सहजि सहजि गुन रमैं : सुमीता ओझा













आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने महत्वपूर्ण निबन्ध ‘कविता क्या है’ में लिखा है “ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जायगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जायगा.”

और कविताएँ भी जटिल होती जाएँगी, इसमें यह और जोड़ देना चाहिए. कविता में ‘कठिन काव्य के प्रेत’ पहले भी रहें हैं. हिंदी कविता की परम्परा से जो वाकिफ नहीं है उसे मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ दे दी जाए तो बहुत संभव है उसकी नींद उड़ जाए. और यही सार्थकता है इन कविताओं की. आप अपने ‘कंफर्ट जोन’ से बाहर कर दिए जाते हैं, बेचैन और विचलित.  

सुमीता ओझा की कुछ कविताएँ आपने समालोचन पर पढ़ी हैं, उनकी कविताएँ गणितज्ञ की कविताएँ हैं ज़ाहिर है आपको ध्यान से उतरना होगा.


  


सुमीता ओझा की पाँच कविताएँ                       








ओरिगामी # 

आँकी-बाँकी मुरकियों का
जादुई संगीत यह
कागज की आत्मा का
रहस्यमयी स्वर्णिम गीत है.

गणित, कला और विज्ञान के
त्रिविध, त्रिआयाम पर रचित जादुई यथार्थ.
यथार्थ जिसे साधता है
गणितज्ञ कलाकार
कागज के प्राणों में अपने प्राण गूँथ
किसी अलौकिक सोनिक सन्देश को डिकोड करते
मानस तरंगों की तल्लीनता में थिरकती
दस अंगुलियों के स्नेहिल स्पर्श से.

कागज!
जिसमें गुम्फित है पेड़ों का
समूचा जीवन रस
स्पन्दित है सभी प्राणियों का
जीवन-उत्ताप
अनुभूति-उच्छवास
वेदना-उत्साह...
अनादि-अनन्त काल की
द्रुत-मंथर
सरपट-सीधी
दुलकी-लहरीली
गतियों के
हर खोह-खड्डों, कॉमा-डॉटों को
सटीक कोण के साथ
झटके से मोड़ काट पार करते
कागज के वर्गाकार टुकड़ों से
रचित होता समान्तर संसार.

जहाँ नहीं है नश्तर
छेनी, हथौड़ी या कोई भी औजार
जोड़क की तरह ही सही
सूई तक की भी नहीं कोई दरकार
कागजी कोनों की गलबहियों में समाया
जगर-मगर संसार...

फूल और तितली, मेंढक-मछली
कुत्ते-बिल्ली, घोड़े-हाथी
तोता-मैना, हंस और बगुले
गाती कोयल, काले कौवे
मोर पंखों की एक-एक थिरकन
एम्परर पेंगुइन की राजसी सज-धज
गुड्डे-गुड़ियों, खेल-खिलौनों
भाँति-भाँति की पाँत
तरह-तरह के आदमजात
राज-रजवाड़े, राजा-रानी
सेवक, भिश्ती, पीर, बावर्ची
साफ-सफ्फाफ हीरे का वैभव कैसा अनमोल
जैसे कछुआ पीठ के सभी षट्कोण
तीन फलक पर तरह-तरह के
गोल-चौकोर पॉलीहेड्रॉन
नाव, जहाज, अंतरिक्ष यान
ग्रह-नक्षत्र, चंदा-तारे
खेचर, गोचर, वनचर, जलचर
संसार सकल, समग्र ब्रह्माण्ड...

सहस्त्ररंगी जीवन का कल्पनीय
सबकुछ विद्यमान है यहाँ.
चित्त में कलुष की जितनी परतें हों सम्भव
उतने ही मोड़ों से रचित चुड़ैल की
टेढ़ी नाक के नुकीलेपन से झाँकती
सारी वक्रता के काले जादू का
सामना करती बलिष्ठ सैनिक की
तलवार की धार का पैनापन
जिसकी प्रशस्ति-प्रशंसा में
उत्कण्ठित उज्ज्वल आँखों वाली
राजकुमारी की घेरदार पोशाक का
एक-एक चुन्नट
जिसकी हथेलियों पर बैठा हुआ एक क्रौंच
इस राजकुमारी का नाम मैं रख देती हूँ
सदाको ससाकी.

