२०१६
के मार्च महीने में बलराम शुक्ल की कुछ संस्कृत कविताएँ और उनके हिंदी अनुवाद समालोचन
पर प्रकाशित हुए थे. संस्कृत में समकालीन काव्य रीति में आधुनिक बोध की इन कविताओं
का लिखा जाना सबके लिए सुखद आश्चर्य की तरह था. आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी ने
टिप्पणी में लिखा – “बलराम शुक्ल संस्कृत कविता की नई संभावना हैं. कविताएँ और
उनके अनुवाद पढ़ते-पढ़ते लगा जैसे उगते हुए सूर्य की किरणों ने छुआ.” इसे संस्कृत को
पोंगापंथ से बाहर निकालने की कोशिश के रूप में भी देखा गया.
बलराम शुक्ल संस्कृत के
साथ साथ फ़ारसी के भी विद्वान् हैं और फ़ारसी में भी कविता लिखते हैं. उनकी कुछ नई
कविताएँ प्रस्तुत हैं. (अनुवाद कवि के द्वारा ही किये गये हैं.)
बलराम
शुक्ल की संस्कृत कविताएँ
पाषाणपूर्णं पुरम्
(पत्थरों
का शहर)
यत्र
त्वद्घटिता विभान्ति नगरेष्वट्टालिकामालिका
वस्तुं
तत्र न ते दिनानि कतिचित् कोणोऽपि वास्तूयते।
कृष्टैरन्नचयैस्तवैव
भरिता कोष्ठा यदीया भृशं
तस्यान्नप्रसृतिर्मनाक्
प्रसरति क्षुद्रार्भकेभ्यो न ते॥१॥
जिन
शहरों में तुम्हारी बनाई
ऊँची
अटारियों की पाँतें चकाचौंध कर रहीं हैं
वहीं
कुछ दिन रुक पाने के लिए
एक
कोना भी नसीब नहीं है तुम्हें
जिन
लोगों के कोठार
तुम्हारे
ही उपजाए अनाजों से भरे हुए हैं
उन्हीं
से अन्न की एक पसेरी भी नहीं निकल पा रही है
तुम्हारे
अभागे बच्चों के लिए भी.
उत्थानाय समर्पितस्तव निजो देहोऽपि येषां पुरे
सम्प्रत्युद्धरणाय
ते, किल करस्तेषामकिञ्चित्करः।
कर्तुं
स्वर्गसुचारु जीवितगतिं येषां त्वया रौरवास्
सोढाः,
सम्प्रति घस्मरां विषहसे तेषां जुगुप्सादृशम्॥२॥
जिन
शहरी लोगों को उठाने में
तुमने
अपना शरीर ही गिरवी रख दिया था
अब
तुम्हें उबारने के लिए
उनके
हाथ में ज़रा भी जुम्बिश नहीं
जिनकी
ज़िन्दगी को स्वर्ग जैसा बनाने के लिए
तुमने
रौरव जैसे नरक सहे थे
अब
उन्हीं की घातक घृणा दृष्टि भी सह रहे हो तुम.
आपन्नस्य पुरे पुरस्तव करात् ग्रामोऽपि विभ्रश्यते
हित्वा
दैवदरिद्र! नैजमुडुपं सच्छिद्रनौः सेविता।
आयातं
सुखजीवनं मृगयितुं यस्यां नगर्यां त्वया
दुर्दैवादिह
ते न वापि सुलभो मृत्युः प्रतिष्ठायुतः॥३॥
तुम
शहर में क्या फँसे
देखते
देखते गाँव भी तुम्हारे हाथों से छूट गया
दुर्भाग्य
के मारे तुम अपनी डोंगी छोड़कर
दूसरों
के छेदों से भरे जहाज पर बैठ गए
जिस
नगर में सुखी जीवन की खोज में आए थे तुम
विडम्बना
है कि वहाँ तुम्हें इज़्ज़त की मौत भी नसीब नहीं.
