मैं और मेरी कविताएँ (४) : कृष्ण कल्पित



“Poetry is a political act because it involves telling the truth.”
June Jordan

समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ मैं और मेरी कविताएँके अंतर्गत आपने आशुतोष दुबे, अनिरुद्ध उमट और ‘रुस्तम’ को पढ़ा. इस क्रम में अब कृष्ण कल्पित प्रस्तुत हैं.

देवी प्रसाद मिश्र के शब्दों में- “दुस्साहस, असहमति, आवेश, अन्वेषण, पुकार, आह, ताकत विरोध, शिल्प वैविध्य, नैतिक जासूसी और बाज़दफा पोलिटकली इनकरेक्ट- इस सबने मिलकर कल्पित को हमारे समय का सबसे विकट काव्य व्यक्तित्व बना दिया है. उन जैसा कोई नहीं.”


आइये जानते हैं कि कृष्ण कल्पित कविताएँ क्यों लिखते हैं और उनकी कुछ कविताएँ भी पढ़ते हैं.

कृष्ण कल्पित का पहला कविता संग्रह 'बढई का बेटा' १९९० में प्रकाशित हुआ था. ३० बरस के लम्बे अन्तराल के बाद उनका दूसरा संग्रह 'राख उड़ने वाली दिशा में' प्रकाशित होने वाला है. इस बीच 'कोई अछूता सबद', 'एक शराबी की सूक्तियाँ', 'बाग़-ए-बेदिल' और 'कविता-रहस्य' नाम से उनकी किताबें प्रकाशित हुईं हैं और और चर्चित रहीं हैं. 



मैं और मेरी कविताएँ (४) : कृष्ण कल्पित                        

बंदूकों में डर लिखते हैं अर्थात मैं कविता क्यों लिखता हूँ
कृष्ण कल्पित


लेखकजी तुम क्या लिखते हो
हम मिट्टी के घर लिखते हैं

धरती पर बादल लिखते हैं
बादल में पानी लिखते हैं
मीरा के इकतारे पर हम
कबिरा की बानी लिखते हैं

सिंहासन की दीवारों पर
हम बाग़ी अक्षर लिखते हैं

काग़ज़ के सादे लिबास पर
स्याही की बूँदों का उत्सव
ठहर गया लोहू में जैसे
कोई खारा-खारा अनुभव

फूलों पर ख़ुशबू के लेखे
बंदूकों में डर लिखते हैं !


यह 1980 में 'धर्मयुग' में प्रकाशित मेरा एक गीत है जिसे इसी सवाल के जवाब में लिखा गया था कि मैं कविता क्यों लिखता हूँ ? इस गीत को लिखे कोई 40 वर्ष होने को आये जिसे एक 23 वर्ष के युवा कवि ने लिखा था. इस गीतात्मक या लिरिकल उत्तर के 40 बरस बाद मुझे फिर पूछा जा रहा है कि मैं कविता क्यों लिखता हूँ ?

इतने बरसों बाद यह कह सकता हूँ कि अब कविता लिखना मुश्किल होता जा रहा है. जिस तरह पिछले 30 बरसों में, ख़ासतौर पर 1990 के आर्थिक उदारवाद के बाद यह दुनिया जिस तरह से अमानवीय, जटिल और हिंसक होती गयी है उसका सामना हमारे समय की कविता नहीं कर पा रही है. कितने दिनों हमने पाब्लो नेरुदा के मासूम प्रेम और बर्तोल्त ब्रेख़्त के प्रतिरोध से काम चलाया लेकिन 'इस चाकू समय' में नेरुदा और ब्रेख़्त की कविताएं भी अपर्याप्त जान पड़ती हैं. हिंसा, शोषण, अन्याय और अत्याचार के इतने नये और चमकीले संस्करण बाज़ार में आ गये हैं कि मुक्तिबोध का डोमाजी उस्ताद अब किसी क़स्बे का साधारण गुंडा नज़र आता है.

