भाष्य : मुक्तिबोध (लकड़ी का रावण): सदाशिव श्रोत्रिय


गजानन माधव मुक्तिबोध (१३ नवम्बर,१९१७ – ११ सितम्बर,१९६४) की लम्बी कविताओं में ‘ अँधेरे में’, ‘ब्रह्मराक्षस’ आदि की चर्चा होती है, पर ‘लकड़ी का रावण’ कविता पर ध्यान कम गया है. नाटकीयता और आंतरिक लय में यह कविता बेजोड़ है. इसे कवि के आत्मसंघर्ष के विस्तार के रूप में भी देखा जा सकता है.

इस कविता का पाठ कर रहें हैं सदाशिव श्रोत्रिय, जिन्हें आप लगातार समालोचन पर ही महत्वपूर्ण कविताओं पर पढ़ रहें हैं.

यह कविता भी दी जा रही है.    



कविता 


लकड़ी का रावण
गजानन माधव मुक्तिबोध


 

दीखता

त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से

अनाम, अरूप और अनाकार

असीम एक कुहरा,

भस्मीला अंधकार

फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर;

लटकती हैं मटमैली

ऊँची-ऊँची लहरें

मैदानों पर सभी ओर

 

लेकिन उस कुहरे से बहुत दूर

ऊपर उठ

पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक एक

मुक्त और समुत्तुंग!!

 

उस शैल-शिखर पर

खड़ा हुआ दीखता है एक द्यौ: पिता भव्य

निःसंग

ध्यान-मग्न ब्रह्म...

मैं ही वह विराट् पुरुष हूँ

सर्व-तन्त्र, स्वतन्त्र, सत्-चित्!

मेरे इन अनाकार कंधों पर विराजमान

खड़ा है सुनील

शून्य

रवि-चंद्र-तारा-द्युति-मंडलों के परे तक.

 

दोनों हम

अर्थात्

मैं व शून्य

देख रहे...दूर...दूर...दूर तक

फैला हुआ

मटमैली जड़ीभूत परतों का

लहरीला कंबल ओर-छोर-हीन

रहा ढाँक

कंदरा-गुहाओं को, तालों को

वृक्षों के मैदानी दृश्यों के प्रसार को

अकस्मात्

दोनों हम

मैं वह शून्य

देखते कि कंबल की कुहरीली लहरें

हिल रही, मुड़ रही!!

क्या यह सच,

कंबल के भीतर है कोई जो

करवट बदलता-सा लग रहा?

आंदोलन?

नहीं, नहीं मेरी ही आँखों का भ्रम है

फिर भी उस आर-पार फैले हुए

कुहरे में लहरीला असंयम!!

हाय! हाय!

 

क्या है यह!! मेरी ही गहरी उसाँस में

कौन-सा है नया भाव?

क्रमशः

कुहरे की लहरीली सलवटें

मुड़ रही, जुड़ रही,

आपस में गुँथ रही!!

क्या है यह!!

यह क्या मज़ाक़ है,

अरूप अनाम इस

कुहरे की लहरों से अगनित

कइ आकृति-रूप

बन रहे, बनते-से दीखते!!

कुहरीले भाफ-भरे चेहरे

अशंक, असंख्य व उग्र...

अजीब है,

अजीबोग़रीब है

 

घटना का मोड़ यह.

 

अचानक

भीतर के अपने से गिरा कुछ,

खसा कुछ,

नसें ढीली पड़ रही

कमज़ोरी बढ़ रही; सहसा

आतंकित हम सब

अभी तक

समुत्तुंग शिखरों पर रहकर

सुरक्षित हम थे

जीवन की प्रकाशित कीर्ति के क्रम थे,

अहं-हुंकृति के ही... यम-नियम थे,

अब क्या हुआ यह

दुःसह!!

सामने हमारे

घनीभूत कुहरे के लक्ष-मुख

लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु ये रूप, अरे

लगते हैं घोरतर.

 

जी नहीं,

वे सिर्फ़ कुहरा ही नहीं हैं,

काले-काले पत्थर

व काले-काले लोहे के लगते हैं वे लोग.

 

हाय, हाय, कुहरे की घनीभूत प्रतिमा या

भरमाया मेरा मन,

उनके वे स्थूल हाथ

मनमाने बलशाली

लगते हैं ख़तरनाक;

जाने-पहचाने-से लगते हैं मुख वे.

 

डरता हूँ,

उनमें से कोई, हाय

सहसा न चढ़ जाए

उत्तुंग शिखर की सर्वोच्च स्थिति पर,

पत्थर व लोहे के रंग का यह कुहरा!

 

बढ़ न जाएँ

छा न जाएँ

मेरी इस अद्वितीय

सत्ता के शिखरों पर स्वर्णाभ,

हमला न कर बैठे ख़तरनाक

कुहरे के जनतंत्री

वानर ये, नर ये!!

समुदाय, भीड़

डार्क मासेज़ ये मॉब हैं,

हलचलें गड़बड़,

नीचे थे तब तक

फ़ासलों में खोए हुए कहीं दूर, पार थे;

कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार थे.

अब ये लंगूर हैं

हाय हाय

शिखरस्थ मुझको ये छू न जाएँ!!

 

आसमानी शमशीरो, बिजलियो,

मेरी इन भुजाओं में बन जाओ

ब्रह्म-शक्ति!

पुच्छल ताराओं,

टूट पड़ो बरसो

कुहरे के रंग वाले वानरों के चेहरे

विकृत, असभ्य और भ्रष्ट हैं...

प्रहार करो उन पर,

कर डालो संहार!!

 

अरे, अरे !

नभचुंबी शिखरों पर हमारे

बढ़ते ही जा रहे

जा रहे चढ़ते

हाय, हाय,

सब ओर से घिरा हूँ.

 

सब तरफ़ अकेला,

शिखर पर खड़ा हूँ.

लक्ष-मुख दानव-सा, लक्ष-हस्त देव-सा.

परंतु, यह क्या

आत्म-प्रतीति भी धोखा ही दे रही!!

स्वयं को ही लगता हूँ

बाँस के व काग़ज़ के पुट्ठे के बने हुए

महाकाय रावण-सा हास्यप्रद

भयंकर!!

