मंगलेश डबराल की कविताएँ



हमारे समय के महत्वपूर्ण और प्रतिबद्ध कवि  मंगलेश डबराल की काव्य-यात्रा का यह पांचवा दशक है. इन पचास वर्षो में वह हिंदी कविता के विश्वसनीय और जरूरी कवि बने रहे हैं.

पहाड़ पर लालटेन’, घर का रास्ता’, हम जो देखते हैं’, आवाज भी एक जगह है’ और ‘नये युग में शत्रु’ आदि उनके कविता संग्रह प्रकाशित हैं. सभी भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, डच, फ्रांसीसी, स्पानी, इतालवी, पुर्तगाली, बल्गारी, पोल्स्की आदि विदेशी भाषाओं के कई संकलनों और पत्र-पत्रिकाओं में मंगलेश डबराल की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं. मरिओला द्वारा उनके कविता-संग्रह आवाज़ भी एक जगह हैका इतालवी अनुवाद अंके ला वोचे ऐ उन लुओगो नाम से प्रकाशित हुआ है तथा अंग्रेज़ी अनुवादों का एक चयन दिस नंबर दज़ नॉट एग्ज़िस्टप्रकाशित है.

उन्होंने बेर्टोल्ट ब्रेश्ट, हांस माग्नुस ऐंत्सेंसबर्गर, यानिस रित्सोस, जि़्बग्नीयेव हेर्बेत, तादेऊष रूज़ेविच, पाब्लो नेरूदा, एर्नेस्तो कार्देनाल, डोरा गाबे आदि की कविताओं का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद किया है.

मंगलेश डबराल की १५ नई कविताएँ समालोचन प्रकाशित करते हुए  कवि असद ज़ैदी के शब्दों में इन कविताओं के लिए यही कह सकता है कि “और इससे ज़्यादा आश्वस्ति क्या हो सकती है कि इन कविताओं में वह साज़े-हस्ती बे-सदा नहीं हुआ है जो ‘पहाड़ पर लालटेन’ से लेकर उनके पिछले संग्रह ‘आवाज़ भी एक जगह है’ में सुनाई देता रहा था.”



मंगलेश डबराल की १५ नई कविताएं                    






पहाड़ से मैदान

मैं पहाड़ में पैदा हुआ और मैदान में चला आया
यह कुछ इस तरह हुआ जैसे मेरा दिमाग पहाड़ में छूट गया
और शरीर मैदान में चला आया
या इस तरह जैसे पहाड़ सिर्फ मेरे दिमाग में रह गया
और मैदान मेरे शरीर में बस गया

पहाड़ पर बारिश होती है बर्फ पड़ती है
धूप में चोटियाँ अपनी वीरानगी को चमकाती रहती हैं
नदियाँ निकलती हैं और छतों से धुआँ उठता है
मैदान में तब धूल उड़ रही होती है
कोई चीज़ ढहाई जा रही होती है
कोई ठोकपीट चलती है और हवा की जगह शोर दौड़ता है

मेरा शरीर मैदान है सिर्फ एक समतल
जो अपने को घसीटता चलता है शहरों में सड़कों पर
हाथों को चलाता और पैरों को बढाता रहता है
एक मछुआरे के जाल की तरह वह अपने को फेंकता
और खींचता है किसी अशांत डावांडोल समुद्र से

मेरे शरीर में पहाड़ कहीं नहीं है
और पहाड़ और मैदान के बीच हमेशा की तरह एक खाई है
कभी-कभी मेरा शरीर अपने दोनों हाथ ऊपर उठाता है
और अपने दिमाग को टटोलने लगता है.




स्मृति : एक

खिड़की की सलाखों से बाहर आती हुई लालटेन की रोशनी
पीले फूलों जैसी
हवा में हारमोनियम से उठते प्राचीन स्वर
छोटे-छोटे  बारीक बादलों की तरह चमकते हुए
शाम एक गुमसुम बच्ची की तरह छज्जे पर आकर  बैठ  गयी है
जंगल से घास-लकड़ी लेकर आती औरतें आँगन से गुज़रती हुईं  
अपने नंगे पैरों की थाप छोड़ देती हैं

इस बीच बहुत सा समय बीत गया
कई बारिशें हुईं और सूख गयीं
बार-बार बर्फ गिरी और पिघल गयी
पत्थर अपनी जगह से खिसक कर कहीं और चले गये
वे पेड़ जो आँगन में फल देते थे और ज़्यादा ऊँचाइयों पर पहुँच गये
लोग भी कूच कर गये नयी शरणगाहों की ओर
अपने घरों के किवाड़ बंद करते हुए

एक मिटे हुए दृश्य के भीतर से तब भी आती रहती है
पीले फूलों जैसी लालटेन की रोशनी
एक हारमोनियम के बादलों जैसे उठते हुए स्वर
और आँगन में जंगल से घास-लकड़ी  लाती
स्त्रियों के पैरों की थाप.