विश्वप्रसिद्ध इस जापानी विधा का
ज्ञात इतिहास यूँ तो हजार सालों का है लेकिन
सदी भर से
सौन्दर्यशास्त्री गणितज्ञ अकीरा योशीझावा की
ऐन्द्रजालिक इस कला-प्रवीणता का सम्मोहन
दुनियाभर के वैज्ञानिक कलाकारों की
आँखों का तारा बन बैठा
कुछ ऐसे कि गणितीय प्रमेयों-छन्दों से बेखबर
बच्चों की खिलंदड़ी हथेलियों में
हर पीढ़ी सौंपती रही
बेफिक्र-बेहिचक भवसागर तर जाने को
कागज की कश्ती.
उसी कश्ती का कागज
बारह साला सदाको ससाकी के हाथों से उड़ा
शान्तिदूत क्रौंच बन-बन.

सूर्योदय के देश की एक क्यारी
हिरोशिमा में खिली हुई 
दो बरस की बेटी सदाको
सन् पैंतालीस में
जिसकी घेरदार पोशाक के चिथड़े
महानतम वैज्ञानिक उपलब्धि के सदके
आइंस्टीन की नींद की देहरी पर
उड़ते रहे तमाम उम्र...

नफरत के राज और दुनिया पर साम्राज्य की
अदम्य आदिम लिप्सा में
मथे जाते जीवन की फाँस पर लटके
लाखोंलाख दम तोड़ते मनुष्यों की
उखड़ती साँस के मुहाने पर
जिजीविषा की साक्षात् आर्तनाद हुई
ध्यानस्थ बुद्ध हो गई सदाको.
यह सन् पचपन था जब उम्र के अन्तिम छः मास में
गिनती की बची-खुची हर साँस जितने
बनाए उसने क्रौंच.

(पहले कुछ क्रौंच क़यामत के दिन के इन्तजार में अवसादग्रस्त बेचैनी में बस अभी-अभी सोए 
आइंस्टीन की कब्र पर जा बैठे थे और कुछ अवार कवि रसूल* के काँधे पर कि विश्वास गहरा होता गया उनका ‘रक्तरंजित युद्धक्षेत्र में खेत हुए सैनिक भूमि पर नहीं गिरते
वे सफ़ेद क्रौंच बनकर उड़ जाते हैं.’)

शान्ति, प्रेम, सद्भाव और दीर्घायु का प्रतीक
यह वही क्रौंच पक्षी था जिसने 
बहेलिए का बाण खा मारी गयी 
अपनी केलिसखा के विरह में व्याकुल हो
तज दिए थे प्राण
यह उसी की अथाह तड़प थी जिसने
एक खूँखार लुटेरे को न केवल
आदिकवि वाल्मीकि बना दिया बल्कि
विश्व को दिया क्रान्ति का औजार एक नायाब
जिसे कहते हैं काव्य
वह तड़प अभी तक उनकी आँखों में काँप रही है...

जबकि एक क्रौंच युगल आदिकाल में ही
काल-कवलित हो चुका था
इस प्रचलित आस्था में विश्वास रखती रही सदाको
कि उसके बनाए हजारवें क्रौंच के उड़ते ही
उसे मिलेगा दीर्घजीवन का वरदान,
बहाल हो जाएगी शान्ति और
बन्धुत्व की आत्मीय डोर में बँध जाएगी दुनिया.
लेकिन निष्कलुष हृदयों की सत्कामना के चुग्गे पर
पलने वाली शान्ति की सोन-चिरैया को
साँस भी नहीं आई थी कि
छः सौ पैंतालीसवें^ क्रौंच के साथ ही
उड़ चली सदाको के प्राणों की मैना भी...

बचे हुए तीन सौ पचपन क्रौंच 
पूरा कर पाने की जुगत में
दुनिया भर में जहाँ-तहाँ
दत्तचित्त-प्रार्थनारत बैठे हैं
गणित के जादुई सौन्दर्य की इस विधा के
सभी सहृदय उपासक.
*****
(# ओरिगामी: वर्गाकार काग़ज को विविध तरीके से मोड़कर तरह-तरह के आकार-प्रकार की कलात्मक वस्तुएँ बनाने की लोकप्रिय गणितीय जापानी विधा.