 

हाय, हाय,

उग्रतर हो रहा चेहरों का समुदाय

और कि भाग नहीं पाता मैं

हिल नहीं पाता हूँ

मैं मन्त्र-कीलित-सा, भूमि में गड़ा-सा,

जड़ खड़ा हूँ

अब गिरा, तब गिरा

इसी पल कि उस पल...

(संभावित रचनाकाल १९५७ से १९६३ के बीच)

 

 

भाष्य



मुक्तिबोध : लकड़ी का रावण
सदाशिव श्रोत्रिय

 


कोई भी कविता एक संवेदनशील मानव के द्वारा किसी काव्यात्मक भाव को अभिव्यक्ति देने का प्रयास ही तो होती है. इसीलिए मेरी मान्यता है कि उसे सबसे पहले हमें एक विशिष्ट मानवीय अनुभव की अभिव्यक्ति के रूप में देखने की कोशिश करनी चाहिए. इस दृष्टि से मुक्तिबोध की कविता “लकड़ी का रावण” को भी प्रमुखत: अपने परम्परागत विश्वासों से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे एक मार्क्सिस्ट कवि की रचना के रूप में पढ़ा जाना चाहिए. इस सन्दर्भ में चन्द्रकांत देवताले द्वारा उद्धृत क.प. सारथि का यह कथन महत्वपूर्ण है :

"मुक्तिबोध के कवि और मुक्तिबोध के आदमी के बीच मैं कोई नाटकीय दूरी नहीं पाता. मेरे लिए तो मुक्तिबोध की कविता साफ़-साफ़ मुक्तिबोध की ज़िन्दगी को प्रतिबिम्बित करने वाली है और इसे एक आत्मकथात्मक वृत्त के रूप में जिसका कवि नायक स्वयं मुक्तिबोध है, देखना ज़्यादा संगत लगता है. इस सिलसिले में यह कहने के ख़तरे को टाल नहीं पाऊंगा कि मुक्तिबोध ही अपनी कविता की हर पंक्ति, हर उस बिम्ब में जिसकी उन्होंने रचना की है, बोलते प्रतीत होते हैं."                                                                           

(मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक , पृष्ठ 28 )

स्वयं मुक्तिबोध ने नेमिजी को एक बार लिखा  था :

“याद है, आपकी बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है. आपने एक व्यक्ति के साथ नाज़ुक खेल खेला है. उसे कम्युनिस्ट बनाया, दुर्धर्ष घृणा के उत्ताप से पीड़ित..........यह काम बड़ा ही नहीं , नाज़ुक भी है.”

देवताले कहते हैं कि यह आदमी और कोई नहीं स्वयं मुक्तिबोध थे.

(मुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेक , पृष्ठ 23-24)

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुक्तिबोध एक आस्थावान ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और जो धार्मिक संस्कार उन्हें अपने परिवार से मिले होंगे उनसे मुक्त होकर पूरी तरह मार्क्सिस्ट नास्तिकता को अपनाना उनके लिए बहुत  आसान नहीं था. दिवाकार मुक्तिबोध के एक संस्मरणात्मक लेख का निम्नांकित अंश इस बात की पुष्टि करता हुआ प्रतीत होता है कि साम्यवादी विचारों से सहानुभूति रखते हुए भी वे कोई कट्टर नास्तिक नहीं बन पाए थे:

"पिताजी धार्मिक कर्मकान्ड पर कितना विश्वास रखते थे मुझे नहीं मालूम. उन्हें मन्दिर जाते न मैंने देखा न सुना. अलबत्ता दादाजी की गैरहाजिरी में या अस्वस्थ होने पर वे घर में पूजा ज़रूर करते थे, पूरे मंत्रोच्चार के साथ. होलिका दहन के दिन होली घर के बाहर सजाकर होली पूजा भी करते थे, बाकायदा धवल वस्त्र यानी धोती पहन कर. इसलिए वे नास्तिक तो नहीं थे, कितने आस्तिक वे थे, यह अब कौन तय कर सकता है? इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि वामपंथी विचारधारा से सहमत होने का अर्थ नास्तिक होना नहीं है. ईश्वर में आस्था सबकी होती है, भले ही कोई कुछ भी कहे."

(अक्षर पर्व , 15 जून ,2017 अंक , पृष्ठ 18)

 

यह सच है कि ईश्वर में  मुक्तिबोध की आस्था का स्वरूप कभी बहुत सीधा और सरल नहीं रहा होगा. उनकी माता का ज़िक्र करते हुए उनके मित्र शांताराम क्षीरसागर कहते हैं:

"माता जी, वात्सल्य की मूर्ति, उनकी सभी सुविधाओं का ख़याल रखती थीं. उनके सामने वे निस्संकोच हो जाते थे. वे भगवान को भोग लगातीं तो मुक्तिबोध विनोद में कहते: मां, क्यों पत्थर के लिए परेशान हो रही हो, मुझे खिलाओ तो कुछ गुण भी पहुंचे. वे मीठी झिड़कियां सुनातीं : शांताराम, इस मूर्ख को समझाओ, यह तो नास्तिक होता जा रहा है."                                                                             

(मोतीराम वर्मा, लक्षित मुक्तिबोध, पृष्ठ 154)

मुक्तिबोध के पारिवारिक धार्मिक वातावरण के बारे में कुछ और भी जानकारी हमें क्षीरसागर से मिलती है. उनके पिता माधवराज मुक्तिबोध के बारे में कहते हैं :

"(उनका) व्यक्तित्व पुलिस विभाग में अपवाद की सीमा तक विशिष्ट था. कीचड़ में कमल की तरह विकसित. एक ओर वे पूजापाठी, धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे; उनके व्यक्तिगत जीवन में आध्यात्मिक अनुशासन की अद्भुत गरिमा लक्षित की जा सकती थी. दूसरी ओर वे एक निर्भीक और न्यायनिष्ठ पुलिस ऑफिसर थे, अपनी ड्यूटी के पाबंद और क़ानून व्यवस्था की रक्षा में कठोरता से तत्पर! उस ज़माने के प्राय: सभी गम्भीर मामलों की छानबीन के दौरान मैं भी उनके साथ रहा था, इसलिए जानता हूं कि कैसे-कैसे प्रलोभन उन्हें नहीं दिए गए, मगर उनकी दृढ़ता सदैव कायम रही, विचलित वे हो ही नहीं सकते थे. उनके व्यक्तित्व का प्रभाव मुक्तिबोध के व्यक्तित्व एवं संस्कारों के निर्माण में सामाजिक रूप से रहा है."

