नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी अस्मिता का निर्माण : सुरेश कुमार








हिंदी भाषा और साहित्य के विकास और प्रसार में ‘नागरी प्रचारिणी सभा, काशी’ की केन्द्रीय भूमिका रही है. इसकी स्थापना बाबू श्यामसुन्दर दास ने तब की थी जब वे विद्यार्थी ही थे. हिंदी के विकास में इसके संघर्ष, सरस्वती पत्रिका से इसके सम्बन्ध और हिंदी शब्द सागर के निर्माण और फिर आचार्य रामचंद्र शुक्ल से इसके बनते बिगड़ते रिश्तों पर रोचक ढंग से सुरेश कुमार ने लिखा है हालाँकि यह शोध-पत्र है.

जिस सभा को संजो कर रखना चाहिए था वह आज बेहाल और बर्बाद है इसकी कथा फिर कभी. फ़िलहाल यह आलेख पढ़ें.




नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी अस्मिता का निर्माण          
सुरेश कुमार
      
                                              
                                                                   


हिन्दी नवजागरण के इतिहास में नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की स्थापना एक महत्वपूर्ण घटना थी. 19 वीं सदी के अंतिम दशक में स्थापित ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ ने हिन्दी साहित्य और भाषा को उच्च आसन पर बैठाने का काम किया. इसकी स्थापना की कहानी बड़ी रोचक है. बाबू श्यामसुंदर  दास ने क्वीन्स कालेज के कुछ छात्रों के साथ मिलकर एक सभा बनाई जिसका नाम नागरी प्रचारिणी सभा रखा. इस सभा का उद्देश्य यह था-


हिन्दी साहित्य और भाषा का प्रचार-प्रसार करना.

9 जुलाई 1893 में सभा का अधिवेशन बाबू हरिदास बुआसाव के मकान पर हुआ. इस अधिवेशन में आर्य समाजी विद्वान शंकरलाल ने एक जोरदार भाषण दिया. 16 जुलाई 1893 में सभा की एक बैठक हुई जिसमें नागरी प्रचारिणी सभा की विधिवत नीव रखी गई. इस बैठक में बाबू श्यामसुंदर  दास, पण्डित रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिवकुमार सिंह शामिल थे. इस तरह 16 जुलाई 1893 को रायबहादुर बाबू श्यामसुंदर  दास ने नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना कर नागरी भाषा के मान-सम्मान का बीज बो दिया था. यह जानकर हैरानी होती है कि बाबू श्यामसुंदर  दास ने जब नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की स्थापना उस समय वे इंटरमीडियट के छात्र हुआ करते थे.

नवजागरण काल का यह वही दौर था जब हिन्दी भाषा को हिकारत भरी दृष्टि से वैसे ही देखा जाता था जैसे आज का कुलीन तबका हिन्दी पढ़ने और बोलने वाले को देखता है. ब्रिटिश हुकूमत में स्थापित नागरी प्रचारणी सभा से जोड़ने में उस दौर के लेखक हिचकिचाते थे. ऐसे लेखकों को मानना था कि यह सभा ज्यादा समय तक टिक नहीं पायेगी. नवजागरण काल के प्रसिद्ध लेखक बाबू राधाकृष्ण दास नागरी प्रचारिणी सभा के स्थापित होने के छह महीने बाद जुड़े थे.

नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की स्थापना के प्रथम वर्ष में बाबू श्यामसंदर दास ने हिन्दी कोश, व्यकरण, उपन्यासों का इतिहास और हिन्दी विद्वानों की जीवनी लिखने की योजना पर कार्य किया. 30 सितंबर 1894 में नागरी प्रचारिणी सभा का पहला वार्षिक अधिवेशन बनारस के प्रसिद्ध कारमाइकेल पुस्तकालय में हुआ था. बाबू राधाकृष्ण दास और बाबू कार्तिकप्रसाद का विचार था कि राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द के हिन्दी विकाश में किए गए योगदान  को ध्यान में रखते हुए प्रथम अधिवेशन का सभापति बनाया जाए. राधाकृष्ण दास और बाबू कार्तिकप्रसाद सभापति बनने का प्रस्ताव शिवप्रसाद सितारे हिन्द के पास लेकर गए तो उन्होने यह कहते हुए कि


‘मैंने अपनी कलम तोड़ दी है और अब मैं व्यर्थ के किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहता हूँ’

सभापति बनने से मना कर दिया. बाबू राधाकृष्ण दास के आग्रह करने पर सितारे हिन्द ने अधिवेशन का सभापति बनने की स्वीकृति प्रदान कर दी.

नागरी प्रचारिणी सभा राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द को सभापति बना रही है; यह खबर जब कांग्रेसियों को लगी तो उन्होंने सभा के सदस्यों को चेतावानी देते हुए कहा कि यदि राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द को सभापति बनाया गया तो कार्याकर्ताओं द्वारा उनका बहिष्कार किया जायेगा. नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्य इस चेतावानी से सकते में आ गए. इस मुसीबत को टालने के लिए सभा के सदस्य ने तय कि राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की जगह ‘काशी’ पत्रिका के संपादक और क्वींस कालेज के शिक्षक पंडित लक्ष्मीशंकर मिश्र को वार्षिक अधिवेशन का सभापति बनाया जाए. प्रथम अधिवेशन के बाद नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्य तन-मन और धन से हिन्दी भाषा को गौरव दिलाने के लिए जुट गए.

