रणेन्द्र से संतोष अर्श की बातचीत


रणेन्द्र द्वारा आदिवासी पृष्ठभूमि पर लिखे उपन्यासों- ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ और ‘गायब होता देश’ ने वन और उसके वासियों की संस्कृति, संकट और संघर्ष को सबलता से प्रस्तुत करने के कारण ख्याति अर्जित की है. उनका तीसरा उपन्यास ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ जल्दी ही प्रकाशित होने वाला है जो शास्त्रीय संगीत के घरानों पर आधारित है.

उनसे साहित्य और संस्कृति पर यह अर्थगर्भित और रोचक बातचीत संतोष अर्श ने की है. संतोष अर्श आलोचना के क्षेत्र में लगन और लगाव से सक्रिय हैं. कुछ समय पहले नरेश सक्सेना और उदय प्रकाश आदि से उनकी बातचीत आपने समालोचन पर पढ़ी थीं.

प्रस्तुत है.

 


सोना लेकन दिसुम में उलटबग्घा की कहानी                      
रणेन्द्र से संतोष अर्श की बातचीत

 

दो वर्ष पूर्व (अप्रैल, 2018 में) की गयी, साभ्यतिक परिवर्तनों और पुरातनता के सूत्र उपलब्ध कराने वाले राँची शहर की यह पहली यात्रा थी. गुजरात से राँची, एक बड़ी रचनात्मक यात्रा. कच्चे कोयले जैसी आदिम गंध से भरे इस शहर में अपने हिस्से की भारतीयता का एहसास बढ़ा हुआ सा लगा. रणेन्द्र से तभी फोन पर बात हो चुकी थी जब हम कोडरमा से राँची की ओर चले थे. रणेन्द्र उस समय खेल निदेशक के पद पर तैनात थे. दफ़्तर में ही बुलाया था. साथ में पूर्णिमा जी हैं. शशिकांत जो राँची विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं, वे भी आ गए हैं. अफ़सर व्यस्त रहते हैं. कुछ इंतज़ार करना पड़ा. चाय-पानी हुआ. फिर तय हुआ कि दफ़्तर में ही बातचीत हो जाए. बीच-बीच में लोग आते-जाते थे. एक आदमी मिठाई लेकर आया, यह कहते हुए कि भगवान का प्रसाद है. रणेन्द्र बोले, ‘अगवान-भगवान में हमारी कोई आस्था नहीं है, मुफ़्त की मिठाई खिला कर तुम लोग मधुमेह का मरीज़ बना दोगे. किसी को बातचीत के बीच में ही बुलाकर डांट दिया. इन्हीं अवरोधों के मध्य यह बातचीत घटी. 

 अफ़सर कड़क है, किन्तु लेखक संवेदनशील. उसकी आकर्षित करने वाली लैम्पशेड मूँछों के नीचे से जब हँसी छन-छन कर आती है, तब पता चलता है कि करुणा और हँसी का क्या संबंध है. दो-तीन घंटे चलने वाली बातचीत में रणेन्द्र से उनके साहित्य और वैचारिकी से संबंधित अच्छे रेशे निकले, जो अब पाठकों के सामने आ रहे हैं.  

बातचीत में काफ़ी समय लगा. क्योंकि दिन के तीसरे पहर से शाम ढल गयी थी. रणेन्द्र आग्रहपूर्वक अपने घर भी ले गये थे, अपनी किताबें और पत्नी की पेंटिंग्स भी दिखाईं. सत्कार किया.

इस बातचीत में रणेन्द्र के फ़िक्शन का पता है, लेखक की बोली गयी भाषा और उसके लहजे में बिहारी हिन्दी की मधुरता के साथ वहाँ की विद्रोही चेतना का अंश है. बातचीत को तैयार करने में इतना विलंब हो गया कि रणेन्द्र का तीसरा उपन्यास गूँगी रुलाई का कोरसभी आने वाला है. इसके लिए रणेन्द्र और उनके पाठकों से क्षमा माँगी जा सकती है. इसे तैयार कराने में पूर्णिमा जी ने तकनीकी और पूजा ने लिपिगत सहयोग दिया है, इन दोनों का हृदय से आभार.

संतोष अर्श     

            

 

संतोष अर्श : रायपुर साहित्य-महोत्सव में आप क्यों गये थे ?

रणेन्द्र : (कुछ पश्चाताप से) वहाँ जा कर ग़लती हुई. स्वीकार करता हूँ.

 

संतोष अर्श : मेगालिथिक कल्चर (महापाषाण संस्कृति) की ओर ध्यान कैसे गया ?

रणेन्द्र : उससे कहीं कोई उपन्यास में बात आयी, कहीं कुछ ? किसी ने कुछ समीक्षा पे इतना ध्यान ही नहीं दिया, फिर ये भी एक तथ्य है. दूसरी बात कि इतिहास, उसको पूरा इतिहास कहते हैं या इतिहास के पहले का उसे पुरातत्त्व कहते हैं ? तो जिस मेगालिथ कल्चर की बात उसमें कही गयी हैसामान्य तौर पे, वो बौद्धिक बातचीत के बाहर का विषय है. उस पर लोग चर्चा ही नहीं करना चाहते हैं. चूँकि उन तथ्यों से परिचित ही नहीं हैं लोग. लेकिन ये तो सत्य है कि एक दौर ईसा से छह हज़ार, आठ हज़ार, दस हज़ार साल पहले थावो मेगालिथ जो हैंवे सभ्यताओं के प्रतीक हुआ करते थे पूरी दुनिया में. वो दक्षिण अमेरिका में भी हैं, अभी बचे हुए. इग्लैंड के वो… दक्षिण इग्लैंड में कहीं पे हैं. जहाँ लोग जाते हैं. गूगल-ऊगल पर कहीं भी दिख जायेगा. वो जो आपके यहाँ है. अंतर ये है कि यूरोप में, या दक्षिण अमेरिका में, या कहीं और हमारे यहाँ भी, दक्षिण भारत में भी, वो चीज़ें केवल देखने-दिखाने की रह गयी हैं. लेकिन जैसे ही मध्य भारत में प्रवेश करते हैं आप- झारखण्ड में, छत्तीसगढ़ में और नॉर्थ-ईस्ट की ओर बढ़ते हैंतो वो ईसा से दस हज़ार साल पहले की परम्परा की वर्तमान काल में भी जीवन्तता के चिन्ह  प्राप्त होने लगते हैं. हम नहीं कह रहे हैं कि उसका जो इतना इस्तेमाल उस समय लोग कर रहे थे, नक्षत्रों की गणना करने का या तारों कीया समय का अध्ययन करने की, कि एक धूप घड़ी के तौर पे या वो सारा कुछ नहीं हो रहा है. लेकिन उसका कुछ हिस्सा जैसे पत्थलगड़ी के तौर पर, कि अंतिम संस्कार के समय हम उसको गाड़ेंगे या फिर गाँव के चिह्न के तौर पे उसको गाड़ेंगे, तो ये भी अगर बचा हुआ है तो ईसा से दस हज़ार साल पहले से लेकर (हँसते हुए) अभी तक, तो प्राचीनतम संस्कृति की जीवन्तता का बहुत बड़ा प्रमाण है. 