आचार्य वामन 'काव्यलंकारसूत्रवृत्ति:' में कहते हैं कि कविता से दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं- एक तो भावक या पाठक के लिये आनन्द की सृष्टि और कवि के लिये सदा सर्वदा रहने वाली कीर्ति. लेकिन कालांतर में कविता के ये प्रयोजन भी निरन्तर धूमिल होते गये हैं. अब न कविता आनन्द की सृष्टि करती हैं और पिछली शताब्दी में कवियों की कीर्ति भी नष्ट होती गयी है.

मुझे लगता है कि आज की कविता हमारे इस निर्मम समय को व्यक्त करने में निरंतर असमर्थ होती जा रही है. दुनिया जिस तरह से बदली है उस तरह कविता नहीं बदली. एक कारण यह भी हो सकता है कि यह समय शब्दों के दुरुपयोग का समय है. इस दुरुपयोग ने शब्दों के अर्थ को नष्ट कर दिया है. हम शब्दों से, शोर से, छवियों से और निरर्थक आवाज़ों से घिरे हुये हैं. जब हम शब्दों के स्वाभाविक अर्थों से दूर होते जायेंगे उतना ही हम कविता से भी दूर होते जायेंगे.


न स शब्दो न तद वाच्यं न स न्यायो न सा कला
जायते यन्न काव्यांगमहो भारो महान कवे : !

आचार्य भामह कहते हैं कि ऐसा कोई शब्द, वाच्य, न्याय तथा ऐसी कोई कला नहीं जो काव्य का अंग न बनती हो इसीलिये कवि का दायित्व महान है. लेकिन यह कहने में क्या गुरेज़ कि हमारे समय के कवि इस महान दायित्व को वहन करने में असमर्थ नज़र आते हैं.

कब तक हम कालिदास के सौंदर्य, ग़ालिब की दार्शनिकता, मीर की निस्सारता, कबीर की क्रांतिकारिता, मीरा के प्रेम, निराला के फक्कड़पन से काम चलायें ? पेले और माराडोना हमारे प्रेरणास्रोत हो सकते हैं, उनके किये हुये गोल हमें आज भी आनन्दित करते हैं लेकिन उनकी स्मृति भर से आज जो मैदान में फुटबॉल का मैच खेला जा रहा है उसे जीता नहीं जा सकता! इसके लिए हमें आज का पेले और माराडोना चाहिए.

कविता दुनिया की प्राचीनतम कला है. लेकिन भारतीय मनीषा कविता को कला नहीं, विद्या मानती है. इस अंतर को हमें समझना होगा. कविता की यात्रा मनुष्यता की यात्रा के समानांतर चली आ रही है और इतनी लंबी यात्रा में दुनिया भर के कवियों ने कविता से प्रेम, प्रतिरोध, राजनीति, आध्यात्म, दार्शनिकता आदि इतने सारे काम लिये हैं कि वह एक अजायबघर में बदल गयी है. कविता का वास करुणा में होता है, हमारे समय के कवि लगता है कविता की इस मूल प्रतिज्ञा को भूल गये.

वाल्मीकि भी यही कहते हैं और प्रथम विश्व-युद्ध के प्रख्यात कवि विल्फ्रेड ओवेन भी यही कहते हैं - My subject is war and the pity of war. The poetry is in the pity. (मेरा विषय युद्ध और युद्ध की करुणा है. कविता का वास करुणा में है.)

सचेत रूप से कविता लिखते हुये मुझे 40 बरस हो गये. समकालीन हिंदी कविता से मेरा पुराना देश निकाला है. फिर भी मैं ज़िद पर अड़ा हुआ हूँ और कविता लिखता रहता हूँ. कविता में तोड़ फोड़ करता रहता हूँ. 1990 में मेरा कविता संग्रह 'बढई का बेटा' प्रकाशित हुआ था और अब आशा करता हूँ कि 30 बरस बाद 'राख उड़ने वाली दिशा में' शीर्षक से बड़ा कविता-संग्रह इस वर्ष प्रकाशित हो. इस बीच 'कोई अछूता सबद', 'एक शराबी की सूक्तियाँ', 'बाग़-ए-बेदिल' और 'कविता-रहस्य' नाम से जो किताबें प्रकाशित हुई उनमें कविताएं होने के बाद भी कविता-संग्रह नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन्हें किताबों की तरह लिखा गया.
                       
