(गूगल से साभार) |
समालोचन के स्तम्भ ‘भाष्य’ के
अंतर्गत किसी एक कविता पर व्याख्याता अपने आप को केन्द्रित रखता है और तरह-तरह से उसके
मन्तव्य और काव्य-सौन्दर्य को उद्घाटित करता है. सदाशिव श्रोत्रिय को आपने विष्णु खरे,
अलोक धन्वा (पतंग), दूधनाथ सिंह (कृष्णकान्त
की खोज में दिल्ली-यात्रा ) और राजेश जोशी (बिजली सुधारने वाले) के सन्दर्भ में यहीं पढ़ा है.
आज हिंदी के महत्वपूर्ण कवि
देवी प्रसाद मिश्र की कविता ‘सेवादार’ पर उनका यह आलेख प्रस्तुत है. ‘सेवादार’ एन.जी.ओ. संस्कृति पर हिंदी में लिखी शायद अकेली
समर्थ कविता है. देवी प्रसाद की अपनी अर्जित शैलीगत वक्रोक्ति ने इस कविता को और मारक
बना दिया है.
एक समर्थ कवि अपनी अतिरिक्त संवेदनशीलता की बदौलत अपने समय की युगचेतना (zeitgeist) को अपने काव्य में अधिक प्रभावी रूप से अभिव्यक्त करने में समर्थ होता है. अपनी रचनात्मक प्रतिभा से वह बहुत से दृश्यों, घटनाओं, संवादों आदि में से उन चीज़ों को छांटने-चुनने में समर्थ होता है जो थोड़े में ही बहुत कह जाए. हमारे समय के कवि देवी प्रसाद मिश्र में हमारी युगचेतना को अभिव्यक्त करने की इस सामर्थ्य को मैं भरपूर देखता हूँ. आज के झूठ और चालाकी भरे समय में वास्तविकता को पहचानने और उसके संबंध में प्रभावी ढंग से अपनी बात कहने के लिए जिस “विट” (wit) की आवश्यकता होती है उसकी भी मुझे इस कवि में कोई कमी नज़र आती. उनके इस गुण को कोई भी वह पाठक बड़ी आसानी से देख सकता है जिसने उनकी “ब्लू लाइन” शीर्षक कविता पढ़ी है.
पर सेवादारी के इस खेल की असलियत को देवी प्रसाद इस कविता की अंतिम पंक्तियों में जिस तरह खोलते हैं वह सचमुच अनूठा है. संजीवनी अंततः अपने सर से जो कहती है वह इस बात को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है कि उसे भी अब इस बात का पूरी तरह अनुमान हो गया है कि उसके सर असल में उससे चाहते क्या हैं. उसका नाटकीय ढंग से कुत्ते के गले में लिपटते हुए “कर दूंगी सर कर दूंगी” कहना इस बात को स्पष्ट कर देता है कि पैसे और पवित्रता के बीच सौदेबाज़ी के इस खेल में संजीवनी ने 10 लाख के सालाना पैकेज के लिए अपने आप को समर्पण के लिए तैयार कर लिया है. विडम्बना यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में अपने मध्यवर्गीय परिवार की बाहर टीमटाम को बचाए रखने के लिए शायद उसके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है.
कविता की अंतिम पंक्तियों में कवि पाठक की निगाह में यह बात ला देता है कि वर्तमान नौकरी के लिए इस लड़की की वास्तविक अर्हता केवल उसका शारीरिक आकर्षण और उसके विद्वान् निदेशक की उसके युवा सौन्दर्य में गहरी रुचि है ; साथ ही वह उसे इस बात का भी ज्ञान करवा देता है कि विदेशी पैसे की मदद से हमारे यहाँ जो अनेक ग़ैर सरकारी संस्थाएं काम कर रहीं हैं वे वस्तुतः किन लोगों के कल्याण के लिए और किस तरह काम कर रही हैं – कि उनके घोषित उद्देश्यों और उनके वास्तविक क्रिया-कलापों के बीच कितनी गहरी दरार है :
और सर चले गये सिली गर्ल, यू आर सच अ रैविशिंग स्टफ़ जैसी कोई बात
यह रचना हमारे समय की उस विडम्बनापूर्ण स्थिति को भी बखूबी उजागर करती है जिसमें नारी-कल्याण के लिए काम करने का दावा करने वाली एक संस्था अंततः एक पुरुष द्वारा किसी ज़रूरतमंद नारी के शोषण और उत्पीड़न का कारण बन जाती है.
