जयशंकर प्रसाद की जीवनी: सत्यदेव त्रिपाठी



प्रेमचंद ने १९३२ के हंस का आत्मकथा विशेषांक निकालने का निर्णय लिया, हंस का नामकरण प्रसाद जी ने ही किया था. उनका प्रसाद जी से विशेष आग्रह था कि वे अपनी आत्मकथा लिखें. प्रसाद जी ने आत्मकथा तो नहीं लिखी पर ‘आत्मकथ्य’ शीर्षक से कविता जरूर लिखी जो उस अंक में प्रकाशित हुई. जिसमें ये पंक्तियाँ आती हैं.- 

‘छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा.’

ज़ाहिर है जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी,१८९०- १४ जनवरी,१९३७) ने उसके बाद भी अपनी आत्मकथा नहीं लिखी. हाँ उनके विषय में उनके मित्रों ने बहुत कुछ लिखा है. उनके निधन के ८४ साल बाद रज़ा फाउंडेशन की मदद से लेखक-आलोचक सत्यदेव त्रिपाठी ने प्रसाद की जीवनी लिखने का उद्यम किया है जो अब पूर्णता की ओर है. यह जीवनी उनके विषय में प्रकाशित सूचनाओं, शोध और उनकी कृतियों में बिखरे सूत्रों के आधार पर लिखी गयी है.

बीसवीं शताब्दी के हिंदी के सबसे बड़े लेखक की जीवनी लिखना आसन नहीं है, चुनौतियाँ और विचलन रास्ते में बहुत हैं. 
इस जीवनी का एक संपादित हिस्सा यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है.
कल प्रसाद जी का जन्म-महोत्सव भी है. 



जयशंकर प्रसाद

‘उसकी स्मृति पाथेय बनी’                                      

सत्यदेव त्रिपाठी

 


‘आँसू’ के प्रणयन के साथ ही उसमें व्यक्त कशिश को लेकर पाठकों के मन में यह जिज्ञासा जागी थी कि वह कौन है, जिसकी याद में यह आवेग फूट पड़ा है. फिर वह जिज्ञासा धीरे-धीरे सवाल बनती गयी और साहित्य के क्षेत्र में विमर्श बन ही रही थी कि ‘हंस’ के आत्मकथा विशेषांक के लिए प्रेमचंदजी के दुर्निवार आग्रह पर प्रसादजी ने प्रायः निरुपाय होकर एक षोडश पंक्तीय काव्यमय आत्मकथा लिखी, जिसमें पंक्ति आती है– ‘उसकी स्मृति पाथेय बनी’. तो इस प्रकार स्वयं कवि के श्रीमुख से ही सवाल मुखर हो गया और सीधा भी- ‘उसकी’ यानी किसकी? या फिर किसकी-किसकी भी?

इस सवाल को लेकर साहित्य की चर्चाओं-समालोचनाओं में तब से अब तक तरह-तरह की कथा-वार्ताएं उठ-उठ कर गिर चुकी हैं. ढेरों चर्चाएं गरम होकर ठण्डी हो चुकी हैं, फिर भी सवाल बरकरार है. चूंकि वह स्मृति कवि के जीवन से ही बावस्ता हो सकती है और वही जीवन इस कार्य की मूल स्वरूप-प्रतिज्ञा है, अत: यहाँ इसकी समूची तो क्या कहें, यथासम्भव विस्तृत चर्चा अपेक्षित ही नहीं, अपरिहार्य है. यहाँ कोताही की भी कोई ज़रूरत, बल्कि गुंजाइश नहीं, क्योंकि इसी बहाने कवि के जीवन का एक अध्याय खुलेगा, जो किंचित पर्देदारी में भी है. लेकिन इसके बावजूद इस सवाल का हल हो जाना इस चर्चा का दावा क़तई नहीं है, वरन् हल न होना ही इसकी क़ुदरत है और बार-बार उत्तरित होकर भी अनुत्तरित रह जाना ही कदाचित् इन चर्चाओं की फ़ितरत होती है. सो, चर्चाएं आगे भी होती-जाती रहेंगी.

‘स्मृति’ की बावत कहना होगा कि स्मृति का होना बुनियादी बात है. हर साहित्य व कला के मूल में होती है, क्योंकि सारे अनुभव व अध्ययन स्मृति में ही बनते-बसते हैं और उसी में रच-पच कर सामान्य बातचीत से लेकर समस्त ज्ञान-कलादि रूपों में व्यक्त होते हैं. प्रसादजी का समस्त रचना-संसार भी इस प्रक्रिया से अलग नहीं. लेकिन ‘आँसू’ में आयी स्मृति बहुत ख़ास है. कृति के तमाम उल्लेखों में ख़ासियत बनकर आयी भी है. पाँचवें छंद में साफ कहा गया है- ‘बस गयी एक बस्ती है, स्मृतियों की इसी हृदय में’. और शुरू के चार बन्धों में इसी स्मृति या याद का नाम लिये बिना इसके स्थानापन्न प्रतीकों ‘विकल रागिनी बजना’, ‘चेतना तरंगिनि की हिलोरें’ ‘विस्मृत बीती बातों का कहना’ और ‘टकराती-बलखाती सी फेरी देना’ आदि के माध्यम से मानस में चल रही विविध हलचलों के लिए ‘क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती’?...जैसे विस्मय ही विस्मय या सवाल ही सवाल शामिल हैं, और जैसा कि ‘आँसू’ नाम से ही जाहिर है, इसमें समायी स्मृति का स्थायी भाव पीड़ा है. काव्य-कृति की शुरुआत में ही आमुख की तरह भी लिखे छ्न्द में स्मृति और पीड़ा दोनो के पुष्ट प्रमाण आते हैं–

‘जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति-सी छायी, दुर्दिन में आँसू बनकर वह आज बरसने आयी’.

यह बरसने की सहजता वर्ड्सवर्थ के ‘स्पॉण्टेनियस ओवरफ्लो’ से नहीं सधती, वरन् माखनलालजी चतुर्वेदी द्वारा विवेचित (अंतरंग-82) मानव-शरीरशास्त्र (ऐंथ्रोपॉलोजी) से पोषित उस प्रक्रिया से ही सही सधती है, जिसमें पलकों का झपकना, जमुहाई आ जाना...आदि शारीरिक क्रियाएं अपने आप हो जाती हैं, जिन्हें न आप ला सकते, न रोक सकते. वैसे ही करुणार्द्र होने पर आँसुओं के ढुलक पड़ने जैसी प्रक्रिया है प्रसाद का ‘आँसू’ काव्य, जिसमें कवि के भी अनुसार ‘चेतना तरंगिनी मेरी लेती हैं मृदुल हिलोरें’

‘घनीभूत पीड़ा..’ वाले इस छंद को लेकर एक छोटा सा क्षेपक यह कि राय कृष्णदासजी के उल्लेख के चलते कुछ लोगों को यह भ्रम हो गया कि आँसू का पाठ सुनकर बाबू मैथिलीशरण गुप्त इतने अभिभूत हुए कि उसी आवेग में यह छंद उनके मुख से फूट पड़ा और उनके आग्रह पर इसे प्रसादजी ने कृति में शामिल कर लिया और पहले पन्ने पर स्थापित भी कर दिया. लेकिन बात ऐसी नहीं है. इसे साफ़ करने के लिए यहाँ रायजी का पूरा कथन ही उद्धृत कर देना समीचीन होगा–

‘यह प्रश्न ही नहीं उठता कि उनके (प्रसादजी के) आँसू पोंछने के लिए भाई मैथिलीशरण ने कुछ गुनगुनाकर यह बना दिया..... और उनसे इसी राह पर चलने की स्वीकृति उपलब्ध कर ली. इस सम्बन्ध में यह तथ्य है कि मैथिलीशरण की पद-योजना सर्वथा भिन्न थी. उक्त शैली वाला उनका एक भी छंद खोजे न मिलेगा. (वाङमय -183). इति क्षेपक.

अब प्रस्तुत छंद के मुताबिक कहना इतना ही है कि स्मृति यूँ दुखदायी है कि घनीभूत पीड़ा ही स्मृति-सी है– स्मृति की पीड़ा नहीं, पीड़ा की स्मृति है या पीड़ा ही स्मृति है...!!   

‘आँसू’ के प्रकाशन के साथ उठे इस सवाल को साहित्य-शास्त्र की शब्दावली में कहें, तो ‘स्मृति एवं ‘इस विकल वेदना को ले किसने सुख को ललकारा’ वाली उसकी वेदना’ का आश्रय यदि कवि ‘हृदय’ और ‘मस्तक’ है, तो इसका आलम्बन कौन है, जिसके विविधरूपी एवं बहव: अनुभाव इसमें बिखरे पड़े हैं और उन्हीं सबसे उद्दीप्त संचारी भावों का काव्य है समूचा ‘आँसू’ – ‘ये सब स्फुलिंग हैं मेरी, उस मायामयी जलन के’, जो वायवी भी नहीं, पर्याप्त ठोस निशानात लिये हुए हैं- ‘कुछ शेष चिह्न हैं केवल मेरे उस महामिलन के’.... फिर ‘आँसू’ लिखे जाने के दशक भर बाद जब काव्यात्मक आत्मकथा में ‘उसकी स्मृति’ का शब्द-युग्म आया, तो उस आलम्बन को सर्वनाम मिला और तलाश शुरू हुई संज्ञा की– ‘उसकी’ है कौन? तब यह मात्र स्मृति न होकर ‘उसकी स्मृति’ हो गयी और स्मृति से अधिक ख़ास ‘उसकी’ हो गया– ‘उसकी’ यानी किसकी? 