नो बन्धुस्तरलान्तरोऽत्र सरलः, स्वामी खरो निष्ठुरः
पाल्यो
न त्वमिहासि वा करुणया, शोष्योऽसि दासेरकः।
जानीहि
क्षणतृष्णिकाहतमते दूरापकृष्टैष ते
नो
ग्रामः परदुःखदुःखित इदं पाषाणपूर्णं पुरम्॥४॥
यहाँ
तुम्हारे सरल तरल बन्धु नहीं
यहाँ
तो हृदयहीन निठुर मालिक लोग विराजते हैं
यहाँ
कोई दया से भर कर तुम्हारा पालन नहीं करेगा
तुम
तो यहाँ सस्ते मजूर हो
दुर्भाग्य
तुम्हें दूर ले आया, मृगतृष्णा ने तुम्हारी
मति हर ली
ठीक
से जान लो
संवेदनाओं
से भरा गाँव नहीं है, ईंट पत्थरों से भरा
शहर है यह.
नो
ग्रामश्चिरहापितस्तव वशे दूरं सुदूरे स्थितः
ग्रावीभूतमथो
हितं न नगरं तुभ्यं चिराराधितम्।
नीचैर्नेतृभिरञ्चितो
हतबलो देशो न दिष्टाय ते
विश्वे
विष्वगपीह हन्त शरणं शीर्णस्पृहाणां न वः॥५॥
बहुत
पहले जिसे छोड़ दिया था
वह
गाँव अब तुम्हारी पहुँच से और भी दूर हो गया
सारी
उमर जिसकी सेवा की
वह
अहितकर शहर ही पत्थर हो गया
कमनज़र
भ्रष्ट नेताओं से भरे
इस
हतबल देश में तुम्हारा क्या भविष्य है?
टूटे
सपने वाले तुम लोगों के लिए, हाय
सारे
संसार में कहीं कोई सहारा नहीं
जनताधनतस्कराणाम्
(जनता
के लुटेरे)
धिक्कारमारचयते
मम वागमीषां दुःखार्जितार्त्तजनताधनतस्कराणाम्।
वैषम्यवर्धितवकाशविकाशकानामत्यन्तदुर्गमितभारतनायकानाम्॥
धिक्कार
करती है मेरी वाणी
दुर्गतिग्रस्त
भारत वर्ष के उन नेताओं की
जिन्होंने
लोगों के कठिनाई से कमाए हुए पैसे लूट लिए हैं
जिन्होंने
समाज में आर्थिक विषमता से बढ़ी हुई खाई
और
अधिक चौड़ी कर दी है
ग्रामान् विधाय बहुधा सुविधाविहीनान् यूनो विवास्य नगरे नरकाणि भोक्तुम्।
पित्रोरुपघ्नमदयं
जरतोर्विनिघ्नन् सर्वत्र नेतरपराध्यति कस्त्वदन्यः॥
नेताओ,
तुमने
गाँवों को सभी प्रकार की सुविधाओं से वञ्चित कर दिया
नौ–जवानों
को उम्र भर के लिए
महानगरों
में नरक भोगने के लिए निर्वासित कर दिया
बूढ़े
माता पिताओं के आसरे को निर्दयता पूर्वक छीन लिया
जरा
बताओ
तुम्हारे
अतिरिक्त अब और किसे दोष दिया जाए?