स्मृति : दो

वह एक दृश्य था जिसमें एक पुराना घर था
जो बहुत से मनुष्यों के सांस लेने से बना था
उस दृश्य में फूल खिलते तारे चमकते पानी बहता
और समय किसी पहाड़ी चोटी से धूप की तरह
एक-एक क़दम उतरता हुआ दिखाई देता
अब वहाँ वह दृश्य नहीं है बल्कि उसका एक खंडहर है
तुम लंबे समय से वहाँ लौटना चाहते रहे हो जहाँ उस दृश्य का खंडहर न हो
लेकिन अच्छी तरह जानते हो कि यह संभव नहीं है
और हर लौटना सिर्फ एक उजड़ी हुई जगह में जाना है 
एक अवशेष, एक अतीत और एक इतिहास में
एक दृश्य के अनस्तित्व में

इसलिए तुम पीछे नहीं बल्कि आगे जाते हो
अँधेरे में किसी कल्पित उजाले के सहारे रास्ता टटोलते हुए
किसी दूसरी जगह और किसी दूसरे समय की ओर
स्मृति ही दूसरा समय है जहां सहसा तुम्हें दिख जाता है
वह दृश्य उसका घर जहाँ लोगों की साँसें भरी हुई होती हैं
और फूल खिलते हैं तारे चमकते है पानी बहता है
और धूप एक चोटी से उतरती हुई दिखती है.






गुड़हल

मुझे ऐसे फूल अच्छे लगते हैं
जो दिन-रात खिले हुए न रहें
शाम होने पर थक जाएँ और उनीदे होने लगें
रात में अपने को समेट लें सोने चले जाएँ
आखिर दिन-रात मुस्कुराते रहना कोई अच्छी बात नहीं

गुड़हल ऐसा ही फूल है
रात में वह बदल जाता है गायब हो जाता है
तुम देख नहीं सकते कि दिन में वह फूल था
अगले दिन सूरज आने के साथ वह फिर से पंख फैलाने
चमकने रंग बिखेरने लगता है
और जब हवा चलती है तो इस तरह दिखता है
जैसे बाकी सारे फूल उसके इर्दगिर्द नृत्य कर रहे हों

सूरजमुखी भी कुछ इसी तरह है
लेकिन मेरे जैसे मनुष्य के लिए वह कुछ ज्यादा ही बड़ा है
और उसकी एक यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगती
कि सूरज जिस तरफ भी जाता है
वह उधर ही अपना मुंह घुमाता हुआ दिखता है.





अशाश्वत

सर्दी के दिनों में जो प्रेम शुरू हुआ
वह बहुत सारे कपड़े पहने हुए था
उसे बार-बार बर्फ में रास्ता बनाना पड़ता था
और आग उसे अपनी ओर खींचती रहती थी
जब बर्फ पिघलना शुरू हुई तो वह पानी की तरह
हल्की चमक लिये हुए कुछ दूर तक बहता हुआ दिखा 
फिर अप्रैल के महीने में जऱा सी एक छुवन
जिसके नतीजे में होंठ पैदा होते रहे  

बरसात के मौसम में वह तरबतर होना चाहता था
बारिशें बहुत कम हो चली थीं और पृथ्वी उबल रही थी
तब भी वह इसरार करता चलो भीगा जाये
यह और बात है कि अक्सर उसे ज़ुकाम जकड़ लेता
अक्टूबर की हवा में जैसा कि होता है
वह किसी टहनी की तरह नर्म और नाज़ुक हो गया 
जिसे कोई तोडऩा चाहता तो यह बहुत आसान था   

मैं अच्छी तरह जानता था कि यह प्रेम है
पतझड़ के आते ही वह इस तरह दिखेगा 
जैसे किसी पेड़ से गिरा हुआ पीला पत्ता.





