उत्तर भारतीय
ग्रामीण समाज को समझने के लिए राजनीतिक और सामजिक अध्ययन की कुछ कोशिशें हुईं हैं.
साहित्य की आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण आदि विधाएं इस सन्दर्भ में उपयोगी हैं. रंग-आलोचक
सत्यदेव त्रिपाठी इधर गाँव पर केन्द्रित
संस्मरणों की श्रृंखला पर कार्य कर रहें हैं.
‘मेरे
बडके बाबू– सबके पुजारी बाबा’ ऐसा ही उद्यम है. गहनता और प्रमाणिकता
से इसमें ग्राम्य समाज अंकित हुआ है.
मेरे बडके बाबू –
सबके पुजारी बाबा...
अरे
यायावर, आते हो बहुत याद...
सत्यदेव
त्रिपाठी
स्व.
कुबेरनाथ त्रिपाठी थे तो मेरे बडके बाबू, पर चूँकि मेरे बाबूजी (पिता) चल बसे, जब
मैं एक साल का ही था, तो दोनो बडी बहनों ने अपने बाबूजी के बडे भाई याने ‘बडके
बाबू’ में से ‘बडके’ शब्द को निकाल के कब उन्हें सिर्फ़ ‘बाबू’ ही कहना शुरू कर
दिया..., उन्हें भी नहीं मालूम. इस तरह मैंने उनको ही बाबू कहते हुए होश सँभाला...वो
तो बहुत बाद में पता चला कि सचमुच में तो वो मेरे बडके बाबू हैं, जो सारी दुनिया
में ‘पुजारी बाबा’ के नाम से जाने जाते.... और पूरे बचपन मैंने उन्हें बार-बार घर
से जाते और काफी दोनों बाद आते देखा... इसीलिए आज भी यादों के दौरान जो उनकी छबि
पहले उभरती है मन में, वह घुमंतू वेश की ही है... हाथ में सुता हुआ सुडौल सोंटा
कॉफी के रंग का, जिसे अक्सर बीच से पकडकर झुलाते हुए चलते या फिर कभी-कभी ऊपरी
सिरा पकडकर दो कदम आगे जमीन पर हल्का-सा टेके जैसा रखते और पिछला पैर झट से लम्बा
डग भरते हुए आगे करते.... क़द उनका न लम्बा था, न नाटा. न दुबला, न मोटा. एकदम
मध्यम मार्गी. सूती (कॉटन) साफे की पगडी बाँधते, जो कभी-कभी सिल्क की भी होती. कन्धे
पर सादा-रंगीन गमछा, सफेद या हल्के सफेद (ऑफ व्हाइट) या हल्के पीले रंग के पूरी
बाँह के कुर्त्ते पर घुटने से नीचे तक लटकती धोती तथा पैरों में किरमिच का बिना
फीते वाला काला या भूरा (क्रीम) जूता.... सफर का गाढा व स्थायी साथी एक थोडे बडे
आकार का झोला होता उनके पास, जिसमें चौपतकर रखे एक-दो कुर्त्ते व चुनियाई हुई
लुडेरकर (गोलाई में लपेटकर) रखी एक-दो धोतियां होतीं.... झोला यूँ तो हाथ पीछे
करके पीठ पर लटकाये हुए चलते, लेकिन कभी-कभी उसे सोंटे में लटका कर कंधे पर भी रख
लेते. तब उनकी तेज चाल और तेज हो जाती - बल्कि तेज चलने के लिए ही ऐसा करते. झोले
में पीतल की एक छोटी बाल्टी और डोरी होती, जो हर दो-तीन कोस पर कहीं कुएं पर रुककर
मुँह-हाथ धोने और झोले में मौजूद गुड, गट्टा, बतासा, किसमिस में से कुछ खाके पानी
पीने के काम आती.
झोले
के सामानों में बहुत ख़ास यह कि तरह-तरह की औषधियां – छोटी-छोटी गोलियां,
भस्म-चूर्ण तथा आसव की शीशियां...आदि भरी होतीं. कुछ खरबिरैया चीजें
(पत्ते-टहनियां-बीज-चिचुके फल... वगैरह) भी. वे हल्के-फुल्के वैद्य भी थे, लेकिन
‘नींम-हक़ीम ख़तरेजान’ बिल्कुल नहीं. उनकी बतायी-करायी कुछ दवाओं का सेवन मैं आज भी
करता हूँ – बताता भी हूँ अपने लोगों को...और शफा सबको होता है.... इसी का विस्तार
यह कि बीमारों की तीमारदारी व इलाज़ के प्रति पूर्ण समर्पित होते.... बुख़ार में
प्यास बहुत लगती है और हर बीमार को पानी पिलाने के लिए उनके पास किसमिस जरूर होती.
मैं बचपन में 8-9 साल का होने तक बहुत बीमार होता था, जिसे पण्डितजी कोई ग्रह-दशा
बताते थे, लेकिन बाबूजी इतनी सँभाल करते थे कि उनके न रहने पर बीमार होता, तो ‘हम
बाबू किहन जाब’ करके उनके लिए रोने लगता था - याने बचपने के बावजूद उनकी कमी खलती
थी. माँ तो उनकी अनुज वधू थी. खाट के पास आके देख तक न सकते थे – छूके बुखार...आदि
अन्दाज़ने का प्रश्न ही कहाँ था? लेकिन हर घण्टे चौखट पर आके किसी अनाम को
पुकार-पुकार के पूछ्ते थे – “अरे अब कइसन तबियत हौ ‘सरोसती के माई’ (माँ के लिए
उनका स्थाई सम्बोधन – बडी बहन सरस्वती के नाम पर) कै? बुखार कुछ उतरल...”? - याने
पूरा व्योरा पूछते रहते...तरह-तरह की दवाएं तो सबके लिए लाते-देते. ठीक होने पर नीम
की पत्ती डालके पानी गरम करते और मुझे पीढे पर बिठाकर अपने हाथ से नहलाते, बदन
पोंछते...याने इंतहा थी बीमारों की देख-भाल, साज-सँभार की.... और खुद तो जाने
क्या-क्या खाते - धोके, रात भर भिंगोके फिर सुबह उसे हाथ से गार के पीते रहते....
ख़ैर,
उनके मूल भाव घुमक्कडी में मुझे उनके साथ चलने का अनुभव है. मारे लाड के वे
कभी-कभी मुझे साथ ले जाते – प्राय: तब, जब 2-4 कोस जैसी कम दूरी पर आसपास के किसी
यज्ञ-अनुष्ठान या शादी वगैरह में जाना होता. सो, होश सँभालने के बाद बचपन भर उनके साथ
घूमने का ख़ूब मौका मिला, जो उनकी विरासत, तो क्या असर या निशानी के रूप में आज भी
मुझमें मौजूद है - किसी भी वक़्त कहीं भी निकल लेने में और कहीं जाने की योजना
बनाते रहने में.... सर्वाधिक याद है उनके ननिहाल याने अपने अजिअउरे (दादी के
मायके) जाने की, जो हमारे घर से चार कोस पूरब है – भूपालपुर. बाबूजी वहाँ अक्सर
जाते और दस-पन्द्रह दिन तो रहते ही – घर की तरह. उनका वहाँ मान-जान भी बहुत था और
चुहल तो ऐसी होती कि वहाँ किसी बारात में बाबूजी के सर पर अँडसा के पत्ते सहित
डण्ठल का मौर बाँधके दूल्हा बनाया गया था और असली शादी में शादी का स्वांग खेला
गया था. ऐसे हँसी मज़ाक के लिए बाबू का प्रिय शब्द था – दिल्लगी. इसकी अद्भुत सन्धि
भी मैंने उन्हीं के मुँह से सुनी थी – जहाँ तक दिल लगा रहे, वही दिल्लगी – याने
मज़ाक की एक सीमा होनी चाहिए....
इस
तरह जो याद आता है कि बडके बाबू महीने में औसतन 20 दिनों तो घर से बाहर रहते ही थे.
थोडा बडे होने पर जाने के पहले बताते हुए सुनने लगा, पर आने का ठिकाना कभी रहता
नहीं था.... सलूक उनके हथियानसीन अमीरों, बडे-बडे ज़मीन्दारों से थे...तो बडे-बडे
विद्वान- पण्डितों से थे...फिर संतों-फ़कीरों-योगियों-जादूगरों से भी थे. साथ ही तमाम
ऐसे गृहस्थों से भी, जो मुकदमा लडने जिले (आज़मगढ) आते-जाते अपने ‘पुजारी बाबा’ के
घर रातों को ठहरते – पक्षी-प्रतिपक्षी के साथ कभी-कभी गवाहों को मिलाकर छह-छह,
आठ-आठ लोग भी होते, क्योंकि उन्हें बस मिलती हमारे बाज़ार ठेकमा से ही, जो उनके
घरों से 10-12 किमी है और तब पैदल के अलावा न साधन थे, न मार्ग. 8-9 में पढते हुए
मुझे याद है - उनके अंग्रेजी में मिले अदालती काग़ज़ात को अटक-अटक कर पढने और भटक-भटक़र
खींचते-तानते हुए उनके अर्थ –कभी अनर्थ भी- बताने की.... कभी कोई नागा बाबा लोग आते,
तो तीन दिन मेरे यहाँ धूनी रमा लेते. ये इतने गन्दे होते कि उनके पास जाने में घिन
आती, लेकिन बाबू को कुछ पडी न होती – नये गद्दे-चद्दर तक ले जाके बिछा देते, जो
फिर फेंक या उन्हीं को दे दिये जाते. बडी खेती के अच्छी तरह होने के बावजूद पैसों
की छूट न थी घर में. सो, ऐसी बर्बादियों पर कमाने व घर चलाने वाले जयनाथ काका आड
में बहुत चिढते, पर बडे भाई के सामने कुछ कह न सकते थे – भाइयों को जूए में हार
जाने वाले युधिष्ठिर की परम्परा जो थी...!!
एक जादूगर काका तो बार-बार आके हफ्तों रहते.... इन सबकी देख-भाल तो बाबूजी
करते, पर सबके खाने-पीने, माँजने-धोने का इंतजाम माँ को करना ही था.... ये लोग तो
बाबू के रहने पर ही रुकते, पर योगी-वृन्द आते फेरा लगाने, तो बाबू रहें, न रहें, दो
महीने (वैशाख-ज्येष्ठ) मेरी ओसारी में ही अड्डा जमाते. लेकिन ये लोग सिर्फ़ रात को
खाते और ख़ुद अपना बाहर ही बना लेते. सो, हमें उनकी कोई किट-किट न थी. दिन भर तो कई
गाँवों मे घर-घर जाके गाते और जाते हुए कई-कई बोरे अनाज व कई बक्से भर के सामान
ऊँटों या बैल-गाडियों में ले जाते, जो मेरी दालान व ओसारी में रोज़-रोज़ की आमद के
रूप में जमा होते रहते थे.
देहात
में आये किसी नये साधु महात्मा का पता लगे, तो वहाँ पहुँच जाते.... करीब रहकर
उन्हें अन्दाज़ते भी. ऐसे दो पाखण्डियों के रहस्य सप्रमाण खोलने की भी मुझे सही याद
है. एक ने अचानक आकर हमारे स्कूल-कॉलेज वाले गाँव बिजौली में बहुत बडा यज्ञ फान
दिया– 17 दिन चला. पूरा देहात उमड भी पडा. ढेरों चढावा आया – नक़दी और
उपहार-सामान...सब. खूब सफल रहा. बाबूजी एक दो दिनों के अन्दर ही पहुँच गये थे.
