उस्ताद के क़िस्से मेरे हिस्से (एक) : विवेक टेंबे



चित्रकार, कलाकार, विचारक और कवि जगदीश स्वामीनाथन (जून २१, १९२८ – १९९४) के शिष्य विवेक टेंबे ने अपने उस्ताद के संग-साथ को इधर लिखना शुरू किया है. यह संस्मरण अप्रतिम कलाशीर्ष स्वामीनाथन के विविध रंगों से आलोकित है और उनके समय, सहयोगियों को भी मूर्त करता चलता है. यह एक निर्मित हो रहे कलाकार की सीढियाँ हैं जिनपर वह झिझकते हुए चढ़ रहा है.

ख़ास आपके लिए यह प्रस्तुत है. 



जगदीश स्वामीनाथन 
उस्ताद के क़िस्से मेरे हिस्से                   
विवेक टेंबे


      
स्ताद (ज. स्वामीनाथन) से मेरी मुलाकात का श्रेय दो व्यक्तियों को जाता है. पहले प्रयाग शुक्ल, दूसरे विमल कुमार. विमल कुमार ग्वालियर कला वीथिका में सहायक सचिव थे और ललित कला अकादमी, नई दिल्ली में मध्यप्रदेश के प्रतिनिधि के रूप मे सदस्य भी थे. ललित कला विद्यालय, ग्वालियर से मैंने अपनी अंतिम परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास कर मध्यप्रदेश में प्रथम स्थान प्राप्त किया था. मेरे प्राचार्य और विमल कुमार दोनों ही चाहते थे कि मैं भारत शासन के संस्कृति विभाग की छात्रवृत्ति प्राप्त करूँ. विमल जी ने ही मुझे सारी जानकारी उपलब्ध करायी. उन दिनों यह आवश्यक था कि विद्यार्थी किसी वरिष्ठ गुरु के सानिध्य में कार्य करें और इसके लिए मेरी गुरु की तलाश शुरू हुई. अधिकांश लोगों की राय थी कि मैं बडौदा विश्वविद्यालय अथवा शांति निकेतन जाकर एन एस बेन्द्रे या  दिनकर कौशिक जैसे किसी प्रोफेसर के निर्देशन में काम करूं. पर मैंने तो एक नाम चुन लिया था वह था जगदीश स्वामीनाथन.
        
उनकी दिल्ली में आयोजित चित्र प्रदर्शनी की समीक्षा, जो प्रयाग शुक्ल ने दिनमान में लिखी थी, मैंने पढी थी और  मैंने तय कर लिया था कि मेरे लिए यही गुरु श्रेष्ठ होंगे. पर समस्या थी उनकी लिखित स्वीकृति प्राप्त करने की. प्रयाग शुक्ल से मेरा परिचय तो था, पर संपर्क-सुविधा नहीं थी. यहाँ फिर विमल कुमार ने मेरी मदद  की. उन्होंने बताया कि उन्हें एक मीटिंग के सिलसिले में दिल्ली जाना है तो तुम भी साथ चल सकते हो तो चलो. मैं तुम्हें  स्वामी से मिलवा दूंगा.
     
इस तरह मैं दिल्ली पहुँच गया. रात में ललित कला अकादमी के गेस्ट हाउस में रुके. सुबह दस बजे तक तैयार हो कर हम मण्डी हाउस, रवींद्र भवन में पहुँच गये. यहीं ललित कला अकादमी का कार्यालय था. थोड़ा समय था तो मैं गैलरी में लगी प्रदर्शनी देखने लगा. थोड़ी देर में विमल कुमार ने मुझे बुलाया और गैलरी में पारदर्शी शीशे के पीछे से ही वे मुझे बताने लगे कि वे जो सामने खड़े तीन लोग बात कर रहें हैं न, उन में जो दाढ़ी वाला सफेद लुंगी कुर्ता और काला स्वेटर पहने  खड़ा है, वही जे. स्वामीनाथन हैं. जाओ मिल लो. मैंने कहा- आप कम से कम मिलवा तो दें मुझे. उन्होंने साफ इनकार करते हुए कहा- अरे बहुत खतरनाक आदमी है, कब नाराज हो जाए, कुछ नहीं कह सकते. तुम ही निपटो. कह कर वे खिसक लिए. मरता क्या न करता. मैं उनके पास जा कर थोड़ी दूरी बना कर खड़ा हो गया. 