(प्रसाद जी के घर पर लेखक और छात्र)

 

(दो)

‘आँसू’ का कवि उस आलम्बन को इरादतन छिपाता है, बल्कि इसकी रचना-प्रक्रिया में छिपाने का इरादा अंतर्भुक्त हो गया है. फिर भी रमेशचन्द्र शाहजी के मन में जाने क्यों ऐसी प्रतीति होती है कि कवि को उपयुक्त आलम्बन मिल नहीं रहा है, क्योंकि आलम्बन मिला न होता, तो खोज होती, आँसू नहीं. और यहाँ तो आँसूकार उस आलम्बन के प्रति अपनी आसक्ति को खुलकर बताता है. बताने के लिए ही लिखी गयी है ‘आँसू’, बल्कि यह कि आसक्ति दुर्निवार होकर आँसू के रूप में फूट पड़ी है– ‘बह निकली कविता सरिता सी’. लेकिन कवि आसक्ति के स्वरूप को इतना साफ-साफ भी नहीं बताता कि आलम्बन जहिराने लगे, उसकी शिनाख़्त होने लगे और पहचान खुलने लगे, यानी मौन रहता भी नहीं, मुखर होता भी नहीं..., जो पुन: उत्तम कविताई की क़ुदरत है- ‘हॉफ कंसील्ड, हॉफ रिवील्ड’ का कला-मानक. सो, कुल मिलाकर ‘आँसू’ की रचना एवं तब से हो रही इसकी चर्चा में कवि की नीयत से उपजी कविता-कला ही गोया यूँ साकार हुई है, कि आलम्बन ‘साफ छिपता भी नहीं, सामने आता भी नहीं’.  

यह स्थिति ‘आँसू’ के लिखे जाते से ही बन गयी. जुलाई 1922 में प्रसादजी के ही प्रस्ताव पर केशवजी के ख़ुशनुमा बगीचे में पहला पूर्ण पाठ हुआ. उनके साथ राय कृष्णदासजी भी मौजूद थे, जिनके अनुसार ‘प्रसादजी ने दो-चार शब्दों में परिचय देते हुए समग्र ‘आँसू’ तन्मयता के साथ सस्वर सुनाया. यही दोनो पूरी कृति के प्रथम श्रोता हुए. रायजी के शब्दों में ‘सुनकर हम लोग झूमने लगे.... यद्यपि इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि ‘आँसू’ की ‘वस्तु’ ऐहिक है या आध्यात्मिक, तथापि खेद के साथ कहना पड़ता है कि उसमें का अधिकांश आत्मनिष्ठ है, न कि वस्तुनिष्ठ’. इसी प्रकार ज्ञानचन्द जैन जब व्यवस्था देते हैं कि ‘प्रसादजी की कविताओं में उनके अंतरंग जीवन की कहानी छिपी हुई है. कितनी ही पंक्तियां आत्मकथात्मक हैं’, तो उदाहरण में आँसू’ ही उद्धृत करते हैं (अंतरंग -124)- सुख आहत शांति उमंगें बेगार साँस ढोने में, यह हृदय समाधि बना है, रोती करुणा कोने में

रायकृष्णजी आगे लिखते हैं –

‘प्रसादजी के विशेष वात्सल्य-भाजन रहे डॉ. राजेन्द्र नारायण शर्मा. वे कवि की रचनाओं में भी गहरी पैठ रखते. उन्होंने थोड़े शब्दों में ‘आँसू’ के बारे में जो कुछ कहा है, उसके मुकाबले में किसी की कोई उपज या तर्क ठहर नहीं सकते- ‘प्रेम लिंगभेद से परे है– भगवान की भाँति, क्योंकि वह अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूप कहे गये हैं– वाच्य-वाचक भेदेन भवानेव जगन्मय:’. इसी के समानांतर ही स्वयं प्रसादजी का भी कथन है. जब उनके जीवन-काल में ही ‘शशिमुख पर घूँघट डाले, अंचल में दीप छिपाये, जीवन की गोधूलि में कौतूहल से तुम आये’, के हवाले से पूछा गया कि आप अपने रहस्यमय घूँघट और अंचल वाले प्रियतम का नाम बतलाइए, तो प्रसादजी बोले–

‘आँसू’ प्रेम के देवता की अर्चना है. प्रेम अपनी माया के विग्रह से अनंत रमणीय रूप धरता है. उसे न स्त्री कहा जा सकता, न पुरुष. न कोमल कहा जा सकता है, न परुष’ (वाङमय-182). और उन्होंने पास में ही रखी हुई राजेन्द्र नारायण शर्मा वाली प्रति पर ये पंक्तियां अपने हाथ से लिख दीं–

ओ मेरे प्रेम बता दे, तू स्त्री है या कि पुरुष है, दोनों ही पूछ रहे हैं, तू कोमल है या कि परुष है?’

उनको कैसे समझा दूँ, तेरे रहस्य की बातें, जो तुमको समझ चुके हैं, अपने विलास की घातें.’ 

फिर ‘आँसू’ के छपकर आते ही विनयमोहन शर्मा एवं उनकी मित्रमण्डली का निश्चित मत बना कि ‘आँसू’ का ‘आलम्बन (यानी ‘उसकी’ की संज्ञा) प्रसादजी की कोई प्रेयसी ही हो सकती है’ (वाङमय -261). ऐसा इसलिए भी, क्योंकि इतनी गहन आसक्ति अपने किसी चहेते प्रिय के बिछोह की ही वेदना, बेचैनी व तड़प से हो सकती है, तभी तो इन सबकी गहराई में बड़ी निजता है. निजता का वास्ता प्रेम से है– ‘आँसू’ प्रेम काव्य है– बिरह का प्रेम काव्य.

नन्ददुलारे वाजपेयीजी ने लिखा है–

‘उद्दाम शृंगारिक स्मृतियों के साथ सम्पूर्ण समाधानकारक दार्शनिकता ‘आँसू’ की विशेषता है’ (वाङ्मय-22). निश्चय ही ‘आँसू’ का प्रेमी हारा हुआ है. असफल प्रेमी यदि पागल नहीं हो जाता, तो दार्शनिक होकर ही सामान्य जीवन जी सकता है. इसलिए इसके दर्शन पर तत्त्वचिंतक समीक्षक व दार्शनिक सोचते रहे हैं– और भी सोचें.... लेकिन जीवन के पन्ने उलटने-खोलने वाले इस उपक्रम में उसके विवेचन के लिए बिल्कुल जगह (स्पैस) नहीं है और मूल बात यह भी कि जीवन है, तो दर्शन है, जबकि प्रेम है, तो जीवन है– भले जीवन के कारण ही प्रेम हो. और आँसू में उद्दाम शृंगारिक स्मृतियां हैं, तो उतना ही उद्दाम प्रेम भी रहा होगा.... फिर तत्कालीन दैनिक ‘आज’ के समीक्षक को यह सामान्य प्रेम-काव्य क्योंकर लगा होगा, वही जानें – हाँ, रहस्य का आभास तो ठीक है? (261-62 वाङमय). बहरहाल, 

 

(तीन)

उद्दाम प्रेम है तो बहुत अच्छी बात, लेकिन भारतीय समाज में विवाह के अलावा किसी प्रेयसी का होना अच्छा तो आज भी नहीं माना जाता, तब तो बहुत बुरा माना जाता था. बड़ी बेइज्जती का सबब होता था– प्रसादजी जैसे सम्भ्रांत समाज में तो और भी ज्यादा. अत: तब उदार व उदात्तवादियों ने किसी निजी पीड़ा को ख़ारिज़ करते हुए बड़ा सटीक व सरल तर्क दिया है कि ‘आँसू’ के सृजन के वक्त कवि के निजी जीवन में कोई दुख न था. कमलाजी से हुई तीसरी शादी के बाद अंतिम रूप से जीवन में व्यवस्थित होकर कवि प्रसन्न थे.  

तो इन प्रमाणों से तर्क यह दिया गया कि इस परम सुख के बीच ग्लानि-पीड़ा-तड़प...आदि, जो उस कालावधि में कवि के जीवन में थे ही नहीं, रचना में कैसे आ सकते हैं!! यानी यह सब उनके निजी जीवन से बावस्ता नहीं, आम जीवन की अभिव्यक्ति है. वह पीड़ा सबकी है. इसका निष्कर्ष यूँ कि ‘आँसू’ की पीड़ा ‘ग़मे जानां’ से नहीं, ‘गमे दौरां’ से उपजी है. कवि के निजी जीवन से उसका कोई वास्ता नहीं, वह तो रचना की पीड़ा है- रचना मात्र है.

लेकिन यह तर्क व व्याख्या सृजन के ककहरे (क ख ग) से भी अनभिज्ञ सिद्ध होती है या उसे नज़रन्दाज़ करके लिखी गयी है. दूर न जाकर ‘आँसू’ के उक्तोद्धृत उसी मशहूर छंद –

‘जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति-सी छायी.दुर्दिन में आँसू बनकर वह आज बरसने आयी’

पर ही ध्यान दे दिया जाता, जो कृति में प्रवेश करने के पूर्व लिखा मिल भी जाता है, तो ऐसा तर्क त्रिकाल में न दिया जाता.... अभी तो ऐसा भी लग रहा है कि इस छंद को प्रमुखता से कृति के पहले लिखने में कदाचित् कवि की मंशा भी रही हो, कि इसे फौरी सन्दर्भों से न जोड़ा जाये. फिर ‘आँसू’ में आकर तो ये पंक्तियां बहव: उदाहरणीय बन गयी हैं, प्राय: उद्धृत होती भी हैं; लेकिन इसमें न भी होता यह छंद, तो भी सृजन-प्रक्रिया का यह विश्रुत सच है कि साहित्य कोई रिपोर्ट नहीं, जो आज की घटना को कल अख़बार में दर्ज़ कर दे. अस्तु, यह कदापि जरूरी नहीं कि उसी वक्त जीया जाता जीवन ही रचना में आता है. घनीभूत पीड़ा कभी की भी हो सकती है, जिसका सिद्ध सन्धान या जिसे सिद्ध करता सन्धान ही यहाँ अभिप्रेत है कि कवि के जीवन में आख़िर वह थी कौन..., जो स्मृति बनकर और स्मृतियों में अनगिन रूप धर-धर कर आती-जाती रही और पाठक के मन में भी आती रहती है. 