यानी की  एक सभ्यता कैसे बढ़ रही है. एक धारा जो है, अनवरत है. वो तो अपनी परम्परा के हिसाब से या एक कस्टम के तौर पर करे जा रहे हैं. वो चूँकि उसके सैद्धान्तिक तत्त्व से या उन चीज़ों से बहुत परिचित नहीं हैं. लेकिन जो परिचित हैं, उनको तो इस पे अध्ययन करना चाहिए. कि अगर कंटीन्यूटी है, वो क्या कह रही हैक्या चीज़ है, उनको समझना चाहिए इस बात को. उसको कई चीज़ों से हमने समझा है. जो मैंने ज़िक्र किया है, ‘पकरी-बरवाडीह’ का हजारीबाग-चतरा के बीच एक मेगालिथ संरचना दो  चट्टानों के बीच एक वृत्ताकार रूप काट कर हजारों साल पहले पूर्वजों ने बनाया अब वर्ष में दो दिन और रात बराबर होता है. साल में दो तारीख़ें हैंएक जून की और एक सितम्बर की. उन दिनों में सूर्य वहीं से उगता हुआ दिखता है. उसी मेगालिथ संरचना के बीच की कटिंग के बीच से तो इसका अर्थ है कि कुछ तो गणना वहाँ किये होंगे न ? कुछ तो विशिष्ट ज्ञानजिसको हम विज्ञान कहते हैं. कुछ तो होगा न ? क्या सारी चीज़ें केवल माइथोलॉजी या मिथक हैं और भुला देने लायक हैं ? वो तो नहीं है न !

 

संतोष अर्श : मिथक से याद आया कि आपके दोनों उपन्यासों, ‘ग्लोबल गाँव के देवतामें और ग़ायब होता देशमें भी, जो मिथकों की डिकोडिंग करने की आपकी कोशिश है, तो इसका कोई समाज-वैज्ञानिक महत्त्व आपकी दृष्टि में है?

रणेन्द्र : वो तीन चीज़ें हैं. आदिवासी समाज को दो नज़रिये से देखने की परम्परा रही है एक तो. दूसरा कि यार ये लोग तो ऐसे ही है जंगली लोग हैं, दारू पी के पड़ल रहता है. जनानी लोग जो हैं खटते रहती हैं. ये लोग पड़ा रहता है. दो दृष्टियाँ हैं. दो दृष्टियाँ जो हैं, वो नहीं हैं. समतावादी नहीं हैं. उनके विषय में बराबरी के स्तर पर बात करने के लिए आप तैयार नहीं हैं. आप ये तथ्य मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि एक भाषा परिवार है, उसकी भी अपनी सांस्कृतिक सम्पन्नता है. अगर है तो आपको पूरी अंग्रेज़ी का, लैटिन का, अरबी का, संस्कृत का कोई शब्दकोश या कुछ उठाकर के दिखा दीजिए. अगर बारिश की बूँद पत्ते पर गिरती है, छप्पर पे गिरती है, धूल में गिरती है, उसके लिए बहुत सारे पर्यायवाची शब्द किसी भाषा में हैं, तो उसकी समृद्धि और उसकी सांस्कृतिक सम्पन्नता के बारे में बता रहे हैं. आपको संकेत कर रहे हैं, उसके नज़दीक जा कर समझिये. बराबर पर जाइए. या फिर थोड़ा-सा विनम्र होइए. समझने की कोशिश कीजिये. आप श्रेष्ठतावाद से जाइएगा, माई-बाप सिन्ड्रोम के साथ, तो नहीं समझ पाइएगा उन चीज़ों को. 

और आप जो यूरोपियन इंडेक्स लेकर के उनके आर्थिक विकास के आधार पर उनका पिछवाड़ा नापने पे लगे हुए हैं, तो मैं बार-बार यह बताने की कोशिश कर रहा हूँ अपने उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से कि लोक-कथाएँ हों उनकी, अपनी दार्शनिक जो पृष्ठभूमि है, सतह धर्म की, उसकी जो फ़िलॉसफ़ी है या उनकी जो अपनी कहानियाँ हैं प्रकृति को लेकर, या प्रकृति की बेटी को लेकर, या सूर्य की, वो कहीं भी एकान्तर नहीं हैं. उसको कुल जानने और समझने की आवश्यकता है. और वो हो नहीं रहा है. नहीं ऐसा नहीं हो सकता. आप माथे पर बहुत श्रेष्ठता का बोझ लेके नहीं समझ पाइयेगा उसको ! इत्तिफ़ाक से कहीं-कहीं पर अतिश्योक्तिपूर्ण भी बात करते हैं कि वो ज़्यादा श्रेष्ठ हैं. 

कोई ज़्यादा श्रेष्ठ, कम श्रेष्ठ होता नहीं है. सब अपने-अपने परिवेश और अपने-अपने हिसाब से संस्कृतियाँ विकसित होती हैं. और अकेलेपन में कोई संस्कृति विकसित नहीं हो सकती है. कोई बच्चा अकेलेपन में विकसित नहीं हो सकता है. विश्वगुरु होने की डींग जो है न जिनकी; उन्हें माथे पर गोबर लेकर घूमने दीजिए. ऐसा कभी नहीं होगा. जब आप विश्वगुरु तथाकथित हुआ करते थे, तो चीन और अरब की सभ्यताओं से आपने बहुत कुछ ग्रहण किया था. और उन लोगों ने भी आपसे ग्रहण किया था. लेन-देन से ही जैसे हम विकसित होते हैं. एक व्यक्ति विकसित होता है. सभ्यताएँ विकसित होती हैं. तो है ये.

 

संतोष अर्श : जैसे आदिवासी जीवन को लेकर फ़िक्शन लिखना है, तो उसमें जो मानव-वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, क्या उसकी विशेष ज़रूरत है ? क्योंकि एक चीज़ और मैं देख रहा हूँ कि विश्व साहित्य में भी, या जो फ़िल्में आ रही हैं विश्व साहित्य पे आधारित तो उसमें और अन्य उत्तर-आधुनिक कला-माध्यमों में एक बात ये देखी गयी है कि मानव-वैज्ञानिक दृष्टिकोण बढ़ता जा रहा है. तो क्या कोई ऐसी बात है?