मेरा दिल

एक दिन जब मुझे यकीन हो गया
कि मेरा दिल ही सारी मुसीबतों की जड़ है
इस हद तक कि अब वह खुद एक मुसीबत बना हुआ है
मैं उसे डॉक्टर के पास ले गया
और लाचारी के साथ बोला डॉक्टर यह मेरा दिल है
लेकिन यह वह दिल नहीं है 
जिस पर मुझको कभी नाज़ था-1

डॉक्टर भी कम अनुभवी नहीं था
इतने दिलों को दुरुस्त कर चुका था
कि खुद दिल के पेशेवर मरीज से कम नहीं लगता था
उसने कहा तुमने ज़रूर मिर्ज़ा ग़ालिब को गौर से पढ़ा है 
मैं जानता हूँ यह एक पुराना दिल है
पहले यह पारदर्शी था लेकिन धीरे-धीरे अपारदर्शी होता गया
और अब उसमें कुछ भी दिखना बंद हो गया है 
वह भावनाएं सोखता रहता है और कुछ प्रकट नहीं करता
जैसे एक काला विवर सारी रोशनी सोख लेता हो
लेकिन तुम अपनी हिस्ट्री बताओ

मैंने कहा जी हाँ आप शायद सही कहते हैं
मुझे अक्सर लगता है मेरा दिल जैसे अपनी जगह पर नहीं है
और यह पता लगाना मुश्किल है कि वह कहाँ है
कभी लगता है वह मेरे पेट में या हाथों में चला गया है
अक्सर यही भ्रम होता है कि वह मेरे पैरों में रह रहा है 
बल्कि मेरे पैर नहीं यह मेरा दिल ही है
जो इस मुश्किल दुनिया को पार करता आ रहा है

डॉक्टर अपना पेशा छोड़कर दार्शनिक बन गया
हाँ हाँ उसने कहा मुझे देखते ही पता चल गया था
कि तुम्हारे जैसे दिलों का कोई इलाज नहीं है
बस थोड़ी-बहुत मरम्मत हो सकती है कुछ रफू वगैरह 
ऐसे दिल तभी ठीक हो पाते हैं 
जब कोई दूसरा दिल भी उनसे अपनी बात कहता हो   
और तुम्हें पता होगा यह ज़माना कैसा  है
इन दिनों कोई किसी से अपने दिल की बात नहीं कहता 
सब उसे छिपाते रहते हैं
इतने सारे लोग लेकिन कहीं कोई रूह नहीं 
इसीलिए तुम्हारा दिल भी अपनी जगह छोड़कर
इधर-उधर भागता रहता है कभी हाथ में कभी पैर में.
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1 मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर: 
‘अर्ज़े नियाज़े इश्क के काबिल नहीं रहा
जिस दिल पे मुझको नाज़ था वो दिल नहीं रहा’.






होटल

जिन होटलों में मैं रहा उन्हें समझना कठिन था
हालांकि लोग उनमें एक जैसी मुद्रा में इस तरह प्रवेश करते थे
जैसे अपने घर का कब्ज़ा लेने जा रहे हों
और मालिकाने के दस्तावेज़ उनके ब्रीफकेस में रखे हुए हों
लेकिन मेरे लिए यह भी समझना आसान नहीं था
कि कौन सी रोशनी कहाँ से जलती है और कैसे बुझती है
और कई लैंप इतने पेचीदा थे कि उन्हें जलाना
एक पहेली को हल करने जैसी खुशी देता था
बाथरूम में नल सुन्दर फंदों की तरह लटकते थे
और किस नल को किधर घुमाने से ठंढा
और किधर घुमाने से गर्म पानी आता था या नहीं आता था
यह जानने में मेरी पूरी उम्र निकल सकती थी 
बिस्तर नींद से ज्यादा अठखेलियों के लिए बना था
और उस पर तकियों का एक बीहड़ स्वप्निल संसार
फिलहाल आराम कर रहा था

