विजया सिंह की कविताएँ




इधर किसी अत्यंत प्रतिभाशाली कवयित्री विजया सिंह की कुछ आश्चर्यजनक अनूठी कविताएँ आपने अपने मिलते-जुलते नाम विजया सिंह से छपा ली हैं. इस कृत्य की यूँ तो निंदा की जानी चाहिए थी किन्तु उसे ऐसी  हाथ की सफ़ाई से ही सही किन्तु प्रकाश में लाने के लिए आपकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है.

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विष्णु खरे 
The Baffled Hercule Poirot
(समालोचन पर पहली बार विजया सिंह की कविताएँ प्रकाशित होने पर विष्णु जी का विनोद,दिसम्बर -२०१३)






विजया सिंह की कविताएँ             




दफ़्तर का ताला

पिछले पांच सालों से मेरे दफ्तर का ताला नहीं बदला
पर आज भी हमारा स्पर्श एक दूसरे के लिये अजनबी है
हमेशा, वो मुझसे मुँह टेड़ा करके ही मुख़ातिब होता है
उसका अर्ध-चंद्राकार मुँह कभी दायें, कभी बायें, कभी ऊपर घूमा मिलता है
जब तक कन्धे पर लटका बैग खिसक कर कोहनी तक न आ जाये
बगल में दबी क़िताब
और हाथ से टिफ़िन न गिर पड़े
उसका मुँह सीधा नहीं होता
मजाल है कभी एक बार में चाबी घुस जाये
जाते वक्त मैं उसे ठीक-ठाक ही छोड़ कर जाती हूँ
पता नहीं रात में कौन से सपने उसे बेचैन किये रहते हैं
कि सुबह उसका मूड बिगड़ा ही मिलता है
न दुआ, न सलाम, बस अकड़ा हुआ
कि आज नहीं खुलूँगा
लाख समझाया उसे
तुम अलीबाबा की गुफा की पहरेदारी नहीं कर रहे
और न ही हम खेल रहे हैं शिनाख्ती लफ़्जों का कोई प्यारा सा खेल
तुम हैरिसन के मामूली से स्टील के ताले हो
जिसे मैंने परचून की दुकान से पचास रूपए में ख़रीदा है
तुम्हारे साथ तीन चाबियाँ आयीं हैं, हूर की परियां नहीं
एक बार तो उसने मुझे पूरे दो घंटे बाहर बैठाये रखा
हथोड़ा देख घबराया
और चोट लगे इससे पहले ही खुल गया
अब फिर लुका-छिपी का खेल जारी है
कुल मिला कर  बात यह है कि बात बन नहीं रही
बन पहले भी नहीं रही थी
पर अब तो बिलकुल ही नहीं बन रही
दरअसल सच तो यह है
कि वह ताला न होकर कुछ और होना चाहता है
मैंने जबरन उसे दफ़्तर के दरवाज़े पर रोका हुआ है
उसके सपने उसकी सच्चाई से मेल नहीं खाते.




दफ़्तर

दफ़्तर का दरवाज़ा बिना धक्के के नहीं खुलता
और न बंद ही होता है
बरसात में तो उसका कराहना सहा नहीं जाता
लगता है जैसे बरसों का साइटिका का दर्द उभर आया हो
मॉनसून में इतना पानी सोख लेता है
कि चमड़ी हाथ में रह जाये
पर्दों का रंग किसी भी चीज़ से मेल नहीं खाता 
भारी-भरकम, शांत एक कोने में दुबके रहते हैं
न दार्शनिक, न वाचाल 
बस दिन-रात धूल जुटाते हैं
दो पंखे हैं जिनमें से सिर्फ एक चलता है
दूसरा दीवार पर टंगा लगातार मुझे देखता रहता है
अब तक मुझे उससे प्यार हो जाना चाहिए था
पर उसकी निष्क्रियता आड़े आती है
उसका एक पंख भी अब तक मेरे लिये नहीं हिला
अलमारी में रखी किताबें बाहर आने उम्मीद खो चुकी हैं
और इस कदर पीछे धकेली जा चुकी हैं
कि सामूहिक अवचेतन का हिस्सा बनकर
कॉलेज के सपनों में घुसने का प्रयास करती रहती हैं
जिस अलमारी में वे रखी हैं
उसका एक पलड़ा इस कदर जकड़ा है कि सिर्फ चौथाई खुलता है
गर्दन को एक विशेष कोण पर घुमा कर ही उसके भीतर झाँका जा सकता है
मुझसे पहले जिस किसी के हिस्से वह अलमारी थी
उसने वहां एक शीशा रख छोड़ा है
जिसका प्लास्टिक फ्रेम किसी रासायनिक प्रक्रिया के तहत
अलमारी की दीवार से ऐसे सहम के चिपका है
जैसे बन्दर का बच्चा माँ के पेट से
वहां से वह क्या देख पाता होगा यह तो पता नहीं
पर कभी शीशा सहमा लगता है, तो कभी शक्लें
यह कहना भी मुश्किल है
कि इस छोटे से शहर के इस छोटे से सरकारी कोने में
कौन कब शीशा है, और कौन कब, कब सहमा है.