रणेन्द्र : ...देखिये है क्या ! एक तो मेरी हिंदी-साहित्य की पृष्ठभूमि नहीं थी कहीं. उत्तर-प्रदेश से भिन्न हमारे यहाँ जो पी.सी.एस. करते हैं, नियोक्ता लोग उनको वहाँ पहले ब्लॉक में भेज देते हैं. एस.डी.एम. के तौर पर यहाँ पोस्टिंग होती नहीं है. तो उस कारण हिंदी के प्राध्यापक के मिडिल क्लास परिवार में पैदा हुआ एक बच्चा बड़ा हुआ एक ऐसे माहौल में, जहाँ कभी किसी ने उसकी जाति नहीं पूछी. कभी छोटे से क़स्बे में हिंदी के एचओडी का बेटा होना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी. तो वो बड़ा हुआ. पालन-पोषण हुआ. अब जब पोस्टिंग हो गयी है हमारी ओपनली, अट्ठासी में, कांग्रेस के समय में, बिहार के एक बहुत ही फ़्यूडल ब्लॉक में. तो बहुत भ्रम टूटा. बहुत सारी समरसता की जो बातें की उन्होंने तो लगा कि यार बड़ी चीज़ है, कि अलग टोले को पुरयान टोला कहा जा रहा है. चैम्बर, ब्लॉक, ऑफ़िस ग़रीब लोगों के लिए ही है. बड़े लोगों को तो वहाँ आने की आवश्यकता ही नहीं है. तो बेंच लगी हुयी है कि वहाँ वे लोग बैठेंगे. दलित लोग. अब कुर्सी पर बिठा दिये तो बवाल खड़ा कर दिया गया. लोग वहाँ घर पर अटैक करने के लिए...डेरे पर पहुँच गये. तो उससे तो बचना ही मुश्किल हो रहा था. और बहुत सी सीलिंग से फ़ालतू ज़मीन का बंदोबस्त कर रहे हैं, दिन में जाकर दख़ल दिला रहे हैं और रात को भगा दे रहे हैं.

उड़ान बाक़ी है जो मेरी कहानी है (हँसी फूटी) तो उसमें कुछ चीज़ें और आई थीं. कुछ यथार्थ, कुछ कल्पना करके. तो वहाँ नहीं रहने दिया लोगों ने. हम भी पिटाई-विटाई कर दिये एक सज्जन की, जो यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे. अब उसी बात को लेकर कि क्यों बैठाते हैं आप कुर्सी पे ? आप पॉलिटिक्स कर रहे हैं. अरे यार ! हम तय करेंगे कि हमारे चैम्बर में कौन कहाँ बैठेगा लोग और कि कहाँ नहीं बैठेगा. और कहा न आप को आने की क्या आवश्यकता है हमारे ऑफ़िस में ? आपके लिए तो कोई योजना ही नहीं है. तो थोड़ा-सा इधर थे हम.

 

संतोष अर्श : आदिवासी इलाक़ों में कैसे पहुँचे ?

रणेन्द्र : ...उसके बाद जो पोस्टिंग मेरी इधर (झारखण्ड) हो गयी न. यहाँ सब जंगली इलाक़ा. तो वो जो है, अब वो ऐसी सोसायटी है जहाँ कास्ट सिस्टम ही नहीं है ! जहाँ पर वो पूजा करने वाला और वो बाँस का काम करने वाला में कोई भिन्नता ही नहीं है. जो चौबीस गाँव के मालिक साहब हैं वो भी उसी ढंग से काम कर रहे हैं खेत में, जो कि जो दलित कहा जा रहा है उस इलाक़े का, वो भी उसी ढंग से काम कर रहा है. तो जहाँ वो स्ट्रक्चर भेदभाव का, सबसे घृणित रूप में आपने देखा हो और उसके बाद आपको लगे कि कोई स्ट्रक्चर ही ढंग का नहीं है, तो आपको कैसा अनुभव होगा सोचिये ? उसके बाद से मैं गया ही नहीं उधर, इधर ही रह गया. उसके बाद... अच्छा दूसरे जो बिचौलिये या जो इधर के लोग....ह्वाइट कॉलर लोग आकर बैठे हुए हैं, काम ही नहीं होना है. तो सबसे अच्छा था कि शहरों से उठकर गाँव में ही चलिए. और कुछ सीखने की थी ही उत्सुकता. और नहीं तो नानी-दादी की कहानियाँ तो सुनने को मिलेंगी ही. बहुत सारे रहस्य मिलेंगे, योजनाओं के बारे में. क्या हो रहा है, गलत-सही की सब पहचान भी होगी. तो उसके बाद से लगातार वहाँ, जिसमें ग्लोबल गाँव का देवता है. उस इलाक़े में फ़ील्ड में ही ज़्यादा, दस-दस दिन, पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक फ़ील्ड में ही रहते थे. तो जो कुछ सीखा हमने या, जो कुछ महसूस किया या जो एक तरह से जिसको द्विज मतलब, दूसरा जन्म बताया गया उसे समझ सका. 



होश पाया कि हाँ सोसाइटी ऐक्चुअली ये है. जो आपको अपने पिता जी के कारण उस माहौल में मिल रहा था, सब अच्छा था. जबकि सोसाइटी बहुत कठिन है. तो कुछ सीखा ही मैंने यहाँ. इसके अलावा मेरा अनुभव क्षेत्र भी यही है. तो हम दूसरी बात कैसे कर सकते हैं माइक्रोलेवल मेरा पर्सनल हो गया. माइक्रोलेवल देखिये है क्या कि...उत्पादन और इंडस्ट्रीज़ के बाद का जो सेक्टर है या इसके बाद का जो पूँजीवाद...चाहे वो आई.टी. सेक्टर हो, सर्विस सेक्टर हो, माइनिंग सेक्टर हो, पूरी पीढ़ी को या सारे को यह लग रहा है कि हमको आज ही के दिन सारा लोहा, सारा एल्युमिनियम सब कुछ आज ही चाहिए. सारी मोटरसाइकिल और कार और सब कुछ बनाकर हमको इसी पीढ़ी को दे देना है. और पूरी दुनिया में जहाँ भी मिनरल्स हैं, वहीं हैं जहाँ आदिवासी हैं. या कहीं कुछ और शब्द का प्रयोग कीजिये. तो उसका प्रतिकार होना है. हर तरह से...सड़कों पे भी होना है, कलाओं के क्षेत्र में भी होना है. 

तो अवतार करके जो फ़िल्म हॉलीवुड की आयी थी, उसमें और ग्लोबल गाँव के देवता के कथ्य में बेसिकली कोई फ़र्क नहीं है. क्योंकि उनके पास टेक्निक है और डॉलर्स हैं. और उसको बड़े पैमाने पर कहीं और दिखा दिया. कर तो वही रहे थे वो... मिनरल्स खोज़ने जाते हैं वहाँ. उसको बर्बाद करते हैं. थोड़ा ही नहीं पूरे मानव-समुदाय को नष्ट करते हैं. यही बात ग्लोबल गाँव के देवता में कही जा रही है. तो ये जो प्रतिक्रिया है या प्रतिकार है...प्रतिक्रिया शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है. कंज्यूमर का जो माइग्रेशन है... जो सब कुछ लेने के लिए बहुत आतुर है, इसको चाहे जो कुछ भी करना पड़े. तो उसका तो प्रतिकार हर स्तर पर होगा न? कलाओं में भी होगा, पेंटिंग में भी होगा, कविताओं में भी होगा, कहानियों में होगा, उपन्यासों में होगा. उसको उस ढंग से उत्तर-आधुनिक या एंथ्रोपॉलिज़िकल है नहीं न. लड़ाई का क्षेत्र हमारा छ्त्तीसगढ़ है, आंदोलन का क्षेत्र झारखण्ड है, तो आंदोलन से ही उपजेंगी न चीजें? आएँगी यहीं से. 