महात्माजी लोगों का भविष्य भी बताते थे. ऐसे प्रमाण दे देते थे कि मजमा लग गया था.
लौटने पर बाबूजी ने बताया कि वो सज़ायाफ्ता या भागा हुआ डाकू जैसा कोई बडा मुजरिम है.
अपनी कलाइयों में पडे हथकडियों के निशानों को पूरे समय लिपटी मालाओं में छिपाये
रहता था, जिसे वहाँ रहते हुए नहाने-धोने के समय खोजी नज़रों से बाबूजी ने देख लिया
था. उन्होंने यह भी लक्ष्य किया कि एक दो दिनों पहले की घटनाओं को जानने की कोई
विद्या उसने सीख ली थी, जिसके चलते लोग तुरत विश्वास में आ जाते थे. फिर सबको 20
दिनों से महीने बाद के परिणाम वाले उपाय बताता, क्योंकि तब वह मिलेगा नहीं– और
किसी का होना-जाना कुछ है नहीं. यह सच भी निकला, पर पहले कहते, तो कोई विश्वास न
करता....
इसी तरह हमारे घर से 6-7 किमी पश्चिम स्थित गाँव सोहौली की बडी कुटिया पर
आके किसी संत-महात्मा ने अपने शौच न करने की घोषणा की. खूब मेला लगा. चर्चा सुन
बाबूजी पहुँचे. दो रतजगे में पकडा गया. दो-ढाई बजे की निबिड रात को निकला और जहाँ
आड दबाके बैठा कि बाबूजी ने टोका. पैरों पर गिर पडा. पेट की दुहाई दी. तीन दिन में
सब समेट के भागने का वादा कराके लौट आये. हमारे पूछने पर निरी वैज्ञानिक बात कही–
थाली भर खाते देखा, तो सोचा कि आख़िर इतना सब जायेगा कहाँ...? शौच तो करना ही पडेगा.
फिर तो बस, देखना भर था कि कब और कहाँ...!!
एक
तरफ यह सब था, दूसरी तरफ गाँव से उत्तर स्थित इरनी के बडे जमींदार किसुनदेव सिंह कभी
पुरा काल में बाबूजी को कायम के लिए अपने साथ रखना चाहते थे. तो इधर मेरे देखे में
हमारे गाँव से पश्चिम में स्थित लसडा के ठाकुर रामाश्रय सिंह और ठाकुर वासुदेव सिंह
उन्हें लेने के लिए हाथी भेज देते .... उनके जलवे की बात कहूँ... वे दरवाजे के
पश्चिम सोने-बैठने की बडी जगह में न सोके रातों को आदतन घर के सामने सोते, जो आम
रास्ता था और इतना सँकरा कि खाट के बाद बैलगाडी या हाथी आये, तो निकल न सके....
लेकिन हाथी लेकर आने वाले सारे पिलवान (हाथी हाँकने वाले) अपने इस ‘पण्डितजी’ को
सम्मान वश जगाते न थे. हाथी को आदेश देके उनके सहित खाट पश्चिम की ओर हटवा देते और
चले जाते.... मैंने दस साल की उम्र के पहले ही उनके साथ दस-दस कोस की यात्रा हाथी
पर की है, जो बडी उबाऊ-थकाऊ और त्रासद होती – ऊँट की यात्रा तो कमर ही तोड देती
है....
पूरब तरफ बिजौली के जमींदार बाबू कोमल राय और संतन-संतोषी साहु (बनिया) घर
तक आ जाते, क्योंकि हमारे गाँव की तरफ उनकी ही जमींदारी भी थी.... बडके बाबू के इस
प्रताप का भी फायदा मुझे मिला, जब दर्ज़ा 7 से 12 तक मेरी फीस आधी माफ़ हो जाती,
क्योंकि कोमल राय के बेटे बाबू राम सेवक राय ही मेरे बिजौली विद्यालय के प्रबन्धक
थे और अपने पिता के समय अपने घर में पुजारी-बाबा की साख़ देख चुके थे. कुल मिलाकर
बडके बाबू के ही शब्दों में ‘अपने तौहद (चहुँदिस 15-20 मील) में एक बेला भी रहूँ
एक घर में, तो साल निकल जायेंगे...फिर दुहराने का मौका आ जायेगा’.... याने सालों-साल
घर न आयें, तो भी जीवन चले.... लेकिन घर से भी लगाव उनका कम न था और ‘घर है, तो बाहर
यह मान-जान है, वरना बेघर-बार को कोई न पूछे’, का पता भी था....
ऐसे
व्यक्ति को यायावर, घुमक्कड, फक्कड, साधु...आदि तो कहा जा सकता था, पर उन्हें गाँव
ने ‘पुजारी बाबा’ क्यों कहा होगा, मुझे आज तक समझ में नहीं आया..., क्योंकि ज्यादा
पूजा-पाठ करते तो मैंने उन्हें देखा नहीं– शायद मेरे होश सँभालने के पहले करते रहे
हों.... हाँ, ऐसा एक वाक़या याद ज़रूर आता है कि जब ऐसी बारिश हुई कि हफ्ते भर तक
थमी नहीं. जल-थल एक हो गया था और जीवन ऐसा अस्त-व्यस्त कि जीना दूभर.... संयोगवश
बाबू उस वक्त घर ही थे. गाँव के लोगों -ख़ासकर बडके बाबू के हमउम्रों- ने ललकारा कि
‘क्या पुजारी बनते हो...बारिश तो रोक सकते नहीं’...!! ऐसे चुहल तब होते थे गाँवों
में – बल्कि इन्हीं सबसे गुलजार रहते थे गाँव, जिनकी चर्चा यहाँ आगे भी आती रहेगी
और जिनसे महरूम हो चुके आज के तथाकथित सुखी-समृद्ध व प्रगत कहे जाने वाले गाँवों
के बीच बहुत तडपता है मन.... ख़ैर, तब बाबूजी ने अपने ठाकुरजी को मिट्टी की नयी हाँडी
में डुबोकर रख दिया, जो टोटका या एक तरह का अनुष्ठान हुआ करता था- भगवान को पानी में
डुबाकर बारिश के संकट का अहसास कराया जाता. यह भक्त की तरफ से भगवान को दी गयी
भावात्मक यातना या ‘कै हमहीं कै तोहईं माधव...’ वाली चुनौती जैसा था. कहते हैं कि
इससे बारिश रुक जाया करती थी....
लेकिन
उस बार चार-छह दिनों रुकी नहीं...और बाबूजी में धीरज तो अमूमन था ही नहीं– यही हाल
मेरे पूरे परिवार का है, जिसका ख़ामियाज़ा अपने पेशेवर से लेकर सामाजिक जीवन में भी
मैंने ख़ुद बहुत भुगता है (काश, उदाहरण दे पाता), लेकिन ठाकुरजी के सामने जो भी
थोडा-बहुत धीरज बाबूजी सँजो पाये, वह पाँच-छह दिनों में जवाब दे गया.... फिर तो
क्या था...एक दिन दस-ग्यारह बजे के आसपास गोजी (लाठी) लेकर निकले दुआर पर और लगे
फरी मारने याने गोजी फटकार कर उछलने-कूदने, पैंतरा लेकर आसमान की तरफ देख-देख गोजी
चलाने, जो अंतत: ज़मीन पर ही गिरती.... यह तो सबके लिए हँसी और मनोरंजन का ही सबब
था, पर वे सचमुच बहुत गुस्से में आ गये थे, अपने आप को भूल गये थे. जितना ही फरी
मारते, उतना ही भगवान को भला-बुरा कहते-कहते दो-चार मिनट में अपनी पर उतर आये...
‘दुष्ट-पाजी’
से ‘साले-हरामी’ तक होते हुए भदेस तक पहुँचना ही था. पूरा गाँव जुट गया–
बच्चों-बूढों तक. बारिश में भींगने की परवाह किये बिना...जैसा कि किसी भी वाकये पर
गाँवों में होता है. मेरा कयास है कि 6-7 मिनट तो चला होगा.... और खूब याद है कि न
उनका शरीर वश में था, न ज़ुबान... गनगन काँपने लगा था पूरा बदन और फेंचकुर आने लगा
था मुँह से.... आज समझ पाता हूँ कि मन से सच्चे पुजारी का भगवान को गालियां देना
आसान न था – बहुत मानसिक दबाव (स्ट्रेस) व मन की गहरी पीडा में रहे होंगे !! पर
गुस्सा ऐसा सर्वोपरि था कि सब कुछ भूल जाते– उस मिट्टी में जमे कंकर-ठीकरों वाली
जमीन को भी, जिस पर हवाई उछल-कूद कर रहे थे और लहूलुहान हो चले तलवे-एडी-उंगलियों
को भी. उस वक़्त उन्हें अपना होश न था. लोगबाग पहले चुहल समझ रहे थे, फिर मज़े लेने
लगे थे... लेकिन मामला गम्भीर समझते-समझते कुछ कर पायें, कि तब तक बडके काका सर पे
घास लिये आ पहुंचे. उन्हें देखकर सबको फटकारा- वे जान देने पर तुले हैं, तुम सब
तमाशा देख रहे हो..!! और बडके बाबू की गोजी बचाके उन्हें पीछे से बाँहों में पकड
ही तो लिया. तब तक दो-चार और लोगों ने भी थाम लिया.... बाबूजी का शरीर दस मिनट तक
गनगनाता रहा, लोग उन्हें समझाते और काका उन पर बरसते रहे.... कई दिनों तक बहनें
कडू तेल में चुराके हल्दी-प्याज बाँधती रहीं....
लेकिन
गज़ब की बात यह कि बारिश उसी दिन बन्द हो गयी थी और गाँव के विश्वासु (क्या अन्ध?)
मन ने इसे अपने ‘पुजारी बाबा का परताप’ व पुजारी बाबा को मिला ‘ठाकुरजी का परसाद’
समझा.... दोनो के गुणगान होते रहे कई दिनों तक...लेकिन मज़ा यह भी कि अब लगभग साठ
सालों बाद गाँव में तब के बचे किसी को यह घटना याद नहीं!! क्या इसलिए भूल गये कि
ऐसी घटनायें गाँवों में तब बहुत होती रहती थीं...या इसलिए कि अब ऐसा कुछ होता ही
नहीं...या फिर इस कारण कि अपने रोज़ाना के कामों के साथ ‘गुर-चूँटा’ की तरह पिजे
गँवईं लोगों की स्मृति इतनी स्थायी नहीं होती...!! लेकिन मुझे तो यह घटना कभी भूली
ही नहीं... मौके-बेमौके बहुतों को सुनाता रहा हूँ..., पर यादों में भी उनकी
गालियों से मन खट्टा हो जाता है.... लेकिन जब बतौर विद्यार्थी साहित्य से साबका
पडा और जीवन को देखने की एक अलग नज़र मिली, ‘भाषाओं के वर्गोद्भूत (क्लास
ओरिएण्टेड) होने की सचाई से पाला पडा, तो पाया कि गाँवों में बडे-बुज़ुर्ग लोग
बात-बात में गाली बोलते- अपने घर की औरतों के सामने भी. अभी आज मेरे गाँव में
शब्दश: अश्लील शब्द ‘चूतिया’ सयाने पुरुष-स्त्री अपनी सामान्य बातचीत में एक दूसरे
के सामने बेधडक बोलते हैं. और उन्हें अश्लीलता का भान तक नहीं होता...याने गाँवों
के समाज की भाषा ही यही रही है. धूमिल-काव्य में आये ढेरों शब्द इसी आधार पर
पचाये-समझे गये. बाबूजी का मामला भी यही था फिर भी आज बाबूजी होते, तो मैं चाहता
कि इतनी गन्दी गालियाँ बन्द करें. इससे बचकर भी तो लोक-समाज बन सकता है- बेहतर
समाज.
