‘करियवा’, ‘उजरका’ के बाद अब ‘सुघरका’. ये तीनों बैलों के नाम हैं. एक समय कृषि-संस्कृति के केंद्र में रहे बैल अब सभ्यता की परिधि से भी दूर जा चुके हैं. जिनके कंधों ने सदियों से मनुष्यों का बोझ उठाया आज उनका पैदा हो जाना खुद में एक बोझ है.
मनुष्य प्रकृति का ही एक हिस्सा है पर समझता वह
खुद को मालिक है. इस (अन)अधिकार ने उसे विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है. अब समय
है कि साहित्य, कला और राजनीति के केंद्र में प्रकृति को लाया जाए.
हिंदी में कभी प्रकृति चेतना का साहित्य विकसित
हुआ तो उसकी सबसे बड़ी लेखिका महादेवी होंगी. जिस लगाव और बराबरी पर वह मनुष्यइतर
प्राणियों से व्यवहार करती हैं वह दुर्लभ है. अब यह जांचने का भी समय है कि जो
हमारे बड़े लेखक हैं उन्होंने पशुओं के नामों का किन अर्थो में उपयोग/ दुरूपयोग
किया है. अगर आप किसी मनुष्य को कुत्ता, गधा या सूअर कहते हैं तो आप प्रकृति
विरोधी चेतना के लेखक हैं. खैर चेतना का विस्तार समय के साथ होता है.
बैलों को केंद्र में रखकर सत्यदेव त्रिपाठी के
संस्मरण का पहला भाग पसंद किया गया है, यहाँ तक कि रंगमंच और फिल्मों से जुड़े
कलाकारों को भी यह पसंद आया है. रोजमर्रा की बेजान भाषा के बरक्स जानदार भाषा में
लिखा गया यह संस्मरण अपूर्व है. इसका दूसरा हिस्सा प्रस्तुत है. पहले का लिंक भी
दिया जा रहा है.
और वो सुघरका
सत्यदेव त्रिपाठी
करियवा-उजरका के जाने के सात साल बाद आया सुघरका ....
इस बीच बडा पानी गुजरा सर से...
खेत वग़ैरह रेहन रखके पहले एक, फिर काम न चलने पर दूसरा
बैल भी खरीदा, पर कम पैसे लगाये, तो कम औकात के बरध मिले.... ऊपर से मेरे बढते
अभावों में पुन: उनकी अच्छी जतन न होती और काम तो ज्यादे होते ही.... सो, वे भी
कमज़ोर रहते और खेती भी ठीक से न हो पाती.... फिर भी लटते-बूडते एक साल निकला.
लेकिन तभी आ गया डाक-तार विभाग में क्लर्क की
नौकरी का पत्र – ‘जिमि करुणा महँ अद्भुत रस’.... संयोग से वे 1971 की गर्मियों के
दिन थे, जिसे ‘जेठी का माथा’ कहते हैं - जब साल भर की खेती-बारी का विधान तय होता
है. और मैंने आव देखा, न ताव; सारी खेती अधिया पर देकर, बैलों को बेचकर चले जाने
का फैसला कर लिया.... माई-बडके बाबू अवाक्.... जिसने भी सुना – अपने गाँव से लेकर
आस-पास के गाँव एवं नात-हित... सबलोग समझाने आये.... एक बीघा खेत बेचकर कर्ज़ चुकता
करके ठाट से खेती करने की नेक सलाहें दीं...सब सचमुच मेरा हित चाहते थे, पर मैंने
एक न सुनी – पुश्तैनी सम्पत्ति को बेचने से साफ इनकार कर दिया. और सबकी अनसुनी
करके निकल ही गया....
पत्र था चयन की सूचना का, बुलावा का न था. एक साल
लग गया प्रशिक्षण की बारी आने में. इस दौरान छोटे-मोटे काम करके रिश्तेदारों के
यहाँ रहा – कार से दुर्घटना का शिकार होकर तीन महीने अस्पताल में बीते....
ट्रेनिंग के बाद फरवरी 1973 में नौकरी पे लगा, तो
पढने की अतृप्त इच्छा का भूत सर पे चढ बोलने लगा - जून में बी.ए. में दाख़िला कराके
माना. एमए. तक चार साल लगने ही थे. गुरुवर चन्द्रकांत बान्दिवडेकर की संस्तुति पर
परीक्षाफल आने के तीन महीने पहले ही 6 जुलाई 1977 से चेतना कॉलेज में प्राध्यापकी मिल
गयी....