(बाबू श्यामसुन्दर दास)
सन् 1895 में कायस्थ कांफ्रेश का अधिवेशन काशी में होना तय हुआ. बाबू श्यामसंदर दास को जब यह बात पता चली तो उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से एक प्रतिनिध मंडल कायस्थ अधिवेशन के सभापति बाबू श्रीराम के पास भेजा और उनसे  हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में सहायता करने की प्रार्थना की. बाबू श्यामसंदर दास को कायस्थ कांफ्रेस से इस बात की उम्मीद थी कि यदि कायस्थ कर्मचारी दफ्तरों में उर्दू की जगह हिन्दी भाषा में अपना कार्य करने लगे तो नागरी भाषा का प्रचार सुगमता से किया जा सकता है. इसका कारण यह था कि सरकारी दफ्तरों में कायस्थ समाज के लोग अधिक संख्या में कार्यरत थे. बाबू श्यामसंदर दास को इस कांफ्रेस से सन्तोष जनक परिणाम नहीं मिला क्योंकि कुछ पंडित और कायस्थ उर्दू को अपनी ‘मातृ भाषा’ मानते थे जिसके कारण हिन्दी के प्रचार में उन्होंने कोई विशेष दिलचस्पी नहीं दिखाई.

नागरी प्रचारिणी सभा ने हिन्दी साहित्य और भाषा के विकाश के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए. इनमें सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह था कि अदालतों और सरकारी दफ्तरों में नागरी भाषा को लागू करवाना. सन् 1996 में ब्रिटिश गर्वमेंट ने सरकारी दफ्तरों और अदालतों में फारसी अक्षरों की जगह रोमन लिपि लिखने का एक आदेश निकाला. सरकार के इस आदेश से नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी सेवियों के बीच काफी उथल-पुथल मच गई थी. नागरी भाषा के समर्थकों को इस बात का भय था कि यदि अदालतों और सरकारी दफ्दरों में रोमन लिपि लागू कर दी गई तो अदालतों में नागरी भाषा का द्वार हमेशा के लिए बन्द हो सकता है.

नागरी प्रचारिणी सभा ने अदालतों में रोमन लिपि के विरोध में आन्दोलन करना शुरु कर दिया. बाबू श्यामसुंदर  दास आन्दोलन को मुखर बनाने के लिए मुजफ्फरपुर गए; वे वहां परमेश्वर नारायण मेहता और विश्वनाथ प्रसाद मेहता से मिलाकर कुछ धन इक्ठ्ठा कर काशी लौट आए. इधर बाबू राधाकृष्ण दास ने नागरी कैरेक्टर [the Nagari Charaeter] लेख तैयार किया. बाबू श्यामसुंदर  दास ने इस लेख के पैम्पलेट छपवाकर लोगों  में बटवा दिए. नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी सेवियों के आन्दोलन का असर यह हुआ कि सरकार ने जुलाई 1896 में आज्ञापत्र जारी कर अदालतों में रोमन लिपि लिखने पर रोक लगा दी.

नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्य इस बात पर गहन विचार और विमर्श कर रहे थे कि नागरी भाषा को अदालतों में कैसे लागू करवाया जाए. सन् 1895 में एंटोनी मैकडानेल पश्चिमोत्तर प्रांत और अवध के लेफ्टिनेंट गर्वनर तथा चीफ कमिश्नर नियुक्त किए गए. सन् 1896 लेफ्टिनेंट गर्वनर एंटोनी मैकडानेल के काशी आगमन की सूचना बाबू श्यामसंदर दास को मिली. बाबू श्यामसुंदर  ने इस अशाय का एक पत्र लिखा कि नागरी प्रचारिणी सभा लेफ्टिनेंट गर्वनर को अभिनंदन पत्र देना चाहती है लेकिन गवर्नर की तरफ से कोई उत्तर नहीं आया. जब लेफ्टिनेंट गर्वनर एंटोनी मैकडानेल काशी पधारे तो बाबू श्यामसुंदर  दास को अभिनंदन पत्र देने के लिए बुलवाया गया. बाबू श्यामसुंदर  दास ने कहा सभा के सदस्यों इकट्ठा करने में वक्त लगेगा इसलिए अभिनंदन पत्र देना संभव नहीं है. बाबू श्यामसुंदर  दास ने लेफ्टिनेंट गर्वनर एंटोनी मैकडानेल को अभिनंदन-पत्र डाक द्वारा भेज दिया. इसी दौरान भारतीय भवन का वार्षिक अधिवेशन हुआ जिसके सभापति जस्टिस नाक्स थे. इन्होंने सभा और पंडित मदनमोहन मालवीय से कहा कि आप लोग को अदालतों में नागरी भाषा को लागू करवाने के लिए प्रयास करना चाहिए.

पंडित मदनमोहन मालवीय ने ‘कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज’(court Charaeter and Primary Education N.W. Provinees and oudh) बड़े परिश्रम और लगन से तैयार किया. सन् 1898 बाबू श्यामसुंदर  दास ने इस मेमोरियल का सार संक्षेप हिन्दी में ‘पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध में अदालती अक्षर और प्राइमरी शिक्षा’ शीर्षक से नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से प्रकाशित कर नागरी के पक्ष में माहौल निर्मित करने में अहम भूमिका निभाई. इस लेख में नागरी भाषा को अदालतों में लागू करने के पक्ष में तमाम उदाहरण और दलीले पेश की गई थी और यह भी कहा गया था कि पश्चिमोत्तर प्रांत की अदालतों में नागरी भाषा के लागू न होने से जनता को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा.

पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध में अदालती अक्षर और प्राइमरी शिक्षा’ लेख में कोर्ट आफ डाइरेक्टर के 30 सितबंर 1830 के आज्ञापत्र का उल्लेख करते हुए बताया गया कि


‘यह के निवासियों को जज की भाषा सीखने के बदले जज को भारतवासियों की भाषा सीखना बहुत सुगम होगा अतएव हम लोगों की सम्मति है कि न्यायलयों की समस्त कार्यवाई उस स्थान की भाषा में हो’.