लोकान् दरिद्रयितुमातनुषेऽत्र शिक्षादुर्भिक्षमेव न च केवलमन्नजातम्।
त्वां
येन वेनमिव ते न विहीनसत्त्वा हुंकारमारचयितुम् प्रभवो भवन्तु॥
तुमने
लोगों को
केवल
अन्न की भुखमरी से ही नहीं
बल्कि
सुशिक्षा की कमी से भी अचेत कर दिया
जिससे
वे शारीरिक और मानसिक
दोनों
प्रकार के सामर्थ्य से विहीन हो जाएँ
तुम्हें
अपदस्थ न कर दें
जैसे
ऋषियों ने दुष्ट वेन को
अपने
हुंकार से अपदस्थ कर दिया था
यूनां कपोलगतगर्तघनान्धकारैः शुष्यत्कुचैर्नवकुपोषितयोषितां च ।
कम्प्रैः
करैः प्रवयसामसहायकानां सर्वत्र तुन्दिल शपाम्यपराध्यसि त्वम्॥
क़सम
खाकर कहता हूँ मैं
नौजवानों
के पिचके हुए गालों में पड़े गड्ढों के घने अन्धेरों की
कुपोषित
युवतियों की सूखती छातियों की
लाचार
बूढ़ों के काँपते हाथों की
तुँदीले
नेता,
तुम्हारे
अलावा और कोई भी अपराधी नहीं है।
“श्वो जायते सममपीह समं स्वदेशे”-ष्वस्वप्नजो बत निशामतिवाहयामः।
जाते
दिनेऽपि च पुनः श्वदशां वहामो राहाविव त्वयि, वयं
सुदिवा न सुश्वाः॥
हमारी
राते इस उम्मीद में जगते हुए गुज़रती हैं
कि
कल सुबह देस में सब कुछ ठीक हो जाएगा
लेकिन
दिन होने पर फिर से वही पशुओं की सी दशा अपरिवर्तित रहती है
तुम
उस राहु की तरह हो जिसके नाते
हमारे
दिन और रात सब पर ग्रहण लग गए हैँ.
भूमण्डले जनधनैः परिबम्भ्रमीषि ब्रूहि त्वया स विषयः क्वचिदप्यदर्शि?।
यत्राप्यशेषविभवे
सति मानवत्वं संयाति कीटकुलतुल्यमिमं
निकारम्॥
अच्छा,
लोगों के पैसों से तुम सारी दुनिया में सैर करते हो
तुम्हीं
बताओ, क्या कोई ऐसा देस तुमने देखा है
जहाँ
सारी सम्पत्ति रहने के बावजूद
मानवता
कीड़ों की तरह इस प्रकार अपमान सहती हो?
त्वं शैशवं शिशुजनाद् युवतां युवभ्यो मातुः सुतं पितुरशेषसुखं छिनत्सि।
वात्येव
वातुल प्रवर्तयसीह सर्वं तन्त्रं विशृङ्खलितमत्र समस्तलोके॥
तुमने
बच्चों से उनका बचपन,
जवानों
से उनकी जवानी,
माओं
से उनके बेटे
और
बाप से उनका आराम, सब छीन लिये हैं
हे विक्षिप्तचित्त,
तुमने समाज में सारी व्यवस्थाओं को
विशृंखलित कर दिया है.
मातेत्यलीकवचसा पितृमातृभूमिं सम्बोध्य वारवनितामिव धर्षयन्तम्।
“कुत्र
क्षिपामि नरके” विमृशत्यसाधुं त्वां दुष्पुरीषमिव संयमनीपुरीशः॥
इस
भूमि के लिए माता जैसा झूठा सम्बोधन करके
वारांगना
की तरह उसका धर्षण और शोषण करते हो
नरकपुरी
का राजा यमराज देर तक विचार करता रह जाता है
कि
वह मलराशि की तरह तुम्हें
नरक
के किस कोने में डाले?
नित्यं नवानृतविभाषणलुब्धलोकं निर्लज्जवच्च जनवञ्चनसज्जचित्तम्।
श्रद्धाय
भारतमसत्यपरायणं त्वां हीनात्म पश्य भृगुपातमिवातनोति॥
नित
नये नये झूठ बोलकर
तुम
लोगों को लुभाते हो
और
फिर निर्लज्ज की तरह उन्हें लूटने में लगे रहते हो
हे
नीच पुरुष,
तुझ
जैसे झूठे व्यक्ति पर विश्वास करके
भारत
मानो आत्महत्या पर उतारू हो गया है.