(लक्षित मुक्तिबोध , पृष्ठ 152)

मोतीराम वर्मा द्वारा उद्धृत शरच्चन्द्र माधव मुक्तिबोध के कुछ बयानों से भी उस धार्मिक वातावरण का कुछ अंदाज़ लगाया जा सकता है जिसमें मुक्तिबोध पले-बढ़े थे. वे कहते हैं:

"हमारे परदादा वासुदेव जी मुद्दत पहले जलगांव से ग्वालियर रियासत में आये थे. मैंने उन्हें देखा नहीं, बड़ों से उनके बारे में सुना है कि वे अपने साथ जो शिवलिंग लाए थे, वह उन्हें नर्मदा से स्वप्नदर्शन के फलस्वरूप प्राप्त हुआ था. यह धार्मिक श्रद्धा है कि उस शिवलिंग का रंग बदलता रहता है. छोटा भाई चंद्रकांत हममें कुछ ज़्यादा पूजा-पाठी है. शिवलिंग आजकल उसी के पास है. उसकी वैज्ञानिक जांच होनी चाहिए."

(लक्षित मुक्तिबोध, पृष्ठ 124)

अपने पिता के अंतिम समय का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं (उनकी मृत्यु मुक्तिबोध की मृत्यु से एक दिन पहले ही हुई थी)  :

"पिता जी, में आध्यात्मिक किस्म की दृढ़ता थी, कहिए उनकी दृढ़ता को आध्यात्मिक संबल प्राप्त था. भाई साहब की बीमारी  का उन्हें पता था, में उदास देख कर, अपनी रुग्णावस्था में ही  वे धैर्यपूर्वक पूछते थे: अरे वह चला गया क्या? अंतिम रात को हम सब उनके पास बैठे थे. कहा : जाओ, अब आराम करो. वे कहा करते थे, वेदांत विधि से मंत्रों का उच्चारण करते हुए प्राणों का त्याग किया जा सकता है. और रात ढलते-ढलते हमने देखा, वे चले गए थे."

(लक्षित मुक्तिबोध, पृष्ठ 125)

किसी ब्राह्मण परिवार के ऐसे धार्मिक वतावरण में पले मुक्तिबोध के मन में ईश्वर की कल्पना अपने माता-पिता जैसे  मूर्तिपूजक और साधारण भक्ति-भाव-पूर्ण व्यक्ति की तो नहीं रही होगी किंतु उसके अधिक जटिल और अमूर्त स्वरूप की कल्पना से वे पूरी तरह मुक्त रहे होंगे इस बात की सम्भावना भी बहुत कम है. वस्तुतः “एक अरूप शून्य के प्रति या “ लकड़ी का रावण” जैसी कविताओं में उनके आस्तिकता को नकारने वाले मार्क्सिस्ट कवि-विचारक का संघर्ष अधिक स्पष्टता से दिखाई देता है. मेरा मानना है कि अपने समय के तमाम विरोधी राजनीतिक, पारिवारिक और सामाजिक  तत्वों से संघर्ष के दौरान भी किसी अमूर्त एवं अज्ञात नियंता-शक्ति में आस्था के फलस्वरूप यह विश्वास उनके मन में निरंतर बना रहा होगा कि इस संघर्ष में  अंतत: वे ही विजयी होंगे क्योंकि वे एक सचाई और ईमानदारी के  मार्ग का अनुसरण कर रहे  थे. कठिन पारिवारिक और आर्थिक परिस्थितियों में भी जब वे अनिल कुमार और शरद कोठारी जैसे अपने मित्रों के सामने यह कहते थे कि उनकी कविताएं एक दिन “म्यूज़ियम में रखी जाएंगी”  या कि “थोड़ा ठहरो दोस्त, सन 1980 तो आने दो” (मुक्तिबोध: कविता और जीवन विवेक, पृष्ठ 30) तब अच्छाई का साथ देने वाली किसी अज्ञात शक्ति में एक तरह का आस्था पूर्ण विश्वास भी  कहीं न कहीं उनके विचारों को प्रभावित करता रहा होगा.

मुझे लगता है कि मूर्तिपूजा या कर्म-कांड के संबंध में एक पढ़े-लिखे और वैज्ञानिक सोच वाले आदमी की अनास्था के बावजूद ब्रह्म जैसी किसी अमूर्त धारणा से पूरी तरह मुक्त हो पाना मुक्तिबोध जैसे ब्राह्मण संस्कारों वाले व्यक्ति के लिए आसान नहीं रहा होगा. ब्रह्मांड की उत्पत्ति, समय और अवकाश के यथार्थ स्वरूप और विचारों की सापेक्षता जैसे जटिल बौद्धिक प्रश्नों से जूझते हुए इस निराकार ब्रह्म की अवधारणा को पूरी तरह नकारना शायद उनके लिए मार्क्सिज़्म के प्रति आकर्षण के बावजूद असम्भव था. विभिन्न कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए भी यह विश्वास उनके मन को संबल देता रहा होगा कि चाहे सारी दुनिया उनके खिलाफ़ हो जाए, चाहे असफलताएं एक के बाद एक उनका पीछा करती रहें पर इन तमाम कठोर परीक्षाओं के अंत में वे  सफ़ल घोषित किए जाएंगे. जिसकी कल्पना बुद्धि से परे है किंतु फिर भी जो इस समूची सृष्टि को नियंत्रित करता है ऐसे किसी निराकार ब्रह्म के अस्तित्व को नकारना मुक्तिबोध के लिए उस आलम्बन को खोने का पर्याय रहा होगा जो हर आस्थावान व्यक्ति को टूटने से बचाए रखता है.

गीता में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को कहे गए निम्नलिखित शब्दों का बल मुक्तिबोध के मन को भी किसी न किसी रूप में आश्वस्त करता  रहा  होगा :

अनन्याश्चिंतयंतो  मां ये जना पर्युपासते

तेषां नित्याभियुक्तानाम योगक्षेम: वहाम्यहम

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 9, श्लोक 22)

 

इसीलिए एक मार्क्सवादी/समाजवादी सत्य के कमल को हासिल करने की कल्पना मुक्तिबोध के लिए पूरी तरह उल्लासपूर्ण न होकर कीचड़ में लिपटने, जलती हुई आग को हाथ में लेने या किसी सर्प (सरी-सृप) को माला (स्रक) की तरह कंठ में धारण करने जैसी कुछ-कुछ मलिन, ख़तरनाक और भयावह भी रही होगी.  

