भाषा का काव्यात्मक यातना-गृह : स्लावोय ज़िज़ेक (अनुवाद : आदित्य)



















दंगे और हिंसा भाषा के दुरुपयोग की ओर भी इशारा करते हैं और यह कि साहित्य ने अपना काम ठीक से नहीं किया है, वह आवश्यक विवेक और संवेदनशीलता पैदा करने में अक्षम रहा है. कई बार तो उसने अपने लोकप्रिय चलन में इसे प्रश्रय दिया है और उकसाया भी है. आज किसी भी ‘कवि-सम्मेलन/मुशायरे’ में आपको उसका दक्षिणपंथी स्वरूप देखने को मिल जायेगा. बड़ी सहजता से ‘वीर रस’ के कवि उन्माद पैदा कर देते हैं और ‘हास्य रस’ के कवि सहिष्णुता के निर्मित किसी भी प्रतीक पर थूक सकते हैं.

७० वर्षीय दार्शनिक, सांस्कृतिक-आलोचक, सामाजिक विश्लेषक और स्लोवेनिया के ल्युब्याना यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर स्लावोय ज़िज़ेक के  आलेख ‘The Poetic Torture-House of Language' का हिंदी में आदित्य ने अनुवाद किया है.

यह आलेख आज हमारे लिए बहुत ही अर्थगर्भित है. 



स्लावोय ज़िज़ेक
भाषा का काव्यात्मक यातना-गृह                         
कैसे कविता सांस्कृतिक शुद्धतावाद से सम्बंधित है

अनुवाद : आदित्य





प्लेटो की ख्याति उनके इस वक्तव्य से अक्सर प्रभावित होती है- उन्होंने कहा था कि सभी कवियों को उठाकर शहर से बाहर फेंक देना चाहिए- हलांकि यह सुझाव काफी समझदारी भरा सुझाव है, पोस्ट-युगोस्लाव अनुभव के प्रकाश में, जहाँ पर सांस्कृतिक शुद्धतावाद की भूमि कवियों के दिखाए भयानक सपनों से तैयार होती है. यह सच है स्लोबोदन मिलोसेविच ने राष्ट्रवादी जूनून को ‘मैनिपुलेट’ किया– लेकिन ये कवि ही थे जिन्होंने उसे मैनिपुलेशन की सामग्री उपलब्ध कराई. वे– बुद्धिमान कवि, न कि भ्रष्ट राजनीतिज्ञ इन सबके के स्रोत थे– अस्सी और नब्बे के संवेदनशील दशकों में, वे न सिर्फ़ सर्बिया में बल्कि पूर्वी युगोस्लाव गणतंत्रों में भी उग्र राष्ट्रवाद की बीज बोने लगे थे. उत्तर युगोस्लाविया में इंडस्ट्रियल मिलिटरी-काम्प्लेक्स की बजाए पोएटिक मिलिटरी-काम्प्लेक्स था, जिसके सूत्रधार रादोवान कराजिच और रातको मल्दिच युगल थे. कराजिच न सिर्फ एक क्रूर राजनीतिज्ञ था बल्कि एक कवि भी था. उसकी कविता को हम हास्यास्पद कहकर ख़ारिज नहीं कर सकते- बल्कि हमें उसकी कविता को करीब से पढ़ना होगा क्योंकि ये कविताएँ यह समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं कि सांस्कृतिक शुद्धिकरण का काम कैसे होता है.

नैतिक वर्जनाओं का अति-अहंकारी निषेध ‘उत्तर-आधुनिक’ राष्ट्रवाद का विशेष लक्षण है. यहाँ, हमें इस क्लीषे से, जिसके अनुसार जुनूनी सांस्कृतिक पहचान वैश्विक धर्मनिरपेक्ष समाज की भ्रामक असुरक्षाओं के विरूद्ध मूल्यों और आस्थाओं का एक दृढ़ समुच्चय पुनर्स्थापित करता है, से निकलना होगा: बल्कि राष्ट्रवादी "कट्टरवाद" एक ऐसे रहस्य संचालक के रूप में काम करता है, जो हमसे बमुश्किल ही छुपा है. आज के राष्ट्रवाद के इस विकृत छद्म मुक्ति-प्रभाव को पूरी तरह जाने बिना, कि कैसे यह अश्लीलता पूर्ण रियायती अति-अहंकार समाज के प्रतीकात्मक कानून की स्पष्ट बनावट के लिए पूरक की तरह काम करता है, और हम ख़ुद की इसकी वास्तविक गतिशीलता पकड़ पाने में विफल होने के लिए निंदा करते हैं.

