भारत में पत्रकारिता और स्वाधीनता संघर्ष का
नजदीकी रिश्ता रहा है, हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता भी इसी औपनिवेशिक विरोधी
चेतना के बीच विकसित हुई. हिंदी साहित्य के एक युग का नाम ‘सरस्वती’ के संपादक महावीरप्रसाद
द्विवेदी के नाम पर रखा गया है.
हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का समृद्ध
संसार है. आज भी सैकड़ों की संख्या में ये नियत/अनियत निकलती हैं, इन पत्रिकाओं में
से कुछ लम्बे समय से निकल रहीं हैं और उनका प्रभाव भी साहित्य पर अच्छा खासा रहा है,
उनमें वैचारिक धार और रचनात्मक स्तर रहा है. इनमें हंस, आलोचना, पहल, पूर्वग्रह, तद्भव, समास आदि का नाम लिया जा
सकता है. समाज वैज्ञानिक पत्रिकाओं में ‘प्रतिमान’ अर्धवार्षिक गम्भीर शोध पत्रिका
है. इन पत्रिकाओं के महत्व और योगदान के सम्यक मूल्याङ्कन की जरूरत है.
इधर उदयपुर से ब्रजरतन जोशी के संपादन में
निकलने वाली ‘मधुमती’ ने भी कुछ अच्छे अंक निकाले हैं. मधुमती के बहाने हिंदी
साहित्यिक पत्रकारिता पर चर्चा कर रहें हैं पंकज पराशर.
हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता और मधुमती
पंकज पराशर
किसी पत्रिका की छवि उसमें प्रकाशित होने वाली रचना की गुणवत्ता, तेवर और उसमें छपने वाली रचना के चयन, उसकी प्रस्तुति और इन तमाम चीजों को लेकर उसके प्रकाशक-संपादक की नीति और नीयत से तय होती है. कोई पत्रिका किन विचारों को अपने लिए अहम मानती और किन विचारों को आगे बढ़ाने वाली रचनाओं को प्रकाशित करती है, यह छवि उसकी राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक सोच-समझ से बनती है. इन सब चीज़ों के पीछे चयनित विचारों के ऐतिहासिक विकास-क्रम की एक अहम भूमिका होती है. आख़िरकार इन्हीं चीजों से यह तय होता है कि पत्रिका के लिए रचना में सन्निहित विचार और विश्लेषण अहम है या रचना से अधिक अहम उसके लिए आकर्षक और कलात्मक प्रस्तुति है.
अँगरेजी की पत्रिका ‘इकॉनमिक एंड पोलिटिकल
वीकली’ और ‘सेमिनार’-जैसी पत्रिकाओं को देखें, तो
आवरण से लेकर भीतर छपने वाली रचनाओं की प्रस्तुति तक, कोई
रंगीनी, कलात्मकता और प्रस्तुति की कीमियागिरी नहीं दिखाई
देती. ये पत्रिकाएँ अपने प्रतिबद्ध पाठकों के बीच इसमें छपने वाली रचनाओं की
गुणवत्ता के कारण जानी जाती हैं. वहीं बहुतेरी ऐसी पत्रिकाएँ भी हैं, जिनकी राजनीति और प्राथमिकता ‘इकॉनमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ और
‘सेमिनार’-जैसी पत्रिकाओं से सर्वथा भिन्न हैं. यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी
पत्रिका में किसी ख़ास प्रवृत्ति और राजनीतिक विचारों को आगे बढ़ाने वाली रचना के
चयन में ही संपादक की नीति और नीयत की भूमिका अहम नहीं होती, प्रस्तुति और संपादकीय में अपनाए जाने वाले तेवर और पक्ष से भी उसकी
वास्तविक नीति का पता चलता है.
(हंस : राजेन्द्र यादव ) |
सन् 2000 में हिंदी का पहला वेबपोर्टल वज़ूद
में आया, तभी से इंटरनेट पर हिंदी ने
अपनी छाप छोड़नी शुरू कर दी, जो अब रफ़्तार पकड़ चुकी है.