यही वह जगह है मैंने सोचा
जहां लेखकों ने भारी-भरकम उपन्यास लिखे
जिन्हें वे अपने घरों के कोलाहल में नहीं लिख पाए
कवियों ने काव्य रचे जो बाद में पुरस्कृत हुए 
यहीं कुछ भले लोगों ने प्रेम और ताकतवरों ने बलात्कार किये
बहुत से चुम्बन और वीर्य के निशान यहाँ सो रहे होंगे
एक दोस्त कहता था सारे होटल एक जैसे हैं
बल्कि दुनिया जितना विशालकाय एक ही होटल है कहीं
जिसके हज़ारों-हज़ार हिस्से जगह-जगह जमा दिए गए हैं
और वह आदमी भी एक ही है
जिसके लाखों-लाख हिस्से यहाँ प्रवेश करते रहते हैं
सिर्फ उसके नाम अलग-अलग हैं

आखिरकार मेरी नींद को एक जगह नसीब हुई
जो एक छोटे से होटल जैसी थी जिसका कोई नाम नहीं था
एक बिस्तर था जिस पर शायद वर्षों से कोई सोया नहीं था 
एक बल्ब लटकता था एक बाथरूम था
जिसके नल में पानी कभी आता था कभी नहीं आता था
जब मैंने पूछा क्या गर्म पानी मिल सकता है नहाने के लिए
तो कुछ देर बाद एक खामोश सा लड़का आया
एक पुरानी लोहे की बाल्टी लिये हुए
और इशारा करके चला गया.







सुबह की नींद

सुबह की नींद अच्छे-अच्छों को सुला देती है
अनिद्रा के शिकार लोग एक झपकी लेते हैं
और क़यामत उन्हें छुए बगैर गुज़र जाती है
सुबह की नींद कहती है
कोई हडबडी नहीं  
लोग वैसे ही रहेंगे खाते और सोते हुए
सोते और खाते हुए
तुम जो सारी रात जागते और रोते हुए
रोते और जागते हुए रहे हो
तुम्हारे लिए थोड़ी सी मिठास ज़रूरी है 

सुबह की नींद एक स्त्री है
जिसे तुम अच्छी तरह नहीं जानते
वह आधा परिचित है आधा अजनबी
वह बहुत दूर से आकर पंहुचती है तुम तक 
किसी समुद्र से नाव की तरह
वही है जो कहती है
आओ प्रेम की महान बेखुदी की शरण में आओ
एक पहाड़ की निबिड़ शान्ति के भीतर आओ
उस दिशा में जाओ
जहां जा रहा है पीली तितलियों का झुण्ड 

सुबह की नींद का स्वाद नहीं जानते
अत्याचारी-अन्यायी लोग
वे कहते हैं हम ब्राह्म मुहूर्त में उठ जाते हैं
कसरत करते हैं देखो छप्पन इंच का हमारा सीना
फिर हम देर तक पूजा-अर्चना में बैठते हैं
इसी बीच तय कर लेते हैं
कि क्या-क्या काम निपटाने हैं आज

सुबह की नींद आती है
दुनिया के कामकाज लांघती हुई
ट्रेनें जा चुकी हैं हवाई जहाज़ उड़ चुके हैं
सभाएं-गोष्ठियां शुरू हो चुकी हैं
और तुम कहीं के लिए भी कम नहीं पड़े हो
जब बाहर दुनिया चल रही होती है
लोग आते और जाते हैं एक स्वार्थ से दूसरे स्वार्थ तक
सुबह की नींद गिरती है तुम्हारे अंगों पर
जैसे दिन भर तपे हुए पेड़ की पत्तियों पर ओस.





सोते-जागते

जागते हुए में जिनसे दूर भागता रहता हूँ
वे अक्सर मेरी नीद में प्रवेश करते हैं

एक दुर्गम पहाड़ पर चढ़ने से बचता हूँ
लेकिन वह मेरे सपने में प्रकट होता है
जिस पर कुछ दूर तक चढ़ने के बाद कोई रास्ता नहीं है
और सिर्फ नीचे एक अथाह खाई है

जागते हुए में एक समुद्र में तैरने से बचता हूँ
सोते हुए में देखता हूँ रात का एक अपार समुद्र 
कहीं कोई नाव नहीं है और मैं डूब रहा हूँ
और डूबने का कोई अंत नहीं है

जागते हुए में अपने घाव दिखलाने से बचता हूँ
खुद से भी कहता रहता हूँ नहीं कोई दर्द नहीं है
लेकिन नींद में आंसुओं का एक सैलाब आता है
और मेरी आँखों को
अपने रास्ते की तरह इस्तेमाल करता है 

