कथा-गाथा : ईश : प्रचण्ड प्रवीर



प्रचण्ड प्रवीर जो भी लिखते हैं उसमें दर्शन की सुदृढ़ भावभूमि अवश्य होती है वैसे वह पेशे से केमिकल इंजीनियर हैं. उनका एक उपन्यास, हिंदी और अंग्रेजी में एक एक कहानी संग्रह, विश्व सिनेमा को भारतीय रस सिद्धांत के आलोक में देखती हुई एक आलोचनात्मक किताब, लेख, अनुवाद आदि प्रकाशित हो चुके हैं. संस्कृत साहित्य में विशेष रूचि रखते हैं.

उपनिषदों को आधार बनाकर ग्यारह कहानियों की श्रृंखला पर कार्य कर रहें हैं. यह उनकी पहली कहानी है ‘ईश’. दर्शन को कथा के शिल्प में कहने के अपने ज़ोखिम हैं. यह एक प्रयोग भी है. कहानी आपके समक्ष है.


ई श                                               
प्रचण्ड प्रवीर 


हुत पहले की बात है. बात एकदम से शुरु नहीं होती. हर किसी बात के पीछे अतीतबंधा होता है, जो खींचने पर धागे की तरह खुलता ही जाता है. अब इसमें याद रखा जाने योग्य अतीत अंतत: इतिहास बन जाता है. उसमें भी यह सवाल उठता रहता है इतने में से कितना इतिहास हमारे काम का है और कितना व्यर्थ है? इतिहास की बहुत सी बातें अंतत: सामान्य ज्ञान बन जाती हैं. इस तरह यह समझा जा सकता है कि इतिहास का मूलभूत प्रश्न इसमें निहित है कि कितनी बातों को सामान्य ज्ञान मान लेना चाहिए!


मेरे शिक्षक का मत था कि इतिहास का कोई खास मतलब नहीं होता है. इतिहास दरअसल कूड़ेदान की चीज होती है, जिसका पुनर्चक्रण करके काम की चीजें बनती हैं और बनायी जाती है. किन्तु इतिहास स्वयं में कोई सत्य नहीं देता. इसलिए इतिहास को किसी नज़र से देखा जाता है और तरह-तरह के मत निकाले जाते हैं. अंतत: किसी नज़र से इतिहास भी खुद को दुहराने के लिए बाध्य हो जाता है. वहीं देखा जाय तो सामान्य ज्ञान वस्तुत: सत्यपरक न हो व्यवहारपरक या स्वार्थसिद्धि हेतु ही है. इसलिए जो पुनरावृत्ति की आशा से ऐतिहासिकता पर महत्त्व देते हैं, दरअसल वह अंधेरे में भटक रहे होते हैं. मेरे शिक्षक, जो धीर पुरुष थे, उन्होंने यह भी कहा कि किन्तु आश्चर्य है कि जो इतिहास को अनदेखा कर जीते हैं वह और भी गहरे अंधेरे में विचर रहे होते हैं. दरअसल जो इतिहास को जान कर इतिहास को अनदेखा कर के आगे बढ़ सकता है, वे ही किसी बात को समझ सकते हैं.
     
बात बहुत पहले की है. सौ साल के आस-पास से बात शुरु की जा सकती है, जब मेरा जन्म होने ही वाला था. उन दिनों का विज्ञान और तकनीक आज के मुकाबले कुछ कम था. तकरीबन उस समय तक मानव की दो मुख्य प्रजातियाँ हो गयीं थीं – १. गुणसूत्र संशाधित २. प्राकृतिक. करीब आज से दो सौ साल पहले मानवों ने जीन और गुणसूत्रों का संशाधन करना शुरु किया और उत्तरोत्तर ऐसी जाति विकसित हुयी जिसमें कर्क रोग, क्षय रोग, मामूली सर्दी, मलेरिया, गंजापन आदि बीमारियों का समूल नाश हो गया है. मानव कोशिकाएँ ऐसे रोग से सदा के लिए संरक्षित हो गयीं. इतना ही नहीं यौक्तिक रूप से मनुष्य पहले की तुलना में अधिक बुद्धिमान, बेहतर स्मरण शक्ति वाला हो गया.
   
दूसरी ओर बहुत से लोग ने मानव जीन और गुणसूत्र संशाधन का विरोध किया और प्राकृतिक तरीके से संतान उत्पत्ति करते रहे. इस तरह दो तरह की जाति व्यवस्था विकसित हुयी. किन्तु यह जाति व्यवस्था भी बहुत दिनों तक पूरी तरह कारगर नहीं हो पायी क्योंकि बहुत से वर्णसंकर पैदा होते गये. हालांकि वर्णसंकरों को प्राकृतिक मानवों ने अपनाया, वहीं गुणसूत्र संशाधित प्रजाति ने उसे कमतर कह कर अलग ही रखा.
पिछड़ जाने के कारण प्राकृतिक मानवों ने खुद को और पीछे ढ़केला. अब वे भूमि के छोटे हिस्से पर प्राचीन तौर तरीकों से खेती करके अपना जीवन यापन करते थे. विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि प्रयोगशाला में शाकाहार, मांसाहार, हर तरह का भोजन बड़े पैमाने पर बनने लगा है. मशीन तस्वीरें बनाने से ले कर, संगीत लहरियाँ गढ़ने से ले कर कहानियाँ लिखने तक का काम कर रहे हैं. किन्तु एक विचित्र समस्या ने गुणसूत्र संशाधित और प्राकृतिक दोनों तरह के मनुष्यों को घेर लिया.
वह थी आत्महत्या की समस्या!
   
एक सदी पहले तक यह देखा जाता रहा था कि आत्महत्या करने वाले अधिकांश मनुष्य दु:खी और लाचार हो कर, आवेश में या अवसाद में आत्महत्या कर बैठते  थे. नयी सदी का मानव यह प्रश्न पूछने लगा कि आखिर जीवन का उद्देश्य क्या है? प्रश्नों का मूलभूत रूप से बदल जाना, अकस्मात ही नहीं हो गया. इसका कारण यह था कि मनुष्य बड़े कम समय में बहुत से काम करने लगा था. एक रात मनुष्य सोता, तब मशीन रात भर में उसे संसार भर में बनी उत्कृष्ट फ़िल्में दिखा देतीं और वह अवचेतन में ही उनसे परिचित हो जाता. एक दिन में वह चित्र, स्थापत्य के सभी चर्चित कलाकृतियों से गुज़र जाता. कुछ दिनों में वह संसार का अद्यतन सङ्गीत सुन लेता. फिर मशीनों की ही मदद से वह गाना सीख लेता. जिस नृत्य की उत्कृष्टता को सीखने में जीवन लग जाता था, वह गुणसूत्र से संशाधित कर देने से और मशीनों के निर्देश से मनुष्य महीने भर में हर तरह के नृत्य में पारंगत हासिल कर लेता.
   
साहित्य, कला, सङ्गीत, यौन क्रियाएँ, पर्यटन – जब सबकी सीमाएँ समाप्त हो गयी, तब मनुष्य के लिए मृत्यु एक उत्कृष्ट प्रश्न के रूप में सुदृढ़ हुआ. मनुष्यों के लिए नए रोग उत्पन्न होते गए, जिसका समाधान न मिला. अंतिम विजय न मिली. शून्य एक महती प्रश्न था और उसका कोई उत्तर न था. 
   
पिछली सदी के कुछ मनोवैज्ञानिक ऐसा मानते थे कि गुणसूत्र संशाधित मनुष्य बहुत भावुक हैं. वे मामूली रोग से घबरा कर बड़े पैमाने पर आत्महत्या करने लगे हैं. वैज्ञानिकों ने इसके लिए समाधान निकाला कि मनुष्य भावुक कम से कम हो. इसके बाद की पीढ़ी ने साहित्य, कला और सङ्गीत की शिक्षा लेनी बंद कर दी. विधिवत शिक्षा उनके स्वातंत्र्य का हनन था. इसके बाद शुरु हुआ हत्याओं का दौर!
   
मामूली बातों पर या मज़ाक में ही किसी की नृशंस हत्या करना एक नए तरह का मनोरंजन के रूप में स्थापित हुआ. 
   
वैज्ञानिक इस बात पर भी बड़े चिंतित हुए. मशीनों की सख्त की निगरानी में इस तरह के मनोरंजन पर पाबंदी लगा दी गयी. समाज वैज्ञानिकों ने धन के संचय पर भी रोक लगा दी. यह विचारा गया कि धन की कमी से मनुष्य के लिए जीविका की चिंता रहेगी और इस तरह चिंताओं भी घिरा मनुष्य अनर्थक प्रश्न न पूछेगा. इस तरह जिस गरीबी का उन्मूलन कर लिया गया था, वह वापस लायी गयी.
   
इसका परिणाम और भी निराशापूर्ण हुआ. क्योंकि ठीक इसी के बाद शुरु हुआ था सामूहिक आत्महत्याओं का दौर. जैसे सदियों पहले महामारी में गाँव के गाँव खत्म हो जाते थे, उसी तरह सामूहिक आत्महत्याओं से नगर के नगर उजड़ने लगे. यह थी मेरे युग की महती समस्या!
     
