“प्रचण्ड प्रवीर हिंदी कहानी के इतिहास
में सबसे बीहड़ प्रतिभा है. यही देखना है कि वह कहाँ पहुँचकर पूरा ''वयस्क'' होता है. उसे पढ़ना आसान नहीं है. वह
अपनी हर कहानी में अपने और अपने पाठकों के लिए ऊँची और लम्बी कूद का 'बार' ऊँचा करता चलता है. सबसे बड़ी बात शायद यह
है कि लिखते समय वह ख़ुद से और किसी भी क़िस्म के पाठक से नहीं डरता. हिंदी गल्प में
वह एक नया कथ्य, नयी भाषा और नयी शैली ईजाद कर रहा है.
यह बहुत आत्महंता ज़िद और अन्वेषण है. ठेठ भारतीयता और वैश्विकता का साँसत-भरा
यौगिक उसके यहाँ है. वह ऐसी असफलता को न्यौत रहा है जो आज की हिंदी कहानी के लिए
कल्पनातीत है.”
(समालोचन
– 4/7/2018)
मरहूम
विष्णु खरे ने प्रचण्ड प्रवीर पर यह टिप्पणी समालोचन पर लगभग दो साल पहले की थी.
इस बीच प्रवीर ने उपनिषदों के विचार को केंद्र में रखते हुए लम्बी कहानियाँ लिखनी
शुरू की है जिनमें से कुछ आपने समालोचन पर पढ़ी हैं. मुण्डक उनकी नई कहानी है.
वैसे
तो यह प्रेम विवाह की प्रक्रिया में अंतर्निहित जोखिम की कहानी लगती है. पर यह
दरअसल कंसल्टेंट की कहानी है जिसे वह ‘मन्त्रक’ कहते हैं और जो शायद इस विषय पर
हिंदी की पहली कहानी भी है.
कहानी
के समानांतर विचार है. कई बार विचार के समानांतर कहानी जान पड़ती है वैसे भी प्रवीर
को ‘सफलता’ में कोई रुचि नहीं है.
कहानी
पढ़ी जाए.
मुण्डक
प्रचण्ड प्रवीर
सत्यमेव
जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः.
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम् ॥३.१.६॥
मुण्डकोपनिषद् सत्य ही जय को प्राप्त होता है, अनृत (मिथ्या) नहीं. सत्य से ही देवयान मार्ग का विस्तार होता है जिससे ऋषि पूर्णकाम हो कर आरोहण करते हैं, जहाँ सत्य का परम निधान है.
प्रथम मुण्डक
प्रथम खण्ड :
विमर्श
सभी
देवताओं में पहले ब्रह्मा उत्पन्न हुए. वे विश्व के रचयिता और त्रिभुवन के रक्षक
थे. उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को सभी विद्याओं की आश्रयभूत ब्रह्मविद्या
का उपदेश दिया. अथर्वा को ब्रह्मा ने जिसका उपदेश किया था, वह ब्रह्मविद्या
पूर्वकाल में अथर्वा ने अंगी को सिखायी. अंगी ने उसे भरद्वाज के पुत्र सत्यवह से
कहा तथा सत्यवह ने आगे ... कहते हैं इस तरह श्रेष्ठ से कनिष्ठ को प्राप्त होती हुई
वह विद्या संरक्षित रही.
यह
सब किसी तरह खींच-तान कर चल ठीक-ठाक रहा था किन्तु उदारवाद के दौर में सारी
विद्याओं को जानने और जानने का दावा करने का जिम्मा कुछ बेहद प्रभावशाली, महंगे
कपड़े पहनने वाले, चमक-दमक वाले और मोटी तनख्वाह लेने वाले पेशेवरों ने ले ली.
अंग्रेजी में इन्हें पेशे से ‘कन्सल्टेन्ट’ कहा जाता था, पर अंगिरा जी जो अंग्रेजी
के अलावा हिन्दी, संस्कृत, मराठी, बंगाली, उर्दू, इतालवी और फ्राँसिसी जानने का
दावा करते थे, भारतीय विद्वानों की किन्हीं गोष्ठियों में घुसपैठ करते हुए खुद को
सलाहकार कम, ‘मन्त्रक’ कहलाना अधिक पसन्द करते थे. चूँकि ‘मन्त्रक’ हर तरह का काम
करवाने में कुशल होते हैं, इसलिए भारतीय भाषाओं में काम करने वाले विद्वान भी उनकी
सलाह ले लिया करते थे. ध्यातव्य है कि बाकी विद्याओं के साथ-साथ अंगिरा जी
ब्रह्मविद्या जानने का भी दावा करते थे.
‘कन्सल्टेन्ट’ या ‘मन्त्रक’ हर तरह के काम करने में कुशल होते हैं. दरअसल देखा जाय तो पेशेवर मन्त्रक ‘भारतीय प्रबन्धन संस्थान’ से पढ़ कर निकले ‘प्रबन्धक’ से कुछ अधिक योग्य होते हैं. क्योंकि आमतौर पर प्रबन्धन ‘व्यवस्था अनुकूलन’ के प्रयास तक सीमित रहता है. लेकिन एक मन्त्रक प्रबन्धक से बढ़ कर इसलिए हो जाता है क्योंकि वह अनुकूल व्यवस्था को ‘कूल’ तरीके से लक्ष्य तक पहुँचा कर ही दम लेता है. क्योंकि जो सब कुछ जानने वाला है, वह सिद्धान्तत: सब कुछ कर सकने में सक्षम होगा ही. उदाहरण के तौर पर अगर कोई बड़ी कम्पनी हो, जिसमें पचास-साठ हज़ार लोग काम करते हों, जिसके शेयर के भाव बहुत बढ़े हुए हों, वहाँ के चेयरमैन को कोई नयी योजना अमल में लानी हो, तब उस स्थिति में बहुधा समस्या यह प्रकट होती है कि कम्पनी के मातहत कर्मचारी और यहाँ तक कि निवेशक भी आसानी से किसी भी परिवर्तन को नहीं स्वीकारते. कारण यह होता है कि किस्म-किस्म के ज्ञानी हर जगह पाये जाते हैं. मेरा ज्ञान तुम्हारे ज्ञान से कम कैसे? अब इसके जवाब के लिए पचास-साठ करोड़ रुपये दे कर पेशेवर ‘मन्त्रक’ की सेवाएँ ली जाती हैं. अब मन्त्रक स्वीडन से खरीदी कोट-पतलून पहन कर कुछ लच्छेदार अंग्रेजी में हर किसी को मुलायम शब्दों से ऐसे अपमानित करने में सिद्धहस्त होते हैं कि लोग वाह-वाह कर उठते हैं.
सबको प्रेमपूर्वक अपमानित करने के बाद मन्त्रक वही बातें बोलते हैं जो कि चेयरमैन ने उन्हें पहले से बता रखी होती है. अब पचास करोड़ की फीस दे कर चेयरमैन अपने मन की योजना अपनी ही विशाल कम्पनी में मन्त्रक के हवाले से लागू करवा पाते हैं. लेकिन खबरदार, यह जितना आसान लगता है वह खेल आसान न हो कर बहुत जोखिम भरा है. नीतिकुशल और सर्वज्ञ मन्त्रक को ऐसे सारे काम करने और कराने होते हैं. किसी अध्यक्ष के बच्चे का नामी-गिरामी स्कूल में एडमीशन, किसी मार्केटिंग वाले के भतीजे का अमरीका के बड़े कॉलेज में एडमीशन, किसी लालची किरानी के बेटी के लिए आवास की सुविधा वाली सरकारी नौकरी, किसी राजनेता के काले पैसे को धड़ाधड़ सफेद बनाना – यह सब आसान काम नहीं है. लेकिन मन्त्रक सब कुछ कर लेते हैं!
‘कन्सल्टेन्ट’ या ‘मन्त्रक’ हर तरह के काम करने में कुशल होते हैं. दरअसल देखा जाय तो पेशेवर मन्त्रक ‘भारतीय प्रबन्धन संस्थान’ से पढ़ कर निकले ‘प्रबन्धक’ से कुछ अधिक योग्य होते हैं. क्योंकि आमतौर पर प्रबन्धन ‘व्यवस्था अनुकूलन’ के प्रयास तक सीमित रहता है. लेकिन एक मन्त्रक प्रबन्धक से बढ़ कर इसलिए हो जाता है क्योंकि वह अनुकूल व्यवस्था को ‘कूल’ तरीके से लक्ष्य तक पहुँचा कर ही दम लेता है. क्योंकि जो सब कुछ जानने वाला है, वह सिद्धान्तत: सब कुछ कर सकने में सक्षम होगा ही. उदाहरण के तौर पर अगर कोई बड़ी कम्पनी हो, जिसमें पचास-साठ हज़ार लोग काम करते हों, जिसके शेयर के भाव बहुत बढ़े हुए हों, वहाँ के चेयरमैन को कोई नयी योजना अमल में लानी हो, तब उस स्थिति में बहुधा समस्या यह प्रकट होती है कि कम्पनी के मातहत कर्मचारी और यहाँ तक कि निवेशक भी आसानी से किसी भी परिवर्तन को नहीं स्वीकारते. कारण यह होता है कि किस्म-किस्म के ज्ञानी हर जगह पाये जाते हैं. मेरा ज्ञान तुम्हारे ज्ञान से कम कैसे? अब इसके जवाब के लिए पचास-साठ करोड़ रुपये दे कर पेशेवर ‘मन्त्रक’ की सेवाएँ ली जाती हैं. अब मन्त्रक स्वीडन से खरीदी कोट-पतलून पहन कर कुछ लच्छेदार अंग्रेजी में हर किसी को मुलायम शब्दों से ऐसे अपमानित करने में सिद्धहस्त होते हैं कि लोग वाह-वाह कर उठते हैं.
सबको प्रेमपूर्वक अपमानित करने के बाद मन्त्रक वही बातें बोलते हैं जो कि चेयरमैन ने उन्हें पहले से बता रखी होती है. अब पचास करोड़ की फीस दे कर चेयरमैन अपने मन की योजना अपनी ही विशाल कम्पनी में मन्त्रक के हवाले से लागू करवा पाते हैं. लेकिन खबरदार, यह जितना आसान लगता है वह खेल आसान न हो कर बहुत जोखिम भरा है. नीतिकुशल और सर्वज्ञ मन्त्रक को ऐसे सारे काम करने और कराने होते हैं. किसी अध्यक्ष के बच्चे का नामी-गिरामी स्कूल में एडमीशन, किसी मार्केटिंग वाले के भतीजे का अमरीका के बड़े कॉलेज में एडमीशन, किसी लालची किरानी के बेटी के लिए आवास की सुविधा वाली सरकारी नौकरी, किसी राजनेता के काले पैसे को धड़ाधड़ सफेद बनाना – यह सब आसान काम नहीं है. लेकिन मन्त्रक सब कुछ कर लेते हैं!
कैसे?
क्योंकि वह सब कुछ जानते हैं. आने वाले खतरे, खतरे से निकलने की तरकीबें. दुश्मन
और दुश्मन के दाँत खट्टे करने का फार्मूला. सब कुछ का अर्थ है सब कुछ.
शौनक जी नाम के एक गृहस्थ, गाजियाबाद से कुछ दूरी पर, एक बड़ा प्राइवेट
इंजीनियरिंग कॉलेज चलाते हैं. वहाँ दस हजार विद्यार्थी अध्ययनरत हैं. वृद्धावस्था
की ओर अग्रसर शौनक जी को मध्यवय के अंगिरा जी ने अपना प्रभुत्व दिखाते हुए सरल
इशारों पर सस्ती दरों पर जमीन मुहैय्या करवाई थी. अब इस असम्भव काम को सम्भव हुआ
देख कर शौनक जी अंगिरा से अभिभूत थे. इसलिए अंगिरा जी से मिल कर वह बहुत कुछ पूछना
चाहते थे. लेकिन मन्त्रक इतनी जल्दी किसी के पहुँच में आते नहीं.
एक
सावन की सुबह शौनक जी अंगिरा जी के घर आ धमके, जैसे काले बादल बिना चेतावनी के
बरसने लगते हैं कुछ वैसे ही. अब अंगिरा जी की पत्नी अग्निशिखा ने उन्हें बहुत
समझाया कि साहब व्यस्त है, पर शौनक जी अपनी पत्नी की दोस्ती की दुहाई दे कर
अग्निशिखा से ही पैरवी करवाने आए थे. कहते हैं कि विवाह के उपरान्त दस साल बिताने
के पश्चात पत्नी में पति के गुण और पतियों में पत्नी के नखरे समाहित होने लगते हैं.
अग्निशिखा जी इस तरह कुछ-कुछ ब्रह्मवादिनी हो गयी थीं और अंगिरा जी कुछ नखरे वाले.
और कहीं हो न हो, भारतवर्ष में पैरवी की बहुत चलती है. फिर अग्निशिखा जिद पर अड़
जाये तो अंगिरा जी की क्या बिसात ! इस तरह अंगिरा जी बैठक में आ कर विराजमान हुए.
शौनक जी ने उनसे विनीत भाव में पूछा, “भगवन! किसके जान लिये जाने पर यह सब कुछ जान
लिया जाता है?”
अब
यह था ‘ट्रेड सीक्रेट’, मतलब ‘व्यापार रहस्य’! इसको सीधे-सीधे बता दिया जाता तो मन्त्रक
मन्त्रक कैसे होते? स्थिति यह थी कि न हाँ कहा जा सकता था, और न ही न कहा जा सकता
था. झूठ बोलने का सवाल नहीं, जिज्ञासु प्रत्यक्ष हो तो टाला भी कैसे जाय?
तब उन्होंने सोफे पर बैठे किञ्चित विमूढ़
शौनक से अंगिरा जी ने संक्षिप्त में कहा, “ब्रह्मवेत्ताओं ने कहा कि जानने योग्य दो
विद्याएँ हैं – एक परा और दूसरी अपरा. आप इस लौकिक जगत में जो कुछ भी जान रहे हैं,
इंजीनियरिंग, विज्ञान, इतिहास, गणित, गीत- सङ्गीत, भूगोल, भाषा, व्याकरण, छन्द और
ज्योतिष – यह अपरा है और जिससे अक्षर परमात्मा का ज्ञान होता है वह परा है. जिस
प्रकार मकड़ी जाले को बनाती और निगल जाती है, जैसे पृथ्वी में औषधियाँ उत्पन्न
होती हैं और जैसे सजीव पुरुष से केश और रोएँ उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार उस अक्षर
से यह विश्व प्रकट होता है. उसको जान लेने से सब कुछ जान लिया जाता है.“
यह
कह कर अंगिरा जी उठ कर वापस अन्दर चले गये. अग्निशिखा ने भौचक्के रह गये शौनक को
कनखियों से देखा और फिर शून्य में देखते हुए सारगर्भित टिप्पणी की – “ऐसे में
शुद्ध सत्य कह देना चाहिए. शत-प्रतिशत सत्य किसी की समझ में आता नहीं!”
शौनक
जी अभी तक वक्तव्य से नहीं उबरे थे, यह टिप्पणी उन पर भारी पड़ी. उन्होंने
अग्निशिखा की तरफ देख कर पूछा, “अंगिरा जी ने क्या कहा? मुझे कुछ समझ नहीं आया.“
अग्निशिखा जी ने टोका, “यह आपने सिर क्यों मुण्डाया है? सब खैरियत तो है?”
