पर, सफाई के लिए ‘कंटेंट’ (काव्य-तत्व) की बलि दे देते हैं.
(साभार: एक
साहित्यिक की डायरी: तीसरा क्षण)
इतिसिद्धम्...
बटरोही9412084322batrohi@gmail.com
हम तीन थोकदार को यहाँ पढ़ें'-
बधाई : बटरोही जी और अरुण, दोनों को।कथा-लेखन विधा को एक नया मोड़ देने और अपनी स्थानीयताओं को उनके महत्व के साथ कथा-विधा का एक आधार मानने के लिए।
जवाब देंहटाएंइस नई दृष्टि के प्रति सम्मान और शुभकामनाएं।
बहुत धन्यवाद सतीश जी. आप इस श्रृंखला के निरंतर गवाह रहे हैं.
हटाएंइस श्रृंखला का मुझे इंतज़ार रहता है। इसे पढ़ते हुए मैं सिर्फ़ पहाड़ के इतिहास या समाजशास्त्र के अदृश्य/अल्पचर्चित तथ्यों से ही नहीं, बल्कि शिवानी और शैलेश मटियानी से संबंधित कई विस्मृत सूचनाओं से भी समृद्ध हुआ।
जवाब देंहटाएंबटरोही जी इस बात के उदाहरण हैं कि अपने परिवेश को क्रिटिकली देखने की क्षमता से लैस एक लेखक कैसे समकालीन इतिहास को समझने का स्रोत बन जाता है।
अनेक धन्यवाद नरेश जी. आपकी यह प्रतिक्रिया पुस्तक के कवर पर देना चाहूँगा.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई...तीन थोकदार ...रचने के लिए और पाठकों को रसमय ,विस्मित करने के लिए...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुबोध भाई.
जवाब देंहटाएंमैं सोचती थी कि इसका अंत कैसे करेंगे आप। वैसे यह बहुत कठिन था। पर मुक्तिबोध का केशव आरंभ में भी आया। आरंभ में बचपन और अंत में बचपन- क्राफ्ट की दृष्टि से एक कोष्ठक बनाता -सा। और थोकदार का नाथ बनना -सांकेतिक भी है। पर नाथ बनने के बाद भी थोकदारी जाती कहाँ है। अब इस पूरी श्रृंखला को दुबारा पढ़ने पर वह और समझ में आएगी। पर परिवेश किस तरह व्यक्ति के भीतर बसा होता है यह इसे पढ़ कर लगता रहा। बहुत धन्यवाद बटरोहीजी कि आपने एक नई पद्धति और शायद विधा भी - विकसित की।
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद रंजनाजी. आपने आरम्भ भी प्रतिक्रिया भेजी थी, अब सम्पूर्ण पुस्तकाकार रूप में आने के बाद प्रतीक्षा रहेगी,
हटाएंबटरोही जी की यह आख्यानक श्रृंखला अभिनव विधा के रूप में अभी परिभाषित और वर्गीकृत की जानी है पर भोगे हुए यथार्थ को रचने की प्रक्रिया के क्रम में उन्होंने जिस तरह से दीगर सामाजिक संदर्भों, फ्रेम और किरदारों की भूमिका को आत्मसात किया है वह निश्चय ही अद्वितीय विश्लेषण और संश्लेषण है.
जवाब देंहटाएंसभी बारह अंशों की जुजबंदी का बेसब्री से इंतजार है.
मेरी उपर्युक्त टिपण्णी के पहले प्रस्तर की आखिरी पंक्ति को इस तरह पढ़ा जाए :
जवाब देंहटाएं... वह निश्चित ही अद्वितीय विश्लेषण और संश्लेषण का उदाहरण है.
थोकदार को खोजते-खोजते कहां-कहां भटक आये! इस भटकन ने देखे-अनदेखे क्या-क्या दृश्य दिखाते हुए एक
जवाब देंहटाएंअद्भुत रसपूर्ण कथा रच दी। इस पूरी प्रक्रिया में पात्रों, साहित्यकारों के माध्यम से जिसे खोलने का प्रयास हुआ, क्या वह पूरा खुल पाया? लेखक वर्षों से जिस भार के दबाव से घिरे थे, क्या उससे मुक्ति का अहसास हुआ?
एक अभूतपूर्व रचना देने के लिए बटरोही जी को अभिनंदन।
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