रमणिका गुप्ता : एक युद्धरत औरत का जाना : विपिन चौधरी

















रमणिका गुप्ता ने बहुत लिखा है, वह ट्रेड यूनियन की नेता थीं, विधायक भी रहीं. आदिवासियों के लिए उनके सरोकार बहुत मुखर थे. ‘युद्धरत आम आदमी’ का वह संपादन करती थीं. उनकी आत्मकथा ‘हादसे’ और ‘आपहुदरी’ में उनका अपना युद्धरत जीवन और राजनीति तथा संगठनों की असलियत दर्ज़ है.

उन्हें याद कर रहीं हैं विपिन चौधरी.


स्मरण
रमणिका गुप्ता : एक युद्धरत औरत का जाना
विपिन चौधरी







मारा समाज हमेशा महत्वाकांक्षी पुरुषों को लाइम लाइट में रखता है, वहीं महत्वकांक्षी स्त्रियां अक्सर ही आलोचना का शिकार हो जाती हैं. तभी एक स्त्री अपने ही जीवन की कहानी में केंद्रीय भूमिका निभाने से बचती है. अपनी ही पहचान को स्थापित करने के लिए हमारे यहाँ स्त्री को अपने लिए निर्धारित फ्रेम से बाहर निकलना पड़ता हैजिसे स्त्री  संदर्भ में बेशर्मी  की संज्ञा दी जाती है, फिर इसी  बेशर्मी का इस्तेमाल समाज उस स्त्री की राह में रोड़े अड़ाने के लिए करता है.

रमणिका जी  का जीवन  इसी स्त्री का प्रतिनिधित्व करता है.  उनकी जिंदगी खुली किताब थी. पहले अपने राजनैतिक जीवन की डायरी फिर अपने निजी जीवन को सार्वजनिक करने का साहस करने वाली रमणिका जी का जीवन हार के लिए नहीं बना था, जीत उनके लहू में थी. और किसी बड़ी जीत के लिए जिद जरूरी होती है. उनकी जिद निजी महत्वकांक्षा न हो कर सामूहिकता के सरोकारों से जुडी होती थी. मजदूर आंदोलनों  में सक्रियता के दौरान श्रमिक वर्ग की मांगों लेकर वे सत्ता, पूंजीवादियों और माफियाओं से अकेली ही अपने दम-ख़म के बूते टक्कर लेती रहीं.



समूह की जीत के लिए उनकी जिद ने ही उन्हें मजदूर वर्ग के बीच लोकप्रिय बनाया. झारखंड की वे कोयला खदानें जो रामगढ़, हजारीबाग, चतरा, पलामू, गिरिडीह, बोकारो, धनबाद, गोड्डा जिलों में फैली हुई हैं उनमे अवैध खनन का विरोध, निजी खान मालिकों और ठेकेदारों से टकराहट उनके जीवन का हिस्सा था. बाद के वर्षों में भी एक योद्धा के जज़्बे से अपनी पत्रिका 'युद्धरत आम आदमी' की  संपादक के रूप में सफाई कर्मचारियों समेत भारतीय समाज के वंचित समुदायों पर केंद्रित विशेषांक निकाले.  जब वे लेखनी के जरिए वंचितों की आवाज़ बनी तब भी उन्होंने कई स्तर पर विरोध का सामना किया. सबसे पहले उन्होंने अपनी पत्रिका 'युद्धरत आम आदमी' पत्रिका में स्थापित और नामचीन लेखकों से अधिक उदयीमान और वंचित समुदाय को जगह देते हुए एक नयी रिवायत शुरू की. इस पर उनका मानना था  हमारी पत्रिका  सर्वहारा, वंचित, स्त्री  के  लेखकीय सरोकारों को  प्रोत्साहित करने का काम करती  है. धुरंधर लेखकों के लिए दूसरी पत्रिकाएं हैं ही.

अपने घर में वे प्रतिदिन लेखकों और शोध-छात्रों से घिरी रहती. पिछले साल मार्च में  केदारनाथ सिंह,  इस साल के शुरू में कृष्णा सोबती जी, नामवर जी, और अर्चना वर्मा जी ने निधन से रमणिका जी काफी व्यथित थी. हर दूसरे दिन कहने लगी थी कि  मेरा भी समय आने ही वाला है. दो साल पहले अपने हृदय के आपरेशन के समय से ही वे बहुत परेशान थीं. अपनी संस्था, अपनी पत्रिका के भविष्य को चिंतित रहती थीं और अपने घर स्थित ऑफिस में बैठीं वे किसी काम में थोड़ी सी देरी होने पर ही  भड़क जातीं और अपने कर्मचारियों से कह उठतीं  "तुम्हारे पास समय है मेरे पास नहीं." 

पहली मुलाकात से उनकी आखिरी सांस तक उनसे आत्मीयता का एक रिश्ता बना रहा जिसमें कई अवसर नाराज़गी के भी आए और उनके सामने भरपूर लड़ाई भी की मगर रिश्ते की आर्द्रता कभी कम नहीं हुई.

2008 फ़रवरी की किसी एक शाम, किसी किताब के विमोचन के अवसर पर रमणिका गुप्ता के डिफेंस कॉलोनी के आवास पर एक छोटी से गोष्ठी आयोजित की गई थी. मैंने  उन्हीं दिनों हौज़ खास स्थित  रेडियो मैनेजमेंट अकेडमी में दाखिला लिया था. दिल्ली के साहित्य संसार से मैं अपरिचित ही थी. अपने नए बने साहित्यिक मित्र कथाकार अजय नावरिया की मार्फ़त रमणिका गुप्ता जी से परिचय हुआ जिनसे मेरा परिचय अपने शहर हिसार जिले के अंतर्गत पड़ने वाले कस्बे फतेहबाद में आयोजित यूथ-फेस्टिवल के  साहित्यिक सेमिनार में हुआ जिसमें हम दोनों बतौर रिसोर्स पर्सन आमंत्रित थे. 