लेकिन उसके पहले गमे दौरां का एक और ख़ास सन्दर्भ, जो प्रत्यक्ष भी है और अपनी कलात्मकता में रोचक भी. जीवन-सन्दर्भों के सिलसिले में क्रान्तिकारी प्रदर्शनकारियों की घटना पीछे विवेचित है, जिसमें सत्ता-विरोधी नारे वाले गीत गाते हुए पर्चे बाँटते बच्चों को पुलिस पीटे जा रही थी, पर बच्चे चिल्ला-चिला कर गीत गाये जा रहे थे, दो दिन ऐसा होने का जिक्र मिलता है और दोनों दिन इस दृश्य पर प्रसादजी की आँखों से आँसू बह निकले थे. सारे दृश्य के प्रत्यक्ष-द्रष्टा दुर्गादत्त त्रिपाठी अगले दिन प्रसादजी से मिले, तो उन्हें कुछ लिखते पाया. सुनने की इच्छा जतायी, तो प्रसादजी ने उन बच्चों के जुनून व जीवट की कुछ बातें कीं और वही क्रांति-व्यंग्य गीत गुनगुनाया भी. इसके कुछ ही दिनों बाद प्रसादजी ने त्रिपाठी-दम्पति को पहली बार ‘आँसू’ के शुरुआती तीन छंद गाके सुनाये थे. त्रिपाठीजी को लगा कि पता नहीं सर्वोत्तम पंक्तियां देने के निखार-सुधार के अधीन ‘आँसू’ की पहली चार पंक्तियां ही कितने संस्कारों के बाद अवतरित हुई होंगी!! (वांग्मय -116)

लेकिन तीनो छंद सुनके सहसा उन्हें वह क्रांति-गीत याद आ गया– वही छंद, वही धुन. त्रिपाठीजी निश्चय पूर्वक कुछ कह सकने की हालत में नहीं कि ‘आँसू’ का पहला छंद पहले लिखा गया था या पहले उस लड़के के मुंह से वह गीत सुना गया था’, लेकिन यह संकेत बिल्कुल साफ है कि ये आँसू किसी ‘इसकी-उसकी’ स्मृति के नहीं, राष्ट्रीय चेतना के आँसू’ हैं. इसका बेहद रचनात्मक प्रमाण यह भी कि लिखने-पढ़ने-गाने, सबमें दोनो प्राय: समान हैं– एक-एक चरण (अर्धविरामों में बँधे) बारी-बारी से साथ गाके देखें–

‘अंगरेजी रंगरेजवन के, दल-बादल आयल बाटैं, रँगने को धरा रुधिर से, बदरा गदरायल बाटैं’.

इस करुणा कलित हृदय में, अब विकल रागिनी बजती, क्यों हाहाकार स्वरों में, वेदना असीम गरजती.  

तीनों छंद सुनकर श्रीमती कुसुम दुर्गादत्त त्रिपाठी ने अपने बाला-सुलभ स्वभाव से कविता की पृष्ठभूमि पूछ ली. और प्रसादजी ने अपने चिर गोपन अन्दाज़ में कहा– ‘ऊपर वाला जाने’!

पूरे विवरण का लक्ष्यार्थ, बल्कि वाच्यार्थ यह कि ‘आँसू’ का उद्भव ही इतनी ज़हीन राष्ट्रीय चेतना से हुआ है कि वह निजी जीवन के प्रेम-बिरह की कविता नहीं हो सकती. अत: इन सबसे कहीं अधिक यह सामाजिक जीवन की कविता है. और इस बात को दुर्गादत्त जी दूसरी तरह कहते हैं और कहीं ज्यादा शिद्दत से कहते हैं–

‘ऐसी स्थिति में केवल कल्पना क्या काम दे सकती है. वास्तव में बाबू साहब अपने रूप पर आप ही इतने मुग्ध थे कि यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि उन्हें कभी किसी रूपवती से आसक्ति और उसके वियोग से कभी कोई पीड़ा हो सकती थी या नहीं. बाह्य आसक्ति उनके काव्य की विषय-वस्तु बन भी सकती थी या नहीं, इसमें सन्देह है. वे अत्यंत पवित्र व आत्मस्थ विचारों के स्वामी थे. दासता तो वे कदाचित् अपने प्राणों की भी स्वीकार नहीं कर सकते थे’ (वाङमय-120).

इस कथन में रूपवती से आसक्ति न होने की बात निरी भावुकता या प्रसादजी के व्यक्तित्व के प्रति प्रगाढ़ अनुरक्ति (ऑब्सेशन) है– बल्कि त्रिपाठीजी के ही शब्द लूँ, तो ‘दासता’ ही है, वरना प्रेम का मादन भाव प्राकृतिक है, इससे परे कोई नहीं– न ऋषि-मुनि, न त्रिदेव ही. लेकिन क्रांति गीत व उससे जुड़ी घटना के प्रत्यक्ष प्रमाण को न ख़ारिज कर सकते, न ऐसा करना उचित ही होगा. लेकिन पिटते हुए देशभक्त बच्चे के प्रति शोक-संतप्त उत्तेजना (स्पिरिट) को मान भी लिया जाये, तो यह सिर्फ़ उद्भव के साथ किंचित जुड़ पायेगी. माना कि देशभक्ति का जज़्बा बहुत भावावेग वाला है. लेकिन ‘आँसू’ की प्रकृति नितांत शृंगारी है. अत: इसमें उस बालक की याद के दो-एक बूँद आँसू कहीं एकाध छंद में हो सकते हैं, पर ऐसा कहने वाले त्रिपाठीजी प्रभृति लोगों की कवि व देश के प्रति सारी भावात्मकता की पूरी क़द्र के साथ कहना चाहूँगा कि ‘आँसू’ की `समग्र रचनात्मकता के साथ इसे नहीं जोड़ा जा सकता. पूरे काव्य में व्याप्त आलम्बन से बनते अनगिन उद्दीपनों, आश्रय के अनंत अनुभावों व असंख्य संचारियों की संगति इतने-से सन्दर्भ के साथ कैसे बैठेगी? फिर उनमें निहित रूमानियत के मसृण आवेग और उनसे फूटती आकुलता की अतल-अतुल मार्दवता के रूपकों का परिपाक कैसे होगा? राष्ट्रीयता के साथ यह अदद शोकांतिका कैसे सधेगी? कुल मिलाकर यह सच या उद्भावना ‘आँसू’ के उद्भव का एक पूरक स्रोत तो बन सकती है, सृजन-यात्रा में थोड़ी भी दूर चल नहीं सकती, पाथेय बन नहीं सकती. 

और संगति न बन सकने वाली इस बात का पता भी दुर्गादत्तजी को था. सो, उन्होंने असंगति की सम्भावना का भी एक तोड़ दिया है– ‘वादों और प्रदर्शन से सर्वथा विमुख एकांत स्वाध्यायी और स्थितप्रज्ञ चिंतक बाबू साहब के ‘आँसू’ से यदि फिर भी उनका (तत्कालीन स्थितियों का) सीधा सम्बन्ध न जुडता हो, तो कोई आश्चर्य नहीं. क्योंकि ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा और सत्य मौलिक है. इसलिए वातावरण ऐसी आत्मनिर्भर कृति पर अपना आरोपित नहीं कर पाता (वांग्मय-117).

यानी प्रकारान्तर से यही कहा जा रहा कि ‘आँसू’ अपने समकालीन वातावरण से परे भी है, जिसका मतलब साफ है कि वह रूमानियत प्रसादजी के मन की बात है. और सिद्ध सत्य है कि बिना कुछ हुए सिर्फ हवा में तो मन में भी कुछ बनता-पकता नहीं. सो, इसके आधार व प्रमाण भी हैं, जो अभी आगे आकलित होंगे. 

अभी यह कि दुर्गादत्त जैसे तिसरइते की इस राष्ट्रीय चेतना के बाद ‘उसकी’ की तलाश में दो ऐसे परिणाम मिलते हैं, जिन्हें पारिवारिक कहा जा सकता है. जो घर व सगे-सम्बन्धियों की तरफ से बड़े सु-मन व सलीके से आये हैं. अपने प्रयोजन में तो इन्हें बालमत, लोकमत कहा जाना चाहिए, पर उद्भव व प्रवृत्ति में ये बालमन और लोकमन ठहरते हैं.

 

(प्रसाद परिसर में उनका शिव मंदिर)

(चार)

घटित के कालक्रम के अनुसार बालमन को पहले लिया जाये, तो यह प्रकरण सिर्फ कवि के मौसेरे भाई मुकुन्दीलाल गुप्त के यहाँ मिलता है, जो इस कार्य के एक महत्त्वपूर्ण सामग्री-स्रोत भी सिद्ध हुए हैं. उनका यह प्रकरण प्रसादजी की शुरुआती रचना ‘प्रेमपथिक’ से बावस्ता है. उसे कई बार पढ़ने के बाद एक मुँहलगे अनुज की तरह उन्होंने प्रसादजी से पूछा था– ‘भइया मैं ‘प्रेमपथिक का रहस्य जानना चाहता हूँ. उसे पढ़कर मुझे शंका होती है’.

प्रसादजी का उत्तर था– ‘कुछ शंकाएं ऐसी होती हैं, जिनका समाधान किया नहीं जाता, हो जाता है. ‘प्रेमपथिक’ को पढ़ना ही उसका समाधान है’. ऐसे उत्तर देकर बहला देना प्रसादजी को आता था. यह बहलाना सामने वाले की औकात व स्तर का होता था. कभी विनोद व्यासजी ने पूछा, तो कह दिया– ‘जब लिखना, तो बताना – फोटो दे दूँगा’.

