मैं और मेरी कविताएँ (५) : अम्बर पाण्डेय



Poetry is everywhere; it just needs editing.

 James Tate


समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ मैं और मेरी कविताएँके अंतर्गत आशुतोष दुबे’, ‘अनिरुद्ध उमट, रुस्तम और कृष्ण कल्पित को आपने पढ़ लिया है.

आज समकालीन युवा कवियों में चर्चित, प्रशंसित और निंदित अम्बर पाण्डेय को पढ़ते हैं कि आख़िर वे कविताएँ क्यों लिखते हैं और उनकी कुछ नई कविताएँ भी. अम्बर विलक्षण तो हैं हीं औघड़ भी हैं.

दर्शन शास्त्र में स्नातक अम्बर रंजना पाण्डेय ने सिनेमा से सम्बंधित अध्ययन पुणे, मुंबई और न्यूयॉर्क में किया है. संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी और गुजराती भाषा के जानकार अम्बर ने इन सभी भाषाओं में कवितायें और कहानियाँ लिखी हैं. इसके अलावा इन्होने फिल्मों के सभी पक्षों में गंभीर काम किया है. इकतीस दिसंबर 1983 को जन्म. अतिथि शिक्षक के रूप में देश के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अध्यापन कर चुके अम्बर इंदौर में रहते हैं. इस वर्ष रज़ा फाउंडेशन द्वारा वाणी प्रकाशन से अम्बर का पहला कविता संग्रह ‘कोलाहल की कविताएँ’ प्रकाशित हुईं हैं.





मैं और मेरी कविताएँ (५) : अम्बर पाण्डेय                  




मैं कविताएँ क्यों लिखता हूँ
अम्बर पाण्डेय


मेरी कविताएँ फंतासियाँ हैं. जो भी संसार में मैं पा नहीं सका मेरी कविताएँ उनकी सृष्टि करने का प्रयास है. किसी महान आदर्श से संचालित न होकर मेरा काव्यसंसार रत्न, रेशम, मोरपंख, मसाले, ऊद-चन्दन से लदा एक जहाज है जो अतृप्ति के समुद्र पर यात्रा करता है. मेरे लिए सौंदर्य की सृष्टि ही जीवन और जगत में जो भी पाप उसका प्रतिकार है. इसे कोई अधीर पलायन कह सकता है किन्तु पुण्यश्लोक को खोजना प्रतिरोध के असंख्य प्रकारों में से एक ही तो है.

कविता विषय कषाय मन में ही हो सकती है. दूसरी और मैंने अपने जीवन का अधिकांश भाग वेदान्ताध्ययन, पूजापाठ, मंत्रों, निध्यासन और स्वयं को भाँति भाँति की यातनाएँ (sort of penances) देकर नष्ट करने के प्रयास  में व्यतीत किया है.

छोटी वय में ही विभिन्न संघर्षों में डाल संसार ने मुझे जैसे बहिष्कृत कर दिया था किंतु जीवन के प्रति संसार के प्रति गाढ़ आसक्ति का बीज मैं अपने साथ ले आया.
उसी बीज से मैंने कविता में उस संसार उस जीवन की प्रतिकृति गढ़ ली- एक प्रकार का प्रतिसंसार. मेरा संसार काल्पनिक है. कुछ लोग, हिंदी भाषा के ही बहुत लोग; उसकी यह कहकर भर्त्सना भी करते है. (आपको तो ज्ञात है ही.)

यह संसार उसकी कल्पना है जो संसार में रहना चाहता था किंतु इस संसार ने ही उसे निष्कासित कर दिया- a type of unrequited love for the normal life which i couldn't  afford.

आश्चर्य नहीं कि मेरी कविताएँ और गद्य का बहुत सारा भाग अतीत में विचरण करता है क्योंकि मेरे लिए वर्तमान में कविता सम्भव ही नहीं.  सूज़न हाउ ने हेनरी जेम्स के विषय में कहीं लिखा है,

“But Henry James is - profoundly so (comforting). Because he is tender. The tenderness is there in the structure of the sentence. He knows the way the poor and the dead are forgotten by the living, and he cannot allow that to happen. So he keeps on writing for them, for the dead, as if they were children to be sheltered and loved, never abandoned.”  