दिल्ली, पटना और राँची में बैठ के चीजें नहीं आयेंगी. हमारे हिंदी-साहित्य का जो क्लासिक कहा जाता है, कब आया था वो? जब हम आज़ादी के आंदोलन में पूरे तन-मन-धन से लगे हुए थे. पूरे मनोयोग से लगे हुए थे. जितने क्लासिक हमारे हैं, वो सारे उसी समय के उत्पाद हैं. या उस समय के सृजन हैं. उत्पाद शब्द का प्रयोग बहुत ग़लत हो गया. सृजन उसी समय के हैं. तो बड़े आंदोलन से ही बड़ी रचनाएँ आती हैं. आंदोलन का क्षेत्र अगर ये इलाक़ा है तो रचनाएँ यहीं से आयेंगी. सच्ची, अच्छी, कच्ची, नक़ली जो भी आनी हैं, लेकिन आयेंगी यहीं से. ...उसकी व्याख्या हम लोग अलग ढंग से कर सकते हैं.

 

संतोष अर्श : मानव-वैज्ञानिक उदाहरण बहुत सारे हैं उसमें- ग्लोबल गाँव के देवता में भी और ख़ासकर गायब होता देश में ! तो मैं ये जानना चाह रहा था कि एंथ्रोपोलॉज़ी में आपकी विशेष रुचि है क्या ?

रणेन्द्र : लोगों को वहीं बैठ कर पढ़ा है. आप...विशुनपुर का ही लेख देख लीजिए. छोटानागपुर का ही देख लेंगे तो वहाँ उरांव बाहुल्य था. लेकिन जिसको हम कह रहे हैं कि...हमारे यहाँ नौ लोग हैं और नौ में से पाँच-सात लोग वहाँ थे. अशोक थे ही, विनोद थे ही, विजया थे ही, कन्हैया थे ही, कोरवा थे ही...तो अगर एक ही इलाक़े में आपका कार्य क्षेत्र है, एंथ्रोपोलॉज़ी जिसको लोग क्लास में बैठकर पढ़ते थे, वो साथ में आकर दिख रहे हैं वहाँ. और तीन साल उनके बीच में रहना है. ये नहीं कि गये हैं कैम्प करने के लिए दस दिन, पाँच दिन. तीन साल रहना है तो बिना पढ़े ही आप बहुत कुछ पढ़ रहे हैं न ? और उन्हीं के यहाँ रहना है. और उन्हीं के सुख-दुःख में शामिल होना है. उन्हीं की लड़की देखने वाले आए हैं, लड़का देखने वाले आए हैं, तो उन्हीं के साथ बैठ के हँड़िया भी पीजिए. नाच में भी शामिल होइए. तो उसमें पढ़ने की आवश्यकता क्या है ? उसे तो साथ-साथ जीने की बात है. 



क्या है कि उस समय तो ये था नहीं कि हमको नोट्स लेना है, कोई क़िताब लिखनी है. ऐसा तो कहीं कोई-कुछ था ही नहीं. जो उनकी लड़ाइयों में छोटा-मोटा हम वहाँ कर सके, तो कर सके. नहीं कर सके, तो हमको लगा कि इसे ढंग से आना चाहिए. चूँकि हमारी यह भी मजबूरी है कि आप लिख नहीं सकते हैं सरकार की नीतियों के खिलाफ़.

 

संतोष अर्श : मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि आपकी जो कथादृष्टि है ग्लोबल गाँव के देवता में, वो टोनी मॉरिसन जैसी है. तो क्या आप उनसे प्रभावित हैं ?

रणेन्द्र: टोनी मॉरिसन को तो अभी पढ़ना शुरू किया है. (हँस रहे हैं)

 

संतोष अर्श : विश्व साहित्य में क्या पढ़ते हैं ?

रणेन्द्र : पढ़ते तो हैं. है क्या कि पटना में जहाँ हम तैयारी करते थे, पिता जी हिंदी के थे. तो सारिका, धर्मयुग और दिनमान वगैरह जब निकलती थी, उस समय तो पैदा ही हुए होंगे हम लोग. तो घर में उस समय मिडिल क्लास के यहाँ ये था ही कि ड्राइंगरूम में महादेवी वर्मा, प्रसाद, पन्त, निराला आदि के ही चित्र टंगे होते थे. उस समय तो और कुछ था नहीं. धोनी-वोनी नाम की कोई चीज़ उस समय हुआ नहीं करते थे. तो वो तो उस परिवेश से ही मिल गया. ठीक है ...साहित्य में बड़ी सक्रियता होती थी और हर पन्द्रह दिन में कहीं-न-कहीं काव्य गोष्ठी किन्हीं के घरों पर हो रही है. अच्छा ज़बरदस्ती भी. अच्छा कुछ सुनायेंगे पीठ ठोक के. अपनी कुछ तुकबंदी ही, या कुछ और रोमांटिक टाइप का सुना रहे हैं. वो तो संस्कार दिया ही गया था. जहाँ तैयारी करते हैं न पटना में, सुखराज पथ कहलाता है, जो मेन रोड है वो. वहीं पर कोने में राजकमल का अपना शो-रूम है. शीशे लगे हुए हैं. आगे वाले भाग में. उसमें क़िताबें सजायी रहती हैं. तो सन् उन्यासी से लेके अट्ठासी तक, रोज़ सुबह-शाम उधर से गुज़रते थे हम. और बाहर खड़े हो कर क़िताबें देखते थे. पढ़ते तो सब थे, लेकिन डेढ़-सौ रुपया घर से आता था. तो डेढ़ सौ रुपया में खायेंगे क्या ? मेस को क्या देंगे, बेड को क्या देंगे, मैगज़ीन क्या ख़रीदेंगे

तो उस समय तो अट्ठासी से लेकर बहुत भुक्खड़ की तरह जो है न, बस शादी के बाद जो पैर छूने के बाद पैर छुवाई जो मिलती है, उससे भी जाके क़िताब ही ख़रीदे थे. तो क़िताबें जो फ़्लैट हमने छठे वेतन आयोग के बाद लिया है, उसके हर कमरे में एक दीवार जो है, मैंने क़िताबों को समर्पित की है. क़िताबें बहुत हैं.  

 

संतोष अर्श : मैं आपके कुछ पसंदीदा लेखकों के नाम जानना चाहता था.

रणेन्द्र : सब हैं. सब जो भी क्लासिक हमारे हैं और आज जो लिखे जा रहे हैं. तो क्यों नहीं पढ़ना चाहिए ? पढ़ना चाहिए सब को, कि क्या चीज़ कहाँ से कौन करके आ रही है. कौन चीज़ कहाँ से निकलकर के आएगी. और ये जो कलावादी लोगों को ज़्यादा पढ़ना चाहिए. (ठहाका) कि आख़िर कर क्या रहे हैं ये ? शब्दों से जो खेल रहे हैं, उससे जो चमत्कार उत्पन्न कर रहे हैं, तो वो है क्या चीज़ ? तो कृष्ण बलदेव वैद्य से लेकर जगदीश चतुर्वेदी तक और अपनी परम्परा के जो लोग हैं वो सब. और वो जो अमेरिकन और अफ्रीकन लिटरेचर है, ग्रांटा-वान्टा भी पढ़ते ही हैं सब. हम जब सक्षम हैं तो क्यों नहीं ? ग्रांटा भी ख़रीद सकते हैं. लेकिन आजकल लोग पढ़ते क्या हैं, क्या लेते हैं लोग ? तो लोगों को पढ़ना चाहिए. और जितने बड़े नाम हैं- अमेरिकन-अफ्रीकन या अफ्रीकन राइटर्स. और एक बार तो हमने वादा भी किया था कि जब-जब मौक़ा मिलेगा मैं लिखूँगा. हमारे साहबों ने हमें चेतवानी भी दी. फिर भी कहा कि लिखूंगा. और इसी बहाने लिखा. 