* दागिस्तान के मशहूर अवारभाषी कवि रसूल हमज़ातोव. उन्होंने सदाको की मूर्ति देखकर उसकी कथा के आलोक में “क्रौंच” शीर्षक (अवार भाषा में सम्भवतः ‘ज़ुरेवली’) से एक कविता रची जिसे रूसी साहित्य में द्वितीय विश्वयुद्ध विषयक सर्वश्रेष्ठ कविता का दर्जा प्राप्त है.


^ कुछ लोगों का मानना है कि सदाको ने हजार से कुछ ज्यादा ही क्रौंच बना लिए थे। हिरोशिमा पर आण्विक बम विस्फोट के दुष्प्रभाव से जिन निर्दोषों की जानें गई उनमें मासूम सदाको ससाकी ‘हजार क्रौंचों’ की कथा नायिका और विश्व शान्ति का प्रतीक हो गई. ‘हिरोशिमा पीस मेमोरियल पार्क’ और अन्य स्थानों पर स्थापित की गई सुनहरे क्रौंच के साथ उसकी मूर्ति आज भी जापानी जनों/बच्चों द्वारा हज़ारों की संख्या में भेजे गए कागजी क्रौंचों से सजी रहती है.)  






अद्वैत की ज्यामिति


प्रकृति के अमूर्तन का
मूर्तिमान छन्द
गणित!
काव्यमयी सृष्टि की
पुनर्व्याख्या-कला-विधा का
अनूठा व्याकरण है.

सूक्ष्मातिसूक्ष्म से विराटातिविराट
नाप-जोख के कितने-कितने नियम
कैसे-कैसे कायदे
आँकी-बाँकी, सीधी-तिरछी, खुली-मिली
दृश्य-अदृश्य लकीरों,
ठोस-वायवी आकृतियों का सम्मोहक नृत्य
नृत्यरत विशिष्ट अनन्त आकृतियों का
अनवरत उमगना
और विलीन हो जाना शून्याकाश में
फिर-फिर से उमगना...
ब्रह्माण्डीय समुच्चय में
अविच्छिन्न अद्वैत की ज्यामिति.
(टोपोलॉजी जिसे कहता है आधुनिक गणित)

निर्व्याख्येय के प्रति अबूझ प्रीति
जिसकी निर्व्याज व्याख्या कर पाने की
सुव्यवस्थित सुरुचि में
अनहद हो गई सभी हदें...

यह सरल-जटिल भाषा अनुभूति की.
अनुभूति!
जो देवत्व की भाषा थी
किसी सुस्थिर ध्यानस्थ ब्रह्मर्षि की चेतना में
उतर आई थी
हृदय में उछाह से तेज हो गए
धड़कन की धुकधुक सा
बूँद में समुन्द कि समुन्द में बूँद के
उजागर हो गए रहस्य-रोमांच सा...

अनुभूतियों के सबसे सूक्ष्म, सबसे कोमल
कम्पनों को कह पाने को शोधित
हृदय छू लें ऐसे सटीक
शब्द, चित्र और आकृतियाँ
सबसे नायाब खोज हैं संसार की.

अनुभूतियाँ, शब्द, चित्र और आकृतियाँ
अद्वैत हो जाएँ जहाँ, अविच्छिन्न
घटित होती है यह पूरी पद्धति
ज्यामिति की.

  


लीलावती

तुम्हारी नथनी से मोती क्या गिरा
जलघड़ी में ठहर गए समय ने
अपनी दिशा ही बदल ली कि
टल गया मुहूर्त, टल गई शादी.

प्राची में उदीयमान भास्कर के
तेजोमय रविरश्मियों से प्रदीप्त
प्रकाण्ड पण्डित पिता की
वाणी वृथा नहीं हुई
न ही वृथा हुआ प्रण
लीलावती अब गहेगी गणित.

दस बरस की बच्ची के हाथों में
बदल गए खेल-खिलौने.
संख्याएँ हमजोली बनीं
मित्र बनें
कोटि-कोटि आकार-प्रकार
आचार-विचार.