पुराने पाठ्यक्रम की अतिरिक्त कक्षाएं अलग से मिल
गयीं. खूब काम किया, अच्छे पैसे आये और जून, 1978 में घर जाके सारा क़र्ज़ अदा किया
और ठीक 7 सालों बाद नये सिरे से खेती शुरू करायी.... नक़द वेतन व कुछ खेत देकर पूरे
समय का आदमी रखा और दो बैल खरीदे, जिनमें आया वह सुघरका....
उसका नाम सुघरका न था, बल्कि उसका कोई नाम ही न
था. ये तो करियवा-उजरका के वजन पर मैं लिख रहा हूँ – सुघरका, क्योंकि वह सचमुच
बहुत ‘सुग्घर’ – सुगढ (वेल शेप्ड) था – भरत व्यास के शब्दों में कहूँ, तो ‘बडे मन
से विधाता ने ‘उसको’ गढा...(घडा नहीं, जैसाकि उस गीत में गाया गया है). उसकी सुघरई
ही थी कि पहले ही दिन जो बैल खरीदने निकले और घर से तीन ही किमी. पश्चिम के गाँव बक्कसपुर
(बक्सपुर-बख़्शपुर) में वह दिखा, तो सप्ताह भर चहुँ ओर दसों कोस के मान में सायकल
से ढूंढते रहे, कोई बैल मन को भाया ही नहीं, क्योंकि आँख में यह जो गड गया था–
बल्कि गोपियों के कृष्ण की तरह ‘तिरिछे ह्वै जु अड्यो’ हो गया था....
वह जमाना था
कि एक बैल खरीदने के लिए हम सात लोग जाते – जंगी काका, प्रभाकर चाचा, रामाश्रय भाई
साहेब, रामप्यारे-रामपलट व रामपति भइया और मैं- ऐसी सामाजिकता व सामूहिकता तब
थी.... सबके पास समय था, क्योंकि दिली इच्छा थी. शायद इसी को पाने-जीने मैं मुम्बई
छोडकर गाँव आया, पर अब तो समूची जिन्दगी ही ‘समय और इच्छा के द्व्न्द्व’ में
नष्टप्राय हो चुकी है– समाज-समूह की बात ही क्या...!!
ख़ैर, गँवईं सम्बन्ध में
सबसे परिचित होने के बावजूद इस बैल के मालिक सज्जाद भाई सात-सात लोगों के
इसरार-हुज्जत के बावजूद 1200 रुपये से एक पैसा कम करने को तैयार न थे. तर्क देते –
‘1300 कहके 1200 करता, तो कया करते आप? छह महीने बाद दीजिए, बैल आपका है, ले
जाइये, पर दीजियेगा 1200 ही...’. बात की ऐसी सलाहियत भी थी हमारे ‘लोक’ में
तब...!! आखिर हारकर उसी कीमत पर लाये – हारे सज्जाद भाई से नहीं, सुघरके की सुघरई
से....
लेकिन कहना होगा कि वह आया, तो देखकर पूरे गाँव का
जी जुडा गया. गाँव ही क्या, आते-जाते राही भी खडे हो जाते. देर तक निहारते....
कभी-कभी तो वह बैठा होता, तो आने-जाने वाले लोग पूरा देखने के लिए उठा देते....
हालत ऐसी हो गयी कि खेत से चलके आया होता, उसे आराम की ज़रूरत होती – बैठा होता और
कोई उठा देता.... इस हरकत से माँ एकदम झल्ला जाती.... परिणाम यह हुआ कि चलके आने
के बाद उसे अन्दर बाँधा जाने लगा, ताकि बैठ के निश्चिंतता से आराम कर सके.... उस
बार मेरे मुम्बई आने के पहले माँ ने बरदौर (बैलों वाले घर) में दरवाजा लगवाया –
दीन्हेंउ पलक कपाट सयानी की तरह.... ऐसा पहली बार हुआ, वरना बैलों के घर बिना
दरवाजे के ही होते रहे. बस, दरवाजे की दोनो दीवालों में आमने-सामने गड्ढे जैसा बडा
छेद होता, जिसमें रातों को बाँस का एक टुकडा लगा दिया जाता, ताकि जानवर छूट जाये,
तो बाहर न जा पाये.... उस बाँस के टुकडे को ब्योंडा कहते – ब्योंडा लगाना – वही
भारतेन्दु बाबू वाला – ‘लै ब्योंडा ठाढे भये श्री अनिरुद्ध सुजान’. अब माँ बाहर से
ताला लगा देती. उसे डर था कि रात को कोई ‘छोर’ ले जायेगा.... ताले के बावजूद रातों
को उठ-उठके देखती.... इस पर शुरू-शुरू में गाँव में कुछ बोली (तंज) भी बोली
गयी..., पर माँ पर फर्क़ न पडा....