इस आज्ञा पत्र को लेकर कुछ लोगों की राय थी कि अंग्रेजी भाषा को अदालत की भाषा बना दिया जाए और कुछ लोग इस पक्ष में थे कि फारसी के स्थान पर देशी भाषा लागू हो और लिपि रोमन कर दी जाए. ब्रिटिश गर्वमेंट का कहना था कि अंग्रेजी भाषा से अदालतों का कार्य सुचारु रुप से नहीं किया जा सकता है और जनता को न्याय पाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, इसलिय अदालतों में देश भाषा को लागू किया जाय. अंग्रेजी भाषा का व्यवहार केवल अफसर आपसी पत्र व्यवहार के लिए करें जिसका सर्व साधारण जनता से कोई लेना-देना नहीं हो.

मदर बोर्ड आफ रेवेन्यू ने 30 मई 1837 को एक आज्ञापत्र जारी कर सरकारी काम-काज को देश भाषा में करने के आदेश दिया. बंगाल गर्वमेंट के सेक्रेटरी ने 30 जून 1837 को ‘मदर बोर्ड आफ रेवेन्यू’ को एक पत्र लिखा था. इस पत्र में सेक्रेटरी ने लिखा था कि 


‘श्रीमान इस बात को स्पष्ट रुप से समझाया चाहते है कि उनकी सम्मति में केवल यूरोपीय अफसरों के आपस के पत्र व्यवहार को छोड़कर (जो अंग्रेजी में हुआ करे) प्रत्येक विभाग में सरकारी काम देश भाषा में हो.’

इस नियम के अनुसार बंगाल में बंगाली भाषा, उडीसा में उडिया और पश्चिमोत्तर प्रांत में हिन्दुस्तानी भाषा को अदालतों में मान्यता मिल गई. यह दिलचस्प बात है कि पश्चिमोत्तर प्रांत में अंग्रेजी अफसरों ने भूल वश उर्दू को देशी भाषा समझ लिया और अदालतों की काम-काज की भाषा उर्दू हो गई. सन् 1881 में सरकार ने बिहार प्रांत में अपनी इस भूल का सुधार किया और बिहार प्रांत की अदालतों में हिन्दी और कैथी भाषा लागू कर दी गई परन्तु पश्चिमोत्तर प्रांत की कचहरियों में नागरी भाषा का प्रचलन नहीं हो सका. अवध प्रांत की कचहरियों में नागरी भाषा को लागू करवाने के लिए महामना पंडित मदनमोहन मालवीय और नागरी प्रचारिणी सभा के नेतृत्व में आन्दोलन होने लगा. ‘नागरी कोर्ट करैक्टर’ में इस बात का तमाम सक्ष्य दिए गये कि पश्चिमोत्तर प्रांत की जनता दैनिक कार्यों में हिन्दी भाषा का इस्तेमाल करती है. इसलिए ब्रिटिश गर्वमेंट से गुजारिश है कि अवध प्रांत की कचहरियों और प्राइमरी स्कूलों में नागरी भाषा लागू करने का आज्ञा पत्र जारी किया जाए. नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्यों ने नागरी भाषा के पक्ष में जनमत तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी.

नागरी प्रचारिणी सभा के कार्यकर्ताओं ने विभिन्न शहरों में घूम-घूम कर साठ हजार व्यक्तियों के नागरी कोर्ट मेमोरियल पर हस्ताक्षर करवाएं. नागरी कोर्ट मेमोरियल पर हस्ताक्षर करवाने में केदारनाथ पाठक ने बड़ा योगदान किया था. केदारनाथ पाठक ब्रिटिश सरकार की परवाह किए बगैर कानपुर, लखनऊ, बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, इटावा, अलींगढ़, मेरठ, हरदोई, देहरादून, फैजाबाद आदि शहरों में घूम-घूम कर लोगों के मेमोरियल पर हस्ताक्षर करवाए थे. इस दौरान उनको जेल की हवा भी खानी पड़ी और राजद्रोह का मुकदमा भी झेलना पड़ा था.
 
नागरी कोर्ट कैरेक्टर मेमोरियल’ साठ हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षर सहित सोलह जिल्दों में पश्चिमोत्तर प्रांत के लेफ्टीनेंट गर्वनर एंटोनी मैकडानेल को सौंपे जाने का विचार किया गया. मैकडानेल को मेमोरियल देने के लिए सत्रह व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मंडल बनाया गया. बाबू श्यामसुंदर दास का विचार था कि नागरी प्रचारिणी सभा की तरफ से बाबू राधाकृष्ण दास प्रतिनिधि बनकर जाए लेकिन महामना पंडित मदनमोहन मालवीय सहमत नहीं हुए. बाबू श्यामसुंदर  दास ने अंत में नागरी प्रचारिणी सभा की तरफ से महामना मदनमोहन मालवीय को ही प्रतिनिधि बनाकर भेजा. महामना मदनमोहन मालवीय का जो प्रतिनिधि मंडल था उस में राजा-महराजाओं और संभ्रात रईसों को तरजीह दी गई थी. यह सोचने वाली बात है कि पंडित मदनमोहन मालवीय के प्रतिनिधि मंडल में किसी साहित्यकार या किसी हिन्दी सेवक को तरजीह नहीं दी गई थी. इस प्रतिनिधि मंडल में जिन सत्रह व्यक्तियों को शामिल किया गया उनकी सूची ‘पश्चिमोत्तर प्रदेश और अवध में नागरी आक्षर का प्रचार’ ‘सरस्वती’ पत्रिका अप्रैल 1900 के अंक में छपे लेख में दी गई है. वह सूची इस प्रकार है-