शौनक जी ने अपनी टोपी उतार कर बगल में रखी
और बोले, “हमारे चाचा जी कल तड़के गुज़र गये. इसलिए ...!”
“सिर मुण्डा हुआ था इसलिए इतना सुन पाए वरना यह भी सम्भव नहीं था. लेकिन यह बताइए
कि यह सवाल आपको सूझा कैसे?” अग्नीशिखा जी ने कुरेदा.
"हम समझ रहे थे कि अंगिरा सर कुछ ऐसा बताएँगे कि भारत में नए ‘डेटा सेंटर’
बना दिया जाना चाहिए. सारे सोशल मीडिया का डेटा ले कर हर आदमी के बारे में पता चल
जाएगा. इनकी बात से तो ऐसा लगता है कि यह सीधे ‘परमात्मा’ की बात कर रहे हैं. अब
ये कोई उम्र है परमात्मा के बारे में जानने की? जो प्रत्यक्ष नहीं नजर आए, वह कैसा
ज्ञान?”
अग्निशिखा
बोली, “ऐसा लगता है आपका उद्देश्य कुछ और था. अब सब कुछ जान कर आप क्या करना चाहते
हैं?”
शौनक
जब चुप रहे तब फिर अग्निशिखा बोली, “कुछ ऐसा जिससे आपका नाम हो. है न?” यह सुन कर
शौनक जी मुसकुरा उठे, जैसे उनकी चोरी पकड़ी गयी.
“जानती थी! इसमें कोई बुराई नहीं है. यह तो प्रसिद्ध है कि जिसने जीवन के पहले पड़ाव में विद्या अर्जित नहीं की, दूसरे पड़ाव में धन अर्जित नहीं किया, तीसरे पड़ाव में कीर्ति अर्जित नहीं की, वह चौथे पड़ाव यानी संन्यास में क्या करेगा? यह अक्षर परमात्मा को जानने का काम तो चौथे पड़ाव का है. अभी देखिए, आपने बहुत धन कमा लिया. अब अगले पड़ाव में आपको कीर्ति चाहिए. राजनीति में जाना चाह रहे हैं?”
“आप तो सब कुछ जानती है! आप बड़ी
बुद्धिमान हैं.” शौनक जी ने विनीत भाव से दोनों हाथों को जोड़ कर कहा जिसको देख कर
अग्निशिखा मुसकुरा कर बोलीं, “यहीं तो आप गलती कर रहे हैं. बुद्धि से ही सब कुछ
नहीं जाना जाता.“
“छोटा मुँह बड़ी बात हो जाएगी.“ शौनक ने
अपना मुण्डा हुआ सिर खुजाया और कहा, “हम अपने भ्रम को, अज्ञान को भी बुद्धि से ही
जानते हैं. किसी की बतायी बात, कुछ विचारा हुआ, कुछ प्रत्यक्ष देखा हुआ – सब कुछ
बुद्धि से ही अनुमोदित हो कर निश्चयात्मक ज्ञान बनता है. इसलिए बुद्धि के अलावा
कुछ भी जानने का कोई तरीका नहीं!”
अग्निशिखा मुस्कुराती रही. तब शौनक और भी गम्भीर हो कर बोले, “यहाँ तक कि स्वप्न
तक का ज्ञान मन से होता है और वह मन से बुद्धि तक जा कर निश्चित होता है. इसलिए हम
सब कुछ बुद्धि से ही जान सकते हैं.“ अग्निशिखा ने ना में अपनी मुण्डी घुमायी.
“आप
गलत हैं.“ शौनक जी की कमर तन गयी और वह अपनी विजय को ले कर आश्वस्त हो उठे थे. तब
अग्निशिखा ने धिक्कारते हुए कहा, “आप सब कुछ जानना चाहते हैं. पहले कुछ जानने
योग्य बन जाइए, फिर सब कुछ जानने की पात्रता आएगी.“
“तो मैं गलत हूँ?” शौनक जी कुछ ढीले पड़े.
“कोई भी सच्चा कवि बता देगा कि आप गलत हैं. हालांकि कविता परा विद्या नहीं है, पर कहते हैं कि वाणी का पहला उन्मेष बुद्धि के परे होता है. कोई सच्चा कवि नहीं जानता है कि वह विचार या कोई शब्द उसके हृदय में कहाँ से आ गये!”
शौनक जी का चेहरा कुम्हला गया. उन्होने कहा, “बात कहाँ से कहाँ पहुँच गयी! मैं तो
इस विचार से आया था कि पूछूँ कि भारत में सारा डेटा सेन्टर लाने के लिए राजनेताओं
में कोई जागरूकता है या नहीं?”
“सारी सूचनाओं का क्या करेंगे? किसी की निगरानी रखनी है? कोई भाग रहा है? किसी के
प्रेम विवाह में अड़चन डालनी है?”
“अजी कहाँ?” शौनक जी ने हँसते हुए कहा, “वह ज़माना गुज़र गया कि लोग भाग कर शादी
करते थे. अब सबकी रजामंदी से ही शादी हो जाती है. समाज में बहुत सुधार आ गया है.
आपने पिछले बीस सालों में कभी ऐसा सुना भी है कि किसी ने भाग कर शादी की हो?”
यह
सुनते ही अग्निशिखा जी हँसने लगी. फिर जब थमीं तो बताया, “ऐसी एक शादी मैंने करवाई
है. बड़ी दिलचस्प शादी थी.“ शौनक जी ने खिड़की से बाहर झाँक कर देखा और बोले,
“बहुत तेज बारिश हो रही है. आप सुनाइए वो दास्तां.“
अग्निशिखा
ने अंदर नौकर को बेसन के पकौड़े बनाने का आदेश दिया. अंगिरा जी घूमते हुए बैठक में
आये. अग्निशिखा ने अंगिरा जी की बाँह पकड़ कर उन्हें बगल में बिठाया. “तुम भी सुनो
जी. हमने किस तरह अन्नपूर्णा और अभिजित की शादी की करवाई थी.“
अंगिरा
जी की आँखें फैल गयी, “बाप रे! क्या दिन थे!”
द्वितीय खण्ड :
अधिष्ठान
बाहर भीषण बारिश देखते हुए अग्निशिखा ने कहा, “ऐसी-ही रिमझिम,
ऐसी फुहारें, ऐसी-ही थी बरसात!” खोये हुए अंगिरा ने जोड़ा, “सत्रह साल हो गए. तब
अनिरुद्ध और अनिकेत कितने छोटे थे!”
“उस
दिन ऐसी ताबड़तोड़ बरसात में हमारे घर की घण्टी बजायी सामने वाले फ्लैट में रहने
वाले ओमी ने. सामने वाले फ्लैट में तीन लड़के रहा करते थे – प्रणव, अभिजित और अगम
ब्रह्म. तीनों ने कॉलेज से निकल कर नौकरी करना शुरू ही किया था.“
अग्निशिखा
को टोक कर शौनक ने पूछा, “अभी तो आपने कहा था कि ओमी सामने रहता था. और आपने उसी
का नाम नहीं लिया. क्या वहाँ चार लड़के रहते थे?”
टोके
जाने से क्षुब्ध हो कर अंगिरा ने कहा,
“जानने
वाला बहुत से अर्थों को जानता है. बारिश जानता है, बादल जानता है. फूल पत्तियाँ
जानता है. एक ही फूल के कई-कई नामों को जानता है. सब कुछ जानने वाले में आश्रित है.“
अग्निशिखा
ने भूल सुधारी,
“मैंने बताया नहीं. मेरी कहानी में सभी पात्रों के नाम ‘अ’ से आरम्भ होते हैं. इसलिए जब प्रणव से मुलाकात हुयी, तो मैंने कहा कि तुम्हारे बाकी साथी के नाम ‘अ’ से और तुम ‘प्रणव’ कैसे? फिर उसने बताया कि उसके घर का नाम ओमी है.“
शौनक
जी को अग्निशिखा के कथन की सत्यपरकता पर संशय हुआ, पर क्या कहते? अग्निशिखा जी ने
आगे कहना चालू रखा-
ओमी
बड़ा परेशान लग रहा था. कुछ कहना चाह रहा था पर उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि
कहे कैसे? बिना
कहे वापस लौट भी नहीं सकता था, क्योंकि
बात करनी है यह तय कर के ही आया था. मैंने उसकी दशा देख कर तरस खा कर कहा– यह सत्य
है कि बुद्धिमानों ने कर्मों को मन्त्र में देखा था. तुम्हारे मन में अगर कोई सत्य
कामना है उसका नियम से आचरण करो. इस लोक में शुभ कर्म का यही मार्ग है. बताओ,
कौन सी बात खाये जा रही है?
इस लोक में ऐसा क्या है जिसे जाना नहीं जा
सकता?
ओमी
ने कहा – “मुझे अपने लिए चिन्ता नहीं है. अपने लिए चिन्ता करने से क्या फायदा. मैं
अभिजित को समझा-समझा कर थक गया पर यह मानता ही नहीं.“
मैंने
पूछा – "कौन लड़की है? कहाँ
की है?"
ओमी
एकदम से चौंक गया और हैरानी से पूछ बैठा, "आपको
कैसे पता कि ये लड़की का मामला है?"
"बच्चू!
इस उम्र में कौन दोस्त के लिए इतना परेशान होता है जब तक कि कोई खूबसूरत कारण न हो?
कौन लड़की है?
कहाँ मिली?"
ओमी
ने गहरी साँस ली और बोला,
"भाभी जी, क्या बताएँ! हरिशंकर परसाई जी कह गए हैं कि तरुण-तरुणी के मिलने का उचित कारण बेवकूफ ही ढूँढा करते हैं. कहाँ मिले, कैसे मिले, इसमें कुछ नहीं रखा है. बस मिल गए और प्यार हो गया. लड़की ने अठारह साल पूरे कर लिए हैं. अभी सेंट स्टीफन्स कॉलेज, जो कि इतना मशहूर कॉलेज है, वहाँ पढ़ रही है. अपना अभिजित मद्रासी है. मेरा मतलब है कि तमिल है. इतने साल यहाँ रह गया तो हिन्दी भी अच्छी आ गयी है. यहाँ काम करता है और दोनों ने एक दूसरे को पसन्द कर लिया."
"फिर
क्या चाहते हो?"
मैंने पूछा.
"दिक्कत
यह है कि अभिजित की छोटी-मोटी नौकरी है. लड़का प्रतिभाशाली है. अब कोई नौकरी शुरू
करेगा तो क्या करोड़पति थोड़े ही हो सकता है जब तक उसके खानदान वाले पहले से ही
अमीर न हों. यहाँ अन्नपूर्णा के पिता जी बड़े रसूख वाले आदमी हैं. वे मंत्रालय में
बड़ी ऊँची पोस्ट पर हैं. उनके चाचा दिल्ली पुलिस में बड़े ओहदे पर हैं. ग्रेटर
कैलाश में उन लोग का बड़ा बंगला है. दिल्ली में किसी के पास बंगला हो,
समझ ही सकती हैं वह कितना बड़ा आदमी होगा.
अब प्यार तो कर लिया, इसके
बाद प्यार को भूलने के अलावा कोई रास्ता नहीं है."
मैंने
पूछा, “इससे यह समझ नहीं आया कि हम क्या करें?”
“देखिए,
हम सब जानते हैं कि भैया मन्त्रक हैं. एक कन्सल्टेंट क्या नहीं कर सकता है? वही
रास्ता दिखाएंगे. उनसे पूछिए कोई हल?” ओमी विनती करने लगा.
“मन्त्रकों
का एक उसूल है, वे बिना मानदेय लिए कोई काम नहीं करते?” मैंने भी सीधे-सीधे बता
दिया.
“हम
गरीब लड़के क्या दे सकते हैं आपको?” ओमी ने कहा, “यह बात मैं अभिजित और अगम ब्रह्म
को भी कहूँ, तो भी हम सब चन्दा कर के कुछ हज़ार ही आपको दे पाएंगे. लेकिन भैया ये
काम कर देंगे तो हम सबकी दुआएँ लगेंगी आपको.”
“देखो, यह काम हो पाएगा या नहीं इसकी आश्वस्ति तो भैया ही देंगे. मैं कहाँ से दे सकती हूँ? तुम इतनी जिद कर रहे हो तो उनसे बोलूँगी. लेकिन उनको काम के लिए राजी करना टेढ़ी खीर है. इसलिए तुम्हें कुछ मन्त्र देती हूँ. इसको समझ कर प्रयोग करना.“
“देखो, यह काम हो पाएगा या नहीं इसकी आश्वस्ति तो भैया ही देंगे. मैं कहाँ से दे सकती हूँ? तुम इतनी जिद कर रहे हो तो उनसे बोलूँगी. लेकिन उनको काम के लिए राजी करना टेढ़ी खीर है. इसलिए तुम्हें कुछ मन्त्र देती हूँ. इसको समझ कर प्रयोग करना.“
“मन्त्र?
कौन सा मन्त्र?” ओमी ने पूछा.
मैंने उन्हें बताया कि मन्त्र का मतलब ‘सलाह’ भी होता है. जानने वाले हर अर्थ को जानते हैं.
अंगिरा ने टोका – “अग्निशिखा, तो यह तुम्हारी चाल थी? तुमने ही उनको सिखाया था.“
शौनक
ने पूछा – “क्या सिखाया था?”
“तुम जो मिल गए हो, तो ये लगता है, कि जहाँ मिल गया है. “ अभिजित ने उस बरसात की शाम को अंगिरा जी को बताया कि यही पंक्तियाँ उसने पहली मुलाकात में अन्नपूर्णा को सुनाई थी. अंगिरा जी यह सुन कर पिघल गए थे क्योंकि यह पंक्तियाँ उन्होंने मुझे यानी अग्निशिखा को पहली मुलाकात में सुनायी थी. वे मेरे पास आये, क्योंकि मैं तब अन्दर काम कर रही थी. कहने लगे – “सामने वाले फ्लैट में जो अभिजित रहता है, वह बड़ी मुसीबत में है.“
“कौन सी मुसीबत?” मैंने अनजान बनते हुए पूछा.
“बेचारा एक बड़े नौकरशाह की बेटी से प्रेम
करता है. लड़की भी उसको चाहती है.“
“फिर दिक्कत क्या है?” मैंने सूखे कपड़ों
को तह लगाते हुए पूछा.
“ये
कहानी बड़ी अजीब कशमकश से गुज़र रही है. तुम जो मिल गये हो, तो ये लगता है के
जहाँ मिल गया है से कहानी अब चलो
एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों
के रास्ते पर चल पड़ी है. मुहब्बत की हार होने वाली है.“
वे
बड़े परेशान थे.
मैंने
फिर पूछा, “फिर दिक्कत क्या है?”
अंगिरा
जी पलंग पर धम्म से बैठे. “तुम इन नौकरशाहों को नहीं जानती. वे किसी भी हाल में
अपनी बेटी की शादी मामूली लोग से नहीं करने देंगे.“
मैंने
फिर कहा, “तो दिक्कत क्या है?”
