हरिवंशराय बच्चन
की कविता के प्रशंसकों में अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह और रघुवीर सहाय जैसे कवि शामिल हैं वहीँ
प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह का मानना था कि 'बच्चन
की कविता में जितनी हाला है, उतनी सामान्य जीवन में हो,
तो मनुष्य डूब ही जाय !'
नवम्बर बच्चन जी के जन्म दिन का महीना है. उन्हें याद करते हुए उनके पांच गीत और उनकी कविताओं पर कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी की यह सारगर्भित टिप्पणी आपके लिये.
नवम्बर बच्चन जी के जन्म दिन का महीना है. उन्हें याद करते हुए उनके पांच गीत और उनकी कविताओं पर कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी की यह सारगर्भित टिप्पणी आपके लिये.
स्मरण
हरिवंशराय बच्चन
(२७ नवम्बर १९०७ – १८
जनवरी २००३)
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं--
यह सोच थका दिन का पंथी भी
जल्दी-जल्दी चलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे--
यह ध्यान परों में चिड़ियों
के भरता कितनी चंचलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
मुझसे मिलने को कौन विकल ?
मैं होऊँ किसके हित चंचल ?--
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में
विह्वलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
बीते दिन कब आनेवाले !
मेरी वाणी का मधुमय स्वर
विश्व सुनेगा
कान लगाकर,
दूर गए पर मेरे उर की धड़कन
को सुन पानेवाले !
बीते दिन कब आनेवाले !
विश्व करेगा
मेरा आदर,
हाथ बढ़ाकर, शीश नवाकर,
पर न खुलेंगे नेत्र
प्रतीक्षा में जो रहते थे मतवाले !
बीते दिन कब आनेवाले !
मुझमें है देवत्व जहाँ पर,
झुक जाएगा लोक वहाँ पर,
पर न मिलेंगे मेरी दुर्बलता
को अब दुलरानेवाले !
बीते दिन कब आनेवाले !
क्षण भर को क्यों प्यार किया था ?
अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर,
तुमने क्यों मेरे चरणों में
अपना तन-मन वार दिया था ?
क्षण भर को क्यों प्यार किया
था ?
'यह अधिकार
कहाँ से लाया !'
और न कुछ मैं कहने पाया--
मेरे अधरों पर निज अधरों का
तुमने रख भार दिया था !
क्षण भर को क्यों प्यार किया
था ?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में--
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर
में तुमने भर उद्गार दिया था !
क्षण भर को क्यों प्यार किया
था ?
साथी, सो न, कर कुछ बात !
बोलते उडुगण परस्पर,
तरु दलों में मंद 'मरमर',
बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल तो
जल-स्नात !
साथी, सो न,
कर कुछ बात !
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में
फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात !
साथी, सो न,
कर कुछ बात !
पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अन्त चिर
अज्ञात !
साथी, सो न,
कर कुछ बात !
तू क्यों बैठ गया है पथ पर ?
ध्येय
न हो, पर है मग आगे,
बस
धरता चल तू पग आगे,
बैठ
न चलनेवालों के दल में तू आज तमाशा बनकर !
तू
क्यों बैठ गया है पथ पर ?
मानव
का इतिहास रहेगा
कहीं, पुकार-पुकार
कहेगा
निश्चय
था गिरकर मर जाएगा चलता किन्तु रहा जीवन भर !
तू
क्यों बैठ गया है पथ पर ?
जीवित
भी तू आज मरा-सा
पर
मेरी तो यह अभिलाषा
चिता-निकट भी पहुँच
सकूँ मैं अपने पैरों-पैरों चलकर !
तू
क्यों बैठ गया है पथ पर ?
(हरिवंश राय
बच्चन के पाँच गीत : चयन पंकज चतुर्वेदी)
कवि
नयनों का पानी
छायावाद के समानान्तर और ठीक बाद के दौर में हरिवंशराय बच्चन की कविता को जो लोकप्रियता हासिल हुई, वह अप्रतिम थी. ख़ास तौर पर 'मधुशाला', 'मधुबाला', 'मधुकलश' और 'निशा-निमन्त्रण' सरीखी उनकी श्रेष्ठतम कृतियाँ उस ज़माने की युवा पीढ़ी ने अपने सीने से लगा रखी थीं. कवि-सम्मेलनों के वह सबसे उज्ज्वल सितारे थे और लोगों के दिलों पर उनकी कविता का नशा छाया हुआ था. मगर इस अभूतपूर्व शोहरत की वजह क्या थी ? दरअसल 'मधुशाला' में जो 'हाला' है, वह प्रेम और उससे लगे-लिपटे सौन्दर्य, मादकता, बेचैनी और पीड़ा की संश्लिष्ट प्रतीक है. एक ओर कवि कहता है : 'मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला', तो दूसरी तरफ़ यह भी : 'पीड़ा में आनन्द जिसे हो, आये मेरी मधुशाला.'
