कुमार अम्बुज की कविताएँ



हिंदी के महत्वपूर्ण कवि कुमार अम्बुज की कुछ नयी कविताएँ प्रस्तुत हैं. ये कविताएँ हमारे समय को संबोधित हैं, ये हर उस काल से आँखें मिलाती हैं जब कवियों से कहा जाता है कि कुछ तो है तुम्हारे साथ गड़बड़, तुम सत्ता और व्यवस्था के लिए संदिग्ध हो, जब ठंडी मौतें बहुमत के सुनसान में घटित होने लगती हैं. निराशा इतनी ज्यादा है कि अब उसी से कुछ उम्मीद है.

कुमार अम्बुज कथ्य को उसकी संभव उचाई तक ले जाते हैं और वह अपने शिल्प से कहीं गिरता नहीं है, एक विस्फोट की तरह खुलता है और वहाँ ले जाता है जहाँ हम जाने से बचते हैं.यह कवि का प्रतिपक्ष है जो हमेशा इसी तरह जलता है, हर अँधेरे में कभी मशाल की तरह कभी आँखों की तरह.  
  


कुमार अम्बुज की कविताएँ                        




दैत्याकार संख्‍याएँ

बार-बार पूछा जाता है तुम कुल कितने हो
कितने भाई-बहन, कितने बाल-बच्‍चे, कितने संगी-साथी
कितने हैं तुम्हारे माँ-बाप, और तुम कुल जमा हो कितने
अंदर  हो कितने और बाहर कितने?

मैं थोड़ा सोच में पड़ जाता हूँ और अपने साथ
कुछ पेड़ों को जोड़कर बताता हूँ, कुछ इतिहासकारों,
वैज्ञानिकों, कुछ प्राचीन मूर्तियों को करता हूँ शामिल
कवियों, विचारकों, कहानियों के पात्रों, पूर्वजों को,
कुछ किताबों और आसपास के जिंदा लोगों को गिनता हूँ

वे हँसकर बताते हैं कि हम रोज काट रहे हैं हजारों वृक्ष
बुद्धिजीवियों को डाल दिया है स्टोन-क्रॅशर में
तोड़ी जा चुकी हैं तमाम मूर्तियाँ
तुम्‍हारी कथाओं के पात्रों को दिखा दिया है बाहर का रास्‍ता
दुरुस्‍त हो चुके हैं सारे पाठ्यक्रम, बंद कर दी हैं लायब्रेरियाँ 
उधर  जिंदा ही जलाये जा रहे हैं तुम्हारे जिंदा लोग
इन्‍हें घटाओ और अब बताओ,
       इन सबके बिना तुम कितने हो?

और सोचो, तुम इतने कम क्यों हो
इतने ज्यादा कम हो कि संदिग्ध हो
कुछ तो है तुम्हारे ही साथ गड़बड़
जो तुम हर जगह, हर युग में अकेले पड़ जाते हो
अपनी जाति, अपने धर्म, अपने ही देश में कम पड़ जाते हो
इतने कम होना ठीक नहीं
इतने कम होना राजनीति में मरणासन्न होना है
जीवन में इतने कम होना जीवन पर संकट है
इतने कम होने का मतलब तो नहीं होना है
इतने कम होना दृश्‍य में अदृश्‍य हो जाना है

आखिर कहता हूँ, हाँ भाई,
मैं इतना ही कम हूँ और अकेला हूँ
वे कई लोग हैं, हथियारबंद हैं,
हर तरह से ताकतवर हैं लेकिन आश्वस्त नहीं हैं,
उन्‍हें लगता है कुछ छिपा रहा हूँ
वे जारी रखते हैं अपनी तीसरे दर्जे की पूछताछ :
    इतने बहुमत के बीच तुम कैसे रह सकते हो अकेले
    तुम एक राष्ट्र में निवास करते हो किसी गुफा में नहीं
    इस तरह यदि कई लोग अकेले रहने लग जाएँ
    तो फिर हमारे बहुत ज्‍यादा होने का क्या मतलब है
    यह अकेले होना षडयंत्र है
    जब तक तुम इस तरह अकेले हो एक खतरा हो
    बताओ, तुम कुल कितने जन अकेले हो

जरूरी है गिनती
पता तो चले कि तुम ऐसे कैसे अकेले हो
जो अपने साथ जंगलों को, कीट-पतंगों, दार्शनिकों,
उपन्यासों, मिथकों, पुरखों और पहाड़ों को जोड़ लेते हो
भरमाते हो सबको, हमेशा ही सरकार को गलत बताते हो
कहते हो कि अकेले हो लेकिन सड़कों पर तो तुम
ज्यादा दिखते हो, मारने पर भी पूरे नहीं मरते हो
हम सबके लिए मुसीबत हो, हम जो इतने ज्यादा हैं
जिन्‍हें तुम कुछ नहीं समझते, कुछ भी नहीं समझते,
मगर भूल जाते हो तुम बार-बार कि हम बहुमत हैं,
तुम भूल जाते हो  कि हम  हैं:  दैत्याकार संख्याएँ.