सब को मालूम है. सरकार को भी मालूम है कि मेरी रूचि साहित्य में है, संस्कृति में है. लेकिन पोस्टिंग कर देंगे स्पोर्ट्स में. और जिनको संस्कृति की परिभाषा भी नहीं मालूम है, उनको संस्कृति में. तो जान-बूझकर तंग कर रहे हैं. तो क्या कर सकते हैं ? बहुत तनाव है यहाँ. कुछ हो ही नहीं पा रहा है.  

 

१०

संतोष अर्श : जब आपने डेट्रॉइट का उल्लेख किया है तो आदिवासी समस्या की तुलना अश्वेतों से की है. दलित साहित्यकार भी ऐसा करते रहे हैं. इस पर क्या कहेंगे ?

रणेन्द्र : आप आदिवासी को छोड़ दीजिए. आप कभी किसी चौराहे पर खड़े हो जाइये. जब ट्रेनिंग कराता था, पढ़ता था, लिखता था. उससे अच्छी मेरी पोस्टिंग हो नहीं सकती है. फिर भगा दिया लोगों ने वहाँ से, जैसे ही सरकार आयी. वहाँ एक चौराहे पर मैं खड़ा होकर के देखता था कि किनको ये ट्रैफ़िक पुलिस वाले लोग रोकते हैं. जो भी थोड़ा देहाती जैसा दिख रहा है. गंदा कपड़ा है, गमछी है, दाढ़ी बढ़ी हुई है उसकी मोटरसाइकिल रोक देते हैं. तीन-चार लोग रहेंगे. एक चाभी ले लेगा, दूसरे को चाभी पकड़ाएगा. तीसरा जा के खड़ा हो जाएगा अंदर में, जहाँ उनका केबिन बना हुआ है. चौराहे के कोने में. और उसका पेपर चेक करेगा. और सबकुछ ठीक होने के बावज़ूद कुछ पैसा लेकर छोड़ेगा. 

और आप हेलमेट नहीं पहने हुए हैं, गोरे-चिट्टे हैं, खूब बढ़िया कपड़ा आपने पहना हुआ है, महँगी आपकी मोटरसाइकिल है, तो वो आपको नहीं रोकेंगे. जाने देंगे. क्या है सर ये ? एकदम बहुत ही स्वाभाविक दृश्य आपको हर जगह दिखाई पड़ेगा. 

अब दूसरा उदाहरण देते हैं कि जो फ़्लैट्स बने हुए थे ट्रेनिंग सेंटर के पीछे, तो मान लीजिए कि कोई ख़ाली पड़ा हुआ है, तो एक कम्प्यूटर ऑपरेटर तिवारी जी आये तो उनको सब दे दिया गया. उसको लोगों ने दे दिया ऊपर. लेकिन एक ट्राइबल असिस्टेंट जो है, जो कैशियर बन गया, उसको हमने वहाँ फ़्लैट एलॉट किया तो हंगामा खड़ा कर दिया गया. चूँकि आदिवासी है, वो कैसे रहेगा ? आपको शर्म नहीं आयी कि ये हमारा परमानेंट स्टॉफ है ? अब कैशियर हो गया है वो. चूँकि उसने परीक्षा पास की है उसकी. 

तो ये सब बहुत अब भी चेतना में बसा हुआ है हमारी. हम लोग बहुत जो संविधान में प्रस्तावना वगैरह है सर, उसको भी समझने-वमझने की कोशिश...या हमारी शिक्षा की व्यवस्था उस ढंग की है, या हमारे गुरु लोग वैसे हैं या हमारी समाजिक व्यवस्था उस ढंग की है, कि उसको भी हम लोग ठीक से नहीं समझ सके. बहुत दिक्कत है काम करने में, ये आज के भी दिन की हक़ीक़त है. तीस साल हो गया, नौकरी की शुरुआत से जो मारपीट हो रही है...अब तो मारपीट करने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन आज के दिन भी वो प्रमुख समस्या है. ये नहीं कि बदल गया है. अस्सी के दशक का और आज के दशक में आज के दिन में भी उदाहरण दे सकते हैं, कि कैसे यह सब होता है.

 

११

संतोष अर्श : एक उद्धरण आया है जो ग़ायब होता देश में क्या हम भारत माता के सौतेले बेटे हैं?’ तो ऐसा तो नहीं कि सगे बेटों को ही सौतेला बेटा बना दिया गया है? या सौतेले बेटे ही सगे बेटों पर अत्याचार कर रहे हैं ? इसको कैसे डिफ़ाइन किया जाये ?

रणेन्द्र : ...कविता है वो जिसमें भारत माँ को सम्बोधित करके ये बात कही गई है. बहुत ही प्यारी और बड़ी कविता है. उस कविता में और उस चैप्टर में कोई फ़र्क समझ नहीं आयेगा आपको. एक ही चीज़ है, सब लोग उनके बेटे हैं. लेकिन वो माँ सबसे कमज़ोर, सबसे बीमार बच्चे को सबसे ज़्यादा प्यार करती है. तो जो कथित तौर पे चिल्लाते हैं भारत माता की जय, वो सबसे कमज़ोर, सबसे बीमार बच्चे पर अत्याचार क्यों कर रहे हैं ? माँ का स्वाभाविक ममत्व किस पर होता है ? जो सबसे छोटा बच्चा है या बीमार बच्चा है. लेकिन जो सबसे कमज़ोर, सबसे दुर्बल, सबसे बीमार बच्चा है, उसी की गर्दन पर आप खड़े हो करके चिल्ला रहे हैं. नौकरी क्यों नहीं है, ये सवाल खड़ा नहीं हो रहा है. कि जो इकोनॉमिक पॉलिसी है, उसमें नौकरी है ही नहीं. उस पॉलिसी पर आपको उँगली खड़ी करने में डर लग रहा है. जब नौकरियाँ ही नहीं हैं तो आरक्षण की बात आप क्यों कर रहे हैं ? भाई मतलब कि आप ज़रूरी दिखा रहे हैं. कि समस्या यहाँ है, और रूमाल यहाँ हिला रहे हैं. 



सब लोग उन्हीं के बेटे हैं. लेकिन अगर वो बात हो रही है, जो अरुण कमल अपनी कविताओं में कह रहे हैं, वही बात हम उस अध्याय में कह रहे हैं कि जो सबसे कमज़ोर, सबसे दुर्बल, सबसे बीमार बच्चा है; सबसे पिछड़ा हुआ है आर्थिक दृष्टिकोण से, कुपोषण का शिकार है, तो माँ का सबसे ज़्यादा प्यार उसको मिलना चाहिए.