“एक अरूप शून्य के प्रति” की निम्नांकित पंक्तियों को समझने के लिए हमें मुक्तिबोध के इस आस्था संबंधी इस आत्मसंघर्ष पर सहानुभूति पूर्ण ढंग से विचार करना होगा :

              

अन्धा हूं

खुदा के बंदों का बंदा हूं बावला

परंतु कभी-कभी अनंत सौन्दर्य संध्या में शंका के

काले-काले मेघ-सा,

काटे हुए गणित की तिर्यक् रेखा सा

             सरी-सृप – स्रक–सा.

मेरे इस सांवले चेहरे पर कीचड़ के धब्बे हैं,

                  दाग हैं,

और इस फैली हुई हथेली पर जलती हुई आग है

                  अग्नि-विवेक की.

नहीं, नहीं, वह तो है ज्वलंत सरसिज !!

ज़िन्दगी के दलदल–कीचड़ में धंसकर

              वक्ष तक पानी में फंस कर

मैं वह कमल तोड़ लाया हूं-

भीतर से, इसीलिए, गीला हूं

पंक से आवृत,

स्वयं में घनीभूत

मुझे तेरी बिल्कुल ज़रूरत नहीं है.

 

इस कविता की अंतिम पंक्ति अपने आप में बहुत कुछ कहती हुई लगती है. मुझे यह हमेशा किसी ऐसे कष्ट पाते हुए किंतु अहंकारी  बेटे द्वारा अपने पिता को संबोधित प्रतीत होती है जिसे कहीं न कहीं यह भी विश्वास हो  कि उसे अधिक समय तक कष्ट पाते हुए देखना उसके पिता के लिए संभव नहीं होगा.


(दो)

”लकड़ी का रावण” में कवि निश्चय ही मिथकीय चरित्रों का उपयोग कर रहा है जिनमें एक तो स्वयं रावण है और दूसरा “एक द्यौ: पिता भव्य/ नि:संग/ध्यान-मग्न ब्रह्म ..” है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी मिथकीय चरित्र का उपयोग करते समय कोई कवि पूरी तरह स्वतंत्र  नहीं हो सकता क्योंकि जनमानस में उस चरित्र की जो सामान्य रूप से प्रतिष्ठित छवि है उसका अतिक्रमण न करते हुए ही वह उसमें अपनी ओर से कुछ जोड़ सकता है. जनमानस में प्रतिष्ठित रावण की यह छवि एक ऐसे तपस्वी की रही है जिसे अपने  कठोर तप के फलस्वरूप अतुलित बल और अनेक सिद्धियों की प्राप्ति हुई थी. अपने मिथकीय स्वरूप में रावण भगवान शंकर का परम भक्त रहा है और इस तरह उस ब्रह्म के साथ उसका एक परोक्ष  रिश्ता भी रहा है जो इस ब्रह्मांड की समस्त गतिविधियों का संचालन करता है. आज भी जब उसे वानरों–लंगूरों से (यहां रामायण के मिथक को भुलाया नहीं जा सकता) चुनौती का भय सताने लगता है तब वह इसी ब्रह्म से सहायता की याचना करता है:

आसमानी शमशीरों, बिजलियों,

मेरी इन भुजाओं में बन जाओ

ब्रह्म-शक्ति  !

पुच्छल  ताराओ ,

टूट पड़ो बरसो

कुहरे के रंग वाले वानरों के चेहरे

विकृत ,असभ्य और भ्रष्ट हैं ....

प्रहार करो उन पर ,

कर डालो संहार  !!                                               

(मुक्तिबोध रचनावली : 2,पृष्ठ 371)

 

देवताले के अनुसार

'रावण आत्म-केंद्रित सत्ता का रूप है और कुहरे के जनतंत्री वानर लोक-सता के प्रतीक बिम्ब हैं.'   (पृष्ठ 219)

पर मेरी मान्यता है कि इस कविता में मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक  और सर्व नियंता ब्रह्म के अस्तित्व में आस्था और उसके नकार को लेकर भी है. जिस विशिष्ट तथ्य की ओर कवि इस कविता के माध्यम से हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहता है वह शायद यह है कि आत्म-केंद्रित सत्ता को उचित मानने वाले शासक जहां ब्रह्म की शक्ति को अपने पक्ष में मान कर चलते हैं वहीं वे उनके द्वारा शासित जनता को एक आकारहीन और उपेक्षणीय इकाई के रूप में देखते हैं. अपने आपको जहां वे ब्रह्म की ही भांति किसी उत्तुंग शिखर पर स्थित इकाई और उसी के एक अंश  के रूप में देखते हैं वहां शासित जनता उन्हें अपनी इस ऊंचाई से नीचे बिछे हुए एक मटमैले विस्तृत बेजान कंबल सी लगती है जो  केवल नीचे की दृश्यावली को ढके हुए है:


दोनों हम

अर्थात्

मैं व शून्य

देख रहे ....दूर ...दूर ...दूर तक

फैला हुआ

मटमैली जड़ीभूत परतों का

लहरीला कंबल ओर-छोर-हीन

रहा ढांक

कंदरा –गुहाओं को , तालों को

वृक्षों के मैदानी दृश्यों के प्रसार को 

(मुक्तिबोध रचनावली : 2 ,पृष्ठ 368)

 

कवि के रूप में मुक्तिबोध का इशारा शायद इस तथ्य की ओर है कि समय–समय पर विभिन्न शासकों ने अपने आपको विभिन्न प्रकार से अपने आप को ईश्वर का प्रतिनिधि माना है और अपना संबंध उसके साथ जोड़कर स्वयं को मालिक और सामान्य जन को उनके ग़ुलाम मान कर व्यवहार किया है. यह  केवल साम्यवादी/समाजवादी और जनतांत्रिक सोच ही है जिसने पहली बार जहां शासितों को अपने आपको शासकों से भिन्न न होने का बोध करवाया है वहीं शासकों को भी उनकी सामूहिक शक्ति के मुक़ाबले के लिए विवश किया है. 