तीन-चार सौ साल पहले अमरीका में दुनिया भर के बेहतरीन वैज्ञानिक इक्कठे हो कर विज्ञान की प्रगति में अभूतपूर्व दिशा प्रदान की. विश्व तेजी से बदल गया. उत्तरोत्तर भौतिक निकटता की आवश्यकता समाप्त हो गयी. ‘देश’ (दूरी) जीता न गया, किन्तु ‘देश’ की महत्ता कम होती गयी. मेरे शिक्षक, जो धीर पुरुष थे, उन्होंने मुझे विशिष्ट बनाया और मेरा जन्म प्रयोगशाला में ही हुआ. किन्तु वे मेरे माता-पिता न थे. दरअसल बहुत से गुणसूत्रों के आधार पर मुझे कृत्रिम रूप से सर्जित किया गया. हालांकि यह पद्धति नयी नहीं थी, पर मेरा जन्म इसलिए विशिष्ट था क्योंकि मुझमें विश्व की सभी भाषाओं को नैसर्गिक रूप को समझने की क्षमता विकसित की गयी थी. इस काम करने में मशीनें भी हार चुकी थीं क्योंकि उत्तरोत्तर कुछ ऐसे प्रश्न पैदा हुए जिसका निराकरण करना मशीन के लिए सम्भव न था. मेरे शिक्षक ने हार न मानी और जब मैं प्रयोगशाला में एक महीने में ही बन कर तैयार हुआ, मेरे चमकते नेत्रों से वशीभूत हो कर उन्होंने मेरा नाम ‘आदित्य’ रखा.




(दो)
   
मेरे शिक्षक धीर पुरुष थे, साधु सरीखे दीखते थे. लम्बी दाढ़ी, मुनियों जैसा पहनावा. चेहरे पर काली आँखों के सिवा कुछ भी नज़र नहीं आता था. उन्होंने मेरी शिक्षा के लिए कोई व्यग्रता या उत्तेजना नहीं दिखायी. उन्होंने किसी भी तकनीक का उपयोग किये बिना बड़े ही धैर्य से अलग बीस साल मुझे प्रकृति से ही नैसर्गिक तरीके से सीखने को छोड़ दिया. उन्होंने मुझे वर्णमाला तक न सिखाया. न ही मेरी किसी तरह की कोई परीक्षा ली. मेरे लालन पालन के लिए एक निर्धन दम्पत्ति को नियुक्त किया गया था, जिन्होंने खडगपुर की पहाड़ियों में बनी निर्जन गोलाकार प्रयोगशाला में मेरे साथ रहते थे. उन्होंने ही मेरे लिए भोजन का प्रबन्ध किया और निर्जन वन में भयंकर जीव-जन्तुओं से रक्षा की. उन्हीं अर्थों में वह मेरे माता-पिता हुए.

पठार पर बने मेरे गोलाकार निवास पर मेरे शिक्षक का आना तबसे ही चालू है जबसे मैंने होश सम्भाला. यह बहुत बाद में मैंने जाना कि मुझ से पहले उन्होंने पाँच और अतिमानवों को इसी प्रयोगशाला में बनाया था और वे उनकी अपेक्षा के अनुरूप न निकले. मेरे जन्म के समय उनकी आयु बहुत हो चुकी होगी. यह निश्चित था कि मेरे जन्म के साथ ही वह आश्वस्त थें कि उनका प्रयोजन सिद्ध होगा. उनकी आकांक्षा थी कि मैं बिना किसी बाहरी सहायता के, बिना किसी उपादान के समस्त विषयों को स्वयं ही सीखूँ और ‘वह सब कुछ’ करूँ जिसपर वे गर्व कर सकें. ‘वह सब कुछ’ क्या था, यह मेरे लिए एक रहस्य ही था. यह उनके गुणसूत्र संशाधन पर निर्भर था. 

मेरे केश रेशमी हुए. मेरा रूप और शारीरिक सौष्ठव उनके इच्छानुसार ही हुआ होगा क्योंकि ऐसा मैंने यौवन में प्रवेश करते हुए जाना कि मैं बहुत प्रभावशाली और आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी हूँ. कब जाना?

कैसे जाना?
शिक्षक के आदेशानुसार मैंने किशोरावस्था तक अधिकांश समय मानव का इतिहास, व्याकरण, गणित और तमाम भाषाएँ पढ़ते हुए बितायीं थीं. इसमें मेरा न कोई साथी न ही कोई मार्गदर्शक आचार्य. इतिहास पढ़ने के क्रम में मैंने जाना कि धन के कारण बहुत से युद्ध हुए. द्वेष का कारण किसी और के वैभव और ऐश्वर्य की प्रति ईर्ष्या जाना. 

किशोरावस्था में मैंने जाना कि बिना धनबल के संसार को जीतना अपेक्षाकृत कठिन है. मैं अकेला ही अतिमानव तो नहीं था. क्या मैं खिलाड़ी बनूँ? चित्रकार बनूँ? किस विधि से धनी बन जाऊँ? 

एक बार मेरे शिक्षक जब मेरे निवास पर पधारे, तब मैंने उनसे यही प्रश्न किया – मेरा भविष्य क्या होगा? किस तरह से मैं अपार धन का स्वामी बनूँगा? कौन सा रास्ता चुनूँ जिससे मैं धनवान बनूँ?
   
मेरे शिक्षक ने जो कहा, मुझे आज भी याद है -इस संसार में जो कुछ भी है, उसमें ईश का वास है.यह धन किसका है? अधिक का लालच न कर. जो मिल जाय, उसी से अपना पालन कर.
   
मेरे शिक्षक जो धीर पुरुष थे, जो इतने प्रतिष्ठित जीव-वैज्ञानिक थे, उनसे ऐसी महत्त्वाकांक्षाहीन बातें सुन कर मुझे अटपटा लगा. किन्तु उनसे प्रतिप्रश्न पूछना कोई फल नहीं देता था. मैं बहुत पूछता तो भी वह कुछ न कहते. शायद यही कारण रहा होगा कि मैं किसी भी मनुष्य से कोई भी वैचारिक प्रश्न करने की ज़रूरत नहीं समझी. या तो वह यह समझते थे कि मैं अपनी क्षमता से धनवान तो हो ही जाऊँगा, आत्मनिर्भर हो जाऊँगा. किन्तु वह मेरी जलती महत्त्वाकांक्षा पर पानी न डाल सके.
   
उनका कहा निरर्थक नहीं होता है, शायद इसलिए उनकी कही बात बहुत दिनों तक मेरे कानों में गूँजती रही. यह मेरे लिए चुनौती थी कि इन वाक्यों का सही मतलब समझूँ. एक बात मैंने बहुत पहले सीख ली थी कि मानव में धैर्य बहुत होना चाहिए. कम से कम सीखने और जानने के मामले में. जो पूछने पर बताया न जाय, वह दुबारा पूछना अश्लीलता ही है. 
   
उन दिनों मैं एक अलग ही परियोजना में जुड़ा हुआ था. वह था औषधियों के सेवन से मनुष्य के शरीर का बूढ़ा न होने देना. यह काम करीब दो सौ सालों से चला ही आ रहा था. पहले इंसान चूहों पर, बंदरों पर शोध करता था. बाद में यह सब कम्प्यूटर के मॉडल पर होने लगा. लेकिन जब भी सैद्धांतिक मॉडलों को व्यवहार में लाने की कवायद की गयी, नतीज़ा उल्टा ही निकला.    
इतिहास से जो एक सामान्य ज्ञान की बात निकलती है, वह यह है कि विलक्षण मानवों को युवावस्था तक अंधा संघर्ष करना पड़ता है. वह बने बनाए रास्ते पर चलता जाता है. कुछ दूरी पर जाने के बाद वह अपनी पिछले पायदानों को मिटा कर अंधेरे में भटकता है, फिर नयी समझ पैदा कर कुछ विलक्षण करता है. यह काम अधिकांश बीस साल-पच्चीस साल तक की उम्र में हो ही जाते हैं. शायद यह योजना थी या संयोग, मेरा किसी कन्या से मिलना जुलना कभी न हुआ.     
साहित्य पढ़ते हुए मैंने जाना कि अधिकांश कवियों के लिए स्त्री ही अनसुलझा प्रश्न था. मैंने तब विचारा कि मैं प्रश्न से कैसे परिचित होऊँगा? इतना मुझे पता था कि स्त्रियाँ सजने सँवरने का मौका नहीं जाने देती. यही कारण था कि जब गुणसूत्र संशाधित मानवों को प्रजातियों ने बेहद मजबूत मानव पंख विकसित किए, कालांतर में वह स्त्रियों की एकाधिकार सम्पदा बन गए. जिस तरह लम्बे बाल अधिकतर स्त्रियाँ ही रखती हैं, उसी तरह कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी स्त्रियों ने पंख अपना लिए और पुरूषों के गुणसूत्रों में पंख निषेध कर दिये गए. एक और दिलचस्प बात हुयी. प्राकृतिक प्रजाति की स्त्रियों के लिए प्रयोगशाला में बने पंख आ गये जो कि स्त्रियों के अंग से मजबूती से चिपक जाते. स्त्रियों में पंख कट जाने पर दुबारा उग जाया करते थे. इस तरह बहुत कम ही पंखविहीन औरतें होतीं और बचे खुचे पंख वाले पुरुष स्त्रैण माने जाने लगे.   
एक दिन प्रात: काल में मैं सौर उर्जा से उड़ने वाले हल्के उड़नखटोले से पास की झील का मुआयना कर रहा था, तभी मेरी नज़र झील के किनारे बैठी दो युवतियों पर पड़ी. न जाने किसी शक्ति से मैं उधर खिंचा चला गया. मेरी नज़र उससे जा मिली, जिसने मेरी ज़िन्दगी झट से बदल डाली.