जिस सभ्यता में प्रेम को एक गुनाह और उससे वाबस्ता आँसू को इंसान की दुर्बलता समझा जाता हो, बच्चन ने इन दोनों को ही केन्द्र में प्रतिष्ठित किया और वह भी लोगों की अपनी बोली में, सहज, बेलौस, गहन और मर्मस्पर्शी अंदाज़ में. जहाँ निजी भावनाओं की अभिव्यक्ति का अवकाश संकुचित हो और प्यार का अकाल पड़ा हो, ऐसी सच्ची और साहसिक संवेदनशीलता को तो पुरस्कृत होना ही था. लाज़िम है कि समाज ने अपनी पीड़ा का अक्स उनकी कविता में देखा और उससे बेहतर इंसान होने की संवेदना, सौन्दर्य-बोध और आत्मबल अर्जित किया.
ग़ौरतलब है कि 'मधुशाला' का सन्दर्भ व्यापक एवं बहुअर्थगामी है और वह लोकतन्त्र के बुनियादी सिद्धांतों, स्वतन्त्रता, समता और बन्धुत्व की आधारशिला पर रची गयी, आधुनिक भारत के निर्माण का स्वप्न सँजोती और हमें सौंपती हुई कविता है. इसलिए 'मधुशाला' गंगा-जमुनी संस्कृति का रूपक बन जाती है : "बैर बढ़ाते मस्जिद-मन्दिर, मेल कराती मधुशाला" और जाति-पाँति से मुक्त समाज का भी :
"सभी जाति के लोग यहाँ पर, साथ बैठकर पीते हैं,
इसी मानी में रघुवीर सहाय कहते हैं कि छठे दशक से आज तक कविता जिस बोलचाल की भाषा में लिखी जा रही है, उसके प्रवर्तक बच्चन हैं. हालाँकि वह आगाह करते हैं कि आज कविता चाहे जितनी सहज, सामाजिक और श्रेष्ठ लिखी जाए, लोकप्रिय वह नहीं होगी, जब तक कि बच्चन की रचनाओं की मानिंद उसमें "अपने पुरखों से मिली भाषा, छंद और ध्वनि व्याप्त न हो." इस सबके बावजूद डॉ. नामवर सिंह का वक्तव्य है :
यह नामुमकिन है कि उन जैसा ज़हीन आलोचक इस कविता की शक्ति से अनजान रहा हो, मगर जब मक़सद अवमूल्यन और उपहास हो, तो सीमा की अतिरंजना ज़रूरी हो जाती है. यह नज़ीर है कि आलोचना हमेशा कविता के सौन्दर्य को उजागर नहीं करती, कई बार उस पर आवरण भी डाल देती है. इससे नुक़सान पाठकों का ही नहीं होता, कवियों का भी होता है, जो बच्चन से कुछ सीख सकते थे.