(पेंटिग : जगदीश स्वामीनाथन)
  
थोड़ी देर में अपेक्षाकृत कम ऊँचाई वाले सज्जन का ध्यान मेरी तरफ गया. (बाद में पता चला कि वे अकादमी के सचिव, रिचर्ड बार्थोलोम्यू थे) उन्होंने स्वामी जी को कुछ कहा, तब स्वामी जी ने पीछे मुड़कर मुझे देखा और कहा-  बोलो . मेरे मुंह से बोल फूटने में थोड़ा समय लगा. तब स्वामी मुस्कुराने लगे. डर थोड़ा कम हुआ. मैंने सारी बात उन्हे बतायीं और कहा आपकी लिखित स्वीकृति चाहिए होगी मंत्रालय को. कुछ देर मौन के बाद बोले, कल सुबह घर आ जाना. कितने बजे आओगे? मैंने कहा, सर आप बतायें, बोले सुबह सात बजे. यह सुनकर रिचर्ड कुछ कहने वाले ही थे कि स्वामी जी ने रोक दिया. मेरा काम तो बड़ी आसानी से हो गया था और मुझे वे बहुत सरल भी लगे.
        
सितम्बर में, वह भी दिल्ली में, सुबह 7 बजे किसी के घर जाना भले मानस का काम तो नहीं लग रहा था, पर हामी भी तो खुद उन्होंने  ही भरी थी. यकीन था कि 4-5 बार तो कॉल बेल बजानी पडेगी. सुनना भी पड़ सकता है कि तुम तो सचमुच ही आ गये. पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. मैंने मेन गेट खोला. मेन गेट की आवाज  सुन खरज के साथ एक आवाज आई-  आ जाओ विवेक.

मैं तो हैरान हो गया उस्ताद न केवल जागे हुए थे, उन्हें नाम भी याद था. मैंने  घर में प्रवेश किया तो देखा स्वामी स्वयं सामने ही चाय का कप लिए  बैठे थे, पीछे ईज़ल पर एक खाली कैनवास लगा था. आगे चार बाय चार की चौकी थी, जिस पर अखबार, बीड़ी बण्डल और एक भारी सी कांसे की ऐश ट्रे रखी थी.

बेहद सम्मोहक व्यक्तित्व. मैंने प्रणाम किया. उन्होंने अन्दर की तरफ देख आवाज लगायी-  तूती. अन्दर से एक ममतामयी स्त्री ने आ कर मेरे हाथ में एक गरमा गरम चाय का कप थमा दिया. मैंने मन ही मन धन्यवाद देते हुए सुकून की एक लंबी सांस ली. थोड़ी देर में चाय खत्म हुई और बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. उन्होंने मेरे घरवालों के बारे में जानकारी ली. मेरे काम के छायाचित्र देखे. फिर अचानक पूछा, तुम्हें मेरा नाम किसने सजेस्ट किया. मैंने पूरा किस्सा बयान किया कि कैसे मैंने  दिनमान में प्रयाग जी द्वारा लिखी उनकी चित्र प्रदर्शनी की समीक्षा पढ कर यह निर्णय लिया था. उस्ताद बहुत हँसे. थोड़ी देर में पास वाले कमरे से एक हम उम्र युवा निकला और टेबल पर से अखबार और बीड़ी बंडल लेकर फिर अंदर चला गया. उस्ताद नाराज़गी से थोड़े बड़बड़ाए. फिर बताया कि यह मेरा बड़ा बेटा कालिदास है. और वे जिन्होंने चाय दी वे मेरी पत्नी भवानी हैं, छोटा बेटा हर्षवर्धन पिलानी में पढ रहा है.
         