   नैन सो नैन नाहीं मिलाओ, नैन सो नैन नाहीं मिलाओ, देखत सूरत आवत लाज, सइयाँ

    प्यार से प्यार आके सजाओ, प्यार से प्यार आके सजाओ, मधुर मिलन गावत आज, गुइयाँ

    
   
सफेद साड़ी में लिपटी सुबह की लालिमा जैसी अधरों वाली कन्या अपने सफेद पंख फड़फड़ाते हुए मुझे देख कर बरबस बोल उठीं, ‘गुइयाँ!’    
यह राज की बात कह कर वह हल्के से मुस्कायी. मैं जो आज तक प्रीत के बारे में पढ़ता ही आया था, पहली बार जान पाया कि हृदय के बिंध जाने पर कैसा मीठा सा लगता है. मेरे हाथ-पाँव से पसीने छूट गए. उसने मुझसे प्रश्न किया – गुइयाँ, तुम पहाड़ी के महल पर रहते हो न?   
मैंने हाँ में सिर हिला कर पूछा, ‘तुम कौन हो? मुझे कैसे जानती हो?”   
उन दोनों में जो छोटी थी, शावक की तरह लजा कर काँपती हुयी अपने पंखों से अपना चेहरा ढँपते हुए पहली के पीछे छुप गयी. उस कन्या ने बच्ची को समझाते हुए कहा, “डरो नहीं. अभी चलते हैं.“ मैंने फिर पूछा, “आप कौन हैं?”   
मेरी तरफ़ देख कर बोली, “मेरा नाम ईशा है.“ कह कर वह झट से अपने सफेदपंख फैला कर फूलों की डलिया लिये देखते ही देखते दूर गगन में उड़ चली. उसके पीछे-पीछे छोटी बच्ची भी उड़ती चली गयी. मैं जड़वत् स्तम्भित उन्हें देखता ही रह गया. मेरे उड़नखटोले की गति के सामने नए पंखों की रफ्तार कहाँ टिकती? लेकिन जैसे मेरी सारी शक्ति निचुड़ गयी थी और मैं उसका पीछा भी न कर सका.    
उस रूपवती के जाते ही संसार नि:सार हो गया. एकबारगी मुझे ऐसा लगा कि मैं अपने शिक्षक की बात को समझ गया. क्योंकि उसी क्षण में मेरी महत्त्वाकांक्षा एकदम से बदल गयी. मुझे लगा कि अब ईशा ही सबसे दुर्लभ और सर्वाधिक अभीष्ट है.    
मैंने शिक्षक की बात को कुछ इस तरह से दुहराया –
जगत् में जो कुछ भी संसार है, उन सबमें ईशा का वास है. अब वह जो जहाँ मुझे त्याग कर दे रही है, उसी से मेरी ज़िन्दगी चलेगी. इससे अधिक मुझे कुछ न मिलेगा, जिसका मैं लालच करूँ. अगर वह मुझे मिल जाय तो वही मेरी जीवन भर की निधि होगी. आखिरकारयह धन किसका है? कौन सा धन, किस तरह का धन? धन है तो किसलिए है? धन से मिलेगा भी क्या? सब कुछ ईशा ही तो है.






(तीन)
   
इस युग में मनुष्य के लिए स्मृति की समस्या नहीं रही. इक्कीसवीं सदी के अंत में ही मनुष्यों ने स्मृतिकोश के लिए क्लॉउड सर्विस का त्याग कर के गुणसूत्रों में ही समस्त घटनाएँ बीजरूप में छुपा दीं. इसके उपरांत पारस्परिक सम्बन्धों में, तुमने क्या कहा था और क्या नहीं कहा था – जैसी बहस का स्थान – मेरा आशय क्या था और शब्द-अर्थ की ग्रहण क्षमता पर पारस्परिक प्रहार हो गया. क्योंकि सभी तकनीकी प्रगतियों के पश्चात भी चेतना में अर्थ ग्रहण करने की प्रक्रिया न तो गुणसूत्रों से निर्धारित की जा सकी न ही किसी अन्य तकनीक से.   
इसलिए कहता हूँ कि घटना के ठीक तीन दिन बाद मेरे निवास पर शिक्षक से मिलने एक अधेड़ आगंतुक आये और वे दोनों अंतहीन बातें करने लगे. करीब तीन दिन तक वे दोनों एक ही जगह बैठे, खाते-पीते बाते करते रहें. उनकी बातें कुछ इस तरह की थीं – आगंतुक का मानना था कि जब जैविक प्रजनन से संतति होती हैं, फिर गुणसूत्रों से संशाधित मनुष्य अधिक क्या हासिल कर रहे हैं? अगर अजर-अमर होना मनुष्य का अभीष्ट है, तो फिर प्राकृतिक संतानों के द्वारा मनुष्य क्या खुद को जीता हुआ नहीं पाता है? मेरे शिक्षक इस के विरोध में कह रहे थे – मनुष्य की संतति मनुष्य का विस्तार अवश्य है किन्तु वह व्यक्तिगत नहीं है. इसलिए मानवों के लिए मृत्यु का प्रश्न, अजर-अमर होने का प्रश्न, आत्महत्या का प्रश्न बना रहेगा, क्योंकि मनुष्य खुद को संकुचित व्यक्ति मानने को बाध्य है. इसके बाद वे दोनों मानव के विस्तार और संकोच पर वाद-विवाद करते रहे.
   
तब उस सुबह मैंने कौतूहल से उन्हें टोक कर पूछ बैठा, “संकुचित व्यक्ति से आपका क्या तात्पर्य है?“
   
मेरे प्रश्न पूछे जाने से दोनों एक साथ ही चुप हो गए. फिर आगंतुक ने मेरे शिक्षक से कहा, “आदित्य क्या हमारे युग की महती समस्या से अपरिचित है? क्या वह इस बारे में नहीं सोचता?”
   
यह मेरी प्रतिभा के बारे में आशंका थी. इसलिए मैंने उत्तर दिया, ‘अगर आप सामूहिक आत्महत्यापर विचार कर रहे हैं, फिर निश्चय ही इसका अर्थ है कि इसका निदान के विषय में आपका एक मत अवश्य होगा. उसी मत की पुष्टि के लिए आप दोनों एक दूसरे के विचारों को आँक रहे होंगे. जहाँ तक मैं समझता हूँ, इसका समस्या का निराकारण आप इस अर्थ में लेते हैं कि आत्महत्या अनिष्ट है. इसका उन्मूलन ‘संकल्प’ से ही हो सकता है. यह संकल्प वैयक्तिक हो या समाज द्वारा शासित? क्या यह ज्ञान द्वारा प्रेरित हो सकता है या सौन्दर्य द्वारा संचालित? समस्या यह है कि आत्महत्या स्वातंत्र्य की अभिव्यक्ति है और उसे आप सत्य या मूल्यबोध से रोकना चाहते हैं.“    
आगंतुक का चेहरा दीप्त हो उठा. उन्होंने प्रसन्न हो कर कहा, “इस जगत में कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए. इसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं जिससे कर्मों को लेप हो.“ मेरे शिक्षक ने उनकी बात सम्भाल कर कहा, “इनका आशय कर्मफल और पुनर्जन्म के सिद्धांतों से है. मैं पुनर्जन्म को नहीं मानता. कर्मफल के सिद्धांत को भी नहीं मानता. इसलिए ‘सौ वर्ष’ से जो दीर्घ जीवन के प्रति निष्ठा है, उसका आधार यौक्तिक नहीं है. यह न ही तार्किक है, न ही प्रत्यक्ष से निगमित है.“
   
आगंतुक उठ खड़े हुए. जैसे ही मैंने उनके पाँव छू कर उनका आशीर्वाद लिया, उन्होंने कहा, “मुझे तुम्हारे प्रयोग में रुचि है. मैं पास ही में रहता हूँ. कभी मेरे घर पर आओ. तुम से अच्छी चर्चा हो सकती है.“    
संसार में कुछ चीजें अनुभव योग्य होती हैं. कुछ विशेष अनुभूतियाँ स्मृति से पुनर्जीवित नहीं होतीं. जैसे पुत्र को पिता सहज प्राप्त होता है, मुझे भी लगा कि वे मुझे सहज ही मिले हैं. आगंतुक से मिल कर मुझे ऐसा लगा कि वह भी मेरे पिता सरीखे हैं. वे भी अनागत संकट से मेरे यथासम्भव रक्षा करेंगे. आगंतुक का स्नेहाकांक्षी मैं उनसे मिलने उनके निवास पर जा पहुँचा.
   
सुबह के दस बज रहे थे. मैं उनके बेलनाकार पाँच मंजिले निवास के नीचे खड़ा था. घर के चारों ओर हरी लताएँ लिपटी हुयी थीं जिसमें छोटे-छोटे बैंगनी फूल खिले थे. जैसे ही अपने आने की सूचना दरवाजे के बाहर छोटे से यंत्र से प्रेषित की, ऊपरी मंजिल की खिड़कियों से वे ही दो कन्याएँ पंख फड़फड़ाती उड़तीं हुयीं लताओं को हटाती सफेद बादल के टुकड़े जैसी अवतरित हुयीं.
   