धिग्लोकवित्तमुषमर्थशुचित्वहीनं तद्गोपने विफलिताखिलनीतितन्त्रम्।
तज्जापवादपरिमार्जनलग्नवृत्तिं
तत्पापपाकपरिदूषितजीवजातम्॥
तुम
लोगों के पैसे लूटकर
आर्थिक
अशुचिता फैलाते हो
फिर
उसे छिपाने के लिए
अपने
सारे सरकारी महकमे का इस्तेमाल करते हो
भ्रष्टाचार
के कलंक को झुठलाने में
ज़मीन
आसमान एक कर देते हो
तुम्हें
धिक्कार है
तुम
अपने पाप से सारे समाज को प्रदूषित करते हो.
हा धिग् वसन्ततिलका तिलकायमानाच्छन्दःसु, निन्दनपरा तव सीदतीह!।
सर्वाङ्गसुन्दरवधूः
सुजनानुकूला दैवेन हस्तपतितेव विटाधमस्य॥
मुझे
बड़ा कष्ट यह है
छन्दों
के बीच तिलक की तरह सुन्दर
मेरी
इस वसन्ततिलका को व्यथित होकर
तुम्हारी
निन्दा करनी पड़ रही है
यह
दुर्घटना ऐसे ही है जैसे
सर्वाङ्गसुन्दर
कोई नई युवती
दुर्भाग्यवश
किसी नीच लफंगे के हाथ पड़ गई हो.
(तुम्हारी
गली की धूल से सने हुए)
सुगन्धिपाद्यतोयानामपदं
प्रपदे मम।
राजेते
नितरामेते त्वद्वीथीपांसुधूसरे॥
मेरे
इन पैरों को नहीं चाहिए सुगन्धित पाद्य जलों का अभिषेक
ये
दोनों तो वैसे ही खूब चमक रहे हैं
तुम्हारी
गली की धूल से सने हुए.
आमुक्ता नोत्तमाङ्गे स्यादुत्तमा मौक्तिकावली।
देहलीदृषदस्ते
तद् घर्षणात् सम्पदास्पदम्॥
मेरे
माथे पर मोतियों से बने
महँगे
के आभूषण न पहनाए जाएँ
यह
तो तुम्हारी चौखट के पत्थर के घिसने से बने
चिह्न
से वैसे ही शोभा का घर बना हुआ है
केशे भृङ्गसवेषे नो नामोदो मोददायकः।
तवायोगव्यथाधूलीजटिलो
कुटिलो वरम्॥
भौंरों
की तरह काले मेरे बालों में
सुगन्ध
का छिड़काव मुझे प्रसन्न नहीं करता
ये
कुटिल केश तो तुम्हारी विरह–व्यथा की धूल से
जटिल
ही अच्छे लगते हैं.
ममैतौ
हसतो हस्तावपि त्वद्दत्तदुःखतः।
नितरां
न मतं दोष्णोस्त्वदन्यादानदूषणम्॥
मेरे
हाथ ख़ुश हो जाते हैं
अगर
तुम्हारा दिया दुख भी इन्हें कहीं मिल जाता है
तुम्हारे
अलावा किसी और से कुछ भी लेने का लाञ्छन
ये
नहीं सह सकते.