सेवादार / देवी प्रसाद मिश्र
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सेवा का व्रत उठा रखा था शुरू से ही उसमें सेवा
का भाव था जिसे देखते हुए माता पिता ने उसे
दिल्ली युनिवर्सिटी से सोशल वर्क में एमए करवा दिया
जबकि उसने एमफ़िल इस विषय पर किया कि हरियाणा में
लड़कियां कम क्यों हो रही हैं
संजीवनी सूरी कार में बैठी थी
और उसके सर उसे छोड़ने आये थे
मीटिंग के बाद काफ़ी देर हो गई थी इसलिये
जीके टू में एक घर के सामने कार रुकी तो
सर ने कहा कि अभी १० लाख के पैकेज पर
काम शुरू करो बाद में देख लेंगे संजीवनी ने कहा
सर वैसे तो ठीक है लेकिन थोड़ा कम है सर ने हंसते
हुए कहा कि थोड़ा कम तो हमेशा रहना चाहिए
संजीवनी ने कहा कि सर घर के अन्दर आइये
मम्मी से मिलिये l पापा के जाने के बाद
शी इज़ डेड अलोन l सर ने कहा ओह l
बट कीप इट द नेक्स्ट टाइम l संजीवनी
ने कहा कि
सर आप अन्दर नहीं आ रहे तो मेरे कुत्ते से
ज़रूर मिल लीजिये l शी इज़ जर्मन
शेपर्ड l प्लीज़ सर l
सर ने कहा कि वे ज़रूर किसी दिन आएंगे l फिर
उन्होंने संजीवनी को याद
दिलाया कि वह खरिआर -
हाउ टेरिबल द प्रननसिएशन इज़ – खरिआर ज़िले
के दस गांवों की स्त्रियों की महीने की औसत
मज़दूरी पर रिपोर्ट तैयार कर ले संजीवनी ने आह भर कर
कहा कि
सर एक औरत को औसत महीने में तेरह रुपये मिलते हैं –
एक दिन में चालीस पैसे
सर ने कहा कि हम क्या कर सकते हैं रिपोर्ट ही
दे सकते हैं और जब तक वो नहीं दी जाती
वर्ल्ड बैंक से अगले छियासठ लाख रिलीज़ नहीं होने वाले
कर दूंगी सर कर दूंगी कहते हुए संजीवनी कुत्ते से लिपट गयी
और सर चले गये सिली गर्ल, यू आर सच
अ रैविशिंग स्टफ़ जैसी कोई बात
कहते हुए जो अगर सुन ली जाती
तो संजीवनी सूरी क्यों है इतनी दूरी जैसी घोर स्त्री
विरोधी बात कहने के लिये
स्त्रियों के लिये काम करने वाली उनकी संस्था को
मिलने वाली सालाना तीन
करोड़ की यूरोपीय ग्रांट बंद हो जाती.
सेवादार
सदाशिव श्रोत्रिय
एक समर्थ कवि अपनी अतिरिक्त संवेदनशीलता की बदौलत अपने समय की युगचेतना (zeitgeist) को अपने काव्य में अधिक प्रभावी रूप से अभिव्यक्त करने में समर्थ होता है. अपनी रचनात्मक प्रतिभा से वह बहुत से दृश्यों, घटनाओं, संवादों आदि में से उन चीज़ों को छांटने-चुनने में समर्थ होता है जो थोड़े में ही बहुत कह जाए. हमारे समय के कवि देवी प्रसाद मिश्र में हमारी युगचेतना को अभिव्यक्त करने की इस सामर्थ्य को मैं भरपूर देखता हूँ. आज के झूठ और चालाकी भरे समय में वास्तविकता को पहचानने और उसके संबंध में प्रभावी ढंग से अपनी बात कहने के लिए जिस “विट” (wit) की आवश्यकता होती है उसकी भी मुझे इस कवि में कोई कमी नज़र आती. उनके इस गुण को कोई भी वह पाठक बड़ी आसानी से देख सकता है जिसने उनकी “ब्लू लाइन” शीर्षक कविता पढ़ी है.
मेरी मान्यता है युगचेतना
की काव्यात्मक अभिव्यक्ति की यह सामर्थ्य
किसी कवि को सचेतन प्रयत्न से नहीं हासिल होती. श्रेष्ठ कविता की रचना पर किसी कवि का उतना ही नियंत्रण
संभव है जितना किसी अनूठा स्वप्न देखने
वाले का उसके स्वप्न पर हो सकता है. अन्तःप्रेरणा के किसी अनाहूत क्षण में वह अपने
मन में संचित विभिन्न अनुभवों का उपयोग करते हुए कुछ ऐसा कह जाता है जो पाठकों –
श्रोताओं को उसकी मौलिकता और नवीनता से
चकित कर देता है.