सो,
पुजारी बाबा के नाम से ख्यात बाबूजी कभी जटा-जूट बढाये दिखे नहीं...उस पीढी में सर
के बाल सबके ही छोटे-छोटे रहते. मेरे गाँव में पुरुषों के लिए कंघी का रवाज ही हमारी
पीढी में आके शुरू हुआ. पीला-लाल वेश कभी धारण किया नहीं. कभी लम्बी पूजा या बडा
पाठ करते दिखे नहीं. पूजा के नाम पर मैंने बस, घर के ठाकुरजी को नहलाते और दोनो
समय भोग लगाते देखा है. जब घर रहते, यह काम वही करते. वरना रुटीन-सा काम था, जो भी
करता, होरसे पर चन्दन (की लकडी) घिसकर ठाकुरजी की मूर्त्तियों को अनामिका उँगली से
गोल टीका लगाता और उच्छिष्ट-स्वरूप ख़ुद को भी. माँ-बहनें अपने गले पर लगातीं और हम
लोग माथे पर.... बडके बाबू इस मायने में
अलग थे कि अपने कलेजे और पेट के सन्धि-स्थल पर ठीक बीच में भी अर्ध चन्द्राकार
चन्दन लगाते, जो उन्होंने अपने अयोध्या-निवासी पारिवारिक गुरु की वसीयत स्वरूप
ग्रहीत कर लिया होगा. क्योंकि गुरु बाबा भी रोज़ लगाते. हाँ, अपने माथे पर बाबूजी चंदन
का त्रिपुण्ड बनाते, जो उनका अपना था और वह उनकी पहचान भी था. यूँ हम वैष्णव लोग
हैं, शायद इसीलिए वे त्रिपुण्ड के नीचे रोली (लाल) की छोटी-सी बिन्दी भी बनाते. पर
थे शिवभक्त. ‘नम: शिवाय’ उनके जीवन का बीजमंत्र था. आज मैं बडा प्रमाण उसे कहूँगा
कि जब भाँग खाके सोते थे, तो भीने-भीने नशे में उन्हें भोले बाबा ही दिखते थे और
वे उसी सुरूर में उनसे चुहल करते थे– अरे भोलेनाथ, आना है, तो साफ-साफ सामने
आइये...ये क्या कि चेहरा दिखा-दिखाके छुप-छुप जा रहे हो...आदि.
मुझे
याद इसलिए है कि कई बार बहुत बचपन में ही मुझे भी भाँग पिला देते और मैं नशे में
सो जाता उन्हीं के पास. तो रात में उनके संवाद सुनके डरने लगता.... भाँग का नशा
वर्जित नहीं है– ब्राह्मणों के लिए भी. व्यवस्था की दाद देनी पडेगी कि नशे भी
धवल-काले होते हैं. बाबू राजसी नशा बताते भाँग को. एक बार शाम को पिलाके लेके चल
पडे भैंसकुर– 4-5 किमी. पर ही है. कोई बडी शादी थी, जिसमें वे आमंत्रित थे. मुझे
अच्छे नाच का लालच दिया. रास्ते में मैं भाँग के प्रभाव में सोने लगा. मुँह धो-ओके,
पानी पिला-विला के देख लिया. कुछ देर कोराँ भी उठाके चले. अंत में हारके एक पेड के
नीचे गमछा बिछाके सुला दिया. 2-3 घण्टे बाद जागा, तो लेके गये. नाच शुरू हो गया था.
मज़ा खूब आया. 4-5 में पढते हुए तक तो मुझे उनके भाँग पिलाने की याद है और छह में
मैं ननिहाल पढने चला गया था. फिर उसके बाद छूट गया– शायद मैं भाग खडा हुआ. वे ख़ुद
तो रोज़ पीते- यायावरी वृत्ति की पूरक है. भँगेडी तो वे पूरे थे. भांग के लिए उनका
अलग सिल-लोढा बाहर ही होता था. अपने लिए तो प्राय: वे एक बार ही महीने भर के लिए पीस
के गोलियां बनाके, सुखाके रख लेते थे. कहीं भी रहें, गुड के साथ खाके पानी गटक
लेते थे – लोटा ऊपर करके गरदन पीछे लटका के बिना मुँह लगाये पानी पीने की उनकी सधी
आदत थी. लेकिन जब कोई साथी-दोस्त होते थे, तो बाबूजी ताज़ा भाँग पीसते और बादाम
वगैरह के साथ विधिवत.... यह उन्हें पसन्द था. ऊपर के कपडे निकाल देते और धोती
खुँटिया के तल्लीनता से पीसने पिल पडते. देर तक पीसते – बार-बार लोढे से आगे-पीछे
करके फेटियाते. कहते कि नशा भाँग में नहीं, उसकी पिसाई में है. और बचपन में मुझे
बडा मजा आता, जब वे सिल पर से भाँग कटोरे में ले लेने के बाद सिल धोते थे. लोढे को
सिल पर खडा रखके उस पर पानी गिराते हुए मंत्र की तरह दोहा बोलते- सस्वर और बुलन्द
आवाज में, जिसे सुनने के लिए मैं देर तक वहाँ इर्द-गिर्द खेलता रहता और बोलते हुए
सामने खडा हो जाता – ‘गंग-भंग दो बहिन हैं, रहें सदा सिव संग. मुर्दा तारन गंग हैं
कि जिन्दा तारन भंग’..
जिस
शाम मुझे पिलाते, सुबह माँ से उनकी कहा-सुनी भी खूब होती. पर बडा होने पर मैं जान
पाया कि यह उनका प्यार था, जो अपना सर्वोत्तम वे अपने सबसे प्रिय (मुझ) को देते थे.
फिर भी माँ तो उनसे अधिक ही सही थी– एक बच्चे के जीवन का सवाल था. खुद बडके बाबू
भी अपनी इस आदत के लिए हमारी दयादी के अपने हरिहर काका को जिम्मेदार ठहराते, जो
अच्छे विद्वान और सच्चे भंगड थे. उन्होंने अपने घर के पीछे के अहाते (बाउण्ड्री)
में भाँग का एक पौधा भी लगा रखा था, जो हमारे बचपन तक था. जब कभी एकदम भाँग न
होती, बाबू हमें भेजते– ‘चुपके से कहना संतिया (शांति) से’. ये शांति उस घर की
हमारी बडकी काकी थीं– उसी हरिहर बाबा की बडी बहू. हम जाते, तो वे अहाते में जाके मिट्टी
की एक बडी हौदी को थोडा-सा उठातीं और अन्दर से तोड के पत्ते में पुडिया बनाके दे
देतीं. इस बाबा का बहुत बडा चेलाना था, जिसमें वे पूरे साल भ्रमण करते थे. और बडके
बाबू अपनी किशोरावस्था में मज़े-मज़े में उनके साथ हो लेते.... इस तरह घुमक्कडी और
भाँग की आदत धराने में उनका प्रमुख योगदान रहा.... बहुत बार जब पैसों की किल्लत
होती, बाबूजी कोसते भी बाबा को – ऐसी आदत धरा के अपने तो ठाट से रहा और चला गया,
मुझे मरने-तडपने के लिए छोड गया.... और ऐसे में अपशब्दों का प्रयोग तो उनकी आदत ही
थी. लेकिन जब स्वस्थ मन से बात की रौ मे होते, तो मानते- ‘उन्होंने मेरे मुँह में
ढरका (बैलो को पिलाने का साधन) तो दिया नहीं था – मेरी ही मति मारी गयी थी. अरे,
बचवा ई भांग-सुर्ती न पीता-खाता, और इतने सब पैसे रखता, तो अठन्नी-चवन्नियों (जिसके
जुगाड में वे हमेशा लगे रहते...) से अब तक पूरा घर भर गया होता’....
भाँग
के साथ सुर्ती (सूखा) की भी बडी तगडी आदत थी उनकी. तब तो हमारी तरफ ‘पत्तहिया
सुर्ती’ ही चलती - एक-डेढ फिट की डण्ठल में लगे मटमैले रंग के सूखे पत्ते वाली. उसका
मिलना धीरे-धीरे बन्द हुआ और तब कच्ची के रूप में कटुइया सुर्ती का चलन चला.... महाराष्ट्र
में शायद पहले से कटुइया ही चलती थी. अस्तु, अपने मुम्बई रहते हुए एक-दो किलो मैं
हर दूसरे-तीसरे महीने भेज देता. इस तरह अठन्नी-चवन्नियों के जुगाड से बाबूजी मुक्त
हो सके... और तब तक तो अठन्नी-चवन्नियां भी जाती रही थीं.... अपने सुर्ती खाने पर
भी बाबूजी कभी कोफ्त करते – ‘बडी बुरी चीज़ है ससुरी... कितना भी बडा रईस हो, हाथ
फैलाने से बच नहीं सकता...’. रवाज है कि सुर्ती बनाने वाला आसपास बैठे हर आदमी को
पूछता है और खाने वाला लेने के लिए हाथ फैलाता ही है. बस, हमारे पडोसी बिसराम दादा
अपवाद थे. उनसे पूछो, तो कहते अभी खाया है और माँगो, तो कहते– है ही नहीं. अपनी इस
‘ऊधौ का लेना, न माधव को देना’ की वृत्ति के लिए वे काफी कुख्यात भी थे. लेकिन
सुर्ती के रसिया पूरे गाँव में तब बहुतेरे होते थे, जिनमें बाबू के ख़ास सुर्तिहा
यार दो थे– अपने घर से पूर्वोत्तर दो-तीन घर दूर बासू दादा (मौर्य) और घर से सटे
पश्चिम में बेचन बरई.