अलिके तिलकं मह्यं पाटीरैः कुंकुमैश्चितम्।
न
तथा तनुते मोदं तनु तेऽङ्घ्रिरजो यथा॥
चन्दन
और कुंकुम से समृद्ध
माथे
का तिलक
मुझे
उतना प्रसन्न नहीं करता
जितना
तुम्हारे चरणों की तनिक सी धूल
सद्धाराणां महार्हाणामर्हणां न गलोऽर्हति।
त्वद्दास्यशृङ्खलाक्लिष्टकिणाङ्कपरिपूजितः॥
मेरा
गला ऐसा नहीं है कि इसका सम्मान
महँगे
हारों से किया जाए
इसकी
पूजा तो
तुम्हारे
दासत्व की जंजीर के कठिन घाव करते हैं।
कर्णयोः कर्णिकायुग्मं तिग्मद्युति न शोभते।
वचसी
श्रवसोर्भूषा भवतो भवतो यथा॥
मेरे
कानों को दो भड़कीले कर्णाभूषण
तनिक
भी सुशोभित नहीं करते
इनकी
सजावट तो है बस
तुम्हारी
दो बातों से
अन्तरा धनपीनानां स्वामित्वं धिक्करोति नः।
उच्चैस्त्वद्गर्भदासत्वगौरवं
पैतृकं धनम्॥
मेरी
खानदानी समृद्धि है–
गर्भ
से ही तुम्हारा नौकर हो जाने का गौरव
मेरी
यह समृद्धि
धिक्कार
करती है
धनपशुओं
के बीच बहुत सी वस्तुओं के स्वामी हो जाने को.
तृणाय
मनुमश्चण्डपाण्डित्यधिक्यविस्मयम्।
प्रिय
त्वत्प्रेम्णि मुग्धत्वममुग्धं जनुषः फलम्॥
मेरे
प्रचण्ड पाण्डित्य की अधिकता
बहुतों
को आश्चर्यचकित कर देती है
लेकिन
मैं उसे तिनके बराबर भी नहीं मानता
तुम्हारे
प्रेम में जो मैंने भोलापन अर्जित किया है
हे
प्रिय!
उसे
मैं अपने जीवन की सबसे चतुर उपलब्धि मानता हूँ
वासनाकण्डूः
(वासना
की खाज)
ममेयं
वासनाकण्डूस्त्वचि केन कदार्पिता।
नैकान्तेनापयातीयमपि
चारु चिकित्सिता।।
वासना
की खाज
किसने
कब लगा दी मेरी त्वचा पर
कितनी
दवाएँ कीं मैंने
फिर
भी नहीं जाती हमेशा के लिए यह
सङ्गायानुनयन्ती प्रागक्षाण्यधिकरोत्यनु।
हताशयन्ती
सर्वान्ते दद्रुर्भोगस्य दुर्भगा॥
अनुनय
करती है यह, पहले तो पास आने का
फिर
क़ब्ज़ा कर लेती है सभी इन्द्रियों पर
और,
अन्ततः कर डालती है हताश मुझे
यह
दुष्ट दाद
दुर्दमा दरशान्तेव सरीसर्ति तनौ पुनः।
शीताहतेव
भुजगी समुद्गूर्णफणा क्षणात्॥
शीत
से सिकुड़ी हुई कोई नागिन
फैलाती
है जैसे क्षण में गर्मी पाकर अपने फन
वैसे
यह दुर्दांत दाद शांत थोड़ी देर रहकर
चढ़
बैठती है फिर सारे बदन पर.