इस समाजवादी विचार ने ही पहली बार मुक्तिबोध की इस कविता में रावण के अपनी श्रेष्ठता के पुराने विश्वास को डगमगाया है. उसके आत्मविश्वास की इस डगमगाहट को मुक्तिबोध यूं व्यक्त करते हैं  :


अचानक

भीतर के अपने से गिरा कुछ ,

खसा कुछ ;

नसें ढीली पड़ रहीं

कमज़ोरी बढ़ रही ; सहसा

आतंकित हम सब

अभी तक

समुत्तुंग शिखरों पर रह कर

सुरक्षित हम थे

जीवन की प्रकाशित कीर्ति के क्रम थे ,

अहं- हुंकृति के ही ..... यम-नियम थे ,

अब क्या हुआ यह

दु:सह  !!

सामने हमारे

घनीभूत कुहरे के लक्ष-मुख

लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु ये रूप , अरे

लगते हैं घोरतर.

(मुक्तिबोध रचनावली : 2 ,पृष्ठ 369-70)

 

बीस हाथों वाले दशमुख रावण की तुलना में ये लक्ष-मुख, लक्ष-वक्ष ,शत-लक्ष-बाहु रूप कविता के पर्सोना (रावण) को अब यकायक घोरतर लगने लगे हैं. वह पहली बार उनके ठोस अस्तित्व, उनकी शक्ति और उसके कारण पैदा हो सकने वाले ख़तरे के बारे सोचने को विवश होता है:

वे सिर्फ़ कुहरा ही नहीं हैं ,

काले-काले पत्थर

व काले-काले लोहे के लगते हैं वे लोग.

हाय,हाय ,कुहरे की घनीभूत प्रतिमा या

भरमाया मेरा मन ,

उनके वे स्थूल हाथ

मनमाने बलशाली

लगते हैं ख़तरनाक ;

जाने-पहचाने –से लगते हैं मुख वे.

अपने आप को ब्रह्म का अंश समझने वाला रावण को अब इन वानरों से डर लगने लगा है:

डरता हूँ,

उनमें से कोई ,हाय

सहसा न चढ़ जाय

उत्तुंग शिखर की सर्वोच्च स्थिति पर ,

पत्थर व लोहे के रंग का यह कुहरा  !

अगली कुछ पंक्तियों में यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि इस कविता में इन वानरों को जनतंत्र-समर्थक ‘नरों’ के साथ मिलाकर देख रहा है जिनके ठोस अस्तित्व को “समुदाय, भीड़, डार्क मासेज़, मॉब या श्यामवर्ण मूढ़” कह देने मात्र से नकारा नहीं जा सकता. वह पाता है कि जिन्हें वह अब तक “कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार” समझता रहा है वे उस शिखरस्थ को छूने में समर्थ सचमुच के लंगूर हैं:

बढ़ न जायँ

छा न जायँ

मेरी इस अद्वितीय

सता के शिखरों पर  स्वर्णाभ ,

हमला न कर बैठें ख़तरनाक

कुहरे के जनतंत्री

वानर ये , नर ये !!

समुदाय , भीड़

डार्क मासेज़ ये मॉब हैं

श्यामवर्ण मूढों के दिमाग ख़राब हैं ,

हलचलें गड़बड़ ,

नीचे थे जब तक

फ़ासलों में खोये हुए कहीं दूर , पार थे ;

कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार थे 

अब ये लंगूर हैं

हाय हाय

शिखरस्थ मुझको ये छू न जायँ  !!

 

कहना न होगा कि ये पंक्तियां लिखते समय साम्यवादी क्रांतियों और छुआछूत संबंधी विचार भी कहीं न कहीं कवि के मन में रहे होंगे.  

 

(तीन)

मुक्तिबोध के जीवन पर जब हम नज़र डालते हैं तो हमें लगता है कि उनके साहित्यकार मित्रों में अकेले वे ही थे जिन्होंने मार्क्सवाद का आदर्शवादी अनुकरण करते हुए सच्चे अर्थों में वर्ग-च्युत (डेक्लासे) होने का ख़तरा उठाया था. अपने पिता की  सामाजिक रूप से सम्मानजनक मध्यवर्गीय नौकरी और उसकी बदौलत हासिल अपने परिवार के आदरपूर्ण सामाजिक स्तर में गिरावट  की परवाह न करते हुए उन्होंने सरकारी नौकरियों से मुंह मोड़ लिया था और अपनी बुआ के यहां खाना बनाने वाली मनु बाई की उस साधारण लड़की से विवाह का निश्चय कर लिया था जिससे उन्हें प्रेम हो गया था.

नागपुर में नई शुक्रवारी वाले जिस क्षेत्र में वे रहते थे उसे भी उस समय के लोग किसी स्लम-क्षेत्र के रूप में ही देखते होंगे. उनके भाई ने जबलपुर में उनसे मुलाक़ात का वर्णन करते हुए  कहा है कि जब जबलपुर में प्लेग फैल रहा था तब वे उन्हें किस तरह एक रिक्शे में “संकरी..,पेचीदा,चक्करदार ,घिनौनी” गलियों से होते हुए उनके “घर” ले गए थे जो केवल एक  “अटाला रखने का ...ऊपरी छप्पर” था जहां “एक पीला बीमार बल्ब पहले ही से जल रहा था”

“पूरी दोस्तोव्हस्कियन रूम है आपकी –“ मैंने इधर-उधर देखते हुए कहा. भाई साहब गुड़ की कोको बनाने में व्यस्त हो गए. वे इस समय बहुत प्रसन्न थे, और कोको के कंटर (ग्लास) सामने रखने के बाद कुछ कविताओं का पाठ हम लोगों ने किया. एक से एक अन्धेरी घुप्प कविताएं थीं उनकी. कुछ देर बाद मानो मेरी तसल्ली के लिए उन्होंने बता दिया कि ‘चिंता की कोई बात नहीं है. और घर भी जल्दी मिल जायेगा. राइट टाउन में. फिर सब ठीक हो जाएगा’.. बस. फिर सिर्फ़ उनकी कविताओं को लेकर चर्चा चलती रही." 