मेरे मुँह से निकला जी सर. मेरे यह कहने पर  उन्होंने बड़ी अप्रसन्नता से सिर हिलाया. बोले, मुझे ये सर वर पसंद नहीं. तुम मुझे मेरे नाम से पुकारोगे, स्वामी. पर मेरा मन इस बात से सहमत नहीं हो रहा था. मैनें तय किया कि मैं स्वामीजी कहूँगा. (कुछ दिनों बाद कालिदास ने मेरी परेशानी हल कर दी, मैं भी उसकी तरह घर में उस्ताद को अप्पा कहने लगा था.) दोपहर में उनके साथ ही मण्डी हाउस, ललित कला अकादमी पहुंचा. वहाँ अन्तर-राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी, भारतीय त्रिनाले की तैयारी जोर शोर से चल रही थी. त्रिनाले समिति के तीन सदस्य थे-  कृष्ण खन्ना, रिचर्ड बार्थोलोम्यू और स्वामी जी. उस्ताद ने दोनों से परिचित कराया. रिचर्ड ने मुस्कराते हुए पूछा- खुश. मैंने भी मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया.
थोड़ी देर बाद उस्ताद ने कहा, अपनी लिखित स्वीकृति मैं संस्कृति मंत्रालय पहुंचवा दूंगा. तुम निश्चिंत रहो,
और चाहो तो पुस्तकालय या गैलरी घूम लो. या घर भी जा सकते हो. वे अब व्यस्त रहेंगे.
          
तब मैंने उन्हें बताया कि अगले सप्ताह ही मेरा स्कॉलरशिप का इन्टरव्यू  सालारजंग म्यूजियम, हैदराबाद में है. तैयारी के लिए मुझे ग्वालियर जाना होगा. और उनसे अनुमति ले कर मैं ग्वालियर, घर के लिए रवाना हुआ.

ट्रेन से हैदराबाद रवानगी

ग्वालियर
, सुबह के 3 बजकर 30 मिनट. दक्षिण एक्सप्रेस प्लेटफार्म नम्बर एक पर खडी़ थी. मैं अपने सामान के साथ किसी तरह ट्रेन में चढ़ा. पेन्टिंग्स का बंडल सबको तकलीफ दे रहा था. सामान को एडजस्ट कर मैंने अपनी सीट का कब्जा लिया और सोने की कोशिश करने लगा. नींद तो क्या आती, पिछले दिनों की घटनाओं के बारे में सोचने लगा.

दिल्ली में उस्ताद से मिलकर ग्वालियर पहुँचा तो देखा कि इन्टरव्यू की चिट्ठी आयी हुई थी. दो सप्ताह बाद सालारजंग म्यूजियम, हैदराबाद में इन्टरव्यू था. मैं चिंता में पड गया. कैसे जाऊंगा कहां ठहरूंगा. पैसे की परेशानी अलग थी. मैंने कॉलेज जाकर  प्रोफेसर मदन भटनागर को अपनी परेशानी बतायी. उन्होंने मुझे फिर विमल कुमार जी के पास भेजा. विमल कुमार जी ने पूरी बात सुनीं और बोले तुम बिल्कुल चिंता मत करो. हैदराबाद में मेरे चित्रकार मित्र पी टी रेड्डी रहते हैं. मैं उनसे बात कर लेता हूँ. उन्होंने मेरी सारी व्यवस्था कर दी और रेड्डी साहब के लिए एक पत्र भी लिख दिया. ट्रेन में मैंने फिर से एकबार जेब में वह पत्र टटोला. मन ही मन विमल कुमार जी का आभार माना. बहुत मदद की थी उन्होंने मेरी. सोचते सोचते मुझे नींद ही लग गई . 

सुबह देखा तो गंज बासोदा स्टेशन था. अब पूरा दिन काटना था. समय काटने के लिए मैंने स्केचिंग शुरू की. खाने पीने के अलावा थोड़ा सोया भी. बाकी पूरे समय स्केचिंग में लगा रहा. मैं पहले से ही चार स्केचबुक लेकर निकला था. चारों स्केचबुक भर गई थीं. आखिरी दो स्केचबुक के स्केचेज मुझे बहुत अच्छे लगे.
       
दूसरे दिन सुबह ट्रेन 4 बजे हैदराबाद पहुंची.  स्टेशन पर मुझे लेने के लिए रेड्डी साहब ने अपना नौकर भेजा था. पाखल तिरुमल रेड्डी, तेलंगाना कला जगत के बड़े प्रतिष्ठित कलाकार थे. हम घर पहुंचे रेड्डी साहब ने देखते ही पूछा- विमल कुमार जी ने भेजा है ?  (आवाज में ख़रज नहीं थी).

मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और उन्हें पत्र दिया. मुझे मय सामान के एक कमरे में पहुँचा दिया गया. जहाँ एक तख्त पर बिस्तर भी डला था.
       
थोड़ी देर में नौकर ने आकर बताया की रेड्डी साहब चाय के लिए इंतजार कर रहे हैं. मैं तुरंत उसके साथ हो लिया. डायनिंग टेबल पर उन्होंने मेरा परिचय अपनी पत्नी डॉ. यशोदा और बेटी लक्ष्मी से कराया. बातचीत करते हुए उन्होंने अचानक मुझसे पूछा कि मैंने स्वामीनाथन का चुनाव कैसे किया. वे तो फाइन आर्ट्स नहीं पढ़े. मैंने बताया कि मुझे उनका काम बहुत पसंद है और शायद वे मुझे बेहतर समझ सकते हैं . उनके माथे पर पड़ने वाली शिकन को मैंने बड़ी मासूमियत से नज़र अंदाज़ किया.
        
यशोदा जी कॉलेज में हिन्दी की प्रोफेसर थीं और अच्छी हिन्दी बोलती थीं. मेरी उनसे अच्छी बन गयी. रेड्डी साहब का घर बहुत बड़ा था. उसी बाडे में सामने की तरफ उनका स्टूडियो था. साथ ही बडा सा ग्राफिक स्टूडियो भी था. जहाँ लक्ष्मा गौड, डी देवराज, पी एस चंद्रशेखर जैसे और कई युवा प्रिंटमेकर काम करते थे. रेड्डी साहब पेन्टिंग के अलावा मूर्तियां भी बनाते थे .
        
दोपहर के खाने पर उन्होंने बताया कि इन्टरव्यू की जूरी में कृष्ण हेब्बर, सान्याल साहब और  दिनकर कौशिक हैं.  हेब्बर साहब शाम को पहुंच रहे हैं और उन्हीं के यहाँ रुकेंगे. मेरा दिल जोर से धड़कने लगा. पता नहीं क्या होगा. शाम की फ्लाइट से हेब्बर साहब आ गये. मैं कमरे में रात के खाने के इन्तजार में बैठा था कि नौकर ने आकर बताया की रेड्डी साहब छत पर याद कर रहे हैं. ऐसा बहुत कम होता होगा, जब हमें अपने दिल के धड़कने की आवाज बिना आले के साफ साफ सुनाई दे. मेरे साथ कुछ ऐसा ही हो रहा था. जब नौकर ने रेड्डी साहब द्वारा मुझे छत पर बुलाये जाने की सूचना दी.
          
मैं अपना सारा साजो सामान ले कर छत पर पहुँचा. दस्तरखान सजा हुआ था. हेब्बर साहब और रेड्डी साहब बैठे हुए थे. मैंने दोनों को नमस्कार किया. रेड्डी साहब हेब्बर साहब को मेरे बारे में थोड़ा बहुत बता चुके थे शायद. हेब्बर साहब ने मेरा नाम पूछा. नाम सुनकर बोले महाराष्ट्रीयन हो.  

मैंने कहा...जी
      
बड़ी साफ मराठी में उन्होंने कहा, काम दिखाओगे. मैं अपनी पेन्टिंग के बंडल खोलने को हुआ तो मुझे रोकते हुए बोले, कुछ छोटे काम नहीं है क्या.
मैं बोला-  सर स्केचबुक हैं.
     
उन्होंने चारों स्केच बुक देखी. बड़े खुश हुए देख कर. बोले-  काम तो बहुत अच्छा है तुम्हारा, सारे ट्रेन में ही किये ?
मैंने कहा- जी. इसके बाद वह सवाल आया जो हर आदमी मुझसे पूछता था.
किस के पास सीखोगे?
मैंने स्वामीनाथन जी का नाम लिया तो छूटते ही बोले, वे पढाने के लिए तो ठीक नहीं. ही इज़ नॉट ए ट्रेंड आर्टिस्ट.
मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी .
फिर खुद ही बोले- उन्होंने तुम्हें स्वीकृति दी है कि नहीं. मैंने कहा- जी.
हेब्बर साहब बोले फिर क्या है, अगर उनकी हाँ है तो फिर हमारी भी हाँ है. जा.. झोप (जाओ सो जाओ)
मैं थोड़ा स्तंभित सा अपने कमरे में पहुँचा .