देवी प्रसाद मिश्र की एक
विशेषता मुझे यह लगती है कि काव्य-रचना के किसी उर्वर काल में उनका ध्यान किसी
विशिष्ट विषय पर केन्द्रित रहता है और तब वे उस विषय से सम्बंधित कई रचनाएँ अपने पाठकों को एक साथ देने की स्थिति में होते हैं. 2010 में जब असद ज़ैदी ने अपनी पत्रिका जलसा
के पहले अंक का प्रकाशन किया तब मिश्रजी के मन में हमारे शैक्षणिक और अकादमिक क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर कई बातें आ रही होंगी. शायद यही कारण रहा होगा
कि जलसा के इस अंक में इस तरह के भ्रष्टाचार
से सम्बंधित उनकी चार-पांच कविताएँ शामिल हैं.
राजनेताओं ने अपनी अनावश्यक दखलंदाजी़ से शिक्षा की जो दुर्दशा की उसका वर्णन देवी प्रसाद मिश्र जलसा के इस अंक के
पृष्ठ 95 पर प्रकाशित कविता “हमारे पूर्वज
सीरीज़ में सबसे पहले प्रभाकर शुक्ल” में इस अंदाज़ में करते हैं :
प्रभाकर शुक्ल को प्रधानमंत्री होना चाहिये था - ग़नीमत है कि उन्होंने प्रतापगढ़ की एक तहसील
में एक स्कूल का प्रिंसिपल रह कर उम्र गुज़ार दी लेकिन उन्होंने स्कूल का उतना ही
कबाड़ा किया जितना किसी भी प्रधानमंत्री ने इस देश का किया है उनकी पत्नी ने और ख़बर
पक्की है कि उनकी बेटियों ने भी चपरासियों से पैर दबवाये टीचरों से सब्ज़ी मंगवाई
और तबला सर से जहां तहां तेल लगवाया सर में भी लगवाया.
भुवनेश्वर दत्त जिनके ज़िले में कई स्कूल थे से कहकर उनकी नियुक्ति हुई थी – क्वालिफिकेशन यह थी कि
वैद जी के बेटे थे, मामखोर सुकुल थे और दो थर्ड क्लास यमए – हिंदी और एजुकेशन में.
इसी सीरीज़ की एक अन्य कविता
“हमारे पूर्वज सीरीज़ में राम समुझ मिश्र” में वे कहते हैं :
राम समुझ मिश्र मामूली आदमी नहीं थे – पीसी रेन के अंग्रेज़ी व्याकरण से
अंग्रेज़ी सीखी थी और कहते थे कि उच्चारण रंदवू है रेंडेज़वस वगैरह नहीं. गांधी के नेतृत्व में आज़ादी की लड़ाई
लड़ी,विधायक हुए –धोती कुरता पहनते थे, सारस की तरह चलते थे, और जितने थे उससे कम
चालाक नहीं लगते थे .........लखनऊ से इलाहाबाद जाते हुए लालगंज में उनके नाम का
स्कूल है. ठीक से न भी देखिये तो वह चीनी मिल की तरह लगता है. स्कूल को उन्होंने
तेल मिल की तरह चलाया. मतलब कि गन्ना पेरो , सरसों या आदमी एक ही बात है.
हम देख सकते हैं कि “शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है” जैसी
किसी गद्यात्मक अभिव्यक्ति का प्रभाव किसी
पाठक के मन-मस्तिष्क पर कभी उतना गहरा नहीं हो सकता जितना देवी प्रसाद जी की इस काव्यात्मक अभिव्यक्ति का होता है.
शिक्षा–तंत्र में नौकरी के
लिए पैसे के खुले और नंगे खेल का वर्णन वे
इसी सीरीज़ की एक अन्य कविता “हमारे समकालीन सीरीज़ में कल्लू मामा” में करते
हैं :
[कल्लू मामा ] ने हाल में प्राइमरी के अध्यापक के तौर पर ढिंगवस नाम की जगह के
स्कूल में नियुक्ति प्राप्त की है – इसके लिए जूनियर इंजीनियर पिता ने दो लाख दिये.
हफ़्ते में कल्लू दो तीन बार स्कूल जाते हैं पढ़ाते तब भी नहीं हैं . बच्चों की
मांएं कहती हैं कि इन हरामखोर टीचरों के लम लम कीड़े पड़ेंगे.
पर जो दूर की कौड़ी देवी
प्रसाद जी अकादमिक हल्कों में एन.जी.ओज़ के
माध्यम से किए जा रहे करोड़ों रुपये के अपव्यय, उनकी निरर्थकता और उनके असली मक़सद
के सम्बन्ध में उनकी इसी काल की उनकी रचना
“सेवादार” (पृष्ठ 95) के माध्यम से लाते हैं उसका सचमुच कोई मुकाबला नहीं.