जब कलकत्ते में छात्रों ने ‘शशिमुख पर घूँघट डाले...’ वाले छंद का आशय पूछा, तो यह कहकर टाल गये कि जिस मानसिक दशा में लिखा था, उस दशा में पहुँचूँगा, तभी उत्तर दे सकूँगा. इस पर बच्चों ने कह दिया– आप तो शेक्सपीयर जैसी बातें कर रहे हैं, तो प्रसादजी का प्रति उत्तर पुन: रोचक रहा– ‘मैं क्या जानूँ शेक्सपीयर वग़ैरह मुझे तो अंग्रेजी बिल्कुल भी नहीं आती’. (वाङमय – 246). ख़ैर,

कहना होगा कि प्रसादजी की एक रचना-प्रवृत्ति है आँसू, जो उनकी तमाम कविताओं में वापी-कूप-तड़ागादि के किसी न किसी रूप में मिलती है. परंतु वही प्रवृत्ति ‘आँसू’ में आके नदी बन जाती है. और इसी रूपक को आगे बढ़ायें, तो फिर ऐसे उमगती है कि ‘नदी उमगि अम्बुधि महँ जाई’ को गोया सार्थक करती हुई ‘कामायनी’ में अगाध समुद्र बन जाती है. इस प्रवाह के उत्तरोत्तर क्रम में तीन प्रमुख पड़ाव पड़ते हैं – प्रेमपथिक, आँसू और कामायनी. वही प्रवृत्ति व भाव ‘प्रेमपथिक’ में कथात्मक रूप-शैली में अन्य पुरुष में व्यक्त होकर सामान्य (जनरल) बनकर रह गया है. फिर भी अनुज मुकुन्दी का प्रश्न बना है, जिसका अहसास हर पाठक को भी हो सकता है. और वही भाव ‘कामायनी’ में पात्रमय-कथामय रूप धरकर, महाकाव्य के विधान में ढलकर दर्शन की विराटता में पर्यवसित होकर अति विशिष्ट हो गया है.

यही विशिष्टता न होती, तो वहाँ भी यही प्रश्न बनता, तात्पर्य यह कि ‘आँसू’ ही वह पड़ाव है, जहाँ सीधी समक्षता हुई है. मध्यम पुरुष (‘तुम सुमन नोचते-फिरते’...आदि) के सम्बोधन में ‘उसकी’ के सामने होने का अहसास भी साकार होता है. यहाँ माध्यम व रूपबन्ध का कोई अवगुण्ठन नहीं है. अवगुण्ठन तोड़ा-फाड़ा नहीं गया है– हटा दिया गया है, बल्कि हट गया है– गोकि इतना नहीं हटा कि उतना खुल जाये, जितना कि कला-समक्षता के लिए ग़ालिबन दरकार है-

‘वा कर दिये हैं शौक़ ने बन्दे-नक़ाबे हुस्न, ग़ैर अज़ निग़ाह अब कोई हाइल नहीं रहा’–

यानी आवरण रह ही न जाये. यहाँ आवरण है– भले सघन न होकर झीना ही सही, जिसमें से उस प्रिय के प्रति हृदय की असीम वेदना कवि की एकालापी गीतमयता में उमड़ पड़ी है– ‘वेदना असीम गरजती’. अत: सारे सवालों-चर्चाओं का केन्द्र ‘आँसू’ बन गया है.

इस शृंखला में मुकुन्दी के सवाल में ‘उसकी’ की तलाश का एक मामला ख़ूब बनता है. हालाँकि वह सवाल ‘प्रेमपथिक’ से है, किंतु काफी दूर तक जा सकता है. और प्रसादजी के न बताने के बावजूद मुकुन्दी ने ‘उसकी’ का एक रहस्य या एक ‘उसकी’ का राज़ जान लिया, बचपन में एक सजातीय परिवार से प्रसादजी का घरेलू सम्पर्क रहा. वे उस सगोत्रीय परिवार से बहुत घुलमिल गये. उस परिवार में एक प्राय: हमउम्र बालिका थी. दोनो साथ खेला करते थे. किशोरावस्था में आते-आते यह खेल उस सुन्दर किशोरी के प्रति घनिष्ठता में बदलता गया, जो युवावस्था में प्रवेश करते-करते ‘हृदयग्राही प्रेम’ में परिणत हो गया– यानी ‘लरिकइंअवा के परेम’ बन गया- बालमन. समय पाकर उन्होंने अपनी आदरणीया भाभी से परामर्श किया. इस तरह रहस्य जान पाने का सूत्र मुकुन्दी ने कहके बतलाया नहीं है, लेकिन वह प्रकट हो जा रहा है और पुख़्ता भी ठहरता है. भाभी का उत्तर था– ‘तुम दोनों विवाह-सूत्र में नहीं बँध सकते, क्योंकि रक्तगत अंतर अभी सात पुरुषों का नहीं हुआ है’. यानी उस परिवार को इस जाति में आके अभी सात पुश्तें नहीं बीती हैं कि पूर्ण जातीय शुद्धता बने. सो, इस सम्बन्ध की परिणति दुखांत ही रही (वाङमय-223). यह उद्घाटन मुकुन्दी ने प्रसादजी को बता भी दिया और उनसे ‘जिद्दी’ की उपाधि भी पा ली. इस व्रण को व्यक्त करती ‘प्रेमपथिक’ की दो पंक्तियां–

‘रूखा शीशा जो टूटे तो हर कोई सुन पाता है, कुचला जाना हृदय-कुसुम का किसे सुनायी पडता है? 

कालांतर में उस युवती का अन्यत्र विवाह हुआ, जिसमें कवि निस्संग भाव से सम्मिलित भी रहे. इसे मुकुन्दीजी ने प्रसादजी के ‘अनुपम चारित्र्य’ का प्रमाण माना है. लेकिन ऐसे प्रेमांत और शादी में ऐसी मौजूदगियां उस समय की एक विवश प्रेमी-प्रवृत्ति रही कि जब प्रेमिका का सिन्दूर-दान हो रहा है, मुहल्ले या पड़ोस का प्रेमी बारातियों को भाजी परसते हुए उसकी तिखास के बहाने अपने ‘आँसू’ पोछ रहा होता है– ‘कुचला जाना हृदय-कुसुम का किसे सुनायी पड़ता है’?

उसके बाद से मुकुन्दी जब भी ‘प्रेमपथिक’ पढ़ते, कवि के भग्न हृदय की भावना उनके समक्ष मूर्त्त हो जाती. मुकुन्दी ने ‘आँसू’ का नाम लिया नहीं, पर क्या ‘प्रेमपथिक’ के भग्न हृदय की वही ‘घनीभूत पीड़ा’ ही यहाँ ‘आँसू’ बनकर तो नहीं बरस रही है? उसी किशोरी प्रेयसी की स्मृति ही ‘प्रेमपथिक’ के बाद ‘आँसू’ का भी पाथेय तो नहीं बनी है? स्रोत सही है और घनीभूत पीड़ा की स्मृति का कालांतर में बरसने की पूरी प्रक्रिया व सारे परिणामों की कसौटी पर ख़रा उतरता है. स्मृति में छायी ‘उसकी’ का सटीक तोड़ देता है,  लेकिन अभी और आगे चलें.. 

और लोकमन पर आयें, जिस तरह सुखमय जीवन-काल में ‘आँसू’ के लिखे जाने में किसी प्रिय के अनहोने (न होने) या किसी दुखद भाव के अभाव को व्याख्यायित किया गया, उसी तरह अपने ख़ासों एवं शुद्धतावादियों की तरफ से इसमें औरों के साथ कुछ ऐसा भी आना ही था या उन्हें ऐसा लाना ही था, जो लोक-अनुमोदित हो, और लोक में दाम्पत्य प्रेम ही काम्य है. वही चिरकाल में आदर-सम्मान पाता है – सराहनीय-आदरणीय बनता है.

और इधर प्रसादजी की पहली पत्नी बिन्ध्यवासिनी देवी की सुन्दरता व शालीनता की धनक प्रसाद-विषयक अध्ययन-मनन एवं परिवार-जनों से संवाद के दौरान बराबर सुनी जा सकती है. उनके प्रति प्रसादजी की अनुरक्ति का अहसास निरन्तर होता है. उनके दिये नाम ‘प्रसाद’ का कवि द्वारा अंतरिम स्वीकार और गृह-त्याग की अवधि में उनके नाम वाले स्थल ‘विन्ध्य’ पर वास, आदि सन्दर्भ पीछे आये भी हैं. लेकिन यहाँ इस सन्दर्भ को विवेचित करने के आधार हैं- रत्नशंकरजी के उल्लेख... उन्होंने ‘कानन कुसुम’ की अवतरणिका में बड़ी स्पष्ट चर्चा की है और ‘उसकी’ को लेकर तमाम वाह्य अनुमानों का खुला प्रतिवाद भी किया है. रत्नजी ने इस स्मृति और पीड़ा को विशेषत: कवि की प्रथम पत्नी से जोड़ते हुए धारणा बनायी कि ‘उसकी’ यानी बिन्ध्यवासिनी देवी की, जो कवि को बहुत प्रिय थीं.

रत्नजी अपनी बात का सिरा कवि की भाभी लखरानी देवी से जोड़ते हुए लिखते हैं- ‘बिन्ध्यवासिनी देवी को लखरानी देवी लावण्य की देवोपम एक ज्योतिमती मूर्त्ति मानती थीं. वे बताती थीं कि बहू के गले से उतरती पान की पीक झलकती थी. यह मूर्त्त पहचान अप्रतिम सौन्दर्य के मानक रूप में प्रतिष्ठित है– एलिज़ाबेथ के साथ चस्पा है. और यहीं से अपनी बात मिलाते हुए रत्नजी लिखते हैं–

‘सौन्दर्य लावण्य के द्वारा ही अनुप्राणित रहता है अथवा उत्क्रांत लावण्य अपनी घनीभूत अवस्था में जहाँ उद्योतित होता है, वहाँ सौन्दर्य की प्रतिष्ठा पद-ग्रहण करती है. सुतरां सौन्दर्य का आंतरहेतु लावण्य है. ‘आँसू’’ की ये पंक्तियां इस प्रसंग से आसूत्रित हैं, जिसके प्रियतम को लेकर प्राय: अनर्गल अनुमान लगाने का साहस करना कवि पर कुछ लिखने वालों का स्वभाव-सा हो गया है– ‘लावण्य शैल राई सा, जिस पर वारी बलिहारी, उस कमनीयता कला की सुषमा थी प्यारी-प्यारी’.

