(फोटो : Santosh Verma : Romancing the Rains)
विजया सिंह की कुछ कविताएँ लगभग तीन वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थीं, आज उनकी कुछ
नई कविताओं के साथ समालोचन फिर उपस्थित
है.
पहली कविता ईरानी युवती रेहाना ज़ब्बारी के लिए है जो हत्या (बलात्कार से बचने के लिए) के अभियोग में ७
साल तक कैद में रखी गयीं और फिर उन्हें
फांसी दे दी गयी थी.
रेहाना ने माँ को एक चिट्टी लिखी जो रेहाना की वसीयत के नाम से आज ज़िन्दा दस्तावेज़ है.
दूसरी कविता ‘फैमिली एल्बम’ भी एक तरह से इसी कविता का विस्तार है. परिवार
के अंदर आदमकद स्त्री को रेखांकित करती हुई.
शेष कविताओं में भी कथ्य का यह नुकीलापन मौजूद है.
भाषा, शिल्प और कथ्य में ताज़गी है.
विजया सिंह की कविताएँ
1.
वो तराशे नाखुनों वाली सुन्दर लड़की
(रेहाना ज़ब्बारी की
लिये)
रेहाना, कितनी सच्चाई
से तुमने कह दिया
“औरत होने के सबक मेरे
काम नहीं आये”
और यह भी कि “इस ज़माने
में खुबसूरती की कोई कद्र नहीं”
तराशे नाखुनों की खुबसूरती
सिपहसलार बरदाश्त नहीं कर सकते
उन्हें तराशी हुई हर
चीज से डर लगता है
तराशा हुआ सच,
फलसफ़ा,
भावों की कोमलता, आँखों
का तेज, खुले में लिया चुम्बन
सब उन्हें डराते हैं
रेहाना, तुम्हारे पक्ष
में कुछ भी नहीं था
न तुम्हारा यौवन, न
तुम्हारा भोलापन, न तुम्हारी ईमानदारी
कितना संकरा था
तुम्हारा सुरक्षा का घेरा:
तुम्हारी माँ की
दुआएं
और तुम्हारे पिता के
शब्द:
तुम एक कुर्द हो, शेर
की तरह बहादुर
तुम्हारे हाथों को माँ
को छूने से रोकती कांच की दीवार
और गौहरदश्त की वे तमाम
बदनसीब औरतें
जिनके जिस्म चाबुकों से
छलनी और रूहें सहमी हुईं
तय्यबा, शैला, सुहैला,
ज़ैहरा, शीरीन
जिनके नाम तक लोग भूल
गए
जिनकी संताने यतीमखानों
में भेज दीं गईं
और तुम रेहाना
कभी कालकोठरी के घुप्प
अँधेरे में
कभी प्रतिदीप्त रूखे
उजाले में
उनींदी, माँ को पुकारती
तुम्हें उम्मीद थी
न्याय की
अपने घर और कॉलेज लौट
जाने की
अपनी जिन्दगी को फिर
वंही से शुरू करने की
जहाँ हाथ से छिटक कर वो
इविन काराग्रह में आ पड़ी थी
जब तुम मात्र १९ साल की
थीं
कभी सिर्फ एक पल काफी
होता है
छलावों, मुखोटों और
रूमानियत भरे ख्यालों
से परे राष्ट्र की असीम
हिंसा और बर्बरता को उजागर करने में
उस धरातल से कौन लौट
पाता है?
रेहाना, तुम्हारे लिये
कहीं कोई योगमाया नहीं थी
जिससे तुम्हें
अदला-बदला जाता
तुम्हें तो खुद अपने
लिये फ़ना होना था
पल भर को चमकना था
और गायब हो जाना था.
(गौहरदश्त: ईरान में एक
कारागृह.
तय्यबा, शैला, सुहैला,
ज़ैहरा, शीरीन: रेहाना जब्बारी के अपनी माँ को लिखे पत्रों में इन महिलाओं का जिक्र
आता है.)
2
फैमिली एल्बम
यह बांका नौजवान, यह लाज की मारी
भोली दुल्हन-
ये मेरे माता-पिता हैं
क्या हमारे मात-पिता अपनी ज़वानी के दिनों में
इतने खुबसूरत थे ?
ब्रिलक्रीम से पीछे की और करीने से काढ़े बाल
उनकी आँखे जो हलके विस्मय और बहुत सारे
विश्वास से संसार को देख रही हैं
क्या वो देख पा रहे हैं अपने और हमारे
भविष्य को?
क्या उन्हें अंदाज़ा है कि उनकी बेटियां
कितनी जिद्दी होंगी
और उनके बेटे कितने भावुक और अव्यावहारिक ?
