प्रथम
प्रधानमन्त्री और आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरु लेखक भी थे. ‘The Discovery of India’,
‘Glimpses of World History’, Toward Freedom (autobiography) और ‘Letters from a Father to His Daughter’ में उनके अव्यवसाय, अंतर्दृष्टि और गहरी संवेदना के दर्शन
होते हैं.
हिंदी
के महत्वपूर्ण आलोचक नामवर सिंह ने जवाहरलाल नेहरु के लेखन पर एक विस्तृत
व्याख्यान दिया था, जो
आज और भी प्रासंगिक है.
लेखक-आलोचक नंद भारद्वाज ने इसकी सुगठित प्रस्तावना भी लिखी है. २८ जुलाई को नामवर जी ९२ साल
के हो गए.
उनके
शतायु होने की कामना के साथ यह प्रस्तुति.
हिन्दी की प्रगतिशील साहित्य परम्परा के पुनर्मूल्यांकन और समकालीन
रचनाकर्म के वस्तुपरक विवेचन-मूल्यांकन का जोखिम भरा काम करनेवाले आलोचकों में डॉ.
नामवर सिंह की अपनी अलग पहचान रही है. वे न केवल अपनी वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक
दृष्टि के कारण आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, बल्कि व्याख्या-विवेचन की अपनी विशिष्ट शैली के
कारण भी समकालीन रचनाकारों और आलोचकों के बीच सर्वाधिक चर्चित और सम्मानित रहे हैं.
अपनी प्रगतिशील जीवन-दृष्टि के आधार पर, एक ओर जहां उन्होंने पुराने रसवादी और नव-कलावादी मानदण्डों और
मनोवृत्तियों से अनवरत संघर्ष किया है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने समकालीन आलोचना में उभरते सरलीकरणों और
एकांगीपन का भी जमकर विरोध किया है. एक सहृदय पाठक और प्रबुद्ध रचनाकार के रूप में
वे समकालीन रचनाकर्म के प्रति जितने संवेदनशील हैं, उतने ही अपने आलोचना-कर्म के प्रति सजग और
जवाबदेह.
28 जुलाई, 1927 को काशी से कोई तीस मील दूर एक छोटे-से गांव जीअनपुर में जन्मे नामवर
सिंह अजब जीवट के धनी रहे हैं. उनके बहुआयामी व्यक्तित्व में जितने उतार-चढ़ाव, संघर्ष और उपलब्धियां समाहित हैं, उन्हें सीमित शब्दों में बयान कर पाना आसान भी
नहीं है. वे हिन्दी संसार में इतने लोकप्रिय व्यक्ति हैं कि आज उनके औपचारिक परिचय
की कोई आवश्यकता रह भी नहीं गई है. नौ दशकों की इस संघर्षपूर्ण जीवन-यात्रा में
नामवरजी की देश के स्वाधीनता संग्राम, स्वाधीनता के बाद के सार्वजनिक जीवन, इतिहास, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के गंभीर अध्ययन-अध्यापन और समाज में लोकतान्त्रिक
मूल्यों की स्थापना के लिए जारी संघर्ष में जो महत्वपूर्ण भूमिका रही है, वही प्रकारान्तर से उनकी आलोचनात्मक कृतियों के
रूप में आज हमारी अमूल्य धरोहर बन गई है. जो हमें अपने समय, समाज और साहित्य को गहराई से समझने की दृष्टि
देती हैं.
नामवरजी की देश के सार्वजनिक जीवन और भारतीय अस्मिता की खोज में आरंभ
से ही गहरी रुचि रही है. यह जानकारी पाठकों के लिए संभवतः दिलचस्प होगी कि
स्वाधीनता संग्राम और पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रति नामवरजी का आकर्षण और आदर
उतना ही पुराना है, जितना अपने प्रारंभिक शिक्षक धर्मदेव सिंह और अन्य आत्मीय जनों के
प्रति रहा है. यह सन् 1936 के आस-पास की बात है, जब नामवरजी चैथी जमात में अपने गांव जीअनपुर के पास ही माधोपुर की
स्कूल में पढ़ते थे. उन्हीं दिनों वहां से कोई चार मील दूर कमालपुर गांव में पंडित
जवाहरलाल नेहरू की एक जनसभा होने वाली थी. आप इसी बात से अनुमान लगा सकते हैं कि
नामवरजी पंडित नेहरू को सुनने वहां से चार मील दूर पैदल भागते हुए गये, हालांकि तब तक सभा सम्पन्न हो चुकी थी और वे
पंडित नेहरू का भाषण नहीं सुन पाए, लेकिन पंडित नेहरू के प्रति उनके आकर्षण और लगाव में कोई कमी नहीं आई.
उन्हीं दिनों हेतमपुर के स्वाधीनता सेनानी कामताप्रसाद विद्यार्थी से
उनका परिचय हुआ और उन्हीं की प्रेरणा और प्रभाव से उन्होंने इतिहास, दर्शन और साहित्य की गंभीर पुस्तकों का अध्ययन
किया. गांधीजी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’, टॉलस्टॉय की ‘प्रेम में भगवान’ और पं. नेहरू की ‘मेरी कहानी’ तथा ‘विश्व इतिहास की झलक’ आदि पुस्तकों का गंभीर अध्ययन उन्हीं दिनों की बात है. 1942 के भारत छोड़ो
आन्दोलन के दिनों में वे विशेष रूप से सक्रिय रहे और उस आन्दोलन में पुलिस की गोली
से बाल-बाल बचे.
हम नामवरजी के जिस आलोचक रूप से परिचित हैं, वह दरअसल उनका बाद का विकास है. एक रचनाकार के
रूप में उनकी पहली पहचान तो कविता से ही बनी थी - सन् ’40 से ’45 के बीच उन्होंने
जमकर कविताएं लिखीं और उन कविताओं का एक संग्रह ‘नीम के फूल’ नाम से प्रकाशन के लिए तैयार हुआ भी, लेकिन किसी कारणवश वह प्रकाशित नहीं हो पाया. इसी
दौरान उन्होंने कुछ ललित निबन्ध और आलोचनात्मक लेख लिखने शुरू किये और उस
प्रक्रिया में वे इतने रम गये कि जैसे और कुछ करने की फुरसत ही नहीं रह गई. सन् 1951 में उनकी जो पहली
किताब प्रकाशित हुई वह थी ‘बक़लम खुद’, जिसमें उनके 17 निबंध संकलित हैं. उसके बाद तो ’54 से ’57 के बीच उनकी कई
किताबें प्रकाशित हुईं जिनमें ‘छायावाद’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’, ‘पृथ्वीराज रासो की
भाषा’, ‘इतिहास और आलोचना’ आदि प्रमुख हैं, जो उस जमाने में और आज भी हिन्दी आलोचना के
क्षेत्र में सर्वाधिक चर्चित कृतियों के रूप में जानी जाती हैं. इसी क्रम में
सातवें, आठवें और नौवें दशक
में ‘कहानी नयी कहानी’, ‘कविता के नये
प्रतिमान’, ‘दूसरी परम्परा की खोज’, ‘वाद विवाद संवाद’ आदि कृतियों के माध्यम से नामवरजी ने समकालीन साहित्य में ऐसी बहस का
सूत्रपात किया, जिसकी अनुगूंज आज भी साहित्यिक हलकों में सुनी जा सकती है.
साहित्य के गंभीर अध्येता और विशेषज्ञ के साथ ही नामवरजी की शिक्षा और
संस्कृति के क्षेत्र में भी अपनी अलग पहचान रही है. एक शिक्षक के रूप में उन्होंने
देश की अनेक बड़ी शिक्षण संस्थाओं जैसे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, जोधपुर विश्व-विद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्व-विद्यालय में जहां वर्षों साहित्य और भाषा के क्षेत्र में विद्यार्थियों का
मार्गदर्शन किया है, वहीं साहित्य और भारतीय भाषाओं की शिक्षण प्रक्रिया और उनके
पाठ्यक्रमों को नया वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने में निर्णायक भूमिका अदा की. आज
अपनी आयु के ९२ वे वर्ष पार करने पर भी महात्मा गांधी हिन्दी विश्व-विद्यालय के
कुलपति और एक नेशनल फैलो के रूप में उन्हें अपनी उसी भूमिका का निर्वाह करते देखना,
हिन्दी समाज और हमारे समय का सबसे बड़ा सौभाग्य है.