फिर बिन्ध्यवासिनीजी की जानिब से रत्नजी अपनी बात शुरू करते हैं– प्राचीन लिच्छवी वंश के प्रत्यंत पर जन्म लेने वाली देवि बिन्ध्यवासिनी का शरीर जिन परमाणुओं से रचित रहा, कदाचित् वे उन अंतर्जात व लिच्छवी संस्कारों से संवलित रहे’. इसका प्रमाण देते हुए वे उद्धृत करते हैं ‘काव्य कला एवं अन्य निबन्ध’ से प्रसादजी का कथन–

“(लिच्छवियों की) अपने भीतर से मोती के पानी की तरह आंतर-स्पर्श करके भाव-समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति-छाया कांतिमती होती है”. और फिर इसका सूत्र जोड़ते हुए कहते हैं–
‘कवि के अंतर्जगत पर वह छाया ‘आँसू’ में जाकर कुछ इस प्रकार घनीभूत हुई
, जिसका परिणाम-बिम्ब ‘कामायनी’ के ‘स्वप्न सर्ग’ की इन पंक्तियों में उस स्वप्नभूत जगत का एक इतिवृत्तपरक चित्र सँजोये है –

‘मानस का स्मृति-शतदल खिलता, झरते बिन्दु मरन्द घने,

मोती कठिन पारदर्शी ये इनमें कितने चित्र बने I

आँसू सरल तरल विद्युत्कण नयनालोक बिरहतम में,

प्राणपथिक यह सम्बल लेकर लगा कल्पना-जग रचने॥ 

‘कामायनी’ के इस ‘स्मृति-शतदल’ के साथ रत्नजी ‘स्कन्दगुप्त’ से मातृगुप्त का वाक्य भी उद्धृत करते हैं– ‘वह स्मृति दूसरे प्रकार की होगी. उसमें ज्वाला न होगी, धुआँ उठेगा और तुम्हारी मूर्ति धुँधली होकर सामने आयेगी’ (चतुर्थ अंक, तृतीय दृश्य). यही स्मृति ‘कानन कुसुम’ के ‘समर्पण’ में भी बड़ी गहनता से प्रकट हुई है, जिसका भी उल्लेख रचना-क्रम के अंतर्गत ‘कानन कुसुम’ के सन्दर्भ में हुआ है. इस सारी क़वायद का मंतव्य यही रहा कि ‘आँसू’ की ‘उसकी स्मृति’ किसी अन्या की नहीं, वरन परिणीता पत्नी की है- स्वकीया प्रेम की है. और वह इतनी विशद है कि पूरे प्रसाद-साहित्य में यत्र-तत्र व्याप्त है.

किंतु इस तर्क-प्रमाण के पूरे विधान के समक्ष पहला और सबसे बड़ा सवाल यही है कि यदि बात इतनी शिष्ट थी, तो स्पष्ट कहने में क्या हर्ज़ था? बल्कि ज्यादा गौरव की बात होती– अधिक सम्मान्य व सबके लिए सराहनीय. फिर ‘उसकी स्मृति’ भी क्यों कहते, ‘प्रिया की स्मृति’ न कहते– निराला के राम की तरह ‘उद्धार प्रिया का कर न सका’! आँसू को स्वर्गीया विन्ध्यवासिनी के नाम समर्पित कर सकते थे, जिसके लिए उनके जैसी प्रतिभा के शब्दकोश में एक से एक मसृण-अनुरागमय सम्बोधन होते, फिर इसे अवगुण्ठन-आवरण में क्यों रखा गया?

दूसरी बात यह कि पत्नी पर ऐसे पूरा काव्य लिखने का कोई सीधा-सधा प्रमाण भी नहीं है. क्योंकि पत्नियां तो मिल जाती हैं– और प्राय: बिना तरद्दुत के. फिर क्या मज़ा? मज़ा तो ‘पाने में नहीं, पाने के अरमानों में’ होता है –‘पा जाता, तो हाय न इतनी प्यारी लगती मधुशाला’. फिर वह अरमान अप्राप्त रहकर टूटे, तो काव्य बने, चित्र-मूर्त्ति बने, लेकिन यह पत्नी की नियति से उलट है. हाँ, इस सन्दर्भ में ‘निशा निमंत्रण’ व ‘एकांत संगीत’ के नाम लिये जाते हैं, जहाँ प्रेयसी-पत्नी से असमय चिर-विछोह हुआ था. लेकिन इन कृतियों का भी अंतरिम सच यह है कि ये दोनों काव्य लिखे जरूर गये हैं पहली पत्नी श्यामा की मृत्यु के बाद, पर वे पत्नी-वियोग की पीड़ा के नहीं, मूलत: कवि की पीड़ा के गान बनकर रह गये हैं. इनमें पत्नी श्यामा की स्मृति उस तरह नहीं आती. उनकी याद में फुटकर कवितायें अन्यत्र हैं, जो काफी स्पष्ट भी हैं. उनमें कोई अवगुण्ठन नहीं है. 

बच्चनजी के अलावा केदारनाथजी ने पत्नी की 28वीं जयंती पर इसी नाम से कविता लिखी है. और भी कवियों ने कुछ-कुछ कविताएं लिखी हैं, तो बिल्कुल स्पष्ट ही लिखी हैं– कह-बता के. कोई अवगुण्ठन नहीं रखा है. और इन कविताओं में मेरे देखे-लेखे न वह दर्द आया है, न ‘आँसू’ जैसा उच्च स्तरीय काव्यत्व, जो प्रसादजी के समक्ष अपनी-अपनी औकात का भी मामला है. पत्नी के प्रति तुलसीदास के भीषण प्रेम की कथा है, जिसमें पत्नी की फटकार से उनके महाकवि बन जाने की बात आती है, लेकिन फिर काव्य में रत्नावली कहीं नहीं आतीं. हाँ, सीता-हरण के बाद पत्नी-वियोग में राम रोते हैं, ‘रघुवंश’ में पत्नी-मृत्यु पर ‘अज-विलाप’ विख्यात है. इनमें परित्यक्त तुलसी व विधुर कालिदास के अपने भाव आ गये हों, तो आश्चर्य नहीं, पर इनके भी उस तरह संज्ञान तक नहीं लिये गये हैं. उदाहरण देने की रौ में नागार्जुनजी के ‘अज रोया या तुम रोये थे’ के सिवा किसी ने शायद ही राम व अज के विलापों को तुलसी व कालिदास से जोड़कर देखा हो...! इस प्रकार इन संक्षिप्त उल्लेखों के विवेचनों से सिद्ध है कि दाम्पत्य व इतर प्रेम को लेकर सामाजिक चलनों से बनी मनोवैज्ञानिकता के तहत ही सही, किंतु पत्नी-वियोग अब तक अमूमन सीधे-सीधे किसी बड़े काव्य की प्रेरणा न बन सका, प्रतिफलित न हो सका..., जिसका अपवाद शायद प्रसादजी भी न हों.... अस्तु,

श्यामा धुन सरल रसीली- अब ‘उसकी स्मृति’ को लेकर उस कुतूहल की तरफ चलें, जो इस प्रसंग की अति ख्याति का सबब है. इसमें ‘उसकी’ के लिए अन्या रूप में प्रेमिका का प्रमाण भी सामने है यानी ‘कौन थी वह’ में परकीया के भी ऐसे-ऐसे जीवंत व पुष्ट उल्लेख हैं, जो क़तई नज़रन्दाज़ नहीं किये जा सकते.

इस सन्दर्भ में जो नाम चर्चा के केन्द्र में है, वह श्यामा गौनहारिन का है. इसकी बावत सबसे पहले सीताराम चतुर्वेदीजी का उल्लेख देखें, जिन्होंने ‘उसकी स्मृति’ का सन्धान करते हुए बिना किसी संकोच-सन्देह के निछद्दम भाव से सीधे-सीधे यूँ लिखा है, जैसे कोई प्रत्यक्ष देखी-सुनी कथा हो-

‘प्रसादजी का ‘आँसू’ लघु काव्य उनकी व्यक्तिगत भावना का उद्गार है. काशी में श्यामा नाम की विवाहिता गौनहारिन कबीरचौरा मुहल्ले में रहती थी. वह ठुमरी, टप्पा, कजरी और चैती गाने में दूर-दूर तक विख्यात थी. यों तो काशी में बड़े रामदास, छोटे रामदास, सिद्धेश्वरी बाई ...आदि ठुमरी के प्रसिद्ध संगीतकार थे, लेकिन चैती और कजरी में श्यामा की जोड़ का कोई न था’ (अंतरंग-94).

रात-रात भर होने वाले कजरी के तमाम दंगलों में ‘जिस हाव-भाव के साथ श्यामा सुनाती थी, वहाँ तक कोई न पहुँच सका. प्रसादजी को उसकी ठुमरी, चैती, कजरी सुनने का बड़ा चाव था. वे अपने घर पर न सुनकर अन्य स्थानों पर उसके गायन की योजना कराते थे, जिसका पूरा प्रबन्ध वे और विनोदशंकर व्यास ही करते. संयोग से अकस्मात थोड़ी अवस्था में श्यामा का निधन हो गया, जिससे प्रसादजी को बड़ा धक्का लगा. यद्यपि उन्होंने उस समय तो कोई रचना नहीं की, किंतु बहुत वर्षों के पश्चात ‘आँसू’ की रचना कर डाली, जिसके आरम्भ में ही कहा–

‘जो घनीभूत पीड़ा थी...’.

इस छंद से ही ज्ञात होता है कि बरसों पहले जिसका निधन हुआ था, उसकी स्मृति उनके मन में निरंतर घूमती रही और अंत में कविता के रूप में प्रकट हुई. यों तो काशी में श्यामा की गायन-शैली के प्रशंसक बहुत थे, तथापि एक प्रसादजी ही ऐसे थे, जिनकी कल्पना में ‘शशिमुख पर घूँघट डाले, आँचल में दीप छिपाये’ वह निरंतर आती रहती थी, जिसे उन्होंने काव्य-समाधि देकर ‘आँसू’ में चिरस्मरणीय कर दिया है (वही- 95).