ईशा और उसकी छोटी बहन मोगरा की कलियों जैसी सुवासित थीं. मुझे घर के अंदर बिठा कर वे अपने आंगन से वापस ऊपर की तरफ पंख फड़फड़ाते उड़ गयीं. बहुत से नन्हें पंख हवा में तैरते मेरी गोद में गिर गये.    
उस दिन मेरे निवास पर आये आगंतुक ईशा के पिता थे. उनका नाम ब्रह्म था.    
मेरे कुशल क्षेम के बाद उन्होंने मेरी परियोजनाओं के बारे में पूछा. मैं अजर मानव बनाने के लिए कृतसंकल्प था. मुझे आशा थी कि वह मेरी प्रतिबद्धता या परियोजना से प्रसन्न होंगे. किन्तु इसके विपरीत वे इससे खिन्न हुए. उन्होंने पूछा, “क्या मैं यह सुनिश्चित कर सकता हूँ कि अजर मानव आत्महत्या नहीं करेगा?”    
“यही करना चाहता हूँ.“ मैंने कहा.    
“कल को अगर तुम अमर मानव भी बना लो, तो इससे क्या होगा? मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि अजर मानव बनाने से क्या हासिल होगा?” ब्रह्म ने पूछा. 
   
“विद्या उपयोगिता साधने के लिए थोड़े ही अर्जित की जाती है. उसकी उपयोगिता तो बाद में निर्धारित होती है.“ मेरे प्रतिवाद पर ब्रह्म ने कहा, ”विद्या निरपेक्ष मूल्य नहीं है. ज्ञान निरपेक्ष मूल्य है. ज्ञान स्वयं अपने लिए हो सकता है, विद्या किसी अन्य का आश्रय ढूँढती है.“    

अपने स्वभाववश मैंने अनुकूल प्रश्न किया, “आप सामूहिक हत्याओं के विषय में क्या विचार रखते हैं?”
   

“जो केवल शरीर और इन्द्रियों की शक्ति से अच्छे बुरे का निर्णय करने वाले गहन अन्धकार में हैं. सत्य के निर्देश का हनन करने वाले लोग प्रेत हो कर भी वैसे ही अन्धकार में ही जाते हैं.“

   
“यह बात तो ठीक लगती है कि आपकी बातें न तो अनुमान से सिद्ध है, न ही प्रत्यक्ष से. आपकी अभिव्यक्ति कविता अधिक लगती है.“ मेरी धृष्टता पर वे हँसने लगे. उन्होंने पूछा, “तुम कुछ और भी चाहते हो. क्या बात है?”    
“मैं जानना चाहता हूँ कि आप प्राकृतिक पुरुष हैं या गुणसूत्र संशाधित?”     
उन्होंने यह कह कर टाल दिया, “इससे कुछ विशेष जानने को नहीं है. दोनों ही तरह के मनुष्य में आत्मा है, सुख है, पीड़ा है, विषाद है, विद्या या अविद्या है. ज्ञान इससे कहीं परे हैं. वैसे तुम्हारे मुख से प्रतीत होता है कि तुम कुछ और पूछना चाह रहे थे. निस्संकोच कहो!”
    
“आपके घर में सुरभि जैसी जो हर जगह है, मैं आपकी उस पुत्री ईशा का अजर प्रतिरूप बनाना चाहता हूँ.“ मैंने बड़ी झिझक के साथ अपने मन की बात कह दी.    
मेरी बात सुन कर वे कुछ देर मौन रहे. फिर उन्होंने पूछा,” और कुछ?”    
किंचित भार से मैंने पलके झुका कर उन्हें उत्तर दिया, “शेष ईशा की स्वीकृति की प्रतीक्षा है.“





(चार)
अगले दिन सुबह-सुबह जब पंख फड़फड़ाते मेरे गोलाकार निवास के शीशे के बने पारदर्शी छत पर ईशा आहिस्ते से आ बैठी, मैं नीचे लेटा उसकी बिखर गये गेसुओं को अपलक निहारता रह गया. उसके गीले घुंघराले बाल खुले थे. हाथों में सोने के रत्नजड़ित कंगन थे. नैनों पर लगा काजल किसी धनुष की प्रत्यंचा की तरह कानों तक चढ़ा था. एकबारगी मुझे लगा कि मैं हृदय के इतने तेज धड़कने से मैं मर जाऊँगा. मेरे सिल गए होंटों और खुली रह गयी पलकों पर ईशा की हँसी ने मेरे प्राण वापस कर दिये. वह किसलिए हँस रही थी?   
छत की खिड़की खोलते ही ईशा हवा में तैरती नीचे उतर आयी. मैं सीढ़ियों से उतरता उसे साधिकार इधर-उधर स्वच्छंदता से घूमता देख रहा था.    
वह ईशा एक ही थी.    
“मेरा प्रतिरूप बनाना चाहते हो?” उसने अनायास ही पूछ लिया. मैंने देखा उसका स्निग्ध मुखमंडल मेरे उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है. किन्तु बहुत घबरा जाने सेमैं कुछ कह न सका. उसके फिर पूछने पर मुझे खुद पर बड़ी लाज आयी. उसने एक शब्द का प्रश्न किया, “क्यों?”   
बड़ी हिम्मत जुटा कर मैंने उत्तर दिया क्योंकि जो प्रश्न का उत्तर न दे सके वह शक्तिहीन होता है. स्त्रियाँ शक्तिहीन पर दया कर सकती हैं, प्रेम नहीं. इसलिए मैंने दृढ़ता से कहा, “वह इसलिए क्योंकि तुम एक ही हो, जो अपने स्वरूप से विचलित नहीं होती. मेरे मन से अधिक गति वाली हो. मैं जानता हूँ कि मेरी इन्द्रियाँ तुम्हें प्राप्त नहीं कर सकती, क्योंकि तुम इनसे बढ़कर हो. अब तुमने ही मेरे जीवन के शेष कर्मों निर्धारण कर दिया है !”    
ईशा इससे विचलित न हुयी. “कैसे?” उसने पूछा और पंख फैलाए हवा में सूखे पीले पत्ते की तरह भारहीन हो कर तैरने लगी.    
“देखो न! तुम चलती भी हो और नहीं भी चलती हो. तुम मेरे दूर भी हो और समीप भी हो. तुम ही मेरे मन में हो और बाहर भी हो.“    
“और?” ईशा ने पलट कर एकटक मुझे देखा.    
“आज से बारह सौ साल पहले, बारहवीं सदी में लिखे के ‘लैला मजनूँ’ की दास्तान में मजनूँ को हर जगह लैला ही दिखायी देती थी. आज मैं जान गया हूँ कि वह झूठ नहीं था. मुझे हर जगह तुम ही तुम दिखायी देती हो. चूँकि हर जगह तुम हो, इसलिए मैं किसी से भी घृणा नहीं करता. मेरे अंदर प्रेम का सोता फूट गया है.“    
“और जो मैं तुम से दूर चली जाऊँ तो?” ईशा ने उलाहना दिया और पंख फड़फड़ाते ऊपर की ओर उड़ने लगी.    
“जिसके लिए हर कुछ तुम ही हो गयी, उसके लिए क्या शोक या क्या मोह?” मैंने कहा. ईशा यह सुन कर नीचे आयी और उलाहना देते हुए मेरी नाक पकड़ कर हल्के से हिलाया, “ये कहने की बातें हैं.एक वचन दोगे?” मैं अपलक उसे निहारता रह गया.“जब मैं किसी बात का जवाब न दूँ तो तुम वह मुझसे दुबारा न पूछोगे.“ उसकी आत्मीयता से मैं बंध गया.   
इस तरह ईशा और मैंने बहुत सी बातें की.   
पहली ही मुलाकात में हम चिर काल के लिए मित्र बन गए. अब सोचता हूँ तो ईशा ही मुझे सहज मिली थी. बिना किसी विशेष प्रयत्न के वह मेरे घर खुद चल कर आयी थी.   
ईशा एक ही थी.   
ईशा ही जैसे सर्वव्यापी थी, तेजस्विनी थी. वह देह से अलग, अलौकिक अनुभूति थी. वह शुद्ध और निष्पाप थी. वह कवि थी, मनीषी थी, सब को जीत लेने वाली और स्वयं ही अपना कारण थी. जैसे अनादिकाल से वह जीवन का आधार थी. 
   