कविता के बिना मैं अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता. मुझे अभी भी कविता, जीवन, मनुष्यता और इस दुनिया से किस बात की आशा है, पता नहीं.

जिस विद्या को अपना जीवन अर्पित किया अब उसे छोड़कर किस दरवाज़े जाऊं ? अब यहीं जीना है और यहीं मरना. यह जानते हुये कि कविता सच्चाई का श्रृंगार करती है, उस पर मुलम्मा चढ़ाती है, उसे विकृत करती है - मुझे लगता है कि जितना भी बचा सकती है, सत्य को कविता ही बचा सकती है.

अंत में 'बढई का बेटा' कविता-संग्रह की एक कविता 'सम्पादक को पत्र' की शरुआती पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करता हूँ :

बेकार गई मेरी कला
उसका नहीं बना आईना
वह दूसरों के काम नहीं आ सकी !







कृष्ण कल्पित की कविताएँ



पत्थर के लैम्पपोस्ट

)
मैंने  एक स्त्री को प्यार किया और भूल गया
मैं उस पत्थर को भूल गया जिससे मुझे ठोकर लगी थी
और वह कौन सा रेलवे-स्टेशन था
जिसकी एक सूनी बैंच पर बैठकर मैं रोया था

मैंने अपमान को याद रखा और अन्याय को भूल गया
अंत में मुहब्बत भुला दी जाती है
और नफ़रत याद रहती है
जलना भूल जाते हैं पर अग्नि याद रहती है

मुझे भुला देना
किसी भुला दिये गये प्यार की तरह
और याद रखना एक खोये हुये सिक्के की तरह
या एक गुम चोट की तरह

दुनिया में प्यार के जितने भी स्मारक हैं वे पत्थर के हैं !


)
वह पत्थर का लैम्पपोस्ट आज भी खड़ा है
क़स्बे की निगरानी करता हुआ

उसकी लालटेन कभी की बुझ गई है
अब उसमें एक चिड़िया का घौंसला है

गुप्त रोगों के शर्तिया इलाज़ के पोस्टर
उसके बदन से लिपटे हुये हैं

लालटेन के चारों और बना हुआ लोहे का फूल
थोड़ा दाहिनी तरफ़ झुक गया है

पुराने बस-स्टैंड के पास ठेलों, खोमचों और ख़ास क़स्बाई शोर से घिरा हुआ यह पत्थर का लैम्पपोस्ट नहीं होता तो मैं कैसे पहचान पाता कि यह वही क़स्बा है और वही पुराना बस-स्टैंड जहाँ से चालीस बरस पहले मैं चला गया था एक जर्जर बस में बैठकर किसी अज्ञात शहर की ओर

कोई अपनी प्रेमिका से क्या लिपटता होगा
जैसे कभी मैं लिपटता था इस पत्थर के लैम्पपोस्ट से
इस पत्थर के पेड़ को हमने अपने आँसुओं से सींचा था

जिसके नीचे खड़ा होकर अभी मैं मीर को याद कर रहा हूँ :
'नहीं रहता चिराग़ ऐसी पवन में'!



मेट्रो की एक याद

एस्कॉर्ट मुजेसर जाने वाली मेट्रो में
वह मेरे साथ मण्डी-हॉउस से चढ़ा था

वह एक युवा मज़दूर
नीली घिसी हुई जीन्स पर धारीदार कमीज़ पहने
और पुरानी चाल के काले घिसे हुये जूते

वह दरवाज़े के पास ऐसे उकडू बैठ गया
जैसे किसी पीपल के गट्टे पर

जब जनपथ गुज़रने पर
मेरी उस पर अचानक नज़र पड़ी तो देखा
वह अपने कचकड़े के बॉलपेन से
कागज़ के एक छोटे दस्ते पर कुछ लिख रहा था

मैं खड़ा हुआ चोर नज़रों से उसको देख रहा था
उसने 1500 लिखा और उसमें से 750 घटाया 
और उसके बाद 335 लिखकर उसके आगे एक गोल-सा निशान बनाया जैसे यह कोई विवादास्पद रक़म हो

वह एक पढ़ा-लिखा मज़दूर था
और घोर-आश्चर्य की बात कि उसके पास
कोई मोबाइल फ़ोन नज़र नहीं आता था

हो सकता है कि वह उसके उस काले थैले में हो
जिससे वह उतना ही बेख़बर था
जितना सचेत मैं अपने पर्स को लेकर था

वह मेरी तरह कोई कथित कवि नहीं था
वह जो लिख रहा था शायद ज़िन्दगी का हिसाब था

वह निराश था लेकिन हताश नहीं

मैं जब खान-मार्केट पर उतरा
वह किसी दार्शनिक की तरह कुछ सोच रहा था
उसे शायद आगे जाना था !