दृश्य से अदृश्य तक
जागृति से स्वप्न तक
शून्य से अनन्त तक
गोते लगाती लीलावती ने
आत्मस्थ कर लिया
पहला शाश्वत पाठ:
हर इकाई होती है स्वयम् सम्पूर्ण!

काव्यमयी प्रकृति के अमूर्त
बीजमन्त्र छन्दों से भूषित भाषा के
अक्षर-अक्षर बाँचती वह
खोलती गई
सूत्रों, प्रमेयों के सभी मर्म.

'वेदांग ज्योतिष का उपांग गणित'
कौन-सी श्रेढ़ी बनेगी?
बताओ तो कन्ये लीलावती...
गणितज्ञ पिता ने प्रश्न उछाला
क्षणभर को सोचती प्रतिप्रश्न करती
उत्तर दिया तेजस्वी बालिका ने:
क्या इसे ज्यामितिक श्रेढ़ी कहना समुचित होगा?...”
पृथ्वी जिसका केन्द्र
आकाश के नैरंतैर्य को समाहित करती
अबूझ-अदृष्ट झिलमिल कुण्डली झलकी
मन्द स्मिति थिरक गई पिता की आँखों में...

पिता और पुत्री के बीच
प्रश्न और उत्तर अपनी जगहें बदलते रहे
और यूँ रचित होते रहे कालजयी ग्रन्थ
बीजगणित, ज्यामिति, त्रिकोणमिति
और रचित होती गई स्वयम् 'लीलावती'...

सहत्राब्दी बीती किन्तु
मेधा और तेज के भरेपूरेपन की साक्षात् अनुकृति
'विज्ञान की रानी' का सिरमौर बनी
आज भी जगमगा रही है लीलावती.


(लीलावती ग्यारहवीं शताब्दी के महान भारतीय गणितज्ञ और ज्योतिषाचार्य भास्कराचार्य की बेटी थी का नाम था और 'लीलावती' नाम से ही उन्होंने गणित की प्रसिद्ध पुस्तक की रचना की.

प्रचलित कथा के अनुसार लीलावती की कुंडली में शादी के लिए कोई शुभ मुहूर्त नहीं था जिसके बिना शादी किए जाने पर लीलावती का जल्द ही विधवा हो जाना तय था. ज्योतिषाचार्य पिता ने कठिन गणनाओं के उपरान्त एक शुभ मुहूर्त खोज ही निकाला और शादी की तैयारियाँ की. शुभ मुहूर्त के सटीक निर्णय के लिए जलघड़ी की व्यवस्था की गई. लेकिन जल-घडी में समय देखने की उत्सुकता में लीलावती के कपड़ों/गहनों से टूटकर कोई मणि गिर गई जिससे जलघड़ी में पानी का भरना रुक गया और शुभ मुहूर्त कब बीत गया, पता ही नहीं चला. अब लीलावती की शादी संभव नहीं थी. तो पिता ने उसे गणित में निष्णात बनाने का निर्णय किया. लीलावती को गणित पढ़ने के क्रम में उन्होंने अंकगणित का जो ग्रन्थ तैयार किया उसका नाम भी 'लीलावती' ही रखा.)




न्यूटन


सागर तट पर
सबसे चिकना पत्थर या
सबसे सुन्दर सीप
खोजने में तल्लीन
विस्मय भरी तुम्हारी अंगुलियाँ
पारे से दंशित हो जाती रहीं ...

जगतजननी की गोद बैठे
रोष भरे बालक!
तुम (प्रकृति के) कैसे शिशु थे ?
वह अपना सारा वैभव, सारे रहस्य
तुमपर करती रही निछावर
और उम्रभर
तुम करते रहे नफ़रत
कि माँ की छाया भर
छू लेने को आकुल
दूरस्थ चर्च के माथे जड़े क्रॉस के
तीन सिरों पर ध्यानस्थ तुम्हारी चेतना
ईश के त्रिविध-त्रिरूप
को गुपचुप धता बताती ही रही...