पिछले छह दशकों में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली
राजनीतिक उथल-पुथल, इस देश के सांस्कृतिक इतिहास और उसमें राष्ट्र के नायकों की भूमिका, आर्थिक विकास की प्रक्रिया, भूमंडलीकरण, उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रसार और जन-संचार की
भूमिका पर नामवरजी अपनी संपादकीय टिप्पणियों, लेखों और व्याख्यानों के माध्यम से अपनी बात कहते
रहे हैं, अपनी चिन्ताएं जाहिर
करते रहे हैं और उन खतरों से बराबर आगाह करते रहे हैं जो भारत जैसे विकासशील देशों
और तीसरी दुनिया के देशों के सामने आज चुनौती बनकर खड़े हैं.
इसी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और भारत की सांस्कृतिक पहचान में उनकी गहरी रुचि को ध्यान में रखते हुए कुछ वर्ष पहले राजस्थान के ऐतिहासिक नगर बीकानेर में आकाशवाणी की ओर से हमने पंडित नेहरू की ऐतिहासिक कृति ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पर नामवरजी से एक व्याख्यान का आग्रह किया था, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और वह प्रभावशाली व्याख्यान संभव हुआ. उसी वाचिक व्याख्यान का अविकल आलेख यहां पाठकों के सामने पहली बार प्रस्तुत किया जा रहा है, जो मुझे आज भी उतना ही प्रासंगिक और सजीव लगता है.
इसी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और भारत की सांस्कृतिक पहचान में उनकी गहरी रुचि को ध्यान में रखते हुए कुछ वर्ष पहले राजस्थान के ऐतिहासिक नगर बीकानेर में आकाशवाणी की ओर से हमने पंडित नेहरू की ऐतिहासिक कृति ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पर नामवरजी से एक व्याख्यान का आग्रह किया था, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और वह प्रभावशाली व्याख्यान संभव हुआ. उसी वाचिक व्याख्यान का अविकल आलेख यहां पाठकों के सामने पहली बार प्रस्तुत किया जा रहा है, जो मुझे आज भी उतना ही प्रासंगिक और सजीव लगता है.
नंद भारद्वाज09829103455
डॉ. नामवर सिंह के व्याख्यान का मूल पाठ
भारतीय अस्मिता की खोज और जवाहरलाल नेहरू
डॉ. नामवर सिंह
भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के मूलभूत लक्ष्यों में एक बड़ा लक्ष्य यह
था कि इस देश के नागरिकों को अंग्रेजी हुकूमत से मुक्ति तो मिले ही, वे अपनी राष्ट्रीय पहचान और समृद्ध संस्कृति के
वारिस होने का आत्मिक गौरव भी अनुभव कर सकें. वही सांस्कृतिक गौरव, जो सिन्धु घाटी की सभ्यता, आर्य सभ्यता, वैदिक संस्कृति, बौद्ध-जैन संस्कृति, मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन और वैचारिक समन्वय की
सुदीर्घ परंपरा से निर्मित हुआ है.
आज इस राष्ट्रीय पहचान और आत्मगौरव की भावना का महत्व इसलिए भी बढ़
गया है कि हमारी जातीय स्मृति में एक प्रकार का भ्रंश दिखाई पड़ रहा है. भ्रंश इस
अर्थ में कि हम सिर्फ आज में जीते हैं, दस वर्ष पहले की घटनाओं को भी याद रखने की सामर्थ्य हम खोते जा रहे
हैं. राष्ट्र के उन तमाम नायकों को भूलते जा रहे हैं, जिनका हमारे अपने अतीत और वर्तमान से गहरा
ताल्लुक रहा है. ऐसे वातावरण में यदि हम यह भी भूल जाएं कि हम किस देश के हैं, किस देश के संस्कारों से बने हैं और जिस देश के
संस्कारों से बने हैं, वह केवल एक छोटा-सा भौगोलिक क्षेत्र भर नहीं है, बल्कि एक महान् सभ्यता का वारिस है, उसकी एक महान् संस्कृति रही है, जिसमें भारतवासी होने के नाते ही नहीं, बल्कि मनुष्य होने के नाते किसी की भी दिलचस्पी
हो सकती है.
इस देश के विकास में दिलचस्पी रखने वाले लोग यह भली भांति जानते हैं
कि आजादी के बाद इस देश के आर्थिक निर्माण के लिए जो राष्ट्रीय नीति तय की गई थी, उसे तैयार करने में पं. जवाहरलाल नेहरू की
महत्वपूर्ण भूमिका रही है, हालांकि इस दस्तावेज को तैयार करने में वे अकेले नहीं थे, और भी बहुत-से लोग थे, जिन्होंने इसे तैयार करने में अपना योग दिया. उस
नीति में इसी बात पर सबसे अधिक बल दिया गया था कि इस देश को किस तरह आत्म-निर्भर
बनाया जाए. इस काम को अंजाम देने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से एक ऐसा
आधारभूत आर्थिक ढांचा तैयार करने का लक्ष्य सामने रखा गया, जिसके सामने बाकी सारे विकल्प गौण थे. इस
राष्ट्रीय नीति में सार्वजनिक क्षेत्र की केन्द्रीय भूमिका मानी गई और बाकी
गैर-सरकारी क्षेत्र को सहायक की भूमिका में रखा गया. विकास के इस ढांचे में
जमींदारी प्रथा को खत्म करके भूमि संबंधी नये नियम बनाने पर गंभीरता से विचार किया
गया, ऐसे नियम जिनमें
गांवों का विकास हो, औद्योगीकरण को बढ़ावा मिले और दुनिया के दूसरे विकसित देशों की तरह यहां भी आधुनिकीकरण की प्रक्रिया तेजी से
विकसित हो. पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी यह राष्ट्रीय नीति आजादी के
बाद स्वतंत्र भारत की आर्थिक प्रगति का मूल आधार थी.
विदेश नीति के मामले में भी इस नेतृत्व ने गुटों में बंटी दुनिया से
अलग अपना एक निरापद रास्ता चुना - यह रास्ता था, गुटनिरपेक्षता की नीति का, जिसमें भारत जैसे और भी कई विकासशील देश थे, जो न सब्जबाग दिखाने वाले पूंजीवादी देशों के साथ
जाना चाहते थे, न लड़ाकू समझे जाने वाले समाजवादी देशों के साथ. इस नीति के पीछे भी
सबसे बड़ा दबाव उस राष्ट्रीय एकता और सामाजिक संस्कृति का ही रहा, जिसकी पुख्ता नींव धर्मनिरपेक्षता या सेकुलरिज्म
की भावना पर आधारित थी, जो सारे विभेदों और बहुलता के बावजूद राष्ट्र की अन्तर्निहित एकता को
प्रोत्साहन देती थी.
अपनी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सोच के चलते पंडित नेहरू ने तीन
महत्वपूर्ण पुस्तके लिखीं थीं – विश्व इतिहास की झलक, मेरी कहानी और हिन्दुस्तान की कहानी. इन तीन
पुस्तकों के अलावा अपनी पुत्री इंदिरा गांधी के नाम जो उन्होंने पत्र लिखे थे, वे भी एक पुस्तक के आकार में सामने आ चुके हैं और
इन पत्रों में भी पंडित नेहरू ने इन पुस्तकों के अच्छे-खासे हवाले दिए हैं. ये सभी
पुस्तकें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. पंडित नेहरू से कई सौ साल पहले यूरोप में यही
काम महान् चिंतक हॉब्स ने भी करने का प्रयत्न किया था. हॉब्स, लॉक और रूसो दुनिया में लोकतंत्र की विचारधारा पर
गंभीरता से विचार करने वाले महान् चिन्तकों में गिने जाते हैं, जिन्होंने यूरोप में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चिंतन के एक नये युग का
सूत्रपात किया.
हॉब्स ने भी यह प्रतिज्ञा की थी कि वे तीन ऐसी पुस्तकें लिखेंगे, जिनमें एक में विश्व के स्वरूप पर विचार होगा, दूसरी पुस्तक में वे राष्ट्रीय राज्य के स्वरूप पर विचार करेंगे और तीसरी पुस्तक स्वयं उनकी अपनी जीवन कहानी पर आधारित होगी. हॉब्स केवल ‘लिवायथन’ के रूप में मुख्य रूप से राज्य के स्वरूप पर ही विचार कर सके, इस किताब की भूमिका के रूप में उन्होंने अपने जीवन की कहानी भी लिखी लेकिन विश्व की वह इसी पुस्तक में मात्र झलक ही प्रस्तुत कर सके. हॉब्स जो काम नहीं कर सके, पंडित नेहरू ने वही कार्य अपनी कहानी, अपने देश की कहानी और सारे संसार की कहानी के रूप में ही कर दिखाया.