“मैं
मन्त्रक हूँ. लोग समझते हैं कि दुनिया में हर तरह की समस्या का हल मेरे पास है. अब
हर कुछ जानने का ठेका मैंने ले रखा है. लेकिन यह परेशानी क्यों मोल लूँ?”
“बात
तो सही है. बिना कुछ लिए तुम कुछ करते नहीं. मना कर दो.“ मैंने सुझाया.
“तुम
ठीक कह रही हो. लेकिन, देखो. तुम तो जानती ही हो कि ऊपर से मैं सख्त हूँ, अन्दर से
नरम. अंदर से मैं ठण्डा हूँ ऊपर से गरम.“
मैंने
कहा, “यह बात उन लड़कों को थोड़े ही पता है. जा कर मना कर दो. तुम्हें दिक्कत हो
रही है तो मैं मना कर देती हूँ.“
यह
कह कर मैं बैठक में उनके साथ गयी कि तभी दरवाजे की घण्टी बजी. मैंने दरवाजा खोला,
सामने सिर मुण्डाये हुए अगम ब्रह्म और ओमी निरीह से आ कर खड़े हो गये. उन दोनों ने
वहीं दूर से ही भौचक्के अंगिरा जी को नमस्ते किया. अन्दर सोफे पर अभिजित के बगल
में बैठ कर बोले, “ईश्वर से मनौती माँगी है कि अभिजित और अन्नपूर्णा का विवाह हो जाये.
हम दोनों ने अपने बाल ईश्वर को अर्पित कर दिये हैं.“
दोनों के घुटे हुए सिर को देख कर अंगिरा जी बड़े भावुक हो उठे. “बैठो, बैठो. तुम्हें नहीं पता कि तुमने क्या किया है. मैंने कभी जवानी में इसी तरह मन्नत माँगते हुए तिरुपति के मन्दिर में सिर मुण्डवाया था और अपनी रेशमी जुल्फें गँवा दी थी. कोई इस तरह सिर मुण्डवाता है तो समझो मुझे मेरी दक्षिणा मिल गयी. यह प्रसिद्ध है कि विचारशील लोग मिली हुयी दक्षिणा में द्रव्य नहीं, भाव देखते हैं. अब बताओ क्या चाहते हो?”
“अन्नपूर्णा
से विवाह. लड़की बालिग है.“ अभिजित ने कहा.
मैंने
पूछा, “तो दिक्कत क्या है?”
“उसके
माता-पिता अनुमति नहीं देंगे.“ ओमी और अगम ब्रह्म ने कहा.
“इसका
हल निकालना पड़ेगा.“ अंगिरा जी सोच में डूब गए.
मैंने
गुनगुनाया – “प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया.“
मेरा
इशारा समझ कर अंगिरा जी बोले,
“लड़की
भगा तो लेंगे, लेकिन अन्नपूर्णा के परिवार के बारे में पता करना पड़ेगा. कहीं लेने
के देने न पड़ जाएँ. हवन करने का नियम होता है कि जब उसमें ज्वाला उठती है तो ठीक
बीच में आहुति दी जाती है. अगर ठीक विधि से यह न किया गया तो हवन उलटे सात
पीढ़ियों का नाश कर देता है.“
“अब इन्होंने आपका आसरा लिया है, तो निभाना तो पड़ेगा ही.“ मैंने कहा. मेरी बात सुन कर अभिजित, ओमी और अगम ब्रह्म के चेहरे खिल उठे.
अभिजित ने अन्नपूर्णा से अंगिरा जी को मिलाया. अन्नपूर्णा का कहना था कि अगर उसके घरवालों को इसकी भनक लग गयी तो जल्द से जल्द उसे दिल्ली छोड़ना पड़ जाएगा. क्या पता देश भी छोड़ना पड़ जाए. अमरीका में शायद किसी कॉलेज में दाखिला करवा देंगे.
“इसके
लिए भी उन्हें मेरे जैसे मन्त्रक की सहायता लेनी पड़ जाएगी. खुद से अपना काम करने के
आपके पिता आदी नहीं हैं. मैंने उनके साथ काम किया है. मुश्किल यह है कि आपके
पिताजी मुझसे व्यक्तिगत दुश्मनी मोल लेंगे.“ अंगिरा जी ने कहा.
दोनों
चुप रहे. अठारह साल की लड़की क्या कहे? बाईस साल का लड़का क्या कहे? इतनी दुनिया
किसने देखी है! तभी डर के मारे चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों गाना गा रहे थे.
अब शादी होनी थी तो कानूनी तरीके से होनी थी. शुक्रवार, आठ अगस्त की तारीख पक्की की गयी. उस दिन अगम ब्रह्म और ओमी दोनों ही दिल्ली से बाहर थे. आर्य समाज मन्दिर में सावन-भादो जैसे महीने नहीं देखते हैं. वहाँ वैदिक रीति से कभी भी शादी हो जाती है. मैंने अच्छी-सी कांजीवरम की साड़ी पहनी, जो मेरे सास ने मुझे तोहफे में दी थी. अंगिरा जी कुर्ते धोती में मुझे ले कर आठ तारीख को सुबह १० बजे आर्य समाज मंदिर पहुँचे.
जब
अग्नि वेदी प्रज्ज्वलित हुयी, तब अंगिरा जी ने मुझ अग्निशिखा से कहा –
“देखो,
वह अग्नि की सात लपलपाती जिह्वाएँ हैं. अग्नि बहुत पवित्र मानी जाती है. कहते हैं
कि यज्ञ में जो इन देदीप्यमान अग्निशिखाओं में यथासमय आहुतियाँ देता है उसे ये
आहुतियाँ सूर्य की किरणें हो कर वहाँ ले जाती हैं जहाँ देवताओं के एकमात्र स्वामी
का अधिष्ठान है. वे दीप्तिमति आहुतियाँ - ‘आओ आओ, यह तुम्हारे अच्छे कर्मों से
प्राप्त हुआ पवित्र ब्रह्मलोक है’ - ऐसी प्रिय वाणी कह कर यजमान का अर्चन करती
हुयी उसे ले जाती हैं.“
एक-डेढ़ घंटे में विवाह हो गया. दोनों ने शादी के पश्चात फोटो खिंचवायी. हमने विवाह प्रमाण-पत्र पर बतौर साक्षी अपने हस्ताक्षर किए.
अभिजित और अन्नपूर्णा एक दूसरे को मोगरे में गुथे सुर्ख लाल गुलाब की माला पहना कर प्रफ्फुलित थे. मैंने लाल साड़ी में लिपटी लाल चूड़ियाँ पहनी अन्नपूर्णा का माथा चूमा और शगुन में नेग देते हुए सीख दी “अभी मन्दिर के बाहर गरीबों को दान देना. यह शुभ होता है.“ मैंने देखा कि अंगिरा जी इस कार्यक्रम से बहुत प्रसन्न नहीं थे, हालाँकि उन्होने वर-वधू को आशीर्वाद दिया. हम वापस चले आए.
घर
आ कर कुछ दिन अंगिरा जी अनमने से रहे. मैंने पूछा कि क्या बात है. किसलिए इतने
परेशान हैं जनाब? अन्नपूर्णा के पिता से डर लग रहा है?
उन्होंने
कहा,
“इन
बच्चों की क्या दशा है? संसार के बारे में कुछ पता नहीं है. अविद्या के भीतर स्थित
हो कर भी अपने आप बुद्धिमान बनने वाले बार-बार कष्ट सहन करते हुए भटकते रहते हैं
जैसे अन्धे के सहारे अन्धा ही रास्ते पर चले. अभिजित को पता नहीं है कि कितनी
परेशानी मोल ली है. अभी विवाह कर लिया है और सोच रहे हैं कि हम कृतार्थ हो गये,
ऐसा अभिमान कर रहे हैं. किन्तु ज्ञान न होने के कारण ऐसे लोग बार-बार दुख से आतुर
हो कर नीचे गिर पड़ते हैं. शादी की है, इस खुशी में पार्टी कर रहे हैं. किसी ने कह
दिया इसलिए दोनों पति-पत्नी दान देने का पूर्त कर्म कर रहे हैं. लेकिन क्या इतना
काफी है? जो चाहिए वो काम करना, जो बताया है वह काम करना, इसके अलावा दुनिया में
और भी बहुत कुछ है. इतना काफी नहीं है. अपने इष्ट और पूर्त कर्म को ही श्रेष्ठ
मानने वाले मूर्ख सचमुच श्रेय को नहीं जानते. वे कुछ दिन भोग तो करते हैं फिर हीन
अवस्था को प्राप्त होते हैं. उसे क्या लगता है कि उसके ससुर और सास इतनी आसानी से
मान जाएंगे? इस शादी की दलील को मानेंगे? इसकी भनक लगते ही रातोंरात अन्नपूर्णा
गायब कर दी जाएगी. और अभिजित की क्या दुर्गति होगी, यह भी कहना मुश्किल है!”
“आप
चाहते हैं कि सभी विवाह न करें? अपने इष्ट काम न करें?”
मेरे
प्रतिवाद का खण्डन करते हुए उन्होंने कहा,
“ऐसा
होता तो मैं उनकी शादी ही नहीं कराता. ज्ञानी आदमी के लिए कौन-सा काम कठिन है?
लेकिन अपूर्ण ज्ञान का क्या कहा जाय? किन्तु जो ज्ञानी हैं वे वन में रहने वाले,
शान्त स्वभाव वाले विद्वान, जो भिक्षा से भी अपना जीवन गुजार लें, तप और श्रद्धा
से अपना जीवन निर्वाह करें, वे सूर्य के मार्ग से वहाँ पहुँचते हैं जहाँ अमृत
पुरुष का अधिष्ठान है.“
मैंने
चिन्तित हो कर कहा, “आपको क्या लगता है? उन्हें क्या समस्या आने वाली है?”
“सीधी
सी बात है. विवाह कर तो लिया है लेकिन कितने दिन तक छिपाएंगे? अब बताना पड़ेगा और
उसके लिए उनकी कोई तैयारी नहीं है.“ वे लगातार बोलते रहे,
“विवाह
मात्र कर लेने से उसे निर्वेद नहीं मिलेगा. अंत: में उसे ज्ञान पाने के लिए गुरु
की शरण में विनयपूर्वक आना पड़ेगा. और जब वह पूर्णतया शान्त चित्त हो कर विद्वान
के पास पहुँचे तब उसे भली-भाँति उपदेश दिया जाएगा, जिससे वह ज्ञान पा सके.“
उनकी
बात सुन कर मैंने कहा, “यह आपने अभी जाना कि वह परेशान है! कैसे पता आपको? अपोहन?”
मुझे
नकारते हुए अंगिरा जी ने एक ही शब्द कहा था – “स्मरण!“
प्रथम
खण्ड :
व्यापन
शौनक जी ने
अग्निशिखा के बजाय अंगिरा जी से सीधे पूछा, “फिर क्या हुआ? क्या अन्नपूर्णा के
माँ-पिताजी ने इस विवाह को स्वीकार किया?”
मन्त्रक होने के
नाते अंगिरा जी बिना दक्षिणा लिए कुछ उत्तर देना पसन्द नहीं करते थे. परन्तु चुप
भी कैसे रहते, इसलिए उन्होंने गोल-गोल घुमा कर कहा,
“सौम्य, वह यह सत्य
है जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि से उसी के समान रूप वाली हजारों चिंगारियाँ प्रकट
होती हैं, उसी प्रकार अक्षर से विविध भाव उत्पन्न होते हैं और उसी में विलीन हो
जाते हैं. निश्चय ही दिव्य पुरुष आकार रहित हो कर समस्त जगत के बाहर और भीतर भी
विशुद्ध रूप में व्याप्त है, इसलिये अक्षर से भी अत्यन्त श्रेष्ठ हैं!”
अग्निशिखा ने
नाराज़ होते हुए कहा,
“आप भटकना चाहते
हैं तो उनसे पूछिए! जो आपको कुछ बता रहा है, उसकी आप कद्र नहीं करते!
फटकार सुन कर शौनक
जी ने क्षमा माँगते हुए कहा, “मेरा आशय आपको टोकना नहीं था. मेरी अधीरता को क्षमा
करें. लेकिन सत्य वाली बात समझ नहीं आयी.“
“ज्ञान की कसौटी तो
सच ही होती है. झूठा ज्ञान कोई ज्ञान होता है? कुछ भी जान लेने की कसौटी क्या होती
है? यही न कि आप उससे जुड़ी बातें या क्रियाएँ कर सकें.“ अग्निशिखा ने समझाया.
“वो गुंचा नहीं है
जो खिलना न जाने,
वो बाद-ए-सबा क्या
जो चलना न जाने,
वो बिजली नहीं जो
चमकना न जाने,
वो इन्सान नहीं जो
तड़पना न जाने, दिल
उसे दो जो जाँ दे दे,
जाँ उसे दो जो दिल
दे दे...,”
अंगिरा जी
हौले-हौले गुनगुनाने लगे.
“कुछ सरल शब्दों
में समझाइए.“ शौनक जी ने अनुनयपूर्वक कहा.
अग्निशिखा ने
फरमाया, “जानने वाले के पास ही ज्ञान होता है. ज्ञानी से ही ज्ञान है, अन्यथा कोई
ज्ञान नहीं.“
“यह कोई बात हुयी?”
शौनक जी उखड़ से गये. “हमें नहीं मालूम कि कैलाश पर्वत कहाँ है, इसका क्या मतलब कैलाश
पर्वत नहीं है?”
“आपको पहले भी कहा
है कि जानना चाहते हैं तो ठीक से सुनिए.“ अग्निशिखा जी ने लताड़ा, “कैलाश पर्वत
अपनी जगह पर है. हम नहीं जानते तो हमारे पास ज्ञान नहीं है. हमारे ज्ञान और अज्ञान
से पर्वत के होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. वो तो अपनी जगह है ही.“
“इसमें कौन सी बड़ी
बात है?” शौनक जी ने कुछ हताशा से कहा.
“है न!” अग्निशिखा मुस्कुरायी, “अगर आपके पास ज्ञान है कि अंधेरे कमरे में पानी का गिलास कहाँ रखा है, तो आप पानी पी सकते हैं. ज्ञान नहीं है तो नहीं पी सकते हैं.“
“मुझे इसमें कोई बड़ी बात नहीं लगती.“ शौनक जी के ऐसा कहने पर अग्निशिखा ने कहा, “ऐसा ही अभिजित का कहना था कि जब वह सोमवार ११ अगस्त की शाम को हमारे घर आया.“
“सिर मुण्डा कर.“ अंगिरा जी ने छत को ताकते हुए जोड़ा.
“एक और मुण्डक!”
शौनक ने हैरानी में कहा.
“जी हाँ. सोमवार की शाम को जब अभिजित अपना मुण्डा हुआ सिर ले कर हमारे घर के अंदर आया, तभी मैं समझ गयी कि अंगिरा जी की चिन्ता ठीक थी. अब यह भारी मुश्किल में पड़ गया है. बेचारा आकर धम्म से सोफे पर पसर गया. अंगिरा जी ने पूछा – ‘क्या बात है? क्यों परेशान हो? सिर क्यों मुण्डा लिया? अब क्या चाहिए तुम्हें? अपने ससुराल वालों को बता दिया?’