बच्चन की कविता में जो प्रभूत प्रेम, पारदर्शिता, तरलता, रवानी और कशिश है ; वह सीधे उनके व्यक्तित्व से आती थी. मार्मिकता का स्रोत जीवन था, जिसके अभ्युदय के समय उन्हें अपार दुख सहना पड़ा. अपनी पहली पत्नी श्यामा के आकस्मिक देहांत से विचलित होकर उन्होंने 'निशा-निमंत्रण' की रचना की, जो बक़ौल शमशेर, "इस मस्त नृत्य करते शिव की उमा थी...आत्मा से अर्द्धांगिनी." कहते हैं, उस आघात के चलते वह एक साल तक आँसुओं में डूबे रहे. इतनी करुणा बहुत गहन और उत्कट प्रेम से ही निःसृत हो सकती थी, जिसके स्वप्न का शीराज़ा उनकी आँखों के सामने बिखरा पड़ा था. एक झंझावात उनके मन को मथ रहा था. उन्होंने दुनिया से पूछा :
"जीवित भी तू आज मरा-सा
"मिटता अब तरु-तरु में अंतर,
"जो नियम है
पंकज चतुर्वेदी
छायावाद के समानान्तर और ठीक बाद के दौर में हरिवंशराय बच्चन की कविता को जो लोकप्रियता हासिल हुई, वह अप्रतिम थी. ख़ास तौर पर 'मधुशाला', 'मधुबाला', 'मधुकलश' और 'निशा-निमन्त्रण' सरीखी उनकी श्रेष्ठतम कृतियाँ उस ज़माने की युवा पीढ़ी ने अपने सीने से लगा रखी थीं. कवि-सम्मेलनों के वह सबसे उज्ज्वल सितारे थे और लोगों के दिलों पर उनकी कविता का नशा छाया हुआ था. मगर इस अभूतपूर्व शोहरत की वजह क्या थी ? दरअसल 'मधुशाला' में जो 'हाला' है, वह प्रेम और उससे लगे-लिपटे सौन्दर्य, मादकता, बेचैनी और पीड़ा की संश्लिष्ट प्रतीक है. एक ओर कवि कहता है : 'मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला', तो दूसरी तरफ़ यह भी : 'पीड़ा में आनन्द जिसे हो, आये मेरी मधुशाला.'
जिस सभ्यता में प्रेम को एक गुनाह और उससे वाबस्ता आँसू को इंसान की दुर्बलता समझा जाता हो, बच्चन ने इन दोनों को ही केन्द्र में प्रतिष्ठित किया और वह भी लोगों की अपनी बोली में, सहज, बेलौस, गहन और मर्मस्पर्शी अंदाज़ में. जहाँ निजी भावनाओं की अभिव्यक्ति का अवकाश संकुचित हो और प्यार का अकाल पड़ा हो, ऐसी सच्ची और साहसिक संवेदनशीलता को तो पुरस्कृत होना ही था. लाज़िम है कि समाज ने अपनी पीड़ा का अक्स उनकी कविता में देखा और उससे बेहतर इंसान होने की संवेदना, सौन्दर्य-बोध और आत्मबल अर्जित किया.
अज्ञेय, शमशेर
बहादुर सिंह और रघुवीर सहाय जैसे बड़े कवियों ने आधुनिक हिन्दी कविता की
परम्परा में बच्चन के क्रांतिकारी
और मूल्यवान् अवदान की काफ़ी सराहना की है. शमशेर ने लिखा है कि जब उन्होंने पहली बार इलाहाबाद
में कवि के मुँह से 'मधुशाला' का पाठ सुना, तो उन्हें महसूस हुआ कि यह कोई नयी और सशक्त रचना है और
भाषा पर इतना संपूर्ण अधिकार कि मधुशाला का तुक बराबर दोहराये जाने पर भी लम्बी
कविता की ताज़गी और प्रभाव में ज़रा भी फ़र्क़ नहीं पड़ता. गोया यह एक निबन्ध था एक
विषय पर :
"गुम्फित, सुस्पष्ट, ज़ोरदार और युगीन." उनके मुताबिक़ बच्चन समूची आत्मवत्ता से प्रेम की महिमा का इसरार ही नहीं, हिन्दी के संकीर्ण, साम्प्रदायिक वातावरण का प्रतिकार भी कर रहे थे : "(वह) अपनी कविता में उच्च घोष से बार-बार बता भी रहे हैं कि यह वातावरण किसी भी जाति के सांस्कृतिक इतिहास में कैसी हीन-संकुचित मनःस्थिति का द्योतक होता है !"
ग़ौरतलब है कि 'मधुशाला' का सन्दर्भ व्यापक एवं बहुअर्थगामी है और वह लोकतन्त्र के बुनियादी सिद्धांतों, स्वतन्त्रता, समता और बन्धुत्व की आधारशिला पर रची गयी, आधुनिक भारत के निर्माण का स्वप्न सँजोती और हमें सौंपती हुई कविता है. इसलिए 'मधुशाला' गंगा-जमुनी संस्कृति का रूपक बन जाती है : "बैर बढ़ाते मस्जिद-मन्दिर, मेल कराती मधुशाला" और जाति-पाँति से मुक्त समाज का भी :
"सभी जाति के लोग यहाँ पर, साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है, काम
अकेली मधुशाला."