बासुदा
सुर्ती खाने आते भी थे बाबू के पास और बाबू के पास न हो, तो ये उनके पास से मँगाते
भी थे. दोनो हमउम्र थे, तो दोनो में खूब छनती.... खुर्पा-खाँची लेके घास के लिए निकलते
बासू दादा, तो मेरे दरवाजे पर रुक जाते - जिन दिनों बाबू घर रहते. दिखाने के लिए
तो मटर-अरहर दलने की मेरी टूट गयी चक्की के उपल्ले वाले पत्थर पर रगडकर अपना
खुर्पा चोखारते (धार तेज करते), जिस पर ऐसा करने पूरा गाँव आता और झट से करके चला
जाता, लेकिन बासू दादा आधे घण्टे तो रोज़ ही रुकते और इस दौरान दोनो में एक ही चुहल
होती.... बतौर उदाहरण, देखते ही एक कहता– अरे खिलाओ सुर्ती, क्या लेके जाओगे अपने
कफन के साथ...? तो दूसरा कहता – इस फेरे न रहना, तुम्हारी तेरहवीं की पूडी खाके ही
जाऊँगा...और यही ‘सुर्ती से तेरहवीं की पूडी खाने-खिलाने की’ दिल्लगी तथा
हाहा-हाहा रोज़ होती, जिससे वे दोनो तो नहीं ही ऊबते, हम सुनने वाले भी रोज़-रोज़
समान भाव से मज़े लेते– बल्कि जोहते कि कब यह चुहलबाजी शुरू हो...क्योंकि उनके तेवर,
भाषा और लहज़े रोज़ बदलते रहते– इसे सबसे अधिक पुनर्पुर्नवा कर देती – उनकी दोस्ती
की लताफत से लबरेज़ कहने-सुनाने के दोनो के उत्साह और उमंग.... लेकिन जब बासूदादा
मरे और ख़बर पाकर बाबू कहीं से तेरहवीं में आ ही गये. तब तक मैं गाँव के आयोजनों में
खाना बनवाने-खिलाने जितना बडा हो गया था. देखा था कि खाते हुए बाबू खाने से ज्यादा
रोये जा रहे थे...और उनके भाव के अभाव को गिनाते हुए बिलख रहे थे. ऐसे निश्छल अपनापे
और निस्वार्थ सम्बन्धों से अब रिक्त हो गये हैं गाँव....
भाँग
तो बाबूजी मुझे स्वयं पिलाते, लेकिन धुर बचपन में सुर्ती के लिए एक बार मैंने ज़िद
की थी. वे मुझे कोंरा में लिये नहाने-नहलाने पोखरे की तरफ जाते हुए सुर्ती मलते जा
रहे थे. मैं छरिया गया- ‘तू खाल्या, त हमके काहें ना खिअवत्या? हमहूँ खाब’ (आप
खाते हैं, तो मुझे क्यों नहीं खिलाते? मैं भी खाऊँगा). और उन्होंने ना-ना करते हुए
भी मस्ती में हँसते हुए सरसो भर मुँह में डाल दिया...और मैं बेहोश..., क्योंकि
कूचके घोंट गया. नहा रहे सारे लोग घिर आये. कोई मेरा सर-मुँह धोने लगा, कोई
हाथ-पाँव.... बाद में सुन पडा कि बाबूजी पहले हिलाते-जगाते रहे, फिर दो-चार ही
मिनटों बाद रोने लगे थे- ज़ोर-ज़ोर से विलाप कर-करके.... यह रोना पश्चात्त्ताप वश उनके अंतस् से था, पर वैसे उनकी
आदत भी थी – बात-बात में रो देते थे....
और
उनकी एक बडी ख़ासियत थी कि रोना उन्हें नकली भी आता था. इसका वे बहुधा उपयोग
लडकियों की शादियां ठीक कराने में करते थे, जो उनकी घुमक्कडी के गौण उत्पादन के
रूप में सिद्ध होने वाला एक बडा प्रयोजन था.... कितनी शादियां करायी होंगी
उन्होंने यूँ ही बात-बात में, जिसकी कोई गिनती नहीं.... मेरे ननिहाल के पडोसी
डिप्टी नाना (हरबंस सिंह) की अत्यंत दुलारी पोती चम्पा का व्याह अपने गाँव के लडके
राणाप्रताप से करा दिया. डिप्टी नाना पुराने रईस थे. कुछ दिया नहीं, जिसे लेकर देबिया
बहिनी (प्रताप भइया की बडी बहन राजदेवी सिंह) ने दाना भुँजाते हुए भडभूजे की
भरसाँय में मेरी माँ से खूब कहा-सुनी की थी. एक वाक्य मुझे अब भी याद है – ‘कंगन
झुलावत चलि आयल हमार सोना एस भाई, उन्हन के ए ठे घडियो मवस्सर ना भइल...!! (मेरा
सोने जैसा भाई हाथ में कंगन झुलाते चला आया, उन सबों को एक घडी देना भी मयस्सर
नहीं हुआ...!!) वह ननिहाल की मेरी ‘बहन चम्पा’ यहाँ आकर ‘चम्पा भाभी’ हो गयीं. बहुत
दिनों तक तो बडा घपला रहा, पर धीरे-धीरे अनकहे रूप से यहाँ भाभी वहाँ बहन पर
समझौता हो गया. दोनो रूपों में हमारी बहुत अच्छी छनी और निभी. संयोग से चम्पा
भाभी-बहिनी ने जब अंतिम साँस ली, सिर्फ़ मैं ही मौजूद था. तब मैं काशी विद्यापीठ
में आ गया था और उनके बेटे सुनील ने अपनी मरणासन्न माँ को इलाज के लिए मेरे
सुपुर्द कर दिया था.
शादी
कराने में बाबूजी के लिए जाति-पाँति, छोटे-बडे का कोई भेद नहीं होता. किसी
ठाकुर-ब्राह्मण के घर काम करने वाले मज़दूरों के लडके दिख जाते, और उस उम्र की किसी
अन्य मज़दूर जाति की लडकी उनके ख्याल में रहती, तो झट बात चला देते और मिल-मिला के
डॉट-डपट के करा देते. यही काम बडों में रोके कराते...गरीब सवर्ण की लडकी की शादी
के लिए कोई अमीर बाप हीला-हवाली करता, अनुनय-विनय से न मानता, तो उसके दरवाज़े
भूख-हडताल की धमकी दे डालते.... धर्म-भीरु हुआ, तो स्वर्ग-नरक का भय दिखाते और
जहाँ देखते कि ऐसे किसी हथकण्डे से काम बनने वाला नहीं, तो आंख में आँसू भरकर अपनी
मज़बूरी, लडकी के अभागी और लडकी के बाप के पूर्वजन्म के दुष्कर्म...आदि को लपेटकर
रोने का ऐसा छछन्न (पाखण्ड) रचते कि विवश दयार्द्र होकर सामने वाला ‘हाँ’ कर ही
देता.... और वे तुरत आँसू पोंछके हँसने-असीसने भी लगते. देखी-सुनी कुछ कुरूप या
अनदेखी-अजानी लडकी के भी रूप-गुण की ऐसी अकुण्ठ तारीफ करते कि वह अनिन्द्य रूपसी व
सर्वगुण सम्पन्न कन्या हो जाती. बाद में चाहे जितने झोंकारे सुनें.... बडे होने पर
मैंने बार-बार इस काम के लिए टोका– क्या मिलता है झूठ बोलके...? उनका एक ही जवाब
होता – ‘लडकी बेचारी सुठहरे पहुँच गयी न...और क्या चाहिए? पुण्य का काम है. इसमें
झूठ-साँच कुछ नहीं होता.... अरे, कुछ दिन ‘नराज’ रहेंगे, फिर ठीक हो जायेंगे....
फिर जायेंगे कहाँ...उनकी भी तो बेटी है, झख मारके आयेंगे’...आदि-आदि. कई जगहों से
जिन्दगी भर उलाहना सुनते रहे, पर उन पर असर नहीं.
वह
जमाना ‘डोली आती है, अर्थी जाती है’ का था. मुहावरा आज भी है – ‘भयल बिआह मोर करबे
का’, पर मर रहा है. लेकिन बाबूजी की उसी युग में निकल गयी. कुल मिलाकर सचमुच
नाम-पुण्य ही मिला. इस पुण्य और अपने प्रिय ‘नम: शिवाय’ के प्रताप का वे एक परथोक
(सप्रमाण उदाहरण) भी देते – किसी लडकी की शादी देखने जाते हुए नौका से नदी पार कर
रहे थे...और तूफान आ गया. नौका भँवर की ओर बढने लगी. मृत्यु निश्चित मानकर भी ‘नम:
शिवाय’ जपने लगे और भँवर के पास पहुँचने के ठीक पहले तूफान ने अपनी दिशा बदल दी...
नौका किनारे की ओर लग गयी. ये उस जमाने के विश्वास थे– मूल्य भी कह लें.
सूर-तुलसी...आदि भक्त कवियों में ऐसे अनेक प्रसंग सुलभ हैं.... शादी कराने वाले ऐसे
लोग आज भी हैं. डिग्री कॉलेज की अध्यापकी छोडकर इसी समाज-कार्य में लग गये एक
ठाकुर साहेब से मैं अभी दो महीने पहले ही मिला वाराणसी जिले में नियार के पास. इसमें
कुछ लोग आज पेशेवर जैसे भी हो गये हैं, जिन्हें कुछ मामूली खर्च भी दे दिया जाये,
तो ले लेते हैं...पर बाबू के उस युग में ऐसे कुछ का नाम तक न था, बल्कि यह सब हराम
था....
ऐसे
घुमंतू बाबूजी का घरेलू जीवन भी कम स्पृहणीय नहीं. यायावरी के लिए गृहस्थी न
बसायी, पर घरेलू बने रहे.... मुझे सबसे अधिक याद आती हैं बडके बाबू की विदीर्ण
कराहें और धारासार आँसू, जो उन दिनों हम सबके दिल दहला देते.... करुण क्रन्दन की
सुमिरनी बना उनका विलाप आज भी यूँ आँखों के सामने है, गोया कल की ही बात हो - ‘मेरे
जैसा अभागा कौन होगा कि इन हाथों से चार भाइयों की अर्थी उठायी और पिता-माता तथा
तीन-तीन भाइयों को मुखाग्नि दी...लेकिन मुझे मौत नहीं आयी...’. जी हाँ, मेरे पिता आठ
भाई थे, जिनमें सबसे बडे थे सुमेर, दूसरे नम्बर पर थे कुबेर – यही बडके बाबू, इस
लेख के नायक. फिर यह तुक बदला, तो नाथ आया – तीसरे दूधनाथ, फिर विश्वनाथ-राजनाथ व
पहले वाले सुमेर ...बचपन में ही काल-कवलित हुए, जिनकी अर्थी को कन्धा दिया बडके
बाबू ने. बाद में अपने पिता (पण्डित रामदीन) व बडे पिता (पण्डित नारायण) एवं अपनी
मां (कुलवंता देवी) के दाह-संस्कार किये. शेष बचे तीनो भाइयों में भरी जवानी में
मरे मेरे पिता रामनाथ व उसके दस साल बाद सबसे छोटे शालिग्राम और उक्त क्रन्दन बडके
काका जयनाथ को मुखाग्नि देने - दाह करने के बाद क्रिया-कर्म के दौरान के हैं. तब
मैं दसवीं में था. इस आख़िरी भाई की मौत से बडके बाबू सचमुच बहुत टूट गये थे, बहुत
अकेले हो गये थे...फिर भी उनके कलेजे की बलिहारी...!! 17 साल जीवित रहे.... मेरे नौकर
होने का यत्किंचित् सुख उन्होंने ही देखा...
घर
के पीछे का हिस्सा वैसा ही पक्का हो गया देखा, जैसा उन चारो भाइयों ने कच्चा
बनवाते हुए कल्पित किया था. सिलाप (स्लैब) लगते हुए उन्हें ऊपर ले गया, तो जितनी
हसरत से कहा था... ‘बचवा, ई त पूरा गँउयें लौकत हौ...!!’ उतना जुडा गया था हमारा
भी जी....