लुटे पिटे आदमी की तरह अभिजित धीरे-धीरे कहने लगा,
“मैंने सोचा था कि उसके इम्तिहान खत्म हो जाएँगे तो धीरे-धीरे सबको बताया जाएगा. शादी हो ही गयी, देर-सवेर सभी मान ही जाएँगे. लेकिन आज दुपहर में अन्नपूर्णा का फोन आया है कि उसके पिता जी का स्थानांतरण होने वाला है. दो हफ्ते में वे सभी मुम्बई चले जाएँगे.“
हम लोग चुपचाप उसे
सुनते रहे.
“अगर वह मुम्बई चली गयी, फिर तो सारा खेल खत्म. इतनी जल्दी मुझे मुम्बई में नौकरी मिलेगी नहीं. मैं अक्सर मुम्बई आ-जा नहीं सकता. उसके घर वाले उसकी शादी कहीं और कर देंगे.“
“फिर क्या चाहते
हो? जाओ, अपने ससुर जी से कहो कि लड़की दे दे तुम्हें.“ अंगिरा जी ने उसे झिड़का.
“अरे यह इतना आसान
नहीं. मैं एक बार उसके पिता जी से मिला था. उन्होंने मुझे सीधे शब्दों में कहा कि
मेरी बेटी से दूर रहो. फिर मैं उसकी माँ से भी मिला. उन्होंने भी अपने पति की बात
दुहरा दी. मेरे बेटी से दूर रहो. और तो और अन्नपूर्णा का एक खतरनाक मामा है. उससे
मेरी बात करने की हिम्मत नहीं हुयी अभी.“
“भाई, तब की बात और
थी. तब तुम लड़की के दोस्त थे. अब वह कानूनी तौर पर तुम्हारी बीवी है. तुम जा कर
ससुर जी से बोलो कि लड़की तुम्हारे हवाले कर दे.“ अंगिरा जी ने समझाया.
“आपको उसके सनकी मामा के बारे में नहीं पता. चालीस साल का हट्टा-कट्टा मुस्टंडा आदमी है. दिखने में गामा पहलवान है. पुलिस में नौकरी करता है. दोनों कानों में कुण्डल पहनता है. अगर उसे यह खबर लग गयी फिर मैं ही दुनिया से गायब हो जाऊँगा. सुना है वह एनकाउन्टर विशेषज्ञ है. अभी तक वह यह नहीं जानता कि अन्नपूर्णा और मेरी शादी हुयी है. जिस दिन पता चलेगा उस दिन न जाने क्या होगा?“ अभिजित ने अपनी मजबूरी का रोना रोया.
“तुम क्या चाहते हो
तुम्हें उसके बाप के चप्पल से बचाऊँ या उसकी माँ के बेलन से या उसके मामा की
पिस्तौल से?” अंगिरा जी ने फटकारा.
अभिजित को काटो तो खून नहीं. मैंने उसका हौसला बँधाया, “बताओ अभिजित, तुम्हारा मुख्य उद्देश्य क्या है?”
“अन्नपूर्णा के साथ
रहना.“ पीले पड़ गये अभिजित ने थूक निगलते हुए कहा.
“तो यह बोलो न!” अंगिरा जी ने आसानी से कहा, “तुम्हें चाहिए तो लड़की उठा लेते हैं.“
“क्या? ऐसा सम्भव
है?” अभिजित एकदम से चौंका.
“क्यों नहीं? तुम्हारी पत्नी है. तुम्हारे पास प्रमाणपत्र है. दुनिया की कौन ताकत पति-पत्नी को साथ रहने से रोकेगी?” अंगिरा जी ने रास्ता बताया.
“इसके लिए क्या करना होगा?” अभिजित ने पूछा.
“तैयारी करनी होगी. विचारना होगा. पहले अन्नपूर्णा से पूछ लो. वो इसके लिए तैयार है. इसके अलावा हमें पुलिस में शिकायत लिखानी पड़ेगी.“ अंगिरा जी ने कहा.
“क्या?” मैंने और अभिजित ने एकसाथ पूछा.
“यही कि तुम्हारे ससुर जी तुम्हारी पत्नी को साथ नहीं रहने दे रहे हैं. कल को अपहरण का केस तुम पर हुआ तो बचाव के लिए कुछ तो करना पड़ेगा.“
“लेकिन यह रिपोर्ट कहाँ लिखानी होगी? ससुर जी के घर के पास, यानी कि ग्रेटर कैलाश में? या फिर यहाँ नोएडा, उत्तर प्रदेश में?” अभिजित ने पूछा.
“जहाँ तुम रहते हो
वहीं. और पगले, अगर रिपोर्ट दिल्ली पुलिस के पास गयी, तो उसके चाचा और मामा अपने
हिसाब से तोड़-मरोड़ लेंगे. इसलिए बहुत बुद्धिमानी से काम करना होगा.“ अंगिरा जी
ने सावधान किया.
“मुझे सोचने का समय दीजिए. एक घंटे में मैं वापस आता हूँ.“ अभिजित हकला गया.
हुआ यह कि अन्नपूर्णा भी भागने को राजी हो गयी. अंगिरा जी ने अभिजित को फोन पर ही कहा कि अन्नपूर्णा को अपने घर के बाहर रात में बारह बजे खड़े रहने को कहे. बाकी की योजना बाद में.
करीब शाम सात बजे
अंगिरा जी ने अपना भेस बदला. तमिल ब्राह्मण पण्डित की तरह कमर के नीचे केवल धोती,
गले में पंचमुखी रुद्राक्ष की बड़ी लम्बी माला पहन ली. साथ ही बाँह, ललाट और कंधों
पर भस्म मला. माथे पर तिलक लगा कर वह अभिजित के आने का इंतज़ार कर रहे थे. जैसे
अभिजित आया, उन्होंने हिदायत दी कि मैं अब से एक तमिल पण्डित हूँ. या तो तमिल
बोलूँगा या शुद्ध संस्कृत. तुम्हें ही मोर्चा सम्भालना है.
“लेकिन आपको तमिल आती है?” अभिजित ने हैरानी से उनका भेस देख पूछा.
“ज्ञानी आदमी मौन
ही शोभित होते हैं. अब चलो.“ अंगिरा जी और अभिजित दोनों अभिजित की कार में थाने के
लिए निकले. संजोग था कि अगम ब्रह्म और ओमी दोनों अभी भी बाहर ही थे. नोएडा में
नजदीकी पुलिस थाने में जा कर अभिजित ने शिकायत दर्ज करायी,
“मेरे ससुर जी,
श्री अशोक अग्रवाल, जो कि मंत्रालय में काम करते हैं अपनी बेटी यानी मेरी पत्नी को
मुझे सौंपने से मना कर रहे हैं. इसलिए मैं यह गुहार लगाता हूँ कि मुझे मेरी पत्नी
दिलवायी जाय.“ साथ ही उसने अपनी शादी की फोटो और आर्य समाज मन्दिर का प्रमाण पत्र
दिखाया.
“ये कौन हैं?” पुलिस
दरोगा ने अंगिरा जी के बारे में पूछा.
अंगिरा जी फौरन मंत्र बोलने लगे,
“एतस्माज्जायते
प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च. खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी॥
अग्नीर्मूर्धा
चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग् विवृताश्च वेदाः. वायुः प्राणो हृदयं
विश्वमस्य पद्भ्यां पृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा ॥“
अभिजित ने दोनो
हाथों को जोड़ कर कहा,
“ये
हमारे पण्डित जी हुए. ये परमेश्वर की महिमा कह रहे हैं. इन्होंने कहा कि इस
परमेश्वर से प्राण उत्पन्न होता है, मन और समस्त इन्द्रियाँ भी, आकाश, वायु,
ज्योति, जल, और समस्त विश्व को धारण करने वाली पृथिवी भी. इन पण्डित जी के
आशीर्वाद से ही हमारा विवाह सम्पन्न हुआ. यह ही मुझे कानून की शरण में आने कह रहे
हैं. ये कहते हैं कि आप जैसे रक्षकों ने ही सारे संसार को धारण किया है. अग्नि ही
आपका मस्तक है, चन्द्रमा और सूर्य दोनों नेत्र हैं, सब दिशाएँ दोनों कान हैं और
ज्ञान ही आपकी वाणी है. आप ही सभी प्राणियों के रक्षक हैं. आप ही मुझे मेरी पत्नी
से मिलवा देंगे.“
दरोगा अपनी तारीफ
सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ.
“ठीक है, ठीक है.
हम सब की रक्षा करते हैं और बदले में हमें आम जनता की तरफ से गालियाँ ही मिलती है.
यही रक्षक का भाग्य है! यह पण्डित जी समझदार मालूम होते हैं. यह समझते हैं हम लोग
का सामर्थ्य. जाओ, पुलिस विभाग अपना काम करेगा. तुम्हारी पत्नी तुम्हें मिल जाएगी!“
इधर पत्नी को पाने के लिए अभिजित रात को करीब सवा ११ बजे अंगिरा जी के साथ अपनी गाड़ी में सवार हो कर घर से निकले. नोएडा से चल कर उत्तर प्रदेश-दिल्ली की सीमा पार कर के दोनों दिल्ली के ग्रेटर कैलाश कॉलोनी के पास पहुँचे. उन दिनों स्मार्टफोन नहीं हुआ करते थे, लेकिन मोबाइल फोन का चलन पकड़ चुका था. अभिजित लगातार अन्नपूर्णा से संदेश के माध्यम से सम्पर्क में बना हुआ था. गाड़ी उनके सोसाइटी से कुछ दूर पहले ही रोक वे सही समय का इंतजार करने लगे. जैसे ही घड़ी में ११:५५ बजे, अंगिरा जी ने कार की ड्राइविंग सीट सम्भाली और सीधे गेट पर पहुँचे.
इधर पत्नी को पाने के लिए अभिजित रात को करीब सवा ११ बजे अंगिरा जी के साथ अपनी गाड़ी में सवार हो कर घर से निकले. नोएडा से चल कर उत्तर प्रदेश-दिल्ली की सीमा पार कर के दोनों दिल्ली के ग्रेटर कैलाश कॉलोनी के पास पहुँचे. उन दिनों स्मार्टफोन नहीं हुआ करते थे, लेकिन मोबाइल फोन का चलन पकड़ चुका था. अभिजित लगातार अन्नपूर्णा से संदेश के माध्यम से सम्पर्क में बना हुआ था. गाड़ी उनके सोसाइटी से कुछ दूर पहले ही रोक वे सही समय का इंतजार करने लगे. जैसे ही घड़ी में ११:५५ बजे, अंगिरा जी ने कार की ड्राइविंग सीट सम्भाली और सीधे गेट पर पहुँचे.
दरबान ने पूछा, कहा
जाना है? बिल्कुल सही पता दिया गया! अशोक अग्रवाल बहुत बड़े आदमी थे. रात-बेरात
उनसे मिलने लोग अक्सर आया करते थे. गाड़ी का नम्बर नोट कर के उन्हें जाने दिया.
अभिजित रास्ता बता रहा था और अंगिरा जी धीरे-धीरे गाड़ी सरकाते हुए अन्नपूर्णा के
घर के पास पहुँचे. घर की सारी बत्तियाँ बंद थीं. एक छोटे से बैग में दो जोड़ी
कपड़े डाल कर, अन्नपूर्णा अपनी बाँहे में कस कर उसे दबोचे डरी-सहमी इधर-उधर ताकती
उनका इंतजार कर रही थी.
जैसे ही गाड़ी
रुकी, अभिजित ने उतर कर दरवाजा खोला. अन्नपूर्णा की आँखें खुशी से चमक उठी. अंगिरा
जी ने हिदायत द– “अन्नपूर्णा, तुम पीछे वाली सीट के नीचे एकदम सिर झुका कर छुप जाओ.
कोई तुम्हें देख न पाए.“
अन्नपूर्णा के छुपते
ही अंगिरा जी ने मंथर गति से गाड़ी बढ़ायी और चुपचाप वापस उसी गेट से बाहर निकल
आये. किसी ने अन्नपूर्णा को नहीं देखा.
सोसाइटी के बाहर
निकलते ही अंगिरा जी ने गाड़ी सरपट भगायी. अन्नपूर्णा ने सिर उठा कर दोनों से
पूछा, “कहाँ जा रहे हैं हम? तुम्हारे घर, नोएडा?”
“नोएडा नहीं,
जयपुर!” अंगिरा जी ने कहा.
“जयपुर?” दोनों एक साथ
चौंके.
“अभी यहाँ रहना
खतरे से खाली नहीं है. मैं तुम्हें वहाँ नहीं ले जा रहा. अभी हम लोग धौला कुआँ जा
रहे हैं. वहीं से बस पकड़ना और चले जाना जयपुर, अपना हनीमून मनाने के लिए.“
अंगिरा जी ने
ड्राइव करते हुए उनकी तरफ बिना देखे कहा.
अन्नपूर्णा ने खुशी
में खिलखिलाते हुए अभिजित को ऊँगली से कोंचते हुए छेड़ा, “ऐ..., तुमने अपना सिर
क्यों मुण्डवा लिया?”
“हम वहाँ कहाँ रहेंगे?”
अभिजित ने उसकी बात को अनसुना करते हुए पूछा.
“अरे मुण्डक! जरा
सोचो. वहाँ किसी होटल में ऐसे जा कर रुकोगे तो बहुत जल्दी पकड़े जाओगे. अभी
तुम्हारे ससुराल वाले तुम पर अपहरण का केस ठोकेंगे. एक काम करो, तुम दोनों अपना
फोन तुरंत बंद कर दो. खबरदार, जो इसको चालू किया. अभी एटीएम से दस हजार रुपए निकाल
कर कैश रख लो. जयपुर में मेरा एक दोस्त है. तुम्हारी बस जब जयपुर शहर में सिंधी
कैम्प पर रुकेगी, वह तुम्हारा इंतज़ार वहाँ कर रहा होगा. तुम दोनों को वह अपने
होटल में नकली नाम से रुकवा लेगा. वहाँ हफ्ते भर रह कर वापस आ जाना. तब तक बात
सुधर जाएगी. और सुनो, तुम्हारी यह कार वापस तुम्हें अपने घर की पार्किंग में खड़ी
मिलेगी.“
धौला कुआँ से पहले
रुक कर एक एटीएम से अभिजित ने पैसे निकाले. अन्नपूर्णा बार-बार अभिजित के मुण्डे
हुए सिर को देख कर हँस रही थी. पैसे निकाल कर ठीक से रख लेने के बाद अभिजित ने
भाव-विह्वल हो कर अंगिरा जी के पाँव छुए. ऐसे ही अन्नपूर्णा ने भी किया. अंगिरा जी
ने अभिजित को आशीर्वाद देते हुए कहा,
“ज्ञानी बनो. ज्ञान
से ही समस्त समुद्र और पर्वत हैं. इससे सर्वरूपा नदियाँ बहती हैं और इसी से औषधि
और रस उत्पन्न हुए हैं, जिससे पुष्ट इस शरीर में यह अन्तरात्मा स्थित है. यह सारा
जगत कर्म और ज्ञान ही है. जो सबों के अन्त:करण मे स्थित उसे जान लेता है, वह इस
लोक में अविद्या की ग्रन्थि को भेद देता है.“
रात को करीब एक बजे
शिवशंकर डीलक्स एसी बस में बैठ कर अभिजित और अन्नपूर्णा जयपुर को चल दिए. अंगिरा
जी ने अन्नपूर्णा को अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया. रात को करीब दो बजे
घर पर उन्होंने मुझे यह किस्सा सुनाया, जिसके सारे वर्णन मेरे अनुमान से प्रमाणित
हो कर सत्य हैं.