फेनोमेनोलोजी ऑफ़ स्पिरिट में हीगल ख़ामोश, गतिशील आत्मा की बनावट के बारे में बात करते हैं: विचारधारात्मक निर्देशांकों में परिवर्तन की भूमिगत प्रक्रिया, अधिकतर लोगों के लिए अदृश्य होती है, जिसका एक दिन अचानक से विस्फोट होता है और सभी लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं. सत्तर और अस्सी के दशक में पूर्वी-युगोस्लाविया में यही हो रहा था, फ़िर अस्सी के दशक के आख़िर में जब विस्फोट हुआ तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी, तब तक पुराना विचारधारात्मक मतैक्य पूरी तरह से सड़ चुका था और भरभरा कर गिर गया. सत्तर और अस्सी के दशक का युगोस्लाविया कार्टून के उस मुहावरी बिल्ली की तरह था, जो गड्ढ़े की कगार पर लगातार चलता रहता है- लेकिन वो तभी गिरता है जब वह नीचे देखता है और इस बात का एहसास करता है कि उसके पैरों के नीचे कोई ठोस ज़मीन नहीं है. मिलोसेविच पहला इंसान था जिसने हमें उस गड्ढ़े में झाँकने के लिए मजबूर किया.

कराजिच और उसके साथियों को बुरे कवियों के रूप में ख़ारिज करना तो बहुत आसान है: दूसरे पूर्वी-युगोस्लाव (ख़ुद सर्बिया में भी) राष्ट्रों में ऐसे कवि भी थे, जिन्हें महान और आथेंटिक लेखक का दर्ज़ा मिला था और वे पूरी तरह से राष्ट्रवादी साहित्य रचने के प्रोज़ेक्ट को समर्पित थे. और ऑस्ट्रियन पीटर हन्द्के के बारे में क्या कहा जाए जो समकालीन यूरोपियन साहित्य के क्लासिक हैं, और जो डंके की चोट पर स्लोबोदन मिलोसेविच के अंतिम संस्कार में शामिल हुए? लगभग एक शताब्दी पूर्व, जर्मनी में नात्सियों के उदय पर, कार्ल क्रॉस ने कहा था कि जर्मनी जो Dichter und Denker (कवि और विचारकों) की ज़मीन थी अब Richter und Henker (न्यायाधीशों और ज़ल्लादों) की ज़मीन बन गयी है- शायद इस तरह के परिवर्तन से हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए. और इस भ्रम से बचने के लिए कि पोएटिक-मिलिटरी कॉम्प्लेक्स बाल्कन राष्ट्रों की विशेषता है, हमें कम से कम हसन नगिज़ी का नाम जरूर लेना चाहिए, जो कि रवांडा का कराजिच था, उसने अपनी पत्रिका कंगूरा में एंटी-तुत्सी वैमनस्य प्रचारित किया और उनके नरसंहार की मांग की.

लेकिन क्या कविता और हिंसा के बीच का यह संबंध आकस्मिक है? भाषा और हिंसा में क्या सम्बन्ध है? अपनी किताब ‘क्रिटीक ऑफ़ वायलेंस’ में वाल्टर बेंजामिन ने यह सवाल उठाया है: “क्या किसी संघर्ष का अहिंसात्मक समाधान सम्भव है?” उन्होंने इस सवाल का उत्तर देते हुए बताया है कि इस तरह का अहिंसात्मक समाधान ‘दो लोगों के निजी संबंधों में’ संभव है, जहाँ शिष्टाचार, सहानुभूति और विश्वास का सम्बन्ध हो: “मनुष्यों में आपसी सहमति का एक ऐसा दायरा भी है जो इस हद तक अहिंसात्मक है जहाँ हिंसा बिल्कुल भी नहीं पहुँच सकती: जो ‘भाषा’ की समझ के यथोचित दायरे” में आता है. यह थीसिस मुख्यधारा की परंपरा से संबंधित है जिसमें भाषा का प्रचलित विचार और प्रतीकात्मक क्रम शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और मध्यस्थता का है, जो तात्कालिक और अपरिपक्व टकराव जैसे हिंसक माध्यम के विपरीत है. भाषा में, एक-दूसरे पर प्रत्यक्ष हिंसा की बजाए, हमें बहस करना होता है, शब्दों का आदान-प्रदान होता है- यह ऐसा विनिमय है, जब यह आक्रामक मुद्रा में होने पर भी दूसरे पक्ष को न्यूनतम स्वीकृति तो देता ही है.