लेकिन सूरत ही नहीं, उसकी सीरत भी शानदार थी.
सज्जाद ने कहा था – भाई, चाल इसकी मीठी है - दौड के नहीं चलता, चलेगा अपनी चाल से,
पर आपके मन और जरूरत भर. यह सच था. दिन भर भी हल चलाओ, या जो भी काम लो, एकरस चलता
रहता – न चेहरे पर सिकन, न हाँफा (तज साँस), न झाग़, न तनिक भी कसरियाना.... सारा
पैसा इसमें लग गया था, इसलिए दूसरा बैल सस्ता लिया था, तो औकात में हल्का था.
इसलिए बडे और कठिन काम के लिए पियारे भइया (रामप्यारे भाई) के ऐसे ही कद्दावर बैल
के साथ जोडी बन गयी थी. पूरे गाँव के कठिन काम यही जोडी करने लगी.
उस साल सारे
गाँव का गन्ना इन दोनो की जोडी ने ही बोया. गन्ने के हल को ‘पहिया धरना’ कहते, जो
बहुत मेहनत का काम होता. इसमें नौहरे (भारी हल) में अतिरिक्त सँगहा (पुआल-पत्ते)
बाँधके चौडा-मोटा कर दिया जाता, ताकि चौडी-गहरी नाली बने. इसमें ‘हराई फानना’
(पहली लाइन चलाना) बडे कौशल का काम होता. इसके लिए बैल व हल चलाने वाला बहुत कुशल
होने चाहिए. और यह जोडी तथा पियारे भइया की ऐसी ही कुशल संगति थी – हराई तो सबकी
उस साल पियारे भइया ने ही फानी थी.... और ऐसी संगतियां हर गाँव में हर समय कोई न
कोई होती ही थी.... इस तरह सारे गाँव का जी ही नहीं जुडाया, सुबिस्ते से हुए बहुत
चौचक काम से गाँव लाभान्वित भी हुआ....
सूरत-सीरत के साथ ही सुघरका की आदतें भी निराली
थीं. खेत से काम करके आते ही सारे बैल नाँद पे भागते और हाबुर-हाबुर (हाली-हाली -
जल्दी-जल्दी) खाने लगते..., लेकिन सुघरका हल से आकर बैठ जाता – दो-चार घण्टे. पूरी
थकान उतारके तब खाता. इतने में शाम के 4 बज जाते – खाते-खाते छह बजते. तो, शाम का
खाना भी देर रात को खाता. उसकी नाँद को चारे से भरकर, खरी-दाना चलाके माँ सो जाती.
सुबह नाँद में एक तिनका तक न मिलता – खाके सब चाट जाता. इसी तरह सारे पशु अमूमन
पानी-चारा साथ में खाते हैं, जिसमें यथाशक्ति खरी-दाना डाला जाता है. इस समूचे कार्य-व्यापार
को ‘सानी-पानी करना’ कहते हैं– पानी में सना चारा-दाना. लेकिन अपना यह बच्चा सूखा
चारा खाता. उसी में खरी-दाना मिला देते. और खाने के बाद अलग से पानी पीता – दो
बाल्टी पूरा. या तो बाल्टी में ही रख दो या फिर उसकी नाँद में डाल दो.
सुद्धा
(सीधा) इतना था कि कोई भी बाँधे-छोडे-सहलाये..., उसके ऊपर लोटे-पोटे, कुछ न बोलता.