चतुर्वेदीजी ने कला-आयोजन के रूप में वाह्य जीवन की जानिब से प्रसादजी के अंतस् में बसी श्यामा की चर्चा की है, लेकिन प्रसादजी के घर में श्यामा के प्रवेश का मुख़्तसर-सा जिक्र संकोच के साथ सन्दिग्ध ढंग से किया है मैत्रेयी सिंह ने, जो बचपन से ही पारिवारिक रूप से प्रसादजी के घर के भीतर तक नियमित आने-जाने वाले लोगों में थीं. वह भी प्रसाद-मन्दिर में किसी मांगलिक आयोजन का ही अवसर था. प्रसादजी की भावज के साथ मैत्रेयी की माँ की ‘खुसुर-फुसुर’ चल रही थी. प्रसादजी किसी काम से आँगन का दरवाज़ा पार करके जैसे ही अन्दर घुसे, वैसे ही गोरी-सी एक लम्बी महिला उठी. उसके दाँत अति पान खाने से काले पड़ चुके थे. उसने एक हाथ फैलाकर प्रसादजी की तरफ गाने के लहजे में कुछ ऐसा गाया कि वे फिर उलटे पाँव वापस लौट गये, महिलाएं गाना रोककर एक दूसरे से इशारे-इशारे में कुछ कहने लगीं. उस इशारे का अर्थ कुछ ऐसा था, जिसे क्या कहूँ, समझ में नहीं आता. उस महिला का नाम श्यामा था. वह गौनहारिन थी’ (अंतरंग-102-3).

प्रसादजी के काफी घनिष्ठ विनोदशंकर व्यास ने श्यामा की बावत कुछ प्रच्छन्न यानी ‘छिपाते-छिपाते बयां’ करने के बदले बयां करने के बाद छिपाने के अन्दाज़ में लिखा है–

‘बनारस के धनी परिवारों में संगीत व मनोरंजन के लिए गौनहारिनें आया करती थीं. उनका ‘घरेलू संगीत विला’ महीने में दो-एक बार हर घर में चलता. प्रसादजी के भाई के समय में रजवंती नाम की विख्यात गौनहारिन आती. उसके साथ श्यामा नाम की एक कथकिन भी होती. वह दुबली-पतली, सँवलिया रंग की थी. उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थीं व लम्बा क़द था. प्रसाद बड़े हंसमुख और दिल्लगी पसन्द थे. मजाक में ही यह सम्बन्ध बढ़ता गया, श्यामा हारमोनियम बजाकर गाती थी, उसकी आवाज ज़ोरों से लड़ती थी. उसमें कोई सौन्दर्य तो न था, पर हाव-भाव-प्रदर्शन करने में कुशल थी. प्रसादजी के पड़ोस में मेरे एक सम्बन्धी रहते थे, उनसे भी उसका संबन्ध था. प्रसादजी के मकान के सामने एक दूसरा मकान था. उसमें भगवती नाम की वेश्या प्राय: आती थी. उसके सम्बन्ध में दिल खोलकर एक दिन सब वृत्तांत उन्होंने मुझसे कहा था. प्रसादजी के शब्दों में वह उन पर रीझ उठी थी. एक दिन 10-15 हजार के आभूषण लेकर वह आयी. कहा ‘यह सब मेरी सम्पत्ति है. मेरी कोई व्यवस्था कर दीजिए. अब मैं बाज़ार में बैठकर व्यवसाय नहीं करना चाहती. प्रसादजी चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे. वे इस स्थायी झंझट में नहीं फँसना चाहते थे. इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रसादजी का आकर्षण उसके प्रति था. वह सुन्दरी थी और सरल भी. स्पष्ट शब्दों में कुछ न कहकर दूसरे प्रयत्नों से प्रसादजी उससे अलग हुए. (भगवती के इस तथ्य पर सम्पादक रत्न शंकर प्रसाद की टिप्पणी है कि वह प्रसादजी के बड़े भाई शम्भू प्रसादजी के समय में रहती थी. उनके निधन के बाद विरक्त होकर वृन्दावन जाने का निश्चय किया. प्रसादजी ने आभूषण नहीं लिये, पर उसकी व्यवस्था कर दी (139). 

 

(प्रसाद जी के पौत्र किरण शंकर प्रसाद के साथ लेखक) 

(पांच)

प्रसादजी युवावस्था से ही दृढ़ प्रकृति के पुरुष थे. वे भावावेश में किसी के कब्जे में फँसना नहीं चाहते थे.  

व्यासजी के पूछने पर भी ‘आँसू’ की प्रेरणा के ‘रहस्य को उन्होंने नहीं खोला’ (वही-145). इस प्रसंग का पटाक्षेप व्यासजी यूँ करते हैं– ‘जिन दिनों प्रसादजी वासना की दुर्बल रेखाओं पर भटक रहे थे, जन्मे पुत्र के मरने का विशेष प्रभाव पडा. फिर कभी उस ओर उनका ध्यान न गया’

श्यामा की बावत सबसे विस्तार से उसी राय कृष्णदास ने लिखा है, जिन्होंने ‘आँसू’ की रचना के दौरान कवि के सुखमय जीवन की हामी भरते किसी दुखद जीवन-प्रसंग से इनकार किया है.  उन्होंने प्रसाद कालीन समय के समाज में नाचने गाने वाली स्त्रियों, जो अधिकतर वेश्याएं हुआ करती थीं, को अपने यहाँ रखैल की तरह रखने की अमीराना (सामंती) प्रवृत्तियों के चलनों का करीने से विश्लेषण भी किया गया है. ऐसा करते हुए उन्होंने पहले इस प्रसंग पर लिखने की अपनी अधिकृत स्थिति स्पष्ट की है–

“1909 ईस्वी से प्रसादजी के अवसान तक मैंने उन्हें निकट से निकट तक निरखा है. उनके अंतस् में पैठा हूँ. उनकी समूची गतिविधि से अवगत रहा हूँ. उनके हृदय का कोना-कोना मेरे लिए उन्मुक्त रहा है. इसी बूते पर लगभग 1910 से 14 तक का जो समय उनके विलासी जीवन का अथ से इतिश्री है, उसका यथार्थ चित्र उरेहना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ”.

फिर मूल बात पर आते हैं –

“बनारस की एक बिरादरी का पेशा है– ‘संगीत–गीतं-वाद्यं तथा नृत्यं त्रीभि: संगीतमुच्यते’. उन परिवारों में कुछ ऐसी युवतियां भी होती थीं, जो संगीत-प्रवीण होकर केवल भले घरों में अपनी कला प्रस्तुत करती थीं. जब किसी बड़े घर में कोई शुभ कार्य या उत्सव होता, तब उस मांगलिक वातावरण को अंत:पुर में मुखरित होने के लिए वे बुलायी जातीं. कभी-कभी तो ऐसे अवसरों पर प्रमुदित महिला-मण्डली सारी रात जागी रहती., उसे ‘रतजगा’ (‘आज तेरी महफ़िल में रतजगा है’) कहा जाता.

इसी प्रकार के किसी समारोह में प्रसादजी के घर में एक रूपसी युवती का प्रवेश हुआ. उसकी कला एवं अदा ऐसी लुभावनी थी कि वह अक्सर बुलायी जाने लगी. उसका नाम था श्यामा.  ऐसे अवसर भी आये, जब प्रसादजी की निग़ाह उस पर पड़ी और उसकी रसभरी आयत आँखों ने उन्हें आकृष्ट कर लिया. भगवान ने उसे सूरत के साथ सीरत भी दी थी. वह निस्सन्देह प्रेम-परायणा थी, अर्थपरायणा नाम मात्र ही. प्रसादजी के भवन के सामने ही एक विस्तीर्ण कच्चा चबूतरा था, उसके बीच में ही एक छोटी-सी सुबुक बँगलिया. रंग-बिरंगे सुन्दर-सुन्दर फूलपत्तियों वाले गमलों से वहाँ बहुत रमणीयता रहती. उसी में उसे वास मिला. उन दिनों अधिकांश कुलांगनाओं की मनोवृत्ति यह थी कि यदि उन्हें पति का पूर्ण प्रेम प्राप्त होता, तो उनमें पति की रक्षिता के प्रति सौतिया डाह नहीं होता. उनके पति-प्रेम में आराध्य भाव भी होता. ऐसे सम्बन्ध के प्रति उनका दृष्टिकोण यह होता कि यदि हमारे प्रति आराध्य का अनुराग अक्षुण्ण है, तो उनकी मौज में हमें सुख है. यही अनुकूल परिस्थिति प्रसादजी के अंत:पुर में थी. उनकी प्रेमिका के लिए उनकी जनानी ड्योढ़ी का द्वार सदैव उन्मुक्त रहा. प्रसादजी जब हवा खाने गाड़ी पर निकलते, तब कभी-कभी मर्दानी पोशाक में उसे भी संग लिये रहते. एक दिन मेरे यहाँ फाटक तक आकर न जाने क्यों सकुच गये– उलटे पाँव लौट गये. कई दिन बाद खुले. प्रसादजी का जीवन एक खुली किताब थी.

इस जीवन में वे ढाई-तीन वर्ष रमे रहे. उभय पक्ष से कभी कोई बेवफाई नहीं हुई. प्रसादजी स्वयमेव एक दिन निवृत्त-वर्ष हो गये. जब उपरत हुए, तब सदा के लिए उपरत हुए. कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, न ही मन में कोई वासना या पछतावा रहा. उनके जीवन की यही विशेषता थी. ‘जीवन-समुद्र थिर हो’ गया, तो सदा के लिए हो गया. श्यामा अपने सारे आभूषण उन्हें सौंपने लगी, तो उन्होंने बिना किसी रुखाई के दृढ़तापूर्वक ना कर दिया. झंझटों से वे दूर रहा करते. इसके बाद एक दिन मैंने उनसे पूछा कि उसका कुछ पता-ठिकाना है? उन्होंने तटस्थ भाव से कहा – ‘सुना, मर गयी’. किंतु कई बरस बीत जाने पर वह अकस्मात प्रकट हुई. ‘अरे तुम’...?- प्रसादजी ने उसे देखकर निस्संग भाव से साश्चर्य पूछा. बरसों से जिसको वे मृत  समझते थे, उसे अचानक देखकर उनका चकित होना स्वाभाविक था. फिर वह अन्दर चली गयी. (वाङमय-174-75).

इसके बाद उसका क्या हुआ, का पता कृष्णदासजी की कहानी नहीं देती. यानी दासजी का सरोकार श्यामा से नहीं, सिर्फ प्रसादजी के साथ उसके लस्तगे तक था.  