चकबन्दी
हुई. सारे खेत के बदले दो जगह नये खेत मिले.... अच्छा चक पाने के लिए खूब घूस चली
- बडे जुगाड लगे...और हर तरह से हीन 11वीं में पढता मैं कुढ-कुढ कर रह गया..., पर
कुछ संयोग ऐसा बना कि खेत अच्छे मिल गये.... चकबन्दी के बाद पहली ही फसल की सिंचाई
हो रही थी कि बडके बाबू कहीं से घर आये और खेत में पहुँच गये.... चारो तरफ नज़रें
घुमाके ध्यान से निहारने के बाद एक बरहे (सिचाई के लिए खेत के बीच-बीच में बनी
नाली) में मुरकुइंया (घुटने मोडके पंजे-तलवों के बल) बैठ के अघाते स्वर में बोले
थे – ‘एइसन खेत मिलल हौ बचवा कि घर भरि जाई मारे अनाज के’!! छोटी छोटी बातों पर
किसान की ऐसी बडी-बडी खुशियां...आज इतना कुछ होने पर भी जाने कहाँ खो गयी हैं ...!!
दो-दो
कुर्त्ते-धोती –अक्सर यजमानी से मिले हुए - से ज्यादा कभी देखा न था बाबू-काका के
पास और न कभी महसूस होते दिखी उन्हें अधिक की ज़रूरत...किंतु चेतना कॉलेज, मुम्बई में
पढाते हुए ‘फिनले’ मिल की बनी तरह-तरह की धोतियां और अद्धी, मलमल, सिल्क व ऊनी...
आदि कुर्त्ते एक-एक करके लाता, तो बडे चाव से चौपत के अपने झोले में रख लेते -कभी
ना नहीं कहा. क्या ‘जानत हौं चार फल चार ही चनक के’ वाले बाबा तुलसी के मौका मिलते
ही विपुल किस्म के व्यंजनों के वर्णनों जैसा कुछ दबा-तुपा था उनके भी मन में...या
मेरा मन रखने के लिए ना नहीं कहते...मैं कभी समझ न सका...पर मौके-मौके से पहन के
चलने में कुछ अलग-अलग से लगते थे बडके बाबू.... ख़ैर, आयें अपनी बात पर...
इतनी
विपत्ति झेलने वाले बडके बाबू को अपने जीतेजी बडके काका व मेरे पिता (सबसे छोटके
काका भी तो पहलवानी व आवारगी में घर से दूर ही रहे) ने अपने इस बडे भाई याने मेरे
बडके बाबू को कभी ‘तिरुन उसकाने’ (तृण तक छूने) नहीं दिया – बाबा तुलसी की कौशल्या
की भाषा में – ‘दीप-बाति नहिं टारन कहेऊँ’.... इसका पता हमारी पूरी दुनिया को था
और बडके बाबू को सबने इसी रूप में मान भी लिया था. और इसी से माँ को लगा होगा कि
अब आख़िरी वक़्त में इनके कन्धे पर जूआ क्या रखा जाये...!! लिहाजा तभी से खेती व घर
के सारे काम में मुझे लगाने लगी.... शव-दाह से लेकर सारे क्रिया-कर्म तो बडके बाबू
के हाथों ही सम्पन्न होने थे, पर आयोजन-प्रबन्धन का काम माँ की देखरेख में मुझसे होता
रहा.... फिर भी काम-क्रिया खत्म होते ही बुवाई के लिए पहली बार खेत में पानी चलाना
हुआ और मज़दूर के आने में देरी होते देख बडके बाबू ने नाली सुधारने के लिए फावडा
उठाना चाहा...जिसे उनके हाथ से छीन कर जब मैं मिट्टी हटाने लगा, तो ‘यह दिन भी
देखना बदा था मुझे’... कहते हुए वे पछाड खाकर नाली में गिर पडे थे.... कारण यह कि मैं
तो घर का एकमात्र बच्चा (बेटा) बडके काका के राज व माँ तथा दो बडी बहनों की
छत्रछाया में इतना दुलरुवा कि फिर बाबा के शब्दों में कहूँ, तो ‘जिअनमूरि जिमि
जोगवति’ का परमान था.... इसमें इन बडके बाबू की शह भी होती, जब वे घर रहते.... और
ऐसा मैं...फावडा लेकर खेत में काम करूं...!! उनसे देखा न गया....
ग़रज़
ये कि हमारे बडके बाबू निजांगर या अकर्मण्य न थे, बल्कि सम्मानित दुलरुवे थे,
जिसका उदात्तीकरण उनकी सधुक्कडी व पुजारीपने में हो गया था, जिसके बिस्मिल्ला का
अन्दाज़ा लगाना मुश्किल नहीं.... असल में चार बेटों के मरने से त्रस्त बडके बाबू के
पिता अपने बचे हुए एक बच्चे (बडके बाबू) को कितनी छूटें व लाड देते होंगे, क्या
बताने की चीज़ है!! फिर दादाजी अपनी गृहस्थी व यजमानी (जो तब बहुत बडी थी) में इतने
व्यस्त भी रहते... उनके बडे भाई थे दोनो आँखों के ‘सूर’.... सो, इस सूरतेहाल में उन्मुक्त
बडके बाबू का बचपना आवारग़ी में बीता – शब्दश: निरक्षर रह गये वे. मौके-मौके से ख़ुद
पर ही कुढते– ‘पढने की बेला थी, तो स्कूल से भागके अठरहवा (अठारह छोटे बगीचों को
मिलाकर एक बडा बागीचा) में साहु लोगों की गाडी पर भेली लादता था, आज भोग रहा हूँ...’.
इसके बाद किशोरावस्था में अपने उक्त हरिहर काका एवं कुछ अन्य साधु-सवाधुओं का
साथ...इधर घर के काम-काज का जिम्मा सँभाल लिया था मेरे पिता ने.... फलत: बडके बाबू
को न खेती का काम आया, न यजमानी का. लेकिन अपने मन-माफिक करते वे दोनो.... यजमानी
के लिए तो उनका वही ननिहाल काम आया, जहाँ वे बहुत जाते व रहते.... उनके बडे भाई (मामा
के लडके) पण्डित राम बिलास तिवारी व्याकरण के ठीक-ठाक विद्वान भी थे और प्राइमरी
विद्यालय के दबंग अध्यापक. उन्होंने इन दोनो गुणों के सहारे बाबू को सिखाया. उनकी बडी
यजमानी थी, जिसमें मदद लेने का सदुद्देश्य भी था. लिहाज़ा डाँट-डाँट के और बोल-बोल
के संकल्प, होम के मंत्र, सत्यनाराण व्रत-कथा की पूरी पोथी, अभिषेक एवं कुछ मशहूर
मंगल श्लोक...आदि रटा दिये थे. और फिर तो अपने अति विश्वास के साथ बाबूजी अनपढ
इलाकों (जो तब अधिकांश थे) में कोई भी किताब लिये धडल्ले से कथा बाँच आते थे. छोटे-मोटे
होम-पाठ...आदि करा लेते थे.
पैसे भी घर लाके काका को देते थे. एक बार जहाँ कथा
बाँच रहे थे, वहाँ कोई पढा-लिखा लडका रिश्तेदारी में आया था, जिसने उस दिन इनके
हाथ में पडी किताब पढ ली थी- गानों की थी. पूछ भी बैठा, लेकिन बाबू ने वो डाँट
पिलायी कि सारे यजमान उसी को गलत मानकर वहाँ से हटा ले गये.... यह सारा वाक़या करुण
व हास्य का ऐसा सम्मिलन है कि तब सहते बनता नहीं था, पर आज कहते जरूर बन गया.....
इसी
तरह खेती के काम में अनाडी होने के बावजूद वे खडी फसल काटने के बेहद शौकीन थे....
जब घर होते, हँसिया लेकर पूरा सिवान घूम आते और जो खेत काटने लायक हो गया होता,
उसे काट के गिरा देते. फिर घर आके कहते – ‘जैनाथ (बडे काका), चेता पर उत्तर वाले
खेत का धान हो गया था. काट दिया है. जाके उठा लाना’. लेकिन काटने के जज़्बे में कभी
कुछ कचखर फसल भी काट देते, जिसे लेकर जैनाथ काका को आड में भुसुराते व शिकायत करते
हुए मैंने सुना था. इसलिए अपने समय में उनके आते ही मैं आगाह कर देता– ‘बाबू, अगर
काटियेगा, तो लम्बी वाली चक के दक्खिनी तरफ वाला. बाकी सब अभी कच्चा है. या काटना
हो, तो पन्द्रह दिनों बाद आइयेगा, अभी कुछ हुआ नहीं है’. वे मन में मसोसते, पर मान
भी जाते.... खेती का एक और उपयोग भी वे करते, जो शायद न तब कोई पुरुष करता था, न
आज करने की स्थिति रही. रबी (जौ-गेहूँ-मटर-चना) की फसल में खेतों से जाके बथुआ
खोंट लाते, चने के पौधे से कोमल पत्तियां कुपुट लाते और घर के अन्दर जाके धोती के
फाँड से किसी डलरी में गिराते हुए माँ से कहते – सरोसती के माई, इहे काटि के बनावा
त आजु.... फिर जोडते – मक्के का आटा हो, तो लिट्टी (तवे के बाद सीधे आग पे सिंकी
हुई मोटी रोटी) बना लो – मज़ा आ जाये जौन बा तौन से. यह ‘जौन बा तौन से’ उनका तक़िया
कलाम था, जिसे ‘जो है, सो’ कह सकते हैं. खेतों से शाक लाने का यह काम वे
रिश्तेदारियों–बहन की ससुराल जैसी नयी नताई- में भी करते और बाहर से चिल्लाके कहते
– सरोसती (सरस्वती) बेटा, खेत से यही चना-बथुआ लाया हूँ, बनाओ तो आज झन्नाटेदार
शाक.... मतलब यह कि वे व्यवहार में ढीठ (बोल्ड) और खाने के शौकीन थे – ‘ये बेबाक़ी
नज़र की, ये मुहब्बत की ढिठाई है’.
लेकिन
खाना बनाने के भी उस्ताद थे. हमारे यहाँ ब्राह्मणों को खाना बनाने अक्सर आता है.
कहावत है कि अकबर के ‘पीर-बवर्ची-भिश्ती-खर’ माँगने पर वीरबल ने ब्राह्मण पेश कर
दिया था. ये लोग अपनी रिश्तेदारियों के अलावा किसी अन्य (जाति) के घर खाते नहीं थे.