पैसे के संबंध में उनकी असावधानी का अनुमान भी हम हरिशंकर परसाई के उनसे संबंधित संस्मरणों से लगा सकते हैं:

"मुक्तिबोध की आर्थिक दुर्दशा किसी से छिपी नहीं थी. उन्हें और तरह के क्लेश भी थे. भयंकर तनाव में वे जीते थे. पर फिर भी बेहद उदार, बेहद भावुक आदमी थे. उनके स्वभाव के कुछ विचित्र विरोधाभास थे. पैसे-पैसे की तंगी में जीनेवाला यह आदमी पैसे को लात भी मारता था. वे पैसा देनेवाली पत्रिकाओं में लिख कर आमदनी बढ़ा सकते थे, पर लिखते नहीं थे. कहते– अपनी पत्रिका में लिखेंगे. बस मुझे तो कागज़ आप दे दीजिए."

इसी संस्मरण में अन्यत्र वे कहते हैं:

"मुक्तिबोध विचारों में आधुनिक-वैज्ञानिक, लेकिन इसके साथ ही व्यवहार में कई बातों में बिल्कुल सामंती. किसी को अपने घर में साग्रह ख़ाना खिलाना, अपनी हैसियत से बाहर खातिर करना उनकी ख़ास प्रकृति थी. लगता था, कोई पुराने ठाकुर साहब हैं, जिन्हें मूंछें मुंडाना पड़ेगा, अगर मेहमाननवाज़ी कमी आयी. एक बार नागपुर में जब वे तीव्र ज्वर में ‘नया खून‘ के टीन के नीचे काम कर रहे थे, मैं वहां पहुंच गया. भरी दोपहर में पास की दूकान पर मुझे मिठाई खिला लाए तब चैन पड़ी. मैंने बहुत मना किया, पर वे कहते– नहीं साहब, आप आये हैं तो कुछ खाना तो पड़ेगा. पक्षाघात से जब वे पीड़ित थे, तब हम उन्हें भोपाल के लिए लेने पहुंचे. उस हालत में भी हड़बड़ा रहे थे कि इनके लिए क्या कर दिया जाए. कहने लगे आप मेरे मेहमान हैं. आप मेरे यहां क्यों नहीं ठहरेंगे, कोठारी के यहां क्यों? कोठारी से भी शिकायत की– क्यों साहब, यह क्या हरकत है ? इन्हें आपने रास्ते में क्यों रोक लिया? इसमें बनावट नहीं थी. उनकी सच्ची ममता थी, उनके आंतरिक संस्कार थे. वे नयी-से-नयी वैज्ञानिक उपलब्धि से मुग्ध होते थे, पर परिवार–नियोजन के खिलाफ थे. परिवार-नियोजन को पूंजीवादी सभ्यता की प्रवृत्ति मानते थे. विचारों के मामले में जितने सधे हुए, ज़िन्दगी की व्यवस्था में उतने ही लापरवाह. स्वास्थ्य के प्रति अत्यंत असावधान थे .....। ...विद्रोही थे. किसी भी चीज़ से समझौता नहीं करते थे - स्वास्थ्य के नियमों और अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से भी नहीं."

अपने समय के किसी सर्वहारा की यथार्थ स्थिति का अनुकरण करते हुए उन्होंने अपनी गृहस्थी को ईमानदारी से अपने लेखन और अध्यापन के बौद्धिक कर्म द्वारा ही चलाने की कोशिश की थी. पर मुक्तिबोध का जीवन अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि इस प्रकार का आदर्श जीवन जीना चाहने वाले एक अत्यंत प्रतिभावान, मेहनती और आत्मविश्वासी बुद्धिजीवी के लिए  भी हमारे देश में सामान्य मध्यवर्गीय जीवन की सुविधाएं हासिल कर पाना कितना कठिन हो सकता है.

बहरहाल “लकड़ी का रावण”  के संदर्भ में “एक अरूप शून्य के प्रति” का ध्यान आना इसलिए स्वाभाविक है कि  ‘अरूप’ और ‘शून्य’ शब्दों का प्रयोग मुक्तिबोध ने ब्रह्म की अवधारणा के लिए इन दोनों ही कविताओं में किया है और अलग-अलग तरीकों से इन दोनों में ही उसे नकारने का प्रयास भी किया है. इस संदर्भ में “एक अरूप शून्य के प्रति” की निम्नांकित पंक्तियां दृष्टव्य हैं:

मात्र अनस्तित्व का इतना बड़ा अस्तित्व

ऐसे घुप्प अँधेरे का इतना तेज उजाला ,

लोग-बाग

अनाकार ब्रह्म के सीमाहीन शून्य के

बुलबुले में यात्रा करते हुए गोल-गोल

गोल-गोल

खोजते हैं जाने क्या  ?

बेछोर सिफ़र के अँधेरे में  बिला-बत्ती सफ़र

                      भी ख़ूब है.

(मुक्तिबोध रचनावली : 2 ,पृष्ठ 189)

                                                                    

मुक्तिबोध का एक व्यापक और मज़बूत तर्क यह है कि इस अरूप ब्रह्म को अपने पक्ष में कर सकने का दावा अच्छे–बुरे सभी करते रहे हैं:

और तुम भी खूब हो ,

दोनों ओर पैर फँसा रक्खे  हैं ,

राम और रावण को ख़ूब खुश  

      ख़ूब  हँसा रक्खा है.

सृजन के घर में तुम

मनोहर शक्तिशाली

विश्वात्मक फैंटेसी

दुर्जनों के भवन में

 

प्रचंड शौर्यवान्  अंट-संट वरदान !!

                     खूब रंगदारी है ,

तुम्हारी नीति बड़ी प्यारी है.

विपरीत दोनों दूर छोरों द्वारा पुजकर

            स्वर्ग के पुल पर

          चुंगी के नाकेदार

भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट , रिश्वतखोर थानेदार  !!

 

“लकड़ी का रावण” का अंत जिस नाटकीय तरीके से होता है वह मेरे ख़याल से इस कविता की सबसे बड़ी रचनात्मक उपलब्धि है. यह रावण, जो अपना संबंध अब तक ब्रह्म से जोड़े था, और जो इसी कारण अपने आपको एक अलौकिक और चमत्कारी सत्ता के रूप में देख रहा था, अचानक महसूस करता है कि वह दशहरा मैदान में खड़े हुए रावण से अधिक कुछ नहीं है. उसकी आत्म-प्रतीति ही अचानक उसे धोखा देने लगती है और वह अपने आप को बांस और पुट्ठों से निर्मित एक पुतला मात्र पाता है जो भाग पाने में भी असमर्थ है और जिसका अवश्यंभावी हश्र उसका पतन है :

परंतु ,यह क्या

आत्म-प्रतीति भी धोखा ही दे रही !!