बच्चन का यह बयान दिलचस्प है कि
"मेरी कविता छायावाद के क़िले पर मधुशाला के आँगन से फेंका गया गोला थी."
इसका आशय
अज्ञेय के अभिमत से साफ़ होता है कि
'उनकी रचनाओं ने छायावादी कविता के संस्कारों से लैस पाठक के इस झूठे विश्वास को समूल नष्ट कर दिया कि कविता की भाषा बोलचाल से भिन्न होनी ही चाहिए. वह कोई मामूली क्रान्ति नहीं थी.'
इसी मानी में रघुवीर सहाय कहते हैं कि छठे दशक से आज तक कविता जिस बोलचाल की भाषा में लिखी जा रही है, उसके प्रवर्तक बच्चन हैं. हालाँकि वह आगाह करते हैं कि आज कविता चाहे जितनी सहज, सामाजिक और श्रेष्ठ लिखी जाए, लोकप्रिय वह नहीं होगी, जब तक कि बच्चन की रचनाओं की मानिंद उसमें "अपने पुरखों से मिली भाषा, छंद और ध्वनि व्याप्त न हो." इस सबके बावजूद डॉ. नामवर सिंह का वक्तव्य है :
'बच्चन की कविता में जितनी हाला है, उतनी सामान्य जीवन में हो, तो मनुष्य डूब ही जाय!'
यह नामुमकिन है कि उन जैसा ज़हीन आलोचक इस कविता की शक्ति से अनजान रहा हो, मगर जब मक़सद अवमूल्यन और उपहास हो, तो सीमा की अतिरंजना ज़रूरी हो जाती है. यह नज़ीर है कि आलोचना हमेशा कविता के सौन्दर्य को उजागर नहीं करती, कई बार उस पर आवरण भी डाल देती है. इससे नुक़सान पाठकों का ही नहीं होता, कवियों का भी होता है, जो बच्चन से कुछ सीख सकते थे.
बच्चन की कविता में जो प्रभूत प्रेम, पारदर्शिता, तरलता, रवानी और कशिश है ; वह सीधे उनके व्यक्तित्व से आती थी. मार्मिकता का स्रोत जीवन था, जिसके अभ्युदय के समय उन्हें अपार दुख सहना पड़ा. अपनी पहली पत्नी श्यामा के आकस्मिक देहांत से विचलित होकर उन्होंने 'निशा-निमंत्रण' की रचना की, जो बक़ौल शमशेर, "इस मस्त नृत्य करते शिव की उमा थी...आत्मा से अर्द्धांगिनी." कहते हैं, उस आघात के चलते वह एक साल तक आँसुओं में डूबे रहे. इतनी करुणा बहुत गहन और उत्कट प्रेम से ही निःसृत हो सकती थी, जिसके स्वप्न का शीराज़ा उनकी आँखों के सामने बिखरा पड़ा था. एक झंझावात उनके मन को मथ रहा था. उन्होंने दुनिया से पूछा :
"गंध-भरा यह मंद पवन था,
लहराता इससे मधुवन था,
सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ
पाओगे ? तुम तूफ़ान समझ पाओगे ?"
ऐसी मर्मान्तक वेदना की बदौलत बच्चन, शमशेर के
शब्दों में, "दुखी दिलों के साथी" बने. मगर उनका दुख प्रतिगामी क़िस्म का नहीं है, बल्कि वह 'नीड़ के नव निर्माण' के लिए हमारी चेतना में अनूठी अंतर्दृष्टि और ऊर्जा का संचार करता है. सबब यह कि बच्चन का हृदय जितना कोमल था, संकल्प उतना ही अदम्य. मिसाल हैं ये पंक्तियाँ :
"जीवित भी तू आज मरा-सा
पर मेरी
तो यह अभिलाषा
चिता-निकट
भी पहुँच सकूँ मैं अपने पैरों-पैरों चलकर! तू क्यों बैठ गया है पथ पर?"
प्रेम के
आत्यन्तिक इसरार का मतलब यह नहीं कि बच्चन ने अपने वक़्त के अँधेरे की शिनाख़्त नहीं
की. कविता अगर संजीदा है, तो
विशिष्ट सन्दर्भ को अतिक्रमित करते हुए एक ज़्यादा
बड़े कैनवस पर अपने अर्थ का विस्तार करती है. अँधेरे समय में लोगों के बीच का फ़र्क़ मिट जाता है, उनकी व्यक्तिगत विशेषताओं
की अभिव्यक्ति का अवसर कम-से-कम रह जाता है और इच्छा भी ; क्योंकि अँधेरा सब कुछ के
वजूद पर घिर आता है. ऐसे दौर में नायक या कहें कि प्रतिनायक वही होता है, जो अपने अंधकार में औरों से
बढ़कर हो.