 

१२

संतोष अर्श : एक चीज़ मैंने और देखी कि ग्लोबल गाँव के देवता और ग़ायब होता देश के बीच में कम-से-कम छः वर्षों का अंतराल है. क्या ये अंतराल केवल प्रकाशन का है ?

रणेन्द्र नहीं प्रकाशन का नहीं है सर ! ऐक्चुअली मन में तो पकती रहती हैं चीज़ें. शहर में आदिवासी जमीन की लूट...क्योंकि वो...सी.एन.टी. एक्ट में तो ...एक धारा है जिसके तहत डिप्टी कमिश्नर्स को यह अधिकार था कि वो जनहित के कामों के लिए आदिवासी भूमि के ट्रांसफर की अनुमति प्रदान करेंगे. लेकिन धरातल पर बड़े अफसरों ने व्यक्तिगत लाभ के लिए हाउसिंग सोसाइटी को आदिवासी जमीने ट्रान्सफर कर दी. चीज़ों को समझने मेंपेपर्स उपलब्ध करने में थोड़ा समय लगता है. पढ़ना पड़ता है चीज़ों को.

 

१३

संतोष अर्श : अंतराल की बात मैं इसलिए भी कर रहा था कि भाषा का बड़ा अंतर है. ग्लोबल गाँव के देवता की जो भाषा है वह अलग है. ग़ायब होता देश में काफ़ी रोमैंटिसिज़्म है लैंग्वेज़ को लेकर.

रणेन्द्र : ...ज़्यादा हो गया सर! चूँकि है क्या चीज़ कि जब वो ग्लोबल गाँव के देवता आया तो यहाँ एक बैठक करके ख़ारिज कर दिया लोगों ने. कि वो तो दो डॉक्यूमेंटेशन है. कुछ है नहीं. फ़िक्शन तो है ही नहीं. ये वो करके यही सब कह दिया  बैठक में. अब हम साहित्य के आदमी हैं नहीं, जो कहिएगा मान लेंगे. ठीक है भाई जो साहित्य के प्राध्यापकनुमा विद्वतजन कहेंगे, मानना ही पड़ेगा.  

 

१४

संतोष अर्श : नहीं-नहीं ! मैं भाषा के बारे में जानना चाहता हूँ.

रणेन्द्र : इसके बाद वो अतिसतर्क हो गये. अगर केवल यह शर्त रखना कि उपन्यास नहीं है, केवल डॉक्यूमेंटेशन है. ग़ायब होता देश में हमने सोचा कि थोड़ा शिल्प में जाया जाय. थोड़ा सौंदर्य में जाया जाय. लेकिन वो ज़्यादा हो गया. (मुस्कुराते हुए) अलंकरण वहाँ ज़्यादा हो गया है. लेकिन उसकी प्रतिक्रिया थी, कि इसी बात पे ख़ारिज कर देते थे. पिता जी ने ख़ारिज कर दिया. कि ये तो कुछ है ही नहीं ! ये कोई उपन्यास है ? बोले, कमलेश्वर लोग लिख देंगे, तो हम मान लेंगे उसको. (हँसते हुए)

 

१५

संतोष अर्श : तो क्या वो रोमैंटिसिज्म आपके उस फ़िक्शन के लिए जरूरी था ? या शिल्प के लिए जरूरी था ? या अनायास हो गया ?

रणेन्द्र : ...जो यथार्थ है न ! जिसको हम यथार्थ कहते हैं, उसको उसी ढंग से अगर रख दिया जाए तो उस तरफ़ देख नहीं पाइएगा आप.

 

१६

संतोष अर्श : ये जो आप बता रहे हैं, ख़ारिज़ कर दिया साहित्य. तो ऐसा तो है नहीं. मैंने जो देखा है हिंदी अकादमिक जगत में कि जो नये उपन्यास आये हैं, उनमें आप के दो उपन्यासों पर पर्याप्त से कुछ अधिक काम हुआ है.  

रणेन्द्र : ग्लोबल गाँव के देवता’… अभी भी सबकी ज़ुबान पे वही है, लेकिन अब यहाँ भी बैठक करके और हमको लगा कि मैं साहित्य के क्षेत्र का नहीं हूँ, तो हो सकता है कि वे विद्वान लोग सही कर रहे हो.

 

१७

संतोष अर्श : और ग़ायब होता देश में आपकी एक और बात को लेकर आलोचना हुई थी, वो जो आपने बोंगा को देवता लिखा है. मुझे लगता है कि आदिवासी समुदाय के लेखकों ने ही ऑब्जेक्ट किया था. इस संदर्भ में आप क्या कहेंगे?

रणेन्द्र : बकवास कर रहे हैं लोग. कुछ नहीं. किसने आलोचना की ? हम तो जिनके साथ रहते हैं वे आदिवासी ही हैं. उन्होंने ऐसी कोई आपत्ति नहीं की. 

 

१८

संतोष अर्श : मैंने कहीं पढ़ा था. स्थान भूल गया हूँ.

रणेन्द्र : आलोचना करना है, तो कर सकते हैं यार. लेकिन जो राँची शहर में बैठे हुए हैं न, एक तो उनकी पृष्ठभूमि ही नहीं है. एक तो जितना हम लोग गाँव में रहे हैं, उतना वो लोग गाँव में रहे भी नहीं हैं. और जिस परिवेश में रह रहे हैं, वो परिवर्तित परिवेश है. वे लोग नीचे वाले परिवेश में रह रहे हैं. तो बोलते हैं तो बोलने दिया जाए न !

 

१९

संतोष अर्श : क्या आपने सम्प्रेषण के लिए बोंगा को देवता कर दिया ?

रणेन्द्र : ...बोंगा है देवता. बोंगा ही शब्द यूज़ होता है. क्योंकि देवता तो पूरी तरह से हिंदू माइथोलॉजी ही है. ...हाँ तो जो हमारे यहाँ ग्राम देवता हैं न, वो तो उनके यहाँ बोंगा पो है. बोंगा पो देवता ही होता है. देखिये सर, है क्या कि जो शिकायत है, दबी-कुचली है. उनकी जो विशिष्ट समस्याएँ हैं, वो रेखांकित होनी ही चाहिए. अस्मिताओं की... बार-बार मैंने कहा है कि उनकी जो पीड़ा है, वो अभिव्यक्त होनी चाहिए. रेखांकित होना चाहिए. मगर उसके आधार पर जो राजनीति शुरू हो जाती है न; तो फिर वो परिधि बड़ी छोटी हो जाती है. दिल आपका बड़ा छोटा हो जाता है. आप सबको जो इसकी बात कह रहे हैं, मुख्यधारा वाले या ब्राह्मणवादी जो सोच के लोग कहते हैं न, कि हम श्रेष्ठ हैं. हम सबसे ऊँचे हैं, आप हमसे नीचे हैं. ये स्टूड कर रहा है. जहाँ आप अस्मितावादी कहते हैं तो आप भी स्टूड करना शुरू करते हैं. और जो सड़क की राजनीति है या मुख्यधारा की राजनीति है, हम देख रहे हैं कि जहाँ इस तरह की राजनीति होती है वो सिमट के अपने परिवार तक आ जाती है. सीमा यही है. चाहे जिसका भी नाम उठाइए, सिमट के वहीं आ जाती है. 