उसके लिए वह मुहावरा सबकी ज़ुबान पर चस्पा हो गया था – ‘एकदम गऊ है’. बस, एक ही
संवेदनशील बिन्दु (सेंसेटिव प्वाइण्ट) था उसका – नाक के ऊपर दोनो आँख के बीच तक के
हिस्से पर वह ‘पर तक न रखने’ देता. उसे छूने, साफ करने की बहुतेरी कोशिश मैंने चुनौती
की तरह की; लेकिन नहीं, तो नहीं छूने दिया.... बस, साल में दो-एक बार जब मैं घर
रहता, तो तालाब में नहलाकर पौंडाते हुए पानी में दबाके उस भाग को धो देता और
चुनौती पूरा करने का मनोवैज्ञानिक संतोष पा लेता.... वरना तो ऐसे मे नाथ (नाक को
छेदके गरदन में बँधी रस्सी) को खींचते हुए पकड कर बैलों को काबू (कंट्रोल) में
लाने का अचूक चलन है. (क्या यही तो नहीं है आरतों को भी सुहाग के प्रतीक रूप में
नथ पहनाने का मतलब? कुछ औकात न हो, तो भी नथुनी-पियरी से ब्याहने का मतलब? ‘नथ
उतारने’ का मतलब और नथुनियां ने हाय राम बडा दुख दीना’ गाने का मतलब...?) किंतु इसे
आज़माने पर भी अपनी नाक की सारी पीडा की परवाह न करते हुए हमारा सुघरका अपने दोनो
अगले पाँव उठाकर खडा हो जाता..., लेकिन तब भी हमें हानि पहुँचाने तो क्या,
फुंकारने तक की प्रतिक्रिया नहीं देता.....
ऐसे प्राणी को पाकर माँ को तो समझो कोई निधि ही मिल
गयी हो. जैसे काका उजरका-करियवा की नींद सोते-जागते, इसके साथ माँ का जुडाव उससे
भी कहीं अधिक हो गया.... जाहिर है कि उसमें स्त्रीत्त्व की ममता के गाढे रंग ने
ऐसी मिठास व प्रियता भर दी, जो अकथनीय व अविस्मरणीय है. हालांकि उसी ममत्त्व की
अतिशयता ने सुघरका के खाने-पीने, रहने-सहने में कुछ अतिवादी आस्वाद व अरुचियां भी
पैदा कीं, तो माँ में आसक्ति की कातरता-भीरुता, लेकिन अनुरक्ति (ऑब्सेशन) की ये अनिवार्य, पर
अपरिहार्य हानियां (निसेसरी इविल्स) हैं.... उन्हीं दिनों घर के पीछे का हिस्सा
मैंने पक्का कराया, जिसमें बायीं तरफ का कमरा माँ के सोने का था. उसी के बायें बाहरी तरफ बैलों का घर था. मैंने
वहीं बडा जंगला लगवा दिया, जिसे खोलकर जब चाहो, उन्हें देख लो. फिर तो सोने में भी
सुघरका पैर पटके, तो जंगला खोल कर माँ देखने लगे.... इस तरह ‘उसकी नींद
सोने-जागने’ का मुहावरा व्यवहार में भी सार्थक हो गया.....
लेकिन दुर्भागय वश यह स्नेह-सम्बन्ध व कर्मयोग
ढाई साल ही चला. तीसरे कार्त्तिक में ठीक बुवाई के वक्त वह काम करने वाला अचानक एक
सुबह बिना बताये नहीं आया. पूछने पर वेतन बढाने की बात माँ के साथ दबंगई से की, जो
मुझे असह्य रूप से नाग़वार लगा. खेती के अलावा पशुओं के काम करने वाले किसी के न
होने की हमारी मजबूरी को भुनाना चाह रहा था. छोटे-मोटे पचडे भी बहुत थे, जिससे माँ
को अवांच्छित कष्ट होता. लिहाजा पहली बार की ही तरह मैंने तुरत-फुरत में सब कुछ
बन्द कर दिया. सारी खेती ठीक पर दे दी, जिसमें करने वाले का नुक्सान हो या फायदा,
हमें उतना अनाज मिल जाता है, जितना बीघे के हिसाब से तय हुआ है. यही आज भी चल रहा
है. अनाज की मात्रा समय के अनुसार बढती है. उस वक्त भारी समस्या दोनो बैलों की थी.
बेचने की घोषणा कराके मैंने सुघरके को पियारे भइया और दूसरे को रामपलट भइया के
खूँटे बँधवा दिया. उनसे कहा – जब तक नहीं बिकते, खिलाइये और जोतिये. जब दाम खुल
जाये, तो उतने में चाहे, तो आपलोग ही ले लीजिए या फिर बेच दीजिए....
आपात्कालीन ही सही, यह व्यवस्था इसलिए भी अच्छी
सिद्ध हुई कि सुघरका और माँ एक दूसरे से छूटकर भी जुडे रहे.... बार-बार माँ जाके
दोनो का खाना-पीना देख आती, उनके मन का कुछ खिला आती . सुघरका को जब खाने-हटाने के
लिए छोडा जाता, खिंचाके अपने घर चला आता. चलके खेत से आता, तो जोडी वाले बैल को
लिये-दिये वहीं चला जाता.... बडी मुश्किल से वापस जाता - कुछ-खिला-पिला के,
सहला-चुमकाकर के माँ विदा करती – रो भी लेती.... इस तरह दोनो के मन को धीरे-धीरे
मोहँठने का मौका मिल गया....