हॉब्स ने भी यह प्रतिज्ञा की थी कि वे तीन ऐसी पुस्तकें लिखेंगे, जिनमें एक में विश्व के स्वरूप पर विचार होगा, दूसरी पुस्तक में वे राष्ट्रीय राज्य के स्वरूप पर विचार करेंगे और तीसरी पुस्तक स्वयं उनकी अपनी जीवन कहानी पर आधारित होगी. हॉब्स केवल ‘लिवायथन’ के रूप में मुख्य रूप से राज्य के स्वरूप पर ही विचार कर सके, इस किताब की भूमिका के रूप में उन्होंने अपने जीवन की कहानी भी लिखी लेकिन विश्व की वह इसी पुस्तक में मात्र झलक ही प्रस्तुत कर सके. हॉब्स जो काम नहीं कर सके, पंडित नेहरू ने वही कार्य अपनी कहानी, अपने देश की कहानी और सारे संसार की कहानी के रूप में ही कर दिखाया.
इन तीनों कहानियों को अगर हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि विराट विश्व
के परिप्रेक्ष्य में भारत और भारत के परिप्रेक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू नाम का वह
व्यक्ति प्रकारान्तर से विश्व को और अपने
देश को देखते हुए उसके भीतर अपनी ही खोज करता रहा है. हमारे यहां यह परंपरा भी रही
है कि हर खोज अपने आप से शुरू होती है - ‘आत्मानाम् विधिः’ अर्थात् अपने आप को जानो. जो अपने आपको नहीं
जानेगा, वह अपने देश को भी
नहीं जानेगा, वह सारे ब्रह्मांड
और विश्व को भी नहीं जान पाएगा, इसलिए हर व्यक्ति की ये तीनों खोजें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं.
जवाहरलाल नेहरू ने इन तीनों ग्रंथों के माध्यम से वस्तुतः एक ही खोज की थी, जिसे एक शब्द में भारतीय अस्मिता की खोज कहा जा
सकता है, भारत की पहचान की
खोज और पहचान किसी की अकेले की नहीं होती, परिचय पूर्ण होता है अपने समूचे संदर्भ के साथ, इसलिए जवाहरलाल की अपनी कहानी अपने देश की कहानी
से जुड़ी हुई है और उस देश की कहानी उस संसार की कहानी से जुड़ी हुई है, जिसमें वह देश और वह व्यक्ति स्थित है. अंग्रेजी
में जिसे कहते हैं ‘सिचुएटेड’. इन तीनों कहानियों का जिक्र करना इसलिए आवश्यक है कि लगभग दो
किताबें ‘विश्व इतिहास की
झलक’ और ‘मेरी कहानी’ उन्होंने सन् 1933 और 1935 के बीच लिखी, जबकि ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ (डिस्कवरी ऑफ इंडिया) उन्होंने ग्यारह वर्ष बाद 1946 में पूरी की, जब वे स्वाधीनता प्राप्ति से एक वर्ष पूर्व
अमरगढ़ जेल में बंद थे.
इन दस-बारह सालों के अन्तराल को देखना दिलचस्प होगा. दो महत्वपूर्ण
ग्रंथ लिख देने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू को क्यों यह जरूरत महसूस हुई भारत को
खोजने की? उनकी शिक्षा इंगलैंड
में हुई थी और वहां से शिक्षा प्राप्त करने के बाद देश, दुनिया और लोकतंत्र के बारे में उनकी जो समझ बनी, संभवतः उसी के चलते उन्हें भारत की आजादी की
लड़ाई में हिस्सा लेना आव’यक लगा. आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के ही क्रम में उन्होंने इस
देश के गांवों, शहरों और कस्बों यात्राएं कीं, यहां की जनता को देखने, उनके दुख-दर्द जानने-सुनने और समझने का मौका मिला.
इस अनुभव से आजादी की लड़ाई के प्रति तो वे वचन बद्ध हुए ही, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी उनके लिए यह हो गया
कि इस देश की जनता को उसकी समृद्ध विरासत और असली ताकत से परिचित कराया जाए और ऐसी
वैज्ञानिक समझ से जोड़ा जाए जो भारत के नव-निर्माण का आधार हो सकती है.
उन्होंने इस देश की धरती को खोदकर पुराने मंदिरों को, पुरानी इमारतों को, पुराने अवशेषों को खोज-खोजकर निकालना शुरू किया
और निकाल कर उन शिलालेखों को, सिक्कों को, मंदिरों को, मूर्तियों को ढूंढ़कर एक ऐसा नया इतिहास लिखने का प्रयास किया, जिसका एकमात्र उद्देश्य था इस देश को मानसिक रूप
से इस हद तक गुलाम बना देना कि वह स्वयं आत्म-विस्मृत होकर उनके पश्चिमी रंग में
ही रंग जाए और उन्हीं के वर्चस्व को स्वीकार कर ले. इस वातावरण में हमारे देश के
बुद्धिजीवियों ने नये सिरे से भारतीय अस्मिता की खोज आरंभ की. यह खोज राजा राममोहन
राय से शुरू होती है, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविन्द, लोकमान्य तिलक आदि ने हिन्दुओं में और सर सैयद अहमद खां और उनके दूसरे
साथियों ने मुसलमानों में एक सुधार स्थापित करने की भरपूर कोशिश की. निश्चय ही इस
अर्थ में भारतीय अस्मिता की खोज, खोज भर नहीं थी, वह अंग्रेजी इरादों के विरुद्ध एक लड़ाई जारी
रखने और अपनी हिफाजत करने का मुख्य आधार थी.
स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े लोगों के बीच इस प्रक्रिया की अंतिम कड़ी
के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू की ये तीनों किताबें अत्यंत महत्वपूर्ण थी. इन
तीनों किताबों को लेकर पुरातनतावादी या सनातनतावादी विद्वानों को उतनी चिन्ता नहीं
थी जितनी अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त उन मध्यवर्गीय लोगों को थी, जिनके लिए हमारा अतीत एक दूसरा संसार था, एक दूसरी दुनिया थी, जिस दुनिया से अंग्रेजों ने हमें काटकर अलग कर
रखा था. कई बार होता यह है कि हम पराई जगह जाकर अपने देश की पहचान ज्यादा बेहतर
ढंग से कर पाते हैं, शायद इसीलिए इंग्लैंड में पढ़ने वाले जवाहरलाल में इस देश को पहचानने
की तड़प का होना ज्यादा स्वाभाविक था.
पंडित नेहरू ने अपनी इस तड़प और खोज का महत्व बतलाते हुए कहा था कि
‘‘अगर किताबों और पुराने स्मारकों और गुजरे हुए जमाने के सांस्कृतिक कारनामों ने हिन्दुस्तान की कुछ जानकारी मुझमें पैदा की, फिर भी उनसे मुझे संतोष न हुआ और जिस बात की मुझे तलाश थी उसका पता न चला और वो उससे मिल भी कैसे सकता था और मैं यह जानने की कोशिश में था कि उस गुजरे हुए जमाने का हाल के जमाने से कुछ सच्चा ताल्लुक है भी या नहीं. मेरे लिए और मेरे जैसे बहुतों के लिए जमाने का हाल में कुछ ऐसा था कि जिसमें मध्य युग की हद दर्जे की गरीबी, दुख और बीच के वर्गों की कुछ हद तक सतही आधुनिकता की एक अजीब खिचड़ी थी. मैं अपने जैसे या अपने वर्ग के लोगों को सराहने वाला नहीं था, लेकिन मुझे उम्मीद थी कि वही हिन्दुस्तान की हिफाजत में या लड़ाई में आगे आयेगा.’’
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा था,
‘‘नई शक्तियों ने सिर उठाया. उन्होंने हमें गांवों की जनता की ओर धकेला और पहली बार हमारे नौजवान पढ़े-लिखों के सामने एक नये और दूसरे हिन्दुस्तान की तस्वीर आई जिसकी मौजूदगी को वे गरीब करीब करीब भुला ही चुके थे या जिसे वो ज्यादा अहमियत नहीं देते थे. इस तरह हमारे लिए असली हिन्दुस्तान की खोज शुरू हुई और इसने जहां एक तरफ हमें बहुत-सी जानकारी हासिल कराई, दूसरी तरफ हमारे अन्दर कश्मकश भी पैदा कर दी. मेरे लिए सचमुच यह एक खोज की यात्रा साबित हुई और जब मैं अपने लोगों की कमियों और कमजोरियों को दुख के साथ समझता था, वहीं मुझे हिन्दुस्तान के गांवों में रहने वालों कुछ ऐसी विशेषता मिली, जिसको लफ्जों में बताना बड़ा कठिन था और जिसने मुझे अपनी तरफ खींचा. यह विशेषता ऐसी थी जिसका मैंने अपने यहां के बीच के वर्ग में बिल्कुल अभाव पाया था. आम जनता की मैं आदर्शवादी कल्पना नहीं करता हूं और जहां तक हो सकता है अमूर्त रूप से उसका खयाल करने से बचता हूं. हिन्दुस्तान की जनता इतनी विविध और विशाल होते हुए भी मेरे लिए बड़ी वास्तविक है. ये हो सकता है कि चूंकि मैं उनसे कोई उम्मीदें नहीं रखता था इसलिए मुझे मायूसी नहीं हुई. जितनी मैंने आशा कर रखी थी, उससे मैंने उन्हें बढ़कर ही पाया. मुझे ऐसा जान पड़ा कि उनमें जो मजबूती और अन्दरूनी ताकत है उसकी वजह यह है कि वह अपनी पुरानी परंपरा अब भी अपनाए हुए है.’’