1.महाराज सर प्रतापनारायण सिंह बहादुर, के. सी. आई. ई., अयोध्या
2.राजा रामप्रताप सिंह बहादुरमाँडा इलाहाबाद
3.राजा घनश्याम सिंह, मुरसानअलीगंढ
4.राजा रामपाल सिंह मेम्बर लेजिसलेटिव कौंसिलरापपुर, प्रतापगढ
5.राजा सेठ लक्ष्मणदास, सी. आई. ई.,मथुरा
6.राजा बलवंत सिंह, सी. आई. ई., एटा 
7.राय सिद्धेश्वरी प्रसाद नारायण सिंह बहादुर,गोरखपुर
8. राय कृष्ण सहाय बहादुर, सभापति देव नागरी प्रचारिणी सभामेरठ
9. राय कंवर हरिचरण मिश्र बहादुर, बरेली
10. राय निहालचन्द बहादुर, मुजफ्फर नगर
11.आनरेबल राय श्रीराम बहादुर, एम.ए.बी.एल. एडवोकेट अवध, मेम्बर प्रांतिक लेजिसलेटिव कौंसिल,तथा फेलो इलाहाबाद युनिर्वसिटी,लखनऊ
12.राय प्रमदादास मित्र बहादुरफेलो इलाहाबाद युनिर्वसिटी
13.आनरेबल सेठ रघुबरदयानमेम्बर प्रांतिक लेजिसलेटिव कौंसिल,सीतापुर
14.मुन्शी माधवलालरईस,काशी
15. मुन्शी रामनप्रसाद, एडवोकेट तथा सभापति कायस्थ पाठशाला कमेटी, इलाहाबाद
16.पंडित सुन्दरलाल बी.ए. एडवोकेट तथा फेलो इलाहाबाद युनिर्वसिटी
17.पंडित मदनमोहन मालवीय, बी.ए. एल.एल.बी., वकील हाईकोर्ट, तथा प्रतिनिधि काशी नागरी प्रचारिणी सभा.

देखा जा सकता है कि इस  प्रतिनिध मंडल में संभ्रात रईस और राजा शामिल थे. इस सम्बन्ध में बाबू श्यामसंदुर दास ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी आत्मकहानी’ में महामना मालवीय जी के सम्बन्ध में बड़े ही मार्के की बात लिखी हैं-


‘मालवीय जी के जीवन पर एक साधारण दृष्टि डालने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनके हृदय में राजाओं, रईसों आदि के लिए अधिक सम्मान का भाव था.’
दो मार्च 1898 दिन वृहस्पतिवार को बारह बजे पंडित मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में सत्रह व्यक्तियों के प्रतिनिधि मंडल ने पश्चिमोत्तर प्रांत और अवध के लेफ्टीनेंट गर्वनर एंटोनी मैकडानेल को ‘कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज’ सौंप दिया. नागरी प्रचारिणी सभा और महामना के नेतृत्व में चले इस आन्दोलन ने पश्चिमोत्तर प्रांत में कचहरियों और प्राइमरी स्कूलों में हिन्दी भाषा के लिए द्वार खोल दिया. 18 अप्रैल 1900 को पश्चिमोत्तर प्रांत और अवध के लेफ्टीनेंट गर्वनर एंटोनी मैकडानेल ‘बोर्ड आफ रेविन्यु’ और हाई कोर्ट तथा ‘जुडिशियल कमिशनर अवध’ से सम्मति लेकर आज्ञापत्र जारी कर दिया. ‘सरस्वती’ अप्रैल 1900 के अंक में पश्चिमोत्तर प्रदेश और अवध में नागरी अक्षर का प्रचार’ लेख में गर्वनर एंटोनी मैकडानेल के आदेश को अक्षरशः प्रकाशित किया गया. वह इस प्रकार है-


(१)सम्पूर्ण मनुष्य प्रार्थनापत्र और अर्जीदावों को अपनी इच्छा के अनुसार नागरी या फारसी के अक्षरों में दे सकते हैं.


(२) सम्पूर्ण सम्मन, सूचनापत्र और दूसरे प्रकार के पत्र जो सरकारी न्यायालयों वा प्रधान कर्मचारियों की ओर से देश भाषा में प्रकाशित किए जाते हैं, फरसी और नागरी अक्षरों में जारी होंगे और इन पत्रों की शेष भाग की खानापूरी भी हिन्दी भाषा में उतनी ही होगी जितनी फारसी अक्षरों में की जाए और

(३) अंग्रेजी अफसरों को छोड़कर आज से किसी न्यायालय में कोई मनुष्य उस समय तक नहीं नियत किया जायगा जब तक वह नागरी और फारसी अक्षरों को अच्छी तरह से लिख और पढ़ न सकेगा.

इस आज्ञापत्र की एक-एक प्रति सभी कार्यालयों के प्रधान कर्मचारियों और विभागों में भेजकर सरकारी गजट में प्रकाशित करने का आदेश दिया गया. यह बड़ी दिलचस्प बात है कि इस आदेश में फारसी भाषा को हटाया नहीं गया और नागरी भाषा को अदालतों में लागू करने का आदेश जारी हो गया.

राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिस स्वप्न को देखा था उसको  महामना मदनमोहन मालवीय और नागरी प्रचारिणी सभा ने साकार कर दिखाया. नागरी भाषा का अदालतों में लागू करवाने का श्रेय महामना मदनमोहन मालवीय, बाबू श्यामसुंदर  दास, बाबू राधाकृष्ण दास, नागरीप्रचारिणी सभा और और उन तमाम हिन्दी सेवियों को जाता है जिन्होंने ‘नागरी कोर्ट मोमेरियल’ पर पूरे  पश्चिमोत्तर प्रांत में घूम-घूम कर साठ हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षर करवाए थे. निश्चित तौर पर यह नागरी प्रचारिणी सभा का हिन्दी भाषा के लिए बहुत बड़ा योगदान था.