 

(प्रसाद जी के पौत्र आनंद शंकर प्रसाद के साथ लेखक और छात्र) 


(छह)

उक्त तीनों जन के उल्लेखों के आधार पर कहें, तो पहली बात यह कि प्रसादजी के जीवन में  श्यामा का होना निर्विवाद है, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि विनोदजी व रायजी के लेख प्रसादजी के पुत्र रत्नशंकरजी के ही सम्पादकत्व में छपे हैं, लेकिन उन्होंने कोई पादटिप्पणी नहीं दी है, जैसा कि उन तमाम तथ्यों पर देते रहे हैं, जो उन्हें सही नहीं लगे हैं. दूसरी बात कि उक्त तीनो-चारो मतों से स्पष्ट हो रहा है कि प्रसादजी के परिवार, आदि प्रकरणों की तरह श्यामा के साथ उनके सम्बन्ध की नियति भी पुराण बन गयी है. 

जितने लोगों ने लिखे, सबके अलग-अलग संस्करण इसके प्रमाण हैं. लेकिन उसका गौनहारिन होना तय है, क्योंकि सभी इस तथ्य पर एकमत हैं. बाकी तो मैत्रेयी सिंह का उल्लेख बरायनाम भर है, जिसमें श्यामा के प्रसाद-मन्दिर के भीतर धड़ल्ले से आने-जाने व उन्हें सबके सामने भी छेड़ने भर का वास्ता बना है. उनके कहे में श्यामा का रंग गोरा था, लेकिन बाकी दोनों मित्रों ने साँवला ही बताया है. छूटते हुए श्यामा द्वारा गहने वापस करने या उसी थाती के भरोसे गृही होकर शेष जीवन बिताने की बात भी सबकी अलग-अलग है. विनोदजी उसे सुरूपा भी नहीं मानते– बस नाज़-ओ-अदा भर की हामी भरते हैं. ‘आवाज लड़ती थी’ में गायन को भी दाद नहीं ही मिलती. बड़ा चलता-सा विवरण उसके वेश्यापने का भी देते हैं कि प्रसाद के साथ वाले काल में ही उसका किसी और के यहाँ भी आना-जाना था. लेकिन रायजी उसकी सूरत-सीरत दोनो की तारीफ करते हैं. जाते हुए वह सारे गहने लौटाने को उद्यत थी, के प्रमाण के साथ उसे अर्थपरायणा न होकर प्रेमपरायणा बताते हुए उसके वफ़ादार प्रेमिका रूप को भी सामने लाते हैं. बस, अंत का पता कोई नहीं देता. 

मैत्रेयी का तो अज्ञान है, लेकिन दोनो मित्रों को तो पता रहा होगा. सो, इसमें श्यामा के प्रति उपेक्षाभाव ही जाहिर होता है, जो विवाहेतर सम्बन्ध व फिर गौनहारिन जैसे तबके से होने के कारण ही हुआ होगा. और मूल बात यह कि ‘आँसू’ की प्रेरणा या उस कृति की अनाम वास्तविक नायिका अथवा ‘उसकी स्मृति’ में श्यामा के पाथेय होने, न होने की चर्चा तक दोनों में से कोई नहीं करता. इन मित्रों के लिए प्रसादजी के जीवन में श्यामा का होना एक घटनामात्र है. 

इस दृष्टि से सिर्फ़ सीताराम चतुर्वेदी के यहाँ ही प्रसाद-श्यामा-प्रसंग की सही और आँसू-श्यामा की एक पूरी इकाई (यूनिट) बनती है, जिसमें कवि की प्रेयसी के रूप में ‘आँसू’ की प्रेरणा व नायिका के पद पर चौचक आसीन है श्यामा. वे अकस्मात मृत्यु में उसका अंत भी बताते हैं, जिससे वियोग का ठोस मामला भी बनता है. और इस तरह शायद पीठ पीछे चलती चर्चाओं का इसमें मुकम्मल नेतृत्व भी हुआ है. चतुर्वेदीजी ने ‘शशिमुख पर घूँघट डाले...’ में श्यामा की छबि का सन्धान किया है और ‘जो घनीभूत पीड़ा थी’...का परथोक दिया है. और ‘आँसू’ की काव्य-समाधि देकर श्यामा की स्मृति को अमर कर देने के रूप में सुन्दर समापन किया है. यह एक सम्पूर्ण एवं स्पष्ट विवेचन है, जिसे किसी और तर्क-प्रमाण की दरकार नहीं....

किंतु ‘आँसू’ में कुछ और संकेत मौजूद है, जिनके साक्ष्य में कृति के माध्यम से थोड़ी और चर्चा की जा सकती है.... ‘उसकी स्मृति’ के सर्वनाम को ‘श्यामा’ की संज्ञा से जोड़ने के प्रमाण स्वरूप बड़ी बारीक काव्यात्मकता लिये हुए एक छंद बड़े खाँटी रूप में श्यामा को साकार करता है– चातक की चकित पुकारें, श्यामा-धुन सरल रसीली ; उसकी करुणार्द्र कथा की टुकड़ी आँसू से गीली.

इसके अतिरिक्त खींच-तानकर प्रयुक्त हुए श्यामा नाम के कुछ और संकेत भी मिलते हैं, जिनके लाक्षणिक अर्थ भी उस भाव को ध्वनित करते देखे जा सकते हैं –

सुख तृप्त हृदय कोने को ढँकती तम-श्यामल छाया, मधु स्वप्निल ताराओं की, जब चलती अभिनय माया

घन में सुन्दर बिजली सी, बिजली में चपल चमक सी, आँखों में काली पुतली, पुतली में श्याम झलक-सी

श्यामल अंचल धरणी का भर मुक्ता आँसू कन से, छूँछा बादल बन आया मैं प्रेम प्रभात गगन से

तुम स्पर्शहीन अनुभव-सी, नन्दन तमाल के तल से, जग छा दो श्याम-लता सी, तन्द्रा पल्लव विह्वल से

और इन सबको मिलाकर ‘आँसू’ की ‘स्मृति’ में श्यामा की स्मृति का संधान असम्भव नहीं.  

लेकिन फिर भी इसकी व्यावहारिक प्रामाणिकता सन्दिग्ध नहीं, तो विचारणीय अवश्य है. जैसे कि रायकृष्णदास तो प्रसादजी के बेहद घनिष्ठ थे. प्रसादजी भी उनके प्रेम-प्रकरण, आदि में राज़दार रहे (वाङमय 172-73 के आधार पर). यानी यह मैत्री कृष्णार्जुन के ‘विक्रांतानि-रतानि च’ जैसी थी. विनोदजी की भी मित्रता कुछेक मनभेदों के बावजूद काफी गहरी थी. इन लोगों का ऐसा न कहना चतुर्वेदीजी के कहने के मुकाबले काफी मायने रखता है. गो कि यही मित्रता इस बात की भी संकेतक हो सकती है कि मित्रों ने असलियत को इरादतन बदलकर (ट्विस्ट करके) ‘आँसू’ के कवित्व व प्रसादजी के व्यक्तित्व को एक गरिमा देने का उपक्रम भी किया हो.

इस उपक्रम के तहत विनोदजी का मामला जरा उघड़ा हुआ है. जीवनी-लेखन को लेकर उनकी   कुछ प्राथमिक मान्यताएं रहीं, जिसमें वे पाश्चात्य देशों में लेखक के जीवन की साधारण से साधारण बातों की छान-बीन और उनके सम्पूर्ण जीवन का विवरण प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति के  ख़ासे पक्ष में लगते हैं. कुछ का उन्होंने मुख़्तसर ही सही, खुला विवेचन किया भी है. वहाँ जीवनी-लेखन में कितने जीवनीकारों का अपना जीवन लग जाता है, जिसके लिए उन्हें पर्याप्त सम्मान व महत्त्व मिलता है. इस परिपाटी से मुतासिर होकर इसी प्रभाव में जब व्यासजी ने ‘देशदूत’ साप्ताहिक में गौनहारिन के साथ प्रसादजी के सम्बन्ध की बात लिख दी, तो लोगों की नाग़वार प्रतिक्रियाएं आने लगीं. इससे आहत व उद्वेलित होकर उन्होंने आँधी, घण्टी, चूड़ीवाली... आदि निराश्रित भटकती प्रसादीय पात्राओं के जरिए प्रसादजी के अनुभूत सत्य की तस्दीक भी की (‘दिन-रात’ - पृष्ठ 3-4 के आधार पर).

लेकिन फिर शायद लोगों के नाग़वार लगने के असर में आकर वाङमय वाले लेख में आगे चलकर यह भी लिख दिया कि ‘आँसू’ व ‘कामायनी’ के रचयिता को केवल एक गौनहारिन और एक वेश्या से प्रेरणा मिली हो, यह सम्भव-सा नहीं दीखता’ (पृष्ठ 145). इस स्वतोव्याघात से उनकी बात साफ न होके उलझ जाती है.

फिर व्यासजी व रायजी दोनो के विवेचनों में एक ऐसी बात है, जो बेहद सालने वाली है. दोनों में बिल्कुल साफ है कि श्यामा के जाने के बाद प्रसादजी के मन में उसके लिए कुछ बचा न था– यहाँ तक कि उसका क्या हुआ, की भी उन्हें परवाह न थी.  