स्वयं  को ही लगता हूँ

बाँ स के व काग़ज़ के पुट्ठे के बने हुए

महाकाय रावण - सा हास्यास्पद

भयंकर  !!

 

हाय, हाय,

उग्रतर हो रहा चेहरों का समुदाय

और कि भाग नहीं पाता मैं

हिल नहीं पाता हूँ

मैं मंत्र –कीलित -सा ,भूमि में गड़ा –सा,

जड़ खड़ा हूँ

अब गिरा , तब गिरा

इसी पल कि उस पल ....

_____________________

सदाशिव श्रोत्रिय
5/126 गो वि हा बो कोलोनी,
सेक्टर 14,उदयपुर -313001, राजस्थान.

मोबाइल -8290479063

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  1. मुक्तिबोध को जानना एक पीड़ा से गुजरने से कम नहीं

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  2. हिंदी में टीका और भाष्य की परंपरा को पुनर्जीवन बधाई ‍!

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  3. लेख पढ़ा। कहना न होगा कि किसी साहित्यिक कृति को उसके रचनकार के आनुभविक जीवन-जगत के इर्द-गिर्द संदर्भित करने के जो ख़तरे हो सकते हैं, वह इस भाष्य में भी हैं। यहाँ सवाल उठता है कि निर्वैयक्तिक फ़ैंटेसी (या कलाकृति) का संदर्भ उसके रचनाकार का आनुभविक जीवन-जगत होगा या सामाजिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया में साहित्यिक कृति की आंतरिक गतिमयता से कृति की आंतरिक पहेली (enigma) का खुलते जाना और कृति की वस्तुनिष्ठता के नए ऑर्डर में उसका रूपायित होना? परवर्ती दृष्टि के अनुसार समानधर्मा पाठकों के स्व-पक्षीय हस्तक्षेप से साहित्यिक कृति की वस्तुनिष्ठता के नए पक्ष उद्घाटित होते जाते हैं जोकि कृति की आंतरिक पहेली को खोलते चलते हैं। मुक्तिबोध की कविताओं में ब्रह्म की अवधारणा की मौजूदगी ऐसी ही एक आंतरिक पहेली है। यहाँ रावण के रूप में ध्यान-मग्न ब्रह्म के रूपक की रीडिंग पर गौर करें तो मालूम होता है कि लेखक की दिलचस्पी आस्तिक मुक्तिबोध से नास्तिक मुक्तिबोध (हालाँकि लेखक के अनुसार मुक्तिबोध कट्टर नास्तिक कभी नहीं हो सके) के कवि-मन में ब्रह्म की अवधारणा को लेकर चल रही हलचलों को अंकित करना है। यह मानना होगा कि इस उद्यम में वे मुक्तिबोध के यहाँ आस्था के सवाल पर गौर करने की कोशिश अवश्य करते हैं लेकिन ऐसा मालूम होता है कि वह कोशिश अनुचिंतनात्मक वृत्त में ही चक्कर लगाती रह जाती है। इसके लिए लेखक मुक्तिबोध संबंधी संस्मरणों तथा कविताओं को आमने-सामने रखने का उद्यम करता है और इसे आमने-सामने रखते हुए यह दिखाना चाहा है कि मुक्तिबोध किस तरह ब्रह्म की अवधारणा को नकारते हैं तथा पूरी तरह नहीं नकार पाते हैं। कविता में इस नकार को आलोकित करने के लिए लेखक के पास मुक्तिबोध के पारिवारिक-सामाजिक परिवेश की आनुभविक जानकारी के चलते ब्रह्म की अवधारणा पर उनके कुछ अनुमानित विचार हैं। मज़े की बात है कि भाष्य का पहला भाग इन्हीं अनुमानों से गतिशील होता जान पड़ता है। मेरा ऐसा मानना है कि इन अनुमानों तथा के कारण ही लेखक मुक्तिबोध द्वारा ही ब्रह्म की अवधारणा के पड़ताल पर दृष्टि नहीं डालते। अत: श्रोत्रिय द्वारा परिकल्पित किया गया मुक्तिबोध का ब्रह्म पार-ऐतिहासिक (trans-historical) मालूम होता है जो इतिहास से परे, बुद्धि और अनुभव से परे शाश्वत सत्य की शुद्ध संकल्पना है जिसे ग्रहण तथा अपने पक्ष में करने की कोशिशें लेखक के अनुसार सभी ओर से चलती रहती हैं। कहना न होगा कि इससे उलट मुक्तिबोध का ब्रह्म ऐतिहासिक रूप से विशिष्ट है, क्योंकि वे केवल अनुचिंतन का विषय नहीं बल्कि सम्पूर्ण सामाजिक-संबंधों का प्रक्षेपण है। यह धार्मिक आत्म-निर्वासन जैसे की मार्क्स स्पष्ट करते हैं सामाजिक संबंधों की जड़ीभूतता का प्रतिफल है और इसीलिए वसुंधरा-परिवार ही पवित्र-परिवार का मूल रहस्य है। मुक्तिबोध ब्रह्म की अवधारणा के इसी मूल रहस्य को उद्घाटित करते हैं। उसके विवेक-दर्शन का उद्घाटन करते हैं। “उस ब्रह्म-देव का टेढ़ा मुँह/जग देख चुकेगा पूरा ही/ उस ब्रह्मदेव का दर्शन सभी कर सकेंगे, जिसकी छत्रच्छाया में रह/अधिकाधिक दीप्तिमान होते/ धन के श्रीमुख/ पर, निर्धन एक-एक सीढ़ी नीचे गिरते जाते/उस ब्रह्मदेव का विवेक-दर्शन/ होगा उद्घाटित पूरा!” (मुक्तिबोध रचानवली-2, 183-184) इस तरह मुक्तिबोध ब्रह्म की अवधारणा का मात्र नकार या निष्क्रिय नकार नहीं करते बल्कि उसकी ऐतिहासिक विशिष्टता का उद्घाटन करते हुए उसके रहस्यवादी प्रभामंडल के सबसे कल्ट रूप के विवेक-दर्शन को उजागर करते हैं जोकि पूंजी है। मिथकों के वास्तविक विवेक-दर्शन को उद्घाटित करते हुए सामूहिक-अवचेतन को मुक्त करने के लिए उद्यत मुक्तिबोध की पड़ताल ही उनकी भौतिकवादी आस्था को व्याख्यायित कर सकती है जिसे इस भाष्य में श्रोत्रिय की दृष्टि रहस्यीकृत करती मालूम होती है, क्योंकि उनके अनुसार ब्रह्म (या उनके अनुसार मुक्तिबोध का ब्रह्म) कोई पार-ऐतिहासिक अतींद्रिय सत्ता है, जिसे शासक वर्ग धारण करते हैं या अपने पक्ष में करते हैं। जबकि मुक्तिबोध इससे उलट यह दिखाते हैं कि ब्रह्म के रूप में पूंजी की सर्वव्यापी और सर्वग्रासी गतिशीलता ही शासकों और शासितों तथा धनवानों तथा निर्धनों के वर्गीकरणों (प्रक्रिया के रूप में वर्ग को) बनाए रखती है। ‘लकड़ी का रावण’ कविता में शून्य ही ध्यान-मग्न ब्रह्म की सर्वव्यापिता की ओर संकेत करती है, जिस ओर ध्यान न दे सकने के चलते ही ऐसा मालूम होता है कि प्रस्तुत भाष्य में श्रोत्रिय ब्रह्म को एक अनुचिंतनात्मक विचार या अतींद्रिय सत्ता के रूप में प्रतिष्ठित कर रहें हैं।