जवाहरलाल नेहरू के भीतर भारत की खोज की आग एकबार तब उठी जब वे पांच
हजार साल पुरानी सभ्यता मोहनजोदड़ो के अवशेषों पर खड़े थे और उन अवशेषों को देखकर
उन्हें गर्व हुआ था कि पांच हजार साल पहले भारत में ऐसी विकसित नगर-सभ्यता थी, जैसी सभ्यता दुनिया के इतिहास में कहीं नहीं थी.
उन खंडहरों पर खड़े होकर उन्होंने पहली बार यह महसूस किया कि भारत को खोजना है तो
केवल खंडहरों में खोजने काम नहीं चलेगा, उसे खोजना है तो किताबों की खाक छाननी पड़ेगी और उसे कहीं और भी खोजना
पड़ेगा. उस हिन्दुस्तान को देखना पड़ेगा जो खंडहर नहीं है, जो जीता-जागता और जीवंत है और जिसे खुद जनता ने
बनाया है. उस जनता के संपर्क में आने के बाद खुद जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि ‘कुछ लोगों के लिए जनता अमूर्त है, लेकिन मेरे लिए वह बड़ी वास्तविक और हाड़-मांस की
ठोस जीती-जागती चीज है. बहुत से लोग कहते हैं कि जनता ये कर देगी, वो कर देगी, हम जानते हैं कि उसकी भी अपनी सीमाएं हैं.’ इन सीमाओं को जानने के बाद पंडित नेहरू ही यह कह
सकते थे कि
‘‘मैं चूंकि उससे बड़ी उम्मीदें नहीं रखता इसलिए मुझे कोई मायूसी नहीं हुई, जितनी मैंने आशा कर रखी थी, उससे मैंने उसे बढ़कर ही पाया है.’’
जिसका सबूत है कि हिन्दुस्तान को आजादी जनता ने दिलाई, कुछ चन्द पढ़े-लिखे लोगों ने या बाहर से आए हुए
नेताओं ने नहीं. इस जनता की मदद के बिना भारत की अपनी पहचान नहीं की जा सकती थी.
इसलिए मोहनजोदड़ो और आज की जनता ये दोनों जिस बिन्दु पर मिलते हैं, वहां उसकी खोज सबसे महत्वपूर्ण खोज है और
जवाहरलाल ने फिर कहा है कि मोहनजोदड़ो से लेकर आज तक जनता जिस रूप में दिखाई पड़ती
है, यह जो नैरन्तर्य है, ये जो अविच्छिन्नता है, क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ! तमाम उथल-पुथल
और तूफानी हमलों के बावजूद हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से जो शुरुआत हुई या और पहले से
हुई होगी, सबूत जिसका मिलता है.
हड़प्पा-मोहनजोदड़ो ईसा से तीन साढे़-तीन हजार साल पहले थी, तबसे लेकर आज तक जो नैरन्तर्य दिखाई पड़ता है, वो क्या है, इसकी तलाश ही भारतीय अस्मिता की तलाश है.
जवाहरलाल नेहरू ने ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में ‘भारत : एक खोज’ नाम का जो अध्याय लिखा है वह इस किताब का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है.
उन्होंने भारतीय अस्मिता या भारतीय संस्कृति की बहुत अच्छी उपमा दी है - अंग्रेजी
का एक शब्द है ‘पेरेंसिस्ट’, जिसका यूरोप के संदर्भ में अर्थ बनता है चर्म पत्र और हमारे संदर्भ
में भोज पत्र अर्थात् पेड़ की छाल, जिस पर कुछ लिखा जाता था और एक लिखावट को मिटाकर दूसरी इबारत लिखी
जाती थी, फिर उसे मिटाकर
तीसरी इबारत लिखी जाती थी. भारतीय अस्मिता की पहचान के लिए इस तरह पंडित नेहरू ने
भोज-पत्र के रूप में एक बहुत अच्छा शब्द काम में लिया था. कैसा है यह भोज-पत्र, क्या रूप है इसका, स्वयं पंडित नेहरू के शब्दों में देखें :
‘‘मैं हिन्दुस्तान में और भी दूर दूर के हिस्सों में, शहरों और कस्बों और गांवों में घूमा. हिन्दुस्तान की जमीन और उसके लोग मेरे सामने फैले हुए थे और मैं एक बड़ी खोज की यात्रा में था. हिन्दुस्तान, जिसमें इतनी विविधता और मोहिनी शक्ति है, मुझ पर धुंध की तरह सवार था और ये धुंध बढ़ती ही गई, जितना ही मैं उसे देखता था, उतना ही मुझे इस बात का अनुभव होता था कि मेरे लिए या किसी के लिए भी जिन विचारों का वह प्रतीक था, उसे समझ पाना कितना कठिन था. उसके विस्तार से या उसकी विविधता से मैं घबराता नहीं था, लेकिन उसकी आत्मा की गहराई ऐसी थी जिसकी थाह मैं नहीं पा सकता था, अगरचे कभी कभी उसकी झलक मुझे मिल जाती, ये किसी कदीम भोज-पत्र जैसा था, जिस पर विचार और चिन्तन की तहें एक पर एक जमी हुई थी और फिर भी बाद की तह ने पहले से आंके हुए लेख को पूरी तरह मिटाया नहीं था. उस वक्त हमें भान चाहे हो न हो, ये सब एकसाथ हमारे चेतन और अवचेतन में मौजूद है और ये सब मिलकर हिन्दुस्तान के पेचीदा और भेद भरे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं.’
इसी क्रम में अपनी खोज के मकसद का खुलासा करते हुए उन्होंने लिखा
- ‘‘जैसा चेहरा अपनी भेदभरी और कभी-कभी व्यंग्य भरी मुस्कुराहट के साथ सारे हिन्दुस्तान में दिखाई देता था, अगरचे ऊपरी ढंग से हमारे देश के लोगों में विविधता, विभिन्नता दिखाई देती थी, लेकिन सभी जगह वो समानता और वो एकता मिलती थी, जिसने हमारे दिन चाहे जैसे बीते हों, हमें साथ रखा. हिन्दुस्तान की एकता अब मेरे लिए एक खयाली बात न रह गई थी, एक अन्दरूनी अहसास था और मैं इसके बस में आ गया. यह एकता ऐसी मजबूत थी कि किसी राजनैतिक विलगाव में, किसी संकट में या किसी आफत में उसने फर्क न आने दिया. हिन्दुस्तान की इस आत्मा की खोज में मैं लगा रहा. कुतुहलवश नहीं, अगरचे कुतुहल यकीनी तौर पर मौजूद था, बल्कि इसलिए कि मैं समझता था कि इसके जरिये मुझे अपने मुल्क और अपने मुल्क के लोगों को समझने की कुंजी मिल जाएगी और विचार तथा काम के लिए कोई सूत्र हाथ लग जाएगा.’’
- ‘‘जैसा चेहरा अपनी भेदभरी और कभी-कभी व्यंग्य भरी मुस्कुराहट के साथ सारे हिन्दुस्तान में दिखाई देता था, अगरचे ऊपरी ढंग से हमारे देश के लोगों में विविधता, विभिन्नता दिखाई देती थी, लेकिन सभी जगह वो समानता और वो एकता मिलती थी, जिसने हमारे दिन चाहे जैसे बीते हों, हमें साथ रखा. हिन्दुस्तान की एकता अब मेरे लिए एक खयाली बात न रह गई थी, एक अन्दरूनी अहसास था और मैं इसके बस में आ गया. यह एकता ऐसी मजबूत थी कि किसी राजनैतिक विलगाव में, किसी संकट में या किसी आफत में उसने फर्क न आने दिया. हिन्दुस्तान की इस आत्मा की खोज में मैं लगा रहा. कुतुहलवश नहीं, अगरचे कुतुहल यकीनी तौर पर मौजूद था, बल्कि इसलिए कि मैं समझता था कि इसके जरिये मुझे अपने मुल्क और अपने मुल्क के लोगों को समझने की कुंजी मिल जाएगी और विचार तथा काम के लिए कोई सूत्र हाथ लग जाएगा.’’