इस कविता को पढ़ना और इसके
माध्यम से हमारे यहाँ काम कर रहे कई ग़ैर सरकारी संगठनों के वास्तविक
क्रिया-कलापों के बारे में जानना किसी भी
पाठक के लिए एक रोमांचक और आल्हादकारी अनुभव होगा. वस्तुतः इस कविता की सफलता इस
रोमांच और आल्हाद में ही निहित है.
हम देख सकते हैं कि इस
कविता के केंद्र में संजीवनी सूरी नाम की उच्च मध्यवर्गीय परिवार की एक आकर्षक युवती
है जिसके पिता की मृत्यु हो चुकी है और जो
किसी NGO के लिए समाजशास्त्र के किसी विद्वान् के मार्गदर्शन में किसी प्रोजेक्ट पर काम कर रही है. इस NGO
को किसी यूरोपीय देश से तीन करोड़ रुपये का
सालाना अनुदान मिलता है और इसका घोषित उद्देश्य नारी-कल्याण है.
कविता का पहला बंद इस बात
की पोल खोल देता है कि यह शोधार्थी युवती अपने वर्तमान शोध कार्य के लिए वास्तव
में कितनी शैक्षिक अर्हता रखती है :
इस लड़की ने जो कार में बैठी थी
सेवा का व्रत उठा रखा था शुरू से ही उसमें सेवा
का भाव था जिसे देखते हुए माता पिता ने उसे
दिल्ली युनिवर्सिटी से सोशल वर्क में एमए करवा दिया
जबकि उसने एमफ़िल इस विषय पर किया कि हरियाणा में
लड़कियां कम क्यों हो रही हैं
अपने बच्चों को किसी उपलब्ध
मौके का फायदा दिलाने के लिए उनकी तारीफ़ में माँ – बाप आजकल जिस तरह की कोई भी
बात कहने को तैयार रहते हैं इसे कविता की
दूसरी और तीसरी पंक्ति पढ़ कर समझा जा सकता है. पढ़े हुए विषय और किए जाने वाले काम
के बीच कोई स्पष्ट सम्बन्ध हो यह भी आजकल आवश्यक नहीं ; इस बात को यह कविता यहाँ एक बार फिर अपने ढंग से प्रकट कर देती है.
कविता में जिस रात्रि का
वर्णन है उसमें संजीवनी सूरी काफ़ी देर से
घर पहुँची है. कवि जिस ढंग से इस विलम्ब का कारण बताता है वह पाठक के सामने यह
स्पष्ट कर देता है कि इसका वास्तविक कारण शायद मीटिंग के बाद इस शिष्या और उसके गुरुजी का
लम्बे समय तक साथ रहा है जिससे उसके घर
वाले या तो बेखबर हैं या वे जानबूझ कर इसके बारे में अनजान बने रहना चाहते हैं
क्योंकि उनके ज़्यादा खोज –खबर करने का
मतलब शोध-कार्य की बदौलत इस लड़की को मिलने वाले पैसे से हाथ धो बैठना है जो न तो
यह लड़की खुद चाहती है और न ही उसके घर वाले . उनकी ख्वाहिश इस समय यह है कि भरम
फ़िलहाल दोनों तरफ़ से बना रहे ताकि मोटी आय का यह जरिया लड़की के हाथ से निकल न जाए.
समाज सेवा और शिक्षा के
क्षेत्र में भी पैसे की भूमिका ही आज के मध्यवर्गीय समाज में सर्वाधिक महत्वपूर्ण
रहती है इसे संजीवनी और उसके “सर” के बीच होने वाली सौदेबाज़ी की भाषा साफ़ कर देती है :
जीके टू में एक घर के सामने कार रुकी तो
सर ने कहा कि अभी १० लाख के पैकेज पर
काम शुरू करो बाद में देख लेंगे संजीवनी ने कहा
सर वैसे तो ठीक है लेकिन थोड़ा कम है सर ने हंसते
हुए कहा कि थोड़ा कम तो हमेशा रहना चाहिए
स्त्री-कल्याण के घोषित
उद्देश्य से हाथ में लिए गए इस प्रोजेक्ट के लिए काम करने वालों की कितनी
सहानुभूति और कितना लगाव उन ग्रामीण
स्त्रियों के प्रति है जिनके लिए वे काम कर रहे हैं इसे इस कविता के तीसरे पदबंद की निम्नांकित
अंतिम पंक्तियाँ भलीभांति प्रकट कर देती हैं:
फिर उन्होंने संजीवनी को याद
दिलाया कि वह खरिआर - हाउ टेरिबल द
प्रननसिएशन इज़ – खरिआर ज़िले
के दस गांवों की स्त्रियों की महीने की औसत
मज़दूरी पर रिपोर्ट तैयार कर ले संजीवनी ने आह भर कर कहा कि
सर एक औरत को औसत महीने में तेरह रुपये मिलते हैं –
एक दिन में चालीस पैसे
सर ने कहा कि हम क्या कर सकते हैं रिपोर्ट ही
दे सकते हैं और जब तक वो नहीं दी जाती
वर्ल्ड बैंक से अगले छियासठ लाख रिलीज़ नहीं होने वाले
पर सेवादारी के इस खेल की असलियत को देवी प्रसाद इस कविता की अंतिम पंक्तियों में जिस तरह खोलते हैं वह सचमुच अनूठा है. संजीवनी अंततः अपने सर से जो कहती है वह इस बात को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है कि उसे भी अब इस बात का पूरी तरह अनुमान हो गया है कि उसके सर असल में उससे चाहते क्या हैं. उसका नाटकीय ढंग से कुत्ते के गले में लिपटते हुए “कर दूंगी सर कर दूंगी” कहना इस बात को स्पष्ट कर देता है कि पैसे और पवित्रता के बीच सौदेबाज़ी के इस खेल में संजीवनी ने 10 लाख के सालाना पैकेज के लिए अपने आप को समर्पण के लिए तैयार कर लिया है. विडम्बना यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में अपने मध्यवर्गीय परिवार की बाहर टीमटाम को बचाए रखने के लिए शायद उसके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है.