बच्चन का एक गीत यों तो निजी अवसाद की पृष्ठभूमि में रचा गया है, पर विस्मयजनक ढंग से इस राजनीतिक यथार्थ की प्रभावशाली व्यंजना में सक्षम है :
बच्चन का एक गीत यों तो निजी अवसाद की पृष्ठभूमि में रचा गया है, पर विस्मयजनक ढंग से इस राजनीतिक यथार्थ की प्रभावशाली व्यंजना में सक्षम है :
"मिटता अब तरु-तरु में अंतर,
तम की चादर हर तरुवर पर,
केवल ताड़ अलग हो सबसे अपनी सत्ता बतलाता है. अंधकार बढ़ता जाता है!"
उनकी कविता के अंतस्तल में यह
गंभीर जीवन-दर्शन सक्रिय है कि सुख-दुख, जय-पराजय, शिशिर-वसन्त और जन्म-मृत्यु आदि का चक्र सृष्टि में
निरन्तर गतिमान है और हमें प्रकृति के इस नियम--ऋत या सत्य को स्वीकार करते हुए
अप्रतिहत भाव से
आगे बढ़ना होगा. अचरज नहीं कि 'निशा-निमन्त्रण' पढ़ते हुए शमशेर की ये महान
पंक्तियाँ ज़ेहन में गूँजती रहती हैं :
"जो नियम है
सो नियम है."
बच्चन मनुष्य-जीवन और प्रकृति के क्रिया-व्यापारों में
सादृश्य देखते हैं और दोनों के सौन्दर्य का संश्लिष्ट चित्रण भी करते हैं. उनकी
कविता में प्रकृति की उदार सुषमा, गहनता, औदात्य, आक्रोश और सजलता का समावेश है....और कवि क्या है ? वह हर
हाल में इंसान का साथी है, उसकी आँख का आँसू:
"चढ़ जाए मंदिर-प्रतिमा पर,
या दे मस्जिद की गागर भर,
पढ़ लिया। बढ़िया लिखा है। मुझे तो नामवर जी के कथन में कवि पर तंज नहीं दिख रहा। तंज तो उनपर है जो हाला को उसके अभिधार्थ में लेते हैं।
जवाब देंहटाएंसहमत
हटाएं"मेरी कविता छायावाद के क़िले पर मधुशाला के आँगन से फेंका गया गोला थी."
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित लेख |दोबारा पढूंगा इत्मीनान से
जन्म के महीने में बच्चनजी को याद करने के लिए समालोचन को साधुवाद...
जवाब देंहटाएंयतीशजी को जो वाक्य बहुत अच्छा लगा - साहित्येतिहास का वह बेहद हिट वाक्य है, पर लेखक ने शब्दावली अपनी लगाके मज़ा किरकिरा तो किया ही, समीक्षा की जानिब से अच्छा नहीं किया और वह हिट को फिट करने वाला वह दूसरा हिस्सा छोड़ ही दिया, जिसमें बच्चनजी की अपनी कविता का मर्म छिपा है। वाक्य यूं है -
छायावाद के किले पर पहला गोला मधुशाला के आंगन से फेंका गया था - गोला फेंकने की गरज से नहीं, बल्कि मधुशाला के मधुपायियों की अनिवार्य क्रीड़ा-प्रवृत्ति से...
इस वक़्त घर से दूर होने के कारण देख नहीं पा रहा हूँ, इसलिए एकाध शब्द शायद मेरा आ गया हो, लेकिन आलेख लिखते हुए तो सही जांच कर ही लेनी चाहिए और मधुपायियों की अनिवार्य क्रीड़ा-प्रवृत्ति को रोशन करना ज्यादा महत्त्व का है, जिससे असली बात सिद्ध होती है कि गोला फेंका नहीं गया, फेंका उठा था।
और नामवरजी को लेखक ने सही हिट किया है - उनका यह रूप जगद-बिदित है।उस पर लीपापोती करना (शायद विनय कुमारजी की प्रतिक्रिया हैं) फिजूल है।
और लेख अति सामान्य है। कवि बच्चनजी की महत्ता के अल्पांश की भी बानगी नहीं आ पायी है।
पांच कविताएं भिन्न भावबोध की चुनकर कवि के काव्य जगत का बेहतर प्रतिनिधित्त्व किया जा सकता था...जो समयाभाव या फिर दृष्टि व सोच के अभाव वश रह गया...