नयी टैक्नोसेवी पीढ़ी ही नहीं, पुरानी पीढ़ी को भी अब इसकी
उपयोगिता समझ में आ गई है. इस प्रसंग में पिछले दशकों में इंटरनेट की दुनिया में
शुरू हुई ई-पत्रिकाओं पर भी विचार आवश्यक है. इन पत्रिकाओं ने वर्चुअल दुनिया में
सक्रिय हिंदी के नये विशाल पाठक वर्ग तक पहुँचने की कोशिश की है. चूँकि इंटरनेट आज
की एक ऐसी सचाई है जिससे अब तकरीबन हर किसी का साबका पड़ रहा है. प्रिंट की दुनिया
जहाँ धीरे-धीरे सिमटने लगी हैं, वहीं बहुत तेजी से वर्चुलल
संसार का दायरा बढ़ रहा है. हिंदी साहित्य आज नई या शौकिया वेबसाइटों पर ही नहीं,
बड़े व्यवसायिक पोर्टलों पर भी व्यापक रूप में सामने आ रहा है.
हिंदी की कई प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाएँ मसलन ‘हंस’, ‘कथादेश’,
‘तद्भव’ आदि
आज दुनिया के किसी भी कोने में बिना किसी इंतज़ार के
स्क्रीन पर पढ़ी जा सकती हैं. आलोक कुमार हिंदी के पहले ब्लॉगर हैं, जिन्होंने सबसे पहला ब्लॉग ‘नौ दो ग्यारह’ बनाया था और आज आलम यह है कि
एक-सवा लाख के क़रीब हिंदी में ब्लॉग हैं. नितांत व्यक्तिगत संसाधनों और प्रयासों
से नियमित चलने वाले हिंदी के दो बहुचर्चित ब्लॉग ‘समालोचन’ और ‘जानकीपुल’ की
पहुँच आज व्यापक पाठक वर्ग तक है.
आलोचना : नामवर सिंह |
पत्रिका निकालने में लगने वाले समय,
श्रम और तनाव के कारण राजेन्द्र यादव, ज्ञानरंजन
आदि का लिखना छूट गया. जबकि इंटरनेट पर ब्लॉग या वेबसाइट चलाने के लिए पर्याप्त
समय, संसाधन और तकनीकी रूप से दक्षता की भी जरूरत होती है.
जिसमें रचनात्मक गुणवत्ता के अतिरिक्त बेहतरीन प्रस्तुति, और
ठीक से प्रचार-प्रसार की भी जरूरत होती है. अरुण देव ने महज एक दशक में ‘समालोचन’
को हिंदी साहित्य के नये-पुराने पाठक वर्ग के बीच इस रूप में पेश किया है कि अब
लोगों को इस पर आने वाली रचनाओं की प्रतीक्षा रहती है. चूँकि नज़ीर अकबराबादी के
मुआमले से ही हिंदी इस बात के अभिशप्त-सी रही है कि इस भाषा में मूल्यांकन जल्दी
करने की परंपरा नहीं रही है. कुछ लेखकों की फाइल तो मौत के बाद खुली.
मसलन मुक्तिबोध की. जीते-जी मुक्तिबोध को वह
कुछ नहीं मिला, जो कुछ उन्हें मौत के बाद
मिला. जो कुछ उनके बारे में कहा गया, वह कुछ भी उनके जीते-जी
किसी ने नहीं कहा. हिंदी के ब्लॉग्स पर आये साहित्य और उसका हिंदी लोकवृत्त पर
पड़े साहित्य पर कभी चर्चा होगी, उसके योगदान पर
मूल्यांकनपरक चीजें देखने को मिलेगी-ऐसी उम्मीद करने में आख़िर क्या जाता है!
हालाँकि मुद्रित रूप में हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएँ अभी भी निकल रही हैं,
लेकिन कोरोना-काल में जब प्रेस बंद है और प्रेस कामगार अपने-अपने
घरों में कैद हैं, तो सूचनाएं और साहित्य दोनों के लिए लोग
सिमट कर इंटरनेट और टेलीविजन पर आ गए हैं. इस वज़ह से जहाँ नियमित मुद्रित होने
वाले पत्रिकाएँ पी.डी.एफ. के रूप में पाठकों तक पहुँचने के लिए बाध्य हुई हैं,
वहीं इंटरनेट पर ही जारी होने वाली पत्रिकाएं पहले के मुकाबले
दोगुने उत्साह से बेहतरीन रचनाओं के साथ पाठकों तक पहुँच रही हैं.