इसलिए जहाँ भी जाते, अहरा फूंक दिया जाता– गोहरी (उपले) को गोल आकार में जोरिया
(जोड) के बीच में आग रख दी जाती और उसी पे मिट्टी की हण्डियों (यही ‘हण्डी दाल’
वाली) में दाल-भात बनता. याने किसी के बर्तन में भी न खाते. भाजी की जगह आलू-बैगन
आदि उसी आग में भूनकर चोखा (भुरता) बना लिया जाता और रोटी की स्थानापन्न होतीं
भौरियां, जो बाटी के नाम से आज प्रचलन (फैशन) में हैं – ‘बाटी-चोखा’, ‘दाल-बाटी’
नाम से होटेल खुले हैं और बाटी-चोखा के भोज (पार्टियां) दिये जा रहे हैं. यह भी आज
एक संस्कृति के रूप में विकसित हो रहा है, लेकिन तब तो ‘अहरा लगाने’ या ‘अहरा
दगाने’ की पूरी संस्कृति थी. बारातों में ‘कितने लोगों का सिद्धा (राशन) चाहिए’ या
‘कितने नौंहडिया (नव हण्डिया – नयी हण्डी वाले) हैं’, पूछने-देने का अनिवार्य चलन
था. बारात में गये गाँव-देहात के ब्राह्मण तो सब नौहंण्डिया होते ही, कुछ और लोग
भी व्रती-नेमी (व्रत-नियम वाले) होते.... कुछ शौकिया भी इस खाने में अपना नाम
जुडवा लेते, क्योंकि अहरे का भोजन होता है बडा मीठा – मीठा याने स्वादिष्ट.
और
बडके बाबू इसमे थे एकदम कुशल. पचासों का खाना झट-पट बना-बनवा लेते. सारे काम में मदद
करने वाले नाई-कहाँर...आदि होते. ऐसे जिस आयोजन में बाबू होते, यह काम वही
करे-करायेंगे, अलिखित रूप से तय होता और वे करते भी सहर्ष. ऐसे ही एक बार कहीं खीर
बना रहे थे. मात्रा ज्यादा व बटुला बडा था. तब औज़ार ज्यादा होते न थे. हस्तचालित
(मैनुअल) ही होते काम. सो, सिर्फ़ हाथ में कपडा लेकर गरदन से पकड-उठा के उतारते हुए
बटुला हाथ से छूट गया और सारी खीर घुटने से गरदन तक उछलकर चिपक गयी. मुँह बच गया
संयोग से और कमर-जाँघे खुँटियाई हुई धोती के कारण. लाल-लाल झलके ऐसे पडे कि देखे न
जाते थे. बडी पीडा हुई, बहुत दुख सहे बाबूजी ने. तीन महीने इलाज हुआ. सबकी बीमारी
में बाबूजी ने जान-परान दिये थे. अब तो हम खूब संज्ञान थे. मैंने और बहनों ने खूब
सेवा की – बडे मन से. माँ छू नहीं सकती थी, पर हमें निर्देश देने के लिए सदा मौजूद
रहती और जरा भी चूक होते देखकर जोर से डाँटती....
बहरहाल, बाबूजी की पाक-कला की बडी ख्याति थी. उक्त उल्लिखित जमींदार
किसुनसेवक सिंह यदि बाबूजी को अपने यहाँ स्थायी रूप से रखना चाहते थे, तो उसके
पीछे वक्त-बेवत इच्छा मुताबिक स्वादिष्ट भोजन का भी एक बडा उद्देश्य निहित था. लेकिन
बाबूजी ऐसे मोह में फँसते नहीं थे कभी – साफ निकल जाते थे – घर से भी.... इसी क्रम
में जिन दिनों माँ घर न होती और वे होते, तो खाना बनाने का जिम्मा अपने सर खुद ले
लेते और रोज़ कुछ नया-नया, नये तरह का बनाते. और माँ कई-कई बार लम्बे समय के लिए
नहीं होती थी, क्योंकि नानी ने अपनी सारी सम्पत्ति माँ के नाम कर दी थी, तो उसे
नानी को सँभालने के लिए वहाँ रहना पडता था. उन दिनों बाबूजी प्राय: घर रहते और रात
का खाना सूरज डूबते-डूबते बना लेते. फिर गरम-गरम खाने-खिलाने के चक्कर में शाम को
ही खिला देते.... खाते हुए हम यही सोचते कि काश, बाबू ही रोज़ खाना बनाते..., पर
माँ भी यहीं रहती...की कामना भी करने लगते, जो होना न था – ‘दोउ कि होंहिं इक संग
भुवालू’ – माँ के रहते खाना बाबू बनायें!!
जिस
बात से मैं अब तक बच रहा था, उससे अब और त्राण नहीं – बाबूजी के गुस्से और झगडे
से.... संसारेतर (भगवान) से उनके गुस्से व झगडे की बानग़ी तो शुरुआत में ही आ गयी,
फिर उसका संसारी रूप कैसा होगा...!! उसी दौर की घटना है. तब जनसंघ और कांग्रेस का
मुक़ाबला रहता था. हमारी पट्टीदारी के एक भाई थे - रामाश्रय. थोडे नेता, थोडे
चिल्बिल्ले.... उन्हीं के चलते हमारा खानदान कंग्रेसी था और ठकुरान जनसंघी. एक दिन
जमुना काका (ठाकुर) सायकल लिये आ रहे थे और रामाश्रय भाई ने छेड दिया– कांग्रेस
जीत रही है. छेड का जवाब जमुना काका ने भी दिया– जनसंघ जीत रही है. लेकिन उनकी आवाज
बहुत-बहुत तेज थी. जब वे भर हाँक गोहरा कर याने पूरे गले से चिल्लाकर अपने मज़दूर
को बुलाते - परदेसी होओओओओ ...., तो स्कूल जाते हुए हमें ढाई किलोमीटर दूर केदलीपुर
तक सुनायी देता. उनकी इस प्रकृति पर ध्यान न देकर बाबू को लगा कि उनके पोते
(रामाश्रय) को दबा रहे हैं जमुना काका. और वे यहाँ अपनी ओसारी से चिल्ला पडे– ‘अरे
देख लूंगा तुम्हारी जनसंघ को...कैसे जीतेगी? मुझसे बात करो’. कम तो जमुना काका भी न
थे- ठाकुर ही ठहरे. बात-बात की बतबढ होती रही और वे अपने घर पहुँचकर सबको बोले –
‘उठाओ सब जन लाठी, चलो- कुबेर पण्डित अपने खानदान को लेकर लाठी के बल कांग्रेस को
जिताने आ रहे हैं’....
इधर
रामाश्रय भाई तो दरवाज़ा बन्द करके घर में छिप गये. लेकिन पगडी बाँध के लाठी लेकर
बाबू अकेले फरी मारने लगे – ‘देख लूंगा आज – हो जाये वारा-न्यारा...’. बता दूँ कि
मेरे दोनो काका पहलवान थे – छोटे काका तो नामी पहलवान थे, जो मुम्बई तक जाते थे
दंगल मारने. दोनो अच्छी लाठी भी चलाते थे, लेकिन संग-साथ के चलते किशोरावस्था में
बाबू भी हल्के-फुल्के लठैत रहे थे. उन दिनों कुछ मामले आ जाते थे, तो दिन-समय तय
करके दो समूहों में लाठी-युद्ध होता था. रुद्रजी की ‘बहती गंगा’ में इसके साक्ष्य
मौजूद हैं. तो बाबू की वो वृत्ति ताव आने पर उछाल मारती थी. और डर नाम की चीज़ तो उनके
अन्दर थी नहीं. बात-बात पे कहा करते - ‘कालहु डरहिं न रन रघुबंसी’. वो तो ठाकुरों के
मुहल्ले के पल्टू भैया (तेली) और हरकेस काका...आदि ने उधर समझाया और इधर हमार टोले
के रामजन भैया, नेउरा दाई...आदि ने बाबू को. दोनो तरफ यही कहा गया कि सामने वालों
को आने तो दो– उनके दरवज्जे चढ के क्यों जाते हो...? और इस तरह ‘दो बाँके’ अपने-अपने
मुहल्ले में गरज के रह गये, वरना ऐसा लगा था कि आज लाशें बिछ जायेंगी. ऐसा तो था
बाबूजी का सुभाव और ऐसे थे तब के लोग, जिन जैसों के लिए राजपूतों के मिस
श्यामनारायण पाण्डेय ने कहा है - ‘असि धार देखने को उँगली कट जाती थी तलवारों से’...!!
लेकिन उस वक्त तो मेरी दोनो बहनें रोने लगी थीं - मैं डर के मारे काँपने लगा था....
सब शांत होने के बाद रामाश्रय भाई आये और ‘बिला वजह....’ भर बोले कि तब तक इस घटना से
ऊबी-झल्लाई मेरी बडी बहन ने उन्हें कस के डाँट पिला दी – ‘हे रामासरे भइया, तू त
कुछ बोला जिन...झगडा लगाय के केवाडी में बन्द हो गइला है आ अब आके ‘बिला वजह..’ करत
हउआ...आज अब्बै कतल हो जात, तब...??
ग़रज़
ये कि बाबूजी के रिश्ते ऐसे तो सभी से मुहब्बत और लडाई के दरमियां ही चलते थे,
लेकिन माँ के साथ तो उनका अजीब ही मामला था, जिसकी तुलना मैं थियेटर में मंच-परे
हँस-हँस कर गलबहियां करते और मंच-पर आते ही तलवार-कटार लेकर एक दूसरे की जान के
प्यासे हो जाते नायक-खलनायक से करना चाहूँगा. आड में गाँव-गिराँव से लेकर
नताई-हिताई तक माँ का ढेरों बखान करते बाबूजी – सरोसती के माई बडी गिहथिन
(गृहस्थन), बडी लायक, बडी करतबी, बडी इंतजामी, सबका ख्याल रखने वाली, बडी
गवैया...आदि-आदि. लेकिन सामने तो कोई हफ्ता न जाता, जब जमके झगडा न हो जाता हो. लोगों
ने बताया था कि शुरू में तो बहुत दिनों माँ चुप सहती रही थी– नारी सुलभ लज्जा व
अनुजवधू होने के सांस्कृतिक अनुशासन.... लेकिन बाबूजी की अति ने धीरे-धीरे मुँह
खुलवा दिया और जो खुला तो फिर बेटी तो थी उसी नानी की, जिससे पाधुर होकर पनाह माँग
गये थे उसके तीन-तीन पट्टीदार.... तो माँ में से निकली वो नानी धीरे-धीरे...फिर तो
हमारे होश में दोनो के झगडे बराबरी पर ही छूटते – या तो माँ मारे गुस्से में किसी
काम के लिए चली जाती या कोई स्त्री हटा ले जाती...या बाबूजी झोला उठाके कहीं चल
देते.... और जब ऐसा न होता, तो बाबूजी अलग होने पर उतारू हो जाते.... अलग होने की
बोलबाज़ी तो बहुत बार हुई, पर ऐसे तीन वाक़ये हुए (या मुझे तीन ही याद आ रहे हैं),
जब सचमुच अलगौझे की रस्म भी पूरी हुई.