दिन भर मेरे सर पर
बहुत से लोगों का बहुत सा सामान लदा होता है 
उसे पहुंचाने के लिए सफ़र पर निकलता हूँ
नीद में पता चलता है सारा सामान खो गया है
और मुझे खाली हाथ जाना होगा 

दिन में एक अत्याचारी-अन्यायी से दूर भागता हूँ
उससे हाथ नहीं मिलाना चाहता
उसे चिमटे से भी नहीं छूना चाहता
लेकन वह मेरी नींद में सेंध लगाता है
मुझे बांहों में भरने के लिए हाथ बढाता है
और इनकार करने पर कहता है 
इस घर से निकाल दूंगा इस देश से निकाल दूंगा

कुछ खराब कवि जिनसे बचने की कोशश करता हूँ
मेरे सपने में आते हैं
और इतनी देर तक बडबडाते हैं
कि मैं जाग पड़ता हूँ घायल की तरह.






भारी हवा

आततायियो तुम्हारे लिए यहाँ कोई जगह नहीं है
शासको यहाँ कोई सिंहासन नहीं जिस पर तुम बैठ सको  
हाकिमो तुम्हारे लिए कोई कुर्सी खाली नहीं है
ताक़तवरो तुम यहाँ खड़े भी नहीं रह पाओगे
लुटेरो तुम इस धरती पर एक क़दम नहीं रख सकते    
जालिमो यहाँ एक भी ऐसा आदमी नहीं
जो तुम्हारा ज़ुल्म बर्दाश्त कर पायेगा   
घुसपैठियो आखिकार तुम यहाँ से खदेड़ दिये जाओगे
आदमखोरो तुम कितनी भी कोशिश करो
मनुष्य को कभी मिटा नहीं पाओगे

यही सब कहता हूँ किसी उधेड़बुन और तकलीफ में 
आसपास की हवा लोहे सरीखी भारी और गर्म है
शाम दूर तक फैला हुआ एक बियाबान 
जहां कोई सुनता नहीं सुनकर कोई जवाब नहीं देता
शायद सुनती है सिर्फ यह पृथ्वी और उसके पेड़
जो मुझे लम्बे समय से शरण दिये हुए हैं 
शायद सुनता है यह आसमान जो हर सुबह
हल्की सी उम्मीद की तरह सर के ऊपर तन जाता है
शायद सुनती है वह मेरी बेटी
जो कहती रहती है पापा क्या आप मुझसे कुछ कह रहे हैं.




जैसे

पिता के बदन में बहुत दर्द रहता था
माँ रात में देर तक उनके हाथ-पैर दबाती थी
तब वे सो पाते थे
फिर वह खुद इस तरह सो जाती
जैसे उसने कभी दर्द जाना ही न हो 
वह एक रहस्यमय सा दर्द था
जिसकी वजह शायद सिर्फ माँ जानती थी
लेकिन किसी को बताती नहीं थी

पिता के दर्द को मुझ तक पंहुचने में कई साल लगे
लगभग मेरी उम्र जितने वर्ष
वह आया पहाड़ नदी जंगल को पार करते हुए
रोज़ मैं देखता हूँ
एक बदहवास सा आदमी चला आ रहा है
किसी लम्बे सफ़र से
जैसे अपने किसी स्वजन को खोजता हुआ.







हत्यारों का घोषणापत्र

हम जानते हैं कि हम कितने कुटिल और धूर्त हैं.
हम जानते हैं कि हम कितने झूठ बोलते आये हैं
हम जानते हैं कि हमने कितनी हत्याएं की 
कितनों को बेवजह मारा-पीटा है सताया है
औरतों और बच्चों को भी हमने नहीं बख्शा
जब लोग रोते-बिलखते थे हम उनके घरों को लूटते थे
चलता रहा हमारा खेल परदे पर और परदे के पीछे भी

हमसे ज्यादा कौन जान सकता है हमारे कारनामों का कच्चा चिट्ठा
इसीलिए हमें उनकी परवाह नहीं
जो जानते हैं हमारी असलियत.
हम जानते हैं कि हमारा खेल इस पर टिका है
कि बहुत से लोग हैं जो हमारे बारे में बहुत कम जानते हैं
या बिलकुल नहीं जानते
और बहुत से लोग हैं जो जानते हैं
कि हम जो भी करते हैं अच्छा करते हैं
वे खुद भी यही करना चाहते हैं.