ख़रगोश  या पत्थर

ख़रगोश, सफ़ेद पत्थर हो गए
या सफ़ेद पत्थर ही ख़रगोश थे ?
माँ की देह
खरगोश थी या पत्थर ?
किस धातु की गंध आती थी उसके पोरों से ?
क्या पिघला लोहा ?
कौन सा फल था जिसे वह बेहद पसंद करती थी?
तरबूज शायद ?
क्योंकि, वह विस्मयकारी नहीं था ?
उसका हरा रंग और असंख्य बीज सामान्य थे
सुदूर नहीं, पास की नदी के तट पर उपजा
लम्बी यात्राओं से न थकने वाला
रस से भरपूर
चार बच्चों की ऊष्मा के लिये पर्याप्त ठंड़ा 
कौन सा व्यंजन था जिसे वह सप्ताह के अंत में बनाती थी?
सांभर -इडली ?
सांभर-थकी सब्जियों का बोझ ले सकता था
और खमीर के रहस्य से उपजी इडली
कोई रोमांच जरूर भरती होगी उसके थके क़दमों में
पिता के पीछे
असम, अरुणाचल, नागालैंड, पठानकोट
ढ़ेर सारे सामान और बच्चों के साथ रेल में
खिड़की से बाहर झांकते
तीसरी कसम की वहीदा रेहमान
छूटती जाती थी
गाँव, खलिहान, मेलों
और अपने आप से.




आधी रात की दो कविताएँ

(एक).

साल की तेरह रातें
जब पूर्णमासी का चाँद बढ़ता है
तो घटता है मेरे अंदर का आकाश
कम से कम इन तेरह दिनों के मेरे गुनाह माफ़ हों
इन दिनों में अपने आप से कुछ कम, कमतर होती जाती हूँ
कि मैं ज्यादा रोती हूँ
ज्यादा महसूस करती हूँ
हर तिरस्कार मुझे माँ का दिया देशनिकाला लगता है
दूसरे स्थान की नियति मैंने नहीं, चन्द्रमा ने मुझे प्रस्तुत की
जन्म ही से तय कीं उसने मेरी खारे पानी की डुबकियां
और यह भी कि सब सच उलटे लटक जायेंगे
मैं कभी समझ नहीं पाऊँगी
सच और झूठ का अधूरापन
चन्द्रमा का इतिहास धरती की बेरुखी का बयान ही तो है
पास आने की उम्मीद में घटता-बढ़ता, गायब होता
वह कहीं नहीं पहुँचता
यह कौन कह सकता है.



(दो)
जहाँ हम सबसे कोमल हैं
ठीक वहीँ चुभेंगीं कीलें
हमारे नर्म तलुवों पर
कि हम न चल पाएंगे न ठहर
भीतर ही भीतर जलेगा
अहम् के साथ बहुत कुछ
यह जानेंगें हम
कि नाकाफी हैं हमारी उपलब्धियाँ
हमारी रोमांचित करने वाली कहानियाँ
महंगें कपड़े, जूते और घड़ियाँ
किताबों से भरी अलमारियाँ
फूलों से लदी क्यारियाँ
टेक्नोलॉजी के उपकरण
और वे तमाम चीज़ें
जिनका वैभव जलाता है हमारे पड़ोसियों को
हमारा मनोहारी चेहरा, हमारी ज़हीन बातें
नहीं बचा पाएंगे ये सब हमें दूसरे की कठोरता से.
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(विजया सिंह की कविताएँ यहाँ और यहाँ भी पढ़ें.)

विजया सिंह चंडीगढ़ में अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं और फ़िल्मों में रुचि रखती हैं. उनकी किताब  Level Crossing: Railway Journeys in Hindi Cinema, हाल ही में Orient Blackswan (2017) से प्रकाशित हुई है. उन्होंने दो लघु फ़िल्मों का निर्देशन भी किया है:  Unscheduled Arrivals (2015) और अंधेरे में (2016).
singhvijaya.singh@gmail.com

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  1. अपने परिवेश और स्‍मृतियों से बने बरसों के रिश्‍ते को एक नये कोण से देखने और उससे उपजती विडंबनाओ को विस्‍मय से देखने की अनूठी काव्‍य-संवेदना वाकई इन कविताओं को सामान्‍य मुहावरे से अलग करती हैं। बधाई विजया को ।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-11-2018) को "भारत विभाजन का उद्देश्य क्या था" (चर्चा अंक-3157) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सभी कविताएँ बहुत अच्छी हैं. अंतिम कविता उत्कृष्ट.

    मोनिका कुमार

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  4. अप्रत्याशित की खोज करती, ढर्रे से अलग, मामूली में विस्मय, सार्वजनिक में निजता और औसत में विलक्षण देखती कविताएं!

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  5. सच कहूँ तो विजया सिंह को पहली बार पढ़ा पर पहली बार पढ़ कर विश्वास नहीं हुआ कि पहली बार ही पढ़ रहा हूँ - अपने क एक्सपोज़र और अज्ञान पर कोफ़्त हुई। "दफ़्तर का ताला" मैं बार बार पढता रहा ,हर बार नए सन्दर्भ और अर्थ खुलते गए - इस मामूली विषय पर भी इतनी गंभीर कविता लिखी जा सकती है भरोसा करना मुश्किल था।
    दरअसल सच तो यह है
    कि वह ताला न होकर कुछ और होना चाहता है
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    उसके सपने उसकी सच्चाई से मेल नहीं खाते.

    जैसे मामूली सा ताला न हुआ पूरी पीढ़ी का प्रतिनिधि बन बैठा।

    विजया जी को अशेष बधाइयाँ और समालोचन का आभार दिमाग का ताला खोलने के लिए हथौड़ा दिखाने के लिए ...

    यादवेन्द्र / पटना

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  6. बहुत सुंदर कविताएॅँ।

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  7. ज़बरदस्त और सटीक बिल्कुल विजया की तरह

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