द्वितीय खण्ड :
अनुसंधान
शौनक जी अग्निशिखा की बात से संतुष्ट नहीं लग रहे थे. लेकिन वह प्रतिप्रश्न करें
तो कैसे करें? फिर भी जोखिम उठाते हुए उन्होंने पूछा,
“आपने शुरू में ही कहा था कि सब कुछ जानने के लिए परा विद्या होनी चाहिए. आप यह भी कह रहीं हैं कि जानने की कसौटी सत्य है. इस तरह कुछ भी अपूर्व सत्य जानना प्रत्यक्ष, अनुमान या शब्द प्रमाण के अन्दर आ ही आएगा. आप यह भी कहती हैं कि ब्रह्म को बुद्धि से नहीं जान सकते हैं. फिर जिसे बुद्धि से नहीं जान सकते हैं उस सर्वज्ञ ब्रह्म को कैसे जाने?”
अंगिरा जी ने कहा,
“जो प्रकाश स्वरूप है, वह सबके हृदय में स्थित है. इसी में चलने वाले, साँस लेने
वाले, पलक झपकाने वाले सभी समर्पित हैं. यह विज्ञान से परे है और सर्वोत्कृष्ट है.
वही सत्य है वही अमृत हैं. उसका वेधन करना चाहिए. आप उसका वेधन करें.“
“वेधन कैसे करें?”
शौनक जी ने पूछा.
“किसी समस्या का
निराकरण उसके वेधन से ही होता है. वेधन कैसे कर सकते हैं? अनुसंधान से!” अग्निशिखा
जी ने कहा.
“अनुसंधान का
अर्थ?” शौनक जी ने अपनी अनभिज्ञता प्रकट की.
“संधान का मतलब
होता है खोजने या पता लगाने का कार्य; मिलाना; जोड़ना;
मेल मिलाना या बैठाना. अनु का अर्थ होता है
पीछे, समानता,
क्रम या पश्चात. इस तरह अनुसंधान का मतलब
होता है विभिन्न अर्थों का एकीकरण करना, एकीभवन करना या मिश्रीकरण करना.“
अग्निशिखा ने समझाया, “वेधन करना हो, तो मर्म पर करेंगे न? दीवार में कील ठोंकनी
हो तो ईंट पर कील नहीं लगती, दो ईंटों के जोड़ पर लगती है.“
भारी भरकम शब्दों
से घबरा कर शौनक जी ने पूछा, “अच्छा, जब अन्नपूर्णा और अभिजित गायब हो गए तो क्या
हुआ?”
“अगले दिन यानी
मंगलवार, १२ अगस्त की दुपहर को ओमी आ गया था. उसके बड़े टूर लगे रहते थे. उसे रात
ही में कहीं और जाना भी था. अगम ब्रह्म नैनीताल का रहने वाला था. वह उन दिनों
बम्बई में था. ओमी शाम में जब हमारे घर आया तब मैंने कहा,
”एक समय का एक आदमी
का खाना क्या बनाओगे? हमारे घर ही खाना खा लेना. वो मान गया. डिनर के समय अंगिरा
जी ओमी को सारी बातें बतायी. ओमी यह किस्सा सुन के बहुत खुश हुआ. रात के दस बजे
अंगिरा जी ने कहा कि चलो तुम्हें बस स्टैण्ड छोड़ कर आता हूँ. अपनी गाड़ी में ओमी
को बिठा कर अंगिरा जी और ओमी निकले.
हमारा घर पाँचवी
मंजिल पर था. मैंने ऐसे ही बाहर झाँक कर देखा तो पार्किंग के बाहर अभिजित की गाड़ी
एक किनारे लगी थी, उस पर कुछ लोग टॉर्च की रौशनी फेंक कर अन्दर ताक-झाँक रहे थे.
मैंने अनुमान लगाया कि शायद ये गाड़ी के चोर हों. सोचा कि सोसाइटी के सुरक्षा
गार्ड को खबर करूँ. फिर मैंने ध्यान से
देखा कि दो-तीन लोग हैं, जिनमें एक महिला भी है. साथ में पुलिस का एक आदमी वर्दी
में भी था. तब मैंने सोचा कि हो न हो, यह ज़रूर अभिजित को ढूँढ़ रहे होंगे. जहाँ
अभिजित की गाड़ी है, लड़की भी वहीं होनी चाहिए. मैं फौरन सारी बत्तियाँ बुझायीं.
खिड़कियाँ और दरवाजे बन्द किए. फिर से झाँक कर देखा. वे लोग अभी भी आपस में
मंत्रणा कर रहे थे. मैंने फौरन अंगिरा जी को फोन मिलाया, “सुनिए, यहाँ पुलिस के
लोग अभिजित की गाड़ी की तलाशी ले रहे हैं. आप यहाँ मत आइएगा, जब तक मैं न कहूँ.“
अंगिरा जी ने कहा
कि ओमी और वे दोनों अभी अखिल के घर पर हैं. मैंने उनको वहीं रहने की हिदायत दी. यह
जान कर अखिल ने अपनी गाड़ी में ओमी और अंगिरा जी को बिठाया और कहा कि चलो चल कर
देखते हैं कि माजरा क्या है. वे लोग सोसाइटी के पास आये तो देखा कि बाहर पुलिस की
एक वैन खड़ी है. दूर से ही यह देख कर तीनों वापस लौट गए. अंगिरा जी ने ओमी को बस
स्टैण्ड छोड़ा और ओमी से उसकी कार की चाभी माँग ली कि शायद इमरजेंसी में काम लेना
पड़ जाए. अखिल के घर पहुँच कर अंगिरा जी ने फोन किया, “हमारी सोसाइटी के बाहर
पुलिस है.“ मैं समझ गयी कि खतरा बढ़ रहा है. मैंने कहा कि अभी तुरंत फोन बन्द करो.
ज़रूरत पड़ेगी तो मैं अखिल के घर में लैंडलाइन पर फोन करूँगी. बेहतर यही है कि रात
भर के लिए तुम अखिल के घर में सो जाओ.
इसके बाद मैं
चुपचाप अपने कमरे में जा कर लेट गयी. करीब पंद्रह मिनट बाद, साढ़े ग्यारह बजे के
आस-पास मेरे घर की घण्टी बजी. मैंने पहली घण्टी का कोई जवाब नहीं दिया. थोड़ी देर
बाद दूसरी घण्टी बजी. अलसाते हुए उठ कर मैंने दरवाजे के पास पहुँच कर आवाज लगायी,
“कौन है?”
बाहर से आवाज़ आयी,
“मैडम जी, मैं गार्ड. ये लोग आपसे मिलने आए हैं!”
आमतौर पर फ्लैटों
में दो दरवाजे होते हैं. पहला लोहे की जाली वाला और दूसरा अन्दर लकड़ी वाला. मैंने
छिटकनी नीचे कर के दरवाजे का पल्ला अंदर से खोला पर जाली वाला दरवाज़ा नहीं खोला.
सामने सोसाइटी का
गार्ड अमर केसरी खड़ा था. उसने दुहराया, "मैडम
जी, ये लोग आपसे मिलने
आये हैं." मैंने देखा एक पचास साल की औरत खड़ी थी,
जिसने बेशकीमती साड़ी पहनी थी. साथ ही सफेद
शर्ट पैंट में सिर मुण्डाये एक कठोर शक्ल वाला लम्बा मजबूत आदमी खड़ा था. उसने
मुझसे पूछा, "आपका
नाम क्या है?"
मैंने हैरान होते
हुए कहा, "मेरा
नाम पूछने वाले आप कौन होते हैं? इतनी
रात गए आप मेरे घर आये हैं और बजाय इसके कि अपना परिचय दें,
आप मुझसे मेरा नाम पूछ रहे हैं?
आप हैं कौन?"
उस सिर मुण्डाये
आदमी पर मेरी दलील का जैसे कोई असर नहीं हुआ. उसने मुझसे सख्त लहजे में पूछा,
"आप अभिजित को जानती हैं."
"जी हाँ.
अच्छी तरह से जानती हूँ. मेरे सामने वाले फ्लैट में रहता है."
"वो कहाँ है?"
उसका दूसरा सवाल था.
मैंने कहा,
"दो दिन पहले मद्रास गया है."
"कब आएगा?"
"मुझे क्या
पता कब आएगा? आप
उसको फोन कर के पूछिए." मैंने कहा और फिर गार्ड को मैंने डाँटा,
"यहाँ क्यों ले कर आ गए इन्हें?"
बिचारे गार्ड ने
कहा, "इनकी
लड़की गुम गयी है मैडम. इसलिए यह लोग पूछताछ कर रहे हैं."
इतना कहते ही वह
औरत दरवाजे के सामने आ गयी और भरे गले से बोली,
"आप अन्नपूर्णा को जानती हैं?"
मैंने पूछा,
"आप कौन?"
"मैं
अन्नपूर्णा की माँ हूँ. मेरी बेटी लापता है." उसने कातर आवाज़ में कहा. यह
सुन कर मैं दो घड़ी के लिए चुप रही. फिर मैंने कहा,
"अन्नपूर्णा कौन?
अभिजित की पत्नी?"
"पत्नी?"
उसकी माँ ने हैरानी में दुहराया. वह सकते
में आ गयी. उनकी हालत देख कर मैंने जाली वाला दरवाजा खोला और उनके चेहरे के बदलते
रंग को देखने लगी. "हाँ, कुछ
दिन पहले उन दोनों की शादी हुयी है. जहाँ अभिजित होगा,
वहीं अन्नपूर्णा भी होगी अपने पति के पास."
मैंने बेधड़क कहा.
सिर मुण्डाये आदमी
ने कहा, "हमारी
जानकारी में अभिजित कुछ दिन पहले आपके पति के साथ देखा गया था. आपके पति कहाँ हैं?
उनको बुलाइए."
"मेरे पति
अपने दोस्त को छोड़ने कुछ घंटे पहले बस स्टैण्ड गये थे. उसके बाद... " मैंने
सोच कर कहा, "उसके
बाद दफ्तर के काम से उन्हें चण्डीगढ़ जाना था. वहीं चले गए हैं."
"कब आएँगे?" उसी आदमी ने कठोरता
से कहा.
"कल शाम तक
आएँगे."
"आप हमें उनसे
बात कराइए." उसने जोर दिया. मैंने कहा,
"एक मिनट." फिर मैंने जाली वाला दरवाजा
खींच कर बंद कर लिया. अन्दर से फोन ले कर आई और फोन मिलाया. अंगिरा जी का फोन बंद
था. मैंने कहा, "नम्बर
बन्द है."
"हमें नम्बर
दीजिए." उस मुण्डक के कहने पर मैंने अंगिरा जी का नम्बर लिखाया. उन लोगों ने
नम्बर लगाया पर फोन तो बंद था. अब अन्नपूर्णा की माँ बदहवास हो कर बोली,
"मुझे आप अपने घर आने दीजिए. मैं देखना चाहती
हूँ कि अन्नपूर्णा यहाँ है या नहीं?"
मैंने कहा,
"आपने अभी तक मुझे अपना नाम नहीं बताया. मैं
आपको जानती नहीं. आपके साथ ये कौन है, मुझे
मालूम नहीं. रात के बारह बजने को आए, आप
मेरे घर में इन आदमियों के साथ घुसना चाहती हैं,
जब कि मैं कह रही हूँ कि मेरे पति घर पर
नहीं हैं?"
अन्नपूर्णा की माँ
ने लम्बी साँस ले कर कातर आवाज़ में कहाँ,
"यह मेरे वकील हैं!"
"आप वकील को
साथ ले कर आयी हैं? आप
ऐसे ही मेरे पास आतीं तो मैं घर की दरवाजे खोल कर आपको अन्दर बिठाती. पूरा घर
दिखाती. लेकिन आप वकील ले कर मेरे पास आयी हैं!"
"मेरा नाम
अमरीश है." सिर मुण्डाये वकील ने कहा,
"आप जाँच-पड़ताल के रास्ते में रुकावट न बनिए.
सामने से हट जाइए, दरवाजा खोलिए. हमें अन्दर आने दीजिए."
"किस बात की
जाँच-पड़ताल जनाब? आप
रात में किसी महिला के घर घण्टी बजा कर जबरदस्ती अन्दर घुस जाना चाहते हैं! क्या
कागज है आपके पास?"
तभी पुलिस की वर्दी
में एक आदमी झपट कर सामने आया, जो
कि अब तक बगल में छुपा, नज़रों से ओझल था. उसने हुँकार लगायी,
"ऐ, ऐ,
दरवाजा खोल!"
"तू कौन हैं?"
उल्टे उसे डपट कर मैंने झिड़क दिया.
"वर्दी से
नहीं पहचानती क्या? मैं
पुलिसवाला हूँ."
मैंने कहा,
"मैंने बहुत पुलिसवाले देखे हैं. इसलिए आप पुलिसगिरि
मत दिखाइए. कागज दिखाइए. कोई प्राथमिकी है?
कोई सर्च वारंट है?
रात को महिला के घर में घुस कर तलाशी लेने
आएँ हैं, महिला
काँस्टेबल कहाँ हैं?"
यह सुन कर वह सकते
में आ गया. मैंने सोसाइटी के गार्ड को झाड़ा,
"और तुम, बिना किसी पड़ोसी को साथ लिए यहाँ आ
गए? चार पड़ोसियों को
बुलाओ. उनके सामने बातचीत करो. कोई गवाह हो! मैं कह रही हूँ कि मेरे पति घर पर
नहीं है. मेरे बच्चे छोटे हैं. और आप लोग यह घर खोलने का जोर बना रहे हैं!"
अन्नपूर्णा की माँ
का चेहरा उतर गया. मैंने उनसे कहा, "मैं
आप लोग का सहयोग कर रही हूँ. आप लोग को इस तरह की जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए."
मुण्डक अमरीश ने
कहा, "मैडम,
आपके पति कब आएँगे?"
"कल शाम तक
आएँगे."
"आप उनको
हमारा नम्बर दे दीजिए. क्या अभिजित के माँ-पिता जी का नम्बर है?"
मैंने सारे नम्बर
लिखवा दिए. अन्नपूर्णा की माँ ने कहा, "मेरा
नाम अहल्या है. अन्नपूर्णा का पता चले तो मुझे बताइएगा." जाते हुए अमरीश ने
कहा, "आपको
तकलीफ देने के लिए हमें खेद है."
मैंने गुस्से में
दरवाजा बन्द करने से पहले सुनाया, "यह
आपके संवाद की पहली पंक्ति होनी चाहिए थी, श्रीमान!"
अन्दर आ कर मैंने
सबसे पहले अखिल के घर फोन मिलाया. अंगिरा जी को सारी बात बता कर मैंने कहा,
"आप होते तो आपको पक्का थाने ले जाते. ऐसा
कीजिए कि रात वहीं बिता कर कल दुपहर तक आराम से आइए. फोन चालू करने की ज़रूरत नहीं
है."