सरकारी मौत अंधविश्‍वास है

कहते हैं उसे आज तक किसी ने ठीक से देखा नहीं
लेकिन वायरस की तरह वह हर जगह हो सकती है

धूल में, हवा, पानी, आकाश में,
सड़कों पर, घरों में, दफ्तरों, मैदानों, विद्यालयों में,
ज्योंही प्रतिरोधक-क्षमता कम होती है वह दबोच लेती है
कोई भागता है तो पीछे से गोली लग जाती है
खड़ा रहता है तो सामने माथे पर हो जाता है सूराख

तब आता है सरकारी बयान
कोई मरा नहीं है सिर्फ कुछ लोग लापता हैं
फिर इन लापताओं की खोज में मरने लगते हैं तमाम लोग
कचहरी में, सचिवालय, थाने और अस्‍पताल के बरामदों में
खेत-खलिहानों, चौपालों, क़ैदखानों में, कतारों में, भीड़ में,
शेष सारे बहुमत की ख़ुशियों के वसंत में
झरते हुए पत्तों के साथ झरते हैं
हवाएँ उन्हें अंतरिक्ष में उड़ा ले जाती हैं

आरटीआई से भी किसी मौत का पता नहीं चलता
न्‍यायिक जाँच में भी समिति को कुछ पता नहीं चलता
लोग इस तरह मरने लगते हैं कि उन्हें खुद पता नहीं चलता
एक दिन लोगों को अपने लोग पहचानने से इनकार कर देते हैं
जैसे लावारिस लाशों को पहचानने से इनकार करते हैं
मरे हुए आदमियों का कोई घर नहीं होता
उन्‍हें खदेड़ दिया जाता है फुटपाथों से भी
उनसे हर कोई हर जगह सिर्फ़ कागज़ माँगता है
पत्नी, बच्चे, पड़ोसी सब कहते हैं कागज़ लाओ, कागज़ लाओ
सरकार भी दिलासा देती है तुम जिंदा हो, बस, कागज़ लाओ
काम-धाम, खाना-पीना, हँसना-बोलना छोड़कर वे खोजते हैं कागज़

लेकिन उनकी दुनिया में वह कागज़ कहीं नहीं मिलता
थक-हारकर उन्‍हें यकीन हो जाता है वे सपरिवार मर चुके हैं
फिर वे खुद कहने लगते हैं हम तो सदियों से मरे हुए हैं,
हम गर्भ में ही मर गए थे, हमारे पास कोई कागज़ नहीं था
हम नै‍सर्गिक मृतक हैं, हमारे पास कोई कागज़ नहीं है
हमारे पितामह धरती पर कागज़ आने के पहले से रहने आ गए थे
और वे तो कब के दिवंगत हुए कोई कागज़ छोड़कर नहीं गए
सरकार कहती है हम कभी किसी को नहीं मारते

भला हम क्‍यों मारेंगे लेकिन लोगों को
लोगों के द्वारा लोगों के लिए बनाए गए
कानून का पालन करना चाहिए, हम केवल पालनहारे हैं

खुद सरकार ने कहा है सरकार कभी किसी को नहीं मारती
सरकारी मौत एक अंधविश्‍वास है, सब अपनी ही मौत मरते हैं
अखबार और टीवी चैनल दिन-रात इसीकी याद दिलाते हैं.


कुशलता की हद

यायावरी और आजीविका के रास्तों से गुजरना ही होता है
और जैसा कि कहा गया है इसमें कोई सावधानी काम नहीं आती
बल्कि अकुशलता ही देती है कुछ दूर तक साथ

जो कहते हैं: हमने यह रास्ता कौशल से चुना
वे याद कर सकते हैं: उन्हें इस राह पर धकेला गया था

जीवन रीतता चला जाता है और भरी बोतल का
ढक्कन ठीक से खोलना किसी को नहीं आता
अकसर द्रव छलक जाता है कमीज और पैंट की संधि पर
छोटी सी बात है लेकिन गिलास से पानी पिये लंबा वक्त गुजर जाता है
हर जगह बोतल मिलती है जिससे पानी पीना भी एक कुशलता

जो निपुण हैं अनेक क्रियाओं में वे जानते ही हैं
कि विशेषज्ञ होना नये सिरे से नौसिखिया होना है
कुशलता की हद है कि एक दिन एक फूल को
क्रेन से उठाया जाता है.



यह भी एक आशा

सबसे ज्यादा ताकतवर होती है निराशा
सबसे अधिक दुस्साहस कर सकती है नाउम्मीदी

यह भी एक आशा है
कि चारों तरफ बढ़ती जा रही है निराशा.

_________________

कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)

कविता-संग्रह—‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’ और कहानी-संग्रह—‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ—‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.
कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.
kumarambujbpl@gmail.com

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  1. मुनहसिर मरने पे हो जिसकी उम्मीद
    नाउम्मीदी उसकी देखा चाहिये !
    अन्तिम कविता का जवाब नहीं !