मेरी कविताएँ भी मृतकों के लिए ही है. पढ़ते भले उसे जीवित हो मगर वह सम्बोधित उन्हें ही है जो लौटकर नहीं आ सकते, जो भुला दिए गए है. इस संवाद को सम्भव करने के लिए समकालीन भाषा मेरे बहुत काम की नहीं थी, मुझे उसे बहुत तोड़ना पड़ा. समकालीन भाषा की स्मृति बहुत कमज़ोर थी और स्वर्गीयों का स्मरण करने के लिए, उनसे संवाद के लिए स्मृति बहुत बलवान होनी चाहिए. मैं सिनेमा का विद्यार्थी रहा हूँ. पढ़ाई के बाद मैंने देखा कि सिनेमा बनाना बहुत महँगा काम है और जो बातें मुझे सिनेमा के माध्यम से कहना है उसके लिए मुझे बहुत पैसे की ज़रूरत होगी. तब मैंने लिखना शुरू किया.  मैं बहुत देर से लेखक बना और विस्मृति के विरुद्ध जो भाषा मुझे चाहिए थी, वह भाषा मैंने साहित्य से अर्जित नहीं की बल्कि सिनेमा से की. यही कारण है कि विस्मृति के अंधे कुँए में मैं निर्भय भ्रमण करता हूँ.

भाषा और बोलियों के प्रति मेरे मन में लगभग ऐंद्रिक कामना है, मैं बहुत सी भाषाएँ, बोलियाँ, creole और लिपियाँ सीखता रहता हूँ, सीखना चाहता हूँ. क्लासिकल भाषा, स्थानीय बोलियाँ या राजभाषाओं में फ़र्क़ है, मेरे लिए कविता उस फ़र्क़ के अतिक्रमण का भी साधन रही है. देवताओं का creole में अचानक बोल पड़ना, subaltern का देवभाषा में संवाद करना या केवल भाषा का उपयोग करना भर मेरे लिए कविता है. मध्यकालीन केथोलिक दार्शनिकों की तरह मैं भाषा को ईश्वरप्रदत्त भेंट भी मानता हूँ और आधुनिकों की तरह सुदूर इतिहास से अब तक मनुष्यों द्वारा गढ़ा-उजाड़ा जाता अभिव्यक्ति का साधन, यह दोनों जिस गंगासागर में मिलते है वहीं कविता है.

प्राचीन वैयाकरणों ने शब्दब्रह्म के विवर्त को संसार माना, मेरे निकट कविता आधी शब्दब्रह्म में और आधी विवर्त में है. फिर मोन्तें भी लिखने को बहुत (या केवल) गम्भीरता लेने पर चेताता है,

“'Our life consists partly in madness, partly in wisdom,'” he wrote. 'Whoever writes about it merely respectfully and by rule leaves more than half of it behind.' Michel de Montaigne.

जो रचा गया है वह टेक्स्ट तो केवल दीये की तरह है- सोने का हो, मिट्टी का, नया हो या अनेक वर्षों के उपयोग के कारण एकदम काला पड़ गया हो, क्या अंतर पड़ता है क्योंकि जब वह जलाया जाता है तब दृष्टि की ज्योति के अनुरूप ही उससे सब अपना अपना आलोक ग्रहण करते है.





वसन्त की रातें

दर्शन पढ़ने से अच्छा है कि दर्शन हो तुम्हारे; वसन्त
की इन ऊष्ण होती रातों को. मन में लिए लिए सृष्टि
भटकना ही तुषारपात है. कवि वह कितना अकेला
है, जिसका मन कविता
हो गया है और विषय भी

भीतर है. बाहर न ब्रह्म न बन्धु कोई. तुम्हें देखकर
प्रथम बार मैंने जाना फाल्गुन पंचांग का अंतिम
महीना नहीं, सच में आता है.
दुनिया ढोते मन का भार
उतरा. पत्र पुरातन झड़ गए. कोंपलों से भर
गए पोर पोर. एक से दो हुए. ख़ुद को बाँटकर दो में,
फिर फिर एक होना ही वसन्त है, शहद का छत्ता
है; हाथ तक आता और है
भ्रमरों की भरमार आँखों के
आसपास. डंक मारेंगे यह, इसकी सम्भावना भी.