कविता की अंतिम पंक्तियों में कवि पाठक की निगाह में यह बात ला देता है कि वर्तमान नौकरी के लिए इस लड़की की वास्तविक अर्हता केवल उसका शारीरिक आकर्षण और उसके विद्वान् निदेशक की उसके युवा सौन्दर्य में गहरी रुचि है ; साथ ही वह उसे इस बात का भी ज्ञान करवा देता है कि विदेशी पैसे की मदद से हमारे यहाँ जो अनेक ग़ैर सरकारी संस्थाएं काम कर रहीं हैं वे वस्तुतः किन लोगों के कल्याण के लिए और किस तरह काम कर रही हैं – कि उनके घोषित उद्देश्यों और उनके वास्तविक क्रिया-कलापों के बीच कितनी गहरी दरार है :
और सर चले गये सिली गर्ल, यू आर सच अ रैविशिंग स्टफ़ जैसी कोई बात
कहते हुए जो अगर सुन ली
जाती
तो संजीवनी सूरी क्यों है
इतनी दूरी जैसी घोर स्त्री विरोधी बात कहने के लिये
स्त्रियों के लिये काम करने
वाली उनकी संस्था को मिलने वाली सालाना तीन
करोड़ की यूरोपीय ग्रांट बंद
हो जाती.
यह रचना हमारे समय की उस विडम्बनापूर्ण स्थिति को भी बखूबी उजागर करती है जिसमें नारी-कल्याण के लिए काम करने का दावा करने वाली एक संस्था अंततः एक पुरुष द्वारा किसी ज़रूरतमंद नारी के शोषण और उत्पीड़न का कारण बन जाती है.
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sadashivshrotriya1941@gmail
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अच्छी कविता और प्रस्तुती भी
जवाब देंहटाएंBahut gambhir aur vaicharik lekh hai kavita ke arh ko kholte hue..devi ji hamare samay ke sabse bade aur jaruri kavi hain aur unki ek ek kavita gahan paath ki maang karti hai...abhaar samalochan.
जवाब देंहटाएंसहमत
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (03-05-2017) को "मजदूरों के सन्त" (चर्चा अंक-2959) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मैं तो समालोचन का फैन हो गया. क्या प्रस्तुति है. किसी कलाकृति की तरह. स्तर बनाए रखें.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सहजता के साथ खोली गई है कविता. इस पोस्ट को शेयर कर रहा हूँ । यह लेख हमें सिखाता है कि गद्य कविता का , खास तौर से देवी प्रसाद मिश्र की कविता का पाठ किस तरह से किया जाए ।
जवाब देंहटाएंश्रोत्रिय जी के भाष्य सदा अच्छे होते हैं। यह भी है।
जवाब देंहटाएंमेरी अल्प मति में कविता का चुनाव सही नहीं हुआ। इस कविता में कोई गहराई नहीं है। व्यंग्य छिछला है क्योंकि चरित्र अतिरंजित हैं। उनकी बातें अस्वाभाविक हैं। बीच-बीच में अंग्रेज़ी के (अशुद्ध) वाक्य बेतुके हैं।
आख़िरी पंक्तियों में पता ही नहीं चलता कि 'सर' ने क्या कहा -"यू आर सच अ रैविशिंग स्टफ़" (इसका अर्थ? कोई किसी को रैविशिंग स्टफ़ कहता है क्या?) या " संजीवनी सूरी क्यों है इतनी दूरी"?