जैसे किसी उद्धत-उद्दंड खरगोश के बच्चे को
मिल गयी हो शेर की झलक-
सहमे और भयभीत तुम
हठ में या आत्मरक्षा में
जाने किस-किस के विरुद्ध चौतरफा
बेआवाज़ तर्कों के धारदार हथियार भाँजते हुए भी 
पवित्र आदेशों की
कर न सके अवहेलना.
(ईश्वर के प्रति जब-जब
खंडित हुई तुम्हारी आस्था
मानसिक आघातों ने द्वार खटखटाया.)

तुम तन्मय मौन के नीरव एकांत में
उतर गए
तर गए .

धरती के भीतर का दुर्निवार आकर्षण
एक सेव भर के गिरने से
समझ सकने वाले !
अपनी कमवय विधवा माता के
भरे-पूरे स्त्रीत्व का
(किसी अन्य पुरुष के प्रति)
सहज मानवीय उत्कंठित आकर्षण को
आजीवन कैसे रहे नकारते ?
यह जिद्दी दुराग्रह मात्र 
क्या तुम्हारी मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला
के किसी प्रयोग का निकष था?
अँधियारे और उजाले के क्रमिक सह-अस्तित्व की तरह ?!
तुम्हारी सत्यान्वेषी उद्दात कुशाग्रता और
आलोचकों/प्रतिद्वंदियों के प्रति
क्रूर अनुदारता केमेल की तरह(बे) ?!

सत्य के संधान को एकाग्र तुम्हारी
अतिन्द्रिय अंतर्दृष्टि
शाश्वत सर्वज्ञ का तुम्हें दिया गया
अनमोल उपहार था.
सार्वकालिक गणितज्ञ के स्पंदनों से
सीधे जुड़े मनस्वी ब्रह्मर्षि!
तुम्हारी अचूक सूझ
तुम्हारी सतत साधना की
नायाब परिणति थी .
खगोलीय पिंडों के आपसी तनाव
और सप्तरंगी प्रकाश के बीच जारी
अनवरत लुकाछिपी
के अद्वितीय साक्षी !
आधुनिक वैज्ञानिक क्रांति के अग्रदूत !
तुम्हारे भगीरथ प्रयत्नों से
लहालोट हुई धरती की वैज्ञानिक संवेदनाएं
और साकार होने लगी
मनुष्य की अतिरंजित कलपनाएँ

आधुनिक वैज्ञानिक जगत के परम पुरखे!
तुम्हारी उपलब्धिओं से उपकृत
तुम्हारे मस्तिष्क की कीमिया
समझने का प्रयास करती पीढ़ियाँ
तुम्हारी ही अँगुली थामकर चली.

न्यूटन !
हम नमन करते हैं तुम्हारा
और प्रार्थना भी
तुम फिर से उतर आओ पृथिवी पर
प्रकृति के मोद भरे बालक की तरह.
(न्यूटन: प्रसिद्ध वैज्ञानिक)





आवाज़ हो रही है झीनी-झीनी

कलाबाज कलावंत !
तने आलाप पर अनगिन भावमुद्राओं में
थिरकती तुम्हारी आवाज का अचम्भा !
थोड़ी सी ढील देकर स्वर तार का
अचके खींचना
खींच लेना ध्यान.

केन्द्रस्थ सूर्य के गिर्द
जैसे थिरकते हैं ग्रह-नक्षत्र...
अपनी गूंज की धूरी पर
नाजुक कमनीयता के साथ
जैसे घूमता हो कोई रंगीन लट्टू...
या सौ-सौ रंग रंगी तुम्हारी तिलंगी
जटिल उलझी अपने ही रास्ते बुनती
वलयाकार सम्मोहक
गतियाँ अनूठी
कैसी-कैसी पेंचे
कितना नट कौशल
परिशुद्ध सधाव का सधा संतुलन !

चाहे जितना भी चक्कर काटते
कहीं भी घूम आते तुम सम पर ही
ठहरते हो कैसे ?
विकृत विवादी भी सुन्दर होते हैं इतने ?!
तुम्हारी लटाई में कितने आवर्तन हैं गायक ?

"बाकटी उस्ताद !"
कटता है अहम्
गलता है हृदय
अप्रतिम सुख का अन्तराल...