अलगे दिन यानी १३
अगस्त को अंगिरा जी घर आ कर नहा-धो कर आराम से सोफे पर बैठे. फिर अमरीश के पिताजी
के पुत्र को फोन लगा कर उन्हें कई-कई सम्बन्धसूची शब्दों से विभूषित किया. यह गौर
करने वाली बात है कि पशुओं के रूपक से सम्बोधित करना भी अर्थ अनुसंधान ही है
क्योंकि रूपक एकीकरण ही तो करता है. कहा गया कि मेरी अनुपस्थिति में आप मेरे घर
में आ कर मेरी धर्मपत्नी को अकेली जानते हुए भी इस तरह धमकाने का अधिकार आपको
कानून नहीं देता है. आपको मालूम होना चाहिए कि मन्त्रकों को विधि व्यवस्था का भी
ज्ञान होता है. मेरी एक शिकायत पर आप थाने के अन्दर होंगे.
उधर से क्षमा
माँगते हुए अमरीश की पेशेवर आवाज़ आयी, "सॉरी
सर. दरअसल अहल्या जी और अशोक जी अन्नपूर्णा के लापता होने पर बहुत चिन्तित हैं.
हमें पता चला कि आप उनके साथ आखिरी बार देखे गए थे. क्या आप थाने आ कर अपना बयान
दे सकते हैं?"
"आप क्या
बकवास कर रहे हैं?" अंगिरा
जी ने डाँटा. "आप पुलिस वाले हैं? आप
किस हक से मुझे थाने जा कर बयान दर्ज करने की सलाह दे रहे हैं?
आप कहीं दिमागी कमजोरी के शिकार तो नहीं?
भाई साहब,
सुनिए हमारी मुफ्त की बेहद ज़रूरी और असरदार सलाह. पटपड़गंज में एक से एक दिमागी
मरीज के इलाज करने वाले डॉक्टर भरे पड़े हैं. आपकी सुविधा के लिए मैं किसी चोटी के
डॉक्टर से आपकी मुलाकात का समय तय कर दूँ?
हमारे कहने पर आपकी फीस भी मुआफ हो जाएगी.
कहिए, ठीक रहेगा?"
चिढ़ कर अमरीश ने
फोन पटक दिया.
अंगिरा जी अभी बहुत
सावधान हो गए. उन्होंने अपनी वकील मित्र 'अंगद
खोसला' को फोन लगाया.
"यार अंगद, बड़ी
परेशानी होने वाली है. तुम्हें तो पता ही है कि मन्त्रक का सारा काम-धन्धा उसकी
प्रतिष्ठा पर चलता है. कुछ कानूनी दाँव-पेंच में फँसने की सम्भावना नज़र आ रही
है. यदि गलती से भी मैं इसमें फँस गया तो समझो कि- ‘इस हादसे को सुनके
करेगा यकीं कोई, सूरज
को एक झोंका हवा का बुझा गया.’
मैत्री की राह
बताने को, सबको
सुमार्ग पर लाने को, अंगद
को पूरी बात बताने को, समझने
और समझाने को, भीषण
विध्वंस बचाने को, अंगिरा
जी फौरन हस्तिनापुर यानी दिल्ली गए. बुधवार १३ अगस्त की रात भी कुछ समझ नहीं आ रहा
था कि आगे क्या होने वाला था. मेरी दाँयी आँख लगातार फड़क रही थी,
मतलब कुछ न कुछ गड़बड़ होने वाला था.
बृहस्पतिवार,
१४ अगस्त अंगिरा जी दफ्तर गए. बहुत सी मीटिंग के बीच उन्हें भी
रह-रह कर कुछ खटका महसूस हो रहा था. उन्होंने अंगद खोसला को फोन कर के कहा,
"यार,
कुछ पता करो कि वे लोग कर क्या रहे हैं?
चुप तो नहीं बैठे होंगे. ग्रेटर कैलाश पुलिस
थाने में तुम्हारे आदमी हैं क्या?"
मन्त्रकों का तंत्र
अगर विश्वसनीय न हुआ तो वे कब के अपने पद से गिर कर हीन पेशों को प्राप्त हो जाएंगे.
करीब ढ़ाई बजे अंगद ने फोन कर के कहा, "तुम्हारे,
अभिजित और अग्निशिखा भाभी के नाम पर अपहरण
का केस दर्ज हुआ है. अशोक अग्रवाल ने इस बात को अपनी तौहीन समझते हुए पूरी ताकत
लगा दी है. मुझे लगता है कि अमरीश ने इसमें अपनी खुन्नस निकाली है. आप दोनों के
नाम पर गिरफ्तारी का वारंट है. जहाँ तक मैं भविष्य का अनुमान लगा पा रहा हूँ, १५
अगस्त यानी कल शुक्रवार को पूरा देश स्वतन्त्रता दिवस मना रहा होगा और आप दोनों
थाने में बंद होंगे. इसके बाद १६ को शनिवार और १७ को रविवार - इन दिनों भी कोर्ट
बन्द ही रहेगा. मतलब कि तीन दिन तक आप दोनों को हवालात में बन्द रहना पड़ेगा."
"फिर?"
अंगिरा जी ने पूछा.
"आप मन्त्रक
हैं. आप सोचिए." अंगद ने बेबसी से कहा.
"प्रणव धनुष है, स्वयं ही बाण है, ब्रह्म ही लक्ष्य है. प्रमादरहित मनुष्य ही उस लक्ष्य को बाण की तरह तन्मय हो कर सावधानी से बेध सकता है."
अंगिरा जी ने
गम्भीरता से उत्तर दिया.
"मतलब?"
अंगद ने पूछा लेकिन तब तक अंगिरा जी ने फोन
काट दिया. इसके तुरन्त बाद मुझे फोन करते हुए उन्होंने कहा, "अग्निशिखा,
मेरी बात ध्यान से सुनो. अपने और बच्चों के
दो-दो जोड़ी कपड़े एक बैग में रख कर चुपचाप नीचे चली आओ. सुनो,
मेरे टेबल की दराज में ओमी के कार की चाभी
रखी है. पार्किंग में से उसकी कार निकाल कर बच्चों को बिठा के चौराहे में पंद्रह
मिनट में मिलो. मैं वहीं मिलूँगा." उस समय पौने तीन बज रहे थे.
अंगिरा जी ने अपनी
कार वहीं आफिस में छोड़ी. एक टैक्सी कर के वह आफिस का लैपटॉप लिए सीधे घर के पास
चौराहे में पहुँचे. मैं अनिरुद्ध और अनिकेत को कुछ कपड़े समेत ले कर निकली. घर बंद
कर के ओमी की गाड़ी निकाल कर धीरे-धीरे चलाते हुए मैं चौराहे तक पहुँची.
वहाँ पर अंगिरा जी
मेरा इंतज़ार कर रहे थे. वह झट से ड्राइविंग सीट पर बैठे और जो गाड़ी भगाई,
जो गाड़ी भगाई कि मेरे होश उड़ गए. अंगिरा
जी बहुत कमाल के ड्राइवर हैं. बिना एक शब्द बोले उस दिन की तेज बारिश में ट्रैफिक
से बचते-बचाते, हाइवे पर हवा से बातें करते हुए सरपट गाड़ी भगाते रहे. करीब सौ
किलोमीटर चल जाने के बाद उन्होंने एक जगह गाड़ी रोकी.
ढाबे पर चाय पीते
हुए मैंने पूछा, "हुआ
क्या है जी?
कुछ बताइए तो!"
"हमारे नाम
गिरफ्तारी का वारंट है."
"ओह!"
मैं डर गयी.
"इसलिए हमें
जल्दी से जल्दी नोएडा छोड़ कर भागना पड़ा."
"हम जा कहाँ
रहे हैं?" मैंने
पूछा.
"अगम ब्रह्म
के घर."
उन्होंने मुसकुरा
कर बताया, "अपनी
तीन दिन की छुट्टी अब नैनीताल में मनेगी. ओमी की गाड़ी से हम सीधे अगम ब्रह्म के
घर लक्ष्य कर के पहुँच रहे हैं. यह बात उनको समझ में जब तक आएगी,
तब तक हम कुछ न कुछ उपाय कर लेंगे."
“नैनीताल?”
“हाँ,” अंगिरा जी
ने कहा,
“अभी वहाँ बादल ही
बादल छाये होंगे. वहाँ न सूर्य प्रकाशित होगा और न चन्द्रमा या तारे. वहाँ बिजली
भी नहीं चमकती. उस घने काले-धूसर बादलों में बसे नगर को देखना. बादलों में घूमना,
तैरना, बहना, फिसलना; अलग ही अनुभव है. ऐसा लगेगा कि यह ही आगे है, यही पीछे है,
यही दायीं-बायीं ओर है और यही नीचे-ऊपर फैला हुआ है. सब कुछ यही है. हम भी और तुम
भी. बहुत अच्छा लगेगा तुम्हें. कभी नैनीताल गयी हो इससे पहले?”
प्रथम
खण्ड :
व्यवस्था
मेरी दिवंगत माता
जी का कहना था कि मैं बहुत छुटपन में नैनीताल गयी थी. मुझे ऐसा कुछ याद नहीं है कि
कोई झीलों का शहर हो, जहाँ पर मैं माँ-पिताजी के साथ घूम रही हूँ. हाँ, एक फोटो है
नैनीताल की जिसमें माँ-पिताजी की गोद में मैं हूँ. वह जगह नैनीताल नहीं है, यह मेरे
पिता जी का कहना था पर माँ मानती नहीं थी. माँ कहती थी, इसलिए नैनीताल गयी होंगी, ऐसा
कह सकते हैं.
अगम ब्रह्म के घर
में पहुँच कर हमने राहत की साँस ली. मैं उनके घर में दो-तीन दिन रुकने को ले कर
सहज नहीं थी. अंगिरा जी भी नहीं थे. उन्होंने अगम ब्रह्म के पिता जी से किसी अच्छे
होटल में रुकने का प्रबन्ध कर देने के लिए कहा. वैसे अब हमें गिरफ्तार होने का
खतरा कम हो चुका था. अगर यह बात नोएडा पुलिस या दिल्ली पुलिस को पता भी चल जाती कि
हम नैनीताल में हैं, तब भी उन्हें उत्तराखण्ड में आते समय लगता. पहले तो यह जानकारी होना थोड़ा कठिन
था. अंगद खोसला हमारी जमानत के लिए काम कर रहा था. सोमवार होते ही हम जोखिम से
निकल जाते. अच्छी बात यह थी कि अभिजित ने नोएडा थाने में शिकायत दर्ज करवा रखी थी.
पंद्रह अगस्त की
सुबह अगम ब्रह्म के घरवालों को बहुत कहने के बाद होटल ‘अनु महारानी’ में हमारे
रहने का प्रबन्ध किया गया. दुपहर के खाने के बाद हमारा वहाँ जाना तय किया गया.
मैंने सुना कि नैनीताल हाई कोर्ट के पास ही है ‘अनु महारानी’. उत्तर प्रदेश की
तरह, उत्तराखण्ड भी अजीब है. लखनऊ के बदले इलाहाबाद में हाई कोर्ट, देहरादून के
बदले नैनीताल में हाई कोर्ट.
हमारे मेजबानों ने
सबसे पहले हमारा परिचय वहाँ के मैनेजर से कराया,
क्योंकि हमारे लिए खास इंतज़ाम करना था. रूम
में व्यवस्थित होने के बाद हम सबसे पहले नैना देवी का मंदिर घूमने निकल गए. शाम
में वापस लौटने पर मैनेजर ने हमें टोका और एक साँवले पाँच फुट नौ इंच लम्बे आदमी
से हमारा परिचय कराया. उसका सिर मुण्डा हुआ था और नाक के नीचे पतली सी मूँछ थी.
"हम हैं अंटन
डिसूजा!" उसने हँस कर कहा. मैनेजर ने बताया कि अंटन डिसूजा मॉरीशस,
मालदीव,
दुबई जैसी जगहों पर काम कर वापस भारत लौटा
है. पहले यह खानसामा था, अब
होटल के बहुत से काम देखता है. मैनेजर के बाद इस होटल में इसी की वरीयता है. यह
हमारे खास मेहमानों की देखभाल करता है.
अंटन डिसूजा की
उम्र साठ से अधिक ही रही होगी. उसने हमसे मुखातिब होते हुए कहा,
"आइए. आप लोग की परेशानी मैं ठीक से समझ नहीं
पाया. आप लोग कुछ भागे से लग रहे हैं,
क्यों?"
“छुट्टी मनाने
नैनीताल आये हैं.“ अंगिरा जी इतनी जल्दी उसके भरोसे में आने वाले थे नहीं.
उन्होंने पूछा, "जी,
थकावट से आपको यह लग रहा है. आप यह बताइए,
आप कहाँ से हैं?
आराम करने की उम्र में यहाँ काम कैसे कर रहे
हैं?"
अंटन डिसूजा हमारे
साथ लॉबी में सोफे पर बैठ गए.
"हम जमालपुर
के रहने वाले हैं. छोटे थे तो जिद हुई कि दुनिया देखनी है. लेकिन कभी घर से बाहर
जाने की हिम्मत नहीं होती थी. मेरा एक दोस्त बड़ा शरारती था. मुझे भूतों से बड़ा
डर लगता था. वह अक्सर मुझे डराता था – ‘भागो, भूत आया’. एक दिन आम की बगीचे में उसके डराने से मैं डर कर पास
गुजरने वाली मालगाड़ी के खाली डिब्बे में बैठ गया. रुकी मालगाड़ी चल पड़ी और
जिन्दगी का सफर वही से चालू हो गया. इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहे. फिर खाना बनाना
सीखा. जगह-जगह काम किया. खाना बनाना तो अच्छा आ गया,
पर उन छोटे होटलों में ग्राहकों की अक्सर
शिकायत आती थी कि खाने में खानसामा के बाल निकल रहे हैं. बाल चाहें उनके खुद के
गिर जाएँ, पर
तोहमत खानसामे पर लगेगी क्योंकि खानसामा गरीब आदमी होता है न! इसीलिए तंग आ कर
मैंने अपना सिर मुण्डवा लिया. न रहेगा बाँस,
न बजेगी बाँसुरी. तब से आज तक मैं मुण्डक ही
हूँ. जिन्दगी भर नौकरियाँ बदलता रहा. कभी चैन नहीं मिला. आप लोग पेंटिंग देखना
पसन्द करते हैं?"
"पेंटिंग?"
मैंने आश्चर्य से हामी भरी,
"बिल्कुल."
"पाँच सितारा
होटलों में काम करते-करते मुझे पेन्टिंग देखने का शौक हो गया. बड़ी अजीब बात है न?
खानसामा पेंटिंग देखने लगे. कविता करने लगे."
"नहीं नहीं,"
अंगिरा जी ने सांत्वना दी,
"अपनी-अपनी पसन्द है."
"दरअसल मैं
बहुत से पेन्टिंग्स को देख कर एक नतीजे पर पहुँचा हूँ. ये तस्वीरें कुछ और नहीं
पहेलियाँ है. बिल्कुल जिन्दगी की तरह!" अंटन डिसूजा ने कहा.