थोड़ा सम्हलने के बाद मैं कल के इन्टरव्यू के लिए सामान जमाने लगा. सुबह दस बजे से सालारजंग म्यूजियम में इन्टरव्यू था. कम से कम नौ बजे तक तो पहुँचना जरूरी था.
        
रात के खाने पर यशोदा जी ने मुझे टोका कि मैं खाना ठीक से नहीं खा रहा हूँ, क्या बात है. मैंने कुछ संकोच से कहा कि मुझे चावल खाने की बिलकुल आदत नहीं है. ओह.. वे बोलीं कि सुबह कॉलेज जाने के पहले मेरे लिए रोटी बना कर जायेंगी. रसोई बनाने वाले को रोटी बनाना नहीं जमेगा. मैं बहुत शर्मिंदा हुआ.
      
दूसरे दिन सुबह जल्दी तैयार होकर सारे सामान के साथ नीचे आया, तो देखता हूँ कि नौकर ने एक आटो बुलाकर रखा था, बोला, मैंने इसे सब समझा दिया है कि कहाँ जाना है. आप बस इसे इतने पैसे दे देना. मैंने उसे धन्यवाद बोला और आटो में बैठ गया.
      
मैं सालारजंग म्यूजियम पहुँचा तो सोमवार की वजह से म्यूजियम तो बंद था, पर इन्टरव्यू दूसरे माले पर था. मैं सारा सामान लेकर लिफ्ट के पास गया तो देखा कि कोट पहने पंचम जॉर्ज की तरह दिखने वाला एक व्यक्ति गलियारे में टहल रहा था. पास जाने पर पता लगा कि वे  प्रोफेसर भवेश सान्याल साहब हैं.
समय से पहले पहुँचने वाले हम दो ही थे.

थोड़ी देर में उन्होंने पंजाबी टोन में पूछा, इन्टरव्यू के लिए आया.. मैंने स्वीकृति में सिर हिला दिया.
फिर पूछा- कहाँ पढोगे, बडौदा या शांति निकेतनमैंने कहा- जी, मैं दिल्ली में जे. स्वामीनाथन जी के पास पढूंगा. उनके चेहरे पर हैरानी के लक्षण उभर आये. कुछ संभलकर उन्होंने पूछा कि क्या उन्होंने तुम्हें अपने शिष्य के रुप में स्वीकार किया है.

मेरे हाँ कहने पर वे बोले, उसने हाँ कर दी है तो हम क्यों रोकेंगे. और वे लिफ्ट से उपर चले गये. तब तक और लोग भी आ गये थे. हम सभी उपर हॉल में पहुँच गए. लगभग बीस लोग थे पेन्टिंग के लिए. मेरी बारी आने पर मैं इन्टरव्यू कक्ष में गया. देखा तीन लोग बैठे थे. दो से मैं मिल चुका था. तीसरे निश्चित दिनकर कौशिक जी थे. सब ने मेरा पूरा काम देखा और फिर हेब्बर साहब बोले .... तू जाउ शकतो
     
 मैंने कहा- सर कुछ पूछेंगे नहीं.   
'जरूरत नहीं' सान्याल साहब बोले.

मैं थोड़ा हैरान था कि मेरा इन्टरव्यू बहुत जल्दी निपट गया था या हुआ ही नहीं. शाम को ही मेरी ग्वालियर वापसी थी.
(क्रमश:)
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(यह श्रृंखला कवि और कला, रंग-विर्मशकार राकेश श्रीमाल के सहयोग से )


विवेक टेंबे
विवेक का जन्म मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में 5 नवंबर1951 में हुआ था. उन्होंने ललित कला महाविद्यालय, ग्वालियर से 1973 में चित्रकला और 1977 में मूर्तिकला में डिप्लोमा प्राप्त किया. इसके बाद भारत शासन की राष्ट्रीय छात्रवृत्ति के अन्तर्गत प्रसिद्ध चिंतक एवं चित्रकार जे.स्वामीनाथन के निर्देशन में तीन वर्षों तक (1976-78) कार्य किया. 1995  में वे राष्ट्रीय ललित कला अकादमी पुरस्कार के निर्णायक मंडल के सदस्य बने.