आज भी अच्छी तरह से याद है पहली बार जब मैंने रमणिका जी को रूबरू देखा था तब खाकी रंग के कुर्ते-पजामें और जैकेट में वे 79 वर्षीया  स्त्री  एक युवती सी  ऊर्जा से लबरेज़ कार्यक्रम के आयोजन में लगी हुई थी. मैं रमणिका जी की जेल-डायरी 'हंस' पत्रिका में पढ़ चुकी थी. और कुछ दिन पहले हमारे शहर हिसार के विधायक नवीन जिंदल के साथ किसी  टेलीविज़न कार्यक्रम में  उन्हें देख-सुन चुकी थी. उस कार्यक्रम  के वाद-विवाद में अपने सामने वालों को मात देने वाली रमणिका जी मेरे सामने थी. बाद के वर्षों में लगातार उनके साथ काम करते हुए उनके जुझारू व्यक्तित्व के कई पहलुओं से सामना हुआ.

2011 में उनकी पत्रिका ''युद्धरत आम आदमी' की हाशिये उलाँघती स्त्री कविता-श्रृंखला में काम करने का अवसर मिला. जिसमें संपादकीय सहयोग के दौरान देश की विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओँ की कवयित्रियों के कविताओं के अनुवाद, कविताओं के चयन और स्वयं अनेक कवयित्रियों से पत्र-व्यवहार और फ़ोन से बातचीत करने के अवसर ने मेरी साहित्यिक समझ में  काफी इज़ाफ़ा किया. इसी पत्रिका के दोनों दोनों खंडों के लोकार्पण और दो दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन साहित्य अकादमी के सहयोग से उनके सभागार में किया गया जिसमें 24 भाषाओँ की  कवयित्रियां  जिसमें  तमिल की सलमा, कुट्टी रेवती, कन्नड़ की  ममता सागरप्रतिभा नंदकुमार, मलयालम कवयित्री बी. संध्या, मैथिली की विभा रानी व अंग्रेजी-हिंदी की  दीप्ती नवल, सविता सिंह आदि शामिल थीं.


रमणिका जी के घर पर ही हरीराम मीणा, वासवी कीड़ो, अलोका, सुशीला टाकभौरे, अनीता भारती, हेमलता महिश्वर, मणिमाला, महज़बीन, शहनवाज़, मदन कश्यप, नरेंद्र पुंडरीक, नितिशा खलखो  आदि लेखकों से परिचय हुआ. अर्चना वर्मा जी, केदारनाथ सिंहओमप्रकाश वाल्मीकि, सुशीला टाकभौरे, लक्षमण गायकवाड़, शरण कुमार लिंबाले, रजनी तिलक  जी  के साथ  लंबी बातचीत करने का अवसर रमणिका जी के घर ही  प्राप्त हुआ. महादेव टोपो, हरी उरांव,वंदना टेटे, दमयंती बारला से भी रमणिका जी के मार्फ़त परिचय हुआ.

पत्रिका के सिलसिले में  कई बार  उनके घर रुकना  होता.  देर  रात  मेरी  गुड-नाईट के बाद भी  रमणिका जी  अपने बिस्तर पर बिना किसी सहारे के काम में  जुटी रहतीं थीं.

दलित-विमर्श, आदिवासी पहचान की समस्या, आदिवासी संस्कृति और साहित्य में महिलाओं की जगहआदिवासी क्षेत्रों में महिला-मजदूरों की समस्याओं पर उनकी चिंता उनके  लेखन में साफ झलकती.  उनकी पहचान कवयित्री के क्षेत्र  में उतनी व्यापक नहीं थी  मगर वे सबसे पहले  स्वयं  को कवयित्री ही मानती थी. कविताओं में उनकी विशेष रूचि थी. जब मैंने उनकी पत्रिका के 'युवा स्त्री विशेषांक' निकालने की  योजना रखी  तो उन्होंने ख़ुशी के साथ सहमति दी. तीन साल पहले अपने घर पर मासिक गोष्ठी करवाने के लिए उन्होंने मुझसे कहा और हर महीने इस आयोजन को लेकर वे ऊर्जा से भरी रहती, अपने आस-पास भीड़ उन्हें काफी पसंद थी. 
 
सांस्कृतिक कार्यकर्ता  और  भाषाविद गणेश देवी के साथ भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण: झारखण्ड नाम पुस्तक में सहयोग, नार्थ-ईस्ट की  संस्कृति,   उनकी लोक-कथाओं पर उनके संचयन को  काफी सराहा  गया.  किसी  योजना के जारी रहते ही आगामी  योजना की रूप-रेखा उनके दिमाग में बन रही होती.

अनेक आदिवासी भाषाओँ जैसे चकमा, गैरसिआ, भीली, ढंकी, चकमा, गुजरी, हल्बी, जौनसारी, कोकणी, खोरठा, मगही, वागरी और भी न जाने कितनी ही भाषाओँ के आदिवासी लेखकों और उनके रचनाओं के बारे में उनके फाउंडेशन में काम करके ही जाना.

कुछ साल पहले जे.एन.यू के सहयोग से आदिवासी सेमीनार का अनुभव भी एक शानदार अनुभव था.

रमणिका जी से जुड़ना एक ऐसी संस्था से जुड़ना था जिसकी नेत्री बिना थके अपने अक्ष पर घूमती  रहती थी बिना किसी अड़चन की परवाह करे.
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विपिन चौधरी
vipin.choudhary7@gmail.com

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