मंच पे आप दलितों की बात करते हैं, उतरते हैं तो फिर अपनी-अपनी जाति की बात करते हैं. जाति के बाद आप गोत्र में चले जाते हैं. फिर गोत्र के बाद आप परिवार में चले जाते हैं. तो वो जो परिधि है वो निरंतर सिकुड़ती चली जाती है. तो अगर कोई अस्मितावादी राजनीति की दुकान ही खोलकर बैठा हुआ है और उसको ख़ारिज़ ही करना है मुझे, तो फिर क्या है ? एक तो ग्लोबल गाँव के देवता ही पचता नहीं है लोगों को ! वहीं से ईर्ष्या, द्वेष और बहुत चीज़ें. उसके पहले बहुत प्यार करता था ये शहर हमको. उसके बाद से प्यार करने वाले इतने तेज़ी से घट गये न. जितना आप मीडियोकर होते हैं तो सब लोग दुलार करते हैं आपको. कोई चीज़ क्लिक कर गयी तो, आप ही अधिकांश लोग आपसे ईर्ष्या करने लगते हैं. ये इतना दुःखद है कि आप हमसे हमारी जाति के आधार पर घृणा कीजिए या हमारे जन्म-स्थान से घृणा कीजिए. चोट तो यही लगती है न हमको ! (दिल पर हाथ रख कर)  चोट लगने के लिए दो-चार दिल तो ले कर हम चल नहीं रहे हैं. 

तो वहाँ आप घृणा कर रहे हैं, तो बिहार में हमारी जाति को लेकर कि कमज़ोर जात होके आप काहे इस इलाक़े में पोस्टिंग करा लिए ? आज तक कोई बैकवर्ड तो यहाँ आया ही नहीं था. और यहाँ आप कहिए कि आप तो बाहरी हैं. आप काहे लिख रहे हैं ? तो सर दुखी तो दोनों ही स्थितियों में हमीं हो रहे हैं न ! बीस साल आपके यहाँ पूरा जवानी गुज़ार दिए और अब लातें मार के फिर निकाल दीजिए हमको.

 

२०

संतोष अर्श : आपका उपन्यास पेंग्विन से छपा है और वहाँ से हिंदी के बहुत कम लेखक छपते हैं.  

रणेन्द्र : (मूँछों तले हल्की मुस्कुराहट) पेंग्विन में हमारे मित्र थे वहाँ.

 

२१

संतोष अर्श : तो क्या आपकी ख्याति हुई है या उपन्यास इतने चर्चित हुए हैं, इस वज़ह से लोग ईर्ष्या करने लगे हैं ?

रणेन्द्र : उलटबग्घा एक मुण्डा मिथक सुनी थी मैंने कई बार. तो इतने दिन से वो कहानी सुन रहे थे. फ़ील्ड में भी गये. वहाँ भी इस मिथ की कई-कई रूपों से भेंट हुई. ख़ोजे बहुत... उस पर कहानियाँ घूम-घूम कर... जानने की कोशिश की। कि इसके बारे में लोग क्या बोलते हैं. तो बहुत सारी चीज़ें वहाँ से उठाकर मैंने अपने उपन्यास में डाली हैं. जादुई यथार्थवाद क्या है, आपके यहाँ जितनी पौराणिक कहानियाँ हैं, माँ और नानी जो कहानी सुनाती रही हैं उनमें से कुछ लेना ही नहीं है क्या उनमें रूप बदलता नहीं है सुग्गा भी क्या-क्या रूप बदलता है, हिरन क्या-क्या रूप बदलता है. राक्षस हिरन बन जाता है, स्वर्णमृग बन जाता है.

 

२२

संतोष अर्श : ग्लोबल शब्द बहुत पॉपुलर हुआ हिंदी में. भूमंडलीकरण के नुक़सान तो हैं ही. उसके कुछ लाभ भी तो हैं?  क्या कोई सकारात्मक पक्ष है आपकी नजर में भूमंडलीकरण का ? या सब कुछ नकारात्मक ही है ?

रणेन्द्र : जो कुछ भी बेहतर है वह विज्ञान और तकनीक का है. वो एक ख़ास वर्ग तक ही क्यों सीमित रहना चाहिए ? ज्ञान के क्षेत्र में जो भी विकास हो रहा है या चिकित्सा के क्षेत्र में जो विकास हो रहा हैतकनीक के क्षेत्र में जो विकास हो रहा है, उसका लाभ अगर हम समतावादी हैं; तो सबको मिलना चाहिए. अब इंटरनेट एक तथ्य है, उसी कारण से ज्ञान के वर्चस्व का जो एक मिथ था वह टूटा है जो महानगरों में बैठे हुए लोग हैं वही नेट सर्फिंग कर सकते हैं. फ़्रांस के दार्शनिक लोगों की सिद्धान्तिकी बघार सकते हैं। अब तो विकीपीडिया में जा के आप भी थोड़ा-बहुत जान सकते हैं उनके बारे में. तो ये क्यों नहीं सर इससे वंचित क्यों रहना चाहिए किसी को. तो ये एक सकारात्मक पक्ष है सूचना और तकनीक का जो है. निश्चित तौर पे है. और जो मैं कह रहा था कि पब्लिक सेक्टर को जितना हम लोग इग्नोर किये जा रहे हैं, लेकिन पब्लिक सेक्टर, मान लीजिए कृषि ही एक सेक्टर है. क्योंकि गाँव जब भी होगा तो वो आदिवासी गाँव हो या गैर-आदिवासी गाँव हो, वहाँ की जब समृद्धि की परिकल्पना जब हम करेंगे तो खेती तो मुख्य होगी ही. 

खेती मुख्य होगी तो उससे जो चीज़ें जुड़ी हुई हैं, खेती के पहले की, खेती के बाद की, उससे बहुत बड़ा उपयोग हो सकता है. मौसम के दृष्टिकोण से. हम जो कह रहे हैं कि पैकेजिंग उसकी भी हो, हम जो कह रहे हैं कि प्रोसेसिंग उसकी भी हो, उसके बिना समृद्धि नहीं आनी है, तो उसमें तकनीक की आवश्यकता पड़ेगी न सर ! अच्छा ...किसान तो होते नहीं हैं. आर्टिज़न्स भी हैं. आर्टिज़न्स के ट्रेडिशनल आर्टिज़न्स भी हैं. अगर उसको आपको लाना है मार्केट में, कि मार्केट में उनकी चीज़ें बिकें रोज़ तब भी आवश्यकता है कि कम्प्यूटर पर डिज़ाइन की जाएँ. उसकी ब्रांडिंग की जाए. इसका उपयोग हम ग्रामीण अर्थव्यवस्था को, जिस पर हम रो रहे हैं, छाती पीट रहे हैं, तो छाती पीटने की बात तो है नहीं ? उसके सकारात्मक रास्ते भी हैं ही, कि कैसे हम चेंज़ कर सकते हैं उसको. तो उसमें ये चीज़ें बड़ी सहयोगी होंगी. हो रही हैं. जहाँ-जहाँ लोग कर रहे हैं, वहाँ हो रही है तो उसकी उपेक्षा हम कैसे कर सकते हैं ? लेकिन अगर कन्ज्यूमरिंग तक ही सीमित रहना है और बड़े लोगों को ही लाभ पहुँचाना है तो कोई बात ही नहीं है. आपको पब्लिक सेक्टर पर बात ही नहीं करनी है. आपको और आगे, और आगे ही सोचना है तो क्या करना. तब तो फिर उन्हीं के पक्ष में है वो.