आसापुरा के आगे खेत और वन दोनों है


धूप बेर के झाड़ों के नीचे सोने के
रंग की नहीं हुई है अभी तक. बेर-बरन
छाँह छाँह बीच सो रही. तिथि से तो नींबू
को पक जाना था अब तक. पर्व से धूप को
नींबू के छिलके की तरह भरना था गन्ध
और स्वाद से. दूर से देखने पर नदी

दर्पण सी चमकती है मगर निकट से नदी
शीतल और शान्त बह रही है. सोने के
गहनों सी सूखी डालें झुकी जल पर, गन्ध
से भरी है हवा; तराशे स्फटिक के बरन-
वाली. धूप सी खालवाले मृग धूप को
खाल समझ ओढ़े हैं. चिड़ी कुतरती नींबू.





इच्छुक

इच्छा का विभुवन औंधा है .
भोगायतन दीवट की भाँति
जर्जर होता गया पर ज्योत 
इच्छा की जगमग रहती है.

दीवट घोड़े की लीद छबा.
दीपक भी है टूटाफूटा,
कज्जल से कालू. बाती ली 
माढ़ फटी कछनी के सूतों
से फिर भी उजियाला जगमग,
जागरित, जी जोड़नेवाला

ही होता है. इच्छा के इस
संदीप का उजेला है यह
जगत. बुढ़ाती देह कामना
वैसी ही है ताजा-तरुणी

आखेट की फिराक में तरुण-
ताजा की. अन्धेर भले हो


बाहर, भीतर दीवट जर्जर.
उज्जवल है तब भी कामना
का कोना.







हाँ, मेरा-उसका लफड़ा था

गंध जापानी चेरी के फूलों जैसी आती है उसकी पीठ की
त्वचा से. कारोबार है बहुराष्ट्रीय इस समय
के. दूर निशिनोमरो वन से बनकर आई है उसके
तरल साबुन की शीशी.
व्यायामशाला में बना हुआ

मेरा शरीर वह अपनी खिड़की से देखती रहती है
क्या अवसन रहने का प्रण लिया है अवसान
तक तुमने?” कवि को प्रेम
करते उसका विनोद हो गया इतना भाषिक. टीशर्ट
उतारकर गेंद बना मैं उसकी खिड़की में फेंक

देता हूँ. गंध उस टीशर्ट में जापानी चेरी की नहीं, गन्ध
है पसीने की और छेद जिन्हें उसने उँगली डाल
जानबूझकर बड़ा कर दिया था. हृदय नहीं त्वचा है
शरीर का सबसे बड़ा अंग और इसी के कारण
सम्भव है प्रेम. तलवों की मृदुल और कसी हुई त्वचा
से स्तनों की त्वचा कितनी भिन्न और तुम्हारी कॉलर

की हड्डियों पर चढ़ी त्वचा कैसे मुड़ती है कंधों में खोती
हुई जैसे अनारफल का छिलका रंग बदलता
जाता है जो हाथों में लेकर उसे घुमाओ तब. सबसे है
कोमल त्रिवली, तुम्हारे कामुक होने का पता मुझे
यही देती है ज्यों लता पर बंधूक खिल जाता है. त्वचा में

तीर के धँसने या चाक़ू घोंपने के अनेक चित्र है
दुनिया के अजायबघरों में मगर अब तक किसी ने
देर तक हृदय स्थान की इसी त्वचा को चूसने के
बाद पड़े धब्बे का चित्र न बनाया, क्या बेधना ही सबसे
सुन्दर जैसे उन्हें बस भीतर तक धँसनेवाला
प्रेम ही श्रेय है जैसे कि स्त्री
और पुरुष के मध्य केवल कामुकता अनैतिक है.





मुक्तिबोध के पीछे सीबीआई

तुम तो बड़े कवि थे मैं हूँ छोटा आदमी
किन्तु हम दोनों डरते रहे देखकर पुलिस.
कविता, दस इंच बाय सात इंच की किताब
में जो लिखी थी हमने अँधेरे के विरोध
में, देखो, वही अँधेरे की बेलें बनकर
फैल गई भीतर. भागते है देख वर्दी.

डिटर्जेंट, मार्क्स, सच से भी हम वर्दी
धो नहीं पाए है. पहना है जो आदमी
इसे, जो इसे देता है- सुथरा है. बनकर
घूम रहा शाह, वज़ीर, मुंसिफ, अफसर, पुलिस
हमलोग चूहे बन गए है अपने विरोध
से खुद ही डरे हुए. क्या कर लेगी किताब!