कल की बात

अभी कल की बात है
मैं धारीदार नीला जाँघिया पहने
उघाड़े बदन घूमता था

अभी कल की बात है
मैं सकीना मौसी के आले से
अठन्नी चुराकर बाज़ार की तरफ़ भागा था

अभी कल की बात है
मुख्यद्वार पर खड़े चाट वाले से छिपने के लिये
मैं दीवार फांदकर स्कूल में घुसता था

अभी कल की बात है
जब दो चुटिया वाली लड़की के लिये
मैं कृष्ण की तरह बांसुरी बजाता था

अभी कल की बात है
मेरी जेबों में भरे रहते थे
सूखे हुये मीठे बेर

अभी कल की बात है
जब दो चिकने पत्थरों को रगड़कर
मैं सुलगाता था सिगरेट

अभी कल की बात है
जब बिना टिकट रेल में चढ़कर
ज़ंजीर खींचकर जंगल में गुम हो जाता था

अरथी पर सजाकर कहाँ ले जा रहे हो मुझे
अभी तो मैं पैदा हुआ था
अभी कल की बात है !




पथ पर न्याय

हत्यारा अकेला होता है
अधिक होते ही हत्यारा कोई नहीं होता

तीन या चार
पांच या सात मिलकर किसी अकेले को कभी भी कहीं भी मार सकते हैं और मारने के बाद आप भारत माता की जय या गौ-हत्या बंद हो के नारे भी लगा सकते हैं

इसी पद्धति पर चलती हैं पदातिक-टोलियां पदाति-जत्थे हिंदी-पट्टी के मैदानों पर गश्त करते हुये अलवर से आरा और मुज़्ज़फ़रपुर से मुज़फ़्फ़रनगर तक किसी को मारते हुये किसी को जलाते हुये किसी को नँगा करके घुमाते हुये

कहीं धर्म की हानि तो नहीं हो रही
कहीं विरोध की आवाज़ बची तो नहीं रह गयी
कहीं किसी की भावनाएं भड़की तो नहीं

पदातिक-टोलियां पथ पर करती हैं न्याय
बेहिचक बेख़ौफ़ अब न्याय के लिये कहीं जाने की ज़रूरत नहीं न्याय आपके दरवाज़े तक आयेगा

अदालतें कब तक रोक सकती हैं होते हुये न्याय को न्याय का नहीं होना ही अन्याय है

न्यायालयों के पास न्याय के अलावा अभी अन्य ज़रूरी और महत्वपूर्ण मसले हैं और अदालतें अपने ही बोझ से दबी हुईं हैं लेकिन न्याय किसी न्यायालय किसी सरकार की प्रतीक्षा नहीं करता वह कभी भी कहीं भी प्रकट हो सकता है

न्याय रुकता नहीं है होकर रहता है
न्याय होकर रहेगा न्याय किसी का विशेषाधिकार नहीं है न्याय कोई भी कर सकता है कोई भी प्राप्त कर सकता है इसके लिये ख़ुद माननीय न्यायमूर्ति होने की कोई ज़रूरत नहीं

न्यायाधीश कोई भी हो सकता है
वह कोई सड़क का गुंडा भी हो सकता है !




मनुष्यता का गोलंबर

स्त्रियो मुझे जूठा करो. बच्चो मुझ पर कंकर फेंको. कुलीनो मुझे बदनाम करो. दुश्मनो मुझ पर कीचड़ उछालो. दोस्तो मुझे अपवित्र करो. कवियो मुझे भूल जाओ.

पवित्रता एक मिथक है. आकाश में उड़ता हुआ कोई गरुड़. एक काल्पनिक पक्षी. पवित्र किताबों ने दुनिया में सर्वाधिक रक्त बहाया है. मैं मनुष्य के दुखों की एक अपवित्र किताब लिखना चाहता हूँ.