इस सम्बन्ध में एक घटना का जिक्र करना जरुरी है. जब नागरी कोर्ट मेमोरियल लेफ्टीनेंट गर्वनर एंटोनी मैकडानेल को सौंपा जाना था. इस ऐतहासिक दृश्य को बाबू श्याम सुंदरदास और बाबू राधाकृष्ण दास अपनी आँखों से देखना चाहते थे. मुंशी गंगाप्रसाद की सहायता से बाबू श्यामसुंदर  दास ने गर्वनर हाउस पास का इन्तजाम किया. इस ऐताहासिक दृश्य को देखकर लौटते समय बाबू राधकृष्ण दास ने संगम में स्नान किया और उन्होंने यह मनौती मांगी कि यदि हिन्दी भाषा का प्रचार कचहरियों और स्कूलों में हो गया तो मैं संगम में आकर दूध चढ़ाऊँगा. यह बात आज के दौर में भले ही अटपटी लगे लेकिन इस घटना से हिन्दी भाषा के प्रति उनके जुनून और आदर भाव का पता जरूर चलता है.
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(दो)
यह बात कम ही लोग जानते होंगे कि हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध पत्रिका ‘सरस्वती’ काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ही देन है. सन् 1899 में इन्डियन प्रेस के मालिक बाबू चिंतामणि घोष ने बाबू श्यामसुंदर  दास को सभा की ओर से एक मासिक पत्रिका निकालने का प्रस्ताव दिया. बाबू श्यामसंदुर दास ने बाबू चिंतामणि घोष के प्रस्ताव को स्वीकृति इस शर्त के साथ प्रदान की कि वे संपादक का भार ग्रहण नहीं करेंगे. इस समस्या के समाधान के लिए नागरी प्रचारिणी सभा ने ‘सरस्वती’ के संपादन के लिए एक संयुक्त संपादक समिति बनाई. इस संपादक समिति में जगन्नाथदास रत्नाकर बी.ए., बाबू श्यामसुन्दर दास बी.ए. बाबू राधकृष्ण दास, किशोरीलाल गोस्वामी और कीर्तिप्रसाद खत्री शामिल थे. 

इस समिति के संयुक्त संपादन में जनवरी 1900 में ‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रथम अंक निकला. ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादन के लिए भले ही पाँच लोगों की संपादक समिति नियुक्त कर दी गई थी लेकिन पत्रिका के संपादन का समस्त कार्य बाबू श्यामसुंदर  दास को ही करना पड़ता था. एक साल बाद यह संपादक समिति तोड़ दी गई और बाबू श्यामसुंदर  दास को ‘सरस्वती’ का संपादक बना दिया गया. जनवरी 1901 से दिसम्बर 1902 तक बाबू श्यामसुंदर  दास ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक रहे. बाबू श्यामसुंदर  दास ने जनवरी 1903 में ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादन भार से अपने आप को मुक्त कर के पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी को संपादक बनने का अवसर दिया. 

जनवरी 1903 में बाबू चिंतामणि घोष ने महावीर प्रसाद द्विवेदी को ‘सरस्वती’ का संपादक नियुक्त किया. जब पंडितमहावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में जनवरी 1903 में ‘सरस्वती’ का अंक निकला तो उन्होंने बाबू श्यामसुंदर  दास पर एक संपादकीय नोट लिखकर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने संपादकीय नोट में लिखा था-

‘जिन्होंने बाल्यकाल ही से मातृभाषा हिन्दी में अनुराग प्रकट किया;जिनके उत्साह और अश्रान्त श्रम से नागरी प्रचारिणी सभा की इतनी उन्नति हुई; हिन्दी की दशा को सुधारने के लिए जिनके उधोग को देखकर सहस्रशः साधु-वाद दिए बिना नहीं रहा जाता; जिन्होंने विगत दो वर्षों में, इस पत्रिका के संपादन कार्य को बड़ी ही योग्यता से निबाहा, उन विद्वान बाबू श्यामसुन्दर दास के चित्र को इस वर्ष, आदि में प्रकाशित करके, सरस्वती अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करती है.’ 
‘सरस्वती’ के  इसी अंक में बाबू श्यामसुंदर  का पूरे पृष्ठ पर चित्र छापकर यह टैग लाइन लिखी गई थी-
(आचार्य  महावीरप्रसाद द्विवेदी)

मातृभाषा के प्रचारक, बिमल बी.ए. पास. सौम्य शीलनिधान, बाबू श्यामसुंदर  दास..’

सरस्वती’ नागरी प्रचारिणी सभा की अनुमोदित पत्रिका थी. इसलिए सरस्वती पत्रिका में सभा के विरुद्ध कोई लेख या नोट नहीं छपता था लेकिन महावीर प्रसाद द्वि़वेदी ने संपादक की ताकत दिखाते हुए सन् 1904 में सरस्वती पत्रिका में सन् 1901 की नागरी प्रचारिणी सभा की पुस्तक खोज की रिपोर्ट की कठोर आलोचना छाप दी. सरस्वती, दिसबर 1904 के अंक महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती और सभा’ शीर्षक से एक लेख लिखा जिसको लेकर नागरी प्रचारिणी सभा में भूचाल आ गया. सन् 1905 में नागरी प्रचारिणी के सभापतियों के बीच एक बैठक हुई जिसमें यह प्रस्ताव पारित किया गया कि नागरी प्रचारिणी सभा ‘सरस्वती’ पत्रिका से अपना अनुमोदन वापस लेती है. इस प्रस्ताव की कापी इन्डियन प्रेस के मालिक चिंतामणि घोष के पास भेज दी गई. इधर, ‘सरस्वती’ जनवरी 1905 का अंक छप चुका था. जब यह बात चिंतामणि घोष को पता चला कि सभा ने अपना अनुमोदन हटा लिया है तो जनवरी 1905 के ‘सरस्वती’ का कवर पृष्ठ फाड़कर नागरी प्रचारिणी के बिना अनुमोदन वाला कवर पृष्ठ बनाया गया.

महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस पूरे प्रकरण को लेकर ‘सरस्वती’ में ‘अनुमोदन का अंत’ शीर्षक से संपादकीय भी लिखा था. इस संपादकीय के बाद महावीरप्रसाद द्विवेदी और बाबू श्यामसुंदर  दास एक दूसरे के विरोधी हो गए. हालांकि एक अरसे बाद दोनों के सम्बन्धों में फिर से मधुरता बहाल हो गई थी. यह बात बिना किसी संकोच के कही जा सकती है कि यदि बाबू श्यामसुंदर  दास नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा ‘सरस्वती’ पत्रिका को निकालने का अनुमोदन नहीं दिया होता तो शायद ‘सरस्वती’ का जन्म होता.
                                  
                                                                            
(तीन)
नागरी प्रचारिणी सभा का ‘हिन्दी-शब्दसागर’ कोश का निर्माण हिन्दी भाषा को बड़ी देन कहा जा सकता है. इस कोश के निर्माण की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. इसलिए ‘हिन्दी शब्दसागर’ शब्दकोश का निर्माण प्रक्रिया के संबन्ध में थोड़ा जान लिया जाए. हिन्दी के प्रशंसक रेवरेंड ई. ग्रीक्स ने सन 1907 में नागरी प्रचारिणी सभा की प्रबंधकारिणी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था कि सभा एक हिन्दी भाषा के बृहत कोश का निर्माण करे. इसके बाद इस कार्य के लिए एक समिति बनाई गई जिसमें रेवरेंड ई. ग्रीक्स, पंडित सुधाकर द्विवेदी, पंडित रामनरायण मिश्र, बाबू गोविन्द दास, बाबू इन्द्रनाथ सिंह, लाला छोटेलाल मुंशी माधवप्रसाद, बाबू श्यामसुन्दर दास और संकटप्रसाद शामिल थे.

9 नवबंर 1907 को इस समिति ने अपनी रिर्पोट काशी नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्यों के समक्ष पेश की. इस रिर्पोट में कहा गया कि सभा हिन्दी भाषा में दो बृहत कोश तैयार करें, जिसमें एक कोश में हिन्दी के शब्द हिन्दी में रहें और दूसरे कोश में हिन्दी के शब्द अंग्रेजी भाषा में रहे. आरम्भ में कोश के सहायक संपादक पंडित बालकृष्ण भट्ट, रामचंद्र शुक्ल, बाबू रामचंद्र वर्मा, लाला भगवानदीन, अमीर सिंह, बाबू जगमोहन वर्मा, वचनेश मिश्र और ब्रजभूषण ओझा नियुक्त को नियुक्त किया गया. हिन्दी-शब्द सागर कोश के संपादन का भार जिस समय बाबू श्यामसुन्दर दास को सौंपा गया उसी समय सभा ने तय किया कि बालकृष्ण भट्ट, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, लाला भगवानदीन और अमीर सिंह कोश के सहायक संपादक के रुप में बाबू श्यामसुन्दर दास की मद्द करेंगे.

गौरतलब है कि सन् 1901 में बाबू श्यामसुन्दर दास को नौकरी करने के लिए कश्मीर जाना पड़ा. सभा ने तय किया कि बाबू श्मामसुन्दर दास की अनुपस्थिति में केशवदेव शास्त्री कोश की देखभाल करेंगे. 15 मार्च 1910 को कोश कार्यालय काशी से जम्मू में शिफ्ट हो गया. 1 अप्रैल 1910 को कोश का कार्य करने के लिए रामचंद्र शुक्ल और अमीर सिहं कोश निमार्ण सहायता करने के लिए जम्मू रवाना हो गए. एक महीने बाद पंडित बालकृष्ण भट्ट जम्मू पहुँच गए. शब्दकोश के निर्माण का कार्य धीरे-धीरे होने लगा था. जब शब्दकोश के निर्माण कार्य प्रगति पर था इसी दौरान बाबू अमीर सिंह की पत्नी का देहांत हो गया जिसके कारण अमीर सिंह को कोश का कार्य बीच में ही छोड़कर जम्मू से प्रयाग आना पडा. इसके बाद एक घटना और घट गई पंडित बालकृष्ण भट्ट सीढ़ी से उतरते समय फिसल गए और उनकी एक टांग टूट गई. बालकृष्ण भट्ट अक्टूबर 1910 में छुट्टी लेकर कश्मीर से प्रयाग चले आए. अब जम्मू में अकेले रामचंद्र शुक्ल बचे थे. कोश के सहायक संपादकों के न होने से बाबू श्यामसुन्दर दास ने 15 दिसम्बर 1910 को कोश का कार्यालय जम्मू से पुनः काशी में शिफ्ट कर दिया.

जनवरी 1911 में शब्दकोश पर काम फिर से शुरु हुआ. बाबू गंगाप्रसाद गुप्त कोश के सहायक संपादक नियुक्त किए गए. कुछ महीने ही काम करने के बाद नवबंर 1911 में बाबू गंगाप्रसाद गुप्त ने सहायक संपादक पद से अपने आप को मुक्त कर लिया. सन् 1913 में  कोश के संपादन कार्य समिति में कुछ बदलाव किया गया जिसमें बालकृष्ण भट्ट, जगमोहन वर्मा, लाला भगवानदीन और अमीर सिंह को संपादन कार्य के लिए नियुक्त किया गया और संपादित स्लिपों का प्रूफ पढ़ने का कार्य आचार्य रामचंद्र शुक्ल के जिम्मे सौंपा गया. मई 1913 में इस कोश के छपाई का कार्य आरम्भ हुआ. एक साल के भीतर 96 पृष्ठों में इसके चार खण्ड प्रकाशित हो गए जिसमें 8666 शब्द थे. सन् 1913 के बाद कोश का कार्य लगातार जारी रहा. इसी बीच पंड़ित बालकृष्ण भट्ट बिमारी और वृद्धावस्था के कारण 1913 में कोश के निर्माण से अपने आप को मुक्त कर लिया. पंडित बालकृष्ण भट्ट के चले जाने के बाद कोश के सहायक संपादक बाबू रामचन्द्र वर्मा को नियुक्त किया गया. इस तरह बीस वर्षो तक बाबू श्यामसुंदर  दास के नेतृत्व में कोश निर्माण  का कार्य चला. सन् 1927 में हिन्दी शब्दकोश का कार्य समाप्त हो गया. यह सर्वविदित है कि इसी ‘हिन्दी शब्दसागर’ की भूमिका में आचार्य रामचंन्द्र शुक्ल का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ सर्व प्रथम छपा था.
(आचार्य रामचंद्र शुक्ल)