ईशा, ईशा, ईशा......!    
मेरे मन में प्रश्न उठा कि ईशा प्राकृतिक मानवी है या गुणसूत्र संशाधित कन्या या कोई देवी? क्या उसने कृत्रिम पंख अपने शरीर में हमेशा के लिए लगवा लिए हैं? या फिर वह सच में अतिमानवी है? जो भी है वह मुझे बृहततर और श्रेष्ठ है.   
ईशा से मिलने के बाद वह प्रश्न मेरे लिए गौण हो गया. वह जो भी थी, मेरे कल्पना से परे थी. नित्य नए रूपों में वह कभी भी उड़ती मेरे आकाश पर पंख फैलाए चली आती थी. कभी देखते ही देखते बहुत दूर चली जाती. बादलों में अठखेलियाँ करती, मंद फुहारों में विचरती, नये-नये गंधों से मदमाती, ईशा मेरे लिए सबसे बड़ा रहस्य थी.    
उससे मिल कर मैं भूल भी गया था कि मैं कुछ और करना भी चाहता हूँ.    
एक संध्या को आम के पेड़ पर झूला झूलते हुए उसने मुझसे पूछ ही लिया, “अब भी मेरा प्रतिरूप बनाना चाहते हो?”    
एक झटके में बीस साल के युवा का अभिमान उदीप्त हो गया. मैंने कहा, “पहले छायाचित्र लूँगा. कई दिनों तक तुम्हारा चित्र बनाऊँगा, अंत में तुम्हारी मूर्ति बनाऊँगा.“   
“अच्छा?” ईशा के प्रश्न में उलाहना, व्यङ्ग्य, प्रश्न - सब कुछ एक साथ ही था.   
“ठीक है. मैं मान लेता हूँ कि मैं अच्छा छायाकार नहीं हूँ, न ही अच्छा चित्रकार, न ही मूर्तिकार. किन्तु मैं विद्या सीख तो सकता हूँ.“    
“मुझे आशा है तुम जल्दी ही सीख लोगे.“ ईशा का संशय बेमानी न था. गुणसूत्रों से मेरी निजी शक्ति अवश्य प्राकृतिक मानवों से बढ़ कर थी. किन्तु अभ्यास और परिवेश भी प्रतिभा को पुष्ट करने के लिए आवश्यक होते हैं. मुझे समय तो लगता ही.    
“इसका एक सरल उपाय है. किन्तु क्या तुम इसे अपना सकोगी?”    
“क्या?”
   
“मैंने प्रयोगशाला में एक ऐसा आसव तैयार किया है जिसे पी कर तुम अजर हो जाओगी. तुम्हारा यौवन सौ साल तक अक्षुण्ण हो जाएगा.“ ईशा हतप्रभ मुझे देखती रही. मैंने उसे दिलासा दिया, “यह बात कोई नहीं जानता. मेरे शिक्षक भी नहीं. हम दोनों इस आसव को पी लेते हैं. इस तरह हम चिर युवा बन जाएँगे.“    
ईशा के चेहरे पर बहुत से रंग आने जाने लगे. “घबराओ नहीं. यह विष नहीं है. तुम डरती हो तो पहले
मैं इसे पी लेता हूँ.“    
“मैं डरती नहीं आदित्य ! “ ईशा का उत्तर था, “मैं आश्वस्त हूँ कि तुम्हारा प्रयोग सफल होगा. किन्तु यह मुझे व्यर्थ लगता है. लेकिन मुझे अजर नहीं होना. मैं समय के साथ बूढ़ी होना चाहती हूँ और मरना भी चाहती हूँ.“
   
“क्यों?” मैंने ईशा से पूछ लिया, “इस तरह तो कोई भी नयी प्रगति व्यर्थ ही है.“
   
“बिल्कुल.“ ईशा ने कहा, “तुम जिसे प्रगति समझते हो, वह कुछ और नहीं किसी न किसी इच्छा की तुष्टि है.“ यह सुन कर मैं किंचित सोच में निमग्न हो गया. ईशा मेरे पास आयी और कानों में चुपके से पूछ बैठी, “तुम मुझसे प्रेम करते हो या मेरे रूप से?”   
“तुमसे ही प्रेम करता हूँ. किन्तु....” मैंने ईशा की तरफ देखा.   
“किन्तु क्या?”   
“किन्तु मैं अजर होना चाहता हूँ.“ यह सुन कर ईशा ने पूछा, “यह तो अच्छी बात है. तुम आसव पी लो और चिर युवा बने रहो.“   
“क्या तुम मुझे हमेशा प्रेम करोगी?”   
“यही सवाल मैं तुमसे करूँ तो?” ईशा के प्रतिप्रश्न पर मैं निरुत्तर हो गया. मेरा मौन देख कर ईशा ने कहा, “यह समय पर छोड़ दें.“   
“हमारा विवाह?” मैंने चोर निगाह से ईशा की तरफ़ देखा.   
“उसमें क्या दिक्कत है?” ईशा ने पूछा.   
“मैं युवा रहूँगा और तुम नहीं. क्या यह ठीक होगा?” ईशा ने यह सुन कर कुछ न कहा. वह उठ कर जाने वाली थी पर मैने उसका आँचल पकड़ लिया.

   

    सितारे झिलमिला उठे
    सितारे झिलमिला उठे, चराग जगमगा उठे, बस न अब मुझको टोकना,
    बस न अब मुझको टोकना, न बढ़ के राह रोकना,
    अगर मैं रुक गयी तो आ न पाऊँगी फिर कभी, 
यही कहोगे तुम सदा कि दिल अभी नहीं भरा, जो ख़त्म हो किसी जगह ये ऐसा सिलसिला नहीं







(पांच)

ईशा कब मेरे घर आती, कब जाती, इस पर उनके पिता या उसकी बहन ने कभी पाबंदी नहीं लगायी. मैं सोचता हूँ कि ईशा को कोई रोक भी नहीं सकता था. जब मैं नहीं रोक पाया तो क्या उसके पिता उसे रोक भी पाते? क्या उसकी बात टाल सकते? जब कोई अनुपम सुंदरी कुछ विचार ले, कोई हृदयहीन ही उसकी इच्छा को ठुकराना चाहेगा.
   
जेठ की दुपहर मेंईशा के सामने मैंने चिरयुवा बने रहने के लिए वह आसव पी लिया. ईशा ने पहली बार मेरे कपोल चूम लिये. “अबसे तुम हमेशा मेरे लिए हो गये.“ ईशा ने साधिकार कहा, “प्रेम में मैं फायदे में रही. मेरे लिए चिरयुवा प्रेमी और तुम्हारे लिए बूढ़ी हो जाने वाली औरत.“   
“कम से कम अगले पच्चीस साल तक तुम युवा ही रहोगी.“ मैंने कहा, “उससे कहीं पहले ही मैं तुम्हारे प्रतिरूप बना लूँगा.“ ईशा मुस्कुरायी. मैंने पूछा, “हमारा विवाह?”   
“समय पर देखते हैं.“ ईशा ने कहा.   
उस दिन के बाद बहुत से दिन बीतें. बहुत सी बातें हुयी. ईशा और हम दूर नीले गगन में उड़ जाया करते.

   
आ नीले गगन तले, प्यार हम करें, आ नीले गगन तले, प्यार हम करें  
हिल-मिल के प्यार का इकरार हम करें,
    आ नीले गगन तले, प्यार हम करें
    ये शाम की बेला ये मधुर मस्त नज़ारे
    बैठें रहें हम तुम यूँ बाहों के सहारे
    ये शाम की बेला ये मधुर मस्त नज़ारे
    बैठें रहें हम तुम यूँ बाहों के सहारे
    वो दिन ना आये इंतज़ार हम करें
    आ नीले गगन तले, प्यार हम करें
   
पर्वतों की चोटियों पर खड़ी ईशा का छायाचित्र,  समंदर में अठखेलियाँ खेलती ईशा का तैल चित्र, शिला पर शैलपुत्री जैसी विराजमान ईशा की मूर्ति – इसे बनाते हुए मुझसे साल-दर-साल फिसलते गए. प्रदर्शनियों में मुझे अप्रत्याशित सफलता मिली. अगले दस साल में मैं बहुचर्चित छायाकार, चित्रकार और मूर्तिकार के रूप में स्थापित हो गया. इसके साथ मैं विज्ञान के अध्ययन और जैविक प्रयोगों में भी जुटा रहा.
   
ईशा हमेशा मुझे नये रूप में मिलती. कभी नया केश-विन्यास, कभी नयी वेश-भूषा, कभी कभी बहुत दिनों तक लाल रंग के नए कपड़े, कभीं महीनों तक एक ही खुशबू, कभी नया इत्र. नूतन का अर्थ क्या पिछले से भिन्न होता है या आशा से भिन्न होता है?    
ईशा के साथ एक असामान्य घटना हुआ करती थी. मैं जो कुछ कहने जाता था, मानों उसने पहले ही सुन रखा हो. कई बार ईशा मेरे सपनों में आ कर कहती कि मैं कल नहीं आऊँगी. अगले दिन मैं उससे सम्पर्क करता, तब वह उसी सुर में दुहराती कि वह नहीं आ पाएगी. 

यह घटना कई बार नवीन लगती, कई बार रहस्यमयी लगती. कई बार सपनों में आया सच नहीं भी होता. लेकिन मैं अपने सपनों के बारे में जब भी कुछ बोलता, ईशा उसे ध्यान से सुनती. मुझे लगता था कि वह जैसे सब जानती थी.


    तू माँग का सिन्दूर तू आँखों का है काजल
    ले बांध ले दामन के किनारों से ये आँचल
    सामने बैठे रहो श्रृंगार हम करें
    आ नीले गगन तले, प्यार हम करें
    
यही प्रश्न मैंने ईशा से पूछ लिया. तुम कौन सी विद्या जानती हो, जो मेरे मन की बात जान

लेती हो? मानों वह यह भी जानती थी कि मैं उससे यह पूछने वाला हूँ. ईशा जो अब षोडशी न थी, अब यौवन की स्वामिनी थी, उस स्मिता ने मुझसे कहा –“जो अविद्या की उपासना करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो विद्या में ही रत हैं वे मानो उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं. विद्या से और ही फल बतलाया गया है और अविद्या से और ही फल बतलाया गया है. ऐसा हमने बुद्धिमान् पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमारे प्रति उसकी व्यवस्था की थी. जो विद्या और अविद्या – इन दोनों को एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व प्राप्त कर लेता है.“  

मैं ईशा के कहे से उसका मतलब नहीं पूछता था. मुझे लगता था कि वह इसकी व्याख्या नहीं करेगी. मुझे अपना किया वादा अच्छे से याद था.
   