उनकी आँखें जो मेरी आँखें हैं
क्या मेरे नज़र घुमा के पीछे देखने से
लौट पाएंगे वे क्षण
जब विस्मय और विश्वास इस तरह से गडमड थे
कि एक की सीमा दूसरे
के क्षितिज से आरंभ होती थी?
क्या मुझे उन्हें बता देना चाहिए, कि पिताजी
आप जो इतने हलके हाथों से मेरी दो माह की बहिन को थामे
हैं
मेरी माँ जो बेल-बॉटम और कुरता -जो ख़ास तौर पर
शायद फोटो ही के लिए सिलवाये थे - पहने खड़ी हैं
और सामने, बिलकुल सामने
देख रहीं हैं
और मैं, जो आप दोनों के बीच रखे स्टूल पर खड़ी उदंडता और मासूमियत से मुस्कुरा रही हूँ,
आप नहीं जानते ये दुनिया कितनी जल्दी
शालीनता खोने वाली है
हवा कितनी प्रदूषित हो जाएगी, और नदियाँ कितनी मैली
आप नहीं जानते
कि वहां, जहाँ आप खड़े
हैं
काले गॉगल्स पहने, हाथ में स्की
थामे,
सरहद की चौकसी में, चुंधियाती बर्फ
के पहाड़ पर,
वहां से बहुत जल्द पानी के स्त्रोत विलीन
होने वाले हैं
ग्लेशियर हिमालय की चोटियों पर नहीं
नीचे बंगाल की खाड़ी में पिघलते नज़र
आंयेंगे
और माँ, तुम तो बिलकुल ही भोली हो
तुम नहीं जानती कैसे एक दिन
तुम्हारी बेटियां तुम्हारे खिलाफ बगावत में खड़ी
होंगी
समझते हुए भी नहीं समझ पाएंगी
तुम्हारी अपने प्रति कठोर तपस्या को.
3
जन्मभूमिश्च...
क से कबूतर और ट से
टमाटर
से परे ज़ से ज़न्नत
की और से मुंह फेरे
मथुरा से थोडा आगे
एक जंक्शन
जहाँ ट्रेनें रूकती
तो सब हैं
पर उतरते थोड़े ही
लोग हैं
कल्पना और
भावुकता
की हर कोशिश के
बावज़ूद
कुछ और नहीं बन
पाया
जैसा था वैसा ही
रहा
जबकि हम दुनिया के
सात चक्कर लगा के लौट आये हैं
हर बार रेल से उतरते हुए यही सोचा
अब की बार कोई
चमत्कार जरुर होगा
आँखे खुली रह
जाएँगी और मुंह ‘ओ’ की मुद्रा में
आसमान के किसी
किनारे
किशोरपन का कोई
साथी
मोटरसाइकिल की
फर्राटेदार आवाज़ से अपने आने की घोषणा करेगा
और हम जब आँख उठाके
उसे देखेंगे तो पाएंगे
अभी भी देर नहीं
हुई है
अजमेर जाने वाली
ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर २ पर खडी है
और उसे पकड़ा जा
सकता है
कि चम्बल का पानी
अब भी पन्ने सा गहरा हरा है
और ऊँची चट्टानों
के बीच से होकर गुज़रता है
जहाँ कभी पुल बनाते
हुए सौ मजदूर बह गए थे
उनके घरवाले आज भी
याद करके दिखाते हैं इशारे से वो जगह
जहाँ चम्बल की
गहराई और उनके दिल की खाली जगह एक हो गए
नहीं कह सकते
कहाँ चम्बल का हरा
समाप्त होता है और दिल का लाल शुरू
इन प्राथमिक रंगों
की बैंगनी उपज
वहाँ उन चट्टानों
और दिल की परती ज़मीन पर अब भी अंकित है
कोई है जो कविता
में आते- आते हर बार रह जाता है
जबकि नहरें मरुस्थल
तक पहुँच गयी हैं
हम कभी नहीं जान
पाएंगे वो कौन सा धरातल है
जहाँ पांव पड़ते ही
हमें पहचान लिया जायेगा
और हमसे यह उम्मीद
नहीं होगी
कि हम अपने आप को
खाली कर दें
और कोई गुलाब,
चंपा, या हरसिंगार हो जाएँ
हमारी निष्ठा तो
बुरांश के बेअदब लाल फूल की और है
जो जंगल में आग की
तरह फैलता है
और शराब के
कारखानों में दो पाटों के बीच पिसता है.
4.