करियवा-उजरका का जाना तो दैविक दुख था, जिसमें
अपने अभाव भी मिल गये थे. इसीलिए दोनो को पूरने की चाहत दबकर भी बनी रह गयी थी,
जिसने यह संसार फिर रचवाया. लेकिन समर्थ होकर भी इस भौतिक विडम्बना का क्या
करें...? मनुष्य की इस फितरत को बदला नहीं जा सकता, के अहसास ने फिर तीसरी बार किसी
‘सँवरइया’ या ‘समया’ (रंग के अनुसार बैलों के सामान्य नाम) को रखने के सपने को तोड
दिया.... फलत: ‘अब अपने तईं खेती शुरू नहीं करूँगा’ की कसम बिना खाये ही यह हीरामन
की ‘तीसरी कसम’ सिद्ध हो रहा है.... और कैसे कहूँ कि इन तीनो पशुओं की टीस कितनी-कितनी
बार पशु बनने से बरबस बरजती रहती है....
अथ क्षेपक – पशु-कथा का वर्तमान -
अब बैलों के उस घर में हमारी गाय अकेले रहती है
और पंखा भी लग गया है. अभी पिछले 6 जून तक अपने बछडे के साथ रहती थी. 7 जून को उसे
छोड दिया गया. साल-सवा साल पहले जिस शुक्र के दिन वह बच्चा पैदा हुआ था, मेरी बडी
बहन यहीं थी – नामकरण की मास्टरनी है वह. धरती गिरते ही कहा था – शुकदेवजी आये
हैं.... पर बाछों की आगामी त्रासदी में उनके साथ होने की खुशियां भी नहीं मना पाते
– नाम लेकर कभी खेलाया नहीं उसे, खेला नहीं उसके साथ...हमेशा एक डर की तलवार टँगी
रही.... आखिरी बार इन माँ-बेटे से मिला था अभी अप्रैल के अंत में. तब गाय दूध बन्द
करने की प्रक्रिया में थी. जिस बेला दूध नहीं देना होता, गायें पिलाती नहीं बच्चों
को. ऐसे में मैं उसे कुछ खिलाने-सहलाने जाता, तो मेरी उंगलियां यूँ चूसने लगता –
गोया उसकी माँ की छिम्मियां (स्तन) हों. माथा लडाकर लाड कराता था. उसका गोरा-गदबदा
स्पर्श भुलाये नहीं भूलता.... ऐसे प्यारे-दुलारे बच्चे को छोड दिये जाने की आसन्न
पीडा से ‘वाष्पस्तम्भितकण्ठत्वाद्’ उसी पर लिखने बैठ गया था...और दो-चार पंक्तियां
लिखते ही अचानक करियवा-उजरका और उस सुघरका की स्मृतियों का सोता फूट पडा.... सो,
इस पूरी पशु-कथा लेखन का श्रेय उसी बच्चे को है, जो आज जाने कहाँ होगा....
अस्तु, इसे उस बच्चे की याद को समर्पित करते हुए बेबस दिल की आहों से प्रार्थना करता हूँ कि वह जहाँ हो, कुशल से हो...!! व्यवस्था से मजबूर किसान और कर भी क्या सकता है?
अस्तु, इसे उस बच्चे की याद को समर्पित करते हुए बेबस दिल की आहों से प्रार्थना करता हूँ कि वह जहाँ हो, कुशल से हो...!! व्यवस्था से मजबूर किसान और कर भी क्या सकता है?