क्रामत्यधरकायं सा पूर्वकायाद् गताऽपि चेत्।
नक्तं
तन्वा विगृह्णाति दिवा सन्धिमती यदि॥
शरीर
के ऊपरी हिस्से को अगर इसने मुहलत दे दी तो
शरीर
के निचले हिस्से पर ज़रूर आक्रमण कर देती है
दिन
में अगर इसने राहत की साँस ली
तो
रात में ज़रूर धावा बोल देती है
पाताले मूलमाकाशे विषवल्ल्याः फलं यदि।
मर्मावधि
तुदन्तीयं चर्मावधि न वर्तते॥
जड़
है इस विष वल्लरी की पाताल में
और
फल है इसका आकाश में
मर्म
तक समाएँ हुए हैं डंक इस दाद के
है
नहीं विस्तार केवल चर्म ही तक
स्थूलां तनुमतिक्रान्ता सूक्ष्मामाक्षिप्य सौक्ष्म्यतः।
आत्मनीवार्पितास्माकं
दद्रुरेषा दुरत्यया॥
स्थूल
शरीर को कर आक्रांत यह
सूक्ष्मता
के कारण सूक्ष्म शरीर को भी पार कर चुकी है
पार
पाना है कठिन इससे बहुत
हो
चुकी है अंकित मानो यह हमारी आत्मा पर।
मर्षाम्यवमृशाम्येतां धावाम्यपि धुनोम्यपि।
प्रोञ्छामि
नैव वाञ्छामि क्लिश्ये, किन्तु न गच्छति॥
सहन
करता हूँ इसे मैं
सहलाता
हूँ, धोता हूँ, झाड़ता
हूँ, पोंछता हूँ
नहीं
चाहता हूँ इसे
कष्ट पाता हूँ इससे
पर
यह किसी भी तरह से जाती ही नहीं
निदानमामयस्यास्य माधवेनैव बुध्यताम्।
चक्रपाणेश्च
पाणिभ्यां भिषजो वा भिषज्यताम्॥
इस
रोग का निदान क्या है
शायद
माधव# को समझ में आ सके
या
फिर
इसका
इलाज
वैद्यराज
चक्रपाणि # के हाथ ही कर पाएँ.
___________
कृष्ण या माधवनिदान के रचयिता माधव नामक ।
कृष्ण या चरक संहिता के टीकाकार चक्रपाणि नामक
वैद्य।
__________________________
इन कविताओं को समालोचन पर स्थान देने के लिए बहुत धन्यवाद, Arun Dev जी!🙏🙏
जवाब देंहटाएंबलराम जी की कविताएँ प्रभावित करती हैं। उन्हें शुभकामनाएँ और समालोचन को धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद, सर!
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंअत्यन्त उपादेय कविताएँ हैं डॉ. बलराम शुक्ल जी की कवितायें समाज की यथार्थता को व्यक्त करती हुईं मन में एक रोमांच उत्पन्न करती हैं.... बहुत बहुत शुभकामनाएँ ऐसे ही इनकी लेखनी वास्तविकता को उजागर करती हुई समाज को एक प्रेरणास्पद नई दिशा प्रदान करती रहे! 🌼💐👏🏻👏🏻🙏🏻
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हटाएंबलराम शुक्ल की कवितायेँ हमें संस्कृत की रचनाशीलता के प्रति आश्वस्त करती हैं। बेहद खूबसूरत और आत्मीय।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद!💐💐
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअरुण जी, आपको बहुत धन्यवाद इन कविताओं को हम तक पहुंचाने के लिए। 'समालोचन' हिंदी कब लिए गर्व का विषय है।
जवाब देंहटाएंबस ग़ज़ब❗जो कभी ठीक से काव्योचित विषय बन नहीं पाए, कैसे आलोकित हो उठे हैं यहाँ।
जवाब देंहटाएंअरुण भैया को इस खोज के लिए धन्यवाद कि संस्कृत में ऐसी भी कविताएं लिखी जा रही हैं जो तलछट के लोगों को संबोधित होती हैं। बलराम शुक्ल की कविताएं समकालीन हिंदी कविता से किसी भी मायने में कम नहीं हैं। बलराम जी इस मिथक को भी ध्वस्त करते हैं कि संस्कृत में तथाकथित जनवादी किस्म की कविताएं नहीं लिखी जा सकती हैं। उत्कृष्ट कविताओं के लिए बलराम जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंगज़ब!!!
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंअति सुंदर कविता। वास्तविकता का एक पुंज
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद!
हटाएंजबरदस्त लेखन। नये रूप में संस्कृत कविता को देखकर आश्चर्य हुआ । बलराम जी आप और भी लिखते रहें, यही शुभकामना है।
जवाब देंहटाएंआपका हृदय से आभार!