क्या होगा, यदि मनुष्य हिंसा की क्षमता के मामले में पशुओं से भी आगे निकल जाए ठीक इसी वजह से कि उसके पास भाषा हैं? बोर्डीओ से लेकर हाईडगर तक दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों ने भाषा के कई हिंसात्मक पहलुओं का विषयवार चिन्तन किया है. हालाँकि, हाईडगर के साहित्य में भाषा का एक हिंसात्मक पहलू अनुपस्थित है, जिसपर ज़ाक लकां ने अपने प्रतीकात्मक क्रम के सिद्धांत को केन्द्रित किया है. अपने साहित्य में, लकां (Lacan), हाईडगर के भाषा के मोटिफ का जगह-जगह dasein (being/मनुष्य) के घर के रूप में इस्तेमाल करते हैं: भाषा मनुष्य का आविष्कार और यंत्र नहीं है, बल्कि मनुष्य भाषा में "निवास" करता है: "मनोविश्लेषण विषय द्वारा धारण भाषा विज्ञान होना चाहिए." लकां का ‘पैरानोइक’ ट्विस्ट, पेंच का अतिरिक्त फ्रायडियन घुमाव, उनके इस घर के एक यातना-गृह के चरित्र-चित्रण से निकल कर आता है: "फ्रायडियन दृष्टिकोण से भाषा द्वारा अपहृत और प्रताड़ित विषयवस्तु है."

१९७६ से १९८३ तक अर्जेंटीना में सैन्य तानाशाही ने एक विचित्र व्याकरण तैयार किया, सक्रिय क्रियाओं का अक्रिय क्रियाओं के रूप में एक नया उपयोग: जब हजारों की तादाद में वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी गायब हो गए और फिर वे कभी नहीं दिखे, सेना ने उन्हें प्रताड़ित किया और उनकी हत्या की, उनके बारे में कोई भी जानकारी होने से इनकार किया, उन्हें "गुमशुदा" करार दिया गया, यहाँ पर क्रिया का उपयोग उस सरल अर्थ में नहीं किया गया था कि वे गायब हो गए हैं, बल्कि एक सक्रिय सकर्मक अर्थ में: वे "गायब हो गए" (सैन्य गुप्त सेवाओं द्वारा). स्तालिनवादी शासन में, एक ऐसे ही क्रिया का इस्तेमाल किया गया ''पद त्याग'': जब कोई उच्च नोमेनक्लातुरा सदस्य अपने पद को छोड़ने की सार्वजनिक घोषणा करता था, लोग कहते थे उसने पद त्याग कर दिया (स्वास्थ्य कारणों से, एक नियम के रूप में) पद छोड़ दिया, और हर कोई जानता था कि वास्तव में यह हुआ था कि वह नोमनक्लातुरा के भीतर विभिन्न समूहों के आपसी संघर्ष में हार गया, लोगों ने कहा कि उसने "पद त्याग" किया. फिर से वही समस्या, एक घटना जिसकी जिम्मेदारी उससे प्रभावित व्यक्ति पर ही डाल दिया गयी (पद त्याग करना, गुम हो जाना) था, उसे पुनः परिभाषित करते हुए एक गैर-पारदर्शी एजेंट की हरकतों का परिणाम माना गया (गुप्त पुलिस ने उसे गायब कर दिया, नोमनक्लातुरा में बहुमत ने उसे हरा दिया). और क्या हमें लकां की उस थीसिस को वैसे ही नहीं पढ़नी चाहिए जिसमें वे कहते हैं कि इंसान बोलता नहीं है बल्कि उससे बुलवाया जाता है? मुद्दा यह नहीं है कि इसके बारे में "बात हुई," अन्य मनुष्य का भाषा विषय, जबकि यह, जब (ऐसा प्रतीत होता है) कि कोई बोल रहा है, तो यह "बोलना," वैसा ही है जैसे दुर्भाग्यपूर्ण कम्युनिस्ट कार्यवाहक ‘पद त्याग’ करता है. यह होमोलोगी भाषा की स्थिति की ओर इंगित करती है, एक ‘बिग अदर’ की ओर, जो विषय का यातना-गृह है.

हम आमतौर पर एक विषय के भाषा को, उसकी सभी विसंगतियों के साथ, उसकी/उसके भीतर की उथल-पुथल, अस्पष्ट भावनाओं आदि की अभिव्यक्ति के रूप में लेते हैं. यह कला के एक साहित्य कर्म पर भी लागू होता है: मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन का उद्देश्य आंतरिक मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल का खुलासा करना है जो कलाकृति के कोडेड अभिव्यक्तियों में पाए जाते हैं. इस क्लासिक विचार में कुछ तो कमी है : भाषा न केवल दर्दनाक मानसिक जीवन को पंजीकृत या व्यक्त करता है; भाषा में प्रवेश अपने आप में एक दर्दनाक तथ्य है. इसका मतलब यह है कि हमें भाषा के पीड़ादाई प्रभाव को उस सूची में जगह देनी चाहिए जिनसे भाषा खुद लड़ने की कोशिश करता है. मानसिक उथल-पुथल और भाषा में इसकी अभिव्यक्ति के बीच का संबंध इस प्रकार भी होना चाहिए: भाषा केवल मानसिक अशांति को व्यक्त नहीं करता है; एक निश्चित महत्वपूर्ण बिंदु पर, मानसिक अशांति "भाषा के यातना-गृह" में रहने की आघातपूर्ण प्रतिक्रिया है.

ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि सच बोलने के लिए, विषय के सक्रिय हस्तक्षेप को निलंबित करके सिर्फ भाषा में अभिव्यक्त होना पर्याप्त नहीं है- जैसा कि एल्फ्रीड येलीनेक ने इसे असाधारण स्पष्टता के साथ कहा है: "सत्य के लिए भाषा को यातना दी जानी चाहिए." इसे खुद के खिलाफ काम करने के लिए तोड़ना-मरोड़ना, इसका अप्राकृतिकिकरण करना, इसे विस्तारित करना, संघनित करना और काटना-जोड़ना चाहिए. एक ‘बिग अदर’ के रूप में भाषा ज्ञान का एजेंट नहीं है जिसके लय को हम ख़ुद निर्धारित करें, बल्कि क्रूर उदासीनता और मूर्खता की जगह है. किसी भाषा को प्रताड़ित करने का सबसे प्राथमिक स्वरूप कविता है
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मूल रूप से ३ मार्च २०१४ में प्रकाशित.
(अंग्रेजी में पोएट्री फाउंडेशन से आभार सहित)

(The nomenklatura  were a category of people within the Soviet Union and other Eastern Bloc countries who held various key administrative positions in the bureaucracy)

आदित्य
कुछ कविताएँ, कहानियाँ, अनुवाद और गद्य प्रकाशित 
shuklaaditya48@gmail.com

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  1. निश्चय ही, यह एक जरूरी प्रासंगिक आलेख है। आदित्य को बधाई, उन्होंने अनुवाद के लिए एक बेहतर चुनाव किया, और अरुण = समालोचन को भी।

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  2. कहीं जटिल,कहीं सरल लगता यह लेख निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है।
    एकाधिक बार पढ़ने के बाद ही इस लेख पर टिप्पणी करने की स्थिति बनेगी।
    अरुणदेव जी और आदित्य को दिली शुक्रिया।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27.02.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3624 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।

    धन्यवाद

    दिलबागसिंह विर्क

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  4. बढ़िया अनुवाद है आदित्य को बहुत-बहुत बधाई बहुत ही जटिल और संश्लिष्ट विचारों को उन्होंने बहुत ही सरल और प्रांजल भाषा में प्रस्तुत किया है उन्हें बहुत-बहुत बधाई हिंदी को अपने आत्म मोह की कारा से निकालने का अनुवाद ही रास्ता है।

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  5. रुस्तम सिंह27 फ़र॰ 2020, 12:52:00 pm

    इस लेख का मूल तर्क ही ग़लत है। (ज़िज़ेक के बहुत से तर्क अक्सर ग़लत होते हैं।) हिंसा भाषा में नहीं होती, न ही वह किसी भी तरह उसमें अंतर्निहित होती है। हिंसा मनुष्य के मानस में होती है और वहीं से आकर वह भाषा में रूप या आकार लेती है। और मनुष्य का मानस मात्र भाषा से या भाषा में ही नहीं बना होता, जैसाकि प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक बहुत से दार्शनिक मानते आये हैं। आधुनिक काल में हाईडेगर के अलावा कई अन्य दार्शनिक भी यह मानते रहे हैं, जिनमें लेविनास और आगम्बेन इत्यादि के नाम प्रमुख तौर पर लिए जा सकते हैं। असली बात यह है कि मनुष्य के मानस की हिंसा भाषा में सिर्फ़ व्यक्त होती है। जिस मानस विशेष में वह हिंसा नहीं होती, जो मानस अपने-आप को उस हिंसा से रहित कर लेता है, उसकी भाषा अहिंसात्मक हो जाती है, होती है। इसलिए कविता में या वृहत्तर साहित्य में प्रकट हिंसा की बात करते हुए फोकस भाषा पर नहीं, वह फोकस कवि या साहित्यकार के, या यूँ कहें कि मनुष्य, के मानस पर होना चाहिए।

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  6. अच्छा प्रयास है, ज़िज़ेक का अनुवाद कर पाना बहुत कठिन है खासकर उनके लेकेनियन होने की वजह से, यहाँ भी लकां से संदर्भित अनुवाद स्पष्ट नहीं है, लकां का भाषा-विमर्श बहुत ही जटिल और गूढ़ है खासकर अचेतन के संबंध में. उनके यहाँ बहुत से टर्म हैं जिनका हिंदी अनुवाद लगभग असम्भाव्य हैं. अनुवाद में एक बड़ी मिस्टेक subject के अनुवाद की है,इसका अनुवाद 'विषय' न होकर 'विषयी'(व्यक्ति(agent-कर्ता) होगा

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