राजनीति और चुनाव की रोजमर्रा की बातें ऐसी होती हैं कि जिनमें हम जरा
से मामलों में उत्तेजित हो जाते हैं लेकिन अगर हिन्दुस्तान के भविष्य की इमारत तैयार
करना चाहते हैं, जो मजबूत और खूबसूरत हो तो हमें गहरी नींव खोदनी पड़ेगी. भारत का हर
गांव, हर कस्बा, हर शहर और इस तरह समूचा भारत एक भोज-पत्र है, जिस पर हजारों बार लिखा गया है और हर लिखावट
थोड़ी मिट गई है, लेकिन फिर भी बची हुई है और सारी लिखावटें एकसाथ बची हुई हैं. ये एक
जादू है, एक करिश्मा है और इन
सब लिखावटों को पढ़ना, पढ़कर उनमें एकसूत्रता स्थापित करना और उसके नैरन्तर्य को देखना, इस विविधता और एकता की पहचान करना, यह एक चीज थी जो जवाहरलाल ने हिन्दुस्तान को एक
भोज-पत्रनुमा देखकर पहचान करने की कोशिश की.
दरअसल हिन्दुस्तान की कहानी के पीछे जो गहरा अहसास है, और वह अहसास संक्रामक है, जो बिजली के तार की तरह पढ़ने वाले को छूता है, तो वह अहसास बड़ी चीज है, जो यह किताब कराती है. नेहरूजी ने इसके साथ यह भी
कहा था कि यह हमने कुतुहलवश नहीं किया है, बल्कि जाने हुए को महसूस करना था, छूना था और उस महसूस करने की वजह क्या थी, उन्होंने कहा कि
‘‘मैं अपने लोगों को समझने की कुंजी नहीं जानता. हिन्दुस्तान की आत्मा खोजने का मतलब था, लोगों को समझना, पहचानना, क्योंकि उन्हीं लोगों से आजादी की लड़ाई लड़नी है और उन्हीं लोगों से आजाद हिन्दुस्तान का निर्माण भी करना है.’’
‘‘मैं अपने लोगों को समझने की कुंजी नहीं जानता. हिन्दुस्तान की आत्मा खोजने का मतलब था, लोगों को समझना, पहचानना, क्योंकि उन्हीं लोगों से आजादी की लड़ाई लड़नी है और उन्हीं लोगों से आजाद हिन्दुस्तान का निर्माण भी करना है.’’
और जिन लोगों को निर्माण के काम में लगाना है
, उन्हें जानना बहुत जरूरी है. उन्होंने यह भी लिखा
था कि ‘विचार और काम के लिए
कोई सूत्र हाथ लग जाए और अगर हम हिन्दुस्तान की भविष्य की इमारत तैयार करना चाहते
हैं, जो ‘मजबूत और
खूबसूरत हो’, दोनों शब्दों पर ध्यान दें. कुछ लोग हिन्दुस्तान
को मजबूत इमारत बनाना चाहते हैं और मजबूत इमारतें लोगों ने बनाई हैं, लेकिन मजबूत भी हों और खूबसूरत भी हो, ऐसी इमारत के लिए नेहरूजी ने कहा कि हमें गहरी
नींव खोदनी पड़ेगी. उस गहरी नींव को खोदने के लिए जरूरी है कि आप हिन्दुस्तान की
आत्मा को गहराई से जानें, नींव जहां आप खोदने जा रहे हैं, उस जमीन की गहराई से जब तक आप वाकिफ नहीं होंगे, तब तक आप जो भी खुदाई करेंगे, वो सतह की होगी और इमारत यही नहीं कि मजबूत नहीं
होगी, खूबसूरत भी नहीं
होगी. इसलिए जवाहरलाल नेहरू के लिए हिन्दुस्तान की खोज दिमागी अय्याशी नहीं थी, वह उनके लिए सतही दिलचस्पी या कुतुहल की चीज नहीं
थी, बल्कि उस कुंजी की
खोज करनी थी, जिस पर हिन्दुस्तान
की मजबूत और खूबसूरत इमारत बनानी थी. इसलिए ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ या ‘भारत की खोज’ एक मामूली किताब नहीं है, बल्कि वह घोषणापत्र है, जिस पर आजाद हिन्दुस्तान के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास की नींव खड़ी की गई
है.
जवाहरलाल नेहरू ने इसी किताब के अंत में, जहां भूमिका भाग में हिन्दुस्तान की खोज है, वहां उपसंहार करते हुए उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण
सवाल उठाते हुए, स्वयं अपने लिखे हुए का सारांश बताया है -
नेहरूजी की यह विनम्रता देखने योग्य है. उन्होंने लिखा था,
‘‘मैं क्या खोज कर पाया, क्या खोजा है मैंने, ये कल्पना कर पाना कि मैं उसे पर्दे के बाहर ला सकूंगा और उसके वर्तमान और अति प्राचीन युग के स्वरूप को देख पाऊंगा, एक अनधिकार चेष्टा थी.’’
नेहरूजी की यह विनम्रता देखने योग्य है. उन्होंने लिखा था,
‘‘आज चालीस करोड़ अलग अलग स्त्री-पुरुष हैं, सब एक दूसरे से भिन्न हैं और हर एक व्यक्ति विचार और भावना की दुनिया में रहता है. अब मौजूदा जमाने की ही यह बात है तो गुजरे जमाने की बात तो और भी मुश्किल रही होगी, जिसमें अनगिनत इन्सानों और अनगिनत पीढि़यों की कहानी है. फिर भी किसी चीज ने उन सब को एक साथ बांध रखा है और वह उन्हें अब भी बांधे हुए है. हिन्दुस्तान की भौगोलिक और आर्थिक सत्ता है, उसमें विभिन्नता में एक सांस्कृतिक एक्य है और बहुत-सी परस्पर विरोधी बातें सुदृढ़ हैं, लेकिन अदृश्य धागे से एकसाथ गुंथी हुई हैं. बार बार आक्रमण होने पर भी उसकी आत्मा कभी जीती नहीं जा सकी और आज भी जब वो एक अहंकारी विजेता का क्रीड़ा-स्थल मालूम होता है, उसकी आत्मा अपरास्त और अविजित है. एक पुरानी किंवदंती की तरह उसमें पकड़ में न आने का गुण है, ऐसा मालूम होता है कि कोई जादू उसके दिमाग पर छाया हुआ है. वो तो असल में एक विचार है और एक गाथा है, एक कल्पना चित्र है और स्वप्न है, किन्तु है सच्चा, सजीव और व्यापक. कुछ अंधियारे पहलुओं की डरावनी झलक भी दिखाई देती है और हमको आरंभिक युग की याद आती है, लेकिन साथ ही सम्पन्न और उजले पहलू भी. उसका एक गुजरा जमाना है और कहीं कहीं उससे शर्म महसूस होती है या नफरत होती है, उसमें जिद है और गलती भी है और कभी कभी उसमें एक भावुक उद्विग्नता भी दिखाई देती है फिर भी वो बहुत प्रिय है और उसके बच्चे चाहे वे कहीं के भी हों, वे कैसी भी परिस्थिति में हों, उसको भुला नहीं सकते. वजह यह है कि वो उन सबसे संबंधित है और उसकी महानता और खामियों का उनसे ताल्लुक है. वे सब जिन्होंने बेहद बड़े परिमाण में जिन्दगी की कामना, खुशी और गलती को देखा है और जिन्होंने ज्ञानकूप की थाह ली है, और उसकी उन आंखों में प्रतिबिंबित होते हैं, उनमें से हरेक उसकी ओर आकर्षित है, लेकिन हरेक आकर्षण का सबब शायद जुदा जुदा है और कभी कभी तो उसके पास उसका कोई खास सबब भी नहीं है, हरेक को उसके बहुरंगी व्यक्तित्व का एक अलग पहलू दिखाई पड़ता है.’’