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  2. मेरा प्यारा दोस्त अम्बुज जब से कविताएँ लिखता रहा है तब से उसे पढ़ता रहा हूँ। करीब 35 साल हो गए उसे पढ़ते हुए।वो इतना अच्छा लिखता है कि उसकी डांट का भी बुरा नही मानता। पिछले दिनों उसने भोपाल में मेरी जमकर फटकार भी लगाई लेकिन उसकी कहानी बारिश इतनी सुंदर है कि उसके सात खून माफ कर दूँ। यार तू अपनी बारिश मुझे दे दे मैं तुमको अपना आसमान दे दूंगा

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  3. अखिरी कविता मुझे हौसला दे गई। शुक्रिया समालोचन , शुक्रिया कुमार अंबुज

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  4. कुमार अंबुज कविता की पाठशाला हैं। कविता में कथ्य किस तरह होना चाहिए , कविता के सामाजिक सरोकार कैसे होने चाहिए , कठिन समय मे कैसी कविता लिखी जानी चाहिए यह युवा कवियों को उनसे सीखना चाहिये।

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  5. शिवानंद उपाध्याय22 जन॰ 2020, 10:58:00 am

    बेहतरीन कविताएं । नीलोत्पल की युद्ध और शांति के बाद कुमार अम्बुज की विचार और सरोकार से युक्त कविताओं से गुजरना अच्छा लगा। कविता में लय की अनिवार्यता को स्थापित करती कविताये। बहुत बहुत धन्यवाद सर ।

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  6. शिरीष मौर्य22 जन॰ 2020, 12:25:00 pm

    आख़िरी कविता तो एक ज़माने तक याद की जाएगी।

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  7. बहुत दिनों के बाद अम्बुज जी की कविताएँ पढ़ा। सिद्ध हाथ और कविता में अनुगूँजित होता आज का वर्तमान यथार्थ, जो उनकी विशेषता है,का दर्शन कर के बेहद फ़ख़्र महसूस हुआ।

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  8. Achchhee kavitayen, Kumar Ambuj ko bahut badhai

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  9. यहाँ हमसफर साथियों ने जो शब्द दर्ज किए हैं, वे ऊर्जस्वित करनेवाले हैं। हालाँकि इसमें उनकी काव्याभिरुचि को ही अधिक श्रेय है। सभी का आभार।
    अरुण जी को भी धन्यवाद।

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  10. कुमार अम्बुज की कविताओं से मेरा परिचय उनके 'किवाड़' संग्रह से हुआ था। तबसे वे मेरे प्रिय कवियों में से हैं।आज काफी समय बाद उनकी कवितायेँ पढ़ीं। अच्छा लगा। धन्यवाद समालोचन और धन्यवाद अरुण देव जी।

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  11. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23.01.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3589 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी ।

    धन्यवाद

    दिलबागसिंह विर्क

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  12. बहुत बेचैन कर देने वाली कविताएं!
    कुमार अंबुज की कविताओं में आज का समय बेहद आकुलता और बारीकी से आंका गया हैl

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  13. मुझे तो लगता है कि अब ' दैत्याकार संख्याएँ' और 'सरकारी मौत अंधविश्वास है' के बग़ैर बहुसंख्यकवाद की कोई परिभाषा पूरी नहीं हो सकती!
    सिद्धांत-निरुपण से कभी पता नहीं चलता कि बहुसंख्यकवाद साधारण आदमी के जीवन को कितना दयनीय बना सकता है। अम्बुज की उपरोक्त दोनों कविताएँ इस विषय पर लिखे गए सौ लेखों और हज़ार किताबों से भारी है।
    इन कविताओं को फिर-फिर पढ़ा और शेयर किया जाना चाहिए।

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  14. "जरूरी है गिनती
    पता तो चले कि तुम ऐसे कैसे अकेले हो
    जो अपने साथ जंगलों को, कीट-पतंगों, दार्शनिकों,
    उपन्यासों, मिथकों, पुरखों और पहाड़ों को जोड़ लेते हो"
    बहुत महत्वपूर्ण और प्यारी कवितायें.

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  15. मुझे भी इनकी कविताएँ अतिप्रिय है
    जय प्रकाश चौकसे जी इनका जिक्र तकरीबन हर रोज कर लिया करते है

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  16. समय को संबोधित करती बहुत अच्छी कविताएँ
    तुम कुल कितने हो व्यवस्था का रेखाचित्र खींचती हुई प्रश्नावली।

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  17. अंतिम दोनों कविताएं जीवन के बल को ज्यादा संबल देती कविताएं हैं। बहुत दिनों बाद अंबुज जी की कविताएं पढ़ने को मिलीं। बधाई।।

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  18. Read him for the first time. He is a voice of present generation. When in post truth era, everything on this Earth has an intrigue motif, his poems morph old images to slit open truth dwelt by larvae of time and rickety political set up. Loved the poems.

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  19. सभी का धन्यवाद कि उनकी टीप में भी कवियोचित व्यग्रता विन्यस्त है। 🌹

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  20. घुटन और बेचैनी भरे समय में थोड़ी जगह निकल आई इन कविताओं से कि सांस तो ले लें।

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  21. भीतर तक गूंज पैदा करती हुई हर पंक्ति । ओह

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