पहली
बार तो तब हुआ, जब बडके काका जीवित थे. ऐसा तूफान बरपा किया था बडके बाबू ने कि
काका ने मज़बूर होके सारा अनाज निकाला और तौल के तीन हिस्सा लगा दिया अलग-अलग. बडके
बाबू बडे संतुष्ट दिख रहे थे तीन हिस्सा देखकर कि काका भी अलग हो रहे हैं. लेकिन
जब सारा अनाज बँट गया, तो काका ने अपना वाला कूरा माँ वाले में मिला दिया. देखते
ही बडके बाबू एकदम पस्त होके आग्नेय नेत्रों से काका की ओर देखते रहे और दो मिनट
के बाद खडे हुए, अपना हिस्सा भी पैरों से उसी में थोडा-सा मिलाया और झोला-सोंटा
उठाके कहीं चल दिये.... फिर कब आये, किसी को याद नहीं. कैसे पहले की ही तरह रहने
लगे, उन्हें भी पता नहीं. यहाँ तो बमुश्क़िल एक घण्टे में इतना ही हुआ, पर बात कैसे
बडी बहन की ससुराल पहुँच गयी – भगवान ही जाने.... उन दिनों अच्छे घरों में अलगा
वग़ैरह होना बेइज्जती की बात थी और फोन..आदि तो थे नहीं. सो, दूसरे दिन बहन के छोटे
ससुर बटुकनाथ शास्त्री पता करने आ गये पैदल ही– सायकल वे चलाते न थे और ऐसे में
किसी को लाना मुनासिब न था. गाँव के बाहर ही किसी से पूछा– भइया, सा-साफ बता दो,
यदि कुबेर पण्डित के घरे अलगा हो गया हो, तो मैं यहीं से लौट जाऊँ.... सामने वाला
ठठा के हँसा और उन्हें लिये-दिये घर आया. इस प्रकार बाबूजीजी की गुस्सैल वृत्ति नताइयों
तक पहुँची.....
बाकी
दो बार के अलगाने में अलग दरवाज़ा खोलने की पहलें हुईं.... मेरे घर का मुख्य द्वार
उत्तर है और तब पश्चिम तरफ ओसारा था, जिसके सामने काफी जगह खाली थी. तो ओसारे में
वे अलग दुआरि फोडने चले. एक बार आधी दीवाल कुदाल से काट चुके थे और एक बार तो
आर-पार भी हो गयी थी. फिर अचानक ही रुक जाते. चुपचाप हाथ-पैर धोके सो जाते. कितने
भी गुस्से में रहें, बडी बहन के मनाने से मान ही जाते और वो सभी को मनाके खिला
देने में उस्ताद थी. बाबूजी दोनो ही बार दूसरे दिन उठके काटी गयी मिट्टी को अपने
हाथों ही भिंगाते-सानते और कटी दीवार पर छोपते, दुआरि मूँदते.... वैसे बचपन में
मुझे मालूम पडा था कि जब घर बन रहा था, पोखरे से मिट्टी बनाके ढोके लाते तो सब लोग
थे, पर पलरे की मिट्टी सबके सर से थाम-थाम के सारी दीवालों पर रद्दे रखे थे बाबूजी
के हाथों ने ही. बहरहाल, दुआरें मूँदते वक्त पूरे गाँव के लोग आते-जाते रुकते,
उन्हें चिढाते और इसमें वे भी समान भाव से लुत्फ़ उठाते.... लिखते हुए अब मज़े-मज़े
में शाब्दिक साम्य भर के लिए दुष्यंत याद आते हैं – ‘वो तो दीवार गिराने के लिए
आये थे, वो दीवार उठाने लगे, ये तो हद है’ - बाबूजी की कोई हद न थी.
इस
उठाने-गिराने के बीच ही साबुत रहा मेरे बडके बाबू का गुस्सैल व्यक्तित्त्व.... वे
‘क्षणे रुष्टा’ तो थे, पर ‘क्षणे तुष्टा’ नहीं. तुष्ट होने में 4-6 घण्टे या एकाध
रात लग जाते थे. पर वे ‘अव्यवस्थित चित्त’ नहीं थे, इसीलिए ‘प्रसादोपि भयंकर:’ कभी
न हुए. कंभी किसी सम्बन्ध का मूल नहीं बिगडा, कोई अनिष्ट नहीं हुआ. मर्यादाओं में
क्षणिक स्खलन हुए, पर सीमायें नहीं टूटीं. इन सबको साकार करता हुआ एक ही वाक़या
सुनाना चाहूँगा – हैं तो ढेरों.... माँ के साथ झगडों के बीच उनके जिस ब्रह्मास्त्र
से माँ पराजित तो नहीं, पर निरस्त्र हो जाती थी, वह था - ‘आधी जैजात (जायदाद) मेरी है, मैं किसी को
लिख दूंगा – हाथ मलके रह जाओगी’. इसे बार-बार सुनकर उनके उसी गुस्से के जलजले में
एकांत पाकर जिसने मनचाही कीमत पर खेत लिखाने की बात एक बार बाबू से कही और हामी
भरवा ली – शायद दिन भी तय कर लिया, वे थे मेरी बगल वाले मेरे अधियरा के पट्टीदार
जगदीश त्रिपाठी, जो पद में मेरे भइया व वय में मेरे पिता के हम उम्र-सहपाठी हुआ
करते थे. बाबू का स्वभाव जानते तो थे, पर शायद लोभवश उस एक दिन भूल गये थे. इधर
वही हुआ - रात भर में बाबूजी की क्रोधाग्नि शांत हो गयी और सुबह होते ही वे पूरे
गाँव को सुनाते हुए लगे बम देने... “अरे ई देखो, जगदिसवा बेइमान का, चला है मेरी
जैजात लिखाने, मेरे बेटे के साथ घात करने...अरे हरामी, गडही में मुँह धोके आओ, तो
भी तुम्हारी गदोरी पर पेशाब तक न करूँ...ससुर के नाती चले हैं खेत लिखाने...”. और
इसके साथ जो उनके (अप)शब्द-भाण्डार से विषबुझे तीर चले कि कई दिनों तक जगदीश भइया
सचमुच किसी को मुँह दिखाने से बचते रहे.... तब मौका पाकर मैंने उनसे कहा था –
‘भइया, पहले से कागद-पत्तर तैयार रखिये. उस ज़ोर वाले गुस्से में जब बाबू आयें, तो
गुस्सा उतरने के पहले ही अंगूठा लगवा लीजिए, तब तो आपकी मंशा पूरी हो
जायेगी...लेकिन यदि तहसील पहुँचने के पहले ही गुस्सा उतर गया, तो गरदन मरोडवाने के
लिए भी तैयार रहियेगा...’.
लेकिन
जिस बाबूजी को मैने कभी कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ देखता-सुनता और यथासम्भव उनकी बात
मानता रहा, एक बार अचानक ही उनके ब्रह्मास्त्र का तोड बन बैठा. तब तक चेतना कॉलेज
में पढाने लगा था. छुट्टियों में घर आया था. झगडे में कुपित होकर ब्रह्मास्त्र छोड
रहे थे बाबूजी...उसके सामने तो भीम को भी सर नवाना पडा था – माँ भी हमेशा की तरह
वही कर रही थी...और मैं बीच में बोल पडा – “बाबूजी, आप अपना हिस्सा बेच दीजिए...चलिए,
मैं गवाही करूँगा बैनामा पर, ताकि कभी दावा भी न कर सकूँ.... और तब भी हम यहीं साथ
रहेंगे. क्योंकि हम साथ इसलिए नहीं हैं कि आपका आधा हिस्सा है, इसलिए हैं कि आप
मेरे बाबूजी हैं, मैं भले बेटा आपके भाई का हूं, पर आप मुझे अपना बेटा कहते हैं, मानते
हैं. खेत किसी और को लिख देंगे, तो क्या यह रिश्ता टूट जायेगा? नहीं न...? तो चलिये
लिख दीजिए. यह झगडा तो खत्म हो...”. और भयहु-भसुर के सनातन झगडे में अपनी पहली
दख़लन्दाज़ी के लिए मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगा, क्योंकि विफल ब्रह्मास्त्र
होकर मणिविहीन अश्वत्थामा की तरह बाबूजी भी श्रीहीन हो गये...जैसे उनका सब कुछ लुट
गया हो.... इसके बाद भी गुस्सा तो कभी करते, झगडे भी कुछ होते, पर तब से कभी अपनी
जैजात का नाम नहीं लिया....
लेकिन
तब से उनका बीमार होना कुछ बढ गया.... बार-बार खाट पकड लेते, पर कोई मर्ज़ न था.
नीचे के सामने वाले सिर्फ़ दो दाँत गये थे. आँखों में चश्मा बहुत दिनों से आ गया था. सफेद डाँडी वाला पसन्द किया था. पहनते कभी-कभी
ही थे. बाद में मोतिया के ऑपरेशन हुए – दोनो बार मैं मौजूद था. तब फ्रेम बदामी हो
गया. बाकी तो सर्वांग दुरुस्त थे. मुझे बार-बार लगता, जो शायद मेरा अपराध-बोध भी
रहा हो कि झगडे की ख़ुराक़ कम हो जाने और ब्रह्मास्त्र के कुण्ठित होने की
क्षतिपूर्त्ति नहीं हो पा रही है... मैं ग्लानि से भर-भर जाता.... पछताता कि वैसा
क्यों कह दिया.... दोनो काका के प्राण छूटते हुए मैं उनकी पाटी पर मौजूद था. बडी
इच्छा थी कि बडे बाबू का प्रयाण भी अपनी आँख के सामने हो. इसलिए कह रखा था कि
लटपटायें तो तुरत ख़बर की जाये. दीवाली-गर्मी की छुट्टियों के अलावा भी एक साल में
तीन बार तो तार (टेलीग्राम) गये. तुरत गाडी पकड लेता. लेकिन मेरे आते ही दो दिन
में ठीक हो जाते. पंतजी की काव्य-पंक्ति सार्थक तो थी ही, उसके साकार होने का
साक्षात अनुभव भी मिला – ‘रोग का है उपचार – प्यार’ (उच्छ्वास). क्योंकि दवा तो
वही होती...मैं सिर्फ़ शामों को उनके पैर दबाता, जो उन्हें बहुत प्रिय था. यह मैं
मुम्बई जाने के पहले भी अक्सर करता. दबाते हुए वे खूब बतियाते – ढेरों पुरानी
घटनायें बताते..., जिसे सुनने-जानने का प्रलोभन भी कम न होता....
इस
तरह उनके अंतिम दिन उतने अच्छे न रहे, तो बहुत खराब भी न रहे.... निरोग शरीर में
उनके मन ने एक ही किस्म के दो रोग पैदा कर लिये थे. एक यह कि उन्हें अपने चारो तरफ
ढेर सारे कीटाणु उडते दिखते..., जिन्हें वे अँगोछे से हरदम उडाते रहते.... और अपने
सर में उन्हें ढेर सारी रूसी (डैंड्रफ)
भरी दिखती, जिसे वे उँगलियां फिरा-फिरा के नाखूनों से खुजा-खुजा के निकालते
रहते.... सर में पैठी और बाहर गिरी उन्हें ढेरों रूसी दिखती, पर किसी और को न एक कीटाणु
दिखते, न कोई रूसी.... सबसे बडा बदलाव मैंने यह लक्ष्य किया कि झगडे के साथ उनकी
दिल्लगियां और बच्चों के साथ चुहल बन्द हो गयी. वरना बच्चे किसी के भी हों – राह
चलते से भी, वे बोलौनी कर-करके मज़े लेते.... क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि बडी
बहन अपने घर से नाराज़ होके बिना किसी सूचना के अचानक आ गयी थी. पूरा मुहल्ला सकते
में आ गया – हाल जानने को बेताब हो गया और बाबूजी ने एक्का (ताँगा) रुकते ही
आह्लाद से भरके ‘आजा आजा मेरी सुगनियां’ कहते हुए छोटी कुमुद को गोंद में लोका तथा
बडे मुन्ना का हाथ पकड के ‘कूद जा बेटा’ कहके उतारा और एक तरफ ले जाके
खेलने-खेलाने लगे....