हटाएंजिस शिक्षा को एक पूरा ग्रन्थ भी सही से नहीं समझा पाता, उसे एक छोटी सी कविता बहुत ही आसान से शब्दों में समझा जाती है । इस प्रकार की कविताओं की अविरल शृङ्खला बनाने पर डाॅ. बलराम शुक्ल जी का भूरिश: अभिनन्दन ।।
जवाब देंहटाएंश्याम सुन्दरजी, आपको कविताएँ पसन्द आयीं, इसका सन्तोष है।
हटाएंमैंने बलराम जी की सभी कविताएं बाक़ायदा सस्वर संस्कृत में बोलकर पढ़ीं। संस्कृत न जानते समझते हुए भी पता नहीं क्यों बहुत पहचानी-सी लगती है। कविताओं का हिंदी अनुवाद भी देखा। यह भी देखा कि संस्कृत में कितना प्रभुत्व है जो वक़्त की गर्दिशों में केवल एक प्राचीन धरोहर बनकर रह गयी है।
जवाब देंहटाएंबलराम जी सदृश अध्येता, साधक और समर्थ कवि संस्कृत और संस्कृति के लिए एक आश्वस्ति है।
अरुण जी का चयन, संपादन, प्रस्तुति और उत्कृष्ट के लिए जारी उनका भागीरथी प्रयास स्तुत्य है। समालोचन को हिंदी का गूगल कहना अतिशयोक्ति नहीं है।
आपकी टिप्पणी बहुत प्रोत्साहक है। इस आत्मीयता के लिए हृदय से धन्यवाद!💐💐
हटाएंआपका बहुत धन्यवाद!!💐💐💐
जवाब देंहटाएंइन कविताओं को पसन्द करने के लिए सभी रसिकों का हृदय से धन्यवाद। विशेषरूप से अरुणदेव जी का जिन्होंने इन्हेंं पुनः प्रकाशित किया।
जवाब देंहटाएंसंस्कृत कविता को पारम्परिक अर्थों में रचने को मैं एक बड़े रचनात्मक उत्तरदायित्व के रूप में देखता हूँ। भारत के मूल स्वभाव में है सभी कालों और सभी देशों की सुन्दर वस्तुओं को बचाकर रखना। हमारे समाज में संस्कृत की निरन्तरता इसी प्रवृत्ति परिणाम है। आप लोगों की इसके प्रति रुचि भी इसी चिरन्तन प्रकृति का सूचक है। इससे मन प्रोत्साहित होता है।
स्वाभाविक,सुन्दर, यथार्थ कवितायें। इनसे परिचित कराने के लिये सादर धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद!!
हटाएंमैं ने तो आधुनिक संस्कृत कविता से मुख ही मोड़ लिया था । कालिदास आदि के रहते, दूसरों को क्या पढना ?जिसमें अपाणिनीय भाषा भी सहनी होती है । ( आधुनिक संस्कृत कविओं में कुछ अपवाद जरूर है । ) किन्तु जिन कविताओं में आधुनिकता का सच्चा बल भी है और कवितातत्त्व का राम भी बसता हो - उसको तो अब पढ़ना ही होगा । शुभकामनाएं ।।
जवाब देंहटाएंआप जैसे कृतविद्य के द्वारा पसन्द किया जाना कविताओं का सौभाग्य है, आचार्यवर!💐💐💐
हटाएंबलराम शुक्ल जी की ये कविताएं उस मिथक को तोड़ती हैं कि आज की संवेदना संस्कृत काव्य भाषा में व्यक्त नहीं हो सकती। बहुत बधाई और बलराम जी की अन्य काव्य रचनाओं को पढ़ने की उत्सुकता बनी रहेगी। अनुवाद बहुत बेहतर किया है। कवि ने खुद किया है तो जैसे ये हिन्दी की भी रचनाएं हो गईं।
जवाब देंहटाएंआपका हृदय से धन्यवाद!!💐💐💐
हटाएंसंस्कृत का प्राचीन साहित्य पढ़ा है परंतु इस शिल्प में लिखी कविताएँ पहली बार पढ़ी हैं। सभी कविताएँ अच्छी हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद आपका!
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