(छह)
   
 ईशा की छोटी बहन थी प्रज्ञा. ईशा ने बताया या उसने खुद सोचा, वह मेरे पास आ कर कभी बूढ़े न होने की दवा माँगी. यह तो सब को पता था कि मैं इसकी खोज कर रहा हूँ, पर यह केवल ईशा ही जानती थी कि मैं अपने अभीष्ट पाने में सफल हो चुका हूँ. किन्तु प्रज्ञा सत्य की अधिकारिणी न थी. वह जिद करती रही कि और मुझे बार-बार झुठलाना पड़ता रहा. ईशा को मैंने जब बताया, ईशा मौन हो गयी. निश्चित रूप से ईशा यह नहीं चाहती कि प्रज्ञा अजर हो जाय, साथ ही वह यह भी नहीं चाहती होगी कि मैं झूठ बोलूँ.
   
किसी घने मेघ के कारण मटमैले अंधियारे दिन में जब काफी बारिश हुयी थी, प्रज्ञा ने रो-रो कर ईशा से जिद की, कि वह मुझे मना ले. अपने छोटी बहन के आगे विवश हो कर बारिश में भीगे पंख लिये ईशा प्रज्ञा का हाथ थामे मेरे पास आयी.
    
“मैं प्रज्ञा को समझा न सकी. हर कोई स्वयं अपने विद्या-अविद्या, ज्ञान-अज्ञान से कर्म-विकर्म में जूझता है. जो श्रेष्ठ लोगों का आग्रह आदेश समझ कर आचरण करते हैं, वह अपेक्षाकृत मधुमय मार्ग पर चलते हैं. मैं जानती हूँ कि तुम भी अपने प्रयोग के लिये व्याकुल हो. तुम चाहो तो प्रज्ञा को अजर बना दो. चाहो तो मेरे कितने प्रतिरूप बना दो, मैं तुम्हें नहीं रोकूँगी.“ यह कहते हुए ईशा का चेहरा मलिन पड़ गया, मानों अकस्मात ही संध्या के सूरज पर बादल छा गये.
   
मेरे आविष्कृत आसव का पान करने से प्रज्ञा अजर हो गयी!
   
उस रात बड़ी मूसलाधार बारिश हुयी. उमस से परेशान मैं किसी तरह सो गया. बार-बार ईशा का मलिन चेहरा मुझे याद आता. बार-बार मुझे लगता कि मैंने प्रज्ञा के साथ अन्याय किया. उस रात मैंने एक अजब सा स्वप्न देखा, जो मैं इतने सालों में भूल न पाया. स्वप्न में मैं बर्फीले पहाड़ों में अकेला भटक रहा था. मेरे नज़र ईशा के पिता और मेरे शिक्षक पर जा पड़ी जो मुझसे दूर भागे जा रहे थे. मैं उनकी तरफ़ दौड़ने लगा. दौड़ते-दौड़ते मैं गिर पड़ा. मैं देखता हूँ कि ईशा के पिता मुझे उठा कर कहते हैं कि ईशा तुम्हारे हाथों में सौंप रहा हूँ. कह कर वह अदृश्य हो जाते हैं. मैं देखता हूँ कि मेरे शिक्षक बड़ी दूर दौड़ रहे हैं. मैं उनके पीछे पहुँच गया हूँ. मेरे रोकने से वह रुक नहीं रहे. उनकी बाँह पकड़ कर मैं उन्हें रोकता हूँ. जैसे वह मेरी तरफ़ मुड़ कर देखते हैं जो मैं अपना ही चेहरा देख कर काँप उठता हूँ. इस अजीब सपने से मेरे रोंगटे खड़े हो गये और मैं सिहर कर एकदम से उठ गया. 
   
ठीक उसी रात मातृहीन ईशा और प्रज्ञा को पितृशोक से गुजरना पड़ा. मैं गहरे अपराधबोध में पड़ गया. जैसे यह प्रज्ञा को ईश्वरीय दण्ड मिला था. मुझे आशंका हुयी कि मैं भी ऋत को भंग करने के लिए निश्चित ही काल-सिंहों के समक्ष भोज्य रूप में प्रस्तुत किया जाऊँगा. इसी गहरे भय से मैंने ईशा से विवाह करने का संकल्प लिया.
    
अनुकूल परिस्थितियों में मैंने ईशा से विवाह कर लिया. मेरे विवाह में मेरे शिक्षक सम्मिलित न हो पाये. अगले दिन मैंने जाना कि उसी रात उनका स्वर्गवास हो गया. दो महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शकों की मृत्यु से मुझे गहरा आघात लगा. ईशा ने इन मृत्यों को सहजता से लिया. यह कितनी खिन्नता का विषय था कि प्रज्ञा की अजरता उसे कुम्हला गयी और पितृशोक पर वह रोयी तक नहीं.
    
ईशा मेरे लिए एक अबूझ पहेली सी लगने लगी. मैं उस दुर्लभ रूपा का स्वामी था. खुद को उसके वर्तमान और भविष्य का नियामक समझता था. उसके अतीत के बारे में सब कुछ जान चुका था. क्या मैं एक और ईशा बना नहीं सकता? क्या मैं ईशा की पहेली की गुत्थी नहीं सुलझा सकता?
   
मैंने प्रयोगशाला में ईशा के प्रतिरूप को एक महीने में तैयार किया. ईशा के गुणसूत्रों से, उसकी समस्त स्मृतियों से संजोयी हुयी, ठीक ईशा के रूप लावण्य में उसका अजर प्रतिरूप बनाने में मैंने सफलता प्राप्त की. जब वस्त्रविहीन ईशा के पहले अजर प्रतिरूप ने आँखें खोली, सबसे उसने मुझे झिड़क दिया, “बिना कपड़ों के मुझे ऐसे देख रहे हो, क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती?” ईशा के प्रतिरूप के पास ईशा का सारा ज्ञान था ही. वह यह भी जानती थी कि वह एक प्रतिरूप बन कर जीवित हो रही है. किसी शिशु के तरह न उसके लालन-पालन की आवश्यकता थी, न ही उसके शिक्षा की. वह सब कुछ जो ईशा के पास था उसके पास भी था. फिर भी वह प्रतिरूप मेरे प्रति न प्रेम रखती थी न कृतज्ञता.
   
प्रज्ञा ने अपने बड़ी बहन के प्रतिरूप के रहने का बंदोबस्त किया.
  
जब रात के खाने पर ईशा, प्रज्ञा और ईशा की प्रतिरूप तीनों ही बैठे थे, मैं फिर भी ईशा उसके प्रतिरूप से अलग पहचान गया. ईशा की आँखों में मेरे लिए गहरी चिंता, क्षोभ और विरह की तड़प नज़र आ रही थी. ईशा के प्रतिरूप ने मुझे चेतावनी दी, “तुम यह मत सोचना कि तुम मेरे साथ प्रेम कर सकोगे.“
   
“ऐसी कल्पना करना भी तुम्हारी भूल है. मैं अपनी पत्नी के प्रति समर्पित हूँ.“ मैं समझता हूँ यही कहना मेरी जीवन की सबसे बड़ी भूल रही. ईशा की प्रतिरूप, जिसे मैं उसकी नज़र से पहचान लिया करता था, ने मेरे कथन को चुनौती समझा. शीघ्र ही वह ईशा की जगह लेने के लिए मेरे आस-पास डोरे डालने मंडराने लगी. यह आश्चर्य था कि अजर प्रज्ञा ईशा और उसके प्रतिरूप में भेद नहीं कर पाती थी. न जाने क्यों मेरे लिए यह सरल था. ईशा मेरे पास गुजरती, न जाने कैसे इत्र के झोंके बहने लगते. न जाने मुझे कैसी मधुर झङ्कार सुनायी देने लगती.
    