शहनाइयों के बारे में बिस्मिल्लाह खान

क्या दशाश्वमेध घाट की पैडी पर
मेरे संगीत का कोई टुकड़ा अब भी गिरा हुआ होगा?
क्या मेरा कोई सुर कोमल रिखभ या शुद्ध मध्यम 
अब भी गंगा की धारा में चमकता होगा?
बालाजी के कानों में क्या अब भी गूंजती होगी 
मेरी तोडी या बैरागी भैरव?
क्या बनारस की गलियों में बह रही होगी मेरी कजरी
देहाती किशोरी की तरह उमगती हुई ?
मेरी शहनाइयों का कोई मज़हब नहीं था
सुबह की इबादत या शाम की नमाज़
वे एक जैसी कशिश से बजती थीं 
सुबह-सुबह मैं उनसे ही कहता था बिस्मिल्लाह
फिर याद आता था अरे अपना भी तो है यही नाम —बिस्मिल्लाह

याद नहीं कहाँ-कहाँ गया मैं ईरान-तूरान अमेरिका-यूरोप 
हर कहीं बनारस और गंगा को खोजता हुआ
मज़हब और मौसीकी के बीच संगत कराता हुआ
मैंने कहा कैसे बस जाऊं आपके अमेरिका में
जहां न गंगा है न बनारस न गंगा-जमुनी तहजीब
जिन्होंने मुझसे कहा इस्लाम में मौसिकी हराम है
उन्हें शहनाई पर बजा कर सुनाया राग भैरव में अल्लाह 
और कर दिया हैरान
वह सुर ही है जिससे आदमी पंहुचता है उस तक
जिसे खुदा कहो या ईश्वर कहो या अल्लाह
अरे अगर इस्लाम में है मौसिकी हराम
तो कैसे पैदा हुए पचासों उस्ताद 
जिनके नाम से शुरू हुए हिन्दुस्तानी संगीत के घराने तमाम
अब्दुल करीम, अब्दुल वहीद, अल्लादिया, अलाउद्दीन,
मंजी, भूरजी, रजब अली, अली अकबर, विलायत, अमीर खान, अमजद
कहाँ तक गिनाएं नाम 

मेरी निगाहों के सामने बदलने लगा था बनारस
भूमंडलीकरण एक प्लाटिक का नाम था
जो जम रहा था जटिल तानों जैसी गलियों में
एक बेसुरापन छा रहा था हर जगह
यह बनारस बाज़ के खामोश होने का दौर था
कत्थक के थमने और ठुमरी की लय के टूटने का दौर  
टूटी ही रही मेरे नाम की सड़क मेरे नाम की तख्ती    
एक शोर उठा बनारस अब क्योतो बन रहा है
और उसके साथ गिरे हुए मलवे में दबने लगी सुबहे-बनारस 
एक दिन इसी क्योतो में मेरी शहनाइयां नीलाम हुई
उन्हें मेरे अपने ही पोते नज़रे हसन ने चुराया 
और सिर्फ एक महंगा मोबाइल खरीदने की खातिर
बेच दिया फकत 17000 रुपये में 
उनकी चांदी गला दी गयी लकड़ी जला दी गयी
उनके सुर हुए सुपुर्दे-ख़ाक 
अच्छा हुआ इस बीच मैं रुखसत हो गया  
बनारस अब कहाँ थी मेरे रहने की जगह.



उस स्त्री का प्रेम  

वह स्त्री पता नहीं कहाँ होगी
जिसने मुझसे कहा था
वे तमाम स्त्रियाँ जो कभी तुम्हें प्यार करेंगी
मेरे भीतर से निकल कर आयी होंगी
और तुम जो प्रेम मुझसे करोगे 
उसे उन तमाम स्त्रियों से कर रहे होगे
और तुम उनसे जो प्रेम करोगे
उसे तुम मुझसे कर रहे होगे 

यह जानना कठिन है कि वह स्त्री कहाँ होगी
जो अपना सारा प्रेम मेरे भीतर छोड़कर
अकेली चली गयी
और यह भ्रम बना रहा कि वह कहीं आसपास होगी
और कई बार उसके आने की आवाज़ आती थी
हवा उसके स्पंदनों से भरी होती थी
उसके स्पर्श उड़ते हुए आते थे
चलते-चलते अचानक उसकी आत्मा दिख जाती थी
उतरते हुए अँधेरे में खिले हुए फूल की तरह

बाद में जिन स्त्रियों से मुलाक़ात हुई
उन्होंने मुझसे प्रेम नहीं किया
शायद मुझे उसके योग्य नहीं समझा 
मैंने देखा वे उस पहली स्त्री को याद करती थीं
उसी की आहट सुनती थीं
उसी के स्पंदनों से भरी हुई होती थीं
उसी के स्पर्शों को पहने रहती थीं 
उसी को देखती रहती थीं
अँधेरे में खिले हुए फूल की तरह.