मेरी मिट्टी मत बुहारो.
उड़ने दो राख.
मुझे अपवित्र रहने दो.

मनुष्यता के गोलम्बर पर महापुरुषों की आदमक़द मूर्तियां कबूतरों की बीटों से लदी हुई हैं !




दुर्लभ ख्याति

यही इच्छा है कि मुझे कोई नहीं पहचाने
कोई मुझे मेरे नाम से न पुकारे
देखा हुआ लगता है लेकिन कौन है पता नहीं
आप कौन हैं और कहाँ से आये हैं
यही सुनने को मिले हर शहर हर देश में

गुमनामी का वरदान ही देना, प्रभु !
और ख्याति दो तो ऐसी कि जब मैं बताऊँ अपना नाम
तो जवाब मिले- झूठ बोलते हो
तुम वह हो नहीं सकते !



दो)

सामने ख़ामोश रहूँ
जब बोलूँ अनुपस्थिति में बोलूँ
जीते-जी क्या बोलना
मरने के बाद बोलूँ

कवि अगर हूँ तो अपने न रहने के बाद कवि रहूँ और दूसरे जन्म में अपनी कविताएँ पढूँ

किसी अनजान पाठक की तरह !





सौंदर्य-दर्पण


सुंदर जे हैं आपहि सुंदर
उनको कहाँ सिंगार
(सन्त कवि सुन्दरदास)

     

सुंदर, थानें भूल्यां कीकर पार पड़ै हो
जिण कर ज़ुलफ़ सँवारी थारी उण कर पेच पड़ै हो
(सुंदर, तुम्हें कौन भूल सकता है ? जिन हाथों से तुम्हारी ज़ुल्फ़ें सँवारी थीं- वे हाथ अब कांप रहे हैं!)
(राजस्थानी कवि नारायण सिंह भाटी)



१)
सौंदर्य अधिकतर ओझल रहता है

अलस भोर का भारहीन-सौंदर्य
ठहरी हुई कोई ओस की बूंद

झिलमिलाता है कभी दोपहर में
कभी शाम के झुट-पुटे में
या रात्रि की नीरव-शांति में

सौंदर्य हर-घड़ी रहता है उपस्थित
अपनी अनुपस्थिति में !


२)
छलछलाता हुआ
और छलकता हुआ सौंदर्य कभी देखा है तुमने

अभी कुछ बरस पहले तक दिखाईं पड़ती थीं भारतीय रास्तों पर अपने ही जल में भीगती जाती हुईं जल-कलश उठाये पनिहारिनें

चमकता हुआ नहीं
छलकता हुआ सौंदर्य सर्वश्रेष्ठ होता है !


३)
लेकिन अब सौंदर्य एक सफल और भारी-भरकम उद्योग था जिसका हज़ारों करोड़ का टर्नओवर था बहुत से मारवाड़ी सौंदर्य-प्रसाधन बेच कर रातों-रात मालामाल हो गये थे जिनकी जीवन-कथा अथवा सफलता का रहस्य खोलने वाली किताब इन दिनों गीता से भी अधिक लोकप्रिय थी

जब भीतर की दीप्ति नदारद हो जाती है और अन्तर्मन का दीपक बुझने लगता है तब रँगाई, पुताई और लेपन की कांक्षा मनुष्य को बाहर से चमकीला पर अंदर से स्याह, सन्देहास्पद, असुंदर और खोखला बनाती जाती है

सौंदर्य अब एक व्यापार था !


४)
कितनी सुंदर थी वह जर्जर नाव
जो गंगा-तट पर कीच में धंसी हुई थी
अभी भी लहरों के आलिंगन की आकांक्षा से भरपूर

जिसका गला हुआ गीला काठ
कितना कोमल हो गया था !


५)
सुंदरता तारा नहीं
जिसको तोड़ा जाय
सुंदर को सुंदर कहे
वो सुंदर हो जाय !


६)
इस दुनिया को काले-बदसूरत लोगों ने नहीं
गोरे-लालचियों ने बदसूरत बनाया है !