तो इस तरह जवाहरलाल ने अपनी इस खोज के दौरान यह देखा कि जो बुराई के
साथ अच्छाई है, विविधता में एकता है और यह जो जादू है, एक स्वप्न है, कल्पना चित्र है, कुछ वैसा ही कल्पना-चित्र या स्वप्न हिन्दी में निराला, पन्त, प्रसाद ने भी अपनी कविता के आकाश में इन्द्रधनुष के रूप में देखा था, उसी दौर में जो रवीन्द्रनाथ की रंगीन मधुर
कविताएं थीं, जवाहरलाल नेहरू का
ताल्लुक भी उसी दौर से था, इसलिए यदि उन्हें हिन्दुस्तान एक स्वप्न की तरह मालूम होता है, एक कल्पना-चित्र लगता है, एक ख्वाब मालूम होता है, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, लेकिन उन कवियों की तरह हिन्दुस्तान की उन
गलतियों और कमजोरियों की तरफ भी उनकी नजर गई, जिनको देखकर हमें शर्म महसूस होती थी, यथार्थ के उस पहलू को भी उन्होंने कभी अनदेखा
नहीं किया. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी चेतना में मोहनजोदड़ो से लेकर आज तक के इस
यथार्थ को जिन्दगी के ठोस अनुभवों की रोशनी में देखा. सवाल यह है कि जो पहचान
नेहरू ने की वह क्या थी? क्या पहचाना गहराई में पैठकर और अस्मिता की उस खोज में आखिर क्या
नयापन पाया?
भारत मुख्यतः किसानों और मजदूरों का देश माना गया है, वह भारत माता नहीं है, उतना खूबसूरत भी नहीं है जितना पेश किया जाता है, वह हजारों वर्षों से संघर्षरत रहा है, कभी जीता है कभी हारा है, लेकिन इधर पश्चिम से जो एक सर्वशक्तिमान पूंजीवाद
की सत्ता आई है, उसके सामने इसे परास्त होना पड़ा है. गौर करने की बात यह भी है कि पश्चिम
से केवल पूंजीवाद ही नहीं आया है, कुछ और भी आया है और वह है साम्यवाद. इसी साम्यवाद के लिबास को अपनाने
पर ही वह पूंजीवाद से मुकाबला कर पाएगा.
पश्चिम से साम्यवाद की जो चेतना आई है उस चेतना को अपनी जरूरत के
मुताबिक थोड़ा बदलना भी पड़ सकता है, उसमें थोड़ी काट-छांट करनी पड़ेगी. हिन्दुस्तान का जो जनमानस है, उसमें किसानों, मजदूरों के अलावा भी कई तरह के लोग हैं, इसका कोई स्पष्ट वर्गीकरण भी नहीं है, विद्वानों ने अपने ढंग से समय के साथ आए बदलावों
को रेखांकित भी किया है और इसका गहरा असर पड़ा है. पंडित नेहरू ने अपनी भूमिका में
स्वयं लिखा भी है, ‘‘इन 12 सालों में मैं बहुत बदल गया हूं, मैं ज्यादा विचारशील
हो गया हूं, शायद मुझमें ज्यादा संतुलन और अलहदगी की भावना और मिजाज की शान्ति आ
गई है.’’
यानी 12 सालों के बीच साम्यवाद के प्रति वो झुकाव, समाजवाद के प्रति आदर्शपूर्ण निष्ठा, वर्ग-संघर्ष के माध्यम से इतिहास को समझने की
दृष्टि, किसानों और मजदूरों
का विशेष रूप से हितसाधन, इन सारी बातों के स्थान पर, जैसा उन्होंने कहा कि मैं विचारशील हो गया हूं, संतुलन आ गया है या अलहदगी की भावना, एक ‘डिटैचमेंट’, एक निस्पृहता, निःसंगता की भावना आ गई है और ये सारी बातें सूचित करती हैं.
खास बात तो यह है कि जवाहरलाल की यह पारदर्शी ईमानदारी ध्यान देने
लायक है. वे कह सकते थे कि मैं नहीं बदला हूं, आज भी उन्हीं बातों पर कायम हूं, तो कोई दबाव नहीं था उन पर, लेकिन उनकी इस ईमानदारी पर प्यार आता है और उनसे
हर भारतीय लगाव महसूस करता है कि एक आदमी अपने भीतर घटित होने वाले परिवर्तनों को
साफ साफ स्वीकार करता है और ये बातें जो सामने आई हैं, उनसे यह साफ तौर पर जाहिर होता है कि हिन्दुस्तान
की जो तस्वीर 1935 में ‘मेरी कहानी’ में उपस्थित की गई थी, वह 1946 तक इन बारह वर्षों में काफी बदल गई है. इन बारह वर्षों में उनके सोच
और व्यवहार में जो निस्संगता, संतुलन और विचारशीलता आई है, या ’35 से ’46 तक भारतीय राजनीति में जो परिवर्तन घटित हुए हैं, 1940 और ’45 के बीच जो तनाव के
वर्ष रहे, दूसरा महायुद्ध हुआ, साम्प्रदायिक दंगों का सिलसिला चल निकला, दिन पर दिन लगने लगा कि समाजवाद तो बहुत दूर की
चीज है, हमारी तो आजादी ही
खतरे में है - एक बुर्जुआ लोकतंत्र ही गनीमत है, आप समाजवाद की बात कर रहे हैं ! इन 12 वर्षों के दौर में, जिसे नेहरू ने संतुलन कहा है, निस्संगता कहा है, ये सारी बातें उस मोहनजोदड़ों से लेकर ऋग्वेद और
ऋग्वेद के बाद प्राचीन भारत के इतिहास से गुजरते हुए जैसे मार्क्सवाद के प्रति
वैसी निष्ठा नहीं रह गई थी, हालांकि उससे एकदम संबंध टूटा भी नहीं था, लेकिन 1946 तक आते आते उसका स्थान वेदान्त ने ले
लिया, उसका स्थान बौद्धों
के बुद्धिवाद से उत्पन्न होने वाली करुणा ने ले लिया. यह वेदान्त और करुणा का
आकर्षण पूरे भारत की पहचान थी.
यह जानना वाकई दिलचस्प है कि सन् 1945 से पहले नेहरू ने
यह कभी नहीं कहा कि वे भारत की आत्मा की खोज करना चाहते हैं. सन् 1946 में ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ लिखते हुए वे भारत की आत्मा की खोज करने लगे और
जो आदमी आत्मा की खोज करने लगेगा, वह शरीर और आत्मा के द्वैत से बच नहीं सकता, यह भी जरूरी नहीं है कि वह भौतिकवादी रह ही जाए, फिर तो वह मानववादी होने के लिए ही अभिशप्त है.
‘हिन्दुस्तान की कहानी’ लिखते हुए पंडित नेहरू जिस अस्मिता की पहचान की, उसमें उन्होंने दो चीजें खोजीं - ये दो चीजें थीं, ‘कॉण्टीन्यूटी’ और ‘स्टैबिलिटी’, अर्थात् निरन्तरता और स्थिरता.
भारत की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी बहुत पुरानी सभ्यता, जिसमें पांच हजार सालों की निरन्तरता दिखाई देती है. यह सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से लेकर आज तक एक निरन्तरता बनी हुई है, लेकिन यह निरन्तरता तो चीन में थी, पुराने यूनान में बनी हुई थी, इसलिए निरन्तरता को ही अगर भारत की विशेषता कहा जाए तो यह अकेली भारत की विशेषता नहीं थी. यह विशेषता तो संसार के अन्य प्राचीन देशों की भी रही है, इसलिए विचारणीय बात यह हो गई कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम निरन्तरता को अधिक रूमानी रंग दे रहे हैं?
‘हिन्दुस्तान की कहानी’ लिखते हुए पंडित नेहरू जिस अस्मिता की पहचान की, उसमें उन्होंने दो चीजें खोजीं - ये दो चीजें थीं, ‘कॉण्टीन्यूटी’ और ‘स्टैबिलिटी’, अर्थात् निरन्तरता और स्थिरता.
भारत की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी बहुत पुरानी सभ्यता, जिसमें पांच हजार सालों की निरन्तरता दिखाई देती है. यह सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से लेकर आज तक एक निरन्तरता बनी हुई है, लेकिन यह निरन्तरता तो चीन में थी, पुराने यूनान में बनी हुई थी, इसलिए निरन्तरता को ही अगर भारत की विशेषता कहा जाए तो यह अकेली भारत की विशेषता नहीं थी. यह विशेषता तो संसार के अन्य प्राचीन देशों की भी रही है, इसलिए विचारणीय बात यह हो गई कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम निरन्तरता को अधिक रूमानी रंग दे रहे हैं?