रोटी और कविता
(संयुक्ता के लिए)

जो रोटी बनाता है कविता नहीं लिखता
जो कविता लिखता है रोटी नहीं बनाता
दोनों का आपस में कोई रिश्ता नहीं दिखता

लेकिन वह क्या है
जब एक रोटी खाते हुए लगता है
कविता पढ़ रहे हैं
और कोई कविता पढ़ते हुए लगता है
रोटी खा रहे हैं. 
_______________________
मंगलेश डबराल 
ई 204, जनसत्ता अपार्टमेंट्स, सेक्टर 9
वसुंधरा गाज़ियाबाद -201012
mangalesh.dabral@gmail.com

26/Post a Comment/Comments

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  1. वे हमारे समय के बड़े कवि तो हैं ही, महत्वपूर्ण यह है कि इस उम्र में भी उनकी रचनात्मक सक्रियता बनी हुई है।इतनी अच्छी कविताएं एक साथ प्रकाशित करने के लिए समालोचन को बधाई!

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  2. सुबह की नींद एक स्त्री है
    जिसे तुम अच्छी तरह नहीं जानते
    वह आधा परिचित है आधा अजनबी
    वह बहुत दूर से आकर पंहुचती है तुम तक
    किसी समुद्र से नाव की तरह
    वही है जो कहती है
    आओ प्रेम की महान बेखुदी की शरण में आओ
    एक पहाड़ की निबिड़ शान्ति के भीतर आओ
    उस दिशा में जाओ
    जहां जा रहा है पीली तितलियों का झुण्ड
    पिछले साल हमारे कार्यक्रम के कार्ड का विमोचन इन्होंने ही किया था।इनमें से कुछ कविताओं का पाठ भी sir से ही सुना है।
    पाठ भी उतना ही सुंदर करते हैं।
    शुक्रिया आपका इस पोस्ट के लिए।

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  3. वही पहाड़, वही लालटेन, वही स्त्री, वही तानाशाह, वही रात, वही कोई बड़ा संगीतकार !

    ऐसा लगता है जैसे मंगलेश जी अपनी कविताओं का ही अनुवाद कर रहे हैं । 'पहाड़ पर लालटेन' मंगलेशजी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ काम है । अब उसी को जलाते रहिये । उसी को बुझाते रहिये । उसी को मांजते रहिये !

    शुक्रिया समालोचन !

    ■ कृष्ण कल्पित

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    1. यह बात इन सभी कविताओं पर मुश्किल से ही लागू होगी।

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  4. बड़े कवियों की सोहबत नसीब है हमें। कविता भी बची रहेगी और हमारी दुनिया भी।

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  5. ममता कालिया18 जुल॰ 2019, 10:24:00 am

    इन कविताओं की खूबी यह है कि इन्हें बार बार पढ़ा जा सकता है

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  6. कविताएँ बेहद ख़ूबसूरत हैं। लेकिन उन्हें पढ़ने, उनसे गुज़रने का सारा मज़ा किरकिरा हो गया क्योंकि प्रूफ़ की ग़लतियाँ बहुत ज़्यादा हैं। अरुण जी से विशेष निवेदन है कि इस तरफ़ भी ध्यान दिया करें।

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  7. शुक्रिया समालोचन! मंगलेश जी की इतनी सारी बेहतरीन कविताएं प्रकाशित करने के लिए। कवि जीवनभर एक ही लम्बी कविता लिखते जाता है और उस कविता के हर अंश से अलग अलग रंग का आलोक झलकता रहता है जिसके जीवनदृष्टी में कई अनदेखे दृश्य नज़र आते हैं। ऐसा न होता तो विश्व के सभी महान कवियों ने अपनी प्रत्येक कविता किसी नये नाम से प्रकाशित की होती।

    ~ गणेश विसपुते

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  8. दिनेश कर्नाटक18 जुल॰ 2019, 11:31:00 am

    हमेशा की तरह खूबसूरत कविताएं।

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  9. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-07-2019) को "....दूषित परिवेश" (चर्चा अंक- 3401) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  10. अपने ढंग के निराले कवि है मंगलेश डबराल । उनकी कविताओं में हमारे होने की आवाज है जो अपनी कविता में अनूदित करते रहते है ।

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  11. 'गुड़हल' में कलम तोड़ दी! वैश्वीकरण से बिसमिल्ला खाँ को जो कष्ट हुआ उसे पढ़कर आँसू आ गये! सुड़ुक!