७)
सौंदर्य बनाया नहीं जा सकता
उसे केवल बचाया जा सकता है !


८)
कुरूपता पहचानी जाती रहे
इसके लिये ज़रूरी है
सौंदर्य बचा रहे !


९)
दुःख जब सहने लायक हो जाता है
तो वह सुंदर हो जाता है !


१०)
अमीर या ग़रीब
मशहूर या गुमनाम कुछ भी रखना

देस में रखना परदेस में रखना
लेकिन अपने अमान में रखना  अपनी देख-रेख में रखना अपनी नज़र में रखना

११)
सुंदर स्त्रियों की प्रतीक्षा थी
लेकिन मृत्यु उनसे भी अधिक सुंदर थी अधिक हसीन और अधिक जानलेवा

मुझे उसी हसीन मौत का इन्तिज़ार है !




एक हिंदी कवि की प्रार्थना
(नज़्र-ए- आलोकधन्वा पटना)

अगले जनम में अंगिका का कवि बनूँ

अपभ्रंश में लिखूँ
पालि या प्राकृत या डिंगल में

संस्कृत जैसी कूट भाषा तो इन दिनों
दुनिया की सारी सुरक्षा एजेंसियों की मातृभाषा है

उर्दू अब एक उखड़े हुये तंबू का नाम है

जिसे कोई नहीं समझता
मैं उस भाषा में कविता लिखना चाहता हूँ

राजस्थानी ने तो मुझे
बचपन से ही देशनिकाला दे दिया था

अगर मेरे पुण्य पर्याप्त हों
और दुबारा कवि बनाना हो तो हे ईश्वर
मुझे भोजपुरी का कवि मोती बीए बनाना !



__________

कृष्ण कल्पित
३०-१०-१९५७फतेहपुर (राजस्‍थान)

एक पेड़ की कहानी : ऋत्विक घटक के जीवन पर वृत्तचित्र का निर्माण
सरकारी सेवा से अवकाश के बाद स्वतंत्र लेखन.
__

K - 701, महिमा पैनोरमाजगतपुराजयपुर 302027/ M 728907295 

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  1. बहुत सुन्दर. यह वह एक जगह जहाँ जीवन और कला एक अद्वैत में घंघोल दिए गए हैं . नश्वरता के बोध और अनश्वरता की अभीप्सा के बीच टहलती हुई कविताएँ.

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  2. कृष्ण कल्पित की यह टिप्पणी 'मैं कविता क्यों लिखता हूँ' व्यक्तिगत न रहकर, सामयिक काव्यशास्त्र की तरह हमसे संवाद करती है। 'कविता रहस्य' जैसी अनूठी पुस्तक के रचयिता के लिए यह बहुत स्वाभाविक भी है।

    इनमें से कई कविताएँ पहले से पढ़ी हुई और पसंदीदा हैं। इन्हें इकट्ठा देखकर ख़ुशी हो रही है। संग्रह का इंतज़ार है।

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  3. कृष्ण कल्पित हिंदी के अलबेले कवि है । अपने कथ्य और कहन में अलग । वे साहस और खिलड़ड़पन के कवि है । हंसी हंसी में गम्भीर बात कह जाते है । वे सरापा कवि है । आजकल यह जोखिम कौन उठाता है । लोग बच बच कर लिखते है ताकि पक्ष और विपक्ष दोनो प्रसन्न रहे ।

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  4. गिरीश शास्त्री18 फ़र॰ 2019, 10:23:00 am

    कृष्ण कल्पित जी को मैं बड़े चाव से पढ़ता हूँ क्योंकि वे जन की भाषा में कविता लिखते हैं। एक बेबाक, साहसी और सरल शब्दों में बात कहने वाले वे एक शुध्द कवि हैं।

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  5. कृष्ण कल्पित को पढ़ना जैसे आश्वस्त होना कि बची रहेगी जिजीविषा शब्दों में और दुस्साहस कवि में। वे खूब लिखें उनकी कविताओं की ज़रूरत है इस दौर को।

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  6. कृष्ण कल्पित जी फक्कड़ और आवारा कवियों की परम्परा के है, जो बाणभट्ट से लेकर उन तक बहती आ रही है मगर अब लुप्त होने को है। ऐसे यायावर कवि अब कहाँ!