जवाहरलाल नेहरू ने इस देश की जातीय स्मृति (रेशियल मेमोरी) की भी बात
कही है. जातीय स्मृति इस रूप में अवयव है कि लोगों को वेद याद है. जातीय स्मृति का
यह आलम है कि यदि मार्शल ने हड़प्पा-मोहनजोदड़ो को खोदा न होता तो उनके लिखित
दस्तावेजों से तो यह पता ही नहीं चलता. जातीय स्मृति का ही एक हाल यह था कि 19वीं सदी में एक अंग्रेज को खुदाई में अशोक के काल
का एक शिलालेख मिला, वह उस शिलालेख को लेकर बनारस के तमाम पंडितों के पास गया और कहा कि
इसको पढ़ो क्या लिखा हुआ है, तो कोई पंडित नहीं पढ़ सका. अगर जातीय स्मृति पर ही हम भरोसा रखते तो
हिन्दुस्तान के जो उपलब्ध दस्तावेज थे, उनसे महान् गुप्तों और महान् मौर्यों में से किसी का पता भी नहीं लगता, इसलिए जिस कॉण्टीन्यूटी की हम बात करते हैं या
जवाहरलाल ने जिस निरन्तरता पर बल दिया है, यदि वह निरन्तरता उसी तरह बनी रहती तो कायदे से
हमारे यहां पांच हजार साल पहले की समाज-व्यवस्था को आज भी चलता रहना चाहिए था और
आगे भी वह चलती रहे तो बहुत अच्छा है. लेकिन वैज्ञानिक सोच में विश्वास रखने वाले
सभी जानते हैं कि निरन्तरता कोई बड़ा गुण या विशेषता नहीं होती.
इसी देश में एक सनातनता का भी आदर्श रहा है. इसी तरह दूसरा आदर्श अगर
बुद्ध को ही माना जाए तो विच्छिन्न प्रवाह का रहा है. इसलिए इतिहास केवल धारा नहीं
है, इतिहास क्रान्तियों
का भी रहा है, परिवर्तनों का भी अपना इतिहास होता है. नेहरूजी संतुलन की बात करते
हुए ऐसा लगता है कि परिवर्तन के बड़े आदर्श को छोड़कर नैरन्तर्य पर चले गये. इसी
तरह पंडित नेहरू ने जिस दूसरी विशेषता पर बल दिया, वह थी ‘स्टेबिलिटी’ या पायदारी. इस पायदारी को हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी पहचान बताया जाता
है. इतने आंधी-तूफान आए, हमले हुए, लेकिन हिन्दुस्तान कायम रहा, वह उखड़ा नहीं यानि सभ्यता के रूप मे हिन्दुस्तान में जिजीविषा है.
लेकिन जीने से ज्यादा जरूरी होता है, सार्थक जीना.
महाभारत में कहा गया है कि सौ साल तक धुंआ देते हुए जलने की अपेक्षा
क्षण भर में जल जाना श्रेयस्कर है. ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ पढ़ते हुए हमें गंगा की धारा का-सा नैरन्तर्य दिखाई पड़ता है, उसमें एक सुखद स्थिरता भी दिखाई पड़ती है. लेकिन
समूची कहानी में वह स्थिरता उस विचारधारा पर कायम दिखाई देती है, जिसकी तह में छिपा हुआ दमन है, असंतोष है, कहीं जातिवाद के खिलाफ असंतोष तो व्यक्त किया गया
है, लेकिन उस दूसरी
परंपरा की कहानी नहीं कही गई है जो इस देश के आदिवासियों में, जनजातियों में अछूत समझी जाने वाली जातियों के
बीच असंतोष के रूप में फूटती रही है.
तीसरी बात जो पंडित नेहरू ने कही और जिस पर आज भी बहुत बल दिया जाता
है कि भारत की पहचान उसकी सामासिकता में है, जिसको भिन्नता में एकता या विविधता में एकता या ‘यूनिटी इन डाइवरसिटी’ भी कहा जाता है. ऊपर से देखने पर ऐसा लगता है कि
यहां प्रदेश, धर्म, क्षेत्र आदि को लेकर बहुत से भेदभाव काम करते हैं.
जबकि वास्तविकता यह है कि संसार की अन्य सभ्यताएं भी इसी तरह की बातों के साथ
विकसित हुई हैं, जहां इस तरह के भेदभाव एक सामान्य बात है. क्षेत्रीय भेद तो अन्यत्र
भी हैं, धर्म भेद भी मिलते
हैं. इस सामासिकता को किसी गुण के रूप में कहा जाए कि वह सबको जज्ब कर लेती है.
भारतीय सभ्यता के बारे में तो यही कहा जाता है कि जितने बाहर के लोग आए, उनको जज्ब कर लिया है, या हम लोगों ने अपना बना लिया है, उन्हें अपनी सभ्यता में समाहित कर लिया है.
स्थिति यह होती है कि इस जज्ब करने की प्रक्रिया में जो ‘हारमोनियस’ सभ्यता बनती है, उस सभ्यता के बारे में हम जज्ब करना तो जानते हैं, लेकिन जिस बात पर बल नहीं दिया गया वह यह कि हर
सभ्यता, हर संस्कृति इस
मिलने की प्रक्रिया में संग्रह भी करती है और त्याग भी करती है. जब तक आप त्याग के
बिना संग्रह करते रहेंगे, जहां भी होगा, वहां अपच होगा और बराबर एक संघर्ष की स्थिति बनी रहेगी. इसलिए कला में, संस्कृति में जब भी सामासिकता पैदा होती है और हर
समास में कई बार दोनों पद प्रधान नहीं रहा करते.
यह बात तो संस्कृत व्याकरण के लोग भी जानते हैं कि कहीं कहीं एक पद का प्रायः लोप भी हो जाया करता है. इसलिए पंडित नेहरू ने जिस सामासिक संस्कृति की बात कही, उसमें ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं पंडित नेहरू का व्यक्तित्व अनेक प्रकार की संस्कृतियों, सभ्यताओं और संस्कारों का कुंज था, जब वे भारत की संस्कृति की सामासिकता का जिक्र करते थे तो लगभग अपने व्यक्तित्व की सामासिकता और भारतीय संस्कृति की सामासिकता दोनों को एक-साथ आमने-सामने रखकर देखते थे.
यह बात तो संस्कृत व्याकरण के लोग भी जानते हैं कि कहीं कहीं एक पद का प्रायः लोप भी हो जाया करता है. इसलिए पंडित नेहरू ने जिस सामासिक संस्कृति की बात कही, उसमें ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं पंडित नेहरू का व्यक्तित्व अनेक प्रकार की संस्कृतियों, सभ्यताओं और संस्कारों का कुंज था, जब वे भारत की संस्कृति की सामासिकता का जिक्र करते थे तो लगभग अपने व्यक्तित्व की सामासिकता और भारतीय संस्कृति की सामासिकता दोनों को एक-साथ आमने-सामने रखकर देखते थे.
जब भी भारतीय संस्कृति की सामासिकता पर विचार करें, तो मानदंड के रूप में पंडित नेहरू के व्यक्तित्व
को हमेशा सामने रखें, बल्कि आप गांधीजी के व्यक्तित्व से तुलना करके भी देख सकते हैं कि
गांधीजी का व्यक्तित्व अधिक ‘इंटीग्रेटेड’ था या नेहरूजी का. एक ऐसा अंतरग्रथित, इंटीग्रेटेड या सामासिक व्यक्तित्व, जिसमें अनेक प्रकार के गुणों का मेल हो. एक तीसरा
व्यक्तित्व वह भी होता है, जिसमें अनेक तत्वों के बीच संघर्ष या तनाव हुआ करता है. जहां पश्चिम
और पूर्व का तनाव हो, नेहरूजी ने लिखा है,
‘‘मेरे भीतर पश्चिम और पूर्व का तनाव है, मेरे भीतर प्राचीन और आधुनिकता का तनाव है’’,
पंडित नेहरू का व्यक्तित्व भारतीय समाज के इन्ही तनावों के दौर से गुजर रहा था, इसलिए सामासिकता हमारे यहां वस्तुतः अंतर्द्वन्द्व, अंतर्संघर्ष, अंतर्विरोध और तनाव की स्थिति में रही है और यह विशेषता सामासिकता से ज्यादा महत्वपूर्ण है. इसी में उसकी जीवंतता है. इसके निराकरण के लिए समुचित प्रयास तथ्य के रूप में जब तक हम स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक हम एक सेमेटिक या काल्पनिक दुनिया में रहेंगे, अर्थात् ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में जवाहरलाल नेहरू ने नैरंतर्य और स्थिरता के साथ जिस सामासिकता पर सबसे अधिक बल दिया था, वह आज भी विचारणीय है.