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  12. वाह, कमाल की कविताएँ.

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  13. भाई मंगलेश की नयी कविताओं से गुजरना नया अनुभव है |

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  14. कविता पढ़ना ऐसे, जैसे कविता पढ़ कर मन तृप्त हो गया है और तृप्ति कहती है कि ऐसी और कविताएं पढ़ते जाएँ। इस बोझिल समय में हिंदी के वरिष्ठ और शानदार कवि को पढ़ना जीवित होने के एहसास जैसा है।

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  15. महेश आलोक18 जुल॰ 2019, 9:40:00 pm

    बहुत ही अच्छी कविताएं।समालोचन को हमारे समय के जरूरी कवि मंगलेश जी की ताजा कविताएं पढ़वाने के लिए बधाई।

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  16. कविताओं से गुजर कर लगा कि कविताएँ रोज इस कवि को पुनर्नवा करती हैं गो कि वे अपने बुनियादी कवि- स्वभाव से छिटकते नहीं ।

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    1. बहुत सही कहा आपने!
      दादा की कविताओं को जब भी पढ़ती हूँ लगता है पहली बार पढ़ रही!
      हर बार एक नयापन होता है शब्दों में!

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  17. इन मंथर पेन्टिंग सरीखी कविताओं से ललित कला और संगीत के सुख का आस्वाद मिलता है, स्मृति इतिहास, अतीत से कालातीत की सैर कराती
    कवितायें हमारी सुविधा सम्पन्नता को और अधिक समृद्ध करती है। अत्यंत धीरज सेभरी मंगलेश जी की कविताओं से व्यग्रता और बेचैनी का भाव क्यों नदारत होता जा रहा है।

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  18. मंगलेश जी की कविताएं हिंदी कविता को समृद्ध करती हैँ।

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  19. नरेश सक्सेना19 जुल॰ 2019, 7:45:00 pm

    हमेशा की तरह सुंदर। 'कई बार पढ़ी जाचुकी' के बावजूद और पढे
    जाने की मांग करतीं। कुछ न कुछ छूट जाने का आभास देती हुई ।
    नये कथन के साथ बहुत कुछ भूले हुए की याद दिलाती हुई, यह एक ख़ास बात इनमें।
    मंगलेश जी को बहुत बधाई और समालोचन को भी।

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  20. बेहतरीन कविताएं👌👌
    स्ममृति 2के अंश
    लंबे समय से वहाँ लौटना चाहते रहे हो जहाँ उस दृश्य का खंडहर न हो
    लेकिन अच्छी तरह जानते हो कि यह संभव नहीं है
    और हर लौटना सिर्फ एक उजड़ी हुई जगह में जाना है
    एक अवशेष, एक अतीत और एक इतिहास में
    एक दृश्य के अनस्तित्व में

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  21. हिंदी के बड़े कवियों में चाहे निराला हों या नागार्जुन सबके यहाँ भाषा, शिल्प ही नहीं, दृष्टि और दृश्य के अनेक स्तर दिखाई देते हैं. मंगलेश आज तक अपनी ही भाषा और शिल्प का कभी अतिक्रमण नहीं कर पाए, न कोई सिग्नेचर स्टाइल विकसित कर सके. जसम के कंधों पर चढ़कर महान बने इस कवि की विचारधारा भी कोई नहीं है-शोर भले मार्क्सवादी होने का करें.

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  22. बहुत अच्छी प्रस्तुति
    डबराल जी को विनम्र श्रद्धांजलि!

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  23. मुग्ध कर गया यह शानदार सृजन ।
    भाव पुष्पों से श्रृद्धांजलि अर्पित करती हूं।
    एक साथ इतनी अभिनव रचनाएं प्रकाशित करने के लिए बहुत बहुत आभार।

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