(पेंटिग : मनीष पुष्कले) |
"वो कैसे?"
मैंने हैरानी से पूछा.
"आइए,
आपको दिखाता हूँ." अंटन डिसूजा हमें
लॉबी से उठा कर दीवारों पर लगी पेंटिग्स दिखाने लगा. "यह देखिए. यह पेन्टिंग
हमारे होटल ने बड़े सस्ते में खरीदी है. ‘मनीष पुष्कले’ नाम के किसी लड़के
ने बनायी है. इस तस्वीर का नाम है - पेड़. दरअसल यह एक पहेली है."
मैंने मनीष पुष्कले
की बनायी तस्वीर को देखा. रंगों के घाल-मेल के अलावा मुझे तो कहीं पेड़ नज़र नहीं
आया, पत्तियाँ और
पक्षियों जैसे कुछ नज़र आ रहे थे. एक पल के लिए लगा कि ये शायद केले के बगान में
मधुमक्खियों के छत्ता है या दो कोयलें उसमें बैठी हैं.
"सचमुच पहेली
ही लग रही है." अंगिरा जी ने टिप्पणी की.
"एक साथ रहने
वाले और परस्पर सखा भाव रखने वाले दो पक्षी एक ही वृक्ष का आश्रय ले कर रहते हैं.
उन दोनों में से एक तो पीपल के फलों को स्वाद ले ले कर खा रहा है और दूसरा न खाता
हुआ केवल देख रहा है."
"यह आपको मनीष
पुष्कले ने स्वयं बताया कि यह पीपल का ही पेड़ है?"
मैंने व्यंग्य से पूछा.
"यह तो शायद
उस बिचारे लड़के को भी नहीं पता होगा कि उसने क्या रच दिया है. उसने किसी तरह
पहेली बना दी. किन्तु इस तरह की पहेली का ठीक-ठीक हल कोई कोई ही बता सकता
है!" अंटन डिसूजा ने कहा.
"वह क्या?"
मैंने पूछा.
"इस वृक्ष
जैसे शरीर में पुरुष दुख में डूबा हुआ रहता है. हमेशा खुद को दीन समझता है. शोक
करता है. जब कभी वह अपने से भिन्न परमेश्वर की महिमा को देख लेता है तब उसके दुखों
का छुटकारा हो जाता है."
अंटन डिसूजा की बात
सुन कर मैंने तंज कसा, "आपने
ईश्वर के दर्शन कर लिए?"
"यह तो मुझे
आपसे पूछना चाहिए. नैना देवी के दर्शन हुए?
पाषाण देवी का मन्दिर देखा?"
"हम नैना देवी
तो गए थे. पाषाण देवी का मन्दिर किधर है?" अंगिरा
जी ने पूछा.
"कल देख
लीजिएगा. हम पहेली की बात कर रहे थे. कुछ रसूखदार आदमी एक पहेली की गुत्थी सुलझाना
चाहते हैं." अंटन डिसूजा ने आगे बड़ी संजीदगी से कहा,
"दरअसल पुलिस की तरफ से आप से मिलते-जुलते
हुलिए वाली दम्पति की खोज-खबर रखने की हिदायत आयी है. आप मेरी मदद कीजिए तो मैं
आपकी मदद कर सकता हूँ."
उसकी बात सुन कर
मेरे होश उड़ गए. अंगिरा जी ने बिना घबराए पूछा,
"क्या सूचना मिली आपको?"
"एक पति-पत्नी
नैनीताल में किसी होटल में दिल्ली की गाड़ी से आ कर रुकेंगे. उसकी खबर दिल्ली
भिजवानी है. सारे होटलों में पूछताछ हो रही है." अंटन डिसूजा ने कहा.
"फिर आपने
क्या कहा?"
“मेरा काम है
व्यवस्था करना. आदमी कुछ जानता है तो जानने के क्रम में उसकी व्यवस्था करता है.
केवल सूचना पुलिस तक पहुँचा देने से कुछ नहीं होता है. उस को ठीक-ठीक तरीके से
समझना और बताना भी काम है. मुझे आप लोग भले लोग मालूम होते हैं." अंटन डिसूजा
ने आश्वस्त किया.
"लेकिन आप
हमारी मदद क्यों करेंगे?" अंगिरा
जी ने पूछा.
"मैं आपकी
क्या मदद करूँगा या कोई आपकी क्या मदद कर लेगा?
सत्यमेव जयते. सच की ही जय होती है. कुछ
परेशानियाँ आती हैं पर अंत में सत्य की ही जय होती है झूठ की नहीं."
"यह कहने की
बात है." मैंने नकारते हुए कहा, "दुनिया
में हर जगह चोर-उचक्के, बेईमान,
भ्रष्ट नेता राज कर रहे होते हैं. उनकी जय
होती है, सच
की नहीं."
अंटन डिसूजा ने
बड़ी ही शालीनता से उत्तर दिया, "बेटी,
बेईमान और मक्कार लोग न सुखी होते हैं और न
ही उनकी जय होती है. उनके घर वाले, उनके
मित्र, वे स्वयं भी जानते
हैं कि वे कितने निकृष्ट हैं. सुखी आदमी अच्छा काम करता है,
बुरा नहीं. जो जय जैसा लगता है, दरअसल वह
शक्ति की तात्कालिक अभिव्यक्ति होती है, परिणति नहीं."
उसकी बात सुन कर
मैं चुप हो गयी. अंगिरा जी ने कहा, "हमारे
दोस्त ने छुप कर विवाह किया है. उसके बाद अपनी पत्नी को ले कर गायब है. लड़की के
घरवालों ने हम पर अपहरण का आरोप लगाया है. लेकिन पुलिस हमें ढूँढ रही है यह आप ही
हमें बता रहे हैं. आप देख लीजिए, हमारे
साथ कौन लड़की है? मैं
बाल-बच्चों वाला आदमी हूँ."
अंटन डिसूजा हँसने
लगा, "अरे,
यह तो बड़े मजेदार बात है. अच्छा, अच्छा.
भागते हुए लड़की ने कोई चिट्ठी छोड़ी?"
"पता नहीं."
मैंने कहा.
"और भाग जाने
के बाद अपने माँ-बाप को बताया या नहीं?" अंटन
डिसूजा के सवाल पर अंगिरा जी ने कहा, "बताना
तो चाहिए. लेकिन अपनी भागमभाग में यह तो मैंने पता ही नहीं किया. मेरा खुद का फोन
बन्द है."
"मुझे पता चला
कि कल रात में आपने फोन चालू किया था. तभी आपका ‘लोकेशन’ पकड़ में आया है. खैर, आप
लोग घबराइए मत. सच की ही जीत होती है. आप बेखटके रहिए यहाँ पर." अंटन डिसूजा
ने दिलासा दिया.
"आप पुलिस को बताएंगे?"
मैंने पूछा.
"जी,
यह बताऊँगा कि ऐसे कुछ लोग हैं. किसी के पास
एक बच्चे, किसी
के पास दो-तीन. कुछ और पुख्ता जानकारी चाहिए. आप घबराइए नहीं. आप यहाँ आए हैं तो
व्यवस्था करना मेरा काम है. ऐसा कीजिएगा, आप
लोग सुबह-सुबह नाश्ते के बाद पाषाण देवी के मन्दिर चले जाइएगा."
शनिवार १६ अगस्त को
सुबह नौ बजे के आस-पास हम पाषाण देवी के मन्दिर में दर्शन की पंक्ति में खड़े थे.
बहुत भीड़ थी. मेरे साथ अनिकेत था और अंगिरा जी के साथ अनिरुद्ध. मैंने अंगिरा जी
से कहा, "अनिरुद्ध
का हाथ पकड़ कर रखिएगा. कहीं भीड़ में गुम न हो जाए."
"अनिरुद्ध
तुम्हारे साथ है न आगे?" उन्होंने
उल्टे मुझे कहा.
मैंने चौंक कर पीछे
देखा. जोर से आवाज़ लगायी-
"अनिरुद्ध!"
अंगिरा जी के भी होश उड़ गए. अनिरुद्ध गायब. अभी तो यहीं था. उन्होंने जो शोर
मचाना शुरू किया, वहाँ
भीड़ में बच्चे के गायब होने की खलबली मच गयी. मेरा दिल बैठ गया. मैं बदहवास रोने
लगी.
"अनिरुद्ध,
अनिरुद्ध!" शोर मच गया.
इतने संकरे रास्ते
में कहाँ गायब हो सकता है. अंगिरा जी वहाँ लोग से बात करके अनिरुद्ध का हुलिया बता
रहे थे. इतने में दूसरी तरफ से अंटन डिसूजा अनिरुद्ध को गोद में लिए दौड़ा-दौड़ा
आता दिखा.
मैंने अनिरुद्ध को
गले से लगा कर पूछा, "कहाँ
चले गये थे?"
"किसी आदमी ने
मुझे पकड़ लिया था. मैं पापा के पीछे खड़ा था. उसने मेरा मुँह बंद कर के खींच लिया.
मैं न उसको देख पाया, न
सुन पाया, न
ही किसी तरह से पहचान पाया. उसने मुझे उठाया और दौड़ पड़ा. होटल वाले अंकल उधर से
आ कर उससे भिड़ गए. तब वह मुझे छोड़ कर भाग गया." अनिरुद्ध ने सिसकते हुए
बताया.
"कौन था वो
आदमी?" अंगिरा
जी ने अंटन डिसूजा से पूछा.
"आम्भी नाम है
उसका. वह कोई पागल पुलिस अफसर है जो आज सुबह दिल्ली से आया है. उसी की भाँजी का
अपहरण हुआ है. उसके सिर पर खून सवार है." अंटन डिसूजा ने बताया.
अंगिरा जी ने सुनते
ही सिर पकड़ा और वहीं मंदिर में किनारे बैठ गए. मैंने भी चिढ़ कर सबके सामने
चिल्लाया, "उसकी
भाँजी भागी तो हम क्या करें? हमारे
बच्चों का अपहरण क्यों कर रहा है? पुलिस
वाला है तो क्या हुआ? मैं
भी अग्निशिखा हूँ. सात रूपों में उस पर शोले बन कर बरसूँगी तो जल कर वह खाक हो
जाएगा."
अंटन डिसूजा ने
पूछा, "आपने
लड़की को सम्पर्क करने की कोशिश की?"
"कल रात से
फोन लगाने की कोशिश कर रहा हूँ पर उसका फोन बन्द है." अंगिरा जी ने परेशानी
से कहा, "कोई
और उपाय करता हूँ."
अंटन डिसूजा के साथ
हम सभी वापस होटल लौटे. अपने रूम में पहुँच कर अंगिरा जी ने जयपुर अपने दोस्त को
फोन लगाने की बड़ी कोशिश की, लेकिन
न जाने क्यों उसका फोन भी बन्द था.
उधर जयपुर में होटल
में बैठे-बैठे चार दिन के बाद दैवयोग से अचानक अभिजित ने फोन चालू किया. अंगिरा जी,
जो एक घण्टे से लगातार कोशिश कर रहे थे,
उन्होंने कहा,
"यार,
तुम भी गजब करते हो! अन्नपूर्णा ने भागने से
पहले कोई चिट्ठी नहीं छोड़ी थी? और
तुम लोग ने एक बार घर बताया भी नहीं कि तुम लोग ठीक हो?"
अभिजित ने उधर से
कहा, "मद्रास
में बताने की क्या जरूरत थी. वे तो यही सोचते कि मैं टूर पे हूँ."
"और
अन्नपूर्णा? उसको
अपने माँ-पिताजी का ख्याल नहीं आया?" अंगिरा
जी ने डाँटा.
"आप ही ने तो
कहा था कि एक सप्ताह तक फोन मत चालू करना. सब ठीक हो जाएगा." अभिजित ने डरते-डरते
कहा.
"कुछ अपना भी
दिमाग लगा लेते. अन्नपूर्णा का मामा आम्भी को तुम्हारा पता नहीं मिला इसलिए अब वह
हमारे खून का प्यासा हो गया है. आज सुबह उसने अनिरुद्ध का अपहरण कर के भागने की
कोशिश की. यहाँ पर उसके पास कोई आधिकारिक कागज तो है नहीं. इसलिए अपनी मनमानी पर
उतर आया है. खैर, उससे
तो मैं निपट लूँगा. अन्नपूर्णा को कहो कि किसी भी तरह घर फोन कर अपनी सलामती की
खबर माँ-पिताजी को दे."
अंगिरा जी की अभिजित
से बातें सुन कर मेरी जान में जान आयी. अब सब कुछ ठीक होने वाला था. सुबह की घटना
से मैं इतनी डर चुकी थी कि दुपहर और शाम को कहीं घूमने के बजाय टीवी पर ‘अल्फ्रेड
हिचकॉक’ की फिल्म ‘द मैन हू न्यू टू मच’ देखते रहे. रात को खाने के समय डिनर हॉल
में आर्केस्ट्रा पर कोई लड़की गाना गा रही थी. उस के ग्रुप ने मेहमानों को गाने की
चुनौती दी. तब मैंने चुनौती को स्वीकार करते हुए पियानो पर बीते साल दिवंगत हुयी
अभिनेत्री ‘डोरिस डे’ का ‘के सेरा सेरा’ गाना गाया था.
द्वितीय खण्ड :
आदिसिद्ध
शौनक जी ने अग्निशिखा को खोया हुआ देख कर पूछा, “अंतत: क्या हुआ?”
अग्निशिखा ने कहा,
"होना क्या था?
यह तो आदिसिद्ध है कि कहानी सुनाने वाला अगर
आपबीती बता रहा है तो वह तो सुरक्षित होगा ही."
शौनक जी ने अपना
मुण्डा हुआ सिर खुजाया और पूछे, "ऐसे
आदिसिद्ध क्या चीजें हैं?"
"ब्रह्मविद्या
के सम्बन्ध में..." अंगिरा जी ने कहना शुरू किया,
"जो परम ब्रह्म को परम धाम के रूप में जान
लेते हैं जिसमें सारा जगत स्थित हुआ प्रतीत होता है,
वे कामना रहित बुद्धिमान उस परम पुरुष की
उपासना करते हैं और जन्म-मृत्यु से परे चले जाते हैं."
"यही अंटन
डिसूजा ने कहा था." अग्निशिखा ने अंगड़ाई लेते हुए बताया.
अंगिरा जी याद करने
लगे,
"अंटन डिसूजा बहुत विचित्र आदमी था. बुढ़ापे में भी निष्काम भाव से काम किए जा रहा था. उसका कहना था जो कामनाओं की अभिलाषा करता है तथा जिसका मन उन कामनाओं में लीन रहता है, वह उन कामनाओं के द्वारा प्रेरित वहीं-वहीं जन्म ग्रहण करता है. किन्तु जिसने अपनी कामनाओं को जीत लिया है और अपनी आत्मा को प्राप्त कर लिया है, ऐसे आदमी की यहीं, इसी दुनिया में समस्त कामनाएँ विलुप्त हो जाती हैं. शायद उसकी सारी कामनाएँ खत्म हो चुकी थी."
"हम उसकी बात
को क्यों माने?" शौनक
जी ने तुनक कर कहा.