यह आश्चर्य और चकित कर देने वाली बात है कि जब हिन्दी शब्दसागर की प्रस्तावाना लिखने का विचार किया गया तो यह तय किया गया कि बाबू श्यामसुंदर  दास द्वारा लिखित ‘हिन्दी-भाषा का इतिहास’ और रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ हिन्दी शब्दसागर की प्रस्तावना में दिया जायेगा.

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बाबू श्यामसंदुर दास को बताए बिना ही प्रेस में जाकर प्रस्तावना के अंत में अपना नाम जुडवा दिया. बाबू श्यामसुंदर  दास ने प्रस्तावना में जो अपना ‘हिन्दी भाषा का इतिहास’ दिया था लोगों ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल का समझ लिया. सन् 1934 में ‘अभ्युदय’ पत्र के प्रतिनिधि श्री तकरु ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का सक्षात्कार करते हुए यह प्रश्न पूछा कि ‘हिन्दी शब्द-सागर’ की भूमिका में  क्या आपने भाषा-विज्ञान लिखा है ? आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इस प्रश्न का सीधा उत्तर देने के बजाय केवल मुस्करा दिए. जब शुक्ल जी का यह साक्षात्कार ‘अभ्युदय’ पत्र में प्रकाशित हुआ तो लोगों ने अनुमान लगाया कि हिन्दी भाषा का इतिहास रामचन्द्र शुक्ल का लिखा हुआ है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपनी सफाई 21 जून 1934 को बाबू श्यामसुंदर  दास को एक व्यक्तिगत पत्र लिखकर दी. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का वह पत्र इस प्रकार है-

‘‘प्रिय बाबू साहब,
एक सज्जन से कल मुझे मालूम हुआ कि ‘‘अभ्युदय”  में मेरा कोई वक्तव्य प्रकाशित हुआ है. मैं यहाँ ‘‘अभ्युदय का वह संख्या ढुँढ़वा रहा हूँ, पर अभी तक मिली नहीं. मैं नहीं जानता कि उसमें क्या छपा ?

एक महीने से ऊपर हुआ कि काशी में मेरे यहाँ सहसा मि. तकरू पहुँचे और कहा कि मुझे दो बातें पूछनी हैं. उन्होंने पूछा- ‘‘हिन्दी-शब्द-सागर की भूमिका के रुप में हिंदी-भाषा और साहित्य के इतिहास दिए हैं; क्या दोनों इतिहास आप ही के लिखे है ? मैंने उत्तर दिया- ‘‘मेरा केवल साहित्य का इतिहास है; भाषा का इतिहास बाबू श्यामसुंदर  दास का लिखा है.“  इस पर मि. तकरू बोले- ‘‘भाषा का इतिहास जहाँ समाप्त हुआ है वहाँ तो बाबू श्यामसुंदर  दास जी या और किसी का नाम नहीं है. हाँ, जहाँ साहित्य क इतिहास समाप्त हुआ है वहाँ आपका नाम दिया है.“
मैंने उत्तर दिया-  ‘‘पहले निश्चित हुआ था कि दोनों इतिहासों में (शब्द-सागर के अंतर्गत) किसी का नाम न दिया जाए; जब पीछे साहित्य का इतिहास प्रायः छप चुका तब विचार बदल गया और मेरा नाम उसके अंत में दे दिया गया.“  बातचीत हो जाने पर मि. तकरू ने कहा कि मैंने ये बातें ‘‘अभ्युदय” के प्रतिनिधि के रुप में आप से पूछी हैं." 

इस पत्र में रामचन्द्र शुक्ल ने यहाँ भी लिखा था कि  ‘अभ्युदय’ में हिन्दी भाषा के इतिहास को लेकर जो लिखा है, मैं उसका खंडन करूंगा लेकिन रामचन्द्र शुक्ल ने इसका सर्वजानिक खंडन नहीं किया. इससे हिन्दी जगत में यह भ्रांति फेल गई कि हिन्दी भाषा का इतिहास रामचन्द्र शुक्ल का लिखा हुआ है और बाबू श्यामसुंदर  दास ने अपने नाम से छपवा लिया है. सच बात यह है कि हिन्दी भाषा का इतिहास श्यामसुंदर  दास का ही लिखा था.
 

हिन्दी अस्मिता की लड़ाई नागरी प्रचारिणी सभा ने दौर में लड़ी जब देश अंग्रेजों की सत्ता के अधीन था. आज की तरह हिन्दी सेवा कोई दिखावे की वस्तु नहीं थी बल्कि हिन्दी भाषा का सवाल उनकी अस्मिता और मान-सम्मान से जुड़ा हुआ मुद्दा था. विडंबना देखिए कि जिस संस्था ने अंग्रेज सत्ता के रहते हुए हिन्दी भाषा और साहित्य को प्रतिष्ठा दिलाने में अहम भूमिका निभाई हो आजादी के बाद वही संस्था जर्जर अवस्था में पहुंच जाएगी बाबू श्यामसुंदर दास ने इसकी कल्पना शायद ही की होगी.
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सुरेश कुमार ने लखनऊ युनिवर्सिटी से पीएचडी की है और इलाहाबाद में रहते हैं.
Suresh9kemar86@gmail.com

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  1. निर्भय देवांश27 मार्च 2020, 9:46:00 am