रोज़ा लक्सम्बुर्ग का शव


“Freiheit ist immer die Freiheit des Andersdenkenden"
(Rosa Luxumburg born: 05/03/1871 Death: 15/01/1919)


भौंहों के बीचोंबीच बंदूक़ की गोली से हुए छिद्र से पानी 
टपकता है कवियों के लिए सबसे सुन्दर दृश्य.

फिर कोई विदेशी इतना विदेशी नहीं होता कि उसके
विचार से प्रेम न किया जा सके. चार मास पुराने
शव की नदी से होती वह भव्य लड़ाइयाँ इतिहास के
विषय और कविता की निराशा ही नहीं है. (पंक्तियाँ
यहाँ की कवि से खो गई है,
यों कवि ने बताया.) मछलियों
ने प्रेम किया चार मास रोज़ा लक्सम्बुर्ग के शव से
नदी में. उस शव को एक दिन अचानक मनुष्य आए
निकाल ले गए. स्वतंत्र चेता मनुष्य का माँस छह
हाथ के गड्डे में ठूँसकर क्या मिलेगा, मछलियाँ सोचती
रही. विचित्र है मनुष्यों की रीतियाँ. अपने सबसे
प्रिय मनुष्यों को बक्सों में क्यों रखते है या किताबों में दोनों
को जबकि नष्ट किया जा सकता है. रोज़ा लक्सम्बुर्ग
को खा अपना भाग बनाया जा सकता था. शून्य से भी कम
तापमान में दिनों तक रोज़ा लक्सम्बुर्ग नदी में खो

चुकी कितनी सुन्दर देती थी दिखाई. राइफ़ल की नली
माथे पर मारने पर विचार नष्ट नहीं होता है.
आँखों के बीच गोली चला भी विचार नष्ट नहीं कर सके
होंगे वह. शव को नदी में ज़ोर से फेंक देने पर
भी विचार बचा रह गया मगर याद रखो विचार है
सबसे कोमल संसार में, प्यार में पड़ी धोबन की
हथेलियों से भी कोमल है.



(२०१९ को रोज़ा लक्सम्बुर्ग की मृत्यु को सौ वर्ष पूरे हो गए.)




  पीछा करना

बीतने दो कुछ वर्ष फिर उसके पीछे पीछे भटकने
की बात याद कर तुम लजाओगे या हँसोगे खूब.
कैसे उसके पीछे मुड़ने पर सिनेमा के अभिनेताओं
की तरह तुम जूते के फ़ीते बाँधने लगते.
पीछे 
सौंदर्य के नष्ट हो जाने में कितना सौंदर्य है यह तुम
मन ही मन जानते हो पर किसी से कहोगे नहीं.

तल्ला कई बार बदला है; उन्हीं जूतों में चल सको पर
फ़ीते धागा धागा हो गए.
धूप में तेज चलना अब
सम्भव नहीं. पीछे पलट वह देखे अचानक फ़्लमिंगो
की तरह तो तुम मुड़
नहीं पाते उतनी जल्दी न
नाटक कर पाते हो उसे न देखने का. पुतलियाँ फँस
रह जाती है सुन्दरता पर, डुलती नहीं,
अकड़ूँ
हो गई है. सौन्दर्य उसका
वैसा ही रहा जैसे कवियों के
मन में चन्द्र की उपमा
रह गई, अब भी नवीन,

अब भी कौंधनेवाली मन में. अंधा करनेवाली उसकी
सुन्दरता, आँखें चौंधिया जाती और कुछ दिखाई न
देता. फ़्लमिंगो जैसे कभी भी उसका पीछे देखने लगना
वैसा का वैसा रहा और नहीं बदली चौराहों पर
बने फ़व्वारों का गंदा पानी पीने की उसकी आदत, वैसी
ही रही प्यास, वैसी ही है ओक से पानी पीने की रीति.
___________________

ammberpandey@gmail.com

18/Post a Comment/Comments

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  1. निशब्द

    बस इतना ही कि अम्बर की यात्रा का साक्षी हूँ 1998 से और आज यह पढ़कर प्रफुल्लित हूँ

    बहुत स्नेह

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  2. बहुत सुंदर कवि-वक्तव्य और कवितायें।