अंतिम बात जो कहना चाहता हूं, वह यह कि ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ के रूप में पंडित नेहरू की यह कृति स्वाधीन भारत
का एक ऐसा दस्तावेज था, जो एक प्राचीन देश को आधुनिक बनाने का महत्वपूर्ण प्रयत्न साबित हुआ.
वे मानते थे कि आधुनिक बनाने के लिए विज्ञान उसकी बुनियाद है, जहां उन्होंने कहा कि ये नया है कि नहीं, अर्थात् वे प्राचीन भारतीय संस्कृति की
आध्यात्मिकता और पश्चिम की वैज्ञानिकता, इन दोनों के संयोग से नये भारत का विकास देखना चाहते थे. एक तरह से
देखें तो बंकिमचंद्र ने भी यही कहा था, यही रवीन्द्रनाथ कहते थे और विवेकानंद भी यही कहते थे कि भारत की अपनी
आध्यात्मिकता और पश्चिम का विज्ञान दोनों के योग से भारत आधुनिक राष्ट्र बन सकता
है.
जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक लेख में बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है कि
हम लोगों को प्राचीन को खोजने के लिए और सुदूर को खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की
जरूरत नहीं है. अपने देश के बाहर हमें वर्तमान की खोज के लिए जाना है और वह वाक्य
उनका बहुत ही दिलचस्प और महत्वपूर्ण है -
‘‘हम हिन्दुस्तानियों को सुदूर और प्राचीन की तलाश में देश के बाहर नहीं जाना है, उसकी हमारे पास बहुतायत है. अगर हमें विदेशों में जाना है तो वह सिर्फ वर्तमान की तलाश में, यह तलाश जरूरी है, क्योंकि उससे अलाहिदा रहने के मायने हैं कि पिछड़ापन और क्षय.’’
कुछ लोगों का कहना है कि बुनियादी रूप से यह एक तरह की औपनिवेशिक
जहनियत थी, अर्थात् पश्चिम
वर्तमान है, भविष्य पश्चिम के
साथ है क्योंकि पश्चिम में विज्ञान है, इसलिए हमें उन तमाम चीजों को लेकर अपना निर्माण और विकास करना पड़ेगा.
इस पूरी प्रक्रिया को बारीकी से देखने पर हम पाएंगे कि यह एक ऐसी विषम दौड़ की तरह
है, जिसमें पश्चिम
निरन्तर वर्तमान और भविष्य बनता चला जाएगा और हम इस दौड़ में निरंतर कम से कम 50 साल पीछे रहेंगे.
इस पूरी तेजी में निरंतरता, स्थिरता, सामासिकता और परिवर्तनशीलता की ऐतिहासिक प्रक्रिया के साथ हम एक ऐसे
नियम के अनुसार चलने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें बुनियादी चीज गायब है. ये हिन्दुस्तान की
निरंतरता, स्थिरता और
सामासिकता से अलग हटकर एक अमूर्त भाववादी ढंग से सोचने की प्रक्रिया है, जहां यह समझा जाता है कि परिवर्तन मशीन करती है, जबकि बुनियादी उसूल, जिसे पंडित नेहरू किसी समय बड़ी दृढ़ता से विश्वास
किया करते थे कि मनुष्य अपना इतिहास स्वयं बनाता है. जागता इन्सान इतिहास बनाने
वाली कोई मशीन नहीं हुआ करता, यह एक मानवीय समझ थी. हिन्दुस्तान की अपनी पहचान इसी मानवीय समझ में
आस्था, मनुष्य-जाति की
क्षमता में विश्वास और उसकी विवेकशीलता पर टिकी है.
यही बुनियादी समझ पंडित नेहरू
की ‘मेरी कहानी’ से निकलती है, जो ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ तक आते आते मद्धिम पड़ गई थी, मगर एकदम लुप्त नहीं हुई थी. नतीजा यह हुआ कि आगे
चलकर आजाद हिन्दुस्तान जिस दिशा में विकसित हुआ, वह ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ की सीमाओं से ग्रस्त है, ‘मेरी कहानी’ से उतना आलोकित और ऊर्जस्वित नहीं. इसके बावजूद पंडित नेहरू की वह
व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यवादी अंतर्दृष्टि इस अर्थ में आज भी प्रासंगिक है कि
हमारा प्रस्थान-बिंदु वहीं है और किसी भी नये चिन्तन का आधार प्रस्तुत करने के लिए
वही विचारधारा इस देश के लिए अधिक महत्वपूर्ण और ज्वलंत साबित होगी.
(१९८९)
_______________
(१९८९)
_______________
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31-07-2018) को "सावन आया रे.... मस्ती लाया रे...." (चर्चा अंक-3049) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
नामवर सर बास्तव में गुरु शब्द के जिंदा मिशाल हैं ।अधभुत ।
जवाब देंहटाएं"भारतीय अस्मिता" जैसी अवधारणाएं आमतौर पर, न केवल यहाँ बल्कि दूसरी जगहों पर भी, किसी देश या प्रदेश विशेष में रहने वाले व्यक्तियों पर थोपी जाती हैं। नेहरू ने यही किया था। इस व्याख्यान में नामवर जी भी कुछ ऐसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, यदि मैं अपनी बात करूँ तो मैं यह तो कह सकता हूँ कि मैं भारत नामक देश का नागरिक हूँ, परन्तु यदि मैं "भारतीय अस्मिता" की तलाश में अपने भीतर नज़र दौड़ाऊँ तो वहाँ मुझे एक बहुत ही जटिल वस्तु नज़र आती है जिसे केवल "भारतीय" नहीं कहा जा सकता। रुस्तम सिंह नाम का यह व्यक्ति न केवल भारत के इतिहास, दर्शन, साहित्य आदि के प्रभाव से बना है बल्कि कई अन्य इतिहासों, दर्शनों और साहित्यों के प्रभाव से भी बना है। इसलिए इन मायनों में वह केवल "भारतीय" नहीं है। मेरा ख़्याल है कि यही बात यहाँ के अधिकतर व्यक्तियों के बारे में भी कही जा सकती है। इसके अलावा, वैसे भी अस्मिता की अवधारणा आजकल एक विवादास्पद अवधारणा बन चुकी है और उसकी बात बहुत चौकस रहकर ही की जा सकती है।
जवाब देंहटाएंRustam Singh ये आपका अपना मनोगत (सब्जैक्टिव) विचार है रुस्तम जी, अन्यथा नेहरू या निर्मल वर्मा के बारे में ऐसी बेबुनियाद टिप्पणी करने से संकोच करते। किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके जन्म-स्थान, भाषा और जीवन-शैली से होती है, उसी के अनुरूप वह उस देश का नागरिक होने का हकदार होता है। आजादी की लड़ाई में अगुवा रहे अनेक नेताओं की शिक्षा-दीक्षा यूरोप या भारत से बाहर के देशों में हुई थी, इससे उनकी पहचान यूरोपीय या विदेशी नहीं हो जाती, ये अपने अाप में एक पूर्वाग्रही सोच है।
जवाब देंहटाएंभोजपत्रों के बीच अपनी पहचान की खोज तीनों स्तरों का मामला है-स्वयं का, देशीय संदर्भ का और वैष्विक वातावरण का।
जवाब देंहटाएंइस तीन स्तरीय पहचान वह जानकारी भी मुहैया कराती है जो जिजीविषा और भविष्य का भावी रास्ता हो सकता है।
A concise observation
जवाब देंहटाएंनामवर सिंह की वक्तृता सदा उच्चस्तरीय होती थी। यह भी कोई अपवाद नहीं है। स्वभावदुष्ट मैं सम्पादन की आवश्यकता बताऊँगा ही। संस्कृत उद्धरण कदाचित् ' आत्मानमधी:' अथवा 'आत्मानं विधी:' होगा और चमड़े का पट्टा शायद पार्चमेंट (parchment ) होगा न कि पेरेंसिस्ट।
जवाब देंहटाएंप्रकाश चन्द्र
जवाब देंहटाएंनि: संदेह स्वप्नदर्शी नेहरू का आत्मबोधी-अस्मिताबोधी गद्य मुग्ध करता है लेकिन,प्रधानमंत्रीय यथार्थ में भूमिहीनों, बेघरों,
अधनंगों, भूखों, आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों
यानि अस्सी प्रतिशत ज्ञानियों के लिए शासकीय
काल में क्या किया ?उनके स्वप्न और यथार्थ
प्रतिकूल हैं.
प्रकाश चन्द्र
जवाब देंहटाएंकृपया ज्ञानियों की जगह हाशिया पढ़ें.
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