अन्ततः यह एक स्मार्ट कविता से ज़्यादा कुछ नहीं। एक स्मार्ट किस्म की बौद्धिकता इस पर हावी है। इसे बनाने के लिए किया गया चतुर बौद्धिक श्रम साफ नज़र आता है। कविता में कोई गहराई नहीं है। कुछ सर्वविदित सामाजिक तथ्यों को एक नैरेटिव फॉर्म में रख दिया गया है । कोई रस भी इसमें नहीं है। भाष्य भी साधारण ही है। वह हमें कुछ भी ऐसा नहीं बताता जो कविता पढ़ कर हमें पता न चल जाये।
जवाब देंहटाएंडिपेंड करता है सर कि कोई कविता आप तक कैसे पहुंच ती है . शायद यह अलग अलग वर्ग के लोगों तक अलग अलग तरीकों और अलग प्रभावो के साथ पहुंच ती है । मुझे मध्यवर्गीय मानसिकताओं की एक गुच्छ सी लगती है यह कविता । और उस मानसिकता पर एक सशक्त व्यंजना लगती है । चूंकि मैं निम्न मध्य वर्ग से आता हूं तो मुझे अपने विचारों से रिलेट करता कंटेंट लगा इस का . और मुझे नैतिकता स्ख्लन के उस स्तर तक गिरने से रोकती है यह कविता , जिस स्तर तक हमारा अधिंकांश उच्च मध्य वर्ग गिर चुका है।
हटाएंदेवी प्रसाद मिश्र की अन्य कविताओं मे भी वक्रोक्ति मुझे उद्वेलित करती है । यह महान कालजयी वगैरा होने का दावा नहीं करती लेकिन इस की संवाद नुमा पंक्तियां मध्यवर्गीय पाखंड की दुखती रग पर हाथ रख देती है।
रही बात न ई बात पता चलने की , तो यह उस तरह से ज़रूरी है क्या ? कविता एसेंशियली कोई ज्ञानकोश तो नहीं है .
Sach hai..kavita sirf kalpna to nhi hai samaj ke prati jawabdeh bhi hai.
हटाएंवाकई ऐसी कविता देवी ही लिख सकते हैं।
जवाब देंहटाएंयह अद्भुत कविता है
जवाब देंहटाएंदेवी भाई की पिछले दो चार सालो मे जितनी भी लघुकथा या डायरी नुमा गद्यकविताएं पहल, जलसा, तद्भव आदि मे छपी हैं , सभी अद्भुत हैं ।
हटाएंबड़ी कविता है या नहीं यह तो सभी पाठक और आलोचक मिल कर तय करें गे
शुक्रिया सर देवी प्रसाद मिश्र जी को पढ़वाने के लिए।कल मैं उनका जिक्र ही कर रहा था वे मेरे पसंदीदा कवियों में से हैं।
जवाब देंहटाएंपुनः आभार अगर आपके पास उनकी और रचनाएँ हो तो पढ़वाने का कष्ट करें।
सदाशिव श्रोत्रिय सहृदय मित्र और कवि-समीक्षक हैं तथा इसी स्तम्भ में मेरी कविता पर उदारतापूर्वक लिख चुके हैं.उनकी इस क़िस्त पर बात हुई है.वह कवि को बिना बताए लिखते हैं,जैसा कि होना भी चाहिए.लेकिन मुझे लगता है कि यदि देवीप्रसाद मिश्र को आगाह कर देते तो शायद यहाँ रचना का चुनाव न होता.वैसे मूल चूक कवि से तो हुई ही है - वह स्वयं निर्मम (आत्म-)आलोचक हैं - 'जलसा' वालों से भी कम नहीं हुई है.उन कविताओं को हर स्तर पर रोका जाना चाहिए जो देवीप्रसाद जैसे बड़े रचनाकार के मर्तबे से कमतर हो सकती हैं.तिवारी शिव किशोर और रुस्तम सिंह से सहमत हूँ लेकिन विडंबना देखिए कि रुस्तम सिंह सरीखे संदिग्ध 'कवि' और निहायत साधारण पंजाबी कविताओं के भ्रष्ट हिंदी अनुवादक को भी एक ऐसा मौक़ा मिल गया.
जवाब देंहटाएंसर कृपया बताएं, रोका क्यों जाना चाहिए? क्या *कमजोर* कविता प्रकाशित होने से *छवि* खराब होने का खतरा रहता है ?