मेरी अवहेलना ईशा की प्रतिरूप सह न सकी. एक मनहूस दिन सुबह पहाड़ी पर बने मेरे गोलाकार घर के पास की घाटी में उसका शव पाया गया. उसने रात में कूद कर आत्महत्या कर ली थी. प्रतिरूप की हत्या मेरे लिए बहुत बड़ी दुर्घटना थी. मेरे प्रयोग के साथ वही समस्या थी जो बाकी गुणसूत्र संशाधित मानवों में थी. वह अजर भले होती, पर जरा काल आने से पहले उसने मृत्यु को स्वेच्छा से वर लिया. तब मेरे लिए यह प्रश्न उठा क्या ईशा भी गुणसूत्र संशाधित मानवी थी? यह कैसे हो सकता था? ईशा तो अलौकिक थी. वह सङ्गीत, वह सुगंध, वह वाणी, वह रूप – यह कृत्रिम कैसे हो सकता है?   
प्रतिरूपों का निर्माण करते करते मैं बूढ़ा न हुआ. ईशा की उम्र बढ़ती गयी. उसके प्रतिरूप बनते रहे. वे सभी यह जानते रहे कि मैं ईशा के अलावा किसी और से प्यार नहीं कर सकता. वे यह भी जानते रहे कि उनसे पहले सभी प्रतिरूपों ने आत्महत्या की. मैंने अलग अलग समय पर एकत्रित गुणसूत्रों से अलग-अलग स्मृति और ज्ञान की, भिन्न आयु के प्रतिरूपों को बनाने की चेष्टा की. पर मैं कभी वृद्धा ईशा न बनाता. हमेशा ईशा जैसी ईशा बनाने की कोशिश करता, जिसमें वैसा ही आकर्षण हो जिससे ईशा ने मुझे बांध रखा है. 
फिर भी वे सभी अनिद्ध सुंदरियाँ आत्महत्या करती रहीं. पहले बीस साल की लड़कियाँ मरा करती थीं. सालों में चालीस साला विरह व्याकुल ईशा की प्रतिरूप स्त्रियाँ मरने लगी. इतनी मौतों के बाद भी मेरा पागलपन बंद न हुआ.    
एक पूर्णिमा को मैं ईशा की गोद में सिर रख का उसके अधरों का पान कर रहा था, ईशा के नयन छलछला उठे. वह मेरे दु:ख से, मेरी पीड़ा से, मेरी आत्मग्लानि से व्यथित थी. उसने धीरे से कहा, “तुम नहीं समझते.“    
मैंने उसकी तरफ़ देखा. “क्या मैं सबकी मृत्यु की अपराधी हूँ?”    
ईशा इसे नकारते हुए कहा, “जो केवल असंभूति की उपासना करते हैं, वे घोर अंधकार में घिर जाते हैं और जो केवल संभूति की ही उपासना करते हैं, वे मानों उससे भी अधिक अंधकार में फँस जाते हैं. जिन देवपुरुषों ने हमारे लिए (इन विषयों को) विशेषरूप से कहा है, हमने उन धीर पुरुषों से सुना है कि संभूति का प्रभाव भिन्न है तथा असंभूति का प्रभाव इससे भिन्न है. संभूति और विनाश – इन दोनों कलाओं को एक साथ जानो, विनाश की कला से मृत्यु को पार करके तथा संभूति कला से अमृतत्व की प्राप्ति की जाती है.“    
न जाने क्यूँ मैंने उस दिन ईशा से इसका मतलब नहीं पूछा. अब सोचता हूँ कि शायद वह पूछने पर बता देती.    
मैं अपने अभिमान में रह गया. ईशा के प्रतिरूप को बनाता चला गया.    
अधेड़ प्रतिरूप मुझसे पूछतीं, “मैं तुमसे प्रेम करती हूँ. क्या तुम मेरे प्रेम को इसलिए ठुकराते हो कि तुम युवा हो? पर तुम युवा कैसे? तुम तो मुझसे बड़े ही हो. केवल तुम्हारा शरीर मुझसे युवा है.“
कोई यह कहती, “मैं फायदे में हूँ कि तुम मुझे ही प्रेम करते हो. जबकि मैं तुम्हारा यौवन भोगने के लिए ही धरती पर आयी हूँ. अगर तुम मेरा प्रेम नहीं पाना चाहते तो मुझे बनाया ही क्यूँ?”

एक प्रतिरूप कहती, “प्रज्ञा भी अजरता से थक चुकी है. मैं इस बात की प्रतीक्षा है कि किस दिन तुम ईशा और मुझसे में भेद करना छोड़ दोगे? क्योंकि तुमने ही तो कहा था कि सब कुछ ईशा ही है. फिर मैं ईशा ही तो हूँ. मुझे अपनी बाँहों में ले लो.“ 
   
अब प्रतिरूपों में बहुत धैर्य आ गया था. मैं बार बार उनकी स्मृतियों और गुणसूत्रों मे संशोधन करता रहता. सबके नवजात सुंदर पंखों से खेलना मुझे बहुत अच्छा लगता था, पर ज्यों ही उम्रदराज प्रतिरूप मेरी तरफ़ देखती, मेरे तन-बदन में क्रोध की ज्वाला फूट पड़ती. मैं अपने आपे में न रहता.
   
प्रज्ञा के लिये यह बहुत दुखद स्थिति थी. उसके लिये हर प्रतिरूप का मरना उसकी बहन का मरना था.वह तय नहीं कर पाती कि मूल ईशा की मृत्यु हो चुकी है या वह अभी तक जीवित है. उसके लिए भी आत्महत्या का विकल्प महत्त्वपूर्ण विकल्प बन गया है. मेरे तर्कों, वितर्कों, कुतर्कों को प्रज्ञा सत्तर साल तक झेलती रही.मुझे याद है कि जिस रात ईशा के ग्यारह प्रतिरूपों के साथ प्रज्ञा ने घाटी में कूद कर आत्महत्या की, उसकी अगली सुबह निन्यानवे वर्ष की ईशा ने छत की खिड़की खोली और बूढ़े हो चुके पंखों की ताकत से हल्के हल्के आसमान में उड़ती हुयी दूर बहुत दूर चली गयी.
मैं उसे जाता देखता रह गया.




   


(सात)
   
ईशा के जाने के बाद मैं दुपहर से देर रात तक बिना आवाज़ के रोता रहा. बूढ़ी हो चुकी ईशा, जो मेरे पत्नी थी, जिसने मेरे साथ संतानहीन सत्तर से अधिक साल बिताये थे.
  
बहुत रो लेने के बाद मैंने तय किया कि ईशा को वापस ढूँढ कर लाऊँगा. संसार की सारी गतिविधियों का लेखा-जोखा जानना मुश्किल न था. किसी भी तरह की गति न केवल संज्ञान में ली जाती थी, बल्कि अपराधिक गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए अनन्त काल तक सुरक्षित रखी जाती थी. एक सदी पहले ही भीषण वाद-विवाद के पश्चात सभी प्राणियों की गति सार्वजनिक रूप से सुलभ थी.
   
कृत्रिम उपग्रह की सूचना के आधार पर यह निश्चित हुआ कि ईशा खडगपुर की पहाड़ियों से उत्तर उड़ते हुए हिमालय की चोटियों को पार करती हुयी अन्नपूर्णा पर्वत समूह के पास आखिरी बार गतिशील पायी गयी थी. उसके बाद वह कहाँ गयी, यह सूचना अनुपलब्ध थी. 
क्या ईशा काल कलवित हो गयी?   
ऐसा नहीं हो सकता. इस विचार से ही मैं सिहर उठा. अगली सुबह ईशा से मिलने के लिए तत्पर मैं अपने उड़नखटोले में उड़ते हुए हिमालय की ओर चल पड़ा. सौर उर्जा से चलने वाले उड़नखटोले से भी अन्नपूर्णा पर्वत समूह की यात्रा इतनी आसान नहीं थी. मौसम के खराब होते ही मुझे उड़नखटोले को अन्नपूर्णा पर्वतसमूह से पहले ही पोखरा घाटी में उतारना पड़ा. अब भी वह जगह मुझे कई मील आगे थी जहाँ ईशा आखिरी बार पायी गयी थी.   
जंगल में उड़नखटोले से मैं बाहर निकल कर इधर उधर देख ही रहा था कि तेज बारिश ने मुझे वापिस की ओर धकेला. तभी मेरी नज़र दूर खड़े एक बलिष्ठ मुनि पर जा पड़ी, जो तेज बारिश में अविचलित जैसी मेरी ही बाट देख रहा था. उसने इशारे से मुझे बुलाया.    
उसकी तरफ बढ़ते हुए मुझे अजीब सी अनुभूति हुयी. जैसे मैंने इस पुरुष को पहले कभी देखा है. इस तरह सिहर जाने से पल भर में जैसे मुझे अपनी जीवन की बहुत सी घटनाएँ फिर से याद आ गयी. जीवन का एक बड़ा खोया हुआ हिस्सा स्वप्न की कल्पनाओं और व्यर्थ की चिंताओं का होता है. न जाने मैंने कितने भूले सपनों पल भर में याद कर लिया. पल भर में मुझे लगा कि मानों जीवन अभी तक स्वप्न ही हो. ईशा को मिले हुए कुछ पल ही हुए हों. मैं अभी भी तरुण ही खडगपुर की पहाड़ियों में अकेला बेतहाशा भाग रहा हूँ. भागते-भागते मेरी टक्कर इस बलिष्ठ मुनि से होती है और मेरी तंद्रा टूटती है. 
   
मुनि ने मुझसे पूछा, “तुम कौन हो? इतनी तेज बारिश में कहाँ भटक रहे हो?”
   
जब मैंने उपरोक्त कहानी मुनि को बतायी, मुनि ने अपना परिचय ‘पूषन’ नाम से दिया. बारिश रुक गयी थी. ईशा की तड़प में मेरे नैनों से बारिश हो उठी. पूषन ने पूछा, “अच्छा ये बताओ. जब ईशा हमेशा तुम्हारे पास थी, तब तुम उसका प्रतिरूप क्यों बनाना चाहते थे?” मुझे निरुत्तर देख कर पूषन ने धिक्कारा, “जब सत्य तुम्हारे समीप था, तुम उसकी अनुकृति में लगे रहे.“    
“सत्य क्या है?” मैंने रुक कर कहा, “मैं जान नहीं पाया. क्या तुम जानते हो?“     
हामी भरते पूषन मुस्कुरा उठे.   
मैंने मन ही मन विचारा - सुनहले पात्र से सत्य का मुख ढँका हुआ है. पूषन, मुझ सत्य के अभिलाषी के लिए सत्य की उपलब्धि के लिए उसे उघाड़ दें. 
   