 

(सात)

जैसे ‘प्रेमपथिक’ के लिए प्रसादजी ने कहा था मुकुन्दीलाल से कि ‘प्रेम पथिक’ को पढ़ना ही उसकी समस्या का समाधान है, उसी तरह ‘आँसू’ को पढ़ना ही ‘उसकी स्मृति के पाथेय’ को समझना है. और यह सच ‘प्रेम पथिक’ व ‘आँसू’ का ही नहीं है, पूरे प्रसाद-साहित्य का है. दिनकरजी ने ‘उर्वशी’ की भूमिका में लिखा है कि समस्याओं के समाधान व प्रश्नों के उत्तर देना नेताओं का काम है. कवि तो बस पीड़ा को जानता-समझता है. और यह बात अपनी-अपनी तरह से बहुतों ने कही है – ‘पीड़ा मे आनन्द जिसे हो, आये मेरी मधुशाला’ या ‘पीड़ा में तुमको ढूँढ़ा, तुममें ढूँढूँगी पीड़ा’...आदि. प्रसादीय वृत्ति भी यही है कि पीड़ा के लिए काव्य को ढूँढा और फिर काव्य को पीड़ा का रहस्य या रहस्य की पीड़ा बनाकर सिरजा. सिरजना चाहे सधे उस पड़ोसी बालिका मित्र के साथ, जिसे चाहकर भी अपना न सके, चाहे सधे श्यामा के साथ, जिसे चाहा और अपनाया, पर अपनाये रह न सके...चाहे और-और भी कुछ-कुछ या अधिक-अधिक हो. पर यह सच है कि जीवन भर पीड़ा सिरजते-निभाते यानी बीनते-बुनते रहे.... ऐसा बीना-बुना कि उसे उधड़ने-उघड़ने न दिया.... उधड़-उघड़ गया होता, तो आज यह अध्याय न होता. और पूरा प्रसाद-काव्य ही कहीं न कहीं उधड़ जाता.... 

प्रसाद-काव्य का यह अवगुण्ठन अपने जीवन से ज्यादा कविता का अवगुण्ठन है. कविता-कामिनी ही वह प्रेमिका है, जिससे मिलन-वियोग की आँखमिचौली ही रहा कवि का जीवन. और इस सत्य से अनुपम कोई तथ्य न होगा. यहाँ जो तथ्य दिये गये, जो व्याख्यायें हुईं, वे अवगुण्ठनों को खोलने के लिए नहीं, उसके साथ खेलने के लिए हुईं. यह खेल भी कवि का ही बनाया हुआ है, जिसे तभी से सारे पाठक-समीक्षक खेल रहे हैं कवि के इशारे पर. तब से कवि ही खेला भी रहा है.... बाबा तुलसी के प्रतीक में कहें, तो हम नाच रहे हैं - कवि नचा रहा है, ताल दे-दे के नचा रहा –

‘अनुहरि ताल गतिहिं नट नाचा’.

सो, प्रसादजी के ताल पर हम सब नट हैं.... और नट होने का भी अपना मज़ा है – बल्कि असली मज़ा तो यही है. और प्रसादजी के लिए तो दुनिया के होने का सच ही यही है –

‘‘यह नीड़ मनोहर कृतियों का यह विश्वकर्म रंगस्थल है,

है परम्परा लग रही यहाँ, ठहरा जिसमें जितना बल है”.
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सत्यदेव त्रिपाठी
satyadevtripathi@gmail.com

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  1. जयशंकर प्रसाद जी की जीवन यात्रा के बारे में विस्तार से पढ़ना ज्ञानवर्धक रहा,
    खोजखबर प्रस्तुति हेतु धन्यवाद

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  2. बहुत बहुत ही अच्छा लगा । उत्कृष्ट रचना का आनंद ही कुछ और है ऐसी ही अनुभूति हुई पूरा तनमय होकर पढकर । जी धन्यवाद ।बहुत ही बधाई ।

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  3. बहुत रोचक और रमणीयता पूर्ण

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  4. जीवनी को कृतियों में ही ढूंढना पर्याप्त नहीं होता। जीवनी की परिधि वृहत्तर होती है। हिंदी लेखकों की जीवनी का एक अच्छा प्रतिमान मदन गोपाल का 'कलम का मज़दूर' मुझे लग रहा है। प्रसाद जी की एक औपन्यासिक जीवनी श्याम बिहारी श्यामल भी लिख रहे हैं। कठिन, जोखिम का काम है।

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  5. डाॅ सच्चिदानन्द देव पाण्डेय30 जन॰ 2021, 8:22:00 pm


    हे महाकवे! तुम कनक किरन के अन्तराल में लुक छिप कर चलते हो क्यों!*

    बहुत मनोयोग और श्रमसाध्य प्रयत्नों से प्रसाद की यह 'खण्डजीवनी (खण्डकाव्य की तर्ज पर)' लिखी है सर,आपने!��������
    आखिर प्रसाद जी के 'कन्था' की सीवन उधेड़ कर आपने 'स्मृति का पाथेय' देने वाली "उसकी " खोज कर ही ली । उसके 'चंचल मुख' का घूँघट हटाकर 'मुस्कान भरा मुख' देख ही लिया। जीवन की गोधूलि में 'चुपके से प्रवेश करने वाली' के आँचल के झीने पर्दे में छिपे हुए दीप को अनावृत होना ही था। पाथेय छिपा कर चलने वाले थके पथिक की कन्था कितनी देर सलामत रह सकती है!

    प्रसाद जी के कोमल हृदय को जिस "नयन के इन्द्रजाल अभिराम" ने मुग्ध करके रखा था, उस जादूगर के रहस्य का पर्दाफाश हम रसिक-पाठकों के लिए बड़ी कौतूहलपूर्ण बात है।

    बहुत दिन से 'आँसू की जल चादर' के बीच छिपी यह 'दीपशिखा' हम सबों के लिए एक जिज्ञासा का कारण बनी हुई थी।

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बड़ी दृढ़ता के साथ काव्य के अप्रस्तुत विधान की गोपन सच्चाई को उघाड़ने का प्रयत्न किया था। 'रस मीमांसा' में उन्होंने यह दावा किया है कि -प्रकृतकाव्य के भीतर कोई न कोई प्रस्तुत वस्तु या तथ्य होता ही है ,जिसकी हृदयग्राह्य रमणीयता या अन्तस्तल पर पड़े प्रभाव की मर्म-संवेदना जगाने वाली अनुभूति का वर्णन करना ही कवि का लक्ष्य होता है। इस को न स्वीकार कर सकने की ब्रीड़ा ही उस सत्य को गुप्त रख अप्रस्तुत विधान के रुप में प्रचारित करने का कारण होती है।
    आपके द्वारा लिखी गयी यह जीवनी शुक्ल जी के इस दावे को सबूतों के साथ प्रमाणित करती है।)

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  6. क्यों हाहाकार स्वरों में
    वेदना असीम गरजती

    सत्यदेव त्रिपाठी के इस रमणीय निबंध में आलोचना, जीवनी और जासूसी उपन्यास का रस एक साथ अनुस्यूत है।

    आनंद आया।
    साधुवाद।

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  7. अत्यंत शोधपरक और रोचक आलेख ..

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  8. जहाँ से लेख शुरू हुआ, वहीं खत्म भी हुआ-मूल में जिज्ञासा ही रही।
    और यही इस लेख की सबसे बड़ी उपलब्धि भी है।

    'उसकी' के लिए इतना कुछ लिख जाना। वाक़ई क़ाबिले तारीफ़ है। और तारीफ़ सिर्फ इस बात के लिए ही नहीं वरन शुरू से अंत तक उस 'उसकी' की खोज का बने रहना है। उस खोज की निरंतरता ने बहुत विद्वज्जनों से परिचित करवाया, उनके कथनों, उनकी सोच और साथ ही उनके उस 'उसकी' भी खोज को; जो उनकी भी पूरी न हो पाई।
    यही करामात प्रसाद जी के काव्य की रही।
    स्वयं प्रसाद जी द्वारा दिये हुए उत्तर को भी आपने बड़ी चतुराई से नकारा।
    राजेन्द्र नारायण शर्मा ने प्रसाद जी के आँसू को अनिर्वचनीय प्रेम कहा तो स्वयं प्रसाद जी ने प्रेम के देवता की अर्चना। विनय मोहन शर्मा जी ने आँसू का आलंबन प्रेयसी बताया तो ज्ञानचंद जैन ने अंतरंग जीवन की कहानी। वहीं दुर्गादत्त जी ने तत्कालीन वातावरण में लड़कों के पिटे जाने को आँसू का आधार माना तो मुकुंद जी ने बचपन की सखी ; हालांकि यह पीड़ा उनके अनुसार प्रेमपथिक में देखी गई। प्रसाद जी के पुत्र रत्नशंकर जी ने माँ विंध्यवासिनी को 'उसकी' का अन्य पुरूष नाम दिया तो अन्य करीबी मित्र यथा-राय कृष्ण दास जी, विनोद जी आदि ने श्यामा गौनहारिन को।
    इतने साक्ष्य होने के बावजूद अंत तक 'उसकी' खोज और जानने की इंसानगत प्रवृत्ति को हमने अधूरा ही पाया।
    सभी विद्वानों ने, जो इस पाठ में आएं हैं, ने अपनी-अपनी प्रसाद जी के साथ निजता के कारण जो भी अनुमान या भ्रम हुए हैं आपने बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से उन्हें अपना उत्तर दिया है। अपना पक्ष इतना बखूबी रखा है कि शुरू से अंत तक ऐसा लग रहा था मानो अब 'उसकी' चाह पूरी हुई, अब पूरी हुई , पर आपने इस होने न दिया और वह हमें लगता भी रहा कि हाँ, यह तर्क सही बैठता है..चलो आगे उत्तर मिलेगा..पर म मिल सका। जब अंत के 3 भागों में श्यामा का प्रकरण चला और आपने कहा कि यह 'उसकी स्मृति' से मेल खाती है तो लगा वाह! अब जिज्ञासाओं को शांत करने का समय आ गया है...पर हाय! रे प्रसाद जी...वाङ्गमय ने यह भी लिख दिया कि प्रसाद जी पर एक वेश्या या गौनहारिन का प्रभाव इतना नहीं पड़ सकता है...तो बस वहीं वापस हम उसी पहली पंक्ति में चले गए जहाँ लिखा था कि "आँसू के प्रणयन के साथ ही उसमें व्यक्त कशिश को लेकर पाठकों के मन में जिज्ञासा थी कि वह कौन है जिसकी याद में यह आवेग फूट पड़ा है" ।

    धन्यवाद सर इतना सुंदर लिखने और हमें अवगत करवाने और बाद में फिर से जिज्ञासु बनाने हेतु😀🙏🙏💐💐

    आज तो बस पढ़ा, मन में आता गया और लिखती गई। शब्दावली वैसी नहीं है जैसी चाहिए पर भाव सत्य हैं। बहुत दिनों से इस लेख को पूरा करने की चाह थी । जो आज पूरी हुई।

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