महात्मा गांधी का राष्ट्र : मोहसिन ख़ान


राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी अपने स्वतंत्र राष्ट्र में छह महीने भी जीवित नहीं रह सके, उनकी हत्या अंध राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक उन्माद ने कर दी. भारत इस अपराध-बोध से कभी भी उबर नहीं सकता. यह इतिहास की भयंकरतम क्रूरताओं में से एक है.

पूरा जर्मनी हिटलर के मानव-अपराधों से आज भी शर्मिंदा है, वहां नई पीढ़ी को उस नरसंहार की त्रासद स्मृतियाँ दिखाई जाती हैं कि फिर कोई हिटलर न पैदा हो.

आज महात्मा को याद करते हुए आइए इस कुकृत्य पर हम शर्मिंदा हों.




महात्मा गांधी का राष्ट्र                 
_____________________
मोहसिन ख़ान






हात्मा गांधी अर्थात मोहनदास करमचंद गांधी जब जीवित थे, तब भी विरोधी, हिंसक, अप्रगतिशील रूढ़िवादी नकारात्मक विचारधारा के लोगों के कारण विवादों के घेरे में घेर दिये गए और अब उनके चले जाने के पश्चात वह और भी विवादित बना दिए गए हैं. गैरज़रूरी विवादों से उनके चरित्र को कुछ नकारात्मक विचारों के असृजनशील लोगों द्वारा धक्का पहुंचाया गया, परंतु अब तक तो वह अपने नापाक मंसूबे में नाकामयाब ही रहे हैं. जितना अधिक गांधी के चरित्र, स्वभाव, कर्म, प्रकृति और सिद्धांतों को उन्होंने गांधी-बदनामी के लिए उछाला; गांधी की चमक उतनी ही बढ़ती चली गई. ऐसे लोग न केवल नकारात्मक रूप से गांधी को भी ग्रहण करते रहे, बल्कि दोषारोपण करते हुए गांधी को उन स्थितियों के प्रति जिम्मेदार ठहराने का भी प्रयास किया गया जिनके लिए वह सतत संघर्ष करते रहे. दूसरी तरफ ऐसे कई सकारात्मक सृजनशील रचनाकार हैं, जिन्होंने गांधी के व्यक्तित्व को पहचाना उनके कर्म सिद्धांत को एक महत्वपूर्ण अस्त्र के रूप में स्वीकार किया तथा गांधी के मार्ग को और विस्तृत करते हुए राजमार्ग बनाने का प्रयास किया है. गांधी को विवादों के में घेरने से उन लोगों की मंशा का पता चलता है जो एक खास किस्म की चालाकी, संगठन, रूढ़िवादी, मनुवादी और सनातनी व्यवस्था के समर्थक हैं और इसी के माध्यम से राष्ट्रनिर्माण की बातें कर रहे हैं. गांधी के भीतर जितनी विराटता, जीवटता है उतनी ही सूक्ष्मता, दृढ़ता भी है. वह किसी भी मामले में निर्णय लेने से पहले उसके समस्त पहलुओं को छूते हैं और उनसे सकारात्मक भाव ग्रहण करते हुए वह क्रिया-प्रतिक्रिया देते हुए निर्णय करते हैं. इसी कारणआज भी गांधी के कई तर्क अकाट्य ही हैं,जिन्हें काटने का व्यर्थ प्रयत्न गांधी विचारधारा के विरोधी करते रहे हैं.
(Nehru Announces Gandhi’s Death, Birla House, Delhi, 1948.)


जिनके स्वयं में अपने नकारात्मक चरित्र रहे हों, वह आज राष्ट्र निर्माण की बात कर रहे हैं. राष्ट्र निर्माण के विषय में हो हल्ला करते हुए प्रचार-प्रसार, विज्ञापन कर रहे हैं. ऐसे में गांधीजी का राष्ट्र निर्माण और चारित्र्य उद्धार एक शांतिपूर्ण व्यवस्था लेकर सामने आता है जिसमें किसी भी प्रकार की विज्ञापनवादी भावना न होकर केवल आत्म-साधना पर बल दिया गया है. गांधी के चरित्र का एक महत्वपूर्ण और प्रथम पहलू सत्य है और सत्य को ही अपने चरित्र की शक्ति मानते हैं, इसलिए वे न केवल उपदेश देते हैं, बल्कि प्रथमत: वही चरित्र को अपने भीतर ठीक से खंगाल कर देखते हैं कि क्या वे सत्य के मार्ग पर खड़े हैं.तब वे पाते हैं कि सत्य की शक्ति जब तक भीतर नहीं होगी व्यक्ति दृढ़ता से खड़ा नहीं हो पाएगा. इसलिए उन्होंने उपदेश देने से पहले स्वयं को सत्य के तराजू में तोला और फिर बाद में सभी को इस सत्य को ग्रहण करने की व्यापक शिक्षा देते हैं वह कहते हैं-

"सत्य ही परमेश्वर है.(मंगल प्रभात, पृ.7)
इस सत्य की भक्ति के खातिर ही हमारी हस्ती हो. सत्य के बगैर किसी भी नियम का शुद्ध पालन नामुमकिन है."(मंगल प्रभात, पृ. 8)