पहल : ज्ञानरंजन |
तद्भव : अखिलेश |
विभिन्न राज्य सरकारों की साहित्य अकादमियों
द्वारा प्रकाशित पत्रिकाओं में राज्य में सरकारों के बदलने के साथ ही पत्रिकाओं के
संपादकों को बदलने की प्रक्रिया चलती है. नतीज़तन पत्रिका की प्रस्तुति और
कलात्मकता में ही परिवर्तन नहीं आता, बल्कि
उसकी प्राथमिकता और मूल उद्देश्य को भी बदलने की कवायद होती रहती है. इस संदर्भ
में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा
और राजस्थान की अकादमियों से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं के बदलते चरित्र और
प्राथमिकताओं को देखा जा सकता है. इस प्रसंग में मध्य प्रदेश इसका सबसे ताज़ा
उदाहरण है, जहाँ सरकार बदलते ही फौरन तमाम अकादमियों में लोग
बदल दिये गये. पत्रिकाओं के संपादक बदल दिये गये, स्वीकृत
रचनाएँ भी छपने से रोक दी गयी. राजनीतिक विचारों के प्रचार के लिए अख़बारों और
टेलीविजन चैनलों के अलावा राजनीतिज्ञों के लिए और भी अनेक मंच हैं, लेकिन वे अपनी नीति और निहित स्वार्थों के प्रसार के लिए विशुद्ध साहित्य
के मंचों का भी इस्तेमाल करने से गुरेज नहीं करते, जो दरअसल
साहित्य के मूल स्वभाव और उद्देश्य के ही विरुद्ध है. इसीलिए अशोक वाजपेयी ‘भारत
भवन’ में साहित्यिक कार्यक्रमों में नेताओं को शरीक करने के विरुद्ध रहे. यही नहीं,
उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया था कि राजनीतिक लोग साहित्यिक कार्यक्रमों
में अनावश्यक हस्तक्षेप करने से गुरेज करेंगे और साहित्यिक कार्यक्रमों की गरिमा
को बनाये रखने में सहयोग करेंगे.
राजस्थान साहित्य अकादमी,
उदयपुर की पत्रिका ‘मधुमती’ जिस सोच और तेवर के साथ शुरू हुई थी,
उसी निरंतरता में वह आगे तक नहीं चल सकी. राजस्थान में सरकारों के
बदलने के साथ ही ‘मधुमती’-जैसी साहित्यिक पत्रिका के मंच का भी विशुद्ध राजनीतिक
और ग़ैर साहित्यिक उपयोग किये जाने की परंपरा चल पड़ी. जिस साहित्य का उद्देश्य
सुंदर का स्वप्न हो, बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय-जैसे
आदर्शवादी उद्देश्य को आगे बढ़ाना हो, उस साहित्यिक परंपरा
को यदि सिर्फ अपनी विचारधारा से जुड़े कृत्रिम रचनाकारों को छापकर दूषित किया जाए,
तो आम साहित्यिक पाठक पत्रिका से नहीं जुड़ पाता है. मुझे याद आता
है कि दिसंबर 2016 के अंक में रचनाकारों (?) की रचनाएँ
‘मधुमती’ में छपी थी, जिनमें से किसी का मैंने कभी नाम ही
नहीं सुना था! जैसे हिंदी के मंच पर कविता पढ़ने वाले मंचीय कवियों को हिंदी
साहित्य के अध्यापक-विद्यार्थी तकरीबन नहीं जानते, उसी तरह
उस दौर में ‘मधुमती’ में छपने में वाले रचनाकारों को साहित्यिक पत्रिकाओं के
पाठक-समाज में लोग नहीं जानते थे.
समास : उदयन वाजपेयी |
यदि ‘मधुमती’ कोई राजनीतिक पत्रिका होती,
तो सत्ता में आने वाले किसी भी दल को यह अधिकार होता कि वह अपनी
विचारधारा को बढ़ावा देने वाली चीज़ें छापे, अपने विचारकों
और विद्वानें को छापे, लेकिन ‘मधुमती’ चूँकि साहित्यिक
पत्रिका है, इसलिए इसमें ऐसी राजनीतिक पैंतरेबाजी के लिए न
तो कोई जगह होनी चाहिए, न इस मंच का ऐसा कोई दुरुपयोग
साहित्यिक समाज को किसी तईं स्वीकार्य होना चाहिए.