मुझे तलाश है उस
कारीगर की
जिसने यहाँ इस दो
बित्ते के बाग़ में
यह आलिशान फ़वारा
कायम किया
जिसमें रुहफ्जा,
खस, और नारंगी के शर्बत
धरती के
गुरुत्वाकर्षण को धत्ता बताते हुए
पूरी ताकत से आकाश
की और उठते हैं
और गिरते हैं धडाम
से
अपनी ही बग़ावत से
विसमित
बच्चे टकटकी लगाये
इन शर्बतों को मुंह में झेलने को तैयार खड़े हैं
पर माओं ने कस कर
थाम रखे हैं वे हाथ
जो पानी के छुते ही
गलफड़ों में बदल जायेंगे
सिर्फ देखने भर से
उनकी आँखों में तैरने लगी हैं सोन मछरियां
वहाँ उस छोटी तलैया
में
जो सजी है नीली और
सफ़ेद चौकोर गोटियों से
और शायद इस्तानबुल
की नीली मस्जिद के तहख़ाने से लायीं गई हैं
मुंह-अँधेरे समरकंद
के रास्ते
कौन है वो कलाकार
जिसने रंगों का इतना बारीक अध्यन किया है
जो जानता है कि
नीला रंग समंदर से ज्यादा गहरा है
और हमारी चेतना के
सबसे गहरे कोष में थपकी देता है.
5.
यह संभव है कि एक दिन
यूँ ही चलते चलते
आप उस बाग़ में पहुँच
जाएँ
जो आपके घर से बस एक
कोस की दूरी पर हो
जहाँ से आप अनेकों बार
गुजरे हों, पर कभी रुके न हों
एक दिन यूँ ही अपने
क़दमों को रोकें नहीं
और वहाँ पहुँच
जाएँ
जहाँ बहुत कुछ वैसा है
जैसा आप के मन को भाता है
पेड़ ऊँचे हैं, लदे हैं
घने मखमली पत्तों से,
अनजान, भीनी खुशबु आप
को छू कर निकल जाती है
और आप रेशमी दुपट्टों
सी सरसराहट ढूंढते रह जाते हैं
घास की खाल वाला
ड़ायनासौर, एक सींग वाला राइनो,
जंगली सूअर, लम्बी
गर्दन वाला जिराफ,
आप की और अपार निराशा
से पीठ किये हुए
धरती की तह में कुछ
ढूंडते हुए
दिन-प्रतिदिन मोटे होते
जा रहे हैं
कुछ वहाँ है, कि वो सिर
उठा कर नहीं देखते
धरती से उठने वाली हर
महक को वे बेहिसाब पिये जा रहे हैं
एक जंगली सूअर के मुड़े
हुए कान के पास एक चटक फूल
किसी गहरे रहस्य की तरह
धीरे-धीरे खिल रहा है.
6
पेडागोगी ऑफ़ लव
वस्तुतः उस कलाकार की तलाश है
जो समझाए हमें हमारे होने का मतलब
शर्त यह भी है कि वो खुद जानता हो
अपने होने के मायने
जानता हो कि आकर्षण के रहस्य गूढ़ हैं
और जिद्द न करे उन्हें समझने की
यह सब इस तरह होना चाहिए
कि सहज लगे अपना और उसका सुन्दर होना
यूँ भी होना चाहिए कि उसे देखने भर से
कलेज़ा धमक कर मुहं में न आ जाये
और बोलती बंद हो जाये
ज़रूरी है मुहं में जुबान का होना
धीरे–धीरे खुलने चाहियें अंतरंगता के पन्ने
जैसे समुंदरी फूलों पर वसंत आता है चुपचाप
धरती से अनजान
कुछ मध्यम, कुछ तरल, कोई आकाश तत्व
विस्तार को मचलता हो आपके और उसके बीच
जैसे बादल पानी- पानी हो जाता है
सर्द से गर्म तल की और बढ़ते हुए.
__________
विजया
सिंह
राजस्थान विश्वविधालय से अंग्रेजी में एम-फिल, पी.एचडी
सम्प्रति: अंग्रेजी विभाग
रीजनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंग्लिश, सेक्टर ३२ c, चंडीगढ़
रीजनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंग्लिश, सेक्टर ३२ c, चंडीगढ़
मोबाइल: ७५०८२७८७११
ब्रिल क्रीम !!!! इस शब्द ने काल का एक खोया टुकडा सामने ला खडा कर दिया । मुझे याद है कॉलेज के दिनो में मेरे भाई साहब इस क्रीम का प्रयोग करते थे । और किसी और को हाथ लगाने न देते थे ।
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है इस कवि को मैंने कहीं सुना है । क्या चंडीगढ़ में ?
दृश्यात्मक विवरणों से भरी इन कविताओं से गुजरना अच्छा लगा। 'वो तराशे नाखुनों वाली सुन्दर लड़की', 'फैमिली एल्बम' और 'पेडागोगी ऑफ़ लव' कवितायें ज्यादा पसंद आयीं। 'ओर' की जगह 'और' कई बार खटका। विजया को बधाई।
जवाब देंहटाएं-राहुल राजेश, कोलकाता ।
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जवाब देंहटाएंBhai , achchhi kavitayen... Vijay ji ko Haardik Shubhkaamnayen!!
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