"विचारों में बोलने में और बर्ताव में सच्चाई ही सत्य है."(मंगल प्रभात, पृ. 8)
"फिर भी हम देखते रहेंगे कि जो एक आदमी के लिए सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य है. इससे घबराने का कोई कारण नहीं है......क्योंकि सत्य की खोज के पीछे तपस्या होने से खुद को दुख सहना होता है. उसके पीछे मर मिटना होता है."(मंगल प्रभात, पृ. 9)

उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि गांधी जी का सत्य केवल व्यक्तिगत सत्य भी हो सकता है और सामाजिक सत्य भी हो सकता है. एक व्यक्ति का सत्य दूसरे व्यक्ति का सत्य तब तक नहीं हो सकता जब तक वह उस तत्व का अनुसंधान न कर ले जिस सत्य को पहले व्यक्ति ने अपने आत्मा में स्वीकार किया है.सत्य के लिए मर-मिटना और दुख सहना यह उनके जीवन का अनुभव है और इन अनुभवों को ही वे अपने विचारों में अभिव्यक्ति देते हैं. यह बात सच है कि सत्य तब तक नहीं पाया जा सकता है जब तक उसके पीछे हम मर मिटन जाएँ. सत्य को सुरक्षित रखने के लिए और सत्य मार्ग पर चलने के लिए व्यक्ति को कठिन से कठिन राहों का सफर तय करना होता है और अपने काँधों पर दुख का भारी बोझा उठाकर चलना होता है.

राष्ट्रनिर्माण और चारित्र्यनिर्माण के पीछे सत्य के साथ-साथ अहिंसा को अपने जीवन में बहुत महत्व देते हैं. उनका संकल्प ही अहिंसावादी था और अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही हुए सत्य को प्राप्त करते हैं. राष्ट्रीय आंदोलन का समय हो या पश्चात का समय हो उन्होंने सदैव सत्य के साथ-साथ अहिंसा पर बल दिया है और इसी कारण वह सुदृढ़ता से राष्ट्र निर्माण के मार्ग पर आगे बढ़े हैं. जिनके लिए अहिंसा का मार्ग सरल नहीं; वह हिंसा का समर्थन करते हुए नजर आते हैं, लेकिन गांधी प्रश्न करते हैं कि हिंसा से लाभ क्या होगा? अगर हिंसा से लाभ होता तो आज विश्व में हिंसा का ही राज होता, इसलिए वह अहिंसा का समर्थन करते हुए स्वयं को दुख देने की बात करते हैं. लेकिन वर्तमान में लोग स्वयं को दुख से दूर रखने का भरसक प्रयास करते हैं और सुविधाभोगी बनकर समस्त लाभ ग्रहण करना चाहते हैं. ऐसी स्थिति में वह अहिंसा का समर्थन कैसे कर सकते हैं? अहिंसा के संदर्भ में गांधी जी ने उल्लेख किया है कि बिना सत्य के अहिंसा नहीं प्राप्त की जा सकती है और बिना अहिंसा के सत्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है. यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और इंका वास्तविक, व्यावहारिक साहचर्य जबतक न होगाताबतक व्यक्ति और राष्ट्र को का उत्थान संभव ही नहीं. उनके शब्दों में-

"सत्य है. वही है. वही एक परमेश्वर है. उसका साक्षात्कार-दीदार करने का एक ही मार्ग,एक ही साधन अहिंसा है. बगैर अहिंसा के सत्य की खोज नामुमकिन है. सत्य का अहिंसा का रास्ता जितना सीधा है उतना ही संकरा-तंग; है तलवार की धार पर चलने जैसा है......जरा सी गफलत हुई के नीचे गिरे ही समझो. पल-पल की साधना में ही उसके दर्शन हो सकते हैं."(मंगल प्रभात, पृ.9)

अहिंसा और अन्याय के विषय में गांधी एकदम स्पष्ट हैं कि अहिंसा का यह अर्थ कदापि नहीं कि कोई प्रेम द्वारा असत्य का पाठ पढ़ाये या कि हिंसा की ओर प्रवृत्त करे. ऐसे में गांधी ऐसी अवस्था का विरोध करते हैं.  वे कहते हैं- "इस व्रत के पालन के लिए इतना ही काफी नहीं है कि प्राणियों की हत्या न की जाए. इस व्रत का पालने वाला घोर अन्यायी पर भी क्रोध न करे, लेकिन उस पर प्रेम रखे, उसका भला चाहे और भला करे. लेकिन प्रेम करते हुए भी अन्याय के अन्याय से दबे नहीं, बल्कि उसका सामना करे, और ऐसा करने में वह जो भी तकलीफेंदे, उन्हें धीरज के साथ और अन्यायी से द्वेष किए बिना सहन करे."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास, पृ.74)

गांधी बाहरी अहिंसा और आंतरिक अहिंसा दोनों को ग्रहण करके चलते हैं. केवल स्थूल रूप से किसी को शारीरिक चोट पहुंचाना ही हिंसा नहीं है, बल्कि हिंसा भीतरसे भी होती है और ऐसा भी उतनी ही खतरनाक है जितनी बाहरी रूप में अभिव्यक्त हिंसा. वह कहते हैं-