संपादक की दृष्टि और प्राथमिकताओं के बदलने
के साथ पत्रिका की रचनात्मक गुणवत्ता ही नहीं, तकनीकी
गुणवत्ता में भी परिवर्तन आता है. जैसे महावीरप्रसाद द्विवेदी ने जब ‘सरस्वती’,
राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’, मनोहर श्याम जोशी ने
‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, नामवर सिंह ने ‘आलोचना’ को अपने
विजन और कल्पनाशीलता से एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया. पिछले वर्ष 2019 की शुरुआत तक
तकनीकी स्तर और रचनात्मक स्तर पर ‘मधुमती’ की जैसी निर्मित-छवि थी, उससे किसी गुणवत्ताप्रिय लेखक को शायद ही इस पत्रिका में छपने में खुशी
होती. ज़ाहिर है, संपादक बनने के बाद जब इस पत्रिका के
नवनियुक्त संपादक ब्रजरतन जोशी ने मुझसे इस पत्रिका के लिए रचनात्मक सहयोग माँगा,
तो मुझे भीतर से कतई अच्छा नहीं लगा, लेकिन
‘मधुमती’ के नये संपादक का इसरार और पत्रिका को लेकर उनकी बहुतेरी योजनाएँ और
कल्पनाएँ सुनकर मुझे ऐसा लगा कि छह दशक से निकल रही इस पत्रिका में नये लोग,
नये दिमाग से शायद कुछ नवाचार करें. बहरहाल, एक-दो
अंकों के बाद ही संपादक जोशी ने फोण्ट से लेकर पत्रिका के ले-आऊट डिजाइन में
आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया.
अनेक नये कॉलम शुरु करक दिये. महात्मा गाँधी
की डेढ़ सौवीं जयंती को लेकर हर अंक में एक विशेष आलेख छापना शुरू कर दिया. यह
देखना थोड़ा आश्वस्तकारी लगा कि जोशी ने पिछले एक साल से तकरीबन हर विचारधारा के
लोगों को छापा, लेकिन कसौटी यह रखी कि वह
हो साहित्य ही. ‘मधुमती’ के साथ कुछ नया प्रयोग करने में एक सबसे बड़ी बाधा थी,
इस पत्रिका का सरकारी होना. सरकारी पत्रिका में छोटी-सी बात के लिए
भी फाइल चलती है. अनेक तरह के लोगों का मुँह जोहना पड़ता है, जबकि निजी प्रयासों और संसाधनों से निकले वाली ‘पहल’, ‘तद्भव’, ‘समयांतर’, ‘लमही’,
‘अकार’ जैसी पत्रिकाओं को किसी भी परिवर्तन के लिए किसी का मुँह
नहीं जोहना है. कुछ चीज़ों को छोड़ दें, तो इन पत्रिकाओं के
संपादक ख़ुदमुख़्तार हैं, वहीं सरकारी साहित्यिक पत्रिका में
सरकारी दबाव से लेकर राजनीतिक दबावों को झेलना और उसके बीच समन्वय का एक रास्ता
निकाल कर चलना किसी तनी हुई रस्सी पर चलने का करतब करने से कम नहीं.
आम पत्रकारिता ही नहीं,
साहित्यिक पत्रकारिता में भी सत्ता और सत्ताधीशों के विरोध की लंबी
परंपरा रही है, लेकिन जब संपादक नामक संस्था खुद एक सत्ता
में बदल गया हो, गढ़ों और मठों का विरोध करने वाले जब खुद
मठाधीशी में मुब्तिला हों, तो अपनी पसंद के लेखकों को छापना
और बाकी लोगों को नजरअंदाज करना एक सामान्य-सी बात हो गई है. ऐसे में ‘मधुमती’ ने
एक काबिल-ए-जिक्र काम यह किया है कि जो रचनाकार किसी वजह से अलक्षित रह गए हैं,
जिनके अवदान पर अपेक्षित चर्चा नहीं हुई है, उन
रचनाकारों पर ‘विशेष स्मरण’ नाम से विशेष सामग्री छापने की शुरूआत की है.