    सुरेश भाई का यह लेख विचारोत्तेजक है। कैसे बाबू श्यामसुंदर दास को शुल्क जी के समक्ष हीनतर बता कर लोग महानता बखान करते है। समझने वालों के लिए साहित्यालोचन , इतिहास से कम समझ नहीं देती है। अगर प्रचारिणी नहीं होती तो शुक्ल जी को पहचान मिलती भी कि नहीं, यह भी प्रश्न है। इन सभी विषयों पर बात होनी चाहिए। सुरेश भाई ने काफी बातें शोधन कर सामने लायी हैं। आप दोनों को बधाई।

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  2. बहुत सुंदर।आप सभा का इतिहास ही लिख डेल।उस जमाने मे इतना बड़ा काम हुआ।कई नई जानकारी मिली।

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  3. नागरी प्रचारिणी सभा पर एक बढ़िया काम अमिष वर्मा ने किया है। उनकी एम. फिल. है। प्रकाशित भी है। यह लेख भी अच्छा है।

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    1. सर मुझे अमिष वर्मा की यह पुस्तक कैसे उपलब्ध हो सकती है? मुझे अपने शोध के लिए इस पुस्तक की आवश्यकता है।

      हटाएं
  4. इस महत्त्वपूर्ण आलेख के लिए सुरेश जी को हार्दिक धन्यवाद और इसके प्रकाशन के लिए अरुण जी को साधुवाद।
    सुरेश जी यदि काशी नागरी प्रचारिणी सभा की मौजूदा दुर्दशा और उससे निजात के उपाय को रेखांकित करके उत्तर प्रदेश सरकार/केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय को भेज सकें,तो बेहतर होगा।

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  5. सुजीत कुमार सिंह27 मार्च 2020, 7:13:00 pm

    'सभा' का बीजवपन क्वींस काॅलीजिएट स्कूल की पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाले कतिपय उत्साही छात्रों ने किया था, जिनका मूल उद्देश्य एक वाद-विवाद समिति की स्थापना करना था।

    उन बच्चों का विचार था कि नागरी प्रचार को उद्देश्य बनाकर एक सभा की स्थापना की जाए।

    और इस निश्चय के अनुसार 10 मार्च 1893 को सभा की स्थापना हुई जिसका नाम नागरी प्रचारिणी सभा रखा गया।

    उस समय गोपालप्रसाद खत्री, रामसूरत मिश्र, उमराव सिंह, शिवकुमार सिंह तथा रामनारायण मिश्र उसके प्रमुख कार्यकर्ता थे।

    सभा की लोकप्रियता बढ़ने से उसे छात्रावास से बाहर आ नगर में स्थान ढूंढ़ना पड़ा और जीवनदास के एक कमरे में उसे आश्रय मिला।

    ग्रीष्मावकाश भर सभा का कार्यक्रम स्थगित रहा परन्तु अवकाश समाप्त होने पर 9 जुलाई 1893 को पुनः सब लोग जीवनदास के कमरे में एकत्र हुए।

    उस दिन गोपाल प्रसाद और रामनारायण मिश्र के उद्योग से कई नये सज्जन सभा में पधारे जिनमें श्याम सुन्दर दास का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

    बाबू श्याम सुन्दर दास अपनी आत्मकथा में लिखते हैं--

    " मैं मंत्री चुना गया और सभा के साप्ताहिक अधिवेशन होने लगे। उस समय जो लोग उसमें संमिलित हुए उनमें से पंडित रामनारायण मिश्र, ठाकुर शिवकुमार सिंह और मैं अबतक इस सभा के सभासद बने हुए हैं, और लोग धीरे-धीरे अलग हो गये। अतएव उदार जनता ने हमीं लोगों को सभा का संस्थापक तथा जन्मदाता मान लिया है।"
    ______________
    कुछ तथ्यात्मक और वर्तनी की त्रुटियाँ हैं।

    सुरेश कुमार जी को बधाई इस महत्वपूर्ण लेख के लिए।❤️

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  6. सुरेश कुमार27 मार्च 2020, 8:06:00 pm

    'सन 1893 की बात है। मैं उस समय इंटर मीडियेट के सेकंड इयर में था। उन दिनों हम लोगों के डिबेटिंग क्लब थे,पर उनका कालेज से कोई संबंध न था। छोटे दर्जे के विद्यार्थियों ने अपनी अलग डिबेटिंग सुसाईटी बनाई थी। इसका अधिवेशन प्रति शनिवार को 12 बजे नार्मल स्कूल में होता था। गर्मी की छुट्टियों में यह काम बंद हो गया। 9जुलाई सन 1893 को इस सुसाईटी का एक
    अधिवेशन बाबू हरिदास बुआसाव के अस्तबल के ऊपरी कमरे में हुआ।..... यह निश्चय हुआ कि अगले सप्ताह 16 जुलाई को फिर सभा हो। उसमे यह निश्चय हुआ कि आज नागरी प्राचरिणी सभा की स्थापना की जाय। मैं मंत्री चुना गया और सभा के साप्ताहिक अधिवेशन होने लगे। उस समय जो लोग उसमें संमिलित हुए उनमें से पंडित रामनारायण मिश्र, ठाकुर शिवकुमार सिंह और मैं अबतक इस सभा के सभासद बने हुए हैं, और लोग धीरे-धीरे अलग हो गये। अतएव उदार जनता ने हमीं लोगों को सभा का संस्थापक तथा जन्मदाता मान लिया है।"
    (मेरी आत्मकहानी लेखक श्यामसुंदर दास प्रकाशक,इंडियन प्रेस,लिमटेड,प्रयाग,प्रथम संस्करण 1941,पेज , 19-20)

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  7. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक कीचर्चा शनिवार(२८-०३-२०२०) को "विश्व रंगमंच दिवस-रंग-मंच है जिन्दगी"( चर्चाअंक -३६५४) पर भी होगी।

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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