पूषन उठ कर घने वन में जाने लगे. मैंने विचारा कि उनके पीछे चलूँ या उन्हें जाने दूँ? क्या मैं ईशा की तरह इन्हें भी खो दूँगा? नहीं, नहीं. यह ईशा को भी जानते हैं और मुझे भी. मैं भी शायद इनको जानता हूँ. क्या रहस्य है यह? 
   
मैं उनके पीछे-पीछे जाने लगा. यह देख कर पूषन ने मुझे लताड़ा, “मेरे पीछे आने से क्या मिलेगा? तुम ईशा को क्यूँ नहीं ढूँढते?” 
  
मैंने तड़प कर कहा, “यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ कि मैं अब ईशा को क्यूँ नहीं ढूँढ रहा. अगर कुछ ढूँढता भी हूँ तो वह इसलिए कि मैं अपूर्ण हूँ. ईशा थी तब भी मैं अधूरा ही था. मैंने उसके चित्र बनाये, मूर्तियाँ बनायी, छायाचित्र से ले कर जैविक प्रतिरूप बना डाले. फिर भी मुझे कभी ईशा नहीं बन पायी. मैं हर बार असफल ही रहा. यह भी बड़ी आश्चर्यजनक बात है कि यह असफलता केवल मुझे ही पता थी, किसी और को नहीं. प्रज्ञा ईशा और प्रतिरूप में भेद नहीं कर पाती थी. संभवत: पूरे विश्व में एकमात्र मैं ही ईशा से परिचित था. मैं वह देख सकता था, जो कोई नहीं देख सकता था. ईशा और उसके प्रतिरूपों में भेद.“
    
पूषन ने बड़ी गम्भीरता से रुक कर पूछा, “तुम मेरे पीछे क्यों आ रहे हो?”
   
“पता नहीं. जैसे लगता है कि आप ही हैं हो मुझे समझ सकते हैं. आप ही मुझे सत्य दिखा सकते हैं. आप अकारण क्रोधित हो रहे हैं. अपना सौम्य रूप मुझे दिखाइए, ताकि मैं जान सकूँ कि आप जो हैं, वह मैं ही हूँ.“   
“क्या मतलब है तुम्हारा?” पूषन चिल्लाये.   
उनके चिल्लाने में मुझे अपनी आवाज़ की अनुगूँज सुनायी दी. मैंने अपनी शंका दृढ़ता से व्यक्त की,“इस घने जंगल में आप कौन हो सकते हैं? आप कोई और नहीं, बल्कि मेरे शिक्षक के जैविक प्रतिरूप ही हैं. और मेरे शिक्षक ने मुझे अपना प्रतिरूप ही बनाया था. आप दरअसल मेरी जीवन लीला को देखते आ रहे हैं. मैं अजर होने की जिद करता रहा, आप अमर हो गये हैं. इस शरीर से दूसरे शरीर तक ....“    
“मैं अमर नहीं हुआ. केवल शरीर का काल में विस्तार मिला है. अब तुम क्या चाहते हो? तुमने मुझे निराश ही किया. तुम अतृप्त जीवन जीते रहे. प्राकृतिक मानवी ईशा के मोह में पड़ कर अंधकारमय जीवन जीते रहे. तुम्हारा जीवन तो व्यर्थ ही गया.”   
उनकी झिड़की का मुझ पर कोई असर न हुआ, “मैं अजर-अमर नहीं होना चाहता. मैं ईशा के पास जाना चाहता हूँ. एक बार फिर से मिलना चाहता हूँ.“   
“कैसे मोह में हो? जो जीवन भर तुम्हारे साथ रही फिर भी तुम उसे ढूँढ रहे हो? तुम सत्य जानना चाहते हों न? और मैं कहूँ कि ईशा सत्य नहीं है. सत्य इसलिए नहीं है क्योंकि अमर नहीं है.“ पूषन ने कठोरता से कहा.    
“अगर सत्य और ईशा में एक चुनना है तो मैं ईशा को चुनूँगा.“    
“मुझे नहीं लगता कि फिर प्राणत्याग करने के सिवा तुम्हारे पास कोई विकल्प है.“ पूषन झिड़क
दिया. “आत्महत्या करने के लिए तैयार हो जाओ.“   
आत्महत्या! यह शब्द सुनते ही मैं काँप उठा. जीवन भर मैं जिसके खिलाफ़ मैं काम करता रहा, आज मैं उसकी वरण कर लूँ?
पूषन ने मुझे ललकारा, “वह देखो, इतनी तेज बारिश भी उस जंगल की आग को बुझा नहीं सकी.“ मैंने देखा दूर जंगल में आग लगी हुयी थी. पूषन उधर बढ़ चले. मैं उनके पीछे-पीछे चलता गया. जलते हुए जंगल की आँच जब बदन को झुलसाने लगी, इतने समीप पहुँच कर पूषन ने कहा, “जीवन वायु-अग्नि और अमृत से संयोग से बना है . यह शरीर तो अंतत: भस्म हो जाने वाला है. अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए को स्मरण कर. अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए को स्मरण कर.“
   
पूषन का इशारा था कि मैं दावानल में जल कर खाक हो जाऊँ. अग्नि के लिये स्वयं हवि बन जाऊँ.
   
मुझे स्मरण आया कि ईशा के कई बार कहने पर भी मैं इस बात पर सहमत नहीं हुआ कि हमें संतान उत्पन्न करना चाहिए. मुझे स्मरण हो उठा कि ईशा ने मेरी किसी बात की अवहेलना नहीं की. मेरी स्मृति में यह विचार कौंधा कि मैंने कोई भी बात ईशा से कभी न पूछी, इस डर से कि वह कहीं बताने से मना न कर दे. मुझे याद आया कि ईशा को अपने छायाचित्रों, तस्वीरों, मूर्तियों से कोई प्रेम न था. केवल मैं उन पर जान छिड़कता था. मुझे स्मरण हुआ कि ईशा ने आदित्य के बाद किसी से अगाध प्रेम रखा तो प्रज्ञा से, जिसे मैंने अजर बनने के लिए अभिशापित कर दिया. मुझे याद आया कि ईशा मुझे सपनों में मिला करती थी, जब कि वह मेरी बाँहों में सोया करती थी.
   
घड़कते दिल से अग्नि की तरफ कदम बढ़ाते हुए मैंने अग्नि से प्रार्थना की - हे अग्ने. आप हमें श्रेष्ठ मार्ग से ऐश्वर्य की ओर ले चलें. आप कर्म मार्गों के श्रेष्ठ ज्ञाता हैं. हमें कुटिल पापकर्मों से बचाएँ. हम भूयिष्ठ नमन करते हुए आपसे विनय करते हैं.
    
किसी जलती शाख के गिरते ही उसकी नीचे में असह्य जलन से जल रहा था, तब मैंने कवि मनीषी ईशा को देखा. वह षोडशी अपने सफेद पंख फैलाये मुस्कुरा रही थी.
उसने बाहें फैला कर मुझसे कहा, “गुइयाँ.“
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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-05-2019) को "प्रतिपल उठती-गिरती साँसें" (चर्चा अंक- 3349) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. यह कहानी पढ़ना एक अनूठी यात्रा है। जैसे वैदिक काल की ऋचाओं की आधुनिक व्याख्या और उनका वैज्ञानिक पुनर्पाठ।
    बधाई प्रचण्ड प्रवीर जी को! वे वाकई जोखिम भरा काम कर रहे हैं!

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  3. आपकी कहानी पढ़कर टिप्पणी अवश्य करूंगा। किंतु एक बात अभी कहने का मन है।
    दर्शन को कहानी, उपन्न्यास अथवा कविता में अभिव्यक्त करना दर्शन को साधारण-जन तक पहुंचाना है। हमारे यहां प्राचीनकाल से यह परंपरा रही है। आप यह कर रहे हैं, इसके लिए धन्यवाद व शुभकामनाएं।

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  4. आपकी कहानी पढ़कर टिप्पणी अवश्य करूंगा। किंतु एक बात अभी कहने का मन है।
    दर्शन को कहानी, उपन्न्यास अथवा कविता में अभिव्यक्त करना दर्शन को साधारण-जन तक पहुंचाना है। हमारे यहां प्राचीनकाल से यह परंपरा रही है। आप यह कर रहे हैं, इसके लिए धन्यवाद व शुभकामनाएं।
    कमलनयन

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  5. कहानी पढ़ी। पुराण और दर्शन के सिद्धांतों को आधार बनाकरल आपका लेखन आपके ज्ञान का विस्तार है। विज्ञान कितना भी उन्नत हो जाये प्रकृति की व्यवस्था के बिना नहीं जी सकेगा और प्रेम के साथ माया भी कितना बड़ा सच है। ईशा के होते हुए भी उसे पाने की बेचैनी यही तो माया है। अजर होकर भी जल जाना। आपकी कहानी ने घोर माया के दर्शन को सामने रख दिया । बधाई। जाना नहीं दिल से दूर की अब तक पढ़ी कहानियों का शिल्प और कथ्य भिन्न मिला। फिर से बधाई।

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  6. कहानी रोचक है और अपने समय के वाजिब सवालों से मुठभेड को अभिव्‍यक्‍त करती है। अमरता का सवाल भारतीय चिंतन में हमेशा से मुख्‍य सवाल रहा है और अब विज्ञान भी इसी अमरता की ओर है। इस लिहाज से यह कहानी भारतीय शास्‍त्रीय चिंतन की आत्‍मालोचना है और साथ ही पश्चिम के सर्वग्रासी अमरोन्‍मुख चिंतन से मुठभेड़ भी।

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