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  3. शिव किशोर तिवारी4 मार्च 2019, 2:18:00 pm

    आत्मकथ्य प्रायः एक्स पोस्ट फ़ैक्टो रैशनलाइज़ेशन होता है। एक सीमा तक यह भी है, परंतु अम्बर पांडेय के आत्मकथ्य में एक सच्चाई-भरा आत्म-साक्षात्कार है जो विरल है।
    साथ में लगी कविताएं सभी उत्कृष्ट हैं, केवल रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग वाली कविता कुछ फ्लैट है। अपनी पसंदीदा कविता का अंग्रेज़ी अनुवाद अलग से पोस्ट करता हूँ।

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  4. सबसे अच्छी कविता है — रोज़ा लक्सम्बुर्ग का शव। रोज़ा लक्सम्बुर्ग के बारे में दुनिया के सैकड़ों कवियों ने कविताएँ लिखी हैं, लेकिन यह कविता उन सबसे अलग, उन सबमें श्रेष्ठ। मुझे यह कविता हमेशा याद रहेगी। इसलिए भी कि यह कविता यह सवाल उठाती है —
    स्वतन्त्र चेता मनुष्य का माँस छह
    हाथ के गड्डे में ठूँसकर क्या मिलेगा, मछलियाँ सोचती
    रहीं. विचित्र है मनुष्यों की रीतियाँ । अपने सबसे
    प्रिय मनुष्यों को बक्सों में क्यों रखते हैं या किताबों में दोनों
    को जबकि नष्ट किया जा सकता है ।

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  5. महेंद्र सिंह4 मार्च 2019, 7:18:00 pm

    कहना न होगा कि भारत में अम्बर अपार संभावनाओं से भरे एकमात्र ऐसे कवि हैं जो हिंदी कविता के वर्तमान परिदृश्य से निराश हो चुके हिंदी कविता के मेरे जैसे पाठकों में एक ख़ास किस्म का उत्साह जगाते हैं। अज्ञेय के बाद वे पहले हिंदी कवि हैं जो विश्व और भारतीय साहित्य और परम्पराओं की गहन जानकारी रखते हैं। उनकी कवितायें नैसर्गिक न होकर (यह कोई आवश्यक गुण है भी नहीं) थोड़ी साप्रयास लिखी गयी जरूर लगती हैं, पर चूँकि उसके पीछे गहन अध्ययन, चिंतन, और एक ख़ास किस्म के क्राफ्ट की जानकारी और उसकी गहन प्रैक्टिस की जरुरत होती है, यह आत्मसजगता और आत्म चेतनता उनकी कविताओं को विशिष्ट भी बनाती है। शुभकामनाएं !!

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  6. तेजी ग्रोवर4 मार्च 2019, 7:19:00 pm

    अम्बर दृश्य पर हैं। इस तथ्य के साथ रहना उतना ही काठिन्य भरा कर्म हुआ जा रहा जितना अम्बर के लिए अपने कवि को निभा ले जाना। Now that he's there, you have to learn to live with a poet like him...It's very hard work, more spiritual than literary. I don't much buy his CV...Nor his sometimes endearing and at times annoying flamboyance...But it's impossible to resist the world he beckons you too. I celebrate his presence in our midst!!

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  7. प्रतिभा शर्मा4 मार्च 2019, 7:22:00 pm

    सभी बेहतरीन कविताएँ एकदम जुदा अंदाज में।मुक्तिबोध और किताब में बंद भय,रोज़ा लुक्जम्बुर्ग के रहस्यमयी अंत वाली कविताएँ दुबारा पढी
    टेक्स्ट एक दीपक की तरह है...वाह
    विस्मृतियों के अंधे कुएँ में विचरने वाले सचमुच अभय हो अम्बर

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  8. पंकज पांडेय5 मार्च 2019, 7:34:00 am

    आज किसी न्यूजपेपर में अखिलेश जी ने लिखा है कि वह चित्रकारी क्यूँ करते हैं? वह चित्र नहीं बनाते एक खेल खेलते हैं और फिर उसमें शामिल हो जाते हैं, फिर अंबर पांडे का यह बहुत ही अच्छा संवाद।अंबर के वितान ऐसे हैं कि उनसे ईष्या होती है।पर कुंठित हिंदी जगत में उनकी मेहनत और प्रतिभा सराहनीय है।