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    1. टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार । मेरा आग्रह यह रहता है कि किसी कविता के संबंध में बात करते हुए हम इतने दूर न निकल जाएं कि फिर हमें कविता, उसके लेखक और उसके लेखन-संदर्भ का ही ध्यान न रहे । मेरी मान्यता है कि इस तरह की बातचीत में कविता और कवि कभी हमारी आँख से ओझल नहीं होने चाहिएं । मैं देखता हूं कि आजकल किसी कविता या कवि के बहाने बहस कई बार किसी और ही विषय पर होने लगती है और कविता जैसे किसी कोने में उपेक्षित सी पड़ी रहती है ।
      किसी कविता के वस्तुनिष्ठता हासिल करने की आवश्यकता के संबंध में मेरा कोई विवाद नहीं है । पर हम यह भी न भूलें कि हर कविता का सृजन एक विशिष्ट काल के सांस्कृतिक और भावनात्मक परिप्रेक्ष्य में होता है और उस कविता को उसी परिप्रेक्ष्य में ठीक से समझा जा सकता है । मीरा या सूर के काव्य को पूरी तरह समझने के लिए हमें उनके रचनाकाल और सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य पर भी विचार करना होगा । किसी वैज्ञानिक , तर्कसंगत और नास्तिकतावादी परिप्रेक्ष्य में तो वह संपूर्ण काव्य लगभग हास्यास्पद हो जाएगा । “ असाध्य वीणा ” का पूरा आनंद शायद वही पाठक ठीक से ले पाएगा जो किसी सर्वव्यापी सत्ता के अस्तित्व की कल्पना में भी समर्थ हो , चाहे व्यक्तिगत रूप से ऐसी किसी कल्पना को वह मिथ्या मानता हो । एल्यट की द वैस्ट लैंड को ठीक से समझने के लिए उस नैतिक-सामाजिक-वैचारिक संक्रमण-काल पर भी विचार करना होगा जिससे होकर योरप उसे लिखे जाने के समय गुज़र रहा था । मोटे तौर पर कविता, कवि और उसके समय को पूरी तरह अलग करके नहीं देखा जा सकता । कोई रचना पूरी तरह तभी हमारी समझ में आ सकती है जबकि हम उसे उसके सभी व्यापक संदर्भों में देखें । ओ काव्यात्मन फणिधर के प्रासंगिक अंतिम अंश की ओर ध्यान दिलाने के लिए मैं आपका आभारी हूं । पर क्या यह अंश भी उसी वैचारिक कशमकश का ही एक हिस्सा नहीं है जिससे होकर मुक्तिबोध उस समय गुज़र रहे होंगे ?

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  4. बहुत अच्छा विश्लेषण है।

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  5. लेखक जगह-जगह "मार्क्सिस्ट", "मार्क्सिज़्म" शब्दों का उपयोग करते हैं। इनकी बजाय वे मार्क्सवादी तथा मार्क्सवाद कह सकते थे।

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  6. मुक्तिबोध की इस कविता में एक समस्या है। इसमें ब्रह्म की अवधारणा को रावण के साथ जोड़ा गया है। जबकि यह अवधारणा सबसे अधिक उपनिषदों में मिलती है जहाँ से अद्वैतवाद निकला। बाद में शंकराचार्य ने इन ग्रन्थों पर टीका की और उनकी व्याख्या की और उसके ज़रिये अद्वैतवाद के एक ख़ास रूप को स्थापित किया। अब, जो लोग राम को मानते हैं वे ही वो लोग हैं जो ब्रह्म की अवधारणा में भी विश्वास करते हैं।
    दूसरी तरफ़, मुक्तिबोध ने जिन वानरों का ज़िक्र किया है और शायद उनको आम जन के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है, और जिनसे कविता के रावण को ख़तरा महसूस हो रहा है, वे राम की सेना का ही हिस्सा थे।
    इस प्रकार मुक्तिबोध की इस कविता में एक अन्तर्विरोध है। ब्रह्म की अवधारणा को ध्वस्त करने के लिए राम की वानर सेना का उपयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि राम भी उसी धार्मिक दृष्टि का हिस्सा हैं जिसका हिस्सा ब्रह्म है। इससे भी आगे, रावण की तरह राम भी एक शासक थे जो वानरों की सेना का इस्तेमाल कर रहे थे।

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    1. आपने काफ़ी रोचक प्रश्र खड़े किए हैं , रुस्तम सिंह साहब !

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  7. बहुत बधाई श्रोत्रियजी। आपने यह अच्छा काम शरू किया है। कविताओं का विश्लेषण बहुत ज़रूरी है। हिंदी में ऐसी कई कविताएं हैं जिनके विश्लेषण की आवश्यकता है। आपने एक नए तरीके से कविता को देखा। कई बार जीवनीपरक संदर्भ भी कविता को समझने के लिए ज़रूरी हो जाते हैं। कविता के भीतर रहे कई न समझ में आने वाले संदर्भ खुल जाते हैं। पुनः बधाई। और धन्यवाद भी।

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  8. इस उत्साहवर्द्धन के लिए हार्दिक आभार!

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