इस कोरोना-काल में पत्रिका नियमित छपे और पाठकों तक पहुँचे, यह एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आई. निजी प्रयासों से निकलने वाली पत्रिकाएँ भी इस कोरोना-काल में स्थगित-सी हैं, जबकि ‘मधुमती’ निकल रही हैं और पीडीएफ माध्यम से आम पाठकों तक पहुँच रही हैं-ऐसी चीज़ किसी सरकारी पत्रिका में अब तक देखने-सुनने में नहीं आई. जब बड़े संस्थानों, बड़े व्यावसायिक घरानों की पत्रिकाएँ निरतंर बंद हो रही हों, अनेक तरह की संकटों में फँसती जा रही हों, तब ‘मधुमती’-जैसी एक सरकारी पत्रिका से अच्छी उम्मीद बंधती है.
इस कोरोना-काल में पत्रिका नियमित छपे और पाठकों तक पहुँचे, यह एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आई. निजी प्रयासों से निकलने वाली पत्रिकाएँ भी इस कोरोना-काल में स्थगित-सी हैं, जबकि ‘मधुमती’ निकल रही हैं और पीडीएफ माध्यम से आम पाठकों तक पहुँच रही हैं-ऐसी चीज़ किसी सरकारी पत्रिका में अब तक देखने-सुनने में नहीं आई. जब बड़े संस्थानों, बड़े व्यावसायिक घरानों की पत्रिकाएँ निरतंर बंद हो रही हों, अनेक तरह की संकटों में फँसती जा रही हों, तब ‘मधुमती’-जैसी एक सरकारी पत्रिका से अच्छी उम्मीद बंधती है.
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राजस्थान साहित्य अकादमी की कई दशकों से प्रकाशित पत्रिका 'मधुमती' के बारे में यदि राजेन्द्र यादव कहते थे कि वे तो इसका रैपर ही नहीं खोलते तो ग़लत नहीं कहते थे । लेकिन यदि राजेन्द्र यादव ज़िंदा होते तो अब उन्हें मधुमती का रैपर खोलना ही नहीं पड़ता उसे पढ़ना भी पड़ता । सम्पादक ब्रजरत्न जोशी ने मधुमती का कायाकल्प कर दिया है । अभी कृष्ण बलदेव वैद पर उन्होंने महत्वपूर्ण अंक निकाला है जिसका सम्पादकीय पढ़ने लायक है । अन्य सामग्री भी बढ़िया है । सरकारी पत्रिकाओं की सीमा होती है चाहे वह मधुमती हो साक्षात्कार हो समकालीन भारतीय साहित्य हो । ये पत्रिकाएं अपने सम्पादकों के साथ अच्छी और बुरी होती रहती हैं । पंकज पराशर ने अच्छा आकलन किया है लेकिन राजस्थान से निकलने वाली बहुत सी राजस्थानी भाषा की पत्रिकाओं को भी उन्होंने हिंदी की बता दिया है जो खटकता है । अभी यही लिख सकता हूँ और आशा करता हूँ कि मधुमती ब्रजरत्न जोशी के सम्पादन में हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में अपना स्थान बनाएगी । सभी को शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंजब से ब्रजरतन जोशी जी ने मधुमती का संपादन अपने हाथ में लिया है, मधुमती एक स्तरीय और जरूरी पत्रिका बन गई है। अब इसका इंतजार रहता है। जोशी जी बिना किसी पूर्वाग्रह के, पत्रिका का संपादन करते हैं और खूब मिहनत करते हैं, जो उनके हर अंक में दिखती है। वे लेखकों को जितना मान देते हैं, वह सबको बाँध लेता है। और हर कोई उनसे सहर्ष जुड़ जाता है। वे बड़े प्यार से सबसे लिखवा भी लेते हैं। मुझे भी उन्होंने इस बीच तीन बार पत्रिका में जगह दी, इसके लिए उनका आभार। मधुमती दीर्घायु हो। शुभकामनाएँ।।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23.7.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
श्री ब्रजरतन जोशी जी ने वाकई ‘मधुमती’ का कायाकल्प कर दिया है। पत्रिका के कई अंक पीडीएफ में देखा और पहले से अंतर स्पष्ट हुआ।
जवाब देंहटाएंश्री पंकज पराशर का यह लेख पत्रकारिता की यह संक्षिप्त किंतु मूल्यवान पड़ताल करता है और उचित ही जोशी जी के संपादकीय का मूल्य आँकता है।
समालोचन ने हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता में लगभग पैराडाइम शिफ्ट किया है। आपने भी मधुमती को मुख्य धारा में लाने का महत्वपूर्ण उपक्रम किया है।
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