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  9. कृष्ण कल्पित5 मार्च 2019, 7:37:00 am

    अम्बर पांडेय मेरे प्रिय कवि हैं । उनकी कविताओं को पढ़ना मुझे इसलिए भी अच्छा लगता है कि वे हिंदी के विपथगामी कवि हैं । उनका रास्ता, उनकी भाषा, उनका कथन, उनकी संरचना अलग और ख़ास है । उनकी कविताओं के उक्तिवैचित्रय पर तो सबका ध्यान जाता है लेकिन उसकी अन्तरगुम्फित लय सबको समझ नहीं आती । अम्बर की कोई प्रचलित विचारधारा नहीं है लेकिन वे विचारहीन नहीं है । अम्बर का आत्मकथ्य भी एक प्रयोगधर्मी कवि की एक लम्बी कविता है । अम्बर जितने आज के कवि हैं उससे अधिक भविष्य के कवि हैं ।

    अम्बर और समालोचन को शुभकामनाएं ।

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  10. आशुतोष दुबे5 मार्च 2019, 7:39:00 am

    बिरले ही कोई कवि ऐसा आता है जो समकालीनता के आत्मतुष्ट और समरस दृश्य में उसके प्रत्याख्यान का प्रतिनायक होता है. वह उस दृश्य के अपने ऊपर आयद किए जा रहे सभी दबावों का प्रतिरोध करता है और अपनी जगह बनाने के लिए मंच के निर्देशकों का मुँह नहीं जोहता. वह निगलने और उगलने की आसानियों के विरुध्द एक असमंजस बन कर समकालीनता की पारस्परिक औसतता में फांस की तरह गड़ जाता है. तब उसे नज़र अंदाज़ करने, निरस्त करने, उसके काव्यलक्षणों के निजी तनु अनुकूलन के प्रयत्न होते हैं और वे होते रहते हैं. वह अलबेला अकेला अपनी राह चलता रहता है. अम्बर ऐसे ही कवि हैं.

    इस आत्मकथ्य में अम्बर ने अपने कई प्रस्थान बिंदुओं का ज़रुरी संकेत किया है. इसे और विस्तार में पढ़ने की इच्छा बनी हुई है.

    सिर्फ़ यही कवि कह सकता है :

    "प्रेम ही श्रेय है जैसे कि स्त्री
    और पुरुष के मध्य केवल कामुकता अनैतिक है. "

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  11. तेजी ग्रोवर5 मार्च 2019, 7:44:00 am

    कोई सफ़ाई नहीं दे रही। I'm not being judgemental about Ammber Pandey...I'm simply awestruck by the mystery of poetry that ploughs into the being of the poet...पता नहीं क्यों लगता है भाषा उसे अथाह सुख, अथाह यातना से सराबोर किये रहती है, उसका भरपूर दोहन करती है, स्वयं को वैचित्र्य में स्थित रख पाने की गरज़ से। जिस हद और जिस बिन्दु तक कवि उसे (भाषा को) स्वयं के अंतस को मथने की स्पेस देता है, वहीं उस कवि की कुटीर है। यह एक ऐसा बीहड़ है जहाँ आपका आदिम तत्व आपसे एकाकार होने को लालायित रहता है। यहां मैं एक ऐसे पाठक की बात कर रही हूँ, जो कभी कभी काव्यग्नि में जल कर ख़ाक हो जाना चाहता है। वह अम्बर का दस्तख़त तक भूल जाने की सीमा तक चला जाता है। हो सकता है अम्बर ख़ुद को जिस तरह पेश करते हैं उनकी कविता उसके बिना सम्भव ही न हो। इसलिए आपको भी कवि को उसी तरह सहना आना चाहिए जैसे वह जैसे तैसे ख़ुद को सहता है। यह बात मैं खुद को समझाने के लिए लिख रही हूँ।

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  12. Teji सहमत हूँ असल में हिंदी का संसार भिन्न है और सहने की क्षमता नही खासकरके तब जब कवि वैविध्य लिखें, भिन्न भाषाओं में लिखें और वैश्विक दृष्टि के साथ लिखें

    ख़ैर अरुण जी ने अच्छी स्वस्थ बहस को सामने रखने की पहल की उनका साधुवाद

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  13. बेहतरीन कविताएँ पढ़ कर मजा आ गया .