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  7. पंकज चौधरी18 फ़र॰ 2019, 4:16:00 pm

    कृष्‍ण कल्पित मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं। वे जितने अच्‍छे कवि हैं, उससे अच्‍छे गद्यकार हैं। संस्‍कृत आचार्य राजशेखर पर लिखी उनकी लम्‍बी टिप्‍पणी साहित्‍य की अमूल्‍य निधि बन चुकी है।

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  8. कृष्ण कल्पित अत्यंत प्रतिभाशाली कवि हैं। उनमें सच्चे कवि का साहस है। मौज़ूदा कवियों में उन सी काव्य-भाषा दुर्लभ है।

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  9. अद्भुत कवि अद्भुत शैली

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  10. इधर हिंदी में रोज सैकड़ों लोग हजारों कविताएँ लिखते हैं । तो क्या करें ! कैसे जानें कि कौन सी कविता या कविताएँ कविताएँ हैं और कौन सी कविता मात्र कविता के बाने में हैं !

    इसी में सब गड्डमड्ड हो रहा है । एक जमाने तक यह काम समीक्षा करती रही । लेकिन इधर समीक्षा का हाल यह है कि वह कविता को कविता के रूप में पाठ न करके या तो विचार के रूप में पढ़ रही है या संरचना के रूप में । और दोनों जब तक अपनी जिदों से बँधे हैं तब तक न तो कविता को पढ़ सकते हैं, न समझने की कोशिश कर सकते हैं । एक को जहाँ अपना सा विचार दिखा कि हो गई बड़ी कविता । दूसरे को जहाँ बुनावट की खूबी दिखी कि हो गई महान रचना । और कविता में तो अब जाने की जरूरत ही नहीं रह गई है, कवियों पर ही ठप्पा लग गया है कि वह क्या है ।

    यानी कि हम कवियों को जानते हैं और या तो उनकी शक्ल या अक्ल से यह पहले से तय है कि वह क्या कविता लिखेगा या लिखेगी ।

    उसके बाद जाति से, धर्म से, लिंग से, परवरिश और परिवेश से तय है कि किसी की कविता क्या होगी ।
    इसलिए पढ़ने की जरूरत ही नहीं है, समझने का सवाल तो बाद का है ।

    कल्पित के संदर्भ में ये बातें इसलिए गौर-तलब हैं कि यह कवि और इसकी कविता ऊपर के किसी साँचे में फिट नहीं होती । वह इन तमाम श्रेणियों का अतिक्रमण ही नहीं अपवाद भी है । उसे अच्छी-बुरी कहने से पहले गौर से पढ़ना होगा । और एक कविता को पढ़कर बाकी के बारे में राय बनाने से नहीं चलेगा, हर कविता को पढ़ना होगा । क्योंकि हर कविता जीवन की बलि देकर लिखी गई है, किसी पके-पकाए विचार, वाद, अनुभव, संरचना-पटुता से नहीं ।

    इसलिए उसमें सतत नयापन और अप्रत्याशितता है । वह न तो केवल लिखी गई है, न उसे केवल पढ़ा जा सकता है । वह जीवन को होम कर उच्चारी गई है और सुनने वाले को न केवल उस जीवन को जीना होगा बल्कि अपने जीवन से बहुमूल्य कुछ देना होगा ।

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  11. कल्पित जी सदा की तरह अप्रत्‍याशित और अनबीटेबल

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  12. शिव किशोर तिवारी19 फ़र॰ 2021, 11:29:00 am

    कृष्ण कल्पित का फ़ोर्टे है - प्रेम, खोना, विस्थापन, स्मृति, मृत्यु आदि। उनकी कमज़ोरी हैं लाल फतुई और सूत्रवाचन। इसलिए बहुत ही असमतल काव्यभार है।

    लैम्पपोस्ट वाली कविता, कल की बात ऐसी कवितायें हैं जो कलेजे में उतरती हैं।
    दूसरे छोर पर 'पथ पर न्याय' है जिसे पढ़कर एक रोम भी नहीं कांपता ।

    सूत्रवाचन तो अब उनका मुख्य स्वर हो गया है।

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