इन
सारे लक्षणों से अन्दाज़ा तो लगता कि विदा-बेला आ रही है, लेकिन मेरे मन में एक
अनुक्रम बन गया था कि पिता मरे थे सावन में, छोटे काका भादों में और बडे काका कुआर
में तो अब बडके बाबू तो अवश्य कार्त्तिक में ही जायेंगे. इसलिए कार्त्तिक में सजग
रहने के बाद निश्चिंत-सा हो जाता... लेकिन बडके बाबू ने क्रम तोडकर अंत में धोखा
दे दिया – वह भी बिना चेतावनी के चटपट में.... गर्मी की छुट्टियों के बाद गया ही
गया था कि ऐन आषाढ में तार आया – ‘बाबूजी एक्सपायर्ड, कम सून’. ‘धन देखै जात, त
आधा लेय बाँटि’ के मुताबिक अंतिम साँस लेते न देख सका, पर मुखाग्नि तो दे सकूँ
अपने हाथों, के निश्चय से जीवन में पहली बार हवाई-यात्रा की ठानी और प्रति तार भेज
दिया – कमिंग इमीडिएटली. वेट, टिल आइ रीच. लेकिन मैंने हवाई यात्रा का उल्लेख नहीं
किया और गाँव में किसी ने न इसकी कल्पना की, न रेल-गणना के अनुसार तीन दिनों का
इंतजार किया. सीधी उडान तो अभी कुछ ही वर्ष पहले हुई है, तब तो बनारस के बदले दूनी
दूरी पर स्थित गोरखपुर की जहाज मिली थी - वह भी दो-दो ठिकाने (इन्दौर-आगरा) से
होकर. वहाँ से आरक्षित टैक्सी लेकर जब मैं दूसरे दिन 8 बजे रात को ठेकमा उतरा, तो बाज़ार
से जाने वाले आख़िरी आदमी के रूप में राजमणि मिस्त्री सायकल पर सवार हो रहे थे.
देखते ही रुआँसे होकर बताया कि शाम को ही दाह करके लोग घर पहुँचे हैं. क्या संयोग
बना कि उसी भइया जगदीश ने मुखाग्नि दी, जो खेत लिखाने वाले थे.
नियमानुसार
दाह के वक्त पहनी गयी कोरी धोती ओरी पर लटकायी गयी थी. उसे धोके पहनना था सारे
विधान के दौरान. किसी ब्राह्मण-क्षत्रिय के मरने पर हम दोनो जातियों के छहो घरों
के पुरुष-स्त्री रोज़ घाट नहाते हैं – पहले स्त्रियां नहाके आ जाती हैं, तब पुरुष
जाते हैं. घर की औरत आगे-आगे जाती-आती है. माँ के बयान कढाके (गा-गाके) रोने में
बाबूजी के गुस्से-झगडे तक के उल्लेख स्पृहणीय बनके आते..... इन विधानों और इनसे
बने लोगों के मनों ने कैसे-कैसे संस्कार पनपाये थे, कैसी समरस संस्कृति बनायी थी
कि हर रूप में स्वीकार्य हो गया था मनुष्य...!! नौ रोज़ घाट नहाने के बाद दसवें-ग्यारहवें-बारहवें
की तो कोई चिंता न थी, लेकिन तेरहवीं पर चार-पाँच सौ लोगों का भोज होना था और गाढी
बारिश का मौसम था. वही हुआ – खाना तो सब बन गया, पर थोडे लोग ही खा सके कि बारिश
होने लगी. तब तो घर के सामने खुले में टाट बिछाके पंगत में खिलाने का चलन ही एकमात्र
विकल्प था. खाने के लिए बचे हुए लोग पहुँच गये थे और बारिश से बचते हुए अगल-बगल के
घरों में बैठे थे – सर्वाधिक लोग थे उसी जगदीश भैया की ओसारी में.
अपने गाँव के तो
अपने थे ही, बगल के गाँव मैनपुर के लोग अपने यजमान ही थे. तब आपसी अखलाख (अच्छे
आचरण) बडे पक्के और गँवईं रिश्ते बडे गहरे हुआ करते थे. मुझे अच्छी तरह याद है कि
भींगते हुए बाहर निकलकर मैंने गुहार लगायी थी - भाइयो, कोई बिना खाये जायेगा
नहीं...मैं ओसारी में बिछाकर पचास-पचास लोगों को बारी-बारी खिलाऊंगा.... उधर से
सामूहिक स्वर गूँजा – ‘आप चिंता मत कीजिए. अपने पुजारी बाबा की तेरहवीं की पंगत
खाये बिना कोई जायेगा नहीं – चाहे भले भिनुसार हो जाये...’.
चालीस
साल से ज्यादा हुए, पर कोई दिन शायद ही ऐसा जाता हो, जब वह यायावर किसी न किसी रूप
में याद न आता हो....!!
___________________
सम्पर्क
–
‘मातरम्’, 26-गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू,
वाराणसी– 221004/ मोबा. 9422077006
वाराणसी– 221004/ मोबा. 9422077006
बहुत ही सुंदर लेख।अंत का वर्णन बड़ा मार्मिक है।
जवाब देंहटाएंवाह ! बड़के बाबू। सलाम आपकी सादगी, यायावरी, भलमनसाहत को🙏🏼🙏🏼
जवाब देंहटाएंपता है सर, 8:15 से यह लेख पढ़ रही हूँ। अब खत्म हुआ।
उठने के बाद न आँखे धोई न फ्रेश होकर आई... बस इसी को पढ़ती रही।
इतना आनंद आ रहा था कि बीच में छूटे ना😌
अब पूरा किया तो देखा 9:15 बज गए हैं। कुछ घर का काम शुरू ही नहीं किया....
पर सच बताऊं तो दिन की बहुत ही अच्छी शुरुआत हुई।
जगदीश भैया वाली बात ने तो खूब हंसी दिलवाई😄
मनमौजी थे बड़के काका।
उनकी इतनी छवियाँ दिखाने के लिए आपका सहृदय धन्यवाद🙏🏼💐💐💐
उनके लिए अभी तो यही कह सकती हूँ कि....अरे!यायावर याद रहेगा...🙏🏼💐
गाँव की गहन अनुभूतियों का साक्ष्य है, आपका यह लेख।
जवाब देंहटाएंआने वाली पीढ़ी इसे पढ़कर गाँव को समझने का असमर्थ प्रयास करेगी क्योंकि यह अनुभूत है इसे पढ़ कर नहीं समझा जा सकता किन्तु परिचत तो हो ही सकेंगे।
"अइसन खेत मिलल हौ बचवा कि घर भरि जाई मारे अनाज के । "
"बचवा, ईत पूरा गँउये लउकत हौ...!!"
मुझे बहुत गहरे छू लिया जिन्होंने सारे दु:खों और अभावों के बावजूद प्रेम और सेवाभाव से हृदय को भर दिया है यही कारण है कि, उन्हें अपने बल पर कुछ खुशी दे पाने की लालसा और संतुष्टि और उनके जीते जी कुछ न कर पाने की कसक और ग्लानि रहती है। आने वाली पीढ़ी किसी के लिए 'सब करने का भाव' भाव को समझने में असमर्थ हो रही है।
बड़के बाबू, बाबू या पुजारी बाबा की यह कथा कितनी मर्मस्पर्शी है!
जवाब देंहटाएंइसे पढ़ते हुए लगता है कोई चरित काव्य पढ़ २हे हैं। सत्यदेव जी को यायावरी के संस्कार प्रदान करने वाले पुजारी बाबा परिवार के प्रति कभी भी लापरवाह नहीं रहे। यह संतुलन बड़ी मुश्किल से सधता है।
पुजारी बाबा की तेरहवीं की रस्म -भोज में गाँव वालों का संकल्प कि बिना खाए कोई वापस नहीं जाएगा, मन को भिगो गया।
इस संस्मरण में सत्यदेव त्रिपाठी नॉस्टेल्जिक होते रहे हैं।
इससे बचा जा सकता था!
अत्यंत मूल्यवान संस्मरण है यह।
साधुवाद।
कहानी दोनों तरह से मुझे बड़ी सार्थक लगी, उस समय के गवई जीवन को समझने का मौका तो देती ही है। दूसरा "सबके पुजारी बाबा" का पूरा जीवन (विविध रुप वाला, ऑलराउंडर) कहानी के रूप में संग्रहित होना।
जवाब देंहटाएंकहानी कि कुछ घटनाएं मेरे मन को छू जाती हैं,
अनाज का बटवारा एवं अनाज मिलान
उनके लड़ाई का हथियार छिन जाना। जो सायद उनके जीवन को बैलेंस करता था।
कहानी दोनों तरह से मुझे बड़ी सार्थक लगी, उस समय के गवई जीवन को समझने का मौका तो देती ही है। दूसरा "सबके पुजारी बाबा" का पूरा जीवन (विविध रुप वाला, ऑलराउंडर) कहानी के रूप में संग्रहित होना।
जवाब देंहटाएंकहानी कि कुछ घटनाएं मेरे मन को छू जाती हैं,
अनाज का बटवारा एवं अनाज मिलान
उनके लड़ाई का हथियार छिन जाना। जो सायद उनके जीवन को बैलेंस करता था।
बहुत.जानकारी होनेके&बाद. लगा.कि.कुछ.रहगया.है.धन्यवाद.सुरेन्द्र.मिश्र
जवाब देंहटाएंबड़े ही प्रमाणिक तरीके से ग्रामीण चरित्र का चित्रण बड़के बाबू जी के माध्यम से करने में लेखक यहा सफल होते दिख रहे है !संयुक्त परिवार और प्रेम को कहानी के माध्यम से उकेरने में लेखक सफ़ल हुए दिखते है !दमाद को ससुराल में भरपूर मान सम्मान मिलता है पत्नी के नही रहने के बाद लेखक ने बड़का बाबूजी के माध्यम से ससुराल का सजीव चित्रण हुआ दिखता है !बड़का बाबूजी के द्वारा आतिथ्य सत्कार का अट्भुत ग्रामीण परिवेश के चित्रण लेखक ने किया है संयुक्त परिवार में लड़ाई औऱ प्रेम समर्पण का सजीव चित्रण बड़का बाबू जी औऱ माँ के माध्यम से संयुक्त परिवार की महत्ता हमारे गाँव मे कैसी थी इसका सजीव चित्रण करने में लेखक सफल रहे है कुल मिला के एक सुंदर मार्मिक और सारगर्भित सजीव रचना है हमारे बड़का बाबु जी सबके पुजारी बाबा
जवाब देंहटाएंसादर
विशाल पांडेय
गंग-भंग दो बहिन हैं, रहें सदा सिव संग. मुर्दा तारन गंग हैं कि जिन्दा तारन भंग’..
जवाब देंहटाएंपूरा जीवन ही आपने उकेर दिया
नीलेश चौबे
पुरा सही नहीं है
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