बच्चन जी की कवितायें मुझे भी प्रिय हैं। सच कहूं तो मेरी साहित्यिक निर्मिति में इन कविताओं का भी हाथ है। लेख पढ़ गया। Pankaj Chaturvedi जी ने बहुत मनोयोग से लिखा है। इसे पढ़ते हुए बच्चन जी की जाने कितनी और पंक्तियाँ मन में गूंजती रहीं जो मेरी स्मृति का हिस्सा हैं। बधाई!
जवाब देंहटाएंचल रहा मनुष्य है
जवाब देंहटाएंयह महान दृश्य है !
बच्चन हिन्दी की कुटिल आलोचना का शिकार रहे जिसकी भरपाई उन्होंने लोकप्रियता से की । निशा-निमंत्रण हिन्दी-काव्य की महान कृति है । भविष्य में बच्चन का महत्व बढ़ता जायेगा । पंकज चतुर्वेदी नई कविता और समकालीन कविता के बाहर आकर इन छूट गए कोनों-अंतरों में झाँक रहे हैं तो जितनी यह उनकी सदाशयता है उतनी ही इन लिरिक्स की ताक़त । पंकज और समालोचन को धन्यवाद ।
अति उत्तम लेख
जवाब देंहटाएंकविता वही जिएगी जिसमें लय हो .आलोचकों और कवियों को कौन और क्यों पसंद आता है यह तो वे ही समझें पर कविता के सामान्य पाठक या श्रोता के लिए छंदबद्ध /लयात्मक/गीतात्मक कविताएँ ही बोधगम्य होती है. इसलिए बच्चन हिंदी के कालजयी रचनाकार साबित होंगे .मधुशाला की मदिरा और उसका असर कभी कम नहीं होगा .
जवाब देंहटाएंपढ़ लिया। ठीक ठाक है। बच्चन को प्रगतिशील और गैर प्रगतिशील दोनों तरह के लोगों ने उपेशित किया। एक अर्थ में वे जनकवि थे। उन्हीं के शब्दों में कहें तो छायावादी किले पर पहला गोला 'मधुशाला ' ने दागा था। ख़ैर,आपको और लेखक को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंबच्चन की कालजयी रचनाओं को पढ़वाने के लिए आभार, सारगर्भित आलेख !
जवाब देंहटाएंबहुत सरल, सुंंदर और महत्वपूर्ण आलेख।
जवाब देंहटाएंसचमुच छायावादी कवियों की तुलना में बच्चन ने भविष्य की नयी कविता की सहज बोलचाल की भाषा के बहुत नज़दीक आकर जैसे भविष्य की काव्य भाषा का मार्ग प्रशस्त किया।
नामवरसिंह पर की गयी संक्षिप्त टिप्पणी सौ प्रतिशत सही है।
जो साहित्यकार घोषित मार्क्सवादी नहीं थे या नामवरजी को पसंद नहीं थे , उनकी वे न सिर्फ़ उपेक्षा करते बल्कि उनका मज़ाक भी उड़ाते।
धर्मवीर भारती इसके दूसरे उदाहरण हैं जो नामवर जी के शिकार हुए। इस प्रवृति ने साहित्य का कई तरह से नुकसान किया। आलोचना को अविश्वसनीय भी बनाया। ख़ासकर मेरे जैसों केलिये जो हाई स्कूल के बाद हिंदी साहित्य के विद्यार्थी नहीं रहे।
पता नहीं था कि रघुवीर सहाय, शमशेर आदि बच्चन के प्रशंसक थे। बच्चन की असफलता तब सामने आयी जब उन्होंने गद्य में कविता लिखी।
उससे यह भी लगा कि छंद और ध्वन्यात्मकता कविता में बहुत कुछ अतिरिक्त जोड़देती है, और कुछ कमियों की प्रतिपूर्ति भी करदेती है। इस आलेख के लिये
पंकज चतुर्वेदी और अरुणदेव दोनों को साधुवाद।
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