 

२३

संतोष अर्श : आप खेल निदेशक का पद संभाल रहे हैं. महेंद्र सिंह धोनी जो आये हैं ग़ायब होता देश में और फिर अभी मैं जब यहाँ आया तब बातचीत में भी आपने दो-तीन बार महेंद्र सिंह धोनी का ज़िक्र किया. किसी नए प्रकार का कोई प्रतीक बन गये हैं महेंद्र सिंह धोनी?

रणेन्द्र : क्रिकेट खेल रह नहीं गया है. खेल नहीं है. वो एक नये प्रकार का जुआ है. क्योंकि कोई ऐसा खेल नहीं हो सकता जिससे चंद लोग अरबपति हो जाएँ और बाक़ी खेल इस देश के धूल-धूसरित हो जाएँ. ऐसा कैसे हो सकता है?  अगर कारपोरेट का उसमें गेम नहीं है और वहाँ ब्लैकमनी इन्वॉल्व नहीं है, तो कोई-न-कोई तो चक्कर है. अब तक दुलरवा कैसे हैं मार्केट के, विज्ञापन जगत के ई लोग ? बाक़ी हमारे खिलाड़ी क्यों नहीं हैं तो एक हाकी खिलाड़ी बनने में, एक कुश्ती खेलने वाले का ओलंपिक तक पहुँचने मेंएक आर्चरी में वहाँ तक पहुँचने मेंजीवन लगाते हैं लोग वहाँ तक पहुँचने में ! हाकी-आर्चरी का अन्तरराष्ट्रीय मैच अभी जब तक चल रहा है वहाँ मुंबई दिल्ली में तब तक तो न्यूज़ बनेगा. जब ख़त्म होगा, तो हो सकता है कि एयरपोर्ट पर कोई रिसीव करने नहीं जाए. तो ये जो मीडिया है और विज्ञापन जगत है और कंज्यूमर और मार्केट हैकुछ चीज़ें हमारी छाती पर बो दी हैं. 



क्रिकेट जगत के स्टार ही स्टार होते हैं, फ़िल्म जगत के स्टार ही स्टार होते हैं, तीसरी राजनीति के अलावा आपके जीवन में और कुछ नहीं है. न आपको संस्कृति से कोई मतलब है, न आप पेंटिंग पर दस लाइन बोल सकते हैं, न आप शास्त्रीय संगीत पर बोल सकते हैं कुछ, न आपके यहाँ का जो फोकआर्ट है उसके बारे में, उसके इतिहास के बारे में आपको कोई जानकारी नहीं है. आपके अपने शहीद लोग कहाँ शहीद हुए थे, उनकी स्थली कहाँ है ? उसकी जानकारी नहीं है. क्योंकि मीडिया को वो पसंद ही नहीं है. तो क्यों केवल क्रिकेट, फ़िल्म और पॉलिटिक्स ? पूरा समझिये दो-तीन पीढ़ी का पूरा जो है; अपने व्यवसाय के अलावा किसी पर बात ही नहीं होती. इन्हीं तीनों चीज़ों पर बात सिमट कर रह जाती है. क्रिकेट की बात करेगा, फ़िल्म की बात करेगा, पॉलिटिक्स की बात करेगा. उसके सामान्य जीवन में न शास्त्रीय संगीत है, न उसके यहाँ चित्रकला न कोई कविता है, न कोई कहानी उसको याद है. संस्कृति के जो और डाइमेंशन होते हैं, उन पर भी नहीं. इस व्यवस्था पर उसमें बड़ी बात कही गयी है, ‘ग़ायब होता देश में. तो क्यों तीनों में ही सिमट गये आप ? कहीं-न-कहीं मार्केट में ही आपका इन्ट्रेस्ट है. आख़िर सत्तावादी को कहीं-न-कहीं रूचि है इन चीज़ों में. फ़िल्म में, राजनीति में और क्रिकेट में. सारा कुछ इन्हीं तीन के इर्द-गिर्द घूम रहा है. क्यों हो रहा है ऐसा?

 

२४

संतोष अर्श : जादुई यथार्थवाद उसमें है थोड़ा सा, ‘ग़ायब होता देश में. और उलटबग्घाक्या है?

रणेन्द्र : उलटबग्घा एक आदिवासी कहानी सुनी थी, उसमें भी आता था. तो इतने दिन से वो कहानी सुन रहे थे. फ़ील्ड में भी गये. वो भी ख़ोजे बहुत... उस पर कहानियाँ घूम-घूम कर...कि इसके बारे में लोग क्या बोलते हैं. तो बहुत सारी चीज़ें वहाँ से उठाकर मैंने अपने उपन्यास में डाली हैं. जादुई यथार्थवाद क्या है, आपके यहाँ जितनी पौराणिक कहानियाँ हैं, माँ और नानी जो कहानी सुनाती रही हैं उनमें से कुछ लेना ही नहीं है क्या ? उनमें रूप बदलता नहीं है ? सुग्गा भी क्या-क्या रूप बदलता है, हिरन क्या-क्या रूप बदलता है. राक्षस हिरन बन जाता है, स्वर्णमृग बन जाता है.

 

२५

संतोष अर्श : नेशनलिज़्म को लेकर आपने जो लिखा है कि, “इस बंदूक से भले ही बड़ा बदलाव न हुआ हो लेकिन क्या यह सच नहीं है कि जहाँ बंदूक पहुँची है वहाँ ग्रामीणों, सूदखोरों, दबंगों, सरकारी अफ़सरों, पटवारियों, थानेदारों का ज़ुल्म कम हुआ है. भले ही भय से ही हो?

रणेन्द्र : इस पर टिप्पणी नहीं लीजिए हमारी. जो है सो यही है.

poetarshbbk@gmail.com

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गूँगी रुलाई का कोरस का एक अंश यहाँ पढ़ें.

नरेश सक्सेना से संतोष अर्श की बातचीत यहाँ पढ़ें 
उदय प्रकाश से संतोष अर्श की बातचीत यहाँ पढ़ें 

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  1. आदिवासी समाज और उसके जीवन को समझने की दिशा में यह आलेख एक गंभीर प्रयास है । संतोष अर्श जी के प्रश्नों में उस समाज को कई कोणों से देखने की कोशिश हुई है । हमारे यहाँ समाज के 'सबाल्टर्न लेयर' का इतिहास बहुत कुछ दर्ज भी नहीं है।

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