(पहला हिस्सा)
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सम्पर्क:
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सम्पर्क:
सत्यदेव
त्रिपाठी
मातरम्,
26-गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू, वाराणसी – 221004
मो.-
9422077006
प्रकृति चेतना के साहित्य की जो आपने बात कही वो मुझे कहीं दूर तक छू गयी।
जवाब देंहटाएंइस पर वाक़ई इस तरह से काम होना चाहिए।
ऐसा लिखा कि वाष्प से लेखक का ही नहीं, पाठकों का गला भी भर जाए, अवरुद्ध हो जाए, धुँधला दीखने लगे।
जवाब देंहटाएंकरियवा उजरका के बाद सुघरका का स्मृति चित्र अपनी मार्मिकता में बेजोड़ है।
प्रेमचंद की कहानी के दो बैलों की कथा युगारंभ की थी - स्वातंत्र्य चेतना के उदय की।
सत्यदेव त्रिपाठी के इन बैलों की कथा युगांत की है। इतने लंबे समय से किसान और बैल के संग-साथ की समाप्ति-कथा।
संवेदना के अवसान और बैलों के अंतर्ध्यान होने से ठीक पहले सत्यदेव त्रिपाठी का यह दस्तावेज़ीकरण ऐतिहासिक महत्व का है।
आख़िरी पंक्तियों में जिस समस्या की ओर इंगित किया गया है वह इस समय पशुपालन की त्रासदी बन गई है।
जवाब देंहटाएंसंस्मरण पढ़कर जी जुड़ा गया।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-06-2019) को "बरसे न बदरा" (चर्चा अंक- 3370) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
पढ़ते हुए कई बार आँखें भर आईं। करियवा-उजरका भी याद आए। लेकिन सुघरका से होते हुए आख़िर में इस बछड़े का प्रसंग तो अवसन्न कर जाता है जो लेखक से माथा लड़ाकर लाड़ करवाना चाहता है और जिसे कुछ ही दिनों बाद अकेला छोड़ दिया जाना है।
जवाब देंहटाएंपढ़ने के बाद सोचता रहा कि हम बात-बात में विलक्षण और अद्भुत का कितना बेज़ा इस्तेमाल करने लगे हैं। सच कह रहा हूँ– पता नहीं कितने लंबे समय बाद ऐसी कोई चीज़ पढ़ी जो इन शब्दों को चरितार्थ करती है।
यह पशुओं से प्रेम करने का एकतरफ़ा वृतांत होता तो कोई भी फ़ौरी भावुकता से उबर कर आगे बढ़ जाता। लेकिन यहाँ पशु और आदमी का साथ मिल कर काम करना जीवन की निर्विकल्प स्थिति बन कर आया है। और इसी से अस्तित्व की अनिवार्य सामूहिकता, अंतर्संबद्धता का रहस्य खुलता है: जो भी अस्तित्व की इस सामूहिकता को विछिन्न करना चाहता है, अंतत: अलगाव के ब्लैक होल में गिर जाता है।
लोगों का जीवन मशीनों, गैजेट्स, सीमेंट, लोहे और प्लास्टिक से अँट गया है। क्या आधुनिक जीवन की यह विकलता हमारी इसी निर्ममता का परिणाम नहीं है कि मनुष्य ने ख़ुद को प्रकृति के अन्य सहज सहचरों से काट लिया है? हम एक निरी मनुष्य-केंद्रित सभ्यता बन गये हैं, जबकि प्रकृति की अपनी योजना में यह मरहला तयशुदा नहीं था।
इन शब्दों में साहित्य पीछे छूट गया है प्रकृति जानवर और इंसान के बीच स्नेह संवेदना के तंतु अधिक मुखर हैं। जिन्होंने ऐसे सम्बन्ध बनाए हैं उन्हें सींचा है उनके साथ जिया है वे और अधिक समझ सकते हैं करियवा उजरका और सुघरका के साथ को। आँखें नम हो गईं इसे पढ़कर। बहुत धन्यवाद लेखक और 'समालोचन' को यह पढ़वाने के लिए।
जवाब देंहटाएंसमय के साथ अभावों से जूझते किसान की त्रासदी में अब बढ़ावा कर रहे है नर बछड़े, लोग छोड़ देते है , ये साँड़ बन जाते है , पूरा समूह खड़ा है इनके ख़िलाफ़ ; पशुओं से जुड़कर ज़िन्दगी वही नहीं रहती , बधाई इस कथा के लिए
जवाब देंहटाएंसत्यदेव जी के आलेख पर नरेश जी ने बहुत सार्थक टिप्पणी दी है। आलेख बेहद मार्मिक है और हम जैसे पशुओं में सगे संबंधी ढूँढ़ लेने वाले लोगों को पुनः अपनी जड़ों की ओर लौटने का सुख देता है।
जवाब देंहटाएंबेहद रोचक। कृषि संस्कृति की पड़ताल करता , बैल प्रेम पर लाजबाव लिखा है आपने...l संवेदना , सौंदर्य, सामाजिक चेतना और सरोकारों का अनूठा संस्मरण है, जो माटी और जीवन से फूटा है...
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