"मन मानिए.
किसी की बात मानने की कोई बाध्यता थोड़े ही है. कहा जाता है कि जो सूक्ष्मतम विचार
होते हैं, वह
किसी की बात मानने से ही समझ में आते हैं. हाँ,
व्यवहार में उनका मानना कोई आवश्यक थोड़े ही
है." अग्निशिखा ने कहा.
“आपको लोग १७ अगस्त
रविवार को वापस लौट आए? अन्नपूर्णा और अभिजित भी घर लौट आए?” शौनक जी ने पूछा.
“रविवार १७ अगस्त को अंगिरा जी सुबह से फोन पर बहुत व्यस्त थे. अचानक आफिस से चले
आने से बहुत से काम उल्टे-पुल्टे हो गए थे. लैपटॉप साथ था ही, इसलिए रात भर कुछ न
कुछ खट-पट करते रहे. नाश्ते के बाद उन्होंने सुझाया कि क्यों न हम सभी नैनी झील पर
विहार कर आएँ. ख्याल अच्छा था.
अंटन डिसूजा ने अंगिरा जी को कुछ हिदायत दी. मैं इतना ही सुन पायी कि वे सावधान रहें.
नैनी झील में मल्ली
ताल पहुँच कर हमने नौका-विहार के लिए काउंटर से नाव की पर्ची ली. एक मुस्टंडा
नाविक, जिसने शॉल ओढ़ रखा था, उसने हमें अपने साथ आने को कहा. अंगिरा जी ने उसे
अनदेखा करते हुए एक दूसरे नाविक के पास चले गए. इसने भी अपना चेहरा कुछ ढँक रखा था.
अनिरुद्ध, अनिकेत
को साथ लिए हुए, और लाइफ जैकेट पहन कर मैं नाव में बैठी. अंगिरा जी नाविक के बगल
में सामने बैठ गए. अंगिरा जी बताने लगे कि नैनीताल में पहले अंग्रेजों के जमाने
में दस-पंद्रह गधेरों से इस झील में पानी भरता था. अब चारों तरफ होटल बन गए हैं.
“इस पानी में मगरमच्छ होंगे?” मैंने पूछा. “अरे नहीं,” अंगिरा जी ने कहा, “पहाड़ों
की झीलों में मगरमच्छ नहीं होते.“
“मछलियाँ होती हैं?”
“हाँ, होती हैं. पर यहाँ कोई मछली नहीं मारता.“ अंगिरा जी ने बताया.
“क्यों?” मैंने आश्चर्य किया. हम लोग झील में काफी दूर निकल आये थे. एक खाली नाव हमारे करीब तेजी से आ रही थी. मैं संशकित हो कर उधर देखने लगी कि उसका नाविक अपनी नाव छोड़ कर हमारी नाव पर कूद कर आ गया. यह शायद वही नाविक था जो हमें अपनी नाव पर बैठने के लिए जोर दे रहा था. अपना लबादा फेंक उसने पिस्तौल अंगिरा जी पर तान दी.
सिर मुण्डाये एक मुस्टंडा हट्टा-कट्टा पहलवान आदमी, जिसके दोनों कानों में कुण्डल थे, हम पर हँस रहा था. मेरे मुँह से बरबस फूटा, “आम्भी?”
“ओह, तो आप मुझे पहचान गयीं.“ उसने खींसे निपोरते हुए कहा, “चलिए, यह आपका भाग्य है. बहुत से लोग मुझे जानना चाहते हैं, मिलना चाहते हैं. पर मैं किसी की बुलावे से नहीं मिलता, न ही एनकाउंटर की वारदातों में कभी पाया जाता हूँ. मुझे केवल वही देख पाता है जिसे मैं चाहूँ.“ उसने पिस्तौल अंगिरा जी पर तान दी और उन्हें इशारे से मेरी तरफ बैठ जाने को कहा. अंगिरा जी ने ठीक वैसा ही किया.
आम्भी नाविक के बगल
में बैठ गया और हम दोनों पर चीख कर बोला, “बहुत होशियार समझते हो? बताओ अन्नपूर्णा
को भगाने की हिम्मत कैसे की?”
“आप अपनी बहन को फोन कर लीजिए. अन्नपूर्णा अपना पता बता चुकी है.“ अंगिरा जी ने संयत स्वर में कहा.
“मुझे मालूम है.“
आम्भी ने गुस्से में भर कर कहा, “तुम यह भूल रहे हो कि तुमने आम्भी से टकराने की
जुर्रत की है. मैं तुम लोग को यहीं टपका दूँ तो?”
“यह कमजोर आदमी के बस की बात नहीं है, आम्भी. मुझे ऐसे फूहड़ मजाक से, बिना किसी
परिश्रम के जीत पाओगे. यह सम्भव नहीं है.“ अंगिरा जी ने कहा.
आम्भी ने ठहाका लगाया, “यहाँ तुमको मुझसे कौन बचाएगा?” उसके भयंकर ठहाके से मैं डर गयी. तभी उसके बगल में बैठे नाविक ने हाथ में लिए चप्पू से असावधान आम्भी के हाथ पर जोर से मारा. आम्भी के हाथ से पिस्तौल छिटक कर नाव में गिरा, जिसे फुर्ती से अंगिरा जी ने अपने कब्जे में ले लिया. नाविक ने अपना लबादा उतार फेंका और चप्पू से फिर आम्भी के मुण्डे हुए सिर पर मारा.
यह नाविक के भेस
में ‘अगम ब्रह्म’ था. मैं उसे पहचान कर हँसने लगी और मेरे साथ अनिरुद्ध और अनिकेत
भी खिलखिला उठे. फिर अंगिरा जी और अगम ब्रह्म ने मिल कर आम्भी की धुनाई करनी शुरू
की. अगम ब्रह्म ने कहा, “यह तुम्हारी सर्विस पिस्तौल झील में फेंक दूँ?”
“नहीं, नहीं. ऐसा मत करना.“ आम्भी ने कहा. उसी समय मेरे फोन की घण्टी बजी. अन्नपूर्णा का फोन था. मैंने फोन रिसीव करके कड़े शब्दों में कहा, “अन्नपूर्णा, यहाँ तुम्हारे मामा हमारी जान लेने पर तुले हैं.“ कह कर मैंने अपना फोन स्पीकर पर डाला. उन दिनों स्मार्टफोन नहीं होते थे, पर मेरे पास एक महँगा रंगीन फोन हुआ करता था. अन्नपूर्णा ने कहा, “मामाजी, प्लीज. ये आप क्या कर रहे हैं? मैं ठीक हूँ. आप को कहा था न कि कोई गड़बड़ मत कीजिएगा. प्लीज, छोड़ दीजिए इनको, वरना मैं आपसे कभी बात नहीं करूँगी.“
“अच्छा बेटी, ठीक है.“ आम्भी ने अंगिरा जी की मजबूत गिरफ्त में ढीले पड़ते हुए कहा, “मैं हार मानता हूँ. अन्नपूर्णा मिल गयी, अब हमारा आपका झगड़ा नहीं है.“
“फिर यह तमाशा क्यों कर रहे थे?” अंगिरा जी ने आम्भी की गर्दन पर गिरफ्त बढ़ाते हुए पूछा. मैंने इधर अन्नपूर्णा को फोन पर कहा, “चलो, मैं बाद में बात करती हूँ.“
“आपको डराने के लिए. मैंने सोचा था कि यहाँ मोटर से चलने वाली नाव ले कर आपको आ कर डराऊँगा, लेकिन यहाँ मोटर से चलने वाली नाव ही नहीं चलती. मैं कौन सा आप लोग की जान ले लेता?“ आम्भी ने टूटती साँस में कहा, “अन्नपूर्णा के चाचा अभिजित और अन्नपूर्णा को दिल्ली ले आए हैं.“
अगम ब्रह्म और अंगिरा जी ने फिर आम्भी को थोड़ी ढील दी. आम्भी ने हँस कर अंगिरा जी से हाथ मिलाया, “भूल-चूक माफ करो यार.“
अंगिरा जी और अगम ब्रह्म हँसने लगे. सभी नाव में बैठे-बैठे नज़ारों का आनन्द लेते रहे.
अंगिरा जी ने कहा,
“जिस प्रकार
प्रवाहित होती हुई नदियाँ अपने धाम, समुद्र
में पहुँच जाती हैं और अपने नाम तथा रूप को छोड़ देती हैं,
जिस प्रकार कई गधेरे और जलधाराएँ इस झील में मिल कर अपना नाम खो देते हैं, कहते
हैं कि अंत में हम सभी का जीवन किसी विशाल समुद्र में समा जाता है.“
सोमवार १८ अगस्त को
हम सभी दिल्ली वापस लौटे. उसी शाम हम अन्नपूर्णा के घर जा कर अभिजित, अन्नपूर्णा,
आम्भी और अन्नपूर्णा की माँ अहल्या से मिले. अहल्या ने अंगिरा जी से शिकायत की,
“सब कुछ ठीक है. लड़का भी अच्छा है. तुमने भादो में इन दोनों की शादी करवायी है.
अब मैं रिश्तेदारों को क्या बताऊँगी?”
“यह काम आप मुझ मन्त्रक
पर छोड़िए.“ अंगिरा जी बोले,
“अरे भादो में तो
इन्होंने कानूनी तौर पर विवाह किया. दरअसल फोटो आषाढ़ के दिनों का है. बाकी मैं
लोग को समझा दूँगा. वैसे आपकी तसल्ली के लिए अगहन में फिर से दोष मुक्ति के लिए
पूजा करवा देंगे.“
“ऐसा भी होता है?” अहल्या जी ने चौंक कर पूछा था.
“मन्त्रक सब कुछ
जानते हैं.“ अंगिरा जी ने हँस कर कहा था.
अग्निशिखा जी के वृतांत के अंत होने पर शौनक जी ने पूछा, “अच्छा, यह सब था आपके सब जानने का उदाहरण!”
अंगिरा जी ने कुछ उदासी भरे स्वर में कहा,
“यह आदिसिद्ध है कि
माया में फँसा मनुष्य अल्पज्ञानी ही है. चाहे वो मन्त्रक ही क्यों न हो! चाहे
कितना बड़ा विद्वान क्यों न हो! सुनते हैं वह जो कि उस 'परम
ब्रह्म' को
जानता है वह स्वयं 'ब्रह्म'
बन जाता है. वह शोक से पार हो जाता है,
वह पापों से तर जाता है. अभी ऐसा कुछ नहीं.“
शौनक जी यह उत्तर
सुन कर कुछ निराश हुए. अंगिरा जी ने उन्हें टोकते हुए कहा, “आप अपनी अगली
राजनैतिक बैठक में यह मुण्डे हुए सिर के साथ कैसे जाएँगे? ऐसे में आपको कोई टिकट
तक नहीं देगा! थोड़े प्रभावशाली नजर आइए. ऐसा कीजिए, आप एक नया विग खरीद लीजिए.“
“कहाँ से?”
शौनक जी के सहज
प्रश्न सुन कर अंगिरा जी ने अपनी काली स्याही वाली कलम से अपनी विजिटिंग कार्ड के
पीछे एक पता लिख उनकी तरफ बढ़ाते हुए कहा, “लाजपत नगर में इस कम्पनी का एक आउटलेट
है. यह कम्पनी आज कल अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए मेरी सेवाएँ ले रही हैं. ये एक लाख रुपये में बेहद उम्दा विग देते हैं. उसको लगाने के बाद पता ही नहीं चलेगा कि आप
मुण्डक हैं. और सुनिए, आपका बेटा जिससे प्रेम करता है, वह अच्छी लड़की है. ये
दोनों भागेंगे नहीं, इसके लिए आप निश्चिंत रहिए. आप दोनों का विवाह कर दीजिए, आपको
चुनाव में लड़ने का टिकट आपके होने वाले समधी दिला देंगे.“
हिन्दी साहित्य के
नवीन तथा अधीर आलोचकों ने इस अपूर्व वृतांत पर संकल्पन,
अभिमनन और निश्चयन किया. तदुपरांत वे शून्य
में चीत्कार कर उठे :
"ये सब क्या है? आप क्या सोचकर इस तरह की चीज़ लिखते हैं, कभी सीधे-सीधे बताइए. हम सचमुच इसे जानना चाहते हैं. हमें टुकड़ों में आपके विवरण-वर्णन इतने पसंद आए कि इस विचित्रता को समझने के लिए और जिज्ञासु हो चले हैं."
यह 'वह'
है जिसे एक ऋचा में भी कहा गया है. जो
क्रियावान, जिज्ञासु,
सत्यनिष्ठ हैं और स्वयं श्रद्धापूर्वक विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों की
‘ज्ञानमीमांसा’ पर मनन करते हैं तथा जिन्होंने 'शिरोव्रत'
का विधिवत् पालन किया है केवल उन्हीं अधिकारियों
को यह कथा पढ़नी चाहिये. यह है 'वह',
'सत्य कथा'
जिसे कोरोना काल में अंगिरा ऋषि ने
अग्निशिखा के संग बतायी थी. जिसने तत्त्वमीमांसा के बिना ज्ञानमीमांसा को पढ़ा है,
वह भी इस कथा को नहीं पढ़ पाता अर्थात् इसका
गूढ़ अभिप्राय नहीं समझ सकता. परम ऋषियों को नमस्कार है! परम ऋषियों को नमस्कार
है!
इति श्री
अच्छी दिलचस्प कहानी है। वृतांत की नयी शैली।
जवाब देंहटाएंमुण्डक कहानी पढ़ी, बहुत दिनों के बाद एक रोचक कहानी पढ़ने का मजा आया। कहानी का शिल्प और कथारस दोनों बहा ले गया। समालोचन, अरुण देव व कहानीकार प्रचंड प्रवीर को बधाई व शुभकामनाएँ। एक शुभकामना और दूँगी, ‘(प्र) वीर तुम बढ़े चलो...’
जवाब देंहटाएंआलोचकों को संबोधित करने वाले अंतिम अंश को पढ़ कर सबसे अधिक मजा आया। वक्त आ गया है जब कहानीकार आलोचकों को ललकारे, हिन्दी आलोचक अंगड़ाई लेंगे। यह अंश पढ़ते हुए अनायास चेहरे पर मुस्कान आ गई।
और हाँ, समालोचन की बेजोड़ प्रस्तुति मनमोहक है। और बड़ा मजा आया मनीष पुष्कले के चित्र पर टिप्पणी से। चित्रकला की मेरी शून्य समझ थोड़ा इजाफ़ा हुआ।
जवाब देंहटाएंप्रवीर जी एक अलग भाव-भूमि पर खड़े दिखाई देते हैं। अब भी और अपने प्रारंभिक लेखन से अब तक भी। समालोचन प्रचंड हुई!--मदन पाल सिंह
जवाब देंहटाएंरचना अच्छी लगी. मैंने इनकी पुस्तक 'अल्पाहारी गृहत्यागी ' भी डाक से मंगवा कर पढ़ी है जो कि अत्यंत रोचक है . वह एक ऐसा डॉक्यूमेंट है जिसमें हमारे समय के प्रतिबिम्ब को आने वाले समय के लोगों के देखने के लिए सहेज कर सुरक्षित रख दिया गया है.
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