2001 मे मध्यप्रदेश शासन ने कला क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए उन्हें शिखर सम्मान से सम्मानित किया. कई एकल एवं समूह प्रदर्शनियों मे शिरकत की. शारजाह में मध्यप्रदेश की प्रदर्शनी का आकल्पन. लेखक-चिंतक उदयन वाजपेयी के साथ आदिवासी चित्रकार जनगढ़सिंह श्याम पर एक पुस्तक 'जनगढ़ कलम' का प्रकाशन.

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  1. लीलाधर मंडलोई13 जुल॰ 2020, 11:47:00 am

    संस्मरण विधा ईमान,आस्था, प्रेम,करुणा की पर्याय है।मन
    की संभारऔर सत्य की अभिव्यक्ति
    विधा का मूल है।
    गुरु में भरोसा शिक्षार्जन का मूल मंत्र
    है।गुरु का प्रोफाईल नहीं।गुरु का कला लोक महत्वपूर्ण है।इसीलिये कहा गया है -प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नरः।
    स्वामी जी ने लोकों का प्रत्यक्ष दर्शन
    किया था। पुस्तकस्थ विद्या कला का
    तलस्पर्शी ज्ञान नहीं कराती।जो लोक के अतल में डूबकर भीतरी आंखों से
    कला सत्य को पाता है,सच्चा गुरु वही
    होता है।गुरु चयन का विवेक कठिन होता है।
    यह संस्मरण अतियों में जाए बिना
    निपट सादगी में मन को खोलता है।
    जिसमें गुरु वत्सलता और प्रेम मूर्त
    हुआ है और शिष्य की विरल विनम्रता।
    चयन समिति के गुरुओं की कला गुरु
    दृष्टि और अपने समकालीन चित्रकार
    के लिये साफ़गोई और मान-प्रेम का
    दुर्लभतम वृतांत यहाँ भासमान है।
    बधाई एक औपचारिकता होगी।

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  2. धन्यवाद अरुण जी।विवेक ने अच्छे से लिखा है।विवेक की कला दृष्टि बारीक है। कम काम करता हुआ अच्छा कलाकार।विवेक का कोई भी रचनात्मक काम अच्छा होता है।मुझे शेयर करने के लिए पुनः धन्यवाद।

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  3. विवेक जी ने बहुत संकोच व ईमानदारी से जस का तस बयान किया हे पड़ते हुये चित्र की तरह सब कुछ साफ़ साफ़ व अच्छे से दिखता हे
    धन्यवाद
    अरूर देव जी राकेश जी

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  4. बहुत खूबसूरत संस्मरण हैं विवेक जी। अगली किश्त का बेसब्री से इंतजार है।

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  5. बहुत अच्छा संस्मरण ।
    किसी को स्वामी जैसा गुरू मिल जाय तो धन्य हो जाय यह जीवन ।

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  6. श्रेष्ठ कलाकारों के शालीन व्यवहार और पारखी नज़र से परिचित कराता सुंदर संस्मरण।

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  7. आत्मीय ऊर्जा से भरा संस्मरण।

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  8. अहा,कितना प्यारी याद है। बिना किसी नकली मुद्रा के, बिना कोई दर्शन बघारे और अतिशयोक्ति के बिना। यह अपने गुरु की बहुत आत्मीय याद है।

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  9. बहुत रोचक संस्मरण ।अगली क़िस्त पढ़ने की उत्सुकता है। बहुत शुक्रिया अरुण देवजी राकेश जी

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  10. विवेक जी कुछ इस तरह से स्मरण कर रहे हैं, कि लगता है सब आंखों के आगे , अभी अभी घटित हो रहा है। एक सादगी भरी ताज़गी है कहां में। और फिर बहुत से युवा कलाकारों के लिए यह जानना कितना सुखद होगा कि स्वामी जी जैसा बड़ा कलाकार और कला मर्मज्ञ युवा कलाकारों के प्रति अपने व्यवहार में कितने खुले दिल का भी था... विवेक जी लेखकीय पक्ष से मेरा तो पहला ही परिचय है यह! बहुत अच्छा लगा। अगली कड़ी का इंतजार रहेगा��

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