हटाएंया कोई इतर कारण हैं , जिज्ञासा वश पूछ रहा हूँ , सादर ।
सदाशिव श्रोत्रिय जी के पिछले चयन और भाष्य पसंद आए हैं। पर इस बार नहीं। अव्वल तो ये कि जलसा, पहल, तद्भव जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो जाने भर से कोई कविता मुकम्मल नहीं हो जाती। और यह कविता भी बहुत अद्भुत कविता तो कतई नहीं है। हाँ, सदाशिव श्रोत्रिय जी ने इस बहाने एनजीओ कल्चर की अंदरूनी कहानी को दुहराने का काम जरूर किया है। पर एनजीओ कल्चर की तो यह बस ऊपरी परत मात्र है! अंदर की गलीच उलीचने का साहस नामी-गिरामी 'साहित्य-वाले' भी नहीं कर पाते हैं, इसके कारण भी किसी से छिपे नहीं हैं! और हाँ, देवी प्रसाद मिश्र की चौकोर-वर्गाकार कवितायें मुझे कभी पसंद नहीं आयीं, यह कहने में मुझे कोई संकोच भी नहीं!
जवाब देंहटाएं- राहुल राजेश।
कविता तो शायद कोई भी मुकम्मल नहीं होती
हटाएंयदि यह प्रश्न मुझे संबोधित है तो
जवाब देंहटाएं1. वह दूसरे,विशेषतः युवतर,कवियों के लिए भ्रामक उदारहण बन सकती है.
2. वह सिर्फ़ सम्बद्ध कवि की नहीं,समूची ऐसी कविता की छवि ख़राब कर सकती है.
2. ऐसी कविता के अच्छे पाठक यदि कहीं हैं तो वह उन्हें अलफ़ कर सकती है और पसोपेश में डाल सकती है.
3. वह अच्छी कविता के आस्वादन और मूल्यांकन पर नकारात्मक असर डाल सकती है.
4. वह ऐसे कवियों और उनकी कविता के प्रशंसकों को अकारण एक बचाव पर विवश कर सकती है.
5. जब आप एक उम्दा कवि के रूप में स्वीकृत-प्रतिष्ठित हो चुके होते हैं तो अचानक आपकी ज़िम्मेदारियाँ कठिन,जटिल और जानलेवा होती जाती हैं.यह आप ही करते हैं.आपके पाठक आपसे एक न्यूनतम उत्कृष्टता की माँग और उम्मीद करने लगते हैं.हर कला, हुनर और स्पोर्ट आदि में यह विचित्र 'demand and supply' का दुर्निवार नियम अपने-आप आयद हो जाता है.आपके चाहने-न चाहने से फिर कुछ नहीं होगा.सदियों से यह बहसें ज़ारी हैं और रहेंगी.
अंतिम मद पर पूरी सहमति है । न केवल पाठक , प्रतिष्ठित कवि स्वयं भी खुद से बहुत उम्मीद रखने लगता है और कठिन और ऊंचे मानदंड तय करने लग जाता है ।
हटाएंलेकिन एक ईमानदार और वल्नरेबल कवि को फिर सर्वाईवल भी तो चाहिए . कहे , लिखे बिना और प्रकाशित हुए बिना कैसै वह सरवाईव करेगा ? हम सब जानते हैं *बडी* कविता हमेशा नहीं लिखी जा सकती . यह एक प्रक्रिया के तहत आप के भीतर पक कर तैयार होती है. तो मै समझता हूं कि
इस बीच उसे कुछ *छोटी* कविताएं प्रकाशित करने की भी छूट है । जो मुझ जैसे *कुछ* छोटे पाठको को विस्मित अचंभित कर सकती है , एस्थेटिकली ग्रो करने मे मदद भी करती है , और समझ भी आती है .
तो प्रकाशित करने से रोका क्यों जाए ?
Aapse sahamat..devi ji kavitaye jitaa jaagta wartmaan hain.
हटाएंसही कहा आप ने । इन की कविताओं में न ए भारत का समकाल दर्ज हो रहा है ।
हटाएंकविता की दो ही श्रेणियां हो सकती हैं -अच्छी कविता या ख़राब कविता | हम अपने समय की अच्छी कविताओं से अपना सरोकार रखते हैं | अच्छी कविताओं के बारे में यह कहना कि उन्हें प्रकाशित होने से रोकना चाहिए सरासर बेमानी है | देवी एक अच्छे कवि हैं और उनकी कविताएं जिनका ज़िक्र इस लेख के संदर्भ में हुआ है, अच्छी कविताएं हैं | सेवादार कविता में देवी ने हमारे समय के एक जटिल विषय को उठाया है और उस जटिलता को अपनी कविता में वहां ले गए हैं जहां हम इस व्यवस्था को हम कोसते हैं और बेबस हो जाते हैं | कविता और क्या करती है? हमारी कुंद चेतना को क्रियाशील करती है | मुझे यह कविता अच्छी लगी | श्रोत्रिय जी को भी धन्यवाद | --मिथिलेश श्रीवास्तव
जवाब देंहटाएंआम आदमी का प्रवक्ता की बजाय कलाकार होने का दावा करनेवाले कवियों को खुद को विशिष्ट मानने-मनवाने की चाह छोड़कर आम पाठक की आलोचना सुनने-गुनने के लिए तैयार रहना चाहिए.मेरे ख्याल से मिश्र जी को अपनी कविता पर केन्द्रित इस आलेख को गौर से पढ़ना और गुनना चाहिए.