"यह अहिंसा आज हम जिसे मोटे तौर पर समझते हैं सिर्फ वही नहीं है. किसी को कभी नहीं मारना, यह तो अहिंसा है ही. तमाम खराब विचार हिंसा है. जल्दबाजी हिंसा है. झूठ बोलना हिंसा है. द्वेष,बैर-डाह हिंसा है. किसी का बुरा चाहना हिंसा है. जिस चीज की जगत को जरूरत है उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है."(मंगल प्रभात, पृ.13)
"अहिंसा को हम साधन यानी जरिया मानें और सत्य को साध्य यानी मकसद. साधन हमारे बस की बात है, इसलिए अहिंसा परम धर्म हुई और सत्य परमेश्वर हुआ. साधन की फिक्र अगर हम करते रहेंगे तो साध्य के दर्शन हम किसी न किसी दिन जरूर कर लेंगे."(मंगल प्रभात, पृ. 14-15)

स्पष्ट है कि गांधीजी सत्य और अहिंसा को एक सिक्के के दो पहलू मान कर चलते हैं. यदि अहिंसा को हमने भीतर से निकाल दिया तो सत्य कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता है. यह दो ऐसे प्रमुख तत्व हैं, जिसे ग्रहण करके ही व्यक्ति राष्ट्र निर्माण की कल्पना कर सकता है और चारित्रिक उत्थान कर सकता है. गांधीजी बराबर सत्य और अहिंसा पर बल देते हुए आगे बढ़ते हैं यह उनके मात्र प्राथमिक सिद्धांत ही नहीं, बल्कि प्राथमिक सिद्धांतों का लेखा-जोखा करने बैठेंगे तो बहुत अधिक कई स्तरों पर और भी अधिक प्राथमिक सिद्धांत उनके जीवन में हमें नजर आएंगे.

एक और उनका सिद्धांत है- अस्वाद का सिद्धांत. वह भोजन को केवल भोग के रूप में, शरीर की वृद्धि और संचालन के रूप में इस्तेमाल करते हैं. इसलिए वह अस्वाद के पक्ष में हैं. ऐसा नहीं कि गांधी स्वाद और सौंदर्य को नकारात्मक दृष्टि से देखते हैं, परंतु उनके विचार में भारत की जनता जितनी अधिक दुखी, भूखी और नंगी है उसको देखते हुए वह भोजन का स्वाद लेना अपने जीवन में एक हिंसा और अनुचित कर्म मानते हैं. इसलिए अस्वाद पर वह बल देते हैं. वह कहते हैं कि व्रत व्यक्ति को अधिक शुद्ध बनाता है व्रत से व्यक्ति शारीरिक रूप से कमजोर नहीं होता है, बल्कि वह आत्मिक रूप से और अधिक सबल होकर इंद्रिय-संयम को साध लेता है इसलिए वह कहते हैं-

"मेरा अनुभव है कि अगर मनुष्य इस व्रत में पार उतर सके, तो ब्रह्मचर्य यानी इंद्रियों का संयम बिल्कुल सरल हो जाए."(मंगल प्रभात, पृ. 20)
"भोजन सिर्फ शरीर को जिंदा रखने के लिए और सेवा के लिए तैयार रखने के लिए करना चाहिए. भोग विलास के लिए नहीं. इसका मतलब यह है कि उसे दवाई समझकर, संयम के साथ खाना चाहिए. इस व्रत के पालनेवालों को विकार पैदा करने वाले मसाले वगैरा पदार्थों का त्याग करना चाहिए. मांस, तंबाखू, शराब, भांग इत्यादि चीजों के उपयोग की आश्रम में मनाही है. इस व्रत में स्वाद के लिए दावत करने या भोजन का आग्रह करने की मनाही है."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास, पृ.75)

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि महात्मा गांधी संयम को बहुत अधिक महत्व देते हैं और इंद्रियों को वश में रखने की शिक्षा देते हैं. इसी संबंध में संयम को अपने जीवन में महत्व देते हैं. इसका कारण साफ यह है कि अस्वाद से ही मन की दृढ़ता और एकाग्रता आ सकेगी. यदि व्यक्ति स्वयं को साध लेगा तो समाज और राष्ट्र अपने आप सध जाएगा. उनकी यह धारणा भारतीय संस्कृति की मूल्यवादी धारणा पर आधारित ही है.

अस्तेय के विषय में गांधी जी बहुत चौंकन्ने नजर आते हैं. वह बिना इजाजत के किसी की चीज को लेना पसंद नहीं करते और यही उपदेश भी देते हैं. वह अपने जीवन के अनुभव से यह बात लेकर सामने आते हैं और कहते हैं कि- चोरी करना गुनाह है. यदि व्यक्ति चोरी करता है तो वह सबसे पहले गलत मार्ग पर कदम रखता है साथ ही साथ वह सामने वाले व्यक्ति का बहुत अधिक नुकसान कर देता है. इस सब के पीछे लालच नाम की प्रवृत्ति भीतर कार्य करती है और इस लालच को मारने के लिए अस्तेय को एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हैं वे कहते हैं-

"बगैर इजाजत किसी का कुछ लेना यह तो चोरी ही है. लेकिन जिसे अपना माना है उसकी भी चोरी इंसान करता है. जैसे कोई बाप अपने बच्चों के न जानते हुए, उनको न जताने के इरादे से चोरी चुपके कोई चीज खा लेता है."(मंगल प्रभात, पृ. 26)
"अस्तेय का व्रत पालनेवाला एक के बाद एक अपनी हाजतें कम करता जाएगा. इस जगत में बहुत सी कंगाली अस्तेय के भंग से पैदा हुई है."(मंगल प्रभात, पृ. 27)
"अपना कम से कम ज़रूरत से अधिक मनुष्य जो कुछ भी लेता है वह चोरी का ही लेता है."(चारित्र्य और राष्ट्रनिर्माण, पृ.11)


गांधीजी इस समाज को अधिक रूप से उपयोगी, सार्थक, सुचारु तथा समन्वयी बनाने के लिए अपरिग्रह जैसे सिद्धांत पर भी बल देते हैं. जिस तरह से अस्तेय का पालन किया जाए उसी प्रकार से अपरिग्रह का भी पालन व्यक्ति को सदैव करना चाहिए. अनावश्यक रूप से चीजों को एकत्रित करना दूसरों को चीजों के लिए परेशान करना, अनुपलब्धता को बढ़ाना या जाने-अनजाने उन्हें उस चीज का लाभ प्राप्त न करने देना भी एक प्रकार की मानवीय संकट की स्थिति है. अपरिग्रह के सिद्धांत से वह जीवन में सादगी, सीधापन और सहजता लाने का प्रयास करते हैं. जितना अधिक अपरिग्रह होगा उतना ही जीवन सरल सहज और सीधी राह पर चलने वाला होगा. अपरिग्रह का संबंध व जीवन में संतोष की भावना से लेते हैं. जो व्यक्ति जितना अधिक अपरिग्रह करेगा इतना जीवन को संतोष में होकर जी पाएगा वे कहते हैं-

जैसे अनावश्यक चीज ली नहीं जा सकती, वैसे उसका संग्रह भी नहीं किया जा सकता. इसका मतलब यह है कि जिस अन्न या साज-सामान की जरूरत न हो, उस का संग्रह करना इस व्रत का भंग करना है. कुर्सी के बिना जिसका काम चल सकता है उसे कुर्सी रखनी ही नहीं चाहिए. अपरिग्रही को अपना जीवन हमेशा सादा बनाते रहना चाहिए."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास, पृ.75-76)

"सही सुधार, सच्ची सभ्यता का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि सोच-समझकर और अपनी इच्छा से उसे कम करना है.ज्यों-ज्यों हम परिग्रह घटाते जाते हैं, त्यों-त्यों सच्चा सुख और सच्चा संतोष बढ़ता जाता है, सेवा की शक्ति बढ़ती जाती है."(मंगल प्रभात, पृ. 31)

गांधी जी अभय को एक महत्वपूर्ण हथियार मानते हैं. अभय से मतलब वे बुरे कर्मों को करते हुए निडर रहने से कदापि नहीं लेते हैं. वह कहते हैं सत्य की राह पर चलते हुए अहिंसा का पालन करते हुए, हमें उन बुरी प्रवृत्तियों, अत्याचार, अन्याय और हिंसा के खिलाफ खड़ा होना है जो जीवन को समाप्त कर रही हैं और मानव का नाश कर रहे हैं. जो मूल्यों के लिए खतरा बना हुआ है, उन मूल्यों को सुरक्षित करने के लिए अभय हमें जीवन में उतारना चाहिए. सत्य का पालन करते हुए अभय को सदैव धारण करना होगा तब व्यक्ति किसी भी बुरी प्रवृत्ति को परास्त कर सकता है या उसके सामने संघर्ष कर सकता है वह कहते हैं-

"जो सत्य परायण रहना चाहते हैं, वे न जात-पाँत से डरें, न सरकारों से डरें, ना चोर से डरें, न गरीबी से डरें, और न मौत से डरें."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास, पृ.77)
"सत्य की खोज करनेवाले को इन सब भयों को छोड़े सिवा चारा नहीं. हरिश्चंद्र की तरह बर्बाद होने की उसकी तैयारी होना चाहिए."(चारित्र्य और राष्ट्रनिर्माण, पृ.12)
"हमें बाहरी भयों से मुक्ति पानी है. अंदर जो दुश्मन हैं उनसे तो डर कर ही चलना है. काम, क्रोध, बैराग का भय सच्चा भय है. उन्हें जीत लें तो बाहरी भयों की परेशानी अपने आप मिट जाएगी."(चारित्र्य और राष्ट्रनिर्माण, पृ.12)

राष्ट्र निर्माण और चरित्र्य उद्धार में महत्वपूर्ण एक और तत्व महात्मा गांधी का अस्पृश्यता का निवारण है. इस अस्पृश्यता -निवारण के कारण ही महात्मा गांधी को बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. वे उन लोगों से सदैव संघर्ष करते रहे जिन लोगों ने जाति-पाँति,अमीर-गरीब की भावना को प्रबलता दी. जिस तरह से भारत में रूढ़ि, अंधपरंपरा और दलित अवस्थाएं समाज में पनप कर वटवृक्ष बन चुकी थी. उनको काटने काटने का काम महात्मा गांधी करते हैं और इसका खामियाजा भी वे अपने जीवन में उठाते हैं, लेकिन वह किसी भी विरोध से डरते नहीं हैं. इस अस्पृश्यता को उन्होंने राष्ट्रनिर्माण के लिए बड़ी बाधा माना है. इसलिए वह मनुष्य को मनुष्य मानकर चलने वाले व्यक्ति हैं. जाति-पाँतिका भेदभाव मिटाकर ही राष्ट्र का निर्माण हो सकता है और व्यक्ति का चरित्र ऊंचा उठ सकता है, इसलिए जाति-पाँति,अस्पृश्यताको वह समाज का कोढ़ मानते हैं और इस को मिटाने का संकल्प अपने जीवन में लेते हैं.अस्पृश्यता को वह अधर्म का नाम देते हैं मनुष्य केवल मनुष्य है और उसे मनुष्य बने रहने का ही अधिकार है.जाति-पाँति,ऊंच-नीच से कभी भी मनुष्य का भला नहीं हो सकता है, इसलिए वह डटकर खड़े हुए नजर आते हैं और अस्पृश्यता के निवारण के लिए वह अछूतों का उद्धार करते हैं-

"अछूतेपन को निवारणा जो सच्चे रूप में चाहता है वह आदमी सिर्फ अछूतों को अपनाकर संतोष नहीं मानेगा; जब तक वह तमाम जीवों को अपने में नहीं देखता और अपने को तमाम जीवों पर निछावर नहीं कर देगा, तब तक वह शांत होगा ही नहीं. अछूतेपनकी नाबूदी करना यानी तमाम जगत के साथ दोस्ती रखना उसका सेवक बनना."(मंगल प्रभात, पृ. 39)
"ऐसा कौन है जो आज इस बात से इनकार करेगा कि हमारे हरिजन भाई-बहनों को बाकी के हिंदू अपने से दूर रखते हैं, और इसकी वजह से हरिजनों को जिस भयावनी व राक्षसी अलहदगी का सामना करना पड़ता है, उसकी मिसाल तो दुनिया में कहीं ढूंढे भी नहीं मिलेगी?"(रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहसय और स्थान, पृ.16)
"वर्ण व्यवस्था सिर्फ धंधे के संबंध में है. इसलिए जो वर्ण-नीति को पालता है, उसे अपने माता-पिता के धंधे से रोजी पैदा करके बाकी का समय ज्ञान प्राप्त करने और उसे बढ़ाने में खर्च करना चाहिए."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास, पृ.77)


भारत बहुभाषी और धर्म बहुलता का देश है कई प्रमुख धर्मों के साथ कई छोटे-मोटे संप्रदाय यहां वर्षों से स्थापित हैं. धर्म और संप्रदाय जब एक-दूसरे के विपरीत खड़े हो जाएं तो टकराहट वाली स्थितियां पैदा होती हैं, जिससे राष्ट्र का नुकसान होता है और चरित्रों में विकार उत्पन्न होता है. यह चरित्र व्यक्ति के निजी चरित्र ही नहीं, बल्कि समाज के चरित्र को और भी धुंधला तथा हिंसक बना देते हैं. इसलिए महात्मा गांधी ने कभी भी एक धर्म संप्रदाय का पक्ष नहीं लिया. वह जितना आदर अपने धर्म का करते हैं उससे कहीं आदर दूसरे धर्मों का भी करते हैं. उनके लिए सब धर्म एक समान हैं और एक ही ईश्वर तक पहुंचने वाले विभिन्न मार्ग हैं. इसलिए सर्वधर्म समभाव के प्रति वह बल देते हैं और सर्वधर्म समभाव से ही व्यक्ति के चरित्र का निर्माण हो कर समाज और राष्ट्र के चरित्र का निर्माण हो सकता है. वे अपने जीवन में सर्वधर्म सभा को आयोजित करते हैं और सदैव उसी का पालन करते हैं इस संबंध में वह कहते हैं-

"संसार में जितने भी प्रचलित प्रख्यात धर्म हैं, वह सब सत्य को प्रगट करते हैं. लेकिन वह सब अपूर्ण मनुष्य द्वारा व्यक्त हुए हैं. इसलिए उन सब में असत्य का भी मिश्रण हो गया है. इसका मतलब यह नहीं कि हममें जितना अपने धर्म के लिए मान हो, उतना ही मान दूसरों के धर्म के लिए भी होना चाहिए. जहां ऐसी सहिष्णुता हो वहां न तो एक-दूसरे के धर्म का विरोध पैदा होता है, न दूसरे धर्मवाले को अपने धर्म में लाने की कोशिश की जाती है. परंतु सब धर्मों के दोष दूर हों ऐसी प्रार्थना करना तथा ऐसी भावना का पोषण करना उचित माना जाता है."(सत्याग्रह आश्रम का इतिहास, पृ.77)
"यहां धर्म-अधर्म का भेद नहीं मिटता. यहां तो जिन धर्मों पर मुहर लगी हुई हम जानते हैं उनकी बात है. इन सब धर्मों के मूल सिद्धांत बुनियादी उसूल तो एक ही है."(मंगल प्रभात, पृ. 46)

इसके अतिरिक्त महात्मा गांधी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के चरित्र के निर्माण के लिए नम्रता, व्रत की जरूरत दोनों को भी बहुत महत्वपूर्ण मानते रहे हैं. नम्रता से उनका आशय बिल्कुल मिट जाना नहीं है या अहिंसा को सहते जाना नहीं है, बल्कि नम्रता से आशय सत्य बात पर अटल रहते हुए उसे नम्रता के साथ रखनी चाहिए. इसके साथ-साथ में व्रत (संकल्प) को भी बहुत महत्व देते हैं. यह व्रत केवल भोज्य पदार्थों का सेवन न करने का व्रत नहीं, बल्कि संकल्पों ही व्रत है. व्यक्ति को संकल्प मन में धारण करना चाहिए,जिससे उसके चरित्र में उज्ज्वलता का प्रमाण अधिक रूप से उपस्थित हो सके. इसलिए वह संकल्पों को व्रत नाम देते हैं. यह संकल्प ही व्यक्ति को चरित्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण में प्रमुख घटक के रूप से सहायता प्रदान करते हैं. यदि व्यक्ति संकल्प रहित होगा तो वह अपने उद्देश्य को कभी तय नहीं कर पाएगा. उसके उद्देश्य को साधने करने के लिए संकल्प की राह जरूरी है. महात्मा गांधी जहां देश निर्माण की बात कर रहे हैं वहां कौमी एकता की भी वे बात करते हैं. वह कौमी एकता पर लगातार बल देते हैं और सभी धर्मों को मानने वाले अनुयायियों को आव्हान करते हैं कि सभी धर्म एक हैं और इन धर्मों का पालन करते हुए हमें दूसरों के धर्मों को बहुत अधिक महत्व देना चाहिए यदि देश में कौमी एकता होगी तो ही राष्ट्र का निर्माण हो पाएगा वरना राष्ट्र छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाएगा. कौमी एकता जहां व्यक्ति को आत्मीयता सिखाती हैं वही समाज के साथ-साथ राष्ट्र की सबलता को भी और अधिक सबल कर जाते हैं. विभिन्न धर्म और संप्रदाय को मानने वाले जब आदर पूर्वक एक साथ आएंगे तो असहिष्णुता मिट जाएगी और जब असहिष्णुता मिट जाएगी तो चारों तरफ शांति, अहिंसा और सत्य का बोलबाला होगा.

"कौमी या सांप्रदायिक एकता की जरूरत को सब कोई मंजूर करते हैं. लेकिन सब लोगों को अभी यह बात जँची नहीं कि एकता का मतलब सिर्फ राजनीतिक एकता नहीं है. राजनीतिक एकता तो जोर जबरदस्ती से भी लादी जा सकती है. मगर एकता या इत्तेफाक के सच्चे मानी तो हैं वह दिली दोस्ती जो किसी के तोड़े ना टूटे. इस तरह की एकता पैदा करने के लिए सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि कांग्रेसजन फिर वह किसी भी धर्म के मानने वाले हों,अपने को हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी वगैरह सभी कोमों के नुमाइंदे समझें."(रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहसय और स्थान, पृ.11-12)

व्यक्ति चरित्र के निर्माण के साथ-साथ वे राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण को देखते हैं और यह दोनों बातें अलग अलग नहीं हैं, बल्कि व्यक्तिगत चरित्र ही राष्ट्र का चरित्र होता है. इसलिए वह शराबबंदी के साथ साथ नशे के विरोध में खड़े हुए दिखाई देते हैं. नशा किसी भी हाल में व्यक्ति का भी उद्धार नहीं कर सकता ना समाज, न राष्ट्र का. इसलिए वे शराबबंदी पर बहुत अधिक प्रतिबंध लगाने की बात करते हैं. उन्हीं के संकल्पों के कारण आज गुजरात राज्य में शराब के उत्पादन तथा बिक्री पर कानून बना हुआ है और किसी भी प्रकार से शराब बनाने का काम गुजरात राज्य में आज भी नहीं होता है.

"अगर हमें अपना देश अहिंसक पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त करना है, तो अफीम, शराब वगैरह चीजों के व्यसन में फंसे हुए अपने करोड़ों भाई-बहनों के भाग्य को हम भविष्य की सरकार की मेहरबानी या मर्जी पर झूलता नहीं छोड़ सकते."(रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहसय और स्थान, पृ.16-17)

व्यक्ति के चरित्र के साथ वह राष्ट्र के चरित्र को बराबर जोड़कर देखते हैं, इसलिए उन्होंने स्वच्छता के कार्यक्रम भी अपने जीवनकाल में बहुत चलाए. गांव की सफाई से लेकर व्यक्तिगत सफाई के समस्त ठिकानों को वह साफ-सुथरा रखने की बात करते हैं. छोटे-छोटे गांव में जाकर वह सफाई करते हैं न केवल उपदेश देते हैं वह स्वयं व्यावहारिक स्तर पर गांव की सफाई करते हैं. जहां बहुत अधिक मात्रा में गंदगी फैली हुई है वहाँ महात्मा गांधी ने कई कार्यक्रम भारतभर में चलाए और जनता ने उनका सहयोग भी किया. धार्मिक परंपरा के कारण उत्पन्न गंदगी और गांवों की गंदगी के संबंध में गांधी जी लिखते हैं-

"हमने राष्ट्रीय सामाजिक सफाई को ना तो जरूरी गुण माना, और न उसका विकास ही किया.योंरिवाज के कारण हम अपने ढंग से नहा भर लेते हैं, परंतु जिस नदी, तालाब या कुएं के किनारे हम श्राद्ध या वैसी ही दूसरी कोई धार्मिक क्रिया करते हैं और जिन जलाशयों में पवित्र होने के विचारों से हम नहाते हैं, उनके पानी को बिगाड़ने या गंदा करने में हमें कोई हिचक नहीं होती." (ग्राम स्वराज्य, पृ.179)

गांधी जी चारित्र्यनिर्माण और राष्ट्र निर्माण न केवल पुरुषवादी समाज को वर्चस्व देते हैं, बल्कि पुरुषवादी समाज में स्त्रियों के बराबर हिस्सेदारी की वह निरंतर बात करते हैं. उन्होंने जिस प्रकार से अछूत उद्धार किया,अस्पृश्यता का निवारण किया उसी प्रकार से स्त्रियों को भी समाज की जकड़बंदियों से मुक्त करने के लिए आह्वान किया और स्त्रियों को हुए समाज में घर से बाहर लेकर आए उनकी भूमिका को महत्वपूर्ण माना है वह स्त्रियों के संबंध में कहते हैं-

"सेवा के धर्म कार्यों में स्त्री ही पुरुष की सच्ची सहायक और साथिन है......जितना और जैसा अधिकार पुरुष को अपने भविष्य की रचना का है उतना और वैसा ही अधिकार स्त्री को भी अपना भविष्य तय करने का है......स्त्री को अपना मित्र या साथी मानने के बदले पुरुष ने अपने को उसका स्वामी माना है. इसलिए कांग्रेसवालों का यह फर्ज है कि वे हिंदुस्तान की स्त्रियों को उनकी इस गिरी हुई हालत से हाथ पकड़कर ऊपर उठावें......स्त्रियों को उनकी मौलिक स्थिति का पूरा बोध करावें और उन्हें इस तरह की तालीम दें जिससे वे जीवन में पुरुष के साथ बराबरी के दर्जे से हाथ बांटने लायक बनें."(रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहसय और स्थान, पृ.32-33)


इस तरह गांधी का संकल्प स्त्रियों को दासता की मुक्ति दिलाना है और उन्हें चहारदीवारी के भीतर से समाज में लाकर एक कर्मशील समाज का निर्माण करते हुए उनके चरित्र को ऊपर उठाना तथा राष्ट्रनिर्माण को नया बल प्रदान करना है. स्त्रियों की भूमिका को लेकर महात्मा गांधी अपने जीवन में बहुत गंभीर थे और स्त्रियों के प्रति वे समान ही बर्ताव करते हैं. जिस तरह से समान अधिकार पुरुष को मिले हुए हैं उसी तरह से स्त्रियों के समान अधिकार की चर्चा वह अपने जीवन काल में करते हैं. न केवल जीवन काल में करते हैं, बल्कि वह अपने जीवन में स्त्रियों को राष्ट्र की सेवा के लिए बहुत अधिक आगे लाते हैं.

राष्ट्र उत्थान और राष्ट्रनिर्माण के लिए महात्मा गांधी प्रांतीय भाषाओं को भी प्राथमिकता देते हैं. लेकिन उनके लिए किसी एक भाषा को प्राथमिकता देना इसलिए जरूरी हो जाता है कि भाषाओं से ही व्यक्ति विचार-विमर्श करता है और संवाद स्थापित कर पाता है. वे भाषाओं के प्रति संकोची नहीं हैं, लेकिन उनका मानना है कि यदि राष्ट्र का उत्थान करना है तो हमें एक भाषा का प्रयोग करना होगा. भारत बहुभाषी प्रदेश है और अलग-अलग प्रांतों की अलग-अलग भाषाएं हैं और उन भाषाओं में उनकी संस्कृति रची-बसी है, लेकिन प्रांतीय भाषाओं को भी वह महत्व देते हुए एक भाषा के सूत्र को सामने लाते हैं. वे अपने जीवन काल में राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर भी गंभीरता से चिंता करते हैं और राष्ट्रभाषा हिंदी की जगह हिंदुस्तानी स्वीकार करते हैं. हिंदुस्तानी को स्वीकार करने के पीछे उनके कई तर्क और कारण रहे हैं, क्योंकि हिंदुस्तानी भाषा में जितना खुलापन है वह संस्कृतनिष्ठ हिंदी में नहीं, इसलिए हिंदी के संबंध में वह हिंदुस्तानी को अधिक बल देते हैं. हिंदुस्तानी उनके लिए एक समन्वय की भाषा है जिसमें राष्ट्र के सभी लोग अपने आचार-विचार, संवाद स्थापित कर सकते हैं .इसलिए इस संबंध में वह कहते हैं-

"समूचे हिंदुस्तान के साथ व्यवहार करने के लिए हम को भारतीय भाषाओं में से एक ऐसी भाषा की जरूरत है, जिसे आज ज्यादा से ज्यादा तादाद में लोग जानते और समझते हों और बाकी के लोग जिसे झट से सीख सकें. इस में शक नहीं कि हिंदी ही एक ऐसी भाषा है. उत्तर के हिन्दू और मुसलमान दोनों इस भाषा को बोलते और समझते हैं. यही भाषा जब उर्दू लिपि में लिखी जाती है तो उर्दू कहलाती है. राष्ट्रीय कांग्रेस ने सन 1925 में अपने कानपुर अधिवेशन में जो मशहूर प्रस्ताव पास किया था, उसमें सारे हिंदुस्तान की इसी भाषा को हिंदुस्तानी कहा है. और तबसे सिद्धान्त में ही क्यों न हो, हिंदुस्तानी राष्ट्रभाषा मानी गयी है......इस राष्ट्रभाषा को हमें इस तरह सीखना चाहिए, जिससे हम सब इसकी दोनों शैलियों को समझ और बोल सकें और इन दोनों लिपियों में लिख सकें.......जितने साल हम अंग्रेजी सीखने में बर्बाद करते हैं उतने ही महीने भी अगर हम हिंदुस्तानी सीखने को तकलीफ नउठाएं, तो सचमुच कहना होगा कि जनसाधारण के प्रति अपने प्रेम की जो डींगें हम हाँका करते हैं वह निरीडींगें ही हैं."(रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहसय और स्थान, पृ.38-39)

यद्यपि गांधी जी की अधिकांश शिक्षा अँग्रेजी माध्यम से हुई थी, परंतु भाषा की पक्षधरता के मामले में वे अपने देश की भाषा का ही समर्थन करते हैं. उसने प्रश्न पूछने पर वे अँग्रेजी के संबंध में ये उत्तर देते हैं-

"करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है. मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियादी डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी. उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनाई थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता. लेकिन उसके काम का नतीजा यह निकला है. यह कितने दुख की बात है कि हम स्वराज्य की बाट भी पराई भाषा में करते हैं." (हिन्द स्वराज पृ. 72)   

आज वर्तमान संदर्भों में भी देखा जाए तो जो कई समस्याएं जो गांधी जी के काल में मौजूद थीं, आज भी यह समस्याएं भारत के संदर्भ में यथावत मौजूद हैं. इसमें प्रमुख रूप से जाति की समस्या और अस्पृश्यता की समस्या को प्रमुखता के साथ देखा जा सकता है. साथ ही साथ स्त्रियों की मुक्ति के बारे में भी यह एक समस्या गंभीर रूप में सामने आती है. जिस तरह के प्रयास गांधी जी ने अपने समय में किए थे आज उन प्रयासों को फिर से दोहराने की जरूरत है. न केवल दोहराने की जरूरत है, बल्कि नए संकल्पों के साथ गांधी की मूल्यवादी दृष्टि को अपने जीवन में एक महत्वपूर्ण मूल्य मानकर स्थाई रूप से अपनाने की गुरेज है. हमारा राष्ट्र नशे की समस्या से जूझ रहा है, गंदगी की समस्या से जूझ रहा है, सत्य और अहिंसा की विकराल समस्या भी हमारे सामने मौजूद है. ऐसे में गांधी जी के मूल्यों और उनके द्वारा दिए गए आदर्शों को अपनाकर इस संसार को शांति और अहिंसा की राह पर लाया जा सकता है, परंतु अफसोस यही है कि बढ़ते हुए असते स्वाद और परिग्रह की समस्याओं ने हमें अभी जकड़ रखा है. हम बहुत अर्थों में धर्म और भाषा भेद भी लेकर चलते हैं, जिससे राष्ट्र का निर्माण असंभव हो जाता है. इसलिए गांधी जी द्वारा दिए गए मूल्यों को अपनी भूमि में पुनः रोपना होगा ताकि इस समस्या का समाधान करते हुए व्यक्ति चारित्र्य और राष्ट्रनिर्माण दोनों में अपार सहयोग प्राप्त हो सके, इसलिए गांधी जी के मूल्य आज भी हमें प्रासंगिक ही नजर आते हैं और कारगर सिद्ध होते हैं.



डॉ. मोहसिन ख़ान
                        स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष
जे. एस. एम. महाविद्यालय,
अलिबाग़-जिला-रायगढ़
(महाराष्ट्र) ४०२  २०१
 मोबाइल-०९८६०६५७९७० / ०९४०५२९३७८३
मेल : Khanhind01@gmail.com 

3/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. सदाशिव श्रोत्रिय30 जन॰ 2019, 9:24:00 am

    आज के दिन गांधी जी को इस नायाब श्रद्धांजलि के लिए अनेकानेक साधुवाद !

    जवाब देंहटाएं
  2. Aaj aapne Gandhi ji ke bare main bahut hi sunder barman Kiya...bahut bahut aabhar Bhai ji.

    Satya or aahinsha ke pujari ko sat sat naman.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.