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  14. अंबर की प्रतिकृति और प्रतिसंसार बहुत सुन्दर है. सुख दुःख का आस्वादक सहृदय कोई भी मनुष्य इस प्रति संसार में विचरण करके समृद्ध होगा. ऊपर पढ़ा कि अंबर की कवितायें सप्रयास लिखी गई भी मालूम होती हैं, हो सकता है ऐसा हो लेकिन अद्भुत यह है कि फिर भी उसकी लगभग हरेक कविता तस्दीक करती है कि वह स्वाभाविक कवि है. नैचुरल पोइट होने के कारण उसे ज़बरदस्ती किसी विचारधारा या विमर्श में अपना अनुकूलन करने की ज़रूरत नहीं. मोर-पंख कोई हल्की वस्तु नहीं, मसाले भी मसला हैं...इनके रहस्य को प्रकट करने में किसी कवि का सारा जीवन निवेश हो सकता है, इस दुनिया को हर विषय पर लिखी अच्छी कवितायों की ज़रूरत है. इसे तो किसी साहित्यिक समाज की विडंबना की तरह देखा जा सकता है कि एक तरफ संसार की विविधता के लिए संघर्ष करते लोग कविता में अपने से अलग कवियों के लिए अपने काव्य संसार की सीमायों को खींच कर उसका घेरा नहीं बढ़ा सकते.

    अंबर को या उसकी कवितायों को परफेक्ट माने बगैर भी वह मुझे बिना किसी caveat के बहुत पसंद है. वह बहुत सारे अनुभव, दृश्यों को प्रोसेस करके जैसे panoramic अभिव्यक्ति संभव करता है, इतना तो निश्चित पता चलता है कि उसकी एन्द्रिक शक्ति विलक्षण है. अंबर का अतीत की ओर देखना pastiche जैसा नहीं बल्कि अपनी काव्य परंपरा या जीवन परंपरा से ईमानदारी से निबद्ध होना लगता है. मुझे लगता है अतीत और कुछ नहीं तो वक़्त बीतने के साथ सान्द्र होता रहता है, इसकी सांद्रता में डुबकी लगाना वर्तमान को समझने के लिए बहुत लाभकारी हो सकता है.

    तेजी जी ने अच्छी बात कही, मैं भी हिंदी कविता में अंबर के होने को सेलिब्रेट करती हूँ. जिस तरह की हिंदी कविता हम आम तौर पर पढ़ते हैं, अंबर की कवितायें हमारी आदत और अभ्यास को चुनौती तो देती हैं लेकिन इन कवितायों के साथ चलने से अनुभव, भाषा, विचार और शैली के बहुत नए अनुभव होते हैं. हमारे ways ऑफ़ seeing में इज़ाफा होता है.

    मोनिका कुमार

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  15. अम्बर पाण्डेय की यह कविताएँ उनकी पिछली कविताओं से एक और पड़ाव आगे का तय करती हैं. प्रचलित और लोक-सम्मत लिखकर एक बड़े समूह में स्वीकार्य होना उनकी कविताओं का ध्येय कभी नहीं रहा. उन्होंने खुद कहा कि पुण्यश्लोक को खोजना प्रतिरोध के असंख्य प्रकारों में से एक ही है. उनकी भाषा और मूर्त विवरण उनके दर्शन और विचार के ऊपर चढ़ी त्वचा है जो आकर्षित देर तक अपने विचार से से दूर नहीं जाने देती. इस भाषिक चमत्कार को कोई ज्यों का त्यों गढ़ने का प्रयास कर सकता है लेकिन उसमें जो विचार और दर्शन की गहराई है, इस संयोजन को, अम्बर पाण्डेय हुए बिना कोई कैसे उत्पन्न कर सकता है? जिन्हें कभी लगा हो कि अम्बर बस पौराणिक आख्यानों को उकेरने में सिद्धहस्त हैं वे इन कविताओं को देखें. हमने तो खैर पहले भी पढ़ीं हैं उनकी भांति- भांति और कई भांति की अद्भुत कविताएँ

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  16. हमेशा लाजवाब अंबर
    मेरे प्रिय कवि

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  17. कविताएं निश्चित रूप से आपके फंतासी संसार की सृष्टि करने में समर्थ हैं।

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