अस्तित्व : हवा के पंखों पर उड़ती
सेमल की रुई
निरभ्र गगनमंडल में ठहरी चौदस  की चांदनी
आवाज हो रही है झीनी-झीनी...

_________________



सुमीता ओझा
गणित विषय में गणित और हिन्दुस्तानी संगीत के अन्तर्सम्बन्धपर शोध. इस शोध पर आधारित पुस्तक जल्द ही प्रकाश्य. पत्रकारिता और जन-सम्पर्क में परास्नातक. मशहूर फिल्म पत्रिका स्टारडस्टमें कुछ समय तक एसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत. बिहार (डुमरांव, बक्सर) के गवई इलाके में जमीनी स्तर पर जुड़ने के लिए कुछ समय तक समाधाननामक दीवार-पत्रिका का सम्पादन.

सम्प्रति अपने शोध से सम्बन्धित अनेकानेक विषयों पर विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों के साथ कार्यशालाओं में भागीदारी और स्वतन्त्र लेखन. वाराणसी में निवास.
मो.: 7390833435/ ईमेल: sumeetauo1@gmail.com

8/Post a Comment/Comments

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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-01-2019) को "मेरा विकास - सबका विकास" (चर्चा अंक-3214) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सदाशिव श्रोत्रिय11 जन॰ 2019, 12:26:00 pm

    किसी कवि की प्रतिभा का सबसे बडा़ प्रमाण उसके सर्वथा नये अनुभवों को कविता के दायरे में ला सकने की उसकी क्षमता है।

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  3. सुमीता जी,
    आपकी लविताएँ काफी अरसे से पढ़ता रहा हूँ।
    आप सचमुच समर्थ और बड़ी कवयित्री हैं।
    अरुण जी, आपका आभार।

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  4. कविता में विज्ञान, विज्ञान में कविता, कविता- विज्ञान दोनों साथ- साथ। प्रकृति में कुछ भी अलग नहीं है, पर आसान नहीं है सब कुछ एक साथ साधना। आप सब में, सब आप में। गज़ब की लेखनी है- प्रणाम करता हूं

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  5. मंजुला बिष्ट12 जन॰ 2019, 7:39:00 am

    डॉ. सुमीता जी!
    आपको आज इस प्रतिष्ठित साहित्यिक मंच पर दुबारा देखकर पुनः गौरान्वित व अभिभूत हूँ!

    आज इन कविताओं में आपने हम पाठकों को भी गणितीय-भाषावली में अनूठा संसार दे दिया है,जो औचक कर रहा है।आपकी विलक्षण प्रतिभा पर मुझे कभी भी संदेह नही था!
    ईश्वर आपको यूँ ही सृजन-पथ पर अग्रसर रखें!नवीन शब्द-संसार के साथ जिस तरह आपकी कविता बात कर रही है वह एक नयी सम्भावना को पुकार रही है!आपको खूब सारी बधाई व असीम शुभकामनाएं, मित्र!

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  6. अरुण देव जी को 'समालोचन' के इस प्रतिष्ठित मंच पर मेरी इन कविताओं को स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद.
    आम तौर पर गणित ही जब जटिल माना जाता है तो इससे सम्बन्धित विषयों को कविता के लिए बरतने में कई तरह की शंकाएं थीं मन में. लेकिन आप सभी के प्रोत्साहित करने वाले शब्दों ने बहुत बल दिया है. आप सभी का बहुत आभार.

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  7. ओरिगेमी केंद्रीय विचार के साथ मध्य में ही पगडंडी बदलती हुई अ द् भु त कथा कविता है।
    मुझे लगा यह कभी खत्म नहीं होगी... अपने अंत को नहीं खोजेगी और जिज्ञासाओं के अनन्त महासमुद्र में डुबी
    कत्तलों का नया वरण करेगी।
    खैर ...इसके मौजूदा और पहले पाठ ने ही बहुत कुछ नया कवि-कर्म में संलग्न आत्मस्थ कवियों को भरपूर दे दिया है।। साधुवाद रचनाकार को ।।
    प्रताप सिंह, वसुन्धरा ।


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  8. और रचित होती गई स्वयं लीलावती.....

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