जवाब देंहटाएंक्या हिन्दी इतनी दरिद्र भाषा है कि उसमें कविता रचने के लिए 'शी इज़ डेड अलोन',' बट कीप इट द नेक्स्ट टाइम',' शी इज़ जर्मन शेपर्ड l प्लीज़ सर l',' हाउ टेरिबल द प्रननसिएशन इज़',' यू आर सच अ रैविशिंग स्टफ़' जैसे अंग्रेज़ी वाक्यांशों का प्रयोग करना आवश्यक है ?
एक नैरेटिव स्ट्रक्चर में चुस्त ढंग से लिखी गयी चीज़ें काफी लम्बे अरसे से कविता की जगह पर आ टिकी हैं। वे अपने इस रूप में इसलिए शोभायमान हैं कि उनके लिखने वाले पहले से ही चर्चा का विषय बने चले आते हैं किसी न किसी वजह से। देवीप्रसाद मिश्र की यह कविता ( सेवादार ) भी लगभग इसी नाते अगर चर्चा के केंद्र में है तो यह हिंदी कविता के आख्यानक स्वरुप के लिए चिंतनीय है। कविता के बारे में मैं ज़्यादा कुछ इसलिए नहीं कहूंगा कि मेरी नज़र में यह एक चालाक वक्तृत्व के निकट खड़ा काव्य कथन जैसा कुछ है जो मेरे अपने घर परिवार में के कुछ बहुत सुविधा भोगी लोगों के आस पास मंडरा रहा है। मैं उन्हें इतने निकट से जानता हूँ और वे इस कदर फर्राटे में रोज़मर्रा जीवन यापन करते हैं की यह उनकी वैसी ज़िन्दगी पर क्षुद्र टिपण्णी भी नहीं कही जा सकती। इतना कुछ इतना महत्वपूर्ण फेसबुक पर ही रोज़ सामने आता रहता है कि देवीप्रसाद की इस कविता में का विषय वः नहीं बनता। ुझे इतनी लम्बी चर्चाओं ने ज्यातर उदास ही किया। तंज़ और सटीक वक्तव्य में भी हम अगर ऐसे ही अँगरेज़ हो जाएंगे तो हमारी खैर कहाँ। ..!
जवाब देंहटाएंऐसी कविता लिखने का साहस होना भी कुछ कम नहीं। यथार्थ को कविता बनाना आसान नहीं। कवि को बधाई।
जवाब देंहटाएंDevi Prasad’s poem
जवाब देंहटाएंThe girl comes from a modest middle class family which is not static in its socio-economic disposition and reflects the much talked about middle class aspirations in a developing economy that has seen globalization and liberalization.
If we situate the beginnings of this poem in a timeline of the last decade or two’s urban North India, the family possibly comes from an orthodox setting of a small town or village but have opened up to give higher education to their daughter, although and importantly, choosing the area of study for her based on their understanding of her inclination. It is to be noted that this is often true for both boys and girls in our society where parents think that they must direct their guards towards choosing their career in a highly competitive world. However, for a boy the choice of course in most likelihood would not be Social Work which is a relatively low paying qualification as the expectation from a boy is to be the bread winner and on the other hand a girl is expected is to have a sense of ‘service’ and therefore, this kind of a course will help.
The girl seems to have subconsciously internalized the impressions againstingrained gender discriminationand chooses that as her M.Phil subject and also later career – working for minimizing exploitation of poor women workers in the villages of Haryana. Also, one can see inter-generational socio-economic mobility in the family which could be the result of opening up of the economy or even father’s death leading to changing social norms. For example, German shepherd at home could indicate either a solution to have security and company for the lonesome mother while the daughter is away at work or even point towards acceptance of a western concept of having a ‘good’ breed pet dog at homewhich might sometimes help in enhancing thesocial status. Similarly, the acceptance of her mother to let her get dropped by the boss in his car at night possibly after a meeting is also talking about changing mores.
कविता "चौकीदार" अपनी जगह है अच्छी/सामान्य या ऐसी ही कुछ अन्य पाठकों व सृजनधर्मी मित्रों की राय हो सकती है। परन्तु, सदाशिव श्रोत्रिय जी ने इस कविता को अपने भाष्य से अच्छा बना दिया ।
जवाब देंहटाएंबधाई ।।
चौकीदार नहीं, सेवादार।
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