विजयदेव नारायण साही का कवि : गोपेश्वर सिंह


























तीसरे सप्तक और ‘मछलीघर’, ‘साखी’, ‘संवाद तुमसे’, ‘आवाज़ हमारी जाएगी’ कविता संग्रहों के कवि विजयदेव नारायण साही हिंदी के बड़े आलोचक के रूप में समादृत हैं. उनके कवि की उपस्थिति को अज्ञेय समझते थे पर बाद की हिंदी आलोचना ने उनकी कविताओं को कभी कभार याद तो जरुर किया, कवि नहीं समझा. जायसी को साही ‘कुजात सूफी’ कहते थे. क्या वे खुद हिंदी में कुजात कवि नहीं बना दिए गए.

आलोचक गोपेश्वर सिंह ने विजयदेव नारायण साही के कवि-कर्म की विशिष्टताओं और महत्व को रेखांकित करते हुये यह आलेख लिखा है. 




विजयदेव नारायण साही का कवि                   
गोपेश्वर सिंह 




विजयदेव नारायण साही (7 अक्टूबर 1924 - 5 नवंबर 1982) ने अपने समकालीनों की तुलना में कम कविताएँ लिखीं, लेकिन अपनी गुणवत्ता में वे इतनी अलग और मौलिक हैं कि उनके बिना उस दौर के काव्य-परिदृश्य को समझा नहीं जा सकता. वे कविताएँ बहुत पहले से लिख रहे थे. पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ छपकर पाठकों-आलोचकों का ध्यान आकृष्ट करती थीं. लेकिन उनके पुस्तकाकार प्रकाशन के प्रति वे उदासीन रहे. पहली बार ‘तीसरा सप्तक’ (सं. अज्ञेय- 1959) में उनकी कुछ कविताएँ हिंदी समाज के सामने आयीं, जिन्हें लोगों ने खूब पसंद किया. उनके जीवनकाल में उनका एक ही काव्य संकलन ‘मछलीघर’ (1966) प्रकाशित हुआ. मरणोपरांत ‘साखी’ (1982) नामक संग्रह प्रकाशित हुआ. कवि रूप में साही की कृति का मूल आधार ये दोनों काव्य संग्रह हैं. हालांकि उनके निधन के बाद ‘तीसरा सप्तक’ और ‘साखी’ में न आ पायीं कुछ कविताओं को शामिल कर ‘संवाद तुमसे’ का प्रकाशन हुआ. उनके प्रारंभिक गीतों और गजलों का एक संकलन ‘आवाज हमारी जाएगी’ शीर्षक से प्रकाशित है.

‘आस्था’ को अपनी कविता का आधार माननेवाले साही ‘नयी कविता’ को नया अर्थ-विस्तार देनेवाले कवि हैं. बौद्धिक-उड़ान एवं कबीरी अंदाज के कारण अलग से पहचान लिए जाने वाले कवि के रूप में वे दिखाई पड़ते हैं. ‘मछलीघर’ पर विचार करते हुए कुंवर नारायण को मिल्टन के ग्रेंडस्टाइल की याद आती है और वे मानते हैं कि अंग्रेजी और उर्दू की क्लासिक परंपरा साही के सामने है. कुंवर जी ने लिखा है:

“उनकी कविताओं में कहीं भी गुस्से का छिछला प्रदर्शन नहीं है: ताकत- लगभग हिरोइक आयामों वाली ताकत की भव्यता है- ‘एक चढ़ी हुई प्रत्यंचा की तरह.’ उनमें वह दृढ़ता और संयम है, जिनसे महाकाव्य बनते हैं, तुरत खुश या नाखुश करने वाली कविताओं की चंचलता नहीं. साही की यह मुद्रा इधर लिखी गई उन तमाम कविताओं से बिलकुल अलग है जिनमें हम नाराजगी और उत्तेजना को लगभग एक रूढ़ि बन जाते देखते हैं. इस सन्दर्भ में मैं समझता हूँ साही लगभग क्लासिक अनुशासन में लिखी गई कविताओं के एकमात्र ऐसे उदहारण हैं जिसने एक ओर अंग्रेजी साहित्य के क्लासिक अनुशासन की मर्यादा स्वीकार किया तो दूसरी ओर उर्दू-फारसी के श्रेष्ठतम आदर्शों को नजर के सामने रखा.

हिंदी कविता पर उर्दू साहित्य का असर कोई नई बात नहीं है. तमाम उर्दू शब्द, उसकी साहित्यिक परंपरा, अमीर खुसरो से लेकर अब तक हिंदी में घुली-मिली रही. नज़ीर अकबराबादी, मीर, ग़ालिब, इक़बाल आदि की  देन ने सिर्फ उर्दू ही नहीं हिंदी को भी जो कुछ दिया, आज की हिंदी कविता में उसके श्रेष्ठ उदाहरणों में साही का नाम विशेष रूप से लिया जाना चाहिए...... उर्दू शैली साही की भाषा में व्याप्त थी. वह उनकी कविताओं के रचाव का एक ख़ास अंग है- ऊपर से चढ़ाया हुआ रंग नहीं, कविताओं के अन्दर से खिलता हुआ रंग है- इतना अलग कि उनकी कविता की एक भी पंखुरी से पहचाना जा सकता है.”

इस सन्दर्भ में ‘इस नगरी में रात हुई’ शीर्षक चतुष्पदी को याद किया जा सकता है-

मन में पैठा चोर अँधेरा तारों की बारात हुई
बिना घुटन के बोल न निकले यह भी कोई बात हुई
धीरे-धीरे तल्ख़ अँधेरा फ़ैल गया, खामोशी है
आओ खुसरो लौट चलें घर, इस नगरी में रात हुई

यह अपने समय के यथार्थ को चित्रित करने का साही का अपना अंदाज है जो उर्दू परंपरा की याद समेटे हुए हैं. ‘विजयदेव नारायण साही’ नामक विनिबंध में इस चतुष्पदी पर टिप्पणी करते हुए लिखा गया है:

“अमीर खुसरो की तर्ज पर मात्र चार पंक्तियों में कविता समय से नाउम्मीदी का जो चित्र प्रस्तुत करती है, वह चतुष्पदी में नए ढंग का प्रयोग है जिसे बाद की नई पीढ़ी के कई कवियों ने अपनाया है. इस कविता में मुक्तिबोध की तरह साही अपने समय में पसरे अँधेरे और उससे उपजी अदृश्य खामोशी, हताशा, निराशा और घुटन को महसूस करते हैं.”

मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ के साथ नामवर सिंह साही की ‘अलविदा’ कविता को याद करते हैं. हालांकि सन्दर्भ यहाँ ‘नाटकीय एकालाप’ का है. फैंटेसी के सहारे प्रभावशाली पृष्ठभूमि तैयार की गई है. ‘अँधेरे में’ और ‘अलविदा’ कविता में जो ‘नाटकीयता का रहस्य’ है, उसकी चर्चा करते हुए वे कहते हैं:

“अलविदा में बुनी हुई काव्यानुभूति की तीव्रता इस बात में है कि यहाँ निर्णय लेने से ठीक पहले की मनःस्थिति के अनुभूतिगत चाँप को शब्दों में पूरी कलात्मकता के साथ रख दिया गया है. कविता की नैतिक शक्ति इस बात में है कि निर्णय के विषय में कोई अनिश्यात्मकता नहीं है. ‘नैतिक विजन’ की यह परिपक्वता ही ‘अलविदा’ को श्रेष्ठ कविताओं में स्थान दिलाने के लिए पर्याप्त है.”

साही की कविता में नाटकीय तत्त्व और भाषाई अलंकरण की उपस्थिति अलग से पाठक का ध्यान खींचती है. यह खूबी उन्हें अपनी पीढ़ी के अन्य कवियों से अलग करती है. उनकी इस विशेषता पर टिप्पणी करते हुए कुंवर नारायण ने लिखा है:

“जिस तरह साही अपनी कविताओं में नाटकीय तत्त्वों और भाषाई अलंकरण को एक बहुत ही परिष्कृत रचनात्मकता का हिस्सा बनाते हैं वह हर एक के वश की बात नहीं है. नाटकीय तत्त्वों और शब्दालंकारों के उपादानात्मक प्रयोग में अगर जरा भी असावधानी हो तो वह कविता के नाजुक तंतुओं को बिलकुल सुन्न कर दे सकता है. साही की कविताओं में नाटकीयता और भाषाई अलंकरण की किलाबंदी नहीं है, कविताओं के पीछे उनकी हल्की छाप या अक्श का लहराता आभास भर रहता है जिसके ऊपर कविता लिखी हुई जान पड़ती है- जिसके नीचे दबी हुई नहीं- न जिसके बगल में ही लिखी हुई. साही की कविताओं में जो एक ख़ास तरह की दृढ़ता है उसका गारा भर क्लासिकल रहता है. लेकिन स्थापत्य साही का बिलकुल अपना और अपने समय की या जीवन की प्रमुख समस्याओं से रगड़ खाता हुआ.”

‘मछलीघर’ की भूमिका में साही ने अपनी कविताओं को ‘आतंरिक एकालाप’ कहा है. इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि साही की कविता में समाज निरपेक्ष होने का किसी तरह का प्रयत्न है. दरअसल साही की प्रगतिशीलता अलग तरह की है. वे कम्युनिस्ट प्रगतिशीलता के कायल नहीं हैं. उनकी प्रगतिशीलता भारतीयता के निषेध से नहीं बल्कि उसके सकारात्मक दाय से बनती है. कुंवर नारायण के शब्दों में:

“साही का समाजवाद ठीक उन्हीं अर्थों में उदारवादी था जिन अर्थों में उनकी भारतीयता रुढ़िवादी नहीं थी. साही की प्रगतिशीलता भारतीय जीवन-पद्धति का निषेध नहीं है, नए और जरुरी को निष्पक्षता से जाँच कर स्वीकार या अस्वीकार करने की सतर्कता है.”

इसलिए उनका यह आतंरिक एकालाप सामाजिक जीवन की विसंगतियों से पैदा हुई हलचल है. इस अर्थ में साही सहज ही मुक्तिबोध से तुलनीय हैं जिनके यहाँ ‘अन्तः करण’ की बात हिंदी कविता में सबसे अधिक है. मुक्तिबोध का ‘अन्तः करण’ और साही का ‘आतंरिक एकालाप’ क्या एक ही नहीं है?

‘साखी’ की कविताएँ अपने अलग अंदाज के कारण हिंदी कविता की एक विशिष्ट उपलब्धि-सी लगती हैं. यहाँ ‘आतंरिक एकालाप’ सामाजिक स्थितिओं से टकराकर एक नया रूप ग्रहण करता है. ‘साखी’ की कविताओं को अशोक वाजपेयी ने ‘ईमान की साखी’ कहा है. ऐसी ‘साखी’ जो अधिक भरोसे की है. इन कविताओं में नैतिकता और ईमानदारी की ऐसी आभा है जो अन्यत्र शायद ही हो! यहाँ एकालाप तो है लेकिन संवादधर्मी है. ‘साखी’ की कविताओं में जो संवादधर्मिता है वह साही की अपनी विशेषता है. कबीर की कविता, समाज को संबोधित करने का उनका तरीका, लौकिक से लेकर अलौकिक तक की उनकी चिंता आदि को जैसे साही ने ‘साखी’ में उपलब्ध किया है वैसी उपलब्धि उनके सिवा दूसरे के हिस्से शायद ही दर्ज हो! कबीर आधुनिक होकर साही के रूप में मानों हमें संबोधित कर रहे हों! ‘प्रार्थना: गुरु कबीरदास के लिए’ बहु चर्चित-बहु उद्धृत कविता है जो साही की पहचान बन गई है. लेकिन इस संग्रह की बहुतेरी कविताएँ ऐसी है जो कबीरी अंदाज में आधुनिक जमीन पर खड़ी है. ‘पराजय के बाद’ कविता को इस संदर्भ में देखना चाहिए-

योद्धाओं की विशाल सेना
जब पराजित होकर लौटी
तो आपस में एक दूसरे को
लूटती हुई लौटी.

कोई पश्चिम के रेगिस्तान में गया
कोई उत्तर की पहाड़ियों में
कोई पूरब के जंगलों में
कोई दक्खिन के पठारों में.

पराजित सेनाओं का यह लौटना आधुनिक मानव की नकली जीत का ऐसा उदहारण है जिसमें हम हार कर भी जीत के भ्रम में हैं और अपनी अगली पीढ़ी को नकली जीत का प्रतीक सौंप रहे हैं. कविता का अंत होता है-

इसी बीच आसेतु पृथ्वी पर
बर्बरों का राज्य हो गया
और वे अपने-अपने एकांत में
जीत और गद्दारी के
पुराण रचते रहे.

सुनो भाई साधो
सब जग अंधा हो गया है 
मैं किसको समझाऊं

‘साधो’ को संबोधित कविताएँ हों या अन्य कविताएँ सब जगह ‘मछलीघर’ का ‘आतंरिक एकालाप’ अधिक सफाई से संवादधर्मी हो गया है. अशोक वाजपेयी इसे ‘कबीर की उक्ति भंगिमाओं का पुनराविष्कार’ कहते हैं तो ठीक ही कहते हैं. कबीर को अपने समय में साधने का यह सबसे कलात्मक और बेलौस अंदाज है जो सिर्फ साही के पास है.

कवि कबीर की कविता के प्रति आलोचक साही बहुत साकारात्मक नहीं थे. उन्हें जायसी पसंद थे. लेकिन साही ने बुनकरों की लड़ाई लड़ी. घूम-घूमकर उनका संगठन बनाया. उनके बीच रहे. बुनकरों के संघर्ष में आकंठ धंसे हुए जुलाहा कबीर उनके भीतर उतरते रहे. इसलिए हमें ‘साखी’ में ‘कबीर की उक्ति भंगिमाओं का जो हम पुनराविष्कार’ दिखाई देता है, वह अकारण नहीं है. ‘अस्पताल में’ शीर्षक कविता में अस्पताल के वातावरण का चित्रण है. बीमार, डॉक्टर, दवा आदि की चर्चा है. अलग-अलग बीमारियाँ हैं और सभी मरीजों की अलग-अलग समस्याएँ हैं. कविता का अंत होता है-

साधो भाई
इस अस्पताल में
सब सो रहे हैं
सहज समाधि की तरह
सब करह रहे हैं
अनाहत नाद की तरह.

‘साखी’ संग्रह की कविताएँ अशोक वाजपेयी के शब्दों में:

“...ऐसे आदमी को केंद्र में प्रतिष्ठित करती हैं जिसका खुला-सजग व्यक्तित्व है, जो अपने निर्णय में अकेला भले हो पर अपने समुदाय की नियति और इतिहास से आबद्ध है और जो बहस करने को हरदम तैयार है. व्यक्ति की गरिमा और सामाजिकता में कोई द्वैत नहीं है. अपने समय के प्रश्नों और चिंताओं पर कविता के बाहर नहीं, कविता के अन्दर बहस कर साही ने कविता को चिंतन और विचार की भी एक प्रमाणिक विधा के रूप में जैसे पुनर्जीवित किया है. आज के संवाद-विमुख परिवेश में यह प्रयत्न, उसकी एकांत साहसिकता और संकल्प-शक्ति एक नया और अद्वितीय विकल्प प्रस्तुत करते हैं.”

साही के यहाँ इतिहासबोध बहुत ही गहरा है. उनकी कविताओं में इतिहास की स्मृतियाँ बार-बार देखी जाती है. उन स्मृतियों को रेखांकित करते हुए साही वर्तमान के सामने खड़ा कर देते हैं. वे इतिहास के सहारे समकालीन राजनीति और जीवन के यथार्थ से साक्षात्कार करते हैं. उनके लिए इतिहास सिर्फ सांस्कृतिक अर्थ नहीं रखता, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक अर्थ भी देता है. ‘साखी’ में उनकी एक कविता है- ‘सत की परीक्षा’, जिसमें हमारे सांकृतिक इतिहास की अनुगूँज है. वाल्मीकि रामायण में उल्लेख है कि लंका विजय के बाद राम ने सीता की पवित्रता के सत्यापन के लिए अग्नि-परीक्षा ली थी. अग्नि-परीक्षा में खरी उतरने पर ही उन्होंने सीता को स्वीकार किया था. तब से स्त्री की अग्नि-परीक्षा होती रही है और आज भी हो रही है. हमारे समय की एक विवाहित स्त्री जिसके चरित्र पर लांछन है, अग्नि-परीक्षा के लिए लोगों के बीच बैठी है. रामायण कालीन सांस्कृतिक सन्दर्भ के साथ साही आज की स्त्री की अग्नि-परीक्षा को उठाते हैं और ऐसा नायाब अर्थ देते हैं जिसे सिर्फ कबीरी अर्थ कहा जा सकता है. ‘सत की परीक्षा’ की स्त्री कहती है-

साधो आज मेरे सत की परीक्षा है
आज मेरे सत की परीक्षा है.

बीच में आग जल रही है
उस पर बहुत बड़ा कड़ाह रखा है
कड़ाह में तेल उबल रहा है
उस तेल में मुझे सब के सामने
हाथ डालना है
साधो आज मेरे सत की परीक्षा है.

एक ओर मेरे ससुराल के लोग हैं.
बड़ी बड़ी पाग बाँधे
ऊँचे चबूतरे पर बैठे हैं
मूँछे तरेरे हुए
भँवे ताने हुए हैं
नाक ऊँची किए हुए हैं.

आगे वर्णन है, अग्नि के समक्ष बैठा हुआ ससुराल का ब्राह्मण आरोप लगा रहा है कि उसकी छाती पर जो जड़ाऊ हार है, वह उसके कलंकित चरित्र का प्रमाण है. दूसरी ओर बैठे स्त्री के मायके वालों ने कहा कि वह हार एवं उसकी ‘लहर लेती चमक’ उनके पुरखों की थाती है. लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई. दस-पाँच गाँव के लोग भी इकट्ठे थे, लेकिन सब चुप थे. ऐसे में स्त्री क्या करे! ससुराल वालों के रवैये को, उनके अधिकार को, परीक्षा के इस ढंग को चुनौती दी जा सकती है. लेकिन वह स्त्री चुनौती नहीं देती. उसे लगता है कि यह मायका, ससुराल और सारी विरादरी के पुरखों की लहर लेती रौशनी के सत की परीक्षा है. वह अपना जो निर्णय सुनाती है वह हिंदी कविता का साहीपन है-

सुनो भाई साधो सुनो
और कोई रास्ता नहीं है
मुझे अपने दोनों हाथ
इस खौलते कड़ाह में डालने ही हैं
यदि मेरी छाती पर जड़ाऊ हार की तरह चमकता
आंदोलित प्रकाश
सचमुच मेरे ह्रदय का वासी हो
तो यह खौलता हुआ कड़ाह
हाथ डालने पर
गंगा जल की तरह ठंडा हो जाय.

ऐसे ही, साधो, ऐसे ही.

नई कविता के संदर्भ में प्रश्नाकुलता की बड़ी चर्चा होती है. प्रश्नाकुलता को आधुनिकता का आधार माना जाता है. साही के यहाँ अपने समकालीनों की तुलना में प्रश्नों की संख्या अधिक है. वे प्रश्नों पर भी प्रश्न उठाने वाले कवि के रूप में सामने आते हैं. उनका यह कवि रूप सबसे अलग है. ‘बहस के बाद’ उनकी एक दिलचस्प कविता है-

असली सवाल है कि मुख्यमंत्री कौन होगा?
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि ठाकुरों को इस बार कितने टिकट मिले?
नहीं नहीं, असली सवाल है
कि जिले से इस बार कितने मंत्री होंगे?

इस तरह असली सवालों की लम्बी फेहरिस्त है. तय नहीं है कि असली सवाल क्या है. सब अपने-अपने सवालों को असली मान रहे हैं. ऐसे में सचमुच सवाल है कि असली सवाल क्या है. कविता का अंत करते हुए साही कहते हैं-

सुनो भाई साधो
असली सवाल है
कि असली सवाल क्या है?

‘जिंदगी के साथ गंभीर हिस्सेदारी’ से पैदा होने के कारण साही की कविताओं में यथार्थ की ऊपरी परत के रेखांकन से परहेज है. उनका सक्रिय राजनीतिक जीवन उनकी कविताओं में प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं होता. ‘साँप काटे हुए भाई से’ उनकी एक बहुत ही अर्थपूर्ण कविता है. एक आदमी को जहरीले साँप ने काट लिया है. धीरे-धीरे वह चेतना खो रहा है. कविता की शुरुआत होती है-

मुझे दिख रहा है
दिमाग धीरे-धीरे पथराता जा रहा है
अब तो नसों की ऐंठन भी महसूस नहीं हो रही है
और तुम्हें सिर्फ एक ऐसी
मुलायम सहलाने वाली रागिनी चाहिए
जो तुम्हें इस भारीपन में आराम दे सके
और तुम्हें हल्की जहरीली नींद आ जाये

आगे साँप काटे हुए व्यक्ति को जगाए रखने की तरह-तरह की तरकीबे हैं. साँप का विष उतारने के लिए लोक जीवन में किए जाने वाले उपायों का जीवंत वर्णन है. लेकिन कवि को लगता है कि ये सारे उपाय साँप काटे भाई को बचा नहीं पाएँगे. वह उसे सोने देना नहीं चाहता. कवि को उसके जगे रहने पर और उसकी जागती हुई आँखों पर अटूट भरोसा है. उसे लगता है कि अगर ऐसा हुआ तो साँप काटे भाई की चेतना लौट आएगी-

अगर भरोसा है तो सिर्फ तुम्हारे
बहते हुए खून
और जागती हुई आँखों का भरोसा है-
इस खून को जारी रखने के लिए
सोना मत.
ओ मेरे भाई सोना मत.

हमारे समय के आदमी को जब असत्य के सर्प ने डंस लिया हो, उसकी चेतना मर रही हो तब उसे जिलाए रखने का यह आह्वान कितना विस्मयकारी है!

साही की कविता में निरंतर एक जिज्ञासा, एक खोज, एक यात्रा और संवाद दिखाई देता है. पुराने के त्याग का आग्रह है तो ‘निरुत्तर शांति’ से परहेज भी है. पुराना सब कुछ छोड़ने के पश्चात् कवि के भीतर ‘निरुत्तर शांति’ किरकिराती है. ‘मछलीघर’ की एक कविता है ‘तीर्थ तो है वही....’ जिसमें तट पर खड़े कवि को बेताब लहरों का उछलना अच्छा नहीं लगता. पुराने सारे वसन धारा में बह जाते हैं और एक नया मनुष्य जन्म लेता है-

वह जो कुछ हुआ,
अब तो सत्य चाहे मिले
ढालों पर विकंपित
घने वन की फुनगियों से झाँकता-सा
चोटियों के मौन में
कुंड में चुपचाप बहते हुए जल की आर्सी में
बादलों से भरे नभ को देखते खामोश पक्षी में
गुजरते हुए राही में
अकेले फूल में
पर ओ नदी! अब तुम नहीं हो तीर्थ
तीर्थ तो है बर्फ का उजला सरोवर वही
जिसको छोड़कर हम तुम
चले थे साथ.

जो जैसा दीखता है वह वैसा है नहीं. संसार के रिश्ते जैसे उलट-पलट गए हैं. कहा जाता है कुछ और निकलता है कुछ. यह विडंबना कवि को परेशान करती है. ‘साखी’ की एक कविता है ‘क्या करूँ’. संसार की इस विडंबना पर कवि के भीतर प्रश्न ही प्रश्न हैं-

या तो मेरी आँखों को कुछ हो गया है
या अब दूर पास के रिश्ते ही उलट गये हैं
जिसके पास जाता हूँ
पहुँचने पर छोटा दिखने लगता है
साधो भाई
अब मैं क्या करूँ?

वह जो दूर से
पृथ्वी की एक दिशा से दूसरी दिशा तक फैला हुआ
हिमालय नाम का नगाधिराज दिखता था
पास पहुँचने पर
बजाज की दूकान का गज निकला

इधर के वर्षों में कबीर का इकहरा पाठ खूब हुआ है. उनके बहु आयामी कवि व्यक्तित्व से आँख मूंदकर उन्हें एक ही तरह का राजनीतिक अर्थ देने की कोशिशें खूब हुई हैं. कवि कबीर पर आलोचक के रूप में साही विचार करते तो कौन-सा अर्थ सामने होता कहना मुश्किल है. लेकिन ‘साखी’ की कविताओं के जरिए उन्होंने अपने समय में मानो कबीर को खोज लिया हो. संग्रह की अंतिम कविता ‘प्रार्थना: गुरु कबीरदास के लिए’ में जिस कबीर को वे हमारे सामने रखते हैं वह नया कबीर है. इधर के वर्षों में वंचित समाज के लिए सहानुभूति की जो बाढ़ है उसकी जगह साही अंतहीन सहानुभूति की वाणी विनम्रता पूर्वक बोलना चाहते हैं. वे ऐसे कलेजा की कामना करते हैं जो भूखों के पक्ष में खड़ा हो और निर्भय हो. इसके बाद कवि की गुरु कबीरदास से प्रार्थना है-

दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिंता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा.

यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ

कोई भी मानेगा कि हिंदी कविता में यह काव्य-स्वर बिलकुल निराला और अलग है. यह हिंदी कविता की उपलब्धि है जो साही के हाथों संपन्न होती है.

मात्र अपने दो संग्रहों- ‘मछलीघर’ और ‘साखी’ के जरिए साही हिंदी कविता का नया विन्यास रचते हैं. उनकी कविता का आतंरिक एकालाप समाज से भी संवाद है और अपने से भी. ‘साखी’ में समाज को जो संबोधन है वह अपने को भी है. इन कारणों से साही की कविता में एक ऐसी नैतिक आभा है जो कबीर सरीखे कवियों में बड़े पैमाने पर आचरण से पैदा हुई थी. आधुनिक हिंदी कविता की यह नैतिक आभा अपने विस्तार में कुछ छोटी होने पर भी आधुनिक हिंदी कविता की मूल्यवान धरोहर है.

साही जब बनारस में थे तो शंभुनाथ सिंह जैसे गीतकारों के संग-साथ का प्रभाव था कि वे भी गीत लिखने लगे थे. छंद और पूरे विधान के साथ वे गीत-रचना में संलग्न थे. प्रेम के गीत, समाज को जगाने वाले गीत और प्रकृति परक गीतों की रचना उन्होंने नए अंदाज में की. नमूने के तौर पर उनके एक गीत की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं. ‘माघ: दस बजे दिन’ शीर्षक गीत में जाड़े की धूप को साही जिस निगाह से देखते हैं उससे उनकी गीत-प्रतिभा का पता चलता है-

यह धूप बहकी बहकी
कि शराब-आसमानी
ये हवाएँ सरसराती
कि अलस भरी जवानी
लो दस बजा सुबह का
झंकार एक आई-
गति का विलास लहरा
फिर धूप मुस्कुराई
इस ज्योति के पटल पर
खुलते हुए कमल-सी
उठती हुई जवानी
बल खाई जगमगाई!

साही गीत के साथ कभी-कभी ग़ज़ल भी लिखते थे. चूँकि वे उर्दू-फ़ारसी के जानकार थे, इसलिए उनकी ग़ज़ल में उर्दू की रवानगी और उसका अनुशासन दिखाई देता है. वे ‘नज़र’ उपनाम से ग़ज़ल लिखते थे. नमूने के तौर पर उनकी एक छोटी-सी ग़ज़ल देखी जा सकती है-

इक उरूजो-ज़वाल देखा है
हमने दुनिया का हाल देखा है

अब संभलता नहीं किसी के कहे
हमने दिल को संभाल देखा है

हम उसी को ‘नज़र’ समझते हैं
जिसने तेरा जमाल देखा है

‘सड़क साहित्य’ के नाम से भी मन की मौज में साही कविताएँ लिखा करते थे. सड़क पर पैदल चलते हुए दोस्तों से गपशप में ऐसी कविताएँ जन्म लेती थीं. यह एक प्रकार का सहयोगी काव्य लेखन था जिसमें एक पंक्ति किसी मित्र की होती थी तो दूसरी साही की. सर्वेश्वर तब इलाहाबाद में रहते थे. उनके साथ ‘सड़क साहित्य’ के नाम पर ऐसी बहुतेरी कविताओं की रचना हुई. सर्वेश्वर का घर गली में था जो अपेक्षाकृत अच्छी थी. साही का घर सड़क पर था. सड़क टूटी हुई थी. एक दिन उसी सड़क पर शाम के वक्त चलते हुए सर्वेश्वर का पैर गड्ढ़े में पड़ा. वे गिरते-गिरते बचे. उनके मुंह से एक काव्य पंक्ति फूटी- ‘गली भली सर्वेश्वरी साही की सड़कें न’. थोड़ी ही देर बाद साही ने अगली पंक्ति जोड़ी- ‘अक्ल पे पत्थर पड़ गए पथ पर पड़े भले न’. इस तरह दो पंक्ति की यह कविता बनी-

गली भली सर्वेश्वरी साही की सड़के न,
अक्ल पे पत्थर पड़ गए पथ पर पड़े भले न.

इस तरह की बहुतेरी कविताओं की रचना हुई जो अब तक संकलित न हो पाई हैं.लेकिन, जैसा कि कहा गया साही की कवि रूप में स्थायी कीर्ति का मूलाधार- ‘मछलीघर’ और ‘साखी’ नामक उनके दो काव्य-संग्रह ही हैं.
(शीघ्र प्रकाश्य ‘विजयदेवनारायण साही: रचना-संचयन’ की भूमिका से)
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gopeshwar1955@gmail.com

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  1. पंकज चौधरी7 दिस॰ 2019, 9:23:00 am

    गोपेश्वर जी का कॉन्सेप्ट क्लियर है। इसीलिए कविताओं के मर्म को पकड़ते हुए उसकी सहज और सरल व्याख्या करते हैं। हमारे जैसे पाठकों को और क्या चाहिए? और आलोचक तो बुझौवल बुझाते रहते हैं। मेरा ख्याल है कि एक अच्छे आलोचक की यह पहली विशेषता होती है। गोपेश्वर जी का विजयदेव नारायण साही और नलिन विलोचन शर्मा पर अप्रतिम काम है।

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  2. सटीक और सरस, साही और उनकी कविता का आस्वादन!गोपेश्वर जी. आपका आभार! किताब की प्रतीक्षा है.

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  3. रमेश ठाकुर7 दिस॰ 2019, 11:24:00 am

    गोपेश्वर जी का पठनीय लेख। उन्हें बहुत-बहुत बधाई और अच्छी आलोचना उपलब्ध कराने के लिए 'समालोचन' का भी बहुत-बहुत आभार।

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  4. साही,शमशेर और नलिन विलोचन का पुनर्मूल्यांकन और उन पर नवीन स्थापनाओ के लिए गोपेश्वर सर का अवदान महत्त्वपूर्ण है। साहित्य की इन नवीन स्थापनाओं को प्रकाश में लाने हेतु समालोचन का धन्यवाद।

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  5. मंजुला बिष्ट7 दिस॰ 2019, 4:31:00 pm

    समालोचन के मंच से आज एक और अमूल्य साहित्यिक धरोहर की कलम से परिचय हुआ है।
    बहुत सुंदर, सुगठित व ज्ञानवर्धक आलेख!

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  6. सार्थक लेख है । साही जी से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद ।

    अनूप भार्गव

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  7. With a personal and an empathatic style how a critic can give an edge to poetry and poet both.this article is an example ..
    must read artical upon sahi..in this time when we see that authenticity of vision and expression of self both are under the hammer of socio political contexts...these type of writings may necessarily get a welcome by sensible readers...

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  8. साही के काव्य-संसार के पूरे पसारे से आत्मीय परिचय